सार्वभौम मानव धर्म

 सार्वभौम मानव धर्म

-मोहनचन्द

महर्षि दयानन्द ने स्वरचित ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका व उसकी अनुभूमिकाओं में बहुत-सी महत्त्वपूर्ण बातें लिखी हैं। वे संसार के सब धार्मिक मत-मतान्तरों में एकता स्थापित करना चाहते थे। परस्पर प्रीति पूर्वक वाद-विवाद, परस्पर विचार-विमर्श द्वारा एक सर्वमान्य धर्म अथवा मानव धर्म की स्थापना करना चाहते थे। इस संबंध में उन्होंने सर्व धर्म सममेलन का भी आयोजन किया था, किन्तु वे उसमें सफल न हो सके। उक्त विषयक महर्षि के वचन सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका, अनुभूमिका व स्वमन्तव्यामन्तव्य-प्रकाश से उद्धृत कर नीचे प्रस्तुत किये जाते हैं-

‘और जो मतमतान्तर के परस्पर विरुद्ध झगड़े हैं, उनको मैं प्रसन्न (पसंद) नहीं करता, क्योंकि इन्हीं मतवालों ने अपने मतों का प्रचार कर मनुष्यों को फँसा कर परस्पर शत्रु बना दिये हैं। इस बात को काट, सर्वसत्य का प्रचार कर, सबको ऐक्यमत में करा, द्वेष छुड़ा, परस्पर में दृढ़ प्रीतियुक्त कराके सबसे सबको सुखलाभ पहुँचाने के लिये मेरा प्रयत्न और अभिप्राय है।’

(स्वमन्तव्यामन्तव्य-प्रकाश)

‘यदपि (यद्यपि) आजकाल (आजकल) बहुत से विद्वान् प्रत्येक मत में हैं, वे पक्षपात छोड़ सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात् जो-जो बातें सबके अनुकूल सब में सत्य हैं, उनका ग्रहण और जो एक-दूसरे से विरुद्ध बातें हैं, उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से वर्तें-वर्तावें, तो जगत् का पूर्ण हित होवे। क्योंकि विद्वानों के विरोध से अविद्वानों में विरोध बढ़कर अनेक विध दुःखों की वृद्धि और सुखों की हानि होती है। इस हानि ने जो कि स्वार्थी मनुष्यों को प्रिय है, सब मनुष्यों को दुःख सागर में डुबा दिया है।’

(सत्यार्थ प्रकाश भूमिका)

‘इसमें यह अभिप्राय रक्खा गया है कि जो-जो सब मतों में सत्य-सत्य बातें हैं, वे-वे सब में अविरुद्ध होने से उनका स्वीकार करके जो-जो सब मत-मतान्तरों में मिथ्या बातें हैं, उन-उनका खण्डन किया है। इसमें यह भी अभिप्राय रक्खा है कि सब मत-मतान्तरों की गुप्त वा प्रगट बुरी बातों को प्रकाश कर, विद्वान्, अविद्वान् सब साधारण, सब मनुष्यों के सामने रक्खा है, जिससे सबसे सबका विचार होकर परस्पर प्रेमी हो के, एक सत्यमतस्थ होवें।’

(सत्यार्थ प्रकाश भूमिका)

‘इसलिये जैसा मैं पुराणों, जैनियों के ग्रन्थों, बाइबिल और कुरान को प्रथम ही बुरी दृष्टि से न देखकर, उनमें से गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग तथा अन्य मनुष्य जाति की उन्नति के लिये प्रयत्न करता हूँ, वैसा सबको करना योग्य है।’

(सत्यार्थ प्रकाश भूमिका)

‘इसी मत-मतान्तर के विवाद से जगत् में जो-जो अनिष्ट फल हुए, होते हैं और होंगे, उनको पक्षपात रहित विद्वज्जन जान सकते हैं। जब तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मत-मतान्तर का विरुद्ध वाद न छूटेगा, तब तक अन्योन्य को आनन्द न होगा। यदि हम सब मनुष्य और विशेषकर विद्वज्जन ईर्ष्या-द्वेष छोड़कर सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना-कराना चाहें तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है।’

(सत्यार्थ प्रकाश भूमिकर)

‘यह सिद्ध बात है कि पाँच सहस्र वर्षों के पूर्व वेद-मत से भिन्न दूसरा कोईाी मत न था, क्योंकि वेदोक्त सब बातें विद्या से अविरुद्ध हैं। वेदों की अप्रवृत्ति होने का कारण महाभारत युद्ध हुआ। इनकी अप्रवृत्ति से अविद्यान्धकार के भूगोल में विस्तृत होने से मनुष्यों की बुद्धि भ्रमयुक्त होकर जिसके मन में जैसा आया वैसा मत चलाया।’

(अनुभूमिका-1)

‘जब तक वादी-प्रतिवादी होकर प्रीति से वाद वा लेख न किया जाय, तब तक सत्यासत्य का निर्णय नहीं हो सकता। जब विद्वान् लोगों में सत्यासत्य का निश्चय नहीं होता तभी अविद्वानों को महा-अन्धकार में पड़कर बहुत दुःख उठाना पड़ता है। इसलिये सत्य के जय और असत्य के क्षय अर्थ मित्रता से वाद वा लेख करना हमारी मनुष्य जाति का मुखय काम है। यदि ऐसा न हो तो मनुष्यों की उन्नति कभी न हो।’

(अनुभूमिका-2)

‘जो-जो सर्वमान्य सत्य विषय हैं, वे तो सब (मतों) में एक से हैं, झगड़ा झूठे विषयों में होता है। अथवा एक सच्चा और दूसरा झूठा हो, तो भी कुछ थोड़ा-सा विवाद चलता है। यदि वादी-प्रतिवादी सत्यासत्य निश्चय के लिये वाद-प्रतिवाद करें तो अवश्य निश्चय हो जाय।’

(अनुभूमिका-3)

‘और यही सज्जनों की रीति है कि अपने वा पराये दोषों को दोष और गुणों को गुण जानकर गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग करें और हठियों का हठ-दुराग्रह न्यून करें करावें।’

(अनुभूमिका-4)

महर्षि दयानन्द एक ऐसे सर्वतन्त्र सिद्धान्त जिसको वे साम्राज्य सार्वजनिक धर्म कहते थे, उसकी स्थापना करना चाहते थे, जिसको आजकल की भाषा में हम मानव धर्म कह सकते हैं। वे ऐसे धर्म के बारे में स्वमन्तव्यामन्तव्य-प्रकाश जो कि सत्यार्थ प्रकाश का अन्तिम अध्याय है में लिखते हैं-

‘सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात् साम्राज्य सार्वजनिक धर्म जिसको सदा से सब मानते आये, मानते हैं और मानेंगे भी, इसलिये उसको सनातन नित्य धर्म कहते हैं, कि जिसका विरोधी कोई भी न हो सके।’

महर्षि दयानन्द मत-मतान्तरों से संसार में प्रचलित अनेक धर्म-धर्मान्तरों का ग्रहण क रते हैं और इसी को मानव जाति में व्याप्त कलह का कारण मानते हैं।

– 5, हरि ओम् मार्ग, भजनगंज अजमेर। 09468695790

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