प्रबल राष्ट्रवाद के पर्याय – प्रो. बलराज मधोक

प्रबल राष्ट्रवाद के पर्याय – प्रो. बलराज मधोक

-इन्द्रजित् देव

श्री बलराज मधोक का निधन हो गया। 96 वर्ष पूर्व उनका जन्म वर्तमान पाकिस्तान के गुजराँवाला नगर के निकट जल्लन ग्राम में हुआ था। उनका पूरा परिवार आर्यसमाजी था। जिस दिन लाला लाजपत राय का बलिदान हुआ, उस दिन उनके परिवार में भोजन नहीं बना था। उनके पिता जी दिन भर उदास रहे व बोले-‘‘आज भारत का सूर्य अस्त हो गया।’’ पिता जी कश्मीर-जमू के डोगरा-राज्यकाल में शासकीय कर्मचारी थे। पिताजी अपने विद्यार्थी-काल में ही आर्य समाज के प्रभाव में आ गए थे। महर्षि दयानन्द का जीवन और सिद्धान्त उनके आदर्श थे। बी.ए. उत्तीर्ण करने के पश्चात् पिताजी को डाक-तार विभाग में इन्स्पैक्टर के पद के लिए चुना गया था, परन्तु साक्षात्कार के अवसर पर उन्होंने उच्च अंग्रेज अधिकारी द्वारा पूछे गये एक प्रश्न के उत्तर में यह सच्चाई बताई कि उन्होंने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पढ़ा है तो उनका चयन ही नहीं किया गया। तब उन्होंने संकल्प कर लिया कि वे अंग्रेजी शासन की नौकरी नहीं करेंगे। श्रीनगर में रहते बलराज मधोक का सपर्क पं. विश्वबन्धु से हुआ, जिनका उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। वे आर्य समाज, हजूरी बाग के पुरोहित थे। तब वह आर्य समाज, श्रीनगर के गैर कश्मीरी हिन्दुओं की धार्मिक व सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र था। श्री चिरंजीलाल वानप्रस्थी उस आर्य समाज के प्रधान व बलराज मधोक के पिता श्री जगन्नाथ उसके मन्त्री थे। पूरा परिवार प्रत्येक सत्संग में वहाँ जाया करता था। श्री बलराज मधोक के अपने शबदों में-‘‘महर्षि दयानन्द के जीवन चरित को पढ़ने का मुझे उन्हीं दिनों सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनकी हर बात को बुद्धि और तर्क से परखने पर बल देना उनकी सत्यनिष्ठा, निर्भीकता, देशप्रेम और आत्मविश्वास आर्यसमाजियों के जीवन में भी टपकता था। मेरे पूज्य पिताजी में भी ये गुण उत्तम रूप में विद्यमान थे। मुझे अपने श्रीनगर के दिनों में उनके साथ-साथ आर्य समाज के अनेक गुरुजनों को देखने और उनके समपर्क में आने अवसर मिला। उन सबका और आर्य समाज के वातावरण का मेरे जीवन पर गहरा और स्थायी प्रभाव पड़ा।’’ बलराज मधोक ने एम.ए. की परीक्षा इतिहास विषय में उत्तीर्ण की तो पी-एच.डी. करने का विचार किया और ‘स्वतन्त्रता आन्दोलन में आर्य समाज का योगदान’ विषय चुनकर शोध कार्य भी आरंमभ कर दिया, परन्तु 1946 के बाद देश का राजनैतिक चक्र इतनी तेजी से चलने लगा कि उन्हें अपना सारा समय राजनैतिक गतिविधियों पर केन्द्रित करना पड़ा।

तब लाहौर का डी.ए.वी. महाविद्यालय पंजाब की एक प्रमुख शिक्षण-संस्था थी। इसमें लगभग 4000 विद्यार्थी अध्ययनरत थे। महाविद्यालय और उससे सबद्ध अन्य संस्थाएँ तथा आवास गृह लगभग एक वर्गमील क्षेत्र में फैले थे। अपने परिसर के विस्तार तथा विद्यार्थियों की संया की दृष्टि से यह उस समय के अलीगढ़ विश्वविद्यालय से कहीं बड़ा था। देश विभाजन के समय बलराज मधोक ने यह सुझाव दिया था कि अलीगढ वि.वि. के परिसर और डी.ए.वी. महाविद्यालय के परिसर की अदला-बदलीकर ली जाए। विभाजन के बाद अलीगढ़ मुस्लिम वि.वि. के 80 प्रतिशत मुस्लिम विद्यार्थी और प्राध्यापक पाकिस्तान में जा बसे थे। विभाजन से पूर्व यह वि.वि. पाकिस्तान के पक्ष की गतिविधियों तथा मुस्लिम साप्रदायिकता का सबसे बड़ा अड्डा था। इसे बन्द करके इसका परिसर डी.ए.वी. महाविद्यालय, लाहौर को देना सर्वथा उचित व राष्ट्रहित में होता, परन्तु जवाहर लाल नेहरू और मौलाना आजाद को यह रुचिकर व उपयोगी नहीं लगा। अलीगढ़ मु. विश्वविद्यालय अब पुनः बहुत बड़ा विष वृक्ष बन चुका है। बलराज मधोक का उक्त सुझाव यदि मान लिया गया होता, तो आज स्थिति सर्वथा अच्छी होती। बलराज मधोक की दूरदृष्टि थी, यह इस घटना से स्पष्ट प्रमाणित होता है।

जब 1980 में इन्दिरा गाँधी दोबारा सत्तासीन हुई तो अलीगढ़ में एक हिन्दू विश्वविद्यालय स्थापित करने की पूरी तैयारियाँ पूर्ण हो चुकी थीं, मधोक जो को इसके भूमि पूजन के अवसर पर आमन्त्रित किया गया था,परन्तु संजय गाँधी की मृत्यु होने से यह योजना रोक दी गई थी।

लाला लाजपत राय, बालगंगाधर तिलक, विपिनचन्द्र पाल व वीर सावरकर के राजनैतिक विचारों का प्रभाव बलराज मधोक पर पड़ता गया। वे सक्रिय राजनीति में प्रविष्ट हुए। भाई परमानन्द से भी वे मिलते रहे, जिनका यह विचार अपने दीर्घ अनुभवों के आधार पर बना था ‘‘हिन्दू समाज एक मरता हुआ समाज है। इसे अपने और पराए की, मित्र और शत्रु की पहचान नहीं……। इसमें जाति-पाँति और भाषा-भेद इतना अधिक है और हिन्दुत्व की भावना इतनी दुर्बल कि हिन्दू के नाते यह समाज न कुछ सोच सकता है, न ही कुछ कर सकता है।’’

इस प्रकार के वैचारिक उथल-पुथल में बलराज मधोक सनातन धर्म कॉलेज, लाहौर, आत्मानन्द जैन कॉलेज, अबाला तथा डी.ए.वी. कॉलेज, श्रीनगर में इतिहास के प्राध्यापक के रूप में भी क्रमशः कार्य करते रहे। उनका यह भी विचार बना कि भारत की अखण्डता को बचाने के लिए पंजाब, सिन्ध, सीमा प्रान्त और पूर्वी बंगाल के राष्ट्रवादी देशभक्त हिन्दुओं को मौत के मुँह में जाने से बचाने को संघ जो भूमिका अदा कर सकता था, वह उसने नहीं की। उस समय यह एक मात्र शक्ति था, जो देश को विभाजन की आग से बचा सकता था। यह ठीक है कि आग लग जाने के बाद इसके स्वयं सेवकों ने अपनी जान हथेली पर रखकर असंखय लोगों को जलती आग में से निकाला। इसके लिए स्थानीय प्रचारक और स्वयं सेवक प्रशंसा के पात्र हैं, परन्तु परीक्षा की उस घड़ी में संघ का नेतृत्त्व देश और हिन्दू समाज को उचित और आवश्यक मार्ग दर्शन और दिशा न दे सका। मधोक जी का यह भी विचार था कि यदि संघ का हिन्दू महासभा से तालमेल हो जाता तो सभवतः हिन्दू महासभा देश विभाजन से पूर्व एक प्रबल राष्ट्रवादी हिन्दुत्ववादी राजनैतिक संगठन के रूपमें उभर पाती और भारत की राजनीति को नया मोड़ दे पाती। हिन्दू हिन्दू का शत्रु निकला। संघ हिन्दू महासभा को तो खा गया, परन्तु स्वयं कोई राजनैतिक दिशा न दे पाया।

जब अक्टूबर, 1948 में पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण किया, तब मधोक डी.ए.वी. कॉलेज, श्रीनगर में उपाचार्य थे। उनके नेतृत्व में संघ ने शानदार कार्य किया। शरणार्थी रिलीफ कमेटी बनाकर उन्होंने विभाजन के कारण कश्मीर में आए शरणार्थी हिन्दुओं की आर्थिक व सामाजिक सहायता की। अन्य कई प्रकार के साहसिक कार्यों से सेना, महाराजा हरिसिंह व कश्मीर की प्रजा की विशिष्ट सहायता करते रहे। कबाइलियों के वेश में पाकिस्तानी सेना ने जममू-कश्मीर पर आक्रमण किया। महाराजा का एक दूत तब मधोक जी के घर आया व उसने उनसे भारतीय सेना के आने तक श्रीनगर हवाई-अड्डे की सुरक्षा का प्रबन्ध करने का अनुरोध किया। लगभग 200 स्वयं सेवकों को एकत्रित करके रात-रात में हवाई पट्टी की मरममत भी की। जब जवाहर लाल नेहरू ने शेख अबदुल्ला को जममू-कश्मीर के प्रधानमन्त्री के रूप में प्रजा की इच्छा के विपरीत स्थापित कर दिया, तो उसने बलराज मधोक को विशेष निशाना बनाया। शेख अबदुल्ला ने उन्हें मरवाने की बात एक गुप्त बैठक में कही, परन्तु प्रकट में उनके कश्मीर में रहने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। वे अनेक कष्ट सहकर  ट्रकों, बसों तथा कई-कई किलोमीटर पैदल चलकर जममू पहुँचे। विस्ताराय से हमने उनकी कष्टकारी यात्रा का एक ही वाक्य में वर्णन किया है। जममू में आकर पं. प्रेमनाथ डोगरा की सहायता से प्रजा परिषद् नामक एक राजनैतिक संगठन की स्थापना की तथा अबदुल्ला के अत्याचारों व राष्ट्रद्रोह की गतिविधियों के विरुद्ध आवाज उठानी प्रारा की। अबदुल्ला ने उन्हें जमू से भी निष्कासित कर दिया, तब वे दिल्ली में ही बसने को विवश हुए। उनके माता-पिता को भी जममू-कश्मीर छोड़ना पड़ा। इस प्रकार मधोक जी ने नए वलवलों से अपना नया राष्ट्रीय जीवन आरा किया।

स्व. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जब केन्द्रीय मन्त्री का पद त्याग करके ‘भारतीय जनसंघ’ नामक एक नये राजनैतिक दल कागठन किया तो बलराज मधोक उसमें सक्रिय हुए। उक्त संगठन के संस्थापकों में उनका नामाी समिलित है। वे श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपना राजनैतिक गुरु मानते थे। उक्त दल ने जब कश्मीर आन्दोलन आरंभ किया, तो बलराज मधोक ने उसमें भी सक्रिय भाग लिया। तदनन्तर वे जनसंघ की गतिविधियों में अत्यन्त व्यस्त हुए तथा देशभर में इसके फैलाव के लिए यत्नशील रहे। दिल्ली से वे दो बार लोकसभा के सदस्य भी बने। प्रकाशवीर शास्त्री व डॉ. राममनोहर लोहिया की तरह वे अपने तथ्यपरक, राष्ट्रवादी व प्रभावशाली भाषणों से अन्य सदस्यों को अत्यन्त प्रभावित कर लेते थे। इन्दिरा गाँधी व जवाहर लाल नेहरू की नीतिगत व व्यवहारगत असंगतियों पर वे सटीक आलोचना करने में सिद्धहस्त थे। सन् 1962 ई. में जब हम चीन से पिटे व चीन ने हमारी 80,000 वर्गमील धरती हथिया ली थी तो लोकसभा में उन्होंने जवाहर लाल से पूछा था-

न इधर-उधर की तू बात कर,

यह बता कि काफिले क्यों लुटे?

हमें रहजनी से गरज नहीं,

तेरी रहबरी का सवाल है।

राम जन्मभूमि, मथुरा की कृष्ण जन्म भूमि व काशी में विश्वनाथ मन्दिर भूमि को हिन्दुओं को सौंप देने की माँग भी सर्वप्रथम लोकसभा में उन्होंने ही रखी थी, जिसे भारतीय जनता पार्टी ने अपना चुनावी मुद्दा बना लिया था। बलराज ने अन्य पुस्तकों के अतिरिक्त एक पुस्तक indianisation लिखी थी, जिसमें भारतीय मुसलमानों को अपनी उपासना-पद्धति को जारी रखते हुए भी पाकिस्तान व अन्य देशों के प्रति वफादार न रहकर अपनी मातृभूमि भारत के प्रति सपूर्ण वफादार रहने की आवश्यकता, लाभ व उपायों आदि पर विचार दिए थे। दो उपन्यासों के अतिरिक्त राजनैतिक, सामाजिक एवं ऐतिहासिक विषयों पर उनकी पुस्तकें हिन्दी तथा अंग्रेजी में प्रकाशित व चर्चित हुईं। वे कई वर्षों तक भारतीय जनसंघ के प्रधान भी रहे, परन्तु दीनदयाल उपाध्याय की रहस्यमयी हत्या में जनसंघ के उन नेताओं, जिनकी गर्दन इन्दिरा गाँधी के हाथ में जा चुकी थी, को अपना हथियार बनाकर बलराज मधोक को जनसंघ से निकलवाकर उनकी राजनैतिक सक्रियता तथा प्रतिष्ठा समाप्त करने की योजना सर्वोच्च राजनैतिक नेतृत्व ने बनाई और सन 1973 में मधोक जी जनसंघ की प्राथमिक सदस्यता से ही हटा दिए गए।

सन् 1977 में जब लोकसभा के चुनाव हुए, तो लोकसभा में जनता पार्टी के 85 प्रतिशत उमीदवार विजयी होकर पहुँचने में सफल हुए थे, परन्तु जनसंघ, जो कि जनता पार्टी के घटकों में से एक था, ने मधोक जी को प्रत्याशी न स्वयं बनाया तथा न ही जनता पार्टी के दूसरे घटकों को उन्हें उममीदवार बनाने दिया। बलराज मधोक यदि पद व सुविधाओं के ही इच्छुक होते तो वे तब स्वतन्त्र प्रत्याशी के रूप में चुनाव में उतर सकते थे व सफल होकर लोकसभा में सरलता से पहुँच सकते थे। दिल्ली से पहले भी वे दो बार सरलता से सांसद चुने जा चुके थे तथा सन् 1975 से 1977 तक 18 मास तक अन्य नेताओं की तरह आपातकाल में बन्दी जीवन व्यतीत कर चुके थे, परन्तु उन्होंने ऐसा न करके राजनैतिक नैतिकता का परिचय दिया।

सन् 1977 में संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद पर आसीन किया गया तो संजीव रेड्डी ने उन्हें राज्य सभा में मनोनीत सदस्य के रूप में प्रवेश कराने की पेशकश की, जो उनके लिए समानजनक था, परन्तु बलराज मधोक ने इसे स्वीकार नहीं किया व कहा कि मैं संघर्ष करके आगे बढूँगा व मनोनीत सदस्य के रूप में राज्यसभा में जाना पसन्द नहीं करता। वे अपने नेतृत्व में राष्ट्रवादी हिन्दुत्ववादी सरकार बनाने का स्वप्न देखते थे। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की स्थापना भी मधोक जी ने ही की थी।

सन् 1965-66 में जो गो रक्षा आन्दोलन चला था, उसमें भी उन्होंने सक्रिय भाग लिया था व फरवरी 1967 में उनके ही नेतृत्व में जनसंघ ने लोकसभा में 35 सीटें प्राप्त कीं। अनेक प्रदेशों में काँग्रेस हारी थी। परिणाम स्वरूप कुछ प्रदेशों में संयुक्त विपक्षी दलों ने सरकारें बनाई। केन्द्र में भी इन्दिरा गाँधी को कमयुनिस्टों व समाजवादी सदस्यों की सहायता से ही सरकार चलाने पर विवश होना पड़ा था।

वे ‘आर्गेनाइजर,’ ‘वैचारिक विकल्प’ तथा ‘हिन्दू वर्ल्ड’ के कई वर्षों तक समपादक रहे। जनता पार्टी की सरकार ने जब अल्पसंयक आयोग की स्थापना की, तो इसके दूरगामी विघटनकारी परिणामों का अनुमान लगाकर इसका विरोध बलराज मधोक ने किया तथा मानवधिकार आयोग की स्थापना की जोरदार माँग की, परन्तु उनकी माँग नहीं मानी गई। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई से भी इस आयोग की स्थापना न करने को कहा तो मोरारजी ने कहा था, ‘‘मैं सभी घटकों की पारस्परिक सहमति से बना प्रधानमन्त्री हूँ। मेरी संगठन काँग्रेस के केवल 50 सदस्य ही हैं। यदि आपके जनसंघी साथियों ने इस आयोग की स्थापना का विरोध किया होता तो मेरे हाथ मजबूत होते व मैं अल्प संयक आयोग के समबन्ध में निर्णय बदल देता।’’

राष्ट्रवादी व मानववादी दृष्टिकोण की उपेक्षा देखकर बलराज मधोक ने सन् 1979 में जनता पार्टी से त्याग पत्र दे दिया। सन् 1980 ई. में उनकी पुस्तक ‘रेशनल आफ हिन्दू स्टेट’ अर्थात् ‘हिन्दू राज्य का तार्किक औचित्य’ छपी व तहलका मच गया। सभी दलों के 35 मुस्लिम सांसदों ने इस पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाने की इन्दिरा गाँधी से माँग की। इन्दिरा गाँधी ने स्वयं इस पुस्तक को पढ़कर इसे प्रतिबन्धित करने से इनकार कर दिया। प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी ने यह भी कहा कि यह पुस्तक प्रत्येक भारतीय को पढ़नी चाहिए। कुछ दिनों पश्चात् उक्त पुस्तक में दिए तर्कों , तथ्यों व सुझावों से प्रभावित इन्दिरा गाँधी ने तब बलराज मधोक को अपने मन्त्रिमण्डल में सममिलित होकर सरकार के एक प्रतिष्ठित अंग के रूप में अपनी सोच को कार्य रूप देने की पेशकश की, जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया। वे इसे स्वीकार कर लेते को देश का भविष्य क्या बनता, यह गंभीर विषय विचारणीय है।

वे भारत माता के सच्चे सपूत थे। उनकी भारत-भक्ति गजब की थी। वे आजीवन भारत के लिए सोचते रहे। भारत के लिए लिखते रहे, कर्म करते रहे। उनकी वीरता, विद्वता, सैद्धान्तिक दृढ़ता तथा भारत माता के प्रति निष्ठा अनुकरणीय है। उनका देहान्त 2 मई, 2016 को 96 वर्ष की अवस्था में हुआ, जो उनकी संयमी और भारतीय जीवन-शैली का प्रमाण है।

– चूना भट्ठियाँ, सिटी सेंटर के निकट, यमुनानगर।

चलभाष क्रमांक-09466123677

 

One thought on “प्रबल राष्ट्रवाद के पर्याय – प्रो. बलराज मधोक”

  1. Very good article. It is really sad that he was sidelined due to political machinations. Although he was not politically active after 1980, he could have been honoured by NDA govt in which his former comrade Vajpayee was the P.M. But Vajpayee also nursed some sort of dislike for Madhok. Whatever it may be, Madhok led highly clean life and remained true follower of Swami Dayanand till end. Aryasamaj has become poorer with his death.

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