यज्ञ की वेदी पर पाखण्ड के पाँव – धर्मवीर

यज्ञ की वेदी पर पाखण्ड के पाँव
– धर्मवीर
प्रस्तुत सपादकीय प्रो. धर्मवीर जी ने आकस्मिक निधन से पूर्व लिखा था। इसे यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है।
-सम्पादक गत दिनों एक संस्था की यज्ञशाला देखने का अवसर मिला। यज्ञशाला भव्य और सुन्दर बनी हुई देखकर अच्छा लगा। प्रतिदिन यज्ञ होता है, यह जानकर प्रसन्नता होनी स्वाभाविक है।
यज्ञशाला देखने पर दो बातों की यज्ञ से संगति बैठती नहीं दिखी। संस्था प्रमुख उस समय संस्था में थे नहीं, अतः मन में उठे प्रश्न अनुत्तरित ही रहे। पहली बात यज्ञशाला के बाहर और सब बातों के साथ-साथ एक सूचना पर भी दृष्टि गई, उसमें लिखा था- ‘आप यज्ञ नहीं कर सकते, न करें, आप यज्ञ के निमित्त राशि उक्त संस्था को भेज दें। आपको यज्ञ का फल मिल जायेगा।’
दूसरी बात ने और अधिक चौंकाने का काम किया, वह बात थी कि वहाँ जो रिकॉर्ड बज रहा था, उस पर वेद मन्त्रों की ध्वनि आ रही थी, प्रत्येक मन्त्र के अन्त में स्वाहा बोला जा रहा था। एक व्यक्ति यज्ञ-कुण्ड के पास आसन पर बैठकर घृत की आहुतियाँ दे रहा था। इस क्रम को देखकर विचार आया कि मन्त्र-पाठ का विकल्प तो मिल गया, मन्त्रों को रिकॉर्ड करके बजा लिया पर अभी आहुति डालने वाले का विकल्प काम में नहीं लिया। यदि वह भी ले लिया जाय तो यज्ञ का लाभ भी मिल जायेगा और उस कार्य में लगने वाले समय को अन्यत्र इच्छित कार्य में लगाने का अवसर भी मिल जायेगा। मेरे साथ संयोग से सार्वदेशिक सभा के मन्त्री प्रकाश आर्य भी थे। मैंने उनसे इस विषय पर प्रश्न किया और उनकी समति जाननी चाही, तो वे केवल मुस्कुरा दिये और कहने लगे- मैं क्या बताऊँ।
इसके बाद इस बात की चर्चा तो बहुत हुई, परन्तु अधिकारी व संस्था-प्रमुख व्यक्ति से संवाद नहीं हो सका। संयोग से कुछ दिन पहले उस संस्था के प्रमुख से साक्षात्कार हुआ, सार्वजनिक मञ्च से मुझे उनसे अपनी शंकाओं का समाधान करने का अवसर मिल गया। जब मैंने दोनों बातें उनके सामने रखकर इसका अभिप्राय जानना चाहा तो उन्होंने अपने चालीस मिनट में इसका उत्तर इस प्रकार दिया। उन्होंने कहा- हमने कभी यह नहीं कहा और न ही कभी हमारा मन्तव्य ऐसा रहा कि हमारा यज्ञ किसी के व्यक्तिगत यज्ञ का विकल्प है। हमारे यज्ञ में सहयोग करने वाले व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से यज्ञ करने का लाभ तो नहीं मिलेगा। परन्तु उसके धन की सहायता से जिस घृत और सामग्री से हमारे यहाँ यज्ञ किया जा रहा है, उस सद्कर्म के पुण्य का लाभ उस व्यक्ति को भी मिलेगा। इसमें आपत्तिजनक कोई भी बात नहीं।
पहली बात व्यक्तिगत रूप से घर पर किया गया यज्ञ करने वाले के घर की परिस्थिति और वातावरण की शुद्धि का कारण होता है, वह दूर देश में जाकर करने पर घर की पवित्रता का कारण नहीं बन सकता। दूसरी बात यज्ञ केवल पर्यावरण शुद्धि का स्थूल कार्य मात्र नहीं है, यह मनुष्य के लिये उपासना का भी आधार है। इससे वेद-मन्त्रों के पाठ, विद्वानों के सत्संग और यज्ञ में किये जाने वाले स्वाध्याय से परमात्मा की उपासना भी होती है। यज्ञ का यह लाभ दूसरे के द्वारा तथा दूर देश में किये जाने पर केवल धन देने वाले यज्ञकर्त्ता या यजमान को प्राप्त नहीं हो सकता। किसी भी शुभ कार्य के लिये किसी के द्वारा दिये सहयोग, दान का पुण्य दाता को अवश्य प्राप्त होगा, क्योंकि वह उस दान का वह कर्त्ता है।
जहाँ तक दूसरे प्रश्न की बात है कि मन्त्र को रिकॉर्ड पर बजाकर आहुति देने से यज्ञ सपन्न होता है। उनका यह कहना ठीक है कि इतने विद्वान् या वेदपाठी कहाँ से लायें, जो पूरे दिन मन्त्र-पाठ कर सकें? रिकॉर्ड पर मन्त्र चलाकर अपने को तो समझा सकते हैं, परन्तु यह अध्यापक या विद्वान् का विकल्प नहीं हो सकता। संसार की सारी वस्तुयें साधन बन सकती हैं, परन्तु कर्त्ता का मूल कार्य तो मनुष्य को ही करना पड़ता है। सभवतः आचार्य के उत्तर से सन्तुष्ट हुआ जा सकता था, परन्तु संस्था की ओर से जो लिखित स्पष्टीकरण प्राप्त हुआ, वह मौािक स्पष्टीकरण से नितान्त विपरीत है।
स्पष्टीकरण में शास्त्रों की पंक्तियाँ उद्धृत करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि यज्ञ के लिये दान देने वाले को यज्ञ का फल मिलता है, प्रमाण के रूप में मनुस्मृति के ‘‘अनुमन्ता…….’’, योग-दर्शन के ‘‘वितर्का हिंसादय……’’ आदि कई प्रमाण दिये गये हैं। वे शायद ये भूल जाते हैं कि संसार की किन्हीं भी दो अलग-अलग क्रियाओं का फल एक जैसा नहीं हो सकता। दान करने वाले व्यक्ति को दान का फल मिलेगा,ये भी हो सकता है कि अन्य कार्यों के लिये दान करने की अपेक्षा यज्ञ हेतु दान करने का फल अधिक अच्छा हो पर फल तो दान का ही होगा। दरअसल जब हम यज्ञ का फल केवल वातावरण की शुद्धि-मात्र ही समझ लेते हैं, तब इस तरह के तर्क मन में उभरने लगते हैं, और जब कहीं के भी वातावरण की शुद्धि को यज्ञ का फल मान बैठें तो तर्क और अधिक प्रबल दिखाई देने लगते हैं।
ऋषि दयानन्द ने जिस दृष्टि से यज्ञ का विधान किया है, वह अन्यों सेािन्न है। उन्होंने यज्ञ का विधान भौतिक शुद्धि के साथ-साथ अध्यात्म और वेद-मन्त्रों की रक्षा के लिये भी किया है, साथ ही केवल एक ही जगह और कुछ एक व्यक्तियों के द्वारा ही यज्ञ किये जाने से यज्ञ का भौतिक फल एक ही स्थान पर होगा। यदि इन्हीं सब सीमित परिणामों को यज्ञ का फल मान रहे हैं तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है।
एक और तर्क ये दिया गया है कि संस्कार विधि में ऋषि दयानन्द ने पति-पत्नी के एक साथ उपस्थित न होने पर किसी एक के द्वारा ही दोनों की ओर से आहुति देने का विधान किया है, इससे सिद्ध होता है कि एक दूसरे के लिये यज्ञ किया जा सकता है। ऋषि दयानन्द ने ये विधान केवल इसलिये किया है, जिससे कि यज्ञ की परपरा बनी रहे, न कि कर्मफल की व्यवस्था को परिवर्तित करने के लिये। एक और तर्क ये कि यदि कोई व्यक्ति भण्डारा, ऋषि लंगर आदि की व्यवस्था करता है, तो उसका फल दानी व्यक्ति को ही मिलना है, पकाने या परोसने वाले को नहीं। यहां पर ये महानुााव अपने ही तर्क ‘‘अनुमन्ता विशसिता………’’ का खण्डन कर गये, जिसमें उन्होंने कहा था कि हिंसा का अपराध माँस बेचने, खरीदने, सलाह देने वाले आदि सभी व्यक्ति द्वारा होता है। एक और तर्क सुनिये- राजा समयाभाव के कारण अपने माता-पिता की सेवा भृत्यों से कराता है। ऋषि दयानन्द व मनु के अनुसार राजा स्वयं राजकार्य में रहकर अग्निहोत्र व पक्षेष्टि आदि के लिये पुरोहित व ऋत्विज् को नियुक्त करे।
ऐसे कई उदाहरण दिये गये हैं, और अन्य भी दिये जा सकते हैं, पर इन सभी उदाहरणों में एक सामान्य सी बात ये है कि सभी जगह अति-आपात् की स्थिति या अन्य बड़ा दायित्व होने की स्थिति में अन्यों से यज्ञादि कराने का विकल्प है, वह भी तब, जबकि व्यक्ति मन में ईश्वर के प्रति आस्था, अध्यात्म, वेद की रक्षा के प्रति पूर्ण निष्ठा रखता हो और किसी अति-अनिवार्यता के कारण से यज्ञादि कार्य में असमर्थ हो। इस परिस्थिति में जिनको नियुक्त किया जाता है वे वेतन, पारिश्रमिक आदि लेकर कार्य करते हैं। यदि दान लेकर दाता के नाम से यज्ञ कराने वाले भी यज्ञ करने का पारिश्रमिक लेते हैं, और दानदाता वास्तव में यज्ञ, वेद, ईश्वर, अध्यात्म के प्रति पूर्ण निष्ठावान् रहते हुये भी यज्ञ करने में पूर्ण अक्षम है तो शायद बात कुछ मानी जा सके, लेकिन उतने पर भी वायु तो वहाँ की ही शुद्ध होगी, जहाँ यज्ञ हो रहा है, वेद-मन्त्र तो उसे ही स्मरण होंगे जो कि मन्त्र बोल रहा है। ईश्वर व अध्यात्म में अधिक गति तो उसकी होगी जो आहुति दे रहा है।
इतने पर भी आप यदि अपनी बात को सैद्धान्तिक और सत्य मानना चाहें तो मानें, परन्तु यह अवश्य स्मरण रखना होगा कि ऋषि दयानन्द ने जिन अन्धविश्वासों का खण्डन किया था, वह सब मिथ्या और व्यर्थ सिद्ध हो जायेगा। एक बार सोनीपत आर्यसमाज के उत्सव पर वहाँ के कर्मठ कार्यकर्त्ता सत्यपाल आर्य जी ने अपने जीवन की घटना सुनाई, उन्होंने बताया कि लोकनाथ तर्क-वाचस्पति उन्हीं के गाँव के थे, वे स्वतन्त्रता संग्राम में आन्दोलन करके जेल गये। उस धरपकड़ में उनके गाँव का पौराणिक पण्डित भी धर लिया गया। जेल में तो वह रहा, परन्तु छूटते समय लोकनाथ जी से बोला, इतने दिनों में तुमने कुछ कमाई की या नहीं? लोकनाथ जी बोले- जेल में कैसी कमाई करेंगे? तो पण्डित ने कहा- मैंने तो इन दिनों अपने सेठों के नाम पर इतना जप किया है, जाते ही पैसे ले लूंगा। तब आप क्या करेंगे?
सारे पौराणिक पण्डित यही तो करते हैं। इनको जो लोग दान देंगे, तो क्या पण्डित जी के कार्य का पुण्य फल उन भक्तों को नहीं मिलेगा? फिर ईसाई लोग स्वर्ग की हुण्डी लेते थे, तो क्या बुरा करते थे, दान का पुण्य तो स्वर्ग में मिलेगा ही। फिर श्राद्ध का भोजन, गोदान, वैतरणी पार होना, यज्ञ में पशुबलि आदि सब कुछ उचित हो जायेगा।
धार्मिक कार्य स्वयं करने, दूसरों से कराने और कराने की प्रेरणा देने से निश्चित रूप से पुण्य मिलेगा, परन्तु स्वयं करने का विकल्प-करने की प्रेरणा देना और दूसरों को सहायता देकर कराना नहीं हो सकता। मेरा भोजन करना आवश्यक है, मुझे दूसरों को भी भोजन कराना आवश्यक है। मेरे भोजन करने का विकल्प दूसरे को प्रेरणा देना और सहायता देकर कराना नहीं होता। मेरे घर कोई आता है तो उसे भोजन कराना ही है। मेरे घर कोई नहीं आया, तो मेरे संस्कार बने रहें, इसलिये मैं कहीं किसी को भोजन कराने की सहायता देता हूँ, वह स्वयं कराये गये भोजन का विकल्प नहीं है। एक के अभाव में अन्य के भोजन की बात है।
यज्ञ, संस्कार आदि का प्रयोजन ऋषि ने शरीरात्म विशुद्धये कहा है। दूर किये गये यज्ञ से या दूसरे के यज्ञ से मेरे शरीर-आत्मा की शुद्धि नहीं होती। किसी की तो होती है, उससे दूसरे का भला करने का लाभ होगा, पर आत्मलाभ की बात इससे पूर्ण नहीं होती। प्राचीन सन्दर्भ से देखें तो ऋषि का यज्ञ-विधान परपरा से हटकर है। पुराने समय के यज्ञ चाहे राजा के हों या ऋषि के, सभी व्यक्तिगत रूप से किये जाने वाले रूप में मिलते हैं। ऋषि की उहा ने यज्ञ को एक सामूहिक रूप दिया है, जिसमें यजमान के आसन पर बैठा व्यक्ति पूरे समूह का प्रतिनिधि है, यह यज्ञ सामाजिक संगठन का निर्माण करने वाला होता है।
यज्ञ में वेद-मन्त्र पढ़ने का लाभ बताते हुए ऋषि लिखते हैं-
जैसे हाथ से होम करते, आँख से देखते और त्वचा से स्पर्श करते हैं, वैसे ही वाणी से वेद-मन्त्रों को भी पढ़ते हैं, क्योंकि उनके पढ़ने से वेदों की रक्षा, ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना होती है तथा होम से जो फल होते हैं, उनका स्मरण भी होता है। वेद मन्त्रों का बार-बार पाठ करने से वे कण्ठस्थ भी रहते हैं और ईश्वर का होना भी विदित होता है कि कोई नास्तिक न हो जाये, क्योंकि ईश्वर की प्रार्थनापूर्वक ही सब कर्मों का आरभ करना होता है।
वेद-मन्त्रों के उच्चारण से यज्ञ में तो उसकी प्रार्थना सर्वत्र होती है। इसलिये सब उत्तम कर्म वेद-मन्त्रों से ही करना उचित है। – ऋग्वेद भूमिका पृ. 721
यह बात इस कारण लिखनी आवश्यक हुई, जिससे जनसामान्य यथार्थ से परिचित हों। किसी के दान से किसी को क्यों द्वेष हो तथा किसी की प्रसिद्धि से ईर्ष्या का क्या लेना? इस अवसर पर संस्कृत की एक उक्ति सटीक लगती है, इसलिये लेख दिया-
का नो हानिः परकीयां खलुचरति रासभोद्राक्षम्।
तथापि असमञ्जसमिति ज्ञात्वा खिद्यते चेतः।।
– धर्मवीर

कुरान समीक्षा : कुरान पुरानी खुदाई किताबों की तफसील अर्थात् व्याख्या है

कुरान पुरानी खुदाई किताबों की तफसील अर्थात् व्याख्या है

खुदा ने पुरानी किताबों की तफसील रूपी कुरान क्यों लिखा? कोई नई उत्तम किताब ज्ञान-विज्ञान की क्यों नहीं लिखवाई? पुरानी आल्हा को गाना खुदा के लिए कोई खूबी की बात नहीं है। न उससे खुदा की शाम बढ़ी है। पुरानी किताबों को नई जुबान में खुदा ने निकल कर दिया है यह इस आयत से स्पष्ट है? ऐसा तो हर कोई अक्लमन्द या शायर कर सकता था।

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

व मा का-ना हाजल् कुर्आनु………..।।

(कुरान मजीद पारा ११ सूरा यूनुस रूकू ४ आयत ३७)

यह किताब अर्थात् कुरान इस किस्म की नहीं कि खुदा के सिवाय और कोई इसे अपनी तरफ से बना लावे। बल्कि जो (किताबें) इससे पहले की हैं उनकी तस्दीक करती है और उन्हीं की तफसील है। इसमें सन्देह नहीं कि यह खुदा की ही उतारी हुई है ।

समीक्षा

जब कि कुरान पुरानी किताबों की तफसील अर्थात् व्याख्या मात्र तो असली किताबों के रूप में पुरानी किताबों का महत्व बढ़ जाता और कुरान का दर्जा घटिया बन जाता है क्योंकी इसमें जो कुछ भी है पुरानी किताबों की ही व्याख्या है।

पण्डित लेखराम ने कहाँ लिखा है? :राजेन्द्र जिज्ञासु

पण्डित लेखराम ने कहाँ लिखा है?

एक बन्धु ने पूछा है- क्या पुस्तक मेले में आपसे किसी ने चाँदापुर शास्त्रार्थ विषय में पण्डित लेखराम का प्रमाण माँगा? मैंने निवेदन किया कि बौद्धिक व्यायाम करके प्रसिद्धि पाना और बात है, सामने आकर शंका निवारण करवाना, गभीरता से सत्य को जानना दूसरी बात है। कोई पूछता तो मैं बता देता कि पं. लेखराम जी की ‘तकजीबे बुराहीन अहमदिया’ के आरभिक पृष्ठों पर ही मेरे कथन की पुष्टि में स्पष्ट शदों में लिखा पैरा मिलेगा। माता भगवती जब ऋषि जी से मुबई में मिली थी, तब वह 38 वर्ष की थी। यह कृपालु तो उसे ‘लड़की’ बनाये बैठे हैं। इन्होंने सनातनी विद्वान् पं. गंगाप्रसाद का ऋषि महिमा में लिखा अवतरण, हजूर जी महाराज लिाित ऋषि-जीवन, निन्दक जीयालाल लिखित ऋषि का गुणगान और मिर्जा कादियानी द्वारा महर्षि की हत्या या बलिदान के प्रमाण तो न जाने और न उनका लाभ उठाया। उनको एक काम मिला है, करने दीजिये।

कुरान समीक्षा : खुदा अर्श पर बैठता है उसका मालिक है और तख्त पानी पर था

खुदा अर्श पर बैठता है उसका मालिक है और तख्त पानी पर था

अर्श अर्थात् आसपास पर खुदा बैठता है यदि लेटने की उसकी इच्छा हो जावे तो उसके लिये क्या कोई सोफासैट, पलंग, आराम कुर्सी आदि की भी व्यवस्था है या नहीं? घूमने के लिए सवारी आदि का भी प्रबन्ध होता है या नहीं? आसमान में जिस तख्त पर खुदा बैठता है, उस तख्त की लम्बाई चैड़ाई कितनी है तथा उसका वजन कितना होगा?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

इन्-न रब्ब्कुमुल्लाहुल्लजी……………….।।

(कुरान मजीद पारा ८ सूरा आराफ रूकू ७ आयत ५४)

तुम्हारा परवर्दिगार अल्लाह है जिसने छह दिन में जमीन और आसमान को पैदा किया फिर अर्श पर तख्त के ऊपर जा विराजा।

फ-इन् तवल्लौ फकुल् हस्……….।।

(कुरान मजीद पारा १० सूरा रूकू १६ आयत १२९)

अर्श जो बड़ा है उसका वही मालिक है

व हु-वल्लजी ख-ल कस्समावाति………।।

(कुरान मजीद पारा ११ सूरा रूकू १ आयत ७)

वही है जिसने जमीन और आसमान को छह दिन में बनाया और उसका तख्त पानी पर था।

समीक्षा

अरबी खुदा जब कुन अर्थात् ’’हो जा’’कहकर सब कुछ बना सकता था तो छह दिन तक दुनियां बनाने की भूल न जाने उससे क्यों हो गई? मेहनत करके तख्त पर आराम करने को जा बैठना ठीक ही था, उससे थकावट मिट गई होगी। पर जब खुदा ने तख्त नहीं बनाया होगा तब तक वह किस पर बैठता था? यह प्रश्न ज्यों का त्यों रह गया क्योंकि बनाने से पहले अर्श (तख्त) नहीं होगा। खुदा को तख्त का मालिक बनाने से उसकी इज्जत नहीं बढ़ती है।

जब वह सारे विश्व का मालिक मान लिया गया तो फिर तख्त सूरज, चाँद, जमीन पहाड़ आदि का अलग-अलग मालिक बताना बेकार की बात है और यह भी प्रश्न है कि खुदा बड़ा है या तख्त यदि खुदा बड़ा है तो तख्त पर बैठ नहीं सकेगा। यदि तख्त बड़ा है तो खुदा तख्त से भी छोटा साबित हो गया, यदि दोनों बराबर हैं तो खुदा ‘‘बे मिसाल’’ नहीं रहा। यदि तख्त हमेशा से है तो खुदा और तख्त उम्र की दृष्टि से बराबर हो गये, यदि तख्त पानी पर है तो पानी किस पर है, यह क्यों नहीं बताया गया है?

हिन्दू संस्कृति-हिन्दू धर्म व हिन्दू जाति :राजेन्द्र जिज्ञासु

हिन्दू संस्कृति-हिन्दू धर्म व हिन्दू जातिः-

देशभर में जातिवादी घातक आन्दोलन चल रहे हैं। घर वापसी की बात करके हिन्दू जाति के वाकशूर रक्षक घरों में जा बैठे हैं। जाति बन्धन तोड़ने व शुद्धि के लिये क्या किया? आर्यसमाज से कुछ सीखते तो कुछ जाति हित होता। आर्यसमाज में भी इनके भाषण सुनकर एक ने शुद्धि आन्दोलन के कर्णधारों के कुछ नाम उगलते हुए किसी ‘ऋषिदेव’ का नाम लिखा बताते हैं। आर्यसमाज में ऋषि देव नाम का कोई व्यक्ति शुद्धि का प्रचारक नहीं रहा। कल्पित इतिहास का क्या लाभ। मेहता जैमिनि, पं. भोजदत्त, स्वामी स्वतन्त्रानन्द, पं. शान्तिप्रकाश, पं. चमूपति, पं. नरेन्द्र जी हैदराबाद तो इन अति उत्साही लेखकों को भूल गये या पता नहीं।

टी.वी. के भगवानों की आरतियाँ व महिमा सुन-सुनकर रोना आता है। देश में बेकारी फैली है। भगवानों के मुकट व सिंहासनों के समाचार पढ़िये। भगवान बढ़ रहे हैं और उनकी सपदा बढ़ रही है। जातीय रोग बढ़ रहे हैं। आर्यसमाज राजनेताओं को महिमा मण्डित करने के लिए समेलन सजाता रहता है। कुछ वक्ता सरकारी भार बनकर मन्त्रियों का गुणगान करके आर्यसमाज का अवमूल्यन कर रहे हैं।

कुरान समीक्षा : आसपास के काफिरों से लड़ने का आदेश

आसपास के काफिरों से लड़ने का आदेश

यदि ऐसा उपदेश काफिरों को भी देवे और वे भी लड़ने पर कमर कस लेवें तो क्या इस्लाम का दुनियां में नामों निशान न मिट जावेगा? ऐसे लड़ाने भिड़ाने वाले उपदेश जिस किताब में हों वह संसार के लिए दुखदाई होगी या सुखदायी होगी? क्या खुदा भी फिसादी व फसाद पसन्द था?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

या अय्युहल्लजी-न आमनू…………..।।

(कुरान मजीद पारा ११ सूरा तोबा रूकू १६ आयज १२३)

अय मुसलमानों! अपने आसपास के काफिरों से लड़ो और चाहिए कि वह तुमसे सख्ती महसूस करें और जाने रहो कि अल्लाह उन लोगों का साक्षी है जो बचते हैं।

समीक्षा

जब दुनिया में सभी मुसलमान अपने पड़ोसी गैर मुस्लिमों से लड़ते रहेंगे तो किसी भी मुल्क में शान्ति कैसे रह सकती है? कुरान ने संसार में मार काट मचाने की शिक्षा देकर मुसलमानों के जहन को हमेशा खराब किया है। यदि गैर मजहब वाले भी ऐसी ही बात मुसलमानों के बारे में सोचनें लगें तो क्या इस्लाम का नामों निशान भी दुनियां में बाकी रह सकेगा? क्रिया की प्रतिक्रिया असम्भव नहीं है।

तुहें याद हो कि न याद होः- राजेन्द्र जिज्ञासु

राजेन्द्र जिज्ञासु
तुहें याद हो कि न याद होः-

आर्य समाज को याद हो, कि न याद हो यह सेवक गत आधी शताब्दी से यह याद दिलाता आ रहा है कि उर्दू साहित्य के एक मूर्धन्य कवि श्री दुर्गासहाय सरूर आर्यसमाज जहानाबाद के मन्त्री थे। आपके गीतों को गाते-गाते देश सेवक फाँसियों पर चढ़ गये। आपने देश, जाति व वैदिक धर्म पर उच्च कोटि की प्रेरणाप्रद पठनीय कवितायें लिखीं। आपके निधन पर महरूम जी की लबी कविता का एक पद्य भारत व पाकिस्तान में किसी बड़े व्यक्ति के मरने पर वक्ता पत्रकार लगभग एक शतादी से लिखते व बोलते चले आ रहे हैं। पं. लेखराम जी के बलिदान पर लिखी आपकी कविता सुनकर आपके कविता गुरु मौलाना ने कहा था, ‘‘तू एक दिन मेरा नाम रौशन करेगा।’’ मैं 45 वर्ष से यह कविता खोज रहा था। किसी ने सहयोग न किया। देश भर में घूम-घूम कर आर्य पत्रों से ‘सरूर’ जी की कई कवितायें खोज पाया। अब आर्य समाज कासगंज के पुस्तकालय से राहुल जी और कई कवितायें ले आये हैं। श्री राम, ऋषि दयानन्द, गऊ, माता सीता, विधवा, अनाथ, मातृभूमि आदि पर हृदय स्पर्शी ऐसी कवितायें प्राप्त हुई हैं, जिनमें डॉ. इकबाल ने प्रेरणा ली। आज से यह साहित्यिक कुली इनका देवनागरी में सपादन करना आरभ कर रहा हूँ। इसे एक जाति भक्त प्रकाशित प्रसारित करने को आगे आयेगा। शेष फिर लिखा जावेगा।

कुरान समीक्षा : कुरान में दो खुदा

कुरान में दो खुदा

स्पष्ट किया जावे कि यह आयत किसी शख्त या मुहम्मद ने लिखी थी या इस्लाम दो खुदा मानता है?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

व कालातिल यहूद अुजैरू निब्नु………….।।

(कुरान मजीद पारा १० सूरा तोबा रूकू ४ आयत ३०)

अय मौहम्मद! खुदा तुझे माफ करे और खुदा इनको गारत करे, ये किधर को भटके चले जा रहे हैं।

फला उक्सिमु बिरब्बिल्-मशारिकि…………..।।

(कुरान मजीद पारा २९ सूरा मआरिज रूकू १ आयत ४०)

मैं तो पूरब और पश्चिम के परवर्दिगार की कसम खाता हूं।

समीक्षा

कुरानी खुदा ने कहा है, यह कुरान में लिखा और वही खुदा कहता है कि ‘‘खुदा इनको गारत करे’’। इससे प्रगट है कि कुरानी खुदा से बड़ा कोई खुदा और भी है। उसी ने मुहम्मद को माफ कराने की कुरानी खुदा ने प्रार्थना की थी।

त्रैतवाद पर मौलिक तर्कः- राजेन्द्र जिज्ञासु

हमने पं. शान्तिप्रकाश जी आदि विद्वानों के आर्य सिद्धान्तों पर प्रमाण संग्रह के मोटे-मोटे रजिस्टर देखे। अब मौलिक सैद्धान्तिक साहित्य की चर्चा समाजों में नाम-नाम की है। श्री डॉ. हरिश्चन्द्र जी की एक रोचक अंग्रेजी पुस्तक के कुछ पृष्ठ मैंने अपनी 10-11 वर्षीया नातिन मनस्विनी को पढ़ाये। उसे पुस्तक रोचक व पठनीय लगी। उसे स्कूल में बोलने को कहा गया। उसने डॉ. हरिश्चन्द्र जी की पुस्तक के आधार पर त्रैतवाद पर बोलकर वाह-वाह लूट ली। उसने कहा-संसार का कार्य-व्यापार व्यवहार सब तीन से ही चलता है-ग्राहक चाहिये, माल चाहिये और विक्रे ता चाहिये। एक के न होने से व्यापार नहीं चल सकता। रोगी, डॉक्टर व औषधियों से ही अस्पताल चलता है। सिखों के ग्राम में नाई और नंगे पैर घूमने वालों के ग्राम में बाटा की दुकान क्या चलेगी? इसी प्रकार से आप सोचिये तो पता चलेगा कि तीन के होने से ही संसार चलेगा।
इसी प्रकार सृष्टि की रचना तीन से ही सभव है। सृष्टि रचना का जिसमें ज्ञान हो वह सत्ता (प्रभु) चाहिये, जिसके लिये सृष्टि की उपयोगिता या आवश्यकता है, वह ग्राहक (जीव) चाहिये तथा जिससे सृष्टि का सृजन होना है, वह माल (प्रकृति) चाहिये। डॉ. हरिश्चन्द्र जी की रोचक पुस्तक से यह पाठ उसे मैंने कभी स्वयं पढ़ाया था। ऐसे मौलिक तर्कों व लेखकों को मुखरित करिये।
श्री पं. रामचन्द्र जी देहलवी कहा करते थे- नीलामी 1,2 व 3 पर छूटती है। दौड़ 1,2 व 3 पर ही क्यों आरभ होती है? वह कहा करते थे, अनादि काल से तीन अनादि पदार्थों का मनुष्य जाति को यह संस्कार दिया जाता है। दौड़ या नीलामी तीन से आगे 5,7 व दस पर क्यों नहीं होती? अब सस्ते दृष्टान्त व चुटकुले सुनाकर वक्ता अपना समय पूरा करते हैं।

कुरान समीक्षा : काफिरों से लड़ो- जजिया अर्थात टैक्स लो

काफिरों से लड़ो- जजिया अर्थात टैक्स लो

कुरान वालों! जमाना बदल गया है पाकिस्तानी फौजें भारत के काफिरों से तीन तीन बार पिट चुकी हैं। इस्त्राएल ने अरबी मुसलमानों को रोंद डाला है। खुदा की फरिश्तों की फौजें भी पिटकर भाग चुकी हैं। अतः खुदा मुसलमानों को दूसरों के खिलाफ भड़काना छोड़कर शराफत के उपदेश दे, ताकि आपस में प्रेम पैदा हो सके।

कातिलुल्लजी-न ला यअ्मिनू-न………..।।

(कुरान मजीद पारा १० सूरा रूकू ४ आयत २९)

किताब वाले जो न खुदा को मानते हैं और न कयामत को और न अल्लाह और उसके पैगम्बर की हराम की हुई चीजों को हराम समझते हैं और न सच्चे दीन अर्थात् इस्लाम को मानते हैं, इनमें लड़ो यहाँ तक की जलील होकर (अपने) हाथों जजिया दें।

समीक्षा

कुरान विचार स्वतन्त्रता का घोर विरोधी है और इस्लाम से भिन्न विचार रखने वालों पर जुल्म करने का हुक्म देता है और यह ऊपर स्पष्ट हैं इतिहास साक्षी है कि ऐसी आयतों के प्रभाव से मुसलमानों ने संसार में खून की नदियाँ बहाई थी और दूसरों पर घोर अत्याचार किए थे। क्या यह फिसाद की बातें सिखाने वाला अमन अर्थात् शान्ति का सख्त विरोधी नहीं है ? बंगना देश में हुए अत्याचार इसी की मिसाल हैं।