कुरान समीक्षा : सूरज चक्कर खाता है

सूरज चक्कर खाता है

सूरज का चक्कर खाना विज्ञान से गलत है। इसे सही साबित करें?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

व सख्ख-र लकुमुशम-स वल्क………….।।

(कुरान मजीद पारा १३ सूरा इब्राहीम रूकू ५ आयत ३३)

और सुरज व चाँद जो चक्कर खाते हैं एक दस्तुर पर तुम्हारे काम में लगाया और रात दिन को तुम्हारे अधिकार में कर दिया।

समीक्षा

सूरज को घूमते हुए विज्ञान विरूद्ध है। खुदा बेचारे को इतनी भी जानकारी नहीं थी जो कि बड़े ही ताज्जुब की बात है।

अदीना स्याम शरदः शतम्

अदीना स्याम शरदः शतम्

-श्री गजानन्द आर्य, संरक्षक परोपकारिणी सभा

पिछले अंक का शेष भाग….

ईश्वर ने शरीर की रचना की,शरीर के अलग-अलग अंग बनाए, जिनसे मनुष्य अलग-अलग काम लेता है। आँखों से देखता है, कानों से सुनता है, मुँह से भोजन ग्रहण करता है, नाक से श्वास लेता है, पैरों से चलता है, हाथों से काम करता है इत्यादि। सभी अंगों में यथायोग्य शक्ति का संचार किया, लेकिन जो सबसे बड़ी शक्ति ईश्वर ने दी, वह है मनुष्य का मस्तिष्क। यह मस्तिष्क है जो शरीर के सभी अंगों से काम करवाता है। मस्तिष्क के निर्देश पर शरीर किसी भी काम को करने के लिए उद्यत होता है। सारे अंग एक तालमेल के साथ उस काम में लग जाते हैं। ईश्वर ने अपनी इस रचना को जिसे हम मस्तिष्क कहते हैं, उर्वर बनाया है। इसमें अद्ध्रुत शक्तियाँ भर दी हैं। किसी उपजाऊ जमीन की तरह इसके अंदर विचारों की खेती होती है, फसलें लगती हैं, निर्णय लिए जाते हैं तथा उन निर्णयों के आधार पर कार्य संपादन होता है। गीता के तेरहवें अध्याय में मनुष्य को क्षेत्र कहा गया है तथा मस्तिष्क को क्षेत्रज्ञ।

ईश्वर ने हमें चार प्रकार की जीवनी शक्तियाँ दी हैं, जिन्हें हम कहते हैं-मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। चारों शक्तियाँ निराकार हैं। ये सामान्य आँखों से देखी नहीं जा सकतीं, लेकिन ये चारों शक्तियाँ हमारे मस्तिष्क में समाविष्ट हैं। चारों शक्तियाँ ही मस्तिष्क रूपी खेत में बीज डालती हैं। वे ही बीज मस्तिष्क में बढ़ते-बढ़ते विशाल वृक्ष की तरह विशाल योजनाओं का रूप ले लेते हैं। इतना ही नहीं, बल्कि ये चारों जीवनी शक्तियाँ, इंसान की मृत्यु के बाद उसके कर्मों के बाकी बचे हुए फलों के रूप में, उसे पुनर्जन्म में उसके अंदर रोपित मिलती हैं, अर्थात् जब एक शिशु जन्म लेता है तो उसके अन्दर इन चारों जीवनी शक्तियों के बीज कम या ज्यादा मात्रा में मौजूद होते हैं। यह मात्रा उसके पूर्वजन्म के शुभ कर्मों के फलस्वरूप निर्धारित होती हैं। यही कारण है कि जब दो जुड़वाँ बच्चे एक साथ पैदा होते हैं, तो भी उनके अंदर की जीवनी शक्तियाँ एक-सी नहीं होतीं। इस कारण उनमें से एक बच्चा अधिक मेधावी, अधिक बुद्धिमान् और अधिक तेजस्वी हो सकता है।

अगर हम पूरे शरीर की तुलना आज के युग में प्रयुक्त कंप्यूटर से करें तो हम कह सकते हैं कि हमारा जो स्थूल शरीर है, वह कंप्यूटर के हार्डवेयर की तरह है, लेकिन मस्तिष्क के अंदर स्थापित शक्तियाँ इसके ऑपरेटिंग सिस्टम की तरह हैं, जो विचार नाम के सॉफटवेयर को जन्म देती रहती हैं। वास्तविकता यह है कि कप्यूटर की रचना मनुष्य शरीर की सारी शक्तियों का अनुकरण करके ही हुई है। शिवसंकल्पमस्तु के मंत्रों में ऐसी चर्चा है-शरीर एक यज्ञ की तरह है जिसमें 7 प्रकार के होता हैं। होता वह होते हैं जो यज्ञ में आहुति डालते हैं और इसक ी अग्नि को प्रज्वलित करते हैं। इसे और अधिक दैदीप्यमान बनाते हैं। दो आँख, दो कान, दो नासिकाएँ तथा एक मुख -यह सातों होता मस्तिष्क को ज्ञान के रूप में आहुति देते हैं।

कानों में ध्वनि के रूप में, आँखों में दृश्य के रूप में, नासिका में प्राण शक्ति तथा गंध के रूप में, मुख में स्वाद और हर खाद्य वस्तु के गुण के रूप में आहुतियाँ ही तो हैं। एक उदाहरण लेते हैं- एक नवजात शिशु जब माँ के गर्भ से बाहर आता है, तब उसकी सबसे पहली पहचान अपनी माँ से ही होती है। वह शिशु माँ के शरीर के अंदर पैदा होकर बड़ा हुआ, वह उस शरीर के स्पर्श को, ऊष्मा को तथा गंध को पहचानता है। जब माँ अपने नवजात शिशु को अपने हाथों में लेकर अपने हृदय से लगाती है तो शिशु अपने-आपको सुरक्षित अनुभव करता है।

शिशु के पैदा होने के बाद सबसे अधिक प्रतीक्षा होती है उसके रोने की। अगर शिशु रोता नहीं है, तो उसे प्रयास करके रुलाया जाता है। जब शिशु रोना शुरू करता है, तब जाकर माँ और अन्य लोगों को यह पूरा विश्वास होता है कि बच्चा ठीक है। लेकिन शिशु की दृष्टि से देखें तो उसका रोना उसको अपने अस्तित्व का ज्ञान होना है। ईश्वर प्रदत्त शक्तियों में अहंकार का अर्थ साधारण भाषा में घमण्ड मान लिया गया है, लेकिन शास्त्रों में अहंकार का अर्थ है- स्वयं के अस्तित्व को समझना। बच्चे का प्रथम रुदन बच्चे के अंदर उसके अहंकार यानी उसके अस्तित्व के होने का बीजारोपण है।

जब शिशु रोने लगता है, तो माँ विह्वल होकर शिशु को अपने स्तन से लगाती है। ईश्वर की रचना का सौंदर्य है कि शिशु को इस विश्व में लाने के पूर्व, उसके आहार की व्यवस्था दूध के रूप में माँ के स्तनों में संचारित कर देता है। जैसे ही शिशु का मुँह माँ के स्तन को स्पर्श करता है, उसके अन्दर स्थापित बुद्धि उसे उस दूध को पीने और उसे उदर के अँदर पहुँचाने की कला सिखा देती है। यहाँ से शिशु के विकास में उसकी बुद्धि का प्रयोग शुरू हो जाता है।

धीरे-धीरे शिशु यह सीख जाता है कि उसे कुछ चाहिए तो उसे रोना पड़ेगा, उसके रोते ही माँ उसे उठा लेती है और उसे दूध पिलाने लगती है। लेकिन शिशु की आवश्यकताएँ बढ़ने लगती है, फिर जब शिशु स्तन से दूध पीने का विरोध करता है, तो माँ उसकी अन्य आवश्यकताओं का अध्ययन करती है। शायद इसने मल या मूत्र कर दिया हो या कोई मच्छर तो नहीं काट गया या फिर कोई चीज उसकी कोमल त्वचा में चुभ तो नही रही या उसके उदर में कोई समस्या है। धीरे-धीरे  माँ और शिशु के बीच एक संवाद स्थापित हो जाता है, जिसमें शद नहीं होते। दोनों की ही बुद्धियाँ इस संवाद को स्थापित करने में मदद करती हैं। शिशु जब खुश होकर मुस्कुराता है, माँ का हृदय वात्सल्य से भर जाता है। माँ उसे कलेजे से लगाती है, चूमती है, तब शिशु समझने लगता है, उसकी मुस्कुराहट का माँ पर क्या असर होता है।

ईश्वर ने मातृत्व में अद्धुत शक्तियाँ प्रदान की हैं। कोई स्त्री स्वभाव से कितनीाी डरपोक क्यों न हो, लेकिन बच्चे को जन्म देने की असह्य पीड़ा वह सह जाती है। बच्चे के जन्म के साथ ही उसकी अपनी दिनचर्या बदलकर बच्चे की दिनचर्या से जुड़ जाती है। बच्चा जब सोता है, तब माँ सोने का प्रयास करती है, लेकिन उसे नींद में भी अपने बच्चे का स्पर्श जरूरी होता है। जब बच्चा जाग जाता है तो माँ अपनी नींद की परवाह किए बिना उसके साथ जागती है। बच्चे के हँसने-रोने से माँ की ममता, हर्ष, चिंता, दुविधा आदि भाव जुड़े होते हैं।

माँ ही बच्चे का परिचय उसके पिता से करवाती है। जब माँ गोद में लेकर बच्चे से कहती है- देखो, यह तुमहारे पिता है, तब हमें लगता है कि यह बच्चा यह सब कहाँ समझेगा। लेकिन बच्चे का नन्हा मस्तिष्क धीरे-धीरे परत-दर-परत यह ज्ञान ग्रहण करता है कि कौन उसके पिता हैं, दादा हैं, दादी हैं, भाई-बहन हैं। उसकी पहचान सबसे बढ़ने लगती है। बच्चे का निर्माण कार्य यूँ तो माता के उदर में ही प्रारमभ हो जाता है, लेकिन इसके बाद उसका यह निर्माण कार्य पूरी उम्र भर चलता है। बच्चा जब जन्म लेता है तो माँ उसके  एक-एक अंग को परखती है। वह देखती है कि बच्चा सुन पा रहा है या नहीं, बोल पा रहा है या नहीं, उसके हाथ-पैर ठीक तरह से गतिमान हैं या नहीं? माँ धीरे-धीरे बच्चे को बोलना सिखाती है। बच्चा एक-एक शबद सीखने लगता है। उसे उसका नाम बताती है, बच्चा धीरे-धीरे  अपने नाम को समझने लगता है। कोई जब उसके नाम से उसे पुकारता है तो वह उस तरफ देखने लगता है। यह प्रारंभिक ज्ञान जो उसे अपने माँ से मिलता है, यही तो उन जीवनी शक्तियों का उसके मस्तिष्क में बीजारोपण है। जैसे-जैसे आयु बढ़ती है, बच्चा अपने पिता से, परिवार के अन्य लोगों से तथा गुरुजनों से बहुत कुछ सीखता है। उसके मस्तिष्क का खजाना दिनों-दिन समृद्ध होता जाता है। मस्तिष्क का विकास ही मनुष्य को उसके वृद्धावस्था तक पहुँचते-पहुँचते पूरी तरह परिपक्व बनाता है।

उसके खजाने में भाषा, व्याकरण, गणित, साहित्य, विज्ञान, इतिहास, लोकाचार, मर्यादाएँ, व्यवहार आदि सब कुछ प्रचुर मात्रा में भरा होता है। हर प्रकार के ज्ञान का वह समयानुसार लाभ लेता है। लौकिक ज्ञान ही मात्र कारण नहीं होता मस्तिष्क के विकास का। हर बच्चा जब जन्म लेता है तो वह अपने साथ अपने पूर्वजन्म के कुछ अनुभव, बचे हुए  कर्मों का हिसाब-किताब और कुछ स्मृतियाँ लेकर आता है। ईश्वर पूर्व जन्म के कर्मों के फल को बच्चे की जीवनी शक्ति से जोड़ देता है। हर जीवात्मा का शुभ-अशुभ कर्म उसे उसका फल जरूर दिलवाता है। जो कर्म एक जीवनकाल में फल से बच जाते हैं, वे सारे कर्म जीवाता के साथ उसके पुनर्जन्म में साथ जाते हैं। कोई बच्चा विकलांग क्यों पैदा होता है, कोई मंद बुद्धि या कोई कुशाग्र बुद्धि क्यों होता है, क्यों कोई गरीब के घर में जन्म लेता है और क्यों कोई अमीर के? इन सब प्रश्नों का एक ही उत्तर है- पूर्वजन्म के बचे हुए कर्म फल उसके नए जन्म में भाग्य के नाम से जाने जाते हैं।

बच्चे की जीवनी शक्ति में बुद्धि का विकास हमने समझा। दूसरा महत्त्वपूर्ण भाग है अहंकार। जैसा कि पहले लिखा है, अहंकार का अर्थ है स्व-अस्तित्व। साधारण भाषा में कहें तो मेरेपन की भावना। मनुष्य के  विकास के साथ उसका मेरापन बढ़ता है, वह स्वयं से आगे बढ़कर परिवारको मेरा परिवार मानने लगता है, अगले वृत्त में पहुँचकर वह मेरे मित्र, मेरा गाँव, मेरे देश की तरफ बढ़ने लगता है, उसके अस्तित्त्व के दायरे का विकास होता है और वह मैं की संकुचित सीमा से निकल कर आगे बढ़ता रहता है। उसकी बुद्धि, उसकी परिस्थितियों के आधार पर उसका दायरा बढ़ता है। कई बार यह दायरा संकीर्ण हो जाता है। कुछ लोग अपनी जाति को ही अपना सर्वोच्च दायरा मान लेते हैं, कोई अपनी भाषा बोलने वालों तक अपना दायरा बना लेता है। इसी प्रकार धर्म, मान्यता, ऐतिहासिक मूल, आदि कई कारण बनते हैं इस अहंकार की सीमा के। जो जीवन में सर्वोच्च उँॅचाइयों तक पहुँच जाता है, वह मनुष्य मात्र और प्राणी मात्र को अपने अहंकार की सीमा मानने लगता है। इतिहास में सब तरह के उदाहरण हम पाते हैं। मुगल शासकों के इतिहास में देखते हैं तो हम पाते हैं कि उसमें ऐसे-ऐसे स्वार्थी हुए हैं, जिन्होंने अपने खुद के हित के लिए अपने पिता को तथा अपने भाइयों को मार दिया और बादशाह बने।

आज के युग में हम देखते हैं कि परिवार में जो भाई ज्यादा धन अर्जन करने लगता है, वह समझने लगता है कि मेरा कमाया हुआ धन बस मेरा है। दूसरे भाइयों की मेरी क्या जिमेवारी? पिता अपनी संपत्ति का बँटवारा अपने पुत्रों में तो कर देता है, लेकिन अपने गरीब सगे भाइयों को कुछ नहीं देता। दूसरी तरफ से सीमा पर लड़ रहे सैनिक की उदारता देखिए कि वह अपने देश को अपना अस्तित्व मानते हुए दुश्मनों से लड़ता है और अपने प्राणों की बाजी लगा देता है। मेरेपन की परिभाषा प्रत्येक व्यक्ति की अलग होती है, उसकी परिधि के अनुसार संसार में उसकी खयाति होती है। हमारी जीवनी शक्तियों का एक हिस्सा है-मन। मन हमारे मस्तिष्क का वह विभाग है जो मानवीय भावनाओं का के न्द्र होता है। हमारी भावनाएँ हमारे संस्कारों, हमारी शिक्षा तथा कुछ हद तक हमारे परिवेश का परिणाम होती हैं। मन की पवित्रता व्यक्ति को सज्जन पुरुष बना  देती है, मन की कुटिलता उसको अपराधी बना देती है। कई बार मन  अपनी साीमाएँ लाँघने की कोशिश करता है। उस समय उसकी बुद्धि उसे रोकती है। मन की कुटिलता मनुष्य से चोरी, डकैती, बलात्कार, हत्या जैसे घृणित काम करवाती है। इन कामों को करने के पीछे उसे तात्कालिक लाभ तो नजर आता है, लेकिन दंड नहीं। उस व्यक्ति की बुद्धि इतनी कमजोर होती है कि उसे लाभ तो आकर्षित करते हैं, लेकिन दंड गौण हो जाता है।

मधुमेह के मरीज को मिठाई वर्जित होती है, लेकिन उसका मन जब विद्रोह करने लगता है तो वह उस सीमा को लाँघ कर मिठाई खा लेता है। क्षणिक स्वाद उसे सुख पहुँचाता है, लेकिन उसकी बढ़ी हुई अस्वस्थता उसे बहुत कष्ट देती है, इसलिए शास्त्रों में शिवसंकल्पमस्तु के मंत्रों में मन को उत्तम बनाने की प्रार्थना की गई है। मन पर नियंत्रण पाने की कामना की गई है। मन और बुद्धि का गहरा संबंध है। मन की इच्छाएँ बुद्धि के आधार पर निर्भर हैं। एक छोटा-सा बच्चा चाँद को देखकर उसे पाने के लिए लालयित हो सकता है। उसका दोष नहीं, क्योंकि उसकी बुद्धि इतनी तीव्र नहीं होती। वह नहीं समझ सकता कि यह बात असंभव है। उसी तरह एक छोटा बच्चा अगर किसी खतरनाक जीव या वस्तु को देाता है तो उससे डरता नहीं, उसकी तरफ चल पड़ता है।

युवावस्था में मन की भावनाएँ शरीर में होने वाले परिवर्तनों के कारण गलत दिशा में भटकने की तरफ आकर्षित होती हैं। मित्रों की देखा-देखी कई बच्चे धूम्रपान, शराब या अन्य बुरी वस्तुओं की तरफ प्रेरित होते हैं। ऐसे में उनकी बुद्धि अगर सुसंस्कारों से युक्त होगी तो उन्हें गलत रास्ते पर जाने से रोक लेगी। इसलिए जहाँ शिवसंकल्पमस्तु के मंत्रों में अच्छे मन की प्रार्थना की गई है, उसी प्रकार गायत्री महामंत्र में अच्छी बुद्धि की प्रार्थना की गई है। अच्छी बुद्धि और अच्छा मन मिलकर ही एक अच्छा व्यक्तित्व बनता है।

जीवनी शक्तियों का चौथा विभाग है चित्त। चित्त का सीधा अर्थ जुड़ता है चेतना से। हमारी चेतना का स्तर हमारे चित्त को निर्धारित करता है। व्यक्ति में अलग-अलग प्रकार के गुण-अवगुण पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए आलस्य, प्रमाद, चंचलता, गंभीरता, चुस्ती, फुर्ती, अंतमुर्खीवृत्ति या बाह्यमुखीवृत्ति इत्यादि। ये बातें कहीं न कहीं चेतनता से जुड़ी हैं। चित्त की वृत्ति भी मनुष्य अपने प्रयासों से ठीक करता है। इस वृत्ति को ठीक करने में उसकी बाकी तीनों शक्तियाँ काम करती हैं। एक संपूर्ण व्यक्तित्व चारों जीवनी शक्तियों के समावेश से बनता है।

जब हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं- अदीनाः स्याम शरदः शतम् तो उसमें यही प्रार्थना करते हैं-ईश्वर, हमें 100 वर्ष की आयु दीजिए लेकिन हमारी जीवनी शक्तियों के साथ। अगर हमारी ये शक्तियाँ चली गईं तो हमारा जीवन बेकार है। वृद्धावस्था में हमारी शारीरिक शक्तियाँ तो कम होंगी ही, लेकिन हमारी बौद्धिक, आत्मिक तथा वैचारिक शक्तियाँ क्षीण नहीं होनी चाहिए। हमारी जीवनी शक्तियाँ हमारे वृद्धावस्था का खजाना है। जीवनभर के अनुभव, स्वाध्याय, आचरण और आध्यात्मिकता के बल पर हमारी वृद्धावस्था में हमारी जीवनी शक्तियाँ चरमोत्कर्ष पर होती हैं। हम शारीरिक रूप से अशक्त हो चलते हैं, लेकिन बौद्धिक रूप से नहीं।

हमें सौ वर्ष की उम्र तक हमारी जीवनी शक्तियों का पूरा सामर्थ्य मिले, ईश्वर से यही प्रार्थना है।

– द्वारा श्री महेन्द्र आर्य, मुबई

 

कुरान समीक्षा : खुदा के पास असल किताब है

खुदा के पास असल किताब है

खुदा ने असली कि किताब दुनिया में क्यों नहीं भेजी ताकि लोग उससे फायदा उठा सकते ? यह नकली किताब क्यों भेज दी है? उस असल किताब से खुदा क्या फायदा उठाता है?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

यम्हुल्लाहु मा यशाउ व युस्बितु…………।।

(कुरान मजीद पारा १३ सूरा राद रूकू ६ आयत ३९)

खुदा जिसको चाहे मिटा देता है और (जिसको चाहता है) कायम रखता है और उसी के पास असल किताब है।

समीक्षा

अरबी खुदा भी किताबें पढ़ता है और डायरी रखता है ताकि झंझटों व परेशानियों के कारण सब कुछ भूल न जावे। जिसकी याद्दाश्त कमजोर हो उसे हर बात लिखकर रखना बिल्कुल मुनासिब ही है।

नोट- बादामपाक ओर शँखपुष्पी खाने से भी स्मरणशक्ति अर्थात् याद्दाश्त तेज हो जाती है, यह सभी को फायदा करता है। खुदा चाहे तो इस्तेमाल कर सकता है और फायदा उठा सकता है, इनके प्रयोग करने से किसी रियेक्श्न काभी डर नहीं है, क्योंकि ये प्योर आयुर्वेदक औषधियाँ हैं।

अगर ये कारगार न हों तो- ‘‘स्वमूत्र चिकित्सा पद्धति’’ का भी सहारा लिया जा सकता है । वह भी प्राकृतिक शीरप हैं इसको प्रयोग करने के बाद हमारा दावा है कि उसकी याद्दाश्त तेज हो जायेगी और ये रजिस्टर आदि रखने से सदा-सदा के लिए छुटकारा मिल जायेगा।’’

‘‘लाजपत राय अग्रवाल’’

(वैदिक मिशनरी)

प्राणोपासना – 3

प्राणोपासना – 3

– तपेन्द्र विद्यालङ्कार आइ.ए.एस. (सेवा-निवृत्त)

ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के  उपासना विषय में मुण्डकोपनिषद् के तपः श्रद्धे ये ह्मुपवसन्त्यरण्ये… यत्रामृता स पुरुषो ह्यष्यात्मो।। (मुण्डक.1.2.11) तथा युञ्जन्ति ब्रहनमरुषं….रोचन्ते रोचना दिवि।। (ऋग्वेद 1.1.119) एवं सीरा युञ्जन्ति कवयो…धीरा देवेषु सुनया।। (यजुर्वेद 12.67) का अर्थ एवं व्याखया करते हुए महर्षि दयानन्द जी महाराज ने प्रतिपादित किया है कि प्राण द्वार से प्राण नाड़ियों में ध्यान करके, प्राण को परमात्मा में युक्त करके परमानन्द-मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है।

उपासना विषय में ही महर्षि ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि कण्ठ के नीचे, दोनों स्तनों के बीच में और उदर के ऊपर जो हृदयदेश है, उसके बीच में अवकाश रूप स्थान में खोज करने से परमेश्वर मिल जाता है। महर्षि ने यह भी स्पष्ट लिखा है कि दूसरा उसके मिलने का कोई उत्तम स्थान वा मार्ग नहीं है।

उद्धरणों में आये शबद-प्राण, प्राण-नाडियाँ तथा हृदय के समबन्ध में विचार किया गया था कि प्राण शुद्ध ऊर्जा है, बाह्य प्राण सूर्य रश्मियों से प्राप्त होता है जिसे आधिभौतिक प्राण कहते हैं। दूसरा आध्यात्मिक प्राण जठराग्नि द्वारा जल से उत्पन्न होता है तथा हृदय में बाह्य प्राण से मिल जाता है। हृदय में एक सौ एक प्राण नाडियाँ हैं इनमें से एक नाडी कपाल शीर्ष तक गयी है जिसे संचरणी कहतेहैं। शेष सौ हिसा नाड़ियाँ हैं, इन प्रत्येक से सौ-सौ उप नाडियाँ निकलती हैं तथा उन प्रत्येक से बहत्तर-बहत्तर हजार उप-उप-प्राणनाड़ियाँ निकलती हैं, जिन्हें पुरीतत भी कहा जाता है।

देह में जीवात्मा का मुखयालय हृदय है। यह रक्तप्र्रैषित करने वाला शरीरांग नहीं है, यह स्थूल इन्द्रिय नहीं है। यह प्राण नाड़ियों से बना है। प्राणों में आत्मा प्रतिष्ठित है तथा परमात्मा हृदयाकाश में रहने वाले जीवात्मा के मध्य रहता है। प्राणों में उपासना करके आत्मा परमात्मा का साक्षात्कार किया जा सकता है। प्राण बन्धनं हि सौमय मनइति से यह भी स्पष्ट है कि मन प्राण रूप बन्धन वाला है।

पूर्व में इंगित किया गया था कि जब प्राणी श्वास लेता है तो शरीर की प्राणनाड़ियों में प्राण की गति नीचे की ओर होती है-यह अपानन क्रिया है। जब प्राणी प्रश्वास लेता है तो शरीर की प्राण नाड़ियों में प्राण की उर्ध्व गति होती है-यह प्राणन क्रिया है। प्राण तत्व एक ही है जो शरीर में अपने को पाँच भागों -प्राण अपान, व्यान, समान, उदान-में विभक्त कर पाँच प्रकार के कार्यों को समपादित करता है। परमात्मा प्राण में रहता हुआ भी प्राण से अलग है तथा प्राण का नियमन करता है। उदान प्राण के समबन्ध में विवेचन अभीष्ट है।

शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिनिसृतैका।

तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विश्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति।।

कठोपनिषद् 6-16

उक्त की व्याखया करते हुए डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार (एकादशोपनिषद्) लिखते हैं कि हृदय की एक सौ एक नाड़ियाँ हैं, उन में से एक मूर्धा-सिर की ओर निकल गई है। मृत्यु के समय उस नाडी से जो ऊपर को उत्क्रमण करता है वह अमृतत्व को प्राप्त करता है, बाकी अन्य नाडियाँ साधारण व्यक्तियों के उत्क्रमण के समय काम आती हैं। ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति के प्राण मूर्धा से निकलते हैं, दूसरों के अन्य मार्गों से।

शाङ्कर भाष्य के अनुसार पुरुष के हृदय से सौ अन्य और सुषुम्ना नाम की एक-इस प्रकार (एक सौ एक) नाडियाँ-शिराएँ निकलती हैं उनमें सुषुम्ना नाम्नी नाड़ी मस्तक का भेदन करके बाहर निकल गयी है। अन्तकाल में उसके द्वारा आत्मा को अपने हृदयदेश में वशीभूत करके समाहित करे। उस नाडी के द्वारा उर्ध्व-ऊपर की ओर जाने वाला जीव सूर्यमार्ग से अमृतत्व-आपेक्षिक अमरणधर्मत्व को प्राप्त हो जाता है।

‘उपनिषद् रहस्य’ में महात्मा नारायण स्वामी जी महाराज व्याखया करते हुए लिखते हैं-हृदय से निकलकर जो 101 नाड़ियाँ समस्त शरीर में फैलती हैं उनमें से एक सुषुमणा नाम वाली नाड़ी जो शरीर में इडा और पिंगला के मध्य रहती है-मूर्धामें जा निकलती है। मुक्त जीव का आत्मा इसी नाड़ी के द्वारा शरीर से निकल कर देवयान (मोक्षमार्ग) का पथिक बन जाता है।

‘उपनिषद्समुच्यय’ में पण्डित भीमसेन जी शर्मा उक्त का भाष्य करते हुए लिखते हैं-अपने मरण का समय योगी पूर्व से ही जान लेता है। शरीर से निकलने का समय आने से पूर्व ही योगी अपने आत्मा को वश में करके सुषुम्ना नाड़ी के साथ युक्त करे। उस नाड़ी द्वारा शरीर से निकला हुआ जीवात्मा मुक्ति को प्राप्त होता है। जीव नाड़ियों के द्वारा ही निकलते हैं।

अकृत योगायासः पुरुषः प्रयाणकाले यथेष्ठं निस्सर्त्तुं नार्हति।

अतः प्रमाणकालात्पूर्वमेव योगायासः कार्यः।

अथैकयोर्ध्वं उदानः पुण्येन पुण्यलोकं नयति।

पापेन पापमुभायामेव मनुष्यलोकम्।।

प्रश्नोपनिषद् 3-7

का अर्थ करते हुए डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार लिखते हैं कि हृदय की एक नाड़ी उर्ध्वदेश को, मस्तिष्क को जाती है उसमें-उद्+आन-ऊपर या नीचे की तरफ जीवन रहता है। पुण्य कर्म करने से हृदय में बैठे हुए आत्मा को ‘उदान’ पुण्यलोक में ले जाता है, पापकर्म करने से आत्मा को उदान ‘पापलोक’ में ले जाता है, दोनों प्रकार के कर्म करने से आत्मा को ‘मनुष्य लोक’ में ले जाता है।

शांकर भाष्य अनुसार-उन एक सौ एक नाड़ियों में से जो सुषुम्ना नाम्नी एक उर्ध्वगामिनी नाड़ी है उस एक के द्वारा ही ऊपर की ओर जाने वाला तथा चरण से मस्तक पर्यन्त संचार करने वाला उदान वायु (जीवात्मा को) पुण्य कर्म यानी शास्त्रोक्त कर्म से देवादि-स्थान रूप पुण्यलोक को प्राप्त करा देता है तथा उससे विपरीत पापकर्म द्वारा पापलोक यानी तिर्यग्योनि आदि नरक को ले जाता है और समान रूप से प्रधान हुए पुण्य-पापरूप दोनों प्रकार के कर्मों द्वारा वह उसे मनुष्य लोक को प्राप्त कराता है।

महात्मा नारायण स्वामी जी के अनुसार उन एक सौ एक नाडियों में से एक के द्वारा ऊपर जाने वाले प्राण का नाम उदान है जो मृत्यु के समय शरीर से निकलने वाले सूक्ष्म शरीर सहित जीव को कर्मानुसार भिन्न-भिन्न स्थानों को पहुँचाया करता है।

पण्डित भीमसेन जी शर्मा के अनुसार-हृदय में एक सौ एक नाड़ियाँ हैं, उनमें से एक नाड़ी सीधी मस्तक मूर्धा को चली गई है, इसी सुषुम्ना नाडी में उदान वायु विचरता है। यह नाड़ी मस्तक से लेकर पग के तलवा तक सीधी विस्तृत है, इसी हृदयस्थ नाड़ी के एक प्रदेश में जीवात्मा रहता है। इस नाड़ी के साथ मन को युक्त करते हुए समाधिनिष्ठ योगीजन आत्मज्ञान को प्राप्त होते हैं। उदान नामक प्राण ही लिंग शरीर के सहित जीवात्मा को शरीर से निकालता है और कर्मों के अनुसार योनि व भोग प्राप्त कराता है।

तेजो ह वा उदानस्तस्मादुपशान्त तेजाः।

पुनर्भवमिन्द्रियैर्मनसि सपद्यमानैः।।

प्रश्नोपनिषद् 3.9

उक्त की व्याखया करते हुए डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार लिखते हैं…. ऋषि कहते हैं कि उदान द्वारा आत्मा शरीर से निकलता है। जब तक शरीर में तेज रहता है, तब तक आत्मा उदान की सहायता से शरीर में ही रहता है। जब शरीर का तेज शान्त हो जाता है तब इन्द्रियाँ बाहर फिरना छोड़कर मन में जा टिकती हैं और मनुष्य पुनर्जन्म की तैयारी करने लगता है।

आचार्य शंकर के अनुसार-जो (आदित्य संज्ञक) प्रसिद्ध बाह्य सामान्य तेज है वही शरीर में उदान है, तात्पर्य यह है क्योंकि उत्क्रमण करने वाला (उदान वायु) तेजः स्वरूप है- बाह्य तेज से अनुगृहीत होने वाला है इसलिए जिस समय लौकिक पुरुष उपशान्त तेजा होता है अर्थात् जिसका स्वाभाविक तेज शान्त हो गया है ऐसा होता है उस समय उसे क्षीणायु-मरणासन्न समझना चाहिये। वह पुनर्भव यानी देहान्तर को प्राप्त होता है। किस प्रकार प्राप्त होता है (इस पर कहते हैं) मन में लीन-प्रविष्ट होती हुई वागादि इन्द्रियों के सहित (वह देहान्तर को प्राप्त होता है।)

महात्मा नारायण स्वामी जी महाराज लिखते हैं-तेज ही उदान है। इसीलिए कहा जाता है कि जिनका तेज शान्त हो चुका  है, ऐसे प्राणी मन में लीन हुई इन्द्रियों के साथ पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं।

पण्डित भीमसेन जी शर्मा के भाषार्थ अनुसार-सामान्य कर सर्वव्यापी तेज ही उदान प्राण का सहायक है। जिस कारण जीवात्मा को शरीर से निकालना इसलिए इस का नाम उदान है। जिससे स्वाभाविक तेज जिसका शान्त हो गया, वह पुरुष मर जाता है अर्थात् मानस शक्ति में प्रवेश किये नेत्र आदि इन्द्रियों के साथ जन्मान्तर में होने वाले शरीरान्तर को प्राप्त होता है।

यच्चित्तस्तेनेष प्राणमायाति, प्राणस्तेजसा युक्त

सहात्मना यथा संकल्पितं लोकं नयति।।

प्रश्न.3-10

डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार के अनुसार मृत्यु के समय जिस प्रकार का चित्त होता है, उसी प्रकार का चित्त प्राण के पास पहुँचता है। प्राण अपने तेज के साथ आत्मा के पास पहुँचता है। प्राण ही तेज चित्त और आत्मा को अपने संकल्पो के अनुसार के लोक में ले जाता है।

शांकर भाष्य के अनुसार-इसका जैसा चित्त होता है उस चित्त संकल्प के सहित ही यह जीव इन्द्रियों के सहित प्राण अर्थात् मुखय प्राणवृत्ति को प्राप्त होता है।…..वह प्राण ही तेज अर्थात् उदानवृत्ति से सपन्न हो आत्मा-भोक्ता स्वामी के साथ (समिलित होता है) तथा उदान वृत्ति से संयुक्त हुआ वह प्राण ही उस भोक्ता जीव को उसके पाप-पुण्यमय कर्मों के अनुसार यथासंकल्पित अर्थात् उसके अभिप्रायनुसारी लोकों को ले जाता-प्राप्त करा देता है।

महात्मा नारायण स्वामी जी के अनुसार जो चित्त में वासना है, उसी से यह जीव प्राण को प्राप्त होता है। प्राण तेज से मिलकर आत्मा के साथ उसको जैसा या जो संकल्प किये हुए लोक हैं उनको पहुँचाता है।

पण्डित भीमसेन जी शर्मा के अनुसार शरीर की वर्तमान दशा में मनुष्य जैसे शुभ या अशुभ कर्म प्रायः करता है वैसा ही उसके अन्तःकरण में प्रबल संस्कार होता है। ये संस्कार वासना रूप से सञ्चित होते हैं। वही सञ्चित पाप वा पुण्य कहा जाता है, उन्ही वासनाओं के अनुकूल मरते समय उसका चित्त होता है। मरते समय जीवात्मा का इन्द्रियों के साथ पहले सबन्ध टूटता और केवल प्राण के आश्रय से जीवात्मा रह जाता है…..पश्चात् उदान से युक्त प्राण लिङ्ग शरीर के सहित जीवात्मा को शरीर से निकालके कर्मानुकूल स्थान योनि और भोग को प्राप्त कराता है।

अथ यदास्य वाङ्मनसि संपद्यते मनः प्राणे प्राणस्तेजसि

तेजः परस्यां देवतायामथ न जानाति।।

छांन्दोग्य 6-15-2

सोय पुरुषस्य प्रयतो वाङ्मनसि संपद्यते मनः प्राणे प्राणस् तेजसि तेजः परस्यां देवतायाम्।।

छान्दोग्य 6-8-6

जब तक पुरुष की वाणी मन में, मन प्राण में, प्राण तेज में और तेज पर देवता में लीन नहीं होता, तब तक वह जानता है, पहचानता है। इसके बाद जब इसकी वाणी मन में, मन प्राण में, प्राण तेज में और तेज पर देवता में लीन हो जाता है, तब नहीं पहचानता। हे सोय! मरने वाले पुरुष की वाणी मन में, मन प्राण में, प्राण तेज में और तेज परम देवता में लीन हो जाते हैं।

स्वामी सत्यबोध सरस्वती जी के अनुसार शरीर जब जरावस्था को प्राप्त होकर जीव के रहने योग्य नहीं रह जाता है तब जीव शरीर में अपने मुखयालय हृदय में आ जाता है। वहाँ समस्त प्राणोन्द्रियाँ जीव के समीप इकट्ठी हो जाती है और जीव वाग् चक्षु आदि समस्त इन्द्रियों से एक-एक करके अपना व्यापार समेटता जाता है। वे वागादि समस्त इन्द्रियाँ एक -एक करके मन में समाहित होती जाती है। मन मुखय प्राण में, प्राण तेज में और तेज परमात्मा में समाहित हो जाता है। अन्त में जीव जब हृदय के उर्ध्व भाग से शरीर की प्राणनाडियों द्वारा नवहारों में से किसी एक से उत्क्रमण करने लगता है, तब अन्तर्यामी परमात्मा द्वारा नियंत्रित तेज से युक्त प्राण अर्थात् उदान शरीर के समस्त अंगों से प्राणों केा समेट कर जीव के साथ ही निकल जाता है। जीव सूर्य की किरणों के माध्यम से (जो बाह्य प्राण का स्रोत है) सूर्य लोक को पहुँचा दिया जाता है। लेकिन साधारण जीव जो मोक्ष विद्या को नहीं जानते, वे पुनः सूर्य की किरणों के द्वारा ही वापस पृथिवी लोकों को अपने कर्मानुसार योनियों में पहुँचा दिये जाते हैं। उपरोक्त से यह स्पष्ट होता है कि हृदय की एक सौ एक नाड़ियों में से जो एक नाडी मूर्धा सिर तक गयी है तथा भेदन करके उसके भी बाहर निकल गयी है, उस प्राण नाड़ी से जो उत्क्रमण करता है वह सूर्य मार्ग से अमृतत्व को प्राप्त करता है। इस प्राण नाड़ी में चरण से मस्तक पर्यन्त ऊपर की ओर जाने वाला-संचार करने वाला उदान प्राण जीवात्मा को पुण्यः लोक को प्राप्त करा देता है। इसी एक प्राण नाड़ी के द्वारा ऊपर की ओर जाने वाला उदान प्राण सूक्ष्म शरीर सहित जीव को कर्मानुसार भिन्न-भिन्न स्थानों को पहुँचाता है। यह एक नाड़ी जो ऊपर की ओर सीधी मस्तक मूर्धा तक गयी है, जिसमें उदान प्राण विचरण करता है, इसी नाड़ी में जीवात्मा का निवास है तथा इस नाड़ी के साथ यानि उदान प्राण से मन को युक्त करते हुए योगीजन आत्मज्ञान को प्राप्त होते हैं। प्राण ही तेज अर्थात् उदानवृत्ति से समपन्न हो-जीव को उसके पाप-पुण्य कर्मों के अनुसार यथा संकल्पित लोकों को प्राप्त कराता है। उत्क्रमण करने वाला उदान प्राण तेजः स्वरूप है। ऊपर जाने वाली इस प्राण नाड़ी द्वारा ऊपर की ओर जाने वाला तथा चरण से मस्तक पर्यन्त संचार करने वाला उदान प्राण है तथा उदानवृत्ति से संयुक्त प्राण अर्थात् उदान प्राण ही मस्तक से पग के तलवे पर्यन्त विचरता है तथा ऊर्ध्वगामिनी इस हृदयस्थ नाड़ी के एक प्रदेश में आत्मा रहता है।

….मनो ह वाव यजमान इष्टफलमेनोदानः

स एनं यजमानमहरह ब्रह्म गमयति।।

 प्रश्न 4.4.

जिस प्रकार यज्ञ में यजमान यज्ञ करता है इसी प्रकार शरीर में मन यजमान है। इष्टफल शरीर में मानो उदान है। यह उदान मन रूपी यजमान को दिन-दिन ब्रह्म की तरफ ले जाता है। (डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार)। शांकर भाष्य के अनुसार मन ही निश्चय यजमान है और इष्टफल ही उदान है, वह उदान इस मनरूप यजमान को नित्यप्रति ब्रह्म के पास पहुँचा देता है। इष्टफलंयागफलमेवादोनो……. अतो यागफलस्थानीय उदानः। अर्थात् उदान वायु ही इष्टफल यानि यज्ञ का फल है, क्योंकि इष्ट फल की प्राप्ति उदान वायु के निमित्त से ही होती है। वह उदान वायु इस मन वाले यजमान को स्वप्नप्रवृत्ति से भी गिराकर नित्यप्रति सुषुप्ति काल में स्वर्ग के समान अक्षर ब्रह्म को प्राप्त करा देता है। अतः उदान यागफल स्थानीय है। एक अन्य टीकाकार ने ब्रह्म का अर्थ सुख किया है, जो प्रकरणोचित नहीं होने से ब्रह्म अर्थ ही उपयुक्त है।

स्वामी सत्यबोध सरस्वती जी के अनुसार प्राणायाम विद्या का इष्टफल उदान प्राण की पिण्ड (धड़) में स्थिरता का होना है। यह उदान प्राण ही मन रूपी यजमान को नित्य प्रति ब्रह्म से सबन्ध करा देता है। उदान प्राण स्थिर होने पर ही आत्मदर्शन उपलध होते हैं। ब्रह्म विज्ञान अत्यन्त सूक्ष्म होने से तथा केवल प्राण विद्या द्वारा उपलध होने से परमात्मा के प्रकाशस्वरूप का साक्षात् दर्शन उदान प्राण के द्वारा धर्माचरण तथा अष्टाङ्ग योग के अनुष्ठान पूर्वक पवित्रात्मा ही परमात्मा को प्राप्त करने में समर्थ होता है।

कुरान समीक्षा : असली कुरान से मुर्दे जी उठें-पहाड़ चलने लगें और जमीन फट जावेगी

असली कुरान से मुर्दे जी उठें-पहाड़ चलने लगें और जमीन फट जावेगी

वह कुरान पेश करें जिससे मुर्दे जी उठें, बोलने लगें, पहाड़ चलने लगें व जमीन फट जावे? जग कि ऐसा कुरान पेश नहीं होता है तब तक मौजूदा कुरान नकली फर्जी स्वयं ही साबित हो जाता है। इसका प्रचार न किया जावे तो उत्तम होगा। मुर्दे न सही यदि किसी कुरान से मरी हुई मक्खी जिन्दा होकर उड़ने लगेगी तो भी हम उसे असली खुदाई कुरान मान लेंगे।

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

व लो अन्-न कुर्आनन् सुय्यिरत्…………।।

(कुरान मजीद पारा १३ सूरा राद रूकू ४ आयत ३१)

और अगर कुरान ऐसा होता जिससे पहाड़ चलने लगते या उससे जमीन के टुकड़े हो सकते या उससे मुर्दे जी उठें और बोलने लगें तो वह यही होता….।

समीक्षा

अगर मौजूदा कुरान सच्चा होता तो दुनियाँ में एक भी मुसलमान मरना नहीं चाहिये था। जमीन जब फट सकती थी तो अलमारी में भूकम्प कुरान रखने से ही आ जाना चाहिए था। मस्जिदों में कुरान रखने से वह बिस्मार हो जानी चाहिये थीं। पहाड़ों में रास्ते बनाने के लिए डाइनेमाइट से उड़ाने के बजाय कुरान से काम लेना चाहिए था। पर एक भी शर्त कुरान से पूरी नहीं होती है अतः हम दावे के साथ कहते हैं कि ‘‘मौजूदा कुरान बिल्कुल नकली है,’’ यह कुरान की शर्त पर असली साबित नहीं किया जा सकता है।

अथ सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम की माप तौल का उत्तर

अथ सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम की माप तौल का उत्तर

– शिवनारायण उपाध्याय

आचार्य दार्शनेय लोकेश द्वारा भेजा गया लेख ‘अथ सृष्टि उत्पत्ति व्यायास्याम की माप-तौल’ मुझे आज ही प्राप्त हुआ। लेख में आपने वितण्डा और छल का प्रयोग कर व्यर्थ उसका कलेवर बढ़ाकर पाठकों को भ्रमित करने का यत्न किया है।

सृष्टि उत्पत्ति अथवा वेदोत्पत्ति के विषय में स्वामी दयानन्द की मान्यता के विरोध में लिखा गया यह पहला लेख नहीं है। इस विषय पर सर्वप्रथम रघुनन्दन शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘वैदिक सपत्ति’ में सृष्टि उत्पत्ति का समय 1972949116 वर्ष (वर्तमान की स्थिति तक) पूर्व माना, परन्तु जान बूझकर उसे समझाने का प्रयत्न नहीं किया। उसके बाद आचार्य वैद्यनाथ शास्त्री ने जब वे सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा में पदाधिकारी बने, तब इसी विषय पर एक लेख लिख दिया और चूंकि वे सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा में थे, उनकी गणना को सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा ने स्वीकार कर लिया। सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि के साप्ताहिक समाचार-पत्र पर भी उन्हीं की मान्यता के अनुसार तिथि छपने लग गई, परन्तु परोपकारिणी सभा अजमेर ने इसे स्वीकार नहीं किया। उसके बाद पं. सुदर्शन देव और पण्डित राजवीर शास्त्री ने मिलकर जब ऋग्वेद भाष्य भास्कर प्रकाशित किया तो उसके पृष्ठ 27 पर वेदोत्पत्ति काल विचार पर एक तर्क पूर्ण लेख लिखकर स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचारों का समर्थन किया। फिर अगस्त 2012 में बरेली के वैद्य रामगोपाल शास्त्री ने परोपकारी में लेख स्वामी दयानन्द की मान्यता के विरोध में लिखा। अगले माह मुझे उसका विरोध करना पड़ा। फिर स्वामी ब्रह्मानन्द जी ने उनके पक्ष में एक लेख लिख दिया। मैंने फिर विरोध किया तो स्वामी ब्रह्मानन्द ने टंकारा समाचार पत्र में लेख प्रकाशित करा दिया। मैंने कुल छः लेख लिखे। मामला ठंडा हो गया, परन्तु जून 2015 में स्वामी ब्रह्मानन्द ने फिर एक लेख स्वामी जी के विरोध में लिख दिया। तब मैंने उसके उत्तर में ‘अथ सृष्टि उत्पत्ति व्यायास्याम्’ लिखकर परोपकारी अजमेर तथा वैदिक संसार इन्दौर को भेजा। यह वैदिक संसार में जनवरी 2016 तथा परोपकारी में फरवरी 2016 में छपा। पं. गुरुदत्त विद्यार्थी ने भी एक लेख सृष्टि उत्पत्ति पर लिखा है और उसमें उन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की एतद् विषय में मान्यता का समर्थन किया है।

आओ, अब हम ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के आधार पर ही इस विषय पर चिन्तन करें और आचार्य दार्शनेय लोकेश द्वारा उठाए गए बिन्दुओं पर भी विचार करें। स्वामी जी लेख का प्रारा यहाँ से करते हैं-

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।

छन्दांसिजज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।।

– यजु. 31.7

(तस्मान् यज्ञात्स.) सत् जिसका कभी नाश नहीं होता। (चित्) जो सदा ज्ञान स्वरूप है….. उसी परब्रह्म से (ऋचः) ऋग्वेद (यजुः) यजुर्वेद (सामानि) सामवेद और (छंदासि) अथर्व भी, ये चारों वेद उत्पन्न हुए हैं।

प्रश्न वेदों को उत्पन्न करने में ईश्वर को क्या प्रयोजन था?

उत्तरजो परमेश्वर अपनी विद्या का हम लोगों के लिए उपदेश न करे तो विद्या से जो परोपकार करना गुण है, सो उसका नहीं रहे।

फिर शतपथ के प्रमाण से कहते हैं, ‘अग्नेर्ऋग्वेदो वायो यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेद। अर्थात् सृष्टि के आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा के आत्मा में एक-एक वेद का प्रकाश किया।’

वेदानामुत्पत्तौ कियन्ति वर्षाणि व्यतीतानि?

एको वृन्दःषण्णवतिः कोट्योऽष्टौ लक्षाणि द्विपञ्चाशत्

सहस्त्राणि नव शतानि षट् सप्ततिश्चैतावन्ति 1960852976 वर्षाणि व्यतीतानि। सप्त सप्ततितमोऽयं संवत्सरो वर्त्तत इति वेदितव्यम्।।

इसमें स्वामी जी ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि वेद एवं जगत् की उत्पत्ति को 1960852976 वर्ष व्यतीत हो गए हैं और इस समय 77 वाँ वर्ष चल रहा है।

प्रश्न यह कैसे निश्चय हो कि इतने ही वर्ष वेद और जगत् की उत्पत्ति में बीत गए हैं?

उत्तरयह जो वर्तमान सृष्टि है, इसमें सातवें मन्वन्तर का वर्तमान है, इससे पूर्व छः मनवन्तर हो चुके हैं। 1. स्वायभुव 2. स्वरोचिष 3. औत्तिमि 4. तामस 5. रैवत 6. चाक्षुष ये छः तो बीत गए हैं और सातवाँ वैवस्वत वर्त्त रहा है। सावर्णि आदि सात मन्वन्तर आगे भोगेंगे। ये सब मिलकर 14 होते हैं और 71 चतुर्युगियों का नाम मन्वन्तर धरा गया है। उनकी गणना इस प्रकार है कि 1728000 वर्ष का सतयुग, 1296000 वर्ष का त्रेतायुग, 864000 वर्ष का द्वापर तथा 432000 वर्ष का कलियुग। स्पष्ट रूप से इनमें 4:3:2:1 का अनुपात है। फिर एक चतुर्युगी से 4320000 वर्ष बन गए। एक मन्वन्तर 71 चतुर्युगी का होने से 4320000×71=306720000 वर्ष हुआ। ऐसे छः मन्वन्तर 306720000×6=1840320000 वर्ष के हो गया। फिर 27 चतुर्युगियाँ और व्यतीत हो गईं, उनका साल 4320000×27=116640000 वर्ष, फिर अट्ठाइसवीं चतुर्युगी के 1728000+1296000+864000+4976= 3892976 वर्ष और हो गए। इस तरह कुल काल 1840320000+116640000+3892976= 1960852976 वर्ष हुए। यह योग स्वामी जी ने विक्रम संवत 1933 में लिया था। साथ ही यह भी कहा कि वर्तमान में 76 वाँ समाप्त होकर 77 वाँ वर्ष चल रहा है।

वर्तमान में 2073 वर्ष चल रहा है, अर्थात् 2073-1933 =140 वर्ष आगे चल गए हैं, इसलिए वर्तमान में सृष्टि की आयु होगी 1960852977+140= 1960853117 वर्ष।

इस सपूर्ण विवरण में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सन्धि वर्ष का कहीं भी उल्लेख नहीं किया है।

स्वामी जी ने स्पष्ट लिखा है कि 14 मन्वन्तर का काल भोग काल होता है।

ते चैकस्मिन्ब्राह्म दिने 14 चतुर्दश भुक्त भोगा भवन्ति। एक सहस्त्रं 1000 चतुर्युगानि ब्राह्मदिनस्य परिमाणं भवति।।

अर्थात् 14 मन्वन्तर का काल ‘भुक्त भोग’ काल है और 10000 चतुर्युगी एक ब्रह्म दिन है। इतना ही समय प्रलय का होता है जो ब्रह्म रात्रि कही जाती है, अर्थात् भोग काल 14×71=994 चतुर्युगी ही है। स्वामी जी ने सृष्टि उत्पत्ति काल की गणना उस समय से की है, जब मनुष्य उत्पन्न हुआ। मनुष्य के उत्पन्न होने के साथ ही चार ऋषियों के द्वारा परमात्मा ने वेद ज्ञान दिया, परन्तु सृष्टि उत्पत्ति प्रारभ होने से लेकर मनुष्य की उत्पत्ति होने तक व्यतीत काल को उन्होंने गणना में नहीं लिया। यह समय 6 चतुर्युगी के बराबर माना गया है। यह धारणा आर्यों से अपने भाई पारसियों में गई और पारसियों से इसे यहूदी लोगों ने लिया। उन्होंने सृष्टि उत्पत्ति 6 दिन में मानी और यदि  एक दिन का मान एक चतुर्युगी को माने तो उनकी मान्यता भी वेदानुकूल होगी। सृष्टि उत्पत्ति एक क्षण में नहीं हो सकती है, क्योंकि वह वेद की मान्यता के विरोध में है। वेद में स्पष्ट कहा गया है-

त्वेषं रूपं कृणुत उत्तरं यत्संपृञ्चानः सदनेगोभिरद्भिः।

कविबुध्नं परि मर्मृज्यते धीः सा देवतानां समितिर्बभूव।।

– ऋ. 1.95-8

भावार्थ-मनुष्यों को जानना चाहिए कि काल के लगे बिना कार्य स्वरूप उत्पन्न होकर नष्ट हो जाए-यह होता ही नहीं है।

(स्वामी दयानन्द सरस्वती का भाष्य)

फिर ऋग्वेद में यह भी कहा गया है कि सृष्टि उत्पन्न करने के लिए परमात्मा को गतिहीन परमाणुओं को गति देने के लिए लोहार की तरह आग में धोंकना पड़ा है-

ब्रह्मणस्पति रेता सं कर्मारइवाधमत्।

देवानां पूर्व्ये युगेऽसतः सदजायत।। – ऋ. 10.72.2

प्रलय में सृष्टि असत् (अव्यक्त) रूप में थी, उसे सत् में लाने के लिए पूर्व युग में परमात्मा को लुहार की भाँति धोंकना पड़ा है।

अब आचार्य जी द्वारा लगाए गए आक्षेपों के उत्तर इस प्रकार हैं। आप लिखते हैं- ‘विश्वास नहीं होता कि उनके जैसा विद्वान् व्यक्ति भी तर्कों के ऐसे तुक्के लगा सकता है, जिससे स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे युग पुरुष द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों की अवहेलना हो रही हो।’ उत्तर में मेरा कहना है कि मैं कोई विद्वान् नहीं हूँ, मैं तो स्वामी दयानन्द के ग्रन्थों और वेद भाष्यों का अध्येता हूँ। मेरा कोई मौलिक चिन्तन नहीं है। इसमें मेरा क्या दोष है कि मैं स्वामी दयानन्द द्वारा ऋाग्वेदादिभाष्याूमिका में वेदोत्तपत्ति काल को जैसा उन्होंने लिखा, वैसा ही प्रस्तुत कर देता हूँ। स्वामी दयानन्द के अनुसार यदि वेदोत्पत्ति काल आज 1960853117 वर्ष है तो मैं उसे सत्य मानता हूँ। स्वामी ब्रह्मानन्द जी और आचार्य दार्शनेय लोकेश उसे न मानकर 1972949117 माने तो वे मौलिक चिन्तक हैं?

आप यदि कहते हैं कि मैं जो कह रहा हूँ और मोहनकृति आर्ष पत्रकम् में लिख रहा हूँ वही सही है तो आप मानते रहें। सिद्धान्त एक में आप लिखते हैं कि महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के श्री मुख से सृष्टि के आदि में ईश्वर वेदों को उत्पन्न करके संसार में प्रकाश करता है। प्रलय में संसार में वेद नहीं रहते, परन्तु उसके ज्ञान के भीतर वे सदैव बने रहते हैं।

यहाँ सृष्टि के आदि का अर्थ क्या जब ईश्वर परमाणुओं को स्थूल रूप देने लगता है, तब से है अथवा मनुष्य के उत्पन्न होने से है। वास्तव में वेद का ज्ञान तो परमात्मा ने मनुष्य को दिया है और दिया तभी होगा, जब मनुष्य को उत्पन्न कर दिया, परन्तु मनुष्य को उत्पन्न करने से पूर्व उसने वायु, तेज, जल, पृथ्वी और वनस्पति को तो पैदा किया ही है, अतः हमें मनुष्य की उत्पत्ति से पूर्व काल का भी ध्यान रखना है।

सिद्धान्त 2-पूर्व में लिख दिया गया है कि सृष्टि की कुल आयु 1000 चतुर्युगी होती है और इसी को ब्रह्म का एक दिन कहते हैं, परन्तु भोग काल 14 मन्वन्तर अर्थात् 94 चतुर्युगी ही होता है।

सिद्धान्त 3- ज्योतिष छः वेदांगों में से एक है और इसे वेद की आँख कहा जाता है। इसका हम विरोध नहीं करते हैं।

सिद्धान्त 4-सूर्य सिद्धान्त ज्योतिष के प्रमाण ग्रन्थों में से एक है। आचार्य सुदर्शन देव जी तथा पं. राजवीर शास्त्री ऋग्वेद भाष्य भास्कर में लिखते हैं, मयासुर का सूर्य सिद्धान्त सन्धिकाल की मान्यता का आधार है। यह ग्रन्थ अनार्ष पौराणिक मान्यताओं से ओतप्रोत होने से महर्षि को मान्य नहीं है। मयासुर के सूर्य सिद्धान्त का खण्डन दयानन्द सन्देश के विशेषांक में हुआ है, जिसका उत्तर विपक्षी नहीं दे सके हैं। सूर्य सिद्धान्त के 1.24 श्लोक की संगति भी वे नहीं लगा सके हैं। इसकी मान्यता में किसी भी शास्त्र का प्रमाण नहीं मिलता है।

सिद्धान्त 5- यदि कोई व्यक्ति 1000 चतुर्युगी को तो मानता है, परन्तु 15 सन्धियों को नहीं मानता तो यह व्यवहार अर्ध जरतीय न्याय के अन्तर्गत स्वीकार्य नहीं है। आपका यह कथन व्यर्थ है, अगर शास्त्र की यह मान्यता होती तो प्रत्येक मन्वन्तर का काल वह 306720000+ 1728000 वर्ष = 308448000 वर्ष लिाता, जैसा कि कलयुग की आयु 1200 देव वर्ष लिखते हैं, जबकि इसमें 100 देव वर्ष सन्धिकाल तथा 100 वर्ष सन्ध्यांश काल जुड़ा हुआ है। यही स्थिति शेष तीन युगों की भी है, परन्तु ऐसा लिखा जाना इसलिए संभव नहीं बन पाया कि इससे तो केवल 14 संधि काल ही काम में आते, शेष उस काल का समायोजन अन्तिम मन्वन्तर के अन्त में किया गया है। यह सबा्रम मूलक है। मुय सिद्धान्त यह है कि सृष्टि का भोग काल 14 मन्वन्तर है तथा सृष्टि की सपूर्ण आयु 1000 चतुर्युगी है।

सिद्धान्त 6-सिद्धान्त को स्पष्ट नहीं लिख सके हैं। लिखना चाहिए था कि किसी भी वस्तु के भुक्त काल और शेष भोग्य काल का योग वस्तु की सपूर्ण आयु के बराबर होता है। यदि ऐसा न हो तो गणितीय त्रुटि अवश्य है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इसी आधार पर लिखा है कि सृष्टि की उत्पत्ति हुए 1960852976 वर्ष हुए हैं और 2333227024 वर्ष सृष्टि के भोग करने शेष हैं। इन दोनों का योग 4294080000 वर्ष होता है, जो 14 मन्वन्तर के काल के बराबर है। सृष्टि की सपूर्ण आयु ज्ञात करने के लिए इसमें सृष्टि निर्माण में जो समय लगा, उसका योग करना होगा। तब सृष्टि की आयु 4320000000 वर्ष हो जाएगी। इसे इस तरह समझने का प्रयत्न करें कि हम मनुष्य की आयु की गणना सदैव उसके माता के गर्भ से बाहर आने के बाद करते हैं, परन्तु वास्तव में उसके बनने की क्रिया तो दस माह पूर्व गर्भाधान के अवसर पर ही बन गई थी। माँ के गर्भ में भी उसका जीवन चल रहा था, उसके निर्माण कार्य को हम उसकी आयु में नहीं जोड़ रहे हैं, इसी प्रकार सृष्टि की रचना तो सृष्टि के व्यक्त रूप में आने से पूर्व ही चल रही थी। उस पर आपका ध्यान नहीं है। सृष्टि पूर्ण होने के बाद 14 मन्वन्तर और भोगती है।

जब एक युग या एक मन्वन्तर की चर्चा करेंगे तो भोगा गया काल तथा भोगा जाने वाला काल मिलकर पूर्ण युग अथवा पूर्ण मन्वन्तर की गणना के अनुरूप होंगे ही, इसका कोई विरोध नहीं करता है। फिर आप महर्षि की बात करते हैं कि जो वर्तमान ब्रह्मदिन है, इसके 1960852976 वर्ष इस सृष्टि की तथा वेदों की उत्पत्ति में व्यतीत हुए हैं और 2333227024 वर्ष इस सृष्टि के भोग करने के बाकी रहे हैं। अनुशीलन में आप लिखते हैं कि यहाँ 1960852976 वर्ष भुक्त काल और भोग्य काल 2333227024 वर्षों का योग वर्तमान ब्रह्मदिन की कुल अवधि 4320000000 आ जाना सिद्धान्तः आवश्यक है। श्रीमान, आपका यह सोचना असत्य है। भोग काल और शेष भोग्य काल का योग सृष्टि के कुल भोग काल के तुल्य आना चाहिये। यहाँ योग 4294080000 वर्ष आ रहा है, जो 14 मन्वन्तर के काल के बराबर है। यह सृष्टि की पूर्ण आयु नहीं है। पूर्ण आयु जानने के लिए इसमें सृष्टि उत्पत्ति का काल जोड़ना होगा। सृष्टि का भोग काल तो 4294080000 वर्ष ही है। जैसे हम मनुष्य की आयु में उसके गर्भकाल के समय को नहीं जोड़ते हैं, वैसे ही भोगकाल (सृष्टि का) में उत्पत्तिकाल को जोड़ना आवश्यक नहीं है। छः चतुर्युगी का काल सृष्टि उत्पत्ति का समय है। फिर आप खुलकर सामने आ गए हैं कि भोग काल +शेष भोग्य काल का योग इतना (4320000000) वर्ष नहीं आता है। स्वाभाविक है कि यह एक लेखन त्रुटि है, अर्थात् स्वामी दयानन्द ने गलती की है। मेरा कहना है कि स्वामी दयानन्द ने कहीं गलती नहीं की है। 14 मन्वन्तर सृष्टि का भोग काल है और भोग काल तभी प्रारभ होता है, जब सृष्टि पूर्ण विकसित होकर इस योग्य हो जाय कि उसमें प्राणी सफलता से अपना जीवन यापन कर सकें। इस सृष्टि निर्माण काल को सृष्टि के भोग काल में जोड़ने से सृष्टि की कुल आयु 4320000000 वर्ष आ जाएगी।

आप अपनी गलत धारणा को सत्य सिद्ध करने के लिए स्वामी जी की उक्ति दे रहे हैं। मेरे मंतव्य कोई अद्वितीय व असाधारण  नहीं है और न मैं सर्वज्ञ हूँ। यदि युक्तिपूर्वक विचार-विमर्श के अनन्तर भविष्य में आपके सामने आए तो उसे ठीक कर लीजिएगा। यह उक्ति आपका साथ नहीं देती है। इसके द्वारा आप छल करके पाठक को ठगना चाहते हैं। महर्षि की विनम्रता की आड़ में अपना पाण्डित्य बघारना आपको शोभा नहीं देता। कहाँ ऋषि का वैदुष्य और कहाँ आपके चिन्तन का उथलापन।

14 मन्वन्तर के बाद बची 6 चतुर्युगियों को न तो हम काल की अवधि के रूप में जोड़ना चाहते हैं और न उसके दो भाग करके आगे और पीछे जोड़ने के तरीके ढूँढकर भरपाई कर रहे हैं। मेरे लेख में ऐसा कुछ नहीं किया गया है। आप ऋषि की त्रुटि भी निकाल रहे हैं और उनके समर्थक भी बन रहे हैं। जब ऋषि के लेख में त्रुटि है ही नहीं तो फिर त्रुटि सुधारने की बात व्यर्थ है।

मेरे इस लेख का मानना है कि सृष्टि में मानव की उत्पत्ति कब हुई, क्योंकि मानव के उत्पन्न होने पर ही तो वेद का ज्ञान उसे मिला। वास्तव में मनुष्य ने तो उत्पन्न होने के बाद ही समय की गणना प्रारभ की हैं। विरोध करते हुए आप लिखते हैं? कदापि नहीं। मानवोत्पत्ति और वेदोत्पत्ति का ऐसा कोई सबन्ध नहीं है। जब मनुष्य समाप्त हो जाएँगे तो क्या वेद भी समाप्त हो जाएगा। मेरा कहना है कि श्रीमान्, वेद तो ईश्वर का स्वाभाविक ज्ञान है जो न घटता है और न बढ़ता है। ईश्वर चाहे सृष्टि का निर्माण करे चाहे प्रलय , परन्तु अपने ज्ञान (वेद) का न वह विकास ही कर सकता है और न क्षरण ही कर सकता है। यह ईश्वर का अर्जित ज्ञान नहीं है। रही सृष्टि में वेद ज्ञान की बात तो वह मनुष्य से जुड़ी है। सृष्टि के प्रारभ में वह ऋषियों को दी जाती है और जब प्रलय हो जाता है, सृष्टि में कुछ रहता ही नहीं है तो वह ज्ञान ईश्वर के पास सुरक्षित रहता है।

मनुष्य ने वेद ज्ञान प्राप्त कर बड़े-बड़े अविष्कार किये हैं। सूर्य तक की दूरी नापना तो एक सामान्य बात है, आज तो लाखों प्रकाश वर्ष दूरी पर स्थित निहारिका मण्डलों तक क ी जानकारी वैज्ञानिक के पास है। दूरदर्शक यन्त्र के द्वारा तीन निहारिका मण्डलों को तो मेरे गाँव के सामान्य लोगों ने भी देख लिया है। क्या यह कम आश्चर्य की बात है कि आज आप कहीं भी घूमते हुए अपने मोबाइल से विश्व के किसी भी कोने में रहने वाले व्यक्ति से बात कर सकते हैं? इसके लिए कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। वैदिक ऋषियों ने तो यहाँ तक जान लिया था कि सृष्टि में कुछ ऐसी निहारिका मंडल है, वे जब से बनी है उनका प्रकाश पृथ्वी की ओर आ रहा है, परन्तु अब तक पृथ्वी पर नहीं पहुँच पाया है। वास्तव में सृष्टि की कोई सीमा नहीं है। अन्त में मैं कहना चाहता हूँ कि आप सृष्टि के भोग काल और सृष्टि की सपूर्ण आयु को एक मानना छोड़ दें। विज्ञान भी इसी धारणा का समर्थन करता है। इतिशम्।

– कोटा, राजस्थान

 

कुरान समीक्षा : आसमानों को ऊँचा खड़ा किया

आसमानों को ऊँचा खड़ा किया

पढ़े-लिखे मौलाना इस आयत का खुलासा करें कि (तम्बू की तरह) सात आसमान कैसे ऊंचे खड़े किये गये हैं?

अल्लाहुल्लजी र-फ-अस् समावाति………।।

(कुरान मजीद पारा १३ सूरा राद रूकू १ आयत २)

अल्लाह वह है जिसने आसमानों को बिना किसी सहारे के ऊंचाबनाकर खड़ा किया, तुम देख रहे हो फिर तख्त पर जा विराजा।

समीक्षा

इस आयत में खुदा का आना जाना और फिर आसमान अनाकर तख्त पर जा बैठना लिखा है, इससे स्पष्ट है कि खुदा हाजिर नाजिर अर्थात् सर्वव्यापक नहीं है आसमान जब कोई ठोस पदार्थ नहीं है तो ‘‘उसका ऊंचा और बे सहारा बनाकर खड़ा करना’’ ऐसा कहना कुरान बनाने वाले को पूरा नासमझ साबित करता है।

आर्य समाज क्या है?

आर्य समाज क्या है?

जहाँ सत्य सदा सर्वोपरि है,

वेदों में निष्ठा गहरी है,

आर्य समाज सदैव से ही,

धर्म राष्ट्र का सच्चा प्रहरी है।

(1)

संस्थापक जिसके दयानन्द थे

गुणी शिष्य गुरु विरजानन्द के

गुरु ऋण को चुकाने की खातिर

तजे जिसने सभी सुख आनन्द थे

गूंजी एक बार न शांत हुई, ओ3म् नाम की जो स्वर लहरी है,

आर्य समाज सदैव से ही, धर्म राष्ट्र का सच्चा प्रहरी है।

(2)

जहाँ पत्थर के भगवान् नहीं

पूजे जाते इन्सान वहीं

जहाँ तर्क रहित धाराणाओं को

मिल सकता कोई स्थान नहीं

जहाँ सफलता तक पहुँचने की, निर्धारित राह इकहरी है,

आर्य समाज सदैव से ही, धर्म राष्ट्र का सच्चा प्रहरी है।

(3)

जातिगत जहाँ कोई भेद नहीं

वंचित पढ़ने से वेद नहीं

समान गुणी के गुणों का जहाँ

हो अल्प गुणी तो खेद नहीं

सब साथ चलें और साथ बढ़ें, भावना सुखदायी सुनहरी है,

आर्य समाज सदैव से ही, धर्म राष्ट्र का सच्चा प्रहरी है।

(4)

भारत माता जब जकड़ी थी

दासता की दृढ़ जंजीरों से

खाई थी कसम आजादी की

बिस्मिल व भगत आर्यवीरों ने

लेखराम श्रद्धानन्द लाजपत के, बलिदानों की छाप अति गहरी है

आर्य समाज सदैव से ही, धर्म राष्ट्र का सच्चा प्रहरी है।

(5)

जहाँ यज्ञ हवन और संध्या के

संस्कार बच्चों को मिलते हैं

आशीष से वृद्धों गुरुजनों की

सदा द्वार सफलता के खुलते हैं

बरसों की पुरानी इमारत ये, दस नियमों की नींव पे ठहरी है

आर्य समाज सदैव से ही, धर्म राष्ट्र का सच्चा प्रहरी है।

– अशोक प्रभाकर, जी-16, महेशनगर, अबाला छावनी

कुरान समीक्षा : अरबी में ही कुरान क्यों उतारा गया?

अरबी में ही कुरान क्यों उतारा गया?

क्या इससे स्पष्ट नहीं है कि खुदा का उद्देश्य कुरान उतारने का केवल अरब वालों को डराना मात्र था?

यह दुनियाँ के लिये होता तो उसे मुल्क में वहीं की भाषा में बनाया गया होता ताकि सारी दुनियाँ के लोग उसे पढ़ व समझ सकते।

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

इन्ना अन्जल्नाहु कुर-आनन्…………….।।

(कुरान मजीद पारा १२ सूरा यूसुफ रूकू १ आयत २)

हमने कुरान को अरबी भाषा में उतारा है ताकि तुम समझ सको।

समीक्षा

जब कि कुरान का उद्देश्य ही मक्का और उसके आसपास के लोगों को डराना था तो उसे अरबी में ही उतारना ठीक था ताकि वे उसे समझ सकें। पर यह नहीं बताया कि असली कुरान खुदा के पास किस भाषा में लिखा हुआ रखा है?

शायद वह संस्कृत में ही होगा क्योंकि प्राचीनतम् भाषा संस्कृत ही है। निम्न प्रमाण भी देखें।

अन् तकूलू इन्न्मा उन्जिलल्………..।।

(कुरान मजीद पारा ८ सूरा अन्आम रूकू २० आयत १५६)

ऐ मुशरिकीन अरब! हमने यह इसलिये उतारी है कि कहीं यह न कह बैठो कि हमसे पहले बस दो ही गिरोहों पर किताब उतरी थी और हम तो उसके पढ़ने पढ़ाने से बिल्कुल बेखबर थे।

इस प्रमाण से भी स्पष्ट है कि कुरान मक्का और उसके आसपास या मुशरिकीन अरब वालों को इस्लाम में फांसने के लिए खुदा के नाम से बनाया गया था ।

वास्तव में वह संसार के लिये नहीं बना था, न सभी को उसे मानना चाहिये।

अजमेर विश्वविद्यालय में दयानन्द शोधपीठ

अजमेर विश्वविद्यालय में दयानन्द शोधपीठ

राज्यपाल की घोषणा

इस मास के प्रथम दिन एक अगस्त को समपन्न हुये दीक्षान्त समारोह में राजस्थान के राज्यपाल महामहिम कल्याणसिंह जी ने अपने दीक्षान्त भाषण में महर्षि दयानन्द के कार्यों की चर्चा करते हुए कहा कि ऋषि दयानन्द वेदों के प्रचारक और समाज में व्याप्त  अन्धविश्वासों को झकझोरने वाले थे, उस समाज सुधारक की स्मृति में स्थापित इस महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय में महर्षि के कार्य और जीवन पर अनुसन्धान करने के लिये एक शोधपीठ की स्थापना होनी चाहिए।

राज्यपाल, जो पदेन राज्य के सभी विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते हैं, उनके आग्रह को आदेश मानते हुए विश्वविद्यालय ने शोधपीठ स्थापित करने का निर्णय ले लिया है। विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. कैलाश सोडानी ने इस बात की घोषणा की और निर्णय की जानकारी देते हुए बताया कि इसके लिये विश्वविद्यालय की ओर से एक करोड़ रुपये की राशि प्रदान की जायेगी। इसी सत्र से शोधपीठ की स्थापना कर दी जायेगी तथा अगले सत्र से शोधपीठ का कार्य प्रारमभ हो जायेगा।

जब नरेन्द्र मोदी प्रधानमन्त्री बने और अजमेर को विकसित करने और यहाँ की सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करने की घोषणा हुई, तभी से परोपकारिणी सभा ने अजमेर को महर्षि के स्मारक के रूप में स्थापित करने के अनेक सुझाव सरकार और जिलाधीश के मार्गदर्शन में स्थापित समिति के सममुख रखे थे। विश्वविद्यालय के कुलपति से भेंट कर विश्वविद्यालय में शोधपीठ स्थापित करने का प्रस्ताव दिया था। जब गत वर्ष अनेक महापुरुषों की स्मृति में शोधपीठ स्थापित हुए, तब भी सभा ने प्रयास किया था, परन्तु बात निर्णय तक नहीं पहुँच सकी। सभा द्वारा शोधपीठ की स्थापना के लिये प्रधानमन्त्री मोदी जी को पत्र लिखा गया, उनका निर्देश भी विश्वविद्यालय को मिला, परन्तु प्रस्ताव क्रियान्वित नहीं हो पाया। इस वर्ष मोदी जी के साथ-साथ महामहिम राज्यपाल की सेवा में भी निवेदन किया गया और उनसे अनुरोध किया कि आप राज्यपाल होने के नाते विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं तथा आप ऋषि दयानन्द की मान्यता और सिद्धान्तों के मर्मज्ञ और मानने वाले हैं, आप द्वारा यह शुभ कार्य किया जाना चाहिए। यह एक सुखद संयोग है कि महामहिम ने पत्र का उत्तर दीक्षान्त समारोह में पीठ की स्थापना का परामर्श देकर दिया। मान्य कुलपति ने उनके निर्देश को स्वीकार करते हुए, उसी दिन विश्वविद्यालय में दयानन्द शोधपीठ की स्थापना का निर्णय लेकर शोधपीठ प्रारमभ करने की घोषणा कर दी। सभा के प्रयास को सफलता मिली। सारा आर्यजगत् मोदी जी, महामहिम राज्यपाल कल्याणसिंह जी तथा विश्वविद्यालय के कुलपति कैलाश सोडानी जी का हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित करता है।

किसी व्यक्ति विशेष के सामाजिक, शैक्षणिक एवं शोधपरक योगदान को देखते हुए, उनके जीवन एवं कार्य को समाज के सामने लाने के लिये तथा उनके कार्यों का महत्त्व और उपयोगिता को समझाने के लिये, उनके नाम पर शोधपीठ स्थापित करने की परमपरा है। विश्वविद्यालयों में शोधपीठ की स्थापना जहाँ व्यक्ति के कार्य और महत्त्व का मूल्यांकन के लिये की जाती है, वहीं किसी भी विभाग में अध्ययन के लिये किसी व्यक्ति विशेष के नाम से भी पीठ की स्थापना की जाती है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति अपने या किसी के नाम से विशेष अध्ययन के लिये शोधपीठ की स्थापना कराते हैं, जैसे ऑक्सफोर्ड में वोडन चेयर है, जिस पर रहकर मैक्समूलर ने वेद भाष्य के अंग्रेजी अनुवाद का कार्य किया। ऋषि दयानन्द का समाज- सुधार, देश, संस्कृति, इतिहास, शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान है। उनके विचारों और कार्यों से देश का गौरव बढ़ा है। समाज की विषमताओं पर चोट पहुँची है। इस देश के निवासियों में स्वाभिमान और देश के प्रति गौरव का भाव बढ़ा है।

ऋषि दयानन्द की शिक्षा पद्धति और विचार का प्रसार करने के लिये ऋषि के जीवन काल से ही प्रयास प्रारमभ हो गये थे, पण्डित गुरुदत्त जी के नेतृत्व में डी.ए.वी. संस्थान की स्थापना हुई, परन्तु स्वयं गुरुदत्त को ही इससे निराशा हाथ लगी। दूसरा प्रयास गुरुकुल कांगड़ी के रूप में हुआ। बहुत वर्षों तक यहाँ वेद के विद्वान् तैयार हुये, परन्तु आज वेद और आर्ष पद्धति दोनों ही गौण हैं व वर्तमान पाठ्यक्रमों की भरमार है तथा ऋषि दयानन्द कहीं बहुत पीछे छूट गये प्रतीत होते हैं। आर्य समाज के संगठन की आपसी लड़ाई ने संस्था को व्यर्थ कर दिया है।

ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों, कार्य और जीवन पर अनुसन्धान करने के लिये आर्य वैदिक विद्वान् एवं गुरुकुल कांगड़ी के कुलाधिपति डॉ. रामप्रकाश जी के प्रस्ताव से सर्वप्रथम पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़ में दयानन्द पीठ की स्थापना डिपार्टमेण्ट ऑफ वैदिक स्टडीज के नाम से की गई, जिसमें डॉ. रामानाथ वेदालंकार तथा डॉ. भवानीलाल भारतीय जी के माध्यम से अच्छा कार्य हुआ। आजकल वहाँ कोई स्वतन्त्र अध्यक्ष नहीं है। संस्कृत विभाग के प्रो. वीरेन्द्र अलंकार उस शोधपीठ का कार्य सभाल रहे हैं, गतिविधियों के माध्यम से सक्रियता बनाये हुए हैं।

दूसरा प्रयास कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में हुआ था, वहाँ जब तक विद्यानिवास मिश्र रहे, उनके निर्देशन में भी अच्छा कार्य हुआ। उनके जाने के बाद वहाँ कार्य समाप्त प्रायः है। यह शोधपीठ बाद में रोहतक में स्वामी दयानन्द विश्वविद्यालय में स्थानान्तरित कर दी गई। महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय रोहतक में भी दयानन्द शोधपीठ है, परन्तु वहाँ भी कोई स्वतन्त्र अध्यक्ष नहीं है। संस्कृत-विभाग के अध्यक्ष डॉ. सुरेन्द्र कुमार ही इसको समभाल रहे हैं। जहाँ विश्वविद्यालय के कुलपतियों के लिये यह कार्य उनकी प्राथमिकता का नहीं है, वहीं आर्यसमाज में संगठन नहीं है, ना ही उनकी इस प्रकार की सोच है, अतः इस दिशा में जो कार्य होना चाहिए था, वह नहीं हुआ।

पुराने विद्वानों ने विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों को लगवाने का प्रयास किया। इसमें आधुनिक समझे जाने वाले तथा पौराणिक लोगों ने यथासम्भव विरोध किया। यह एक प्रकार से ज्ञान से शत्रुता का ही उदाहरण है, फिर भी अनेक विश्वविद्यालयों में वेद के पाठ्यक्रम में सहायक ग्रन्थों में ऋषि दयानन्द की ‘वेद भाष्य भूमिका’ लगाई जा सकी है, इसमें मेरठ, अजमेर  और कानपुर विश्वविद्यालयों के नाम उल्लेखनीय हैं। रोहतक विश्वविद्यालय में वेद वर्ग में भूमिका और वेदभाष्य लगाये गये हैं तथा रामानुज तथा दयानन्द दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन कराया जाता है। कर्मकाण्ड की पुस्तकों में संस्कार विधि को भी स्थान दिया गया है। ऋषि दयानन्द के जीवन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष उनका दार्शनिक चिन्तन है। उसको जितना प्रकाश में लाने की आवश्यकता है, उतना कार्य नहीं हुआ, तो भी नये-पुराने विद्वानों ने इस पर प्रशंसनीय कार्य किया है- आचार्य उदयवीर शास्त्री, आर्यमुनि, तुलसीराम स्वामी, गंगाप्रसाद उपाध्याय, स्वामी सत्यप्रकाश। वर्तमान में डॉ. जयदेव वेदालंकार ने इस पर पर्याप्त कार्य किया है। कुछ विश्वविद्यालयों ने दयानन्द दर्शन को अपने पाठ्यक्रम में स्थान भी दिया है, परन्तु जो मौलिकता और प्रखर चिन्तन ऋषि दयानन्द ने किया है, उसका यथार्थ स्वरूप विश्वविद्यालयों के लेखन और विचारों में परिलक्षित नहीं होता। ऋषि दयानन्द के सर्वांगीण व्यक्तित्व एवं विचार पर अनुसन्धान करने के लिये अधिकाधिक विश्वविद्यालयों में शोधपीठ की स्थापना और दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का पाठ्यक्रम में समावेश कराने की आवश्यकता है।

विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में आर्ष पद्धति को स्थान दिलाने के लिये प्रथम पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु ने प्रयास करके समपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में आर्ष विभाग को स्थापित कराया था, यह पाठ्यक्रम प्राचीन व्याकरण के नाम से अष्टाध्यायी पद्धति से पढ़ाया जाता है। इसी प्रकार स्वामी ओमानन्द जी के प्रयास ने महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय रोहतक में आर्ष पाठ विधि को स्वीकृति दिलाकर उसके पाठ्यक्रम और उपाधियों को मान्यता दिलाई। इस विश्वविद्यालय में यह पाठ्यक्रम गुरुकुल स्कीम नाम से चलता है।

विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में स्वामी दयानन्द के विचार तथा अधिक-से-अधिक शिक्षा संस्थानों में ऋषि दयानन्द के कार्य एवं विचारों पर शोध कार्य हो, ऐसा प्रयास आर्यसमाज को करना चाहिए। ऋषि दयानन्द ऐसे महापुरुष हैं, जो मनुष्य मात्र को विद्या का अधिकारी मानते हैं। सबको विद्या का अधिकार देते हैं तथा अपने विवेक से निर्णय करने का सामर्थ्य उत्पन्न करने की प्रेरणा करते हैं।

वेद का सन्देश है- मनुष्य को सदा ज्ञान के अनुसार ही आचरण करना चाहिए तथा कभी भी ज्ञान विरोधी नहीं होना चाहिए। वेद का अधिकार ज्ञान का अधिकार है। वेद कहता है-

सं श्रुतेन गमेमहि मा श्रुतेन विराधिषि।।

– धर्मवीर