‘मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम को जानकर उनके अनुसार अपना जीवन बनाने का संकल्प लेने का पर्व है रामनवमी’

ओ३म्

रामनवमी के अवसर पर

मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम को जानकर उनके अनुसार अपना

जीवन बनाने का संकल्प लेने का पर्व है रामनवमी

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

सृष्टि में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम एवं महर्षि वाल्मीकि जी का जन्म होना आर्यों व हिन्दुओं के लिए अति गौरव की बात है। यदि यह  दो महापुरुष न हुए होते तो कह नहीं सकते कि मध्यकाल में वैदिक धर्म व संस्कृति का जो पतन हुआ और महर्षि दयानन्द के काल तक आते-आते वह जैसा व जितना बचा रहा, बाल्मीकि रामायण की अनुपस्थिति में वह बच पाता, इसमें सन्देह है? यह भी कह सकते है कि यदि वैदिक धर्म व संस्कृति किसी प्रकार से बची भी रहती तो उसकी जो अवस्था महर्षि दयानन्द के काल में रही व वर्तमान में है, उससे कहीं अधिक दुर्दशा को प्राप्त होती। अतः मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम व महर्षि वाल्मीकि व उनके ग्रन्थ रामायण को हम महाभारत काल के बाद सनातन वैदिक धर्म के रक्षक के रूप में मान सकते हैं।

 

मर्यादा पुरुषोत्तम राम में ऐसा क्या था जिस पर महर्षि वाल्मीकि जी ने उनका इतना विस्तृत महाकाव्य लिख दिया जिसका आज की आधुनिक दुनियां में सम्मान है? इसका एक ही उत्तर है कि श्री रामचन्द्र जी एक मनुष्य होते भी गुण, कर्म व स्वभाव से सर्वतो-महान थे। उनके समान मनुष्य उनके पूर्व इतिहास में हुआ या नहीं कहा नहीं जा सकता क्योंकि वाल्मीकि रामायण के समान उससे पूर्व का इतिहास विषयक कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है और अनुमान है कि बाल्मीकि जी के समय में भी उपलब्ध नहीं था। श्री रामचन्द्र जी त्रेतायुग में हुए थे। त्रेता युग वर्तमान के कलियुग से पूर्व द्वापर युग से भी पूर्व का युग है। कलियुग 4.32 लाख वर्ष का होता है जिसके वर्तमान में 5,116 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। इससे पूर्व 8.64 हजार वर्षों का द्वापर युग व्यतीत हुआ जिसके अन्त में महाभारत का युद्ध हुआ था। इस पर महर्षि वेदव्यास ने इतिहास के रूप में महाभारत का ग्रन्थ लिखा जिसमें योगेश्वर श्री कृष्ण, युधिष्ठिर, अर्जुन आदि पाण्डव एवं कौरव वंश का वर्णन है।  इस  प्रकार  न्यूनतम 8.64+0.051=8.691 लाख वर्ष से भी सहस्रों वर्ष पूर्व इस भारत की धरती पर श्री रामचन्द्र जी उत्पन्न वा जन्में थे। यह श्री रामचन्द्र जी ऐसी पिता व माता की सन्तान थे जो आर्यराजा थे और जो ऋषियों की वेदानुकूल शिक्षाओं का आचरण वा पालन करते थे। श्री रामचन्द्र जी की माता कौशल्या भी वैदिक धर्मपरायण नारी थी जो प्रातः व सायं सन्ध्या व दैनिक अग्निहोत्र करती थीं।

 

वाल्मीकि जी ने श्री रामचन्द्र जी के जीवन पर रामायण ग्रन्थ की रचना क्यों की? इस संबंध में रामायण में ही वर्णन मिलता है कि वाल्मीकि जी संस्कृत भाषा के एक महान कवि थे। वह एक ऐसे मनुष्य का इतिहास लिखना चाहते थे जो गुण कर्म व स्वभाव में अपूर्व, श्रेष्ठ व अतुलनीय हो। नारद जी से पूछने पर उन्होंने श्री रामचन्द्र जी का जीवन वृतान्त वर्णन कर दिया जिसको वाल्मीकि जी ने स्वीकार कर रामायण नामक ग्रन्थ लिखा। आर्यजाति के सौभाग्य से आज लाखों वर्ष बाद भी यह ग्रन्थ शुद्ध रूप में न सही, अपितु किंचित प्रक्षेपों के साथ उपलब्ध होता है जिसे पढ़कर श्री रामचन्द्र जी के चरित्र किंवा व्यक्तित्व व कृतित्व को जाना जा सकता है। सभी मनुष्य जिन्होंने वाल्मीकि रामायण को पढ़ा है वह जानते हैं कि श्री रामचन्द्र के समान इतिहास में ऐसा श्रेष्ठ चरित्र उपलब्ध नहीं है और न हि भविष्य में आशा की जा सकती है। यद्यपि भारत में अनेक ऋषि मुनि व विद्वान हुए हैं जिनका जीवन व चरित्र भी आदर्श है परन्तु श्री रामचन्द्र जी का उदाहरण अन्यतम है। इतिहास में योगेश्वर श्री कृष्ण जी, भीष्म पितामह, युधिष्ठिर जी और स्वामी दयानन्द सरस्वती आदि के महनीय जीवन चरित्र भी उपलब्ध होते हैं, परन्तु श्री रामचन्द्र जी के जीवन की बात ही निराली है। वाल्मीकि जी ने जिस प्रकार से उनके जीवन के प्रायः सभी पहलुओं का रोचक और प्रभावशाली वर्णन किया है वैसी सुन्दर व भावना प्रधान रचना अन्य महापुरुषों की उपलब्ध नहीं होती है। इतना यहां अवश्य लिखना उपयुक्त है कि महर्षि दयानन्द जी का जीवन भी संसार के महान पुरुषों में अन्यतम है जिसे सभी देशवासियों व धर्मजिज्ञासु बन्धुओं को पढ़कर उससे प्रेरणा लेनी चाहिये।

 

श्री रामचन्द्र जी की प्रमुख विशेषतायें क्या हैं जिनके कारण वह देश व संसार में अपूर्व रूप से लोकप्रिय हुए। इसका कारण है कि वह एक आदर्श पुत्र, अपनी तीनों माताओं का समान रूप से आदर करने वाले, आदर्श भाई, आदर्श पति, गुरुजनों के प्रिय शिष्य, आदर्श देशभक्त, वैदिक धर्म व संस्कृति के साक्षात साकार पुरूष, शत्रु पक्ष के भी हितैषी व उनके अच्छे गुणों को सम्मान देने वाले, अपने भक्तों के आदर्श स्वामी व प्रेरणा स्रोत, सज्जनों अर्थात् सत्याचरण वा धर्म का पालन करने वालों के रक्षक, धर्महीनों को दण्ड देने वाले व उनके लिए रौद्ररूप, आदर्श राजा व प्रजापालक, वैदिक धर्म के पालनकर्त्ता व धारणकर्त्ता सहित यजुर्वेद आदि के ज्ञाता व विद्वान थे। इतना ही नहीं ऐसा कोई मानवीय श्रेष्ठ गुण नहीं था जो उनमें विद्यमान न रहा हो। यदि ऐसे व इससे भी अधिक गुण किसी मनुष्य में हों तो वह समाज व देश का प्रिय तो होगा ही। इन्हीं गुणों ने श्री रामचन्द्र जी को महापुरुष एवं अल्पज्ञानी व अज्ञानी लोगों ने उन्हें ईश्वर के समान पूजनीय तक बना दिया। बाल्मीकि रामायण के अनुसार श्री रामचन्द्र जी मर्यादा पुरूषोत्तम हैं, ईश्वर नहीं। अजन्मा व सर्वव्यापक सृष्टिकर्ता ईश्वर मनुष्य जन्म ले ही नहीं सकता। यही कारण है कि रामायण को इतिहास का ग्रन्थ स्वीकार कर महर्षि दयानन्द ने उसे विद्यार्थियों की पाठविधि में सम्मिलित किया है।

 

उपलब्ध साहित्य के आधार पर प्रतीत होता है कि महाभारत काल तक भारत में एक ही रामायण वाल्मीकि रामायण विद्यमान थी। महाभारत के बाद दिन प्रतिदिन धार्मिक व सांस्कृतिक पतन होना आरम्भ हो गया। संस्कृत भाषा जो महाभारत काल तक देश व विश्व की एकमात्र भाषा थी, उसके प्रयोग में भी कमी आने लगी और उसमें विकार होकर नई नई भाषायें बनने लगी। इस का परिणाम यह हुआ कि भारत के अनेक भूभागों में समय के साथ अनेक भाषाये व बोलियां अस्तित्व में आईं जो समय के साथ पल्लिवित और पुष्पित होती रहीं। संस्कृत भाषा के प्रयोग में कमी से वेदों व वैदिक धर्म की मान्यताओं में भी विकृतियां उत्पन्न होने लगीं जिसके परिणामस्वरूप देश में अवतारवाद की कल्पना, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, यज्ञों में हिंसा, मांसाहार का व्यवहार, जन्मना जातिवाद की उत्पत्ति व उसका व्यवहार, छुआछूत, स्त्रियों व शूद्रों को वेदाधिकार से वंचित करने, बालविवाह, पर्दा प्रथा, जैसे विधान बने। समय के साथ मत-मतान्तरों की संख्या में भी वृद्धि होती गई। वैष्णवमत ने श्री रामचन्द्र जी को ईश्वर का अवतार मानकर उनकी पूजा आरम्भ कर दी गई। देश में मुद्रण कला का आरम्भ न होने से अभी हस्तलिखित ग्रन्थों का ही प्रचार था। संस्कृत का प्रयोग कम हो जाने व नाना भाषायें व बोलियों के अस्तित्व में आने के कारण धर्म व कर्म को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से कथा आदि की आवश्यकता भी अनुभव की गई। श्री रामचन्द्र जी की भक्ति व पूजा का प्रचलन बढ़ रहा था। सौभाग्य से ऐसे अज्ञान व अन्धविश्वासों के युग में गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म होता है और उनके मन में श्री रामचन्द्र जी का जीवनचरित लिखने का विचार उत्पन्न होता है। इसकी पूर्ति रामचरित मानस के रूप में होती है। यह ग्रन्थ लोगों की बोलचाल की भाषा में होने के कारण इस ग्रन्थ ने रामचन्द्र जी का ऐतिहासिक व प्रमाणिक ग्रन्थ होने का स्थान प्राप्त कर लिया। इसका प्रचार व पाठ होने लगा। देश के अनेक भागों में उन-उन स्थानों के कवियों ने वहां की भाषा में वाल्मीकि रामायण व रामचरित मानस से प्रेरणा पाकर श्री रामचन्द्र जी के पावन जीवन व चरित्र को परिलक्षित करने वाले अनेक ग्रन्थ लिखे जिससे देश भर में रामचन्द्र जी ईश्वर के प्रमुख अवतार माने जाने लगे व उनकी पूजा होने लगी। आज भी यह चल रही है परन्तु विगत एक सौ वर्षों में देश में नाना मत, सम्प्रदाय, धार्मिक गुरू आदि उत्पन्न हुए हैं जिससे श्रीरामचन्द्र जी की पूजा कम होती गई व अन्यों की बढ़ती गई। भविष्य में क्या होगा उसका पूरा अनुमान नहीं लगाया जा सकता। हां, इतना कहा जा सकता है कि रामचन्द्र जी की पूजा कम हो सकती है और वर्तमान और भविष्य में उत्पन्न होने वाले नये नये गुरूओं की पूजा में वृद्धि होगी। मध्यकाल में श्री रामचन्द्र जी की पूजा व भक्ति ने मुगलों के भारत में आक्रमण व धर्मान्तरण में हिन्दुओं के धर्म की रक्षा की। यदि श्रीरामचन्द्र जी की पूजा प्रचलित न होती तो कह नहीं सकते कि धर्म की अवनति किस सीमा तक होती। संक्षेप में यह कह सकते हैं कि रामायण और रामचरितमानस ने मुगलों व मुगल शासकों के दमनचक्र के काल में हिन्दुओं की धर्मरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

 

श्री रामचन्द्र जी का जीवन विश्व की मनुष्यजाति के लिए आदर्श है। उसका विवेकपूर्वक अनुकरण जीवन के लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्रदान कराने वाला है। वाल्मीकि रामायण के अध्ययन से हम प्रेरणा ग्रहण कर अपने जीवन को वेदानुगामी बना सकते हैं जैसा कि श्री रामचन्द्र जी व उनके समकालीन महर्षि बाल्मीकि जी आदि ने बनाया था। इसमें महर्षि दयानन्द का जीवन व दर्शन सर्वाधिक सहायक एवं मार्गदर्शक है। रामनवमी मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र जी का पावन जन्मदिवस है। उसको मनाते हुए हमें धर्मपालन करने और धर्म के विरोधियों के प्रति वह भावना रखते हुए व्यवहार करना है जो कि श्री रामचन्द्र जी करते थे। हमें यह भी लगता है कि आधुनिक समय में श्रीरामचन्द्र जी के प्रतिनिधि महर्षि दयानन्द हुए हैं व अब उनका आर्यसमाज उनके समान नई पीढ़ी के निर्माण का कार्य कर रहा है। इस कार्य में हमारे सैकड़ों गुरुकुल लगे हुए हैं। हमारे अनेक विद्वान, साधु व महात्मा श्री रामचन्द्र जी के समान वेद मार्ग पर चल रहे हैं। आज रामनवमी को हमें श्री रामचन्द्र जी को ईश्वर मानकर नहीं अपितु संसार के श्रेष्ठ व श्रेष्ठतम महापुरूष के रूप में उनका आदर व सम्मान करना है और उनके जीवन से शिक्षा लेकर उनके अनुरूप अपने जीवन को बनाना है। इसी के साथ विचारों को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

विश्व में प्रथम बार वेद ऑन लाईन

विश्व में प्रथम बार
वेद ऑन लाईन
आज विज्ञान का युग है, विज्ञान ने प्रगति भी बहुत की हैं, इस प्रगति में तन्त्रजाल (इन्टरनेट) ने लोगों की जीवन शैली को बदल-सा दिया है। विश्व के किसी देश, किसी भाषा, किसी वस्तु, किसी जीव आदि की किसी भी जानकारी को प्राप्त करना, इस तन्त्रजाल ने बहुत ही सरल कर दिया है। विश्व के बड़े-बड़े पुस्तकालय नेट पर प्राप्त हो जाते हैं। अनुपलबध-सी लगने वाली पुस्तकें नेट पर खोजने से मिल जाती हैं।
आर्य जगत् ने भी इस तन्त्रजाल का लाभ उठाया है, आर्य समाज की आज अनेक वेबसाइटें हैं। इसी शृंखला में ‘आर्य मन्तव्य’ ने वेद के लिए एक बहुत बड़ा काम किया है। ‘आर्य मन्तव्य’ ने वेद को सर्वसुलभ करने के लिए onlineved.com नाम से वेबसाइट बनाई है। इसकी निमनलिखित विशेषताएँ हैं-
1. विश्व में प्रथम बार वेदों को ऑनलाईन किया गया है, जिसको कोई भी इन्टरनेट चलाने वाला पढ़ सकता है। पढ़ने के लिए पी.डी.एफ. किसी भी फाईल को डाउनलोड करने की आवश्यकता नहीं है।
2. इस साईट पर चारों वेद मूल मन्त्रों के साथ-साथ महर्षि दयानन्द सरस्वती, आचार्य वैद्यनाथ, पं. धर्मदेव विद्यामार्तण्ड, पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार व देवचन्द जी आदि के भाष्य सहित उपलबध हैं।
3. इस साईट पर हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी तथा मराठी भाषाओं के भाष्य उपलबध हैं। अन्य भाषाओं में भाष्य उपलबध कराने के लिए काम चल रहा है, अर्थात् अन्य भाषाओं में भी वेद भाष्य शीघ्र देखने को मिलेंगे।
4. यह विश्व का प्रथम सर्च इंजन है, जहाँ पर वेदों के किसी भी मन्त्र अथवा भाष्य का कोई एक शबद भी सर्च कर सकते हैं। सर्च करते ही वह शबद वेदों में कितनी बार आया है, उसका आपके सामने स्पष्ट विवेचन उपस्थित हो जायेगा।
5. इस साईट का सर्वाधिक उपयोग उन शोधार्थियों के लिए हो सकता है, जो वेद व वैदिक वाङ्मय में शोधकार्य कर रहे हैं। उदाहरण के लिए किसी शोधार्थी का शोध विषय है ‘वेद में जीव’, तब वह शोधार्थी इस साईट पर जाकर ‘जीव’ लिखकर सर्च करते ही जहाँ-जहाँ जीव शबद आता है, वह-वह सामने आ जायेगा। इस प्रकार अधिक परिश्रम न करके शीघ्र ही अधिक लाभ प्राप्त हो सकेगा।
6. इस साईट का उपयोग विधर्मियों के उत्तर देने में भी किया जा सकता है। जैसे अभी कुछ दिन पहले एक विवाद चला था कि ‘वेदों में गोमांस का विधान है’ ऐसे में कोई भी जनसामान्य व्यक्ति इस साईट पर जाकर ‘गो’ अथवा ‘गाय’ शबद लिखकर सर्च करें तो जहाँ-जहाँ वेद में गाय के विषय में कहा गया है, वह-वह शीघ्र ही सामने आ जायेगा और ज्ञात हो जायेगा कि वेद गो मांस अथवा किसी भी मांस को खाने का विधान नहीं करता।
7. विधर्मी कई बार विभिन्न वेद मन्त्रों के प्रमाण देकर कहते हैं कि अमुक मन्त्र में ये कहा है, वह कहा है या नहीं कहा। इसकी पुष्टि भी इस साईट के द्वारा हो सकती है, आप जिस वेद का जो मन्त्र देखना चाहते हैं, वह मन्त्र इस साईट के माध्यम से देख सकते हैं।
इस प्रकार अनेक विशेषताओं से युक्त यह साईट है। इस साईट को बनाने वाला ‘आर्य मन्तव्य’ समूह धन्यवाद का पात्र है। वेद प्रेमी इस साईट का उचित लाभ उठाएँगे, इस आशा के साथ।
– आचार्य सोमदेव, ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

पुस्तक – समीक्षा पुस्तक का नाम- सङ्कलचिता एवं अनुवादक श्री आनन्द कुमार

पुस्तक – समीक्षा

पुस्तक का नाम सङ्कलचिता एवं अनुवादक श्री आनन्द कुमार

सपादक प्रदीप कुमार शास्त्री

प्रकाशकआचार्य सत्यानन्द नैष्ठिक,  सत्यधर्म प्रकाशन

मूल्य 50/-          पृष्ठ संया – 112

परमपिता परमात्मा की अति अनुकमपा से जिसके कारण अनेक जन्म-जन्मान्तरों के बाद यह मनुष्य जीवन अनुपम रूप से सद्कर्मों के कारण मिला है। वह भी आर्यावृत की भारतभूमि में जन्म मिला। यहाँ अनेक शास्त्रों में प्रथम वेद ततपश्चात्, वेदांग, दर्शन आदि ग्रन्थों  के नाम, अध्ययन का लाभ पठन-पाठन से प्राप्त होता है। धन्य है वे जो आर्ष ग्रन्थों का चिन्तन-मनन करते हैं। ऐसे में संकलकर्त्ता श्री आनन्द कुमार जी का स्थान भी महत्त्वपूर्ण है, जिन्होंने अथक प्रयास कर 65 ग्रन्थों में मानवोपयोगी, जीवन के मोड़ के लिए अनुपम सामग्री पाठकों को परोसी है।

आज के भौतिकवादी युग के चकाचौंध में में सभी वर्गों के लिए मार्गदृष्टा के रूप में सुभाषित है। हृदय ग्राही एवं जीवनोपयोगी है। जीवन अमूल्य है। इसकी सार्थकता इन सुभाषितों को जीवन में उतारना, श्रेष्ठ मार्ग की ओर बढ़ना आवश्यक है। प्रारमभ में सरस्वती वन्दना एवं शिवपूजा वैदिक धर्म के विरुद्ध की बात है, शेष सभी सुभाषित अनुकरणीय है।

नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।

नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्रुयात्।।

-कठोपनिषद् 1.2.23

क्षमया दयया प्रेणा सुनृतेनार्जवेन च।

वशीकुर्याज्जगत् सर्वं विनयेन च सेवया।।

-चाणक्य

हिन्दी अनुवाद से सभी को समझने में सरलता होगी। पाठक अधिक से अधिक संखया में पठन-पाठन कर, अपने को श्रेष्ठ बनाए। आज के युग की अत्यन्त आवश्यकता है, उसी अनुकूल परम आवश्यक विविध व्यंजन हृदयङ्गम करने योग्य है।

– देवमुनि, ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

स्तुता मया वरदा वेदमाता-30

स्तुता मया वरदा वेदमाता-30

उताहमस्मि संजयापत्यौ मे श्लोक उत्तमः।। 10/159/3

परिवार को सुखी और सफल बनाने के लिये मुखय व्यक्ति का योग्य और परिश्रमी होना आवश्यक है। मन्त्र में घर की अधिष्ठात्री देवी कहती है- जहाँ मेरे पुत्र शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले हैं? मेरी पुत्री तेजस्विनी होकर विराजमान है, वहाँ पर मैं स्वयं भी घर की धुरा हूँ। मैं संजया हूँ। संस्कृत में संजया स्थूणा खमभे को कहते हैं। जैसे घर की छत का भार खमभे के ऊपर टिका होता है, उसी प्रकार घर में मैं स्थूणा हूँ, समस्त उत्तरदायित्व मुझ पर ही हैं, इसीलिये मैं संजया हूँ।

हमारे परिवार की समस्या है कि एक ओर घर में पति-बच्चे हैं और साथ-साथ घर में बड़े वृद्ध लोग रहते हैं, उनकी सेवा सहायता का कार्य भी घर के उत्तरदायित्व में सममिलित होता है। आज जब महिलायें बहुपठित हो गई हैं, तब उन्हें भी लगता है कि उनकी अपनी योग्यता और ज्ञान का उपयोग होना चाहिए, इससे जहाँ समाज को लाभ होगा, वहीं घर की आय में वृद्धि होने से आर्थिक आधार भी प्राप्त होता है। धन कमाने वाले के अधिकार भी बढ़ जाते हैं। धन का कहाँ व्यय करना है, इसकी स्वतन्त्रता भी धन कमाने वाले को मिल जाती है। नौकरी (सेवा-कार्य) करने से अपने पुरुषार्थ का लाभ, आर्थिक उपलबधि से स्वावलमबन और स्वतन्त्रता की अनुभूति होती है। इस आकर्षण के चलते हर कोई धन कमाने की इच्छा रखता है।

गृहस्थ और परिवार में आर्थिक आधार की आवश्यकता होती है। यदि प्राथमिक आवश्यकता के लिये अर्थोपार्जन करना पड़े तो असुविधा और कष्ट उठाकर उसे करना ही पड़ता है। आवश्यकता की कोई सीमा रेखा नहीं बन सकती, अतः प्रत्येक व्यक्ति अधिक से अधिक धनोपार्जन के लिए प्रयत्न करता है। संकट तब उत्पन्न होता है, जब घर में सन्तान हो। सन्तान की प्रारमभिक स्थिति में आपके सामने दो परिस्थितियाँ होती हैं, आपको धन भी कमाना है, अपना स्थान भी समाज में बनाकर रखना है, दूसरी ओर अपने बच्चों का पालन-पोषण के साथ शिक्षा एवं संस्कार देने की व्यवस्था भी करनी है। दोनों का लाभ उठा सकना आज असमभव नहीं तो कठिन अवश्य होगा, इसको सन्तुलित करने में एक पक्ष के साथ अन्याय तो होगा ही। आप बाहर कार्य करते हैं, आपके बच्चे नौकरों के हाथों पलते हैं या पालनागृह में पलते हैं, जो माँ का और घर का विकल्प कभी नहीं बन सकते। एक की हानि तो आपको उठानी ही पड़ेगी।

घर में एक बार अतिथि, आने वाले सबन्धी की बात छोड़ भी दें तो घर के सदस्य के रोगी, असमर्थ होने की दशा में आपको अपने दायित्वों के विभाजन पर विचार तो करना ही पड़ेगा। आज वृद्ध माता-पिता को घर में रखना अपने सामाजिक, व्यावसायिक उत्तरदायित्व में बड़ी बाधा है, इसी कारण आजकल वृद्धाश्रम और सहायता सेवा केन्द्रों की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। इन समस्याओं में प्राथमिकता के चुनाव में आजकल के युवा दमपती अपने को मुखय मानकर चलते हैं, परन्तु इसका परिणाम वृद्धावस्था में भोगना पड़ता है। वर्तमान व्यवस्था चिन्तन की प्रक्रिया है, परिणाम नहीं। यह व्यवस्था स्वीकार्य इसलिये नहीं हो सकती, क्योंकि इससे अगली पीढ़ी के निर्माण में त्रुटि हो रही है। वृद्धावस्था को प्राप्त पीढ़ी अपने को एकाकी और असहाय अवस्था में पाती है। आज के सन्दर्भों को बदला नहीं जा सकता, इतनी बड़ी हानि को सहन नहीं किया जा सकता है, निर्णय कर्त्ता को स्वयं करना है। यह स्वयं का निर्णय ही इस मन्त्र में निर्देशित है।

परिवार की अधिष्ठात्री की घोषणा है- मैं घर के कर्त्तव्यों का पालन करती हूँ और मेरे कार्य से मेरा पति मेरा प्रशंसक बन गया है। मेरा कार्य मेरे लिये अच्छा हो सकता है, परन्तु परिवार के सदस्यों में भी मेरे लिये प्रशंसा का भाव हो यह कार्य मुझे करना है। एक महिला का बच्चे के सामने एक प्राध्यापक, एक प्राचार्य, एक अधिकारी का रूप काम नहीं देगा, उसे तो बच्चे की माँ बनकर ही रहना होगा, तभी उसकी सार्थकता है। घर में माता, पिता, पति की उपस्थिति में वह अपनी समाज की भूमिका में नहीं आ सकती, उसे तो एक गृहिणी की भाँति सबकी सेवा-आवश्यकता की चिन्ता करनी होगी। इस परिस्थिति में यदि दोनों में से एक चुनाव करना पड़े तो घर को चुनना पड़ेगा, क्योंकि सबका अस्तित्व घर से जुड़ा है। पूरा घर उसे केन्द्र बिन्दु बना कर चल रहा है। बच्चों के निर्माण और आर्थिक लाभ में बच्चों के निर्माण को प्राथमिकता देनी होगी, नहीं तो उत्पन्न समस्याओं का सामना करना होगा।

जब मुखिया अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करेगा, तो घर में सभी उसकी प्रशंसा करेंगे, उसका सहयोग करेंगे, प्रोत्साहन देंगे। त्याग के बिना प्राप्ति नहीं है, सेवा के बिना प्रशंसा नहीं मिलती, अतः वेद अधिष्ठात्री घोषणापूर्वक कह रही हूँ- मैं घर की धुरा है, सारे सदस्य मेरे प्रशंसक है, पति मुझ पर गर्व करता है।

(ख) श्री कृष्ण जी का जन्म खीरे से, जिसमें पीछे खीरे की बेल भी जुड़ी होती है, क्यों किया जाता है?

(ख) श्री कृष्ण जी का जन्म खीरे से, जिसमें पीछे खीरे की बेल भी जुड़ी होती है, क्यों किया जाता है?

आशा है, आप मेरे प्रश्नों का उत्तर देकर मुझे सन्तुष्ट करेंगे। जन्म करने वाले मेरी जिज्ञासा का समाधान नहीं कर सके।

– आशा आर्या, 14, मोहन मेकिन्स रोड, डालीगंज, लखनऊ-226020, उ.प्र

(ख) कृष्ण को खीरे की बेल से पैदा करवाना भी इनके अज्ञान का द्योतक है। कभी भी मनुष्य या अन्य प्राणी किसी बेल से उत्पन्न नहीं होते, न ही हो सकते। मनुष्यादि सदा माता-पिता के संयोग से पैदा होते हैं (आदि सृष्टि की रचना को छोड़कर)। सृष्टि विरुद्ध पैदा करने की लीला पुराणों में भरी पड़ी है और ये लोग वेद को छोड़ पुराणों को अधिक स्वीकारते हैं।

भागवत पुराण में सृष्टि रचना- विष्णु की नाभि से कमल, कमल से ब्रह्मा और ब्रह्मा के दाहिने पैर के अँगुठे से स्वायमभुव, और बायें अँगूठे से शतरूपा रानी। ललाट से रूद्र और मरीचि आदि दश पुत्र, उनसे दश प्रजापति। दक्ष की तेरह लड़कियों का विवाह कश्यप से। उनमें से दिति से दैत्य, दनु से दानव, अदिति से आदित्य, विनिता से पक्षी, कद्रू से सर्प, सरमा से कुत्ते-स्याल आदि और अन्य स्त्रियों से हाथी, घोड़े, ऊँट, गधा, भैंसा, घासफूस और बबूल आदि वृक्ष काँटे सहित उत्पन्न हुए। ये बिना सिर-पैर की बातें इनके सबसे अधिक प्रचलित भागवत पुराण की हैं। मनुष्य से इन्होंने गधे, घोड़े पैदा करवा दिये, काँटों वाले वृक्ष पैदा करवा दिये तो खीरे की बेल से कृष्ण जी को पैदा करवा देना इनके लिए कौन-सी बड़ी बात है।

ऐसा ही देवी भगवत का गपोड़ा है- जब देवी की इच्छा हुई कि संसार बनाना है, तब उसने अपना हाथ घिसा। उससे हाथ में छाला हुआ। उसमें से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। उससे देवी ने कहा कि तू मुझसे विवाह कर। ब्रह्मा ने कहा कि तू मेरी माता लगती है, मैं तुझसे विवाह नहीं कर सकता। ऐसा सुन माता को क्रोध चढ़ा और लड़के को भस्म कर दिया और फिर हाथ घिस कर उसी प्रकार दूसरा लड़का उत्पन्न किया, उसका नाम विष्णु रखा। उससे भी उसी प्रकार कहा। उसने भी न माना तो उसको भी भस्म कर दिया। पुनः इसी प्रकार  तीसरे लड़के को उत्पन्न किया और उसका नाम महादेव रखा और उससे कहा कि तू मुझसे विवाह कर। महादेव बोला कि मैं तुझसे विवाह नहीं कर सकता, तू दूसरा स्त्री का शरीर धारण कर। वैसा ही देवी ने किया। तब महादेव ने कहा कि ये दो ठिकाने राख-सी क्या पड़ी है? देवी ने कहा- ये तेरे भाई हैं, इन्होंने मेरी आज्ञा नहीं मानी, इसलिए भस्म कर दिये। महादेव ने कहा कि मैं अकेला क्या करूँगा, इनको जीवित कर दे और दो स्त्री उत्पन्न और कर, तीनों का विवाह तीनों से होगा। ऐसा ही देवी ने किया। फिर तीनों का तीनों के साथ विवाह हुआ। ये पोप लीला पुराण की है, इन पुराणवादियों के देवता हाथ से रगड़े हुए छाले से पैदा हुए हैं, कहीं विष्णु की नाभि से कमल और उससे ब्रह्मा तो खीरे की बेल से कृष्ण को पैदा ये कर दें तो कौन-सी बड़ी बात है!!! तात्पर्य है, जो आपने पूछा है, वह सब इन मिथ्यावादी, पुराणवादियों की लीला है, इसमें तथ्य कुछ भी नहीं है।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

श्री कृष्ण को भगवान मानने वाले उनका जन्म क्यों करते हैं, अन्य किसी देवी-देवता का जन्म क्यों नहीं करते?

जिज्ञासाऋषि उद्यान के सभी विद्वानों को मेरा सादर नमस्ते। ईश्वर आप सबको लबी आयु प्रदान करे। आप अपने जैसे विद्वानों को तैयार करें, ताकि जिज्ञासा-समाधान की शृंखला निरन्तर चलती रहे। मेरी जिज्ञासा है-

(क) श्री कृष्ण को भगवान मानने वाले उनका जन्म क्यों करते हैं, अन्य किसी देवी-देवता का जन्म क्यों नहीं करते?

– आशा आर्या, 14, मोहन मेकिन्स रोड, डालीगंज, लखनऊ-226020, उ.प्र.

समाधान– (क) वैदिक शुद्ध ज्ञान के अभाव में आज विश्वभर में पाखण्ड, अन्धविश्वास का बोलबाला है। इसकी चपेट से वही बच सकता है, जो महर्षि दयानन्द के दिखाये विशुद्ध वैदिक ज्ञान को अपना लेता है। केवल भारत में ही पाखण्ड, अन्धविश्वास नहीं है, अपितु जो देश अपने को विकसित व शिक्षित मानते हैं, उनके वहाँ भी यह सब आडमबर है। इस पाखण्ड में प्रायः सृष्टि विरुद्ध कपोल कल्पनाएँ ही होती हैं, जो कि मानव के उत्थान में बाधक ही बनती हैं। ईसाई लोगों की सृष्टि विरुद्ध मान्यता- ‘‘ईश्वर ने भूमि की धूल से आदम को बनाया और नथुनों में जीवन का श्वास फूँका और आदम जीवता प्राण हुआ और परमेश्वर ईश्वर ने ‘अदन’ में पूर्व की ओर एक ‘बारी’ लगाई और उस आदम को, जिसे उसने बनाया था, उसमें रखा।। और बारी (बाड़ी=रहने का स्थान) के मध्य में जीवन का पेड़ और भले-बुरे के ज्ञान का पेड़ भूमि में उगाया।। तौ.उ.पर्व 2. आ.7-9 इस बिना सिर-पैर की बात को ईसाई लोग मानते हैं।

और भी देखिए- परमेश्वर ईश्वर ने आदम को बड़ी नींद में डाला और वह सो गया। तब उसने उसकी पसलियों में से एक पसली निकाली और उसकी सन्ति मांस भर दिया (पसली के स्थान पर मांस भर दिया) और परमेश्वर ईश्वर ने आदम की उस पसली से एक नारी बनाई और उसे आदम के पास लाया। (तौ.उ.प. 2/आ 21-22) यहाँ भी पसली से स्त्री की उत्पत्ति सृष्टि विरुद्ध कथन है। महर्षि दयानन्द ने इस पर समीक्षा की है- ‘‘जो ईश्वर ने आदम को धूली से बनाया, तो उसकी स्त्री को धूली से क्यों नहीं बनाया? और जो नारी को हड्डी से बनाया, तो आदम को हड्डी से क्यों नहीं बनाया? और जैसे नर से निकलने से नारी नाम हुआ, तो नारी से नर नाम भी होना चाहिए…..।

देखो विद्वान् लोगो! ईश्वर की कैसी ‘पदार्थ विद्या’ अर्थात् ‘फिलासफी’ चलती है? जो आदम की एक पसली निकालकर नारी बनाई, तो सब मनुष्यों की एक पसली कम क्यों नहीं होती? और स्त्री के शरीर में एक पसली होनी चाहिए, क्योंकि वह एक पसली से बनी हुई है। क्या जिस सामग्री से जगत् बनाया, उस सामग्री से स्त्री का शरीर नहीं बन सकता था? इसलिए यह बाइबल का सृष्टिक्रम सृष्टि विद्या विरुद्ध है।’’

ऐसी ही सृष्टि विद्या विरुद्ध बातों को मुस्लिम मानते हैं, इनकी पुस्तकें भी व्यर्थ के चमत्कारों से भरी हुई हैं।

जैसे अन्य मतमतान्तरों में अविद्या के कारण पाखण्ड है, ऐसा ही पाखण्ड पुराणों को मानने वालों में है। कृष्ण के जन्म की जो आप पूछ रही हैं कि उनका ही जन्म क्यों करते-कराते हैं, यह इन जन्म कराने-करने वालों की बाल बुद्धि का द्योतक है, क्योंकि श्री कृष्ण जी का जन्म तो लगभग 5 हजार वर्ष पूर्व हुआ था। उस समय उन्होंने मानव कल्याण का कार्य किया था, समाज से देशद्रोही तत्त्वों को दूर कर समाज और देश को संगठित किया था। आज प्रति वर्ष इन पाखण्डों को मानने वालों की कृष्ण जी के जन्म कराने वाली बात ऐसी ही समझें, जैसे गुड्डे-गुड्डियों का खेल।

आपने पूछा- अन्य देवी-देवता का जन्म क्यों नहीं करवाते तो इस पर हमारा विचार है कि करवाने को तो ये अन्य का भी करवा सकते हैं, फिर भी कृष्ण जन्म कराने में इनको गप्फा अधिक मिलता है। कृष्ण जन्म के समय बधाइयों के नाम पर जनता को खूब लूटा जाता है, जिस प्रकार रामलीला करते हुए सीता विवाह कन्यादान के नाम पर लोगों को ठगते हैं। यह सब स्वार्थ के वशीभूत हो कर किया जाता है, जो कि अवैदिक है।

महर्षि दयानन्द के शिक्षा सबन्धी मौलिक विचार

        महर्षि दयानन्द के शिक्षा सबन्धी मौलिक विचार

श्री पं. प्रियव्रत वेदवाचस्पति

महर्षि दयानन्द के शिक्षा विषयक मौलिक विचार सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय समुल्लास में संकलित हैं। समुल्लास के विषय का निर्देश करते हुए स्वामी जी लिखते हैं- ‘अथ शिक्षां प्रवक्ष्यामः।’ अर्थात् इस समुल्लास में शिक्षा-सबन्धी विचारों का प्रतिपादन होगा। स्वामी जी ने इस विषय में अपनी विचार-सबन्धी स्पष्टता का प्रशंसनीय परिचय दिया है। उनके विचार उलझे हुए नहीं हैं, सभी मन्तव्य स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किये गए हैं। प्रत्येक मन्तव्य अपने-आप में पूर्ण है। स्वामी जी ने इस समुल्लास में शिक्षा के मूलभूत सिद्धान्तों पर ही अपना मत प्रकट किया है। पाठयक्रम सबन्धी विस्तृत सूचनायें उपस्थित करना उन्हें (द्वितीय समुल्लास में) अभीष्ट नहीं।

स्वामी जी के विचार से ज्ञानवान् बनने के लिए निमनलिखित तीन उत्तम शिक्षक अपेक्षित होते हैं- माता, पिता और आचार्य। शतपथ ब्राह्मण का निम्नलिखित वचन उनके उक्त विचार का आधार है।

‘मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद।’

अर्थात् वही पुरुष ज्ञानी बनता है, जिसे शिक्षक के रूप में प्रशस्त माता, प्रशस्त पिता तथा प्रशस्त आचार्य प्राप्त हों। बालकों की शिक्षा में तीनों में से किस-किसको कितने समय तक अपना कर्त्तव्य निभाना है, इस विषय में स्वामी जी ने स्पष्ट निर्देश दे दिया है- ‘‘जन्म से 5 वें वर्ष तक बालकों को माता, 6 वें से 8 वें वर्ष तक पिता शिक्षा करे और 9 वें वर्ष के आरा में द्विज अपनी सन्तानों का उपनयन करके विद्यायास के लिए गुरुकुल में भेज दें।’’

स्वामी जी ने बालक की शिक्षा में माता का भाग और दायित्व सबसे अधिक बताया है और यह उचित भी है। क्योंकि माता ही बालक को अपने गर्भ में धारण करती है, अतः गर्भकाल में माता के आचार-विचार का बालक पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अभिमन्यु द्वारा गर्भ निवासकाल में माता के सुने चक्रव्यूह-भेदन का रहस्य सीख जाना, महाभारत की प्रसिद्ध कथा है। जन्म प्राप्त करने के बाद भी काफी समय तक बालक माता के समपर्क में ही सबसे अधिक रहता है। स्वामी जी ने इस समय की सीमा 5 वर्ष निर्धारित की है। यह काल बालक के जीवन रूपी वृक्ष का अंकुर काल है। इसमें जो गुण, उसके अन्दर पड़ जायेंगे, वे बहुत गहरे होंगे, इसलिये माता का श्रेष्ठ होना अत्यन्त आवश्यक है। स्वामी जी लिखते हैं, ‘‘वह कुल धन्य, वह सन्तान बड़ा भाग्यवान्। जिसके माता और पिता धार्मिक विद्वान् हों। जितना माता से सन्तानों को उपदेश और उपकार पहुँचता है, उतना किसी से नहीं। जैसे माता सन्तानों पर प्रेम (और) उनका हित करना चाहती है, उतना अन्य कोई नहीं करता; इसलिए (मातृमान्) अर्थात्

‘‘प्रशस्ता धार्मिकी माता विद्यते यस्य स मातृमान्’’

धन्य वह माता है कि जो गर्भाधान से लेकर जब तक विद्या पूरी न हो, तब तक सुशीलता का उपदेश करे।’’

अनेक महापुरुषों ने अपनी जीवनियों में माता का ऋण स्वीकार किया है और अपने समस्त गुणों को माता से प्राप्त हुआ बताया है।

स्वामी जी की विशेषता यह है कि इन्होंने गर्भाधान के पूर्व मध्य और पश्चात्-तीनों समयों में माता-पिता की आचार-विचार समबन्धी शुद्धता का विधान किया है। वे लिखते हैं- ‘‘माता और पिता को अति उचित है कि गर्भाधान के पूर्व, मध्य और पश्चात् मादक द्रव्य, मद्य दुर्गन्ध, रुक्ष, बुद्धिनाशक पदार्थों को छोड़ के, जो शान्ति, आरोग्य, बल, बुद्धि, पराक्रम और सुशीलता से सभयता को प्राप्त करे, वैसे घृत, दुग्ध, मिष्ट, अन्नपान आदि श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन करे कि जिससे रजस् वीर्य भी दोषों से रहित होकर अत्युत्तम गुण युक्त हों।’’ इस प्रकार शुद्ध वीर्य तथा रजस् के संयोग से उत्पन्न सन्तान भी श्रेष्ठ गुणों वाली होगी। माता और पिता का यह शुद्ध आचार-विचार प्रकारान्तर से गर्भस्थ शिशु की शिक्षा ही है। स्वामी जी आगे लिखते हैं- ‘‘बुद्धि, बल, रूप, आरोग्य, पराक्रम, शान्ति आदि गुणकारक द्रव्यों का ही सेवन स्त्री करती रहे, जब तक सन्तान का जन्म हो।’’ ऐसा करने से सन्तान भी बुद्धि, बल, रूप, आरोग्य, पराक्रम आदि गुणों को धारण करेगी। यही उसके शिक्षित होने का दूसरा रूप है, जिसका दायित्व शुद्ध रूप से माता पर है, क्योंकि सन्तान गर्भस्थ दशा में उसी के रक्त-मांस से पुष्ट होती है।

इसके बाद स्वामी जी ने जन्म प्राप्त सन्तान को शिक्षित करने में माता के कर्त्तव्यों का विस्तार से वर्णन किया है। माता के द्वारा दी जाने वाली शिक्षा दो प्रकार की हो- (1) आचार-सबन्धी (2) प्रारमभिक अध्ययन-समबन्धी। आचार सबन्धी शिक्षा में माता सन्तान को उससे बड़ों के प्रति किये जाने वाले व्यवहार का उपदेश दे। बड़े, छोटे, माता, पिता, राजा, विद्वान् आदि से कैसे भाषण करना चाहिये, उनके पास किस प्रकार बैठना चाहिये, उनसे किस भाँति बरतना चाहिये- आदि बातों को निर्देश देना चाहिये। इससे बालक सर्वत्र प्रतिष्ठा योग्य बनेगा। दूसरे, माता सन्तान को जितेन्द्रिय, विद्याप्रिय तथा सत्संग प्रेमी बनाये, जिससे सन्तान व्यर्थ क्रीड़ा, रोदन, हास्य, लड़ाई, हर्ष, शोक, लोलुपता, ईर्ष्या द्वेषादि दुर्गुणों में न फँसे। माता सन्तान को सत्य भाषण, शौर्य, धैर्य, प्रसन्नवदन बनने वाले उपदेश दे। तीसरे, गुप्तांगों का स्पर्श आदि कुचेष्टाओं से उसे रोके और उसे सभय बनाये। प्रारमभिक अध्ययन-सबन्धी शिक्षा में माता सन्तान को शुद्ध उच्चारण की शिक्षा दे। ‘‘माता बालक की जिह्वा जिस प्रकार कोमल होकर स्पष्ट उच्चारण कर सके, वैसा उपाय करे कि जो जिस वर्ण का स्थान, प्रयत्न अर्थात् ‘प’ इसका ओष्ठ स्थान और स्पष्ट प्रयत्न दोनों ओष्ठों को मिलाकर बोलना, ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत अक्षरों को ठीक-ठीक बोल सकना। मधुर, गमभीर, सुन्दर, स्वर, अक्षर, मात्रा, पद, वाक्य, संहिता, अवसान भिन्न-भिन्न श्रवण होवे।’’ शुद्ध उच्चारण का बहुत महत्त्व होता है।

महाभाष्य का वचन है, ‘‘माता ही सन्तान को वस्तुतः शुद्ध उच्चारण की कला सिखा सकती है, क्योंकि शैशव में उसी का समपर्क सबसे अधिक होता है।’’

इसके बाद सन्तान को देवनागरी अक्षरों का तथा अन्य देशीय भाषाओं के अक्षरों का अभयास कराये। अक्षराभयास कराने के उपरान्त माता सामाजिक पारिवारिक  आचार सिखाने वाले शास्त्रीय वचनों को कण्ठस्थ करावे। इन सबके अतिरिक्त माता सन्तान को भूत, प्रेत, माता, शीतला देवी, गण्डा, ताबीज आदि अन्धविश्वासपूर्ण, छलभरी तथा धोखाधड़ी की बातों से सचेत करे तथा उस पर उसे विश्वास न करने दे। स्वामी जी ने इन अन्धविश्वास की बातों का विस्तृत तथा रोचक शैली में वर्णन किया है। बाल्यावस्था में अन्धविश्वास-विरोधी संस्कार डाल देने से वे बद्धमूल हो जायेंगे। इसके अतिरिक्त माता का यह भी कर्त्तव्य है कि बालक को वीर्यरक्षा का महत्त्व बताये। वीर्यरक्षा का महत्त्व जिन शबदों में माता बताये, उनका भी स्वामी जी ने निर्देश कर दिया है। हम उन्हें अविकलभाव से उद्धृत करना उचित समझते हैं- ‘‘देखो जिसके शरीर में सुरक्षित वीर्य रहता है, तब उसको आरोग्य, बुद्धि, बल, पराक्रम, बढ़ के बहुत सुख की प्राप्ति होती है। इसके रक्षण में यही रीति है कि विषयों की कथा, विषयी लोगों का संग, विषयों का ध्यान, स्त्री का दर्शन, एकान्त सेवन, समभाषण और स्पर्श आदि कर्म से ब्रह्मचारी लोग पृथक् रहकर उत्तम शिक्षा और पूर्ण विद्या को प्राप्त होवें। जिसके शरीर में वीर्य नहीं होता, वह नपुंसक, महाकुलक्षणी और जिसको प्रमेह रोग होता है, वह दुर्बल, निस्तेज, निर्बुद्धि, उत्साह, साहस, धैर्य, बल, पराक्रमादि गुणों से रहित होकर नष्ट हो जाता है। जो तुम लोग सुशिक्षा और विद्या के ग्रहण, वीर्य की रक्षा करने में इस समय चूकोगे तो पुनः इस जन्म में तुमको यह अमूल्य समय प्राप्त नहीं हो सकेगा। जब तक हम लोग गृह कर्मों के करने वाले जीते हैं, तभी तक तुमको विद्या-ग्रहण और शरीर का बल बढ़ाना चाहिये।’’

स्वामी जी ने पिता के दायित्व का स्पष्ट शबदों में पृथक् उल्लेख नहीं किया, परन्तु उनके इस निर्देश से कि 5 से 8 वर्ष तक की आयु तक सन्तान पिता से शिक्षण प्राप्त करे, पिता का कर्त्तव्य भी स्पष्ट हो जाता है। वस्तुतः अन्धविश्वास-विरोधी संस्कारों का निराकरण तथा ब्रह्मचर्य-महिमा का प्रतिपादन पिता अधिक सुचारु रूप से कर सकता है, अतः स्वामी जी ने अन्त में माता के साथ पिता का भी उल्लेख कर दिया है।

स्वामी जी कहते हैं कि अध्ययन के विषय में लालन का कोई स्थान नहीं, वहाँ ताड़न ही अभीष्ट है। ‘‘उन्हीं की सन्तान विद्वान्, सभय और सुशिक्षित होती हैं जो पढ़ाने में सन्तानों का लाड़न कभी नहीं करते, किन्तु ताडना ही करते रहते हैं।’’ इस प्रकार स्वामी जी spare the rod and spoil the child के सिद्धान्त में विश्वास रखते थे। उन्होंने महाभाष्य का प्रमाण भी दिया है-

सामृतैः पाणिभिर्घ्नन्ति गुरवो न विषोक्षितैः।

लालनाश्रयिणो दोषास्ताडनाश्रयिणो गुणाः।।

अर्थात् गुरुजन अमृतमय हाथों से ताड़ना करते हैं, विषाक्त हाथों से नहीं। भाव यह है कि गुरु की ताड़ना अमृत का प्रभाव करने वाली होती है, न कि विष का। लालन, प्रेम आदि से दुर्गुण पैदा होते हैं और ताड़न से शुभगुणों की प्रतिष्ठा होती है। ताड़ना का वस्तुतः अपना महत्त्व होता है। आजकल हम पबलिक स्कूलों की पढ़ाई को बहुत अच्छा समझते हैं। वहाँ ताड़न निषिद्ध नहीं है। स्वामी जी के इस विचार को अशुद्ध नहीं कहा जा सकता। परन्तु स्वामी जी यह लिखना न भूले कि ‘‘माता, पिता तथा अध्यापक लोग, ईर्ष्या, द्वेष से ताड़ना न करें, किन्तु ऊपर से भय प्रदान तथा भीतर से कृपा दृष्टि रखें।’’ कबीर का निम्नलिखित दोहा इसी तथ्य को स्पष्ट करता है-

गुरु कुहार सिष कुभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट।

अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।

इसके बाद स्वामी जी ने लिखा है कि आचार्य सत्याचरण की शिक्षा शिष्य को दे। सत्याचरण बहुत व्यापक शबद है। इस शबद में समस्त नैतिक तथा सामाजिक व्यवहार की मर्यादायें अन्तर्भूत हो जाती हैं। शिष्य को सच्चे अर्थों में सामाजिक व्यवहार की शिक्षा देने का दायित्व आचार्य पर है। आचार्य ही उसे सामाजिक दृष्टि से उपयोगी बना सकता है। इसके अतिरिक्त शिष्य को गमभीर ज्ञान की प्राप्ति तो आचार्य करायेगा ही, साथ ही  परा विद्या तथा अपरा विद्या में भी शिष्य को पारंगत करना, उसका कर्त्तव्य है।

एक और महत्त्वपूर्ण बात की ओर संकेत करते हुए स्वामी जी ने तैत्तिरीय उपनिषद् का निम्नलिखित वचन उद्घृत किया है-

यान्यस्माकं सुचरितानि तानि

त्वयोपास्यानि नो इतराणि।

अर्थात् शिष्य को उचित है कि वह माता, पिता तथा आचार्य के शुभ कार्यों का अनुकरण करे, अन्यों का नहीं। उक्त तीनों शिक्षक भी उसे यही उपदेश करें। मानव सुलभ त्रुटियाँ सभी में होती हैं। माता, पिता तथा आचार्य भी इसके अपवाद नहीं हो सकते, अतः शिष्य को अपने विकास में उपयोगी सब गुणों को अपने तीनों शिक्षकों से ग्रहण कर लेना चाहिये।

स्वामी जी ने यह भी लिखा है कि सामान्य व्यवहार की छोटी-छोटी बातें भी यह शिक्षकत्रय शिष्य को बतायें। इन छोटी-छोटी बातों का सुन्दर संकलन मनु के निम्नलिखित श्लोक में है-

दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं, वस्त्रपूतं जलं पिबेत्।

सत्यपूतां वदेद्वाचं, मनःपूतं समाचरेत्।।

अन्त में स्वामी जी लिखते हैं कि अपनी सन्तान को तन, मन, धन से विद्या, धर्म, सयता और उत्तम शिक्षा-युक्त करना माता-पिता का कर्त्तव्य कर्म, परम धर्म तथा कीर्ति का काम है।

चाणक्य नीति के निम्नलिखीत श्लोक में माता-पिता के उक्त दायित्व का वर्णन किया गया है-

माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।

न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा।।

इस प्रकार सत्यार्थप्रकाश के द्वितीय समुल्लास में स्वामी जी ने शिक्षा समबन्धी मौलिक बातों पर संक्षेप में प्रकाश डाला है। उनकी स्थापनायें शास्त्रानुमोदित होने के साथ-साथ उपयोगितावादी, व्यावहारिक कसौटी पर भी खरी उतरती है।

– आचार्य, गुरुकुल विश्वविद्यालय काँगड़ी हरिद्वार,

Why not four spouses for Muslim women too, asks Kerala HC judge

Kerala high court judge Justice B Kamal Pasha stirred a hornet’s nest on Sunday by asking why Muslim women could not have four husbands while the men enjoyed the same privilege under the Muslim personal law.

Addressing a seminar organised by an NGO run by women lawyers in Kozhikode, Pasha said Muslim personal laws are heavily loaded against women. He blamed religious heads for establishing the hegemony of men and wanted them to introspect during religious discourses on sensitive issues.

Under the Muslim personal law, a man can marry four times. Although many Muslim countries have banned polygamy, it is still prevalent in India.

“Religious heads should do self-introspection whether they are eligible to pronounce one-sided verdicts. People should also think about the eligibility of persons who are pronouncing such verdicts,” he said, adding that women were deprived even of the rights enshrined in the Quran.

Pasha also said that it was unfair to oppose a uniform civil code. “Even the highest court is a bit reluctant to interfere in this. Women should come forward to end this injustice,” he said.

“Personal law is loaded with discrimination. Besides denying equality, it also denies women’s right to property and other issues,” he said. The judge added that the Protection of Women from Domestic Violence Act, 2005, will be fruitful if the right of a woman to her husband’s property is properly defined.

This article originally appeared on Hindustan Times.

http://www.hindustantimes.com/india/why-not-four-spouses-for-muslim-women-too-kerala-hc-judge/story-AGUfESXK3vo51XUMgUFLNJ.html

आर्य-द्रविड़-वैमनस्य और वैदिक दृष्टि

आर्य-द्रविड़-वैमनस्य और वैदिक दृष्टि

-डॉ. फतह सिंह

प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् डॉ. फतह सिंह जी जीवन भर स्वाध्याय एवं शोध कार्य करते रहे। शिक्षा के क्षेत्र में प्राध्यापक एवं प्राचार्य जैसे पदों पर रहे तथा बाद में ‘राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान’ के निदेशक भी रहे। सिन्धु-सभयता एवं लिपि के अध्येता के रूप में आप की बहुत खयाति रही। आर्य-द्रविड़ विषय पर आपका चिन्तन बहुत मौलिक एवं यथार्थवादी है। उन्हीं के ग्रन्थ से हम यह आलेख पाठकों के लाभार्थ दे रहे हैं-समपादक

मेरे वैदिक अनुसंधान के तीसरे दौर का आरंभ सन् 1970 में राजस्थान-राजसेवा से मुक्त होने के पश्चात् आरंभ होता है। राजसेवा से मुक्त होने का एकमात्र कारण मेरे द्वारा की गई सिंधु-सभयता विषयक शोध थी। यों तो, जब मुझे 1967 में महाविद्यालय से स्थानांतरित करके राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान का निदेशक बनाया गया था, तो मुझे आश्वासन दिया गया था कि मैं तत्कालीन निवर्तमान निदेशक, मुनि जिनविजय के समान पिछत्तर वर्ष के वयः पर्यंत उस पद पर कार्य करता रहूँगा, पर ऐसा नहीं हो सका, क्योंकि स्वतंत्र भारत के नेतृत्व  और नौकरशाही को मेरा कार्य राष्ट्रविरोधी प्रतीत हुआ।

आर्य-द्रविड़ विवाद का भयः इस प्रतिष्ठान में आते ही मैंने एक ऐसे शोध कार्य में हाथ डाल दिया, जो आर्य-द्रविड़ विवाद में फँसा हुआ था। यद्यपि यह विवाद ब्रिटिश शासनकाल में साम्राज्यवादी लेखकों और विदेशी मिशनरियों के गठ-जोड़ से उठा था, पर कौन जानता था कि स्वतंत्र भारत में भी राष्ट्र के कर्णधार उस रोग से पीड़ित होंगे? इसका पता सर्वप्रथम तब चला जब दिसंबर, 1968 में पद्मधर पाठक ने डिसाइफर्मेण्ट ऑफ इंडस् स्क्रिप्ट शीर्षक से मेरे अनुसन्धान की सूचना दिल्ली के हिन्दुस्तान टाइमस पत्र को भेजी। उनका लेख जब दो महीने तक प्रकाशित नहीं हुआ तो उन्होंने लगातार दो व्यक्तिगत पत्र उस समय हिन्दुस्तान टाइमस के मुखय संपादक, वर्गीज को लिखे, तब कहीं वह लेख उस दैनिक में छपा। बाद में पता लगा कि उस लेख को दबाने का दुष्प्रयास पत्र के संपादक-मंडल के एक दक्षिण भारतीय का था।

इस लेख के छपने के बाद संपादक के नाम पत्रों की झड़ी लग गई और भारत सरकार के पास अनेक तार और पत्र पहुँचे। इन सबमें मेरी शोध का तीव्र विरोध था। कोई इसमें दक्षिण भारत का अपमान समझता था, तो कोई उन विद्वानों का जिन्होंने सिंधु-सभयता को द्रविड-सभयता कहा था। एकाध का कहना था कि इस विषय में निष्पक्ष शोध कार्य तो योरोपियन विद्वान् ही कर सकते हैं। कुछ पत्रों में मेरे कार्य को एक दुस्साहस और अनधिकार चेष्टा बताया गया था, तो अन्यों में उसे द्रविड़-जाति के विरुद्ध अपप्रचार और अनादर की संज्ञा दी गई थी। कुछ ऐसे पत्र भी थे, जो मेरे कार्य को आर्यों द्वारा द्रविड़ों की अस्मिता को मिटाने का एक नवीन दुष्प्रयास समझते थे। उनमें यह धमकी भी दी गई थी कि यदि सिंधु-सभयता को आर्य-सभयता सिद्ध करने का यह स्वप्न चलता रहा तो द्रविड़ों को इसके विरुद्ध जोरदार आन्दोलन करना पड़ेगा।

इस प्रचार से दुष्प्रभावित होकर हिन्दुस्तान टाइमस के साप्ताहिक संस्करण का एक पूरा अंक सिंधुघाटी-सभयता की समस्या पर विचार के लिए समर्पित किया गया। उसमें पुरातत्त्ववेत्ताओं के कई लेख छपे। सबने यही मानते हुए लिखा कि आर्य-जाति के लोग भारत के बाहर से आए थे और उन्होंने यहाँ के आदिवासियों को दास बनाया था। उन सबने अरविन्द, बाशम, ए सी दास और संपूर्णानन्द, आदि उन विद्वानों की सर्वथा उपेक्षा की थी, जिनकी मान्यता थी कि आर्य और द्रविड़ नाम की कोई नस्लें नहीं है और वेद में वर्णित दासों या दस्युओं को कोई आदिवासी जाति नहीं माना जा सकता है। सबका कहना था कि सिंधु-लिपि को जब तक पढ़ा नहीं जाता, तब तक वास्तविकता का पता नहीं लग सकता, पर किसी ने भी न तो मेरी पुस्तक को पढ़कर उसकी आलोचना करने का कष्ट किया और न इस बात का ही उल्लेख किया कि मैंने जिस वर्णमाला के आधार पर सिंधु-मुद्रालेखों को पढ़ा था, उसे प्रकाशित भी किया जा चुका था।

इस बीच राजस्थान सरकार के तत्कालीन शिक्षा-सचिव ने मुझे बुलाया और उन तारों और पत्रों की जानकारी दी, जो सिंधु-लिपि और सिंधु सभयता से संबंधित मेरे शोध कार्य के विरुद्ध भारत सरकार को मिले थे और जिनके कारण सरकार चिंतित थी। उनकी सलाह थी कि मैं या तो अपने शोध कार्य को बिल्कुल बन्द कर दूँ अथवा अपने मत को बदल दूँ। मैंने उन्हें यह समझाने का यत्न किया कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ, उससे आर्य-द्रविड़ अथवा उत्तर-दक्षिण का भेद मिटेगा और राष्ट्रीय एकता को प्रोत्साहन मिलेगा। उनका कहना था कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के कारण दक्षिण भारत वैसे ही क्रुद्ध है और मद्रास की एक पार्टी तो भारत से पृथक् तमिलनाडु बनाना चाहती है। उनको अडिग देखकर मैंने उनसे निवेदन किया कि वे मेरे स्थान पर किसी दूसरे को निदेशक बना सकते हैं। इसके फलस्वरूप जनवरी, 1970 में प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान एक दूसरे विभाग के निदेशक की देखरेख में चलने लगा और मैं राजस्थान राजसेवा से मुक्त होकर उत्तर प्रदेश चला गया। इस प्रकार, सिंधु-सभयता की शोध से वैदिक अनुसंधान का जो एक नया अध्याय खुला था, उसे सरकार ने अपनी जान में बन्द कर दिया।

आहत (पञ्च-मार्क्ड) मुद्राओं में सिन्धु-लिपि और वेदः पर एक घटना ने उसी शोध को एक अप्रत्याशित नया रूप दे दिया। जब मैं पीलीभीत (उत्तरप्रदेश) जिले में स्थित अपने गाँव में रहने पहुँचा तो उन्हीं दिनों मेरे गाँव से आठ-दस किलोमीटर दूर खनौत नदी की तलहटी में चरवाहों को एक बहुत पुराना गला हुआ ताम्रपात्र मिला, जिसमें चाँदी के सिक्के भरे थे। एक इतिहास प्रेमी अधिकारी ने उनमें से बीस सिक्के , साफ किए हुए मेरे पास भेज दिए। जब मैंने उन सिक्कों पर उसी सिंधु लिपि का प्राचीनतम रूप देखा, जिसके चार रूप मुझे सिंधु-मुद्राओं पर मिले थे तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अधिकांश सिक्कों में सूर्य और गौ का शिर चित्रित था। किसी-किसी पर एक ऐसा वृक्ष था, जिसकी जड़ ऊपर को थी और शाखाएँ नीचे की ओर हैं और मूल (बुध्न) ऊपर को है और जिसके प्राण हमारे भीतर अंतर्हित हैं। यही वह अश्वत्थ वृक्ष भी हो सकता है, जिसे श्रीमद्भगवद्गीता में ऊर्ध्वमूल अधःशाख कहकर याद किया गया है और जिसके जानकार को वेदवेत्ता माना है।

इससे स्पष्ट है कि आहत (पञ्च-मार्क्ड) मुद्राएँ भी सिन्धु-लिपि से युक्त होने के कारण तथाकथित सिन्धु-सभयता से जुड़े हुए होने के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रमाणों के आधार पर परंपरा से अभिन्न समबन्ध रखी हैं। इसका एक प्रमाण यह भी है कि उक्त सिक्कों में से कुछ पर सिन्धु-लिपि में ‘राम’ नाम लिखा है और साथ ही राम, लक्ष्मण और सीता के चित्र भी हैं। विशेषता यह है कि वहाँ वे तीनों वनवासी वेश में हैं। राम-लक्ष्मण के जटा-जूट हैं, पर सीता वहाँ दो वेणियाँ रखे हुए हैं। प्राचीन काल में एक वेणी तो अपने पति से वियुक्त पत्नी ही रखती थी। इन तीनों को वनवासी वेश में देखकर और भी कुतूहल इसलिए हुआ, क्योंकि अन्यत्र इन तीनों में सीता को साड़ी पहने हुए ही दिखाया जाता है। वाल्मीकि रामायण से पता चलता है कि कैकेयी ने एक बार सचमुच तीनों ही को वनवासी वेश पहना दिया था, पर वसिष्ठ के हस्तक्षेप से सीता को पुनः न केवल सामान्य वेश में आना पड़ा, अपितु चौदह वर्ष के लिए अपेक्षित वस्त्र, आदि भी उसके साथ भेजे गए। इससे सिद्ध हो गया कि ‘राम’ नाम से अंकित त्रिमूर्ति वाले सिक्के सचमुच राम के समय के हैं। इसके अतिरिक्त कुछ सिक्कों पर शबरी को  राम-लक्ष्मण के सामने प्रणिपात करते हुए दिखाया गया था और एक सिक्के पर ‘हा राजेन्द्र अमर’ अंकित था। वह संभवतः राजा दशरथ की स्मृति में जारी किया गया होगा। कुछ सिक्कों पर खड़ाऊँ की जोड़ी का चिह्न था, जिसे उस भरत-शासित साम्राज्य-काल का स्मारक समझा जा सकता है, जिसमें राम की खड़ाऊँ राजसिंहासन पर विराजमान रही थीं।

ये सब सिक्के उन प्राचीन सिक्कों में आते हैं, जो आहत मुद्रा कहे जाते हैं और आसाम-बंगाल से लेकर अफगानिस्तान तक और दक्षिण से लेकर उत्तर तक, देश में सर्वत्र पाए गए हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि जो लिपि सिंधु-मुद्राओं की थी, उस लिपि वाले सिक्कों का सारा क्षेत्र उसी सयता का प्रदेश था, जिसे पहले केवल सिंधु-घाटी से सीमित माना जाता था। साथ ही,  यह सभयता वही वैदिक सभयता है, जो रामराज्य से जुड़ी हुई है और सारे भारत की सभयता कही जाती है। ये निष्कर्ष मैंने उत्तर प्रदेश सरकार की ‘त्रिपथगा पत्रिका’ में प्रकाशित कराए और दो-एक लेख लखनऊ के दैनिक स्वतंत्र भारत में निकले। इस प्रसंग में मैंने उन सब सिक्कों का अध्ययन करना चाहा जो खनौत नदी में पाए गए थे और जिनमें से बीस मुझे मिल गए थे। वे सिक्के लखनऊ के सरकारी संग्रहालय में पहुँच गए थे। मैंने उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन शिक्षा-सचिव से संग्रहालय को फोन करवाया कि मुझे उन सब सिक्कों के फोटो उपलबध करा दिए जाएँ, पर दो वर्ष तक सदा यही उत्तर मिला कि अभी तो सिक्कों की सफाई ही नहीं हुई है। साथ ही, सरकारी पत्रिका (त्रिपथगा) ने मेरे लेख छापना बन्द कर दिया।

इस घटना से मन में प्रश्न उठा, क्या हम सचमुच स्वतंत्र हैं?

पुराने साम्राज्यवाद का आतंकः ऐसा ही मेरा एक अनुभव विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के साथ का है। जब मैं राजस्थान सरकार की राजसेवा से मुक्त हो गया तो मैंने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को सिंधु-सभयता के वैदिक आधार पर शोध कार्य करने के लिए अपनी योजना भेजी। कुछ महिनों बाद आयोग के सचिव, सैमुअल मथाई का पत्र मिला कि यदि मैं  ऋग्वेद के पुनर्गठन पर कार्य करना चाहूँ तो आयोग मुझे अनुदान दे सकता है। मैं समझ गया कि सैमुअल मथाई के माध्यम से फादर एस्टलर (निदेशक, हेरास इंस्टीट्यूट, बबई) बोल रहे हैं, जो ओरियंटल कान्फरेंस के वैदिक संभाग के अपने अध्यक्षीय भाषण में ऋग्वेद के पुनर्गठन की योजना को जोरदार शबदों में प्रस्तावित कर चुके थे। यह योजना वस्तुतः वेदों को कलंकित करने का एक दुष्प्रयास था, जिसमें यह सिद्ध किया जाता कि वेदों में व्याकरण, छंद आदि की बहुत-सी गलतियाँ हैं और बहुत से प्रक्षेप और पुनरुक्तियाँ हैं। इन सबको निकालकर एक शुद्ध ऋग्वेद को प्रकाशित करने के बहाने दुनिया को यह दिखलाना था कि जिस वेद पर इतना गर्व किया जाता है, वह त्रुटियों का पिटारा-मात्र है।

अतः मैंने सैमुअल मथाई को लिखा कि मैं ऋग्वेद के पुनर्गठन पर तो काम नहीं करूँगा, क्योंकि इस पर तो फादर एस्टलर कर रहे हैं, पर मैं ऋग्वैदिक  विचारधारा के पुनर्गठन पर कार्य कर सकता हूँ। उस विषय की एक सुविस्तृत रूपरेखा भी मैंने प्रस्तुत की। उसने सिंधु-मुद्रालेखों और आहत-मुद्राओं से प्राप्त वैदिक विचारों का भी समावेश था। उसका उत्तर नहीं मिला, जिसकी आशंका थी, ‘खेद है कि आयोग आपकी योजना को स्वीकार नहीं कर सका।’

कुछ दिनों बाद, मुझे हेरास इंस्टीट्यूट के सचिव से एक पत्र मिला, जिसमें सूचित किया गया था कि हेरास इंस्टीट्यूट एक संगोष्ठी आयोजित कर रहा है, जिसमें वैदिक विद्वानों के साथ उन सब लोगों को भी आमंत्रित किया जाएगा, जिन्होंने सिंधु-लिपि पर काम किया है। मुझसे कहा गया था कि मैं भी अपना एक लेख पढूँ और उसकी एक विस्तृत रूपरेखा भेज दूँ। मैंने तुरंत ‘सिंधु-लिपि और आहत-मुद्रा’ पर एक रूपरेखा भेज दी। रूपरेखा की भूमिका में मैंने स्पष्ट कर दिया था कि सिंधु-सभयता वैदिक सभयता ही थी, जिसके तब सारे देश में फैले हुए होने का ताजा प्रमाण वे सिक्के हैं, जिस पर सिंधु-लिपि मिली है। रूपरेखा भेजने के बाद छह महीने निकल गए और वह तारीख भी निकल गई जब गोष्ठी होने वाली थी, पर मुझे हेरास इंस्टीट्यूट से कुछ भी सूचना नहीं मिली।

इस प्रकार की घटनाओं से मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि स्वतंत्र भारत में भी हम पुराने साम्राज्यवादी लेखकों की परंपरा के गुलाम हैं और जब तक हम इससे मुक्त नहीं होते हैं, तब तक सत्य की खोज नहीं की जा सकती है। मेरा ऐसा ही अनुभव देश की कुछ शिक्षा-संस्थाओं के साथ भी रहा। उन दिनों कई स्नातकोत्तर महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में मुझे सिंधु-सभयता, सिंधु-लिपि अथवा उससे संबंधित आर्य-द्रविड़ समस्या पर भाषण देने के लिए आमंत्रित किय गया। प्रायः सर्वत्र तीन से लेकर छह व्याखयान मैंने दिए। प्रत्येक व्याखयान लगभग दो-ढाई घंटे का होता था। सर्वत्र मैं बड़े ध्यान से सुना गया। इन आयोजनों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वह भाषणमाला थी जो मैंने बंगलौर की राष्ट्रोत्थान परिषद् के तत्त्वाधान में प्रस्तुत की थी। उसमें दक्षिण के चौदह समाचार पत्रों के प्रतिनिधियों को भी आमंत्रित किया गया था। उनके समक्ष मैंने विशेष रूप से अपने विचार अलग से रखे थे। एक महाविद्यालय के प्रांगण में छह दिनों तक लगातार लगभग दो हजार बुद्धिजीवी श्रोता आते रहे। जाते समय अपने प्रश्नों को लिखकर वे एक डिबबे में डाल जाते थे, जिनका उत्तर मैं दूसरे दिन देता था।

यहाँ मैंने जो भाषण दिए, उनका सार इस प्रकार था। आर्य और द्रविड़ शबद नस्लवाचक नहीं है। उत्तर और दक्षिण में आदि काल से एक ही वेदमूलक समान संस्कृति रही है। वेद भारत अथवा हिन्दुओं की ही नहीं, सारी मानवजाति की सार्वभौम और समान परंपरा को प्रस्तुत करते हैं। वेदों ही की सहायता से, न केवल भारतीय साहित्य के अपितु ईसाई, मुस्लिम और यहूदी परंपरा के भी ऐसे बहुत से प्रसंग समझे जा सकते हैं, जिन्हें  हम गपोड़ा अथवा अंधविश्वास की संज्ञा देते आए हैं। इसके अतिरिक्त, वैदिक तत्त्वज्ञान में ही वह शक्ति निहित है, जिसने हिन्दू-समाज में अनेक नस्लों, अनेक भाषाओं, अनेक रस्म-रिवाजों और अनेक पूजापद्धतियों का समावेश करके, अनेकता में एकता हो जाने का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया है। अतः वेदों का अध्ययन सारी मानवजाति के लिए अत्यंत उपादेय हो सकता है। सिंधु-सभयता निस्सन्देह वैदिक सभयता है। हड़प्पा और मोयां-जो-दारो नामक प्राचीन नगरों की खुदाई में प्राप्त अवशेषों से स्पष्टतः प्रमाणित है कि वे उन्हीं वैदिक लोगों के नगर थे जो यज्ञ करते थे और देवोपासक थे। द्रविड़ शबद जिस द्रामित्र का रूपांतर माना गया है, वह वस्तुतः वैदिक इंद्रामित्रशबद के इं का लोप होने से निष्पन्न हुआ है और आर्य शबद के समान ही वैदिक संस्कृति की देन है।

लगभग ये बातें मैंने जोधपुर, जयपुर, अजमेर, उज्जैन, आगरा, अलीगढ़ आदि स्थानों पर कहीं। श्रोताओं ने बड़े ध्यान से सुना भी, पर कई घटनाएँ ऐसी हुई जिनसे मुझे प्रतीत हुआ कि पुरातत्त्ववेत्ताओं को मेरी बातें पसंद नहीं आईं। पुरातत्त्व और इतिहास के एक प्रोफेसर ने मेरी शोध पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए मेरी प्रशंसा में एक लेख किसी दैनिक में प्रकाशित करा दिया, इसका परिणाम उसे इतिहास-परिषद् के एक अधिवेशन में देखने को मिला। जो मिलता यही कहता, ‘आपने भी फतह सिंह का समर्थन कर दिया।’ उनका मानना था कि ‘सिंधु-लिपि पर शोध करना केवल पुरातत्त्व और इतिहास के प्रोफेसरों का काम है और मेरे जैसे संस्कृत वाले का उस कार्य में टाँग अड़ाना अनधिकार चेष्टा है। जिस कार्य को बड़े-बड़े विदेशी विद्वान् नहीं कर सके, उसे कोई भारतीय कैसे कर सकता है? क्या आप कभी विदेश गए? क्या आपने कंप्यूटर का प्रयोग किया? अमुक विद्वानों ने कप्यूटर का प्रयोग करके सिंधु-लिपि को द्रविड लिपि सिद्ध किया है। फादर हेरास उसे चित्रलिपि सिद्ध कर चुके हैं। क्या यह अंतिम निर्णय नहीं है? फादर हेरास से आगे आप सिंधु-सभयता के विषय में क्या कह सकते हैं? निश्चित रूप से सिंधु-सभयता आर्य सभयता नहीं हो सकती, क्योंकि वहाँ शिव और देवी जैसे  अवैदिक उपास्यों का होना इसके ठोस प्रमाण हैं।’ इस प्रकार की अनेक बातें उन्हें या मुझे सुनने को मिलीं।

आर्य-अनार्य की बातः इनमें से प्रत्येक बात का उत्तर मैं अपने लेखों में दे चुका था। सिंधु-घाटी में प्राप्त शिवलिंग वस्तुतः यज्ञवेदी से उठती हुई अग्नि-शिखा का द्योतक है। स्वयं ऋग्वेद में ही कम से कम तेईस देवियों के नाम मिलते हैं, अतः शिव और देवी को अवैदिक कहना सरासर झूठ और बेईमानी है।

इस प्रकार के असत्य का प्रचार विदेशियों द्वारा प्रायः होता रहा है। इसके अतिरिक्त, सामयवादी विचारधारा से प्रेरित कई संस्थाएँ भी छद्म-रूप से ऐसा अपप्रचार करती रही हैं। इन संस्थाओं ने मिलकर एक तथाकथित साहित्य-महासभा खड़ी की है। उसका पूरा नाम दलित-आदिवासी-ग्रामीण संयुक्त साहित्य महासभा है। साहित्य और संस्कृति की आड़ में दलित, आदिवासी, ग्रामीण (शूद्र) नाम से गिरिजनों, वनवासियों, हरिजनों और अभावग्रस्त ग्रामीणों को अपने राजनीतिक मंतव्य की ओर ले जाने के लिए यह संस्था यत्नशील है। मुझे सामयवाद से कोई द्वेष नहीं है, पर भारतीय साहित्य का मार्क्सवादी विश्लेषण करने में वैदिक तत्त्वज्ञान की नासमझी से ऐसे विद्वान् मानवता का जो अहित कर रहे हैं, वह अवश्य चिंतनीय है। इस प्रसंग में आर्य और शूद्र शबदों को जाति अथवा वर्ग के वाचक मानकर वे जो निष्कर्ष निकालते हैं, उससे दोहरी हानि है। एक तो, इससे आर्य और शूद्र शबदों के गलत अर्थों का प्रचार करके आज की जाति-प्रथा के लिए वेदों को उत्तरदायी समझ लिया जाता है। दूसरे, इन शबदों के पीछे जो गम्भीर तत्त्वज्ञान है, उससे मानवता वंचित रह जाती है। अतः दोनों शबदों के मूल वैदिक अर्थ पर विचार आवश्यक है।

धर्मसारथी श्री कृष्ण

धर्मसारथी श्री कृष्ण
– विवेकानन्द सरस्वती
जब धर्मवादी धर्मधुरन्धरों से भरी सभा में उन्हीं के समक्ष किसी सामान्य अबला नारी की नहीं, अपितु राजमहिषी पटरानी सबला का अट्टहासपूर्वक घोर अपमान हो, तब वहाँ धर्म का कुछ भी अंश अवशिष्ट रह गया हो, इसकी कल्पना भी बुद्धि शून्यता की पराकाष्ठा है। किसी भी प्रकार से चाहे वह छल-बल-कल से हो या अन्य किसी निम्नतर उपाय से अपने स्वजन के विनाश की षड्यन्त्र की कल्पना हो, उस परिस्थिति में जहाँ भीष्म द्रोणाचार्य जैसे सर्वमान्य लोकपूज्य व्यक्ति भी उसके विरुद्ध में कुछ कहने का या कराने का साहस न कर सकते हों और अपने सममुख ही धर्म को तार-तार होते हुए देख ही नहीं रहे हों, अपितु उस दुष्कर्म में सहयोगी भी बने हों, तब भला धर्म की या न्याय की रक्षा करने का बीड़ा उठाने का कौन साहस कर सकता है और जो व्यक्ति यह साहस कर सकता है, वह सामान्य नहीं हो सकता। योगेश्वर श्रीकृष्ण उन्हीं असामान्य लोगों में से थे। उन्होंने अपनी सारी प्रतिष्ठा को तिलाञ्जलि देकर धर्मरक्षा का प्रण किया। उन्होंने कहा कि-
परित्राणाय साधूनां, धर्मसंस्थापनार्थाय सभवामि युगे युगे।
और इस प्रतिज्ञा का पालन किया धार्मिकों की रक्षा के माध्यम से उन्होंने वेद धर्म की रक्षा की। सभा में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, जो कुछ कह सके या कर सके। ऐसी विषम परिस्थिति में उन्होंने अपने अग्रज श्री बलराम जी की उपेक्षा कर दाय भाग में से ‘सूच्यग्रं नैव दास्यामि’ की घोषणा करनेवाले तथा उनके समर्थकों को दण्डित धर्म की आधार भूमि को दृढ़ करने का निश्चय किया। सम्भवतः अन्य कोई सामान्य व्यक्ति होता तो इसको पारिवारिक कलह कहकर अपने को बचाने का मार्ग प्रशस्त कर लेता, किन्तु श्रीकृष्ण इसको कायरता ही नहीं, अपितु घोर अधर्म समझते थे। यदि किसी समर्थ व्यक्ति के सममुख धर्म एवं न्याय का हनन हो रहा हो और धर्म की रक्षा के लिए वह समर्थ व्यक्ति कुछ नहीं कर पा रहा हो, तो सचमुच वह अधार्मिक ही नहीं महापापी भी होता है। योगेश्वर श्री कृष्ण इस प्रकार धर्म अवमानना नहीं देख सकते थे, इसलिए धर्मरक्षार्थ उन्होंने धर्म का सारथी बनना सहर्ष स्वीकार किया। सामान्य दृष्टि से लोग यही विचारते हैं कि भारत युद्ध में श्रीकृष्ण ने अर्जुन का सारथी बनकर उसके रथ को हाँका था, स्थूल दृष्टि से भी यही दृष्टिगोचर होता है, किन्तु वास्तव में तो अर्जुन के नहीं, पाण्डवों के नहीं,अपितु धर्म के सारथी बने थे। जिन अधार्मिक कुकृत्यों का आश्रय कौरव लेकर चल रहे थे, यदि वे क़ुकृत्य पाण्डवों में भी दृष्टिगोचर होते तो श्रीकृष्ण कभी भी उनका साथ न देते। कौरवों के पक्ष में युद्ध के समय में जिस कर्ण पर दुर्योधन को सर्वाधिक विजय का विश्वास था, वह कर्ण स्वयं पूजा पाठ करते हुए तथा दान करते हुए भी महान् अधार्मिक था, क्योंकि उसने कौरवों के द्वारा किये जाते हुए अधार्मिक कुकृत्यों का समर्थन ही नहीं, अपितु कौरवों को प्रोत्साहित भी किया था। जब भारत युद्ध के सत्रहवें दिन कर्ण और अर्जुन का निर्णायक द्वन्द्व युद्ध होने लगा तो किसी विकट परिस्थिति में पड़कर स्वयं कर्ण ने धर्म की गाथा गाते हुए अर्जुन से कहा- अर्जुन! तुम धर्मयोद्धा हो, धर्मयुद्ध करने में तुमहारी प्रसिद्धि है, अतः कुछ क्षण रुको। श्रीकृष्ण कर्ण के द्वारा धर्म की बात सुनकर हँसे बिना नहीं रह सके और उन्होंने फटकारते हुए, धिक्कारते हुए, कर्ण से कहा- कर्ण, तुमहारे जैसे अधार्मिक निकृष्ट व्यक्ति को जब मृत्यु सामने उपस्थित हो जाती है तो धर्म स्मरण आता है। जो-जो अधर्म तुमने किये या तुमहारे प्रोत्साहित करने पर कौरवों ने किये, उस समय कभी भी तुमहें धर्म का स्मरण नहीं हुआ। उन्होंने पापमय अधार्मिक उन कार्यों का भी स्मरण कराया जिनको कर्ण नेकिया था और स्मरण कराते हुए कहा कि-
यदा सभायां राजानामनक्षज्ञं युधिष्ठिरम्।
अजैषीच्छकुनिर्ज्ञानात् क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
वनवासे व्यतीते च कर्ण वर्षे त्रयोदशे।
न प्रयच्छसि यद् राज्यं क्व ते धर्मस्तदा गतः ।।
यद् भीमसेन सर्पैश्च विषयुक्तैश्च भोजनैः।
आचरत् त्वन्मते राजा क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
यद् वारणावते पार्थान् सुप्ताञ्जतुगृहे तदा।
आदीपयस्वं राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
यदा रजस्वलां कृष्णां दुःशासनवशे स्थिताम्।
सभायां प्राहसः कर्ण क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
यदनार्यैः पुरा कृष्णां क्लिश्यमानामनागसम्।
उपप्रेक्षसि राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
विनष्टाः पाण्डवाः कृष्णो शाश्वतं नरकं गताः।
पतिमन्यं वृणीष्वेति वदंस्त्वं गजगामिनीम्।।
उपप्रेक्षसि राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः।
राज्यलुधः पुनः कर्ण समाव्यथसि पाण्डवान्।
यदा शकुनिमाश्रित्य क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
यदाभिमन्युं बहवो युद्धे जघ्नुर्महारथाः।
परिवार्य रणे बालं क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
(महा.. कर्णपर्व अध्याय-91)
अर्थात् ‘कर्ण! जब कौरव सभा में जुए के खेल का ज्ञान न रखने वाले राजा युधिष्ठिर को शकुनि ने जान-बूझकर छलपूर्वक हराया था, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘कर्ण! वनवास का तेरहवाँ वर्ष बीत जाने पर जब तुमने पाण्डवों का राज्य उन्हें वापस नहीं दिया था, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘जब राजा दुर्योधन ने तुमहारी ही सलाह लेकर भीमसेन को जहर मिलाया हुआ अन्न खिलाया और उन्हें सर्पों से डँसवाया, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘राधानन्दन! उन दिनों वारणावत नगर में लाक्षा भवन के भीतर सोये हुये कुन्तीकुमारों को जब तुमने जलाने का प्रयत्न कराया था, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘कर्ण! भरी सभा में दुःशासन के वश में पडी हुई रजस्वला द्रौपदी को लक्ष्य करके जब तुमने उपहास किया था, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘राधानन्दन! पहले नीच कौरवों द्वारा क्लेश पाती हुई निरपराध द्रौपदी को जब तुम निकट से देख रहे थे, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
(याद है न, तुमने द्रौपदी से कहा था) ‘कृष्ण-पाण्डव नष्ट हो गये हैं, सदा के लिये नरक में पड़ गये। अब तू किसी दूसरे पति का वरण कर ले। जब तुम ऐसी बातें करते हुए गजगामिनी द्रौपदी को निकट से आँखें फाड़-फाड़कर देख रहे थे, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘कर्ण! फिर राज्य के लोभ में पड़कर तुमने शकुनि की सलाह के अनुसार जब पाण्डवों को दोबारा जुए के लिये बुलवाया, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘जब युद्ध में तुम बहुत-से महारथियों ने मिलकर बालक अभिमन्यु को चारों ओर से घेरकर मार डाला था,उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
व्यास जी ने कहा है- ‘यतो धर्मस्ततो जयः।’ जहाँ धर्म है, वही विजय होती है। श्रीकृष्ण ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने धर्म के आधार पर सत्य का पालन किया। उनकी सत्यनिष्ठा का प्रमाण उत्तरा के मृतकल्प पुत्र को पुनः प्राणदान के समय की हुई शपथ से प्रतीत होता है-
नोक्तपूर्व मया मिथ्या स्वैरेष्वपि कदाचन।
न च युद्धात् परावृत्तस्तथा संजीवतामयम्।।
यथा मे दयितो धर्मो ब्राह्मणश्च विश्ेाषतः।
अभिमन्योः सुतो जातो मृतो जीवत्वयं तथा।।
यथा सत्यं च धर्मश्च मयि नित्यं प्रतिष्ठितौ।
तथा मृत शिशुरयं जीवतादभिमन्युजः।।
यथा कंसश्च केशी च धर्मेण निहितौ मया।
तेन सत्येन बालोऽयं पुनः संजीवतामयम्।।
(महा.. आश्वमेधिक पर्व अध्याय-70)
अर्थात् ‘मैनें खेल-कूद में भी कभी मिथ्या भाषण नहीं किया है और युद्ध में पीठ नहीं दिखायी है। इस शक्ति के प्रभाव से अभिमन्यु का यही बालक जीवित हो जाये।’
‘यदि धर्म और ब्राह्मण मुझे विशेष प्रिय हों तो अभिमन्यु का यह पुत्र जो पैदा होते ही मर गया था, फिर जीवित हो जाये।’
‘यदि मुझमें सत्य और धर्म की निरन्तर स्थिति बनी रहती हो, तो अभिमन्यु का यह मरा हुआ बालक जी उठे।’
‘मैनें कंस और केशी का धर्म के अनुसार वध किया है, इस सत्य के प्रभाव से यह बालक फिर जीवित हो जाये।’
वेद एवं नीतिकारों ने कहा भी है-
सत्येनोत्तभिता भूमिः सूर्येणोत्तभिता द्यौः।
ऋतेनादित्यास्तिष्ठन्ति दिवि सोमो अधिश्रितः।।
(ऋग्.. 10/85/1)
न हि सत्यात् परो धर्मः ।
न हि असत्यात् पातकं महत्।।
श्रीकृष्ण उस सत्य धर्म की रक्षा के लिए दूत बने, सारथी बने, सेवक बने, मित्र बने, सब कुछ बने, किन्तु लक्ष्य एक ही था- धर्म की रक्षा, इसलिए वे यथार्थ में पार्थ के सारथी नहीं, अपितु धर्म के सारथी बने।
– प्रभात आश्रम, मेरठ