योग रहस्य

                       योग रहस्य

– स्वामी वेदानन्द सरस्वती

यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूत् विजानतः।

तत्र कः मोह कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः।।

– यजु. 40.7।।

शदार्थः (यस्मिन्) जिस (विजानतः) ज्ञानी के ज्ञान में (सर्वाणि भूतानि)सभी प्राणी (आत्मा) परमात्मा (एवं) ही (अभूत्) हो गए, ऐसे (एकत्वमनुपश्यतः) एकत्व दर्शी व्यक्ति को (तत्र) वहाँ (कः मोह) किस का मोह और (कः शोकः) किस का शोक रहेगा, अर्थात् वहाँ न मोह रहता है, न ही शोक रहता है |

यह असमप्रज्ञात समाधि अवस्था का चित्रण खींचा गया है, जहाँ योग युक्त आत्मा को सर्वत्र एक ब्रह्म ही नजर आता है। असमप्रज्ञात समाधि में आत्मा रूप को भी विस्मृत कर सर्वत्र एक विभु आत्मा का ही दर्शन करता है। इस अवस्था को पाने के लिये जिज्ञासु जनों के लिये हम एक क्रम का दिग्दर्शन कराते हैं।

  1. योग परिभाषा- ‘योगश्चित्त वृत्ति निरोधः। योगः समाधि।’अर्थात् चित्तवृत्तियों का निरोध कहें या समाधि कहें, वह योग ही है।
  2. समाधि प्राप्ति का फल- (क) इससे साधक का मन पूर्णतया निर्मल और स्थितप्रज्ञता को प्राप्त होता है। (ख) सब कषायों का क्षय हो जाता है। (ग) व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होता है। (घ) व्यक्ति को अपार आनंद की अनुभूति होती है। (ङ) मन और इन्द्रियों पर पूर्ण संयम हो जाता है। (च) सुन्दर स्वास्थ्य और कुशाग्र बुद्धि प्राप्त होती है। (छ) प्रसुप्त शक्तियाँ जाग्रत होती हैं। (ज) आत्म साक्षात्कार और प्रभु दर्शन होता है। (झ) मृत्यु विजय की उपलबधि होती है।

समाधि प्राप्ति के लिये प्रक्रियाः

  1. 1. वर्तमान में जीना सीखें। अतीत की स्मृतियों में और भविष्य की कल्पनाओं में समय न खोवें।
  2. 2. जो भी कर्म करें, पूरे मनोयोग से करें। सब काम धर्मानुसार ही करें।
  3. 3. सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने के लिये सदैव तैयार रहें। प्रमादी न बनें।
  4. 4. शुद्ध सात्विक आहार और मित भाषण करें।
  5. 5. सज्जनों से मैत्री और दुर्जनों से उपेक्षा का भाव रखें।
  6. 6. यम-नियमों का नियमित पालन करें। उससे मन स्वच्छ और स्वस्थ होगा।
  7. 7. योगासनों का नित्य अभयास करें। इससे शरीर स्वस्थ निरोग बनेगा। ध्यान के समय किसी स्थिर आसन पर बैठें जिस आसन पर दो घंटे तक स्थिरता पूर्वक बैठ सकें।
  8. प्राणायाम- स्थिर आसन पर बैठ कर प्राणायाम का अभयास करें। लमबे और गहरे श्वास-प्रश्वास का अभयास करें। प्राणायाम से मन को एकाग्रता मिलती है। शरीर को आरोग्यता प्राप्त होती है।
  9. प्रणव ध्वनि- लमबा गहराश्वास अन्दर लेकर ऊँचे स्वर से ओङ्कार का नाद करें। इस क्रिया को 9 से 11 बार दोहराएँ।

प्रणव ध्वनि के लाभ– 1. आस्तिक भावना की दृढ़ता होती है। 2. इष्ट की स्मृति होती है। 3. तनावों से मुक्ति मिलती है। 4. रोगों का शमन होता है। 5. आनन्द की अनुभूति होती है। 6. मन की एकाग्रता बढ़ती है। 7. बुद्धि की शुद्धि होती है। 8. प्राणशक्ति प्राप्त होती है। 9. स्मरण शक्ति की वृद्धि होती है। 10. नाद से उत्पन्न प्रकपनों से भीतरी अवयवों की मालिश होकर वे स्वास्थ्य लाभ करते हैं। 11. सूक्ष्म उत्तकों तक भी रक्त का संचार सहज गति से होने लगता है।

प्रणव ध्वनि करते समय अपने अन्दर-बाहर शुक्ल वर्ण के परिचक्र की भावना करें।

  1. 10. मन की एकाग्रता को पाने के उपाय-
  2. 1. मन की स्थिरता या एकाग्रता के लिये शरीर की स्थिरता अनिवार्य है। शरीर से जैसे वस्त्र को निकाल अलग कर देते हैं, वैसे ही मन से शरीर को पृथक्देखें। शरीर के थकान रहित, शान्त, स्वस्थ होने की भावना करें।
  3. 2. फिर शरीर के नाड़ीतन्त्र पर ध्यान लगायें। सुषुम्ना के निचले छोर से लेकर ऊर्ध्वगमन करते हुए सहस्रसारचक्र तक ध्यान करें। इससे शरीर की प्राण ऊर्जा ऊर्ध्वगमन करने लगती है, जिसे कुछ लोग कुण्डलिनी जागरण का नाम देते हैं।
  4. 3. प्राणायाम मन की एकाग्रता का एक प्रधान साधन है। विधिवत् रूप से नियमित प्राणायाम का अभयास करें। इस विषय पर विस्तार से जानने के लिये हमारी ‘संध्या से समाधि’ पुस्तक पढ़ें।
  5. 4. शरीर की कोशिकाओं में होने वाले सूक्ष्म प्रकमपनों की भी अनुभूति करें। पैर से लेकर सिर तक ध्यानपूर्वकदेखेंगे तो यह प्रत्यक्ष अनुभव होने लगता है। फिर ब्रह्मरन्ध्र में ध्यान लगाने पर सारे शरीर का स्पंदन एक साथ देखा जा सकता है। इस प्रकार के अभयास से शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है।
  6. 5. इससे अगले क्रम में शरीर के अन्दर अन्तःस्रावी और बहिस्रावी ग्रंथियों का भी अवलोकन करें। इन ग्रंथियों में रसायनों का निर्माण होता है। नाड़ीतन्त्र में उन रसायनों का प्रभाव देखा जाता है। इन रसायनों के बदलने से व्यक्ति का स्वभावभी बदल जाता है। हृदयदेश में तथा आज्ञाचक्र में ध्यान केन्द्रित करने से रसायनों के स्राव बदल जाते हैं।
  7. 6. रंगों का ध्यान-मानसिक विचारों के भी अपने रंग होते हैं। जैसे सूरज की रष्मियों के सात रंग इन्द्रधनुष में देखे जाते हैं, वैसे ही मानसिक भावों के कृष्ण, नील, जामुनी, लाल, गुलाबी, शुक्ल और हरा रंग भेद होते हैं। शुभ भावों के रंग पृथक् होते हैं। अशुभ भावों के रंग पृथक्होते हैं। अपने-अपने रंगों के साथ मन के भाव व्यक्ति के समग्र व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं। उज्जवल व्यक्तित्व के निर्माण के अभिलाषी व्यक्ति को शुभ विचारों के शुक्ल रंग का ध्यान करना चाहिए। ओङ्कार के जाप के साथ भी शुक्ल रंग का ध्यान करें।
  8. 7. क्लेशों से मुक्ति-मानसिक भावों के साथ जब राग-द्वेष पैदा हो जाते हैं तो वे ही क्लेशों को जन्म देते हैं। राग-द्वेष पैदा ही न हो इसके लिये आत्मा-परमात्मा का ध्यान करें। चेतन की भावना से राग-द्वेष पैदा नहीं होते।
  9. 8. श्रद्धा- व्यक्ति को अपनी श्रद्धा के अनुसार ही फल मिलता है। ईश्वर की भक्ति श्रद्धापूर्वक ही करें। वेद शास्त्रों, ऋषिमुनियों और गुरुजनों के प्रति की गयी श्रद्धा व्यक्ति को उसके लक्ष्य तक पहुँचा देती है।
  10. आत्म-संयम- आत्मा में परमेश्वर ने अद्भुत शक्तियाँ रखी हैं, किन्तु जनसामान्य उनसे अनभिज्ञ बना रहता है। शक्तियों का जागरण योगाङ्गों के अनुष्ठान से हो जाता है। शक्ति प्राप्त करके भी साधक व्यक्ति मन की धाराओं में नहीं बहता। आत्म-संयम के द्वारा शक्तियों का सदुपयोग ही करता है। शक्तियों का सदुपयोग लक्ष्य-प्राप्ति के लिये ही होना चाहिए।
  11. आत्म-दर्शन- आत्मा ही द्रष्टा, श्रोता, वक्ता, मन्ता और सभी भावों का साक्षी होता है। जब आत्मा स्वयं को भावों से अलग देखने लगता है तो वह उस अभयास से अपने आत्म-स्वरूप में अवस्थित हो जाता है। ‘द्रष्टा शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।’आत्मा अपने स्वरूप में शुद्ध होते हुए भी बुद्धि के ज्ञान का साक्षी मात्र होता है।
  12. असमप्रज्ञात समाधि- योगाङ्गों के अनुष्ठान से जब बुद्धि में सत्त्व गुण की प्रबलता हो जाती है तो वह राग-द्वेष से ऊपर उठ कर आनन्द की अनुभूति करने लगती है। उसमें स्थैर्य उत्पन्न होता है, जो आत्मा की कैवल्य प्राप्ति में सहायक बनता है। समप्रज्ञात समाधि की अवस्था में आत्मा अपने को मन, बुद्धि, आदि से पृथक् देखने लगता है, किन्तु असमप्रज्ञात् समाधि में अपने स्वरूप को पृथक् नहीं देखता, उसे सर्वत्र एक विभु परमपिता परमेश्वर के ही दर्शन होते हैं। उस अवस्था में द्रष्टा और दृश्य का भेद भी समाप्त हो जाता है। इसी अवस्था का उल्लेख यजु. 40.7 मन्त्र कर रहा है। उस अवस्था में द्वैत कुछ देखने या सुनने के लिये शेष नहीं रह जाता। जिस स्थिति में एकमात्र ब्रह्म रह जाये वहाँ भय, शोक, मोह कैसा?
  13. मुक्तावस्था- जब मन में कोई कामना शेष नहीं रहती, तब सभी राग-द्वेष, मोह, आदि क्लेश समाप्त हो जाते हैं। अन्तःकरण में ज्ञान का प्रकाश हो जाता है। सभी विषयों से पूर्णतया वैराग्य हो जाता है, उस अवस्था में योगी पुरुष जीवन मुक्त होकर जीने लगता है। प्रारबध अभी शेष हैं, उसके अनुसार जीवन की गाड़ी चल रही होती है, किन्तु अपने जीवन से दूसरों को कोई कष्ट न हो तथा दूसरे भी अपनी साधना में बाधक न बन सकें, इसलिये योगी पुरुष घर परिवार से दूर एकान्त स्थान में जाकर रहने लगता है। प्रारबध समाप्ति पर वह आत्मा मुक्त अवस्था को प्राप्त होकर मुक्ति का आनन्द लेती है। यही योग मार्ग की अंतिम मंजिल है। – उत्तरकाशी

सन्दर्भ-1 ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं सत्यार्थ प्रकाश में मैक्समूलर से सबन्धित महर्षि के विचार

सन्दर्भ-1 ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं सत्यार्थ प्रकाश में मैक्समूलर से सबन्धित महर्षि के विचार

भाषार्थइससे जो अध्यापक विलसन साहेब और अध्यापक मोक्षमूलर साहेब आदि यूरोपखण्डवासी विद्वानों ने बात कही है कि- वेद मनुष्य के रचे हैं किन्तु श्रुति नहीं है, उनकी यह बात ठीक नहीं है। और दूसरी यह है-कोई कहता है (2400) चौबीस सौ वर्ष वेदों की उत्पत्ति को हुए, कोई (2900) उनतीस सौ वर्ष, कोई (3000) तीन हजार वर्ष और कोई कहता है (3100) इकतीस सौ वर्ष वेदों को उत्पन्न हुए बीते हैं, उनकी यह भी बात झूठी है। क्योंकि उन लोगों ने हम आर्य्य लोगों की नित्यप्रति की दिनचर्या का लेख और संकल्प पठनविद्या को भी यथावत् न सुना और न विचारा है, नहीं तो इतने ही विचार से यह भ्रम उनको नहीं होता। इससे यह जानना अवश्य चाहिए कि वेदों की उत्पत्ति परमेश्वर से ही हुई है, और जितने वर्ष अभी ऊपर गिन आये हैं उतने ही वर्ष वेदों और जगत् की उत्पत्ति में भी हो चुके हैं। इससे क्या सिद्ध हुआ कि जिन-जिन ने अपनी-अपनी देश भाषाओं में अन्यथा व्याखयान वेदों के विषय में किया है, उन-उन का भी व्याखयान मिथ्या है। क्योंकि जैसा प्रथम लिख आये हैं जब पर्यन्त हजार चतुर्युगी व्यतीत न हो चुकेंगी तक पर्यन्त ईश्वरोक्त वेद का पुस्तक, यह जगत् और हम सब मनुष्य लोग भी ईश्वर के अनुग्रह से सदा वर्त्तमान रहेंगे।

भाषार्थ इसमें विचारना चाहिये कि वेदों के अर्थ को यथावत् विना विचारे उनके अर्थ में किसी मनुष्य को हठ से साहस करना उचित नहीं, क्योंकि जो वेद सब विद्याओं से युक्त हैं, अर्थात् उनमें जितने मन्त्र और पद हैं, वे सब सपूर्ण सत्यविद्याओं के प्रकाश करनेवाले हैं। और ईश्वर ने वेदों का व्याखयान भी वेदों से कर रखा है, क्योंकि शबद धात्वर्थ के साथ योग रखते हैं। इसमें निरुक्त का भी प्रमाण है, जैसा कि यास्कमुनि ने कहा – (तत्प्रकृतीत0) इत्यादि। वेदों के व्याखयान करने के विषय में ऐसा समझना चाहिए कि जब तक सत्य प्रमाण, सुतर्क, वेदों के शबदों का पूर्वापर प्रकरणों, व्याकरण आदि वेदांगों, शतपथ आदि ब्राह्मणों, पूर्वमीमांसा आदि शास्त्रों और शास्त्रकारों का यथावत् बोध न हो, और परमेश्वर का अनुग्रह, उत्तम विद्वानों की शिक्षा, उनके संग से पक्षपात छोड़ के आत्मा की शुद्धि न हो, तथा महर्षि लोगों के किये व्याखयानों को न देखें, तब तक वेदों के अर्थ का यथावत् प्रकाश मनुष्य के हृदय में नहीं होता। इसलिये सब आर्य विद्वानों का सिद्धान्त है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से युक्त जो तर्क है, वही मनुष्यों के लिये ऋषि है।

इससे यह सिद्ध होता है कि जो सायणाचार्य और महीधरादि अल्पबुद्धि लोगों के झूठे व्याखयानों को देख के आजकल के आर्यावर्त्त और यूरोपदेश के निवासी लोग जो वेदों के ऊपर अपनी-अपनी देश-भाषाओं में व्याखयान करते हैं, वे ठीक-ठीक नहीं हैं, और उन अनर्थयुक्त व्याखयानों के मानने से मनुष्यों को अत्यन्त दुःख प्राप्त होता है। इससे बुद्धिमानों को उन व्याखयानों का प्रमाण करना योग्य नहीं। ‘तर्क’ का नाम ऋषि होने से सब आर्य लोगों का सिद्धान्त है सब कालों में अग्नि जो परमेश्वर है, वही उपासना करने के योग्य है।

भाषार्थजगत् के कारण=प्रकृति में जो प्राण हैं, उनको प्राचीन, और उसके कार्य में जो प्राण हैं, उनको नवीन कहते हैं। इसलिये सब विद्वानों को उन्हीं ऋषियों के साथ योगायास से अग्नि नामक परमेश्वर की ही स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी योग्य है। इतने से ही समझना चाहिये कि भट्ट मोक्षमूलर साहेब आदि ने इस मन्त्र का अर्थ ठीक-ठीक नहीं जाना है।

भाषार्थजैसे ‘छन्द’ और‘मन्त्र’ ये दोनों शबद एकार्थवाची अर्थात् संहिता भाग के नाम हैं, वैसे ही ‘निगम’ और ‘श्रुति’ भी वेदों के नाम हैं। भेद होने का कारण केवल अर्थ ही है। वेदों का नाम ‘छन्द’ इसलिये रखा है कि वे स्वतन्त्र प्रमाण और सत्यविद्याओं से परिपूर्ण हैं तथा उनका ‘मन्त्र’ नाम इसलिये है कि उनसे सत्यविद्याओं का ज्ञान होता है और ‘श्रुति’ इसलिये कहते हैं कि उनके पढ़ने, अभयास करने और सुनने से सब पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो उसको ‘निगम’ कहते हैं। इससे यह चारों शबद पर्याय अर्थात् एक अर्थ के वाची हैं, ऐसा ही जानना चाहिये।

भाषार्थ वैसे ही अष्टाध्यायी व्याकरण में भी छन्द, मन्त्र और निगम ये तीनों नाम वेदों के ही हैं। इसलिये जो लोग इनमें भेद मानते हैं उनका वचन प्रमाण करने के योग्य नहीं।

प्रश्न प्रथम इस देश का नाम क्या था और इसमें कौन बसते थे?

उत्तरइसके पूर्व इस देश का नाम कोई भी नहीं था और न कोई आर्य्यों के पूर्व इस देश में बसते थे। क्योंकि आर्य्य लोग सृष्टि की आदि में कुछ काल के पश्चात् तिबबत से सूधे इसी देश में आकर बसे थे।

प्रश्न कोई कहते हैं कि ये लोग ईरान से आये। इसी से इन लोगों का नाम ‘आर्य’ हुआ है। इनके पूर्व यहाँ जंगली लोग बसते थे कि जिनको ‘असुर’ और ‘राक्षस’ कहते थे। आर्य लोग अपने को देवता बतलाते थे और उनका जब संग्राम हुआ, उसका नाम ‘देवासुरसंग्राम’ कथाओं में ठहराया।

उत्तर यह बात सर्वथा झूठ है। क्योंकि- वि जानीह्यार्यान् ये च दस्यवो बर्हिष्मते रन्धया शासदव्रतान।। ऋ0 म0 1। सू051। मं08।।

उत शूद्र उतार्ये।।

-यह भी अथर्ववेद कां0 19। सू062। मं01 का प्रमाण है।। हम लिख चुके हैं कि ‘आर्य’ नाम धार्मिक, विद्वान्, आप्त पुरुषों का और इनसे विपरीत जनों का नाम ‘दस्यु’ अर्थात् डाकू, दुष्ट, अधार्मिक और अविद्वान् है। तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, द्विजों का नाम ‘आर्य’ और शूद्र का नाम ‘अनार्य्य’ अर्थात् ‘अनाड़ी’ है। जब वेद यह कहता है तो दूसरे विदेशियों के कपोलकल्पित को बुद्धिमान् लोग कभी नहीं मान सकते। और देवासुर-संग्राम में आर्य्यावर्त्तीय अर्जुन तथा महाराजे दशरथ आदि जो कि हिमालय पहाड़ में आर्य विद्वान् और दस्यु, लेच्छ असुरों का जो युद्ध हुआ था, उसमें ‘देव’ अर्थात् आर्य्यों की रक्षा और असुरों के पराजय करने को सहायक हुए थे। इससे यही सिद्ध होता है कि आर्य्यावर्त्त (के) बाहर चारों ओर जो हिमालय के पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैर्ऋत, पश्चिम, वायव्य, उत्तर, ईशान देश में मनुष्य रहते हैं उन्हीं का नाम ‘असुर’ सिद्ध होता है। क्योंकि जब-जब हिमालय-प्रदेशस्थ आर्य्यों पर लड़ने को चढ़ाई करते थे, तब-तब यहाँ के राज महाराजे लोग उन्हीं उत्तर आदि देशों में आर्य्यों के सहायक होते थे। और जो श्रीरामचन्द्रजी से दक्षिण में युद्ध हुआ है, उसका नाम ‘देवासुर संग्राम’ नहीं है, किन्तु राम-रावण अथवा आर्य्य और राक्षसों का संग्राम कहते हैं। किसी संस्कृत ग्रन्थ वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य्य लोग ईरान से आये और यहाँ के जङ्गलियों को लड़ कर , जय पाके, निकाल के, इस देश के राजा हुए, पुनः विदेशियों का लेख माननीय कैसे हो सकता है? और

आर्यावाचो लेच्छवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः।।1।।                         – मनु0 (तु0-10। 45)।।

लेच्छदेशस्त्वतः परः।।2।।  मनु0(2। 23)

जो आर्यावर्त्त देश से भिन्न देश हैं, वे ‘दस्युदेश’ और ‘लेच्छदेश’ कहाते हैं। इससे भी यह सिद्ध होता है कि  आर्य्यावर्त्त से भिन्न पूर्व देश से लेकर ईशान, उत्तर, वायव्य और पश्चिम देशों में रहने वालों का नाम ‘दस्यु’ और ‘लेच्छ’ तथा ‘असुर’ है।  और नैर्ऋत, दक्षिण तथा आग्न्रेय दिशाओं में आर्य्यावर्त्त देश से भिन्न रहने वाले मनुष्यों का नाम ‘राक्षस’ है।

और जितनी विद्या भूगोल में फैली है, वह सब आर्य्यावर्त्त देश से मिश्रवालों, उनसे यूनानी, उनसे रोम और उनसे यूरोप देश में, उनसे अमेरिका आदि देशों में फैली है। अब तक जितना प्रचार संस्कृत विद्या का आर्य्यावर्त्त देश में है उतना किसी अन्य देश में नहीं। जो लोग कहते हैं कि जर्मनदेश में संस्कृत विद्या का बहुत प्रचार है और जितना संस्कृत मोक्षमूलर साहब पढ़े हैं उतना कोई नहीं पढ़ा, यह बात कहने मात्र है। क्योंकि ‘यस्मिन्देशे द्रुमो नास्ति तत्रैरण्डोऽपि द्रुमायते’ अर्थात् जिस देश में कोई वृक्ष नहीं होता, उस देश में एरण्ड ही को बड़ा वृक्ष मान लेते हैं। वैसे ही यूरोप देश में संस्कृत विद्या का प्रचार न होने से जर्मन लोगों  और मोक्षमूलर साहब ने थोड़ा सा पढ़ा, वही उस देश के लिए अधिक है। परन्तु आर्य्यावर्त्त देश की ओर देखें, तो उनकी बहुत न्यून गणना है। क्योंकि मैंने जर्मन देशनिवासी के-एक ‘प्रिन्सिपल’ के पत्र से जाना कि जर्मन देश में संस्कृत-चिट्ठी का अर्थ करनेवाले भी बहुत कम हैं। और मोक्षमूलर साहेब के संस्क़ृत-साहित्य और थोड़ी-सी वेद की व्याखया देखकर मुझको विदित होता है कि मोक्षमूलर साहब ने इधर-उधर आर्य्यावर्त्तीय लोगों की की हुई टीका देखकर कुछ-कुछ यथा-तथा लिखा है। जैसा कि-

‘युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः।

रोचन्ते रोचना दिवि।।

इस मन्त्र का अर्थ ‘घोड़ा’ किया है। इससे तो जो सायणाचार्य ने ‘सूर्य्य’ अर्थ किया है सो अच्छा है। परन्तु इसका ठीक अर्थ ‘परमात्मा’ है, सो मेरी बनाई ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ में देख लीजिये। उसमें इस मन्त्र का अर्थ यथार्थ किया है। इतने से जान लीजिये कि जर्मन देश और मोक्षमूलर साहब में संस्कृत-विद्या का कितना पाण्डित्य है।

यह निश्चय है कि जितनी विद्या और मत भूगोल में फैले हैं, वे सब आर्य्यावर्त्त देश ही से प्रचरित हुए हैं। देखो! एक जैकालियट साहब पैरस अर्थात् फ्रांस देश निवासी अपनी ‘बायबिल इन इण्डिया’ में लिखते हैं कि-‘‘सब विद्या और भलाइयों का भण्डार आर्य्यावर्त्त देश है सब विद्या और मत इसी देश से फैले हैं’’ और परमात्मा की प्रार्थना करते हैं कि ‘‘हे परमेश्वर! जैसी उन्नति आर्य्यावर्त्त देश की पूर्व काल में थी, वैसी ही हमारे देश की कीजिये’’, सो उस ग्रन्थ में देख लो। तथा  ‘दाराशिकोह’ बादशाह ने भी यही निश्चय किया था कि जैसी पूरी विद्या संस्कृत में है, वैसी किसी भाषा में नहीं। वे ऐसा उपनिषदों के भाषान्तर में लिखते हैं कि -‘‘मैंने अरबी आदि बहुत सी भाषा पढ़ीं, परन्तु मेरे मन का सन्देह छूट कर आनन्द न हुआ। जब संस्कृत देखा और सुना तब निःसन्देह होकर मुझको बड़ा आनन्द हुआ है’’ देखो, काशी के ‘मानमन्दिर’ में शशिमालचक्र को कि जिसकी पूरी रक्षा भी नहीं रही है, तो भी कितना उत्तम है कि जिसमें अब तक भी खगोल का बहुत सा वृत्तान्त विदित होता है। जो ‘सवाई जयपुराधीश’ उसकी सम्भाल और फूटे-टूटे को  बनवाया करेंगे  तो बहुत अच्छा होगा। परन्तु ऐसे शिरोमणि देश को महाभारत युद्ध ने ऐसा धक्का दिया कि अब तक भी यह अपनी पूर्व दशा में नहीं आया। क्योंकि जब भाई को भाई मारने लगे तो नाश होने में क्या सन्देह?

विनाशकाले विपरीतबुद्धिः।। चाणक्यनीतिदर्पण अ0 16। श्लो0 5 ।।

 

 

वैदिक साहित्य और संस्कृति पर मैकाले और मैक्समूलर से भी घातक आक्रमण

वैदिक साहित्य और संस्कृति पर

मैकाले और मैक्समूलर से भी घातक आक्रमण

आज के इस सन्दर्भ में आर्य समाज को एक दुरभाग्यशाली संस्था कहा जायेगा, जिसके संस्थापक ने इसको आज विश्व में निर्णायक भूमिका निभाने का सामर्थ्य दिया था। आज वह घटनाक्रम में पटल से भी ओझल है। अंग्रेजों ने मैक्समूलर के माध्यम से इस देश की भाषा संस्कृत और संस्कृति का भरपूर नाश किया। बहुत अंशों में इस प्रयास को सफल कहा जायेगा, परन्तु ऋषि दयानन्द ने उसकी योग्यता पर टिप्पणी करते हुए कहा था- यस्मिन् देशे द्रुमो नास्ति तत्रैरण्डोऽपि द्रुमायते। जिस देश में पेड़ नहीं होते, वहाँ लोग एरण्ड को ही पेड़ समझते हैं। ऋषि ने मैक्समूलर की सभी वेद-विरोधी  धारणाओं का खण्डन करते हुए, उनकी विद्वत्ता पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिया था। श्याम जी कृष्ण वर्मा के माध्यम से उन्होंने कहलवाया था- मैक्समूलर जैसे विद्वान् भारत की गली-गली में मिल जाते हैं। ऋषि के समय तक यह सच भी था, परन्तु आज मैकाले और मैक्समूलर की योजना के परिणामस्वरूप इस देश में संस्कृत के विद्वान् खोजने पर भी नहीं मिल पाते। यहाँ के लोगों की दृष्टि में आज पाश्चात्य लोग ही संस्कृत के प्रामाणिक भाष्यकार बन बैठे हैं। ऋषि दयानन्द ने आर्य समाज को वेदाध्ययन की जो दृष्टि दी थी, उसने उस वेदाध्ययन और संस्कृत के पठन-पाठन को स्वयं से दूर कर लिया और टाई लगाकर अंग्रेजी बोलने को ही जीवन का परम लक्ष्य बना लिया तो आज उसके पास क्या सामर्थ्य है कि वह वेद और संस्कृत के विषय में अपना कोई पक्ष रख सके?

वर्तमान घटनाक्रम में 2 मार्च के वाशिंगटन पोस्ट में समाचार प्रकाशित हुआ- हारवर्ड विश्वविद्यालय की प्राचीन संस्कृत साहित्य के अंग्रेजी अनुवाद की कार्य योजना पर दक्षिण पन्थी हिन्दुओं का आक्रोश। इस समाचार में घटना और उसकी प्रतिक्रिया की चर्चा की गई है। इस समाचार को समझने के लिए हमें इसकी पृष्ठभूमि में जाना होगा। सन् 1832 में लैटिनेंट कर्नल जोसेफ बोडेन ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत की चेयर स्थापित की थी, जिसमें मैक्समूलर को संस्कृत ग्रन्थों-विशेषतः वेदों के अनुवाद का काम सौंपा गया था। उनका उद्देश्य मात्र वैदिक साहित्य एवं संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करना था। विशेष रूप से हिन्दुओं की आस्था को समाप्त करने के लिये वेदों के गलत व्याखयान करना था। इसी तरह अब सन् 2010 में इन्फोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने 5.2 मिलयन डॉलर से ‘मूर्ति क्लासिकल लाईब्रेरी ऑफ इण्डिया’ नाम से एक निधि स्थापित की है, जिसके माध्यम से प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों का प्रामाणिक रूप से अंग्रेजी अनुवाद कराके यह प्रकाशित किया जायेगा। इस क्रम में अबतक ग्रन्थमाला के नौ भाग प्रकाशित किये जा चुके हैं तथा चार

भाग प्रकाशन के लिये तैयार हैं। इस कार्य में अनेक विदेशी विद्वान् लगे हुए हैं। इस कार्य में लगे हुए विद्वानों के मुखिया हैं कोलबिया विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्या विद्वान् शेल्डन पोलक। पोलक को इस कार्य का निर्देशन करने में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है- इसको बात को जानने के लिये पोलक के विचार, कार्य शैली और उनके सबन्धों की पहचान करनी होगी। पोलक के चरित्र को समझने के जिन घटनाओं में उसकी भागीदारी है, उनको देखने से पोलक का चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 2005 में लोरिडा में अमेरिकन होटल के मालिकों द्वारा ने तत्कालीन गुजरात के मुखयमन्त्री नरेन्द्र मोदी को बुलाये जाने पर उस निमन्त्रण को रद्द कराने वाले लोगों में श्रीमान् पोलक ही आगे थे। 2005 में ही केलिफोर्निया विश्वविद्यालय में होने वाले कार्यक्रम का विरोध करते हुए कहा गया था- हमें यह जानकर बहुत दुःख है कि 22 मार्च को समपन्न हो रहे भारतीय विद्याओं के अध्ययन हेतु यदुनन्दन अध्ययन केन्द्र के उद्घाटन हेतु नरेन्द्र मोदी, गुजरात के मुखयमन्त्री को आमन्त्रित किया गया है। हमारी दृढ़तापूर्वक प्रार्थना है कि इस आमन्त्रण को वापस ले लिया जाये। इस माँग को करने वालों में भी पोलक का नाम प्रमुख है। फिर 2009 में मेक आर्थर फाउण्डेशन द्वारा बुलाये जाने पर कहा गया- एशियाई प्रमुख व्यक्तित्व के रूप में इस अवसर पर गुजरात के मुखयमन्त्री नरेन्द्र मोदी को सममानित करना उचित एवं पात्र व्यक्तियों को अपमानित करने जैसा होगा। इस प्रार्थना के करने वालों में पोलक अग्रणी थे। 2015 में जब मोदी प्रधानमन्त्री बन गये तो एक पत्र भारत सरकार को लिखा गया- हम विद्वान् शोधकर्त्ता और शोध छात्रों का भारत सरकार से आग्रह है कि 1,50,000 (एक लाख पचास हजार) पृष्ठ की गाँधी हत्याकाण्ड से जुड़ी सामग्री की सुरक्षा के विषय में भारत सरकार अपना पक्ष तत्काल स्पष्ट करे। इसमें भी हस्ताक्षरकर्त्तों में पोलक को चिन्ता करते हुए देखा जा सकता है।

वाशिंगटन पोस्ट के 2 मार्च के समाचार पत्र में लिखा गया है कि- पोलक का सामयवादियों से समबन्ध है। वामपन्थी लेखकों के साथ पोलक के विचार भारतीय सभयता और संस्कृति के समबन्ध में सममानजनक नहीं है। समाचार पत्र लिखता है- पोलक उन लोगों में सममिलित है जो लोग जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के राष्ट्रद्रोही गतिविधियों का अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर समर्थन करते हैं। इस प्रकार पोलक देश की एकता, अखण्डता का सममान नहीं करता है।

इस बात से समझा जा सकता है कि शेल्डन पोलक  की विचारधारा क्या है और उसके द्वारा किये जाने वाले कार्य का उद्देश्य क्या है तथा उसका दूरगामी प्रभाव क्या होगा? इस कार्य का पहला उद्देश्य वही है, जिसको मैकाले की प्रेरणा से मैक्समूलर ने पूरा किया था। इस कार्य से दो परिणाम निकले- शिक्षा के माध्यम और शिक्षा पद्धति के परिवर्तित होने से इस देश के लोग संस्कृत के पठन-पाठन से विमुख हो गये और अंग्रेजी अनुवाद को पढ़कर संस्कृत विद्वान् बन गये तथा उसे ही ठीक मानने लगे जो अंग्रेजी में लिखा गया है। मूल ग्रन्थ की भाषा के अभाव में ग्रन्थ को पढ़ना ही नहीं आता था तो उसे समझने का प्रश्न ही कहाँ उठता है? मैक्समूलर के इसी साहित्य से इस देश के विद्वानों ने जाना कि वेद गड़रियों के गीत हैं। अंग्रेजों ने भारत के विषय में जितना अध्ययन किया, उसमें परिश्रम बहुत है, ईमानदारी बिल्कुल नहीं है। उनसे इसकी आशा करना हमारी मूर्खता होगी। इस देश पर अंग्रेजों का शासन था, हम उनके दास थे, यह कैसे समभव है कि कोई स्वामी अपने दास को अपने से श्रेष्ठ माने? उसे तो यहाँ की जनता पर शासन करना है तो वह आपके अच्छे को भी बुरा कहने का अधिकार रखता है। हमने स्वयं भूल की है कि अंग्रेज को अपना आदर्श बनाया और जैसा वह चाहता था, स्वतन्त्रता के बाद भी वही किया, जो अंग्रेजों के समय इस देश में हो रहा था। उसमें गति और विस्तार तो आया, परन्तु परिवर्तन किञ्चित् मात्र भी नहीं आया। आज परिणाम हमारे सामने है।

अंग्रेजों ने हमारे इतिहास, साहित्य और संस्कृति से बलात्कार किया है, सामान्य व्यक्ति उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। शोध के नाम पर उसने इतिहास संस्कृति के लिये, जो अध्ययन का प्रकार अपनाया और यहाँ की प्रचलित परमपरा को रद्दी की टोकरी में डाल दिया। मैक्समूलर के शोध ने इस देश के निवासियों को यहाँ का मानने से ही इन्कार कर दिया। उसने आर्य द्रविड़ के काल्पनिक सिद्धान्त को हमारे ऊपर थोपा और अपनी सत्ता व पैसे के बल पर हमें ही इस देश में विदेशी और पराया घोषित कर दिया। आजतक भी इस सिद्धान्त को प्रमाणित नहीं किया जा सका, परन्तु किसी को कहने से कौन रोक सकता है? पैसा साधन मिल जाये तो प्रचार करने में क्या बाधा है। उससे भी बड़ी बात सत्ता में बैठे लोगों को ही इस विचार के लिये सहमत कर लिया जाये तो यह विचार शासन का विचार बन जाता है, जिसका परिणाम आज हमारे सामने है। आज जब सारे संसार में विभिन्न भाषाओं की पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है, ऐसी परिस्थिति में विश्व पुस्तक मेले में एक भी संस्कृत साहित्य के पुस्तक विक्रेता का नहीं आना, संस्कृत पाठक के अभाव को दर्शाता है।

अंग्रेजों का अन्य षड़यन्त्र है- संस्कृत भाषा को मृत भाषा घोषित करना। यह कार्य बहुत सरलता से हो गया, जब सरकार ने संस्कृत को पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया। इस देश में शासन की भाषा, संसद की भाषा, न्यायालय की भाषा, शिक्षा की भाषा, प्रशासन और व्यवहार की भाषा जब अंग्रेजी बना दी गई तो संस्कृत-हिन्दी किस खेत की मूली हैं? थोड़े से पुराने लोग जो अंग्रेजी नहीं जानते, जब तक वे जीवित हैं, हिन्दी बोलते देखे जा सकते हैं। जैसे ही अगले दस-पन्द्रह वर्ष में ये लोग मर जायेंगे, अगली आने वाली पीढ़ी गर्व से कहेगी, हमें हिन्दी नहीं आती।

अंग्रेजों ने संस्कृत को पढ़ने और उसकी व्याया करने के लिये अपने ही आधार बनाये हैं। संस्कृत में जो ग्रन्थ लिखा गया है, लेखक को उसके लिखने का क्या प्रयोजन है, इसका निर्णय भी अंग्रेज ने अपने हाथ में रखा है। पुस्तक में विचारों के श्रेष्ठता निमनता का निर्णय भी अंग्रेज उस पुस्तक को पढ़कर बतायेगा। विड़मबना यह है कि इस पुस्तक का लेखक इस देश है, भाषा इस देश की है, परमपरा इस देश की है, परन्तु इस सब को तिरस्कृत करके निर्णय का आधार स्वयं अंग्रेज का अपना बनाया हुआ है वह परमपरा से प्रचलित आधार को वह स्वीकार नहीं करता। इस प्रकार कालक्रम के निर्णय में कौन-सा ग्रन्थ कब लिखा गया, यह भी वह जो कहेगा, वही माना जायेगा। कितना अच्छा न्याय है! अंग्रेज हमें बता रहा कि ऋग्वेद पहले बना या अथर्ववेद ? इसका आधार क्या है, इसका निर्णया भी वही करेगा। क्या यह बन्दर बिल्ली का न्याय नहीं है! बिल्लियों के झगड़े में न्याय तो बन्दर का ही माना जायेगा। इस पद्धति से अंग्रेज ने अपना प्रयोजन पूर्ण सिद्ध किया है।

शेल्डन पोलक की मान्यता है संस्कृत एक मृत भाषा है और संस्कृति तो इस देश में कोई थी ही नहीं, जब भाषा नहीं तो विचार कहाँ से आयेंगे? अंग्रेज की संस्कृत सेवा का प्रयोजन पहले भी वही था जिसे मैकाले-मैक्समूलर ने स्थापित किया था। दुर्भाग्य तो यही है कि वही कार्य पहले बोडेन के धन से हुआ था, आज वह वह एक भारतीय नारायण मूर्त्ति के धन से हो रहा है। इस देशवासियों के लिये इससे अधिक गर्व की और क्या बात होगी!

शेल्डन पोलक के इस अनुवाद के पीछे एक ओर षड्यन्त्र है, संस्कृत ग्रन्थों का अंग्रेजी में ऐसा अनुवाद करना, जो उनके विचार से मेल खाता हो। इस अनुवाद के करने से लोगों को संस्कृत पढ़ने की आवश्यकता ही अनुभव न हो, जैसा आज मैक्समूलर का अनुवाद पढ़ कर हम वेद समझते हैं वैसे ही पोलक का वेद-अनुवाद हमारे लिये वेद से अधिक प्रामाणिक प्रतीत होगा। इस कार्य का परिणाम होगा- शोध, अनुसन्धान, संस्कृति एवं इतिहास को जानने की भाषा संस्कृत नहीं रहेगी, उसे वह सममान नहीं मिल पायेगा, जो अंग्रेजी को मिल रहा है और अंग्रेजी का ही सममान इस देश में बढ़ जायेगा। शेल्डन पोलक की मान्यता है कि संस्कृत में तब तक शोध नहीं हो सकता, जब तक संस्कृत का विद्वान् बढ़िया अंग्रेजी नहीं जानता। जब अंग्रेजी के बिना शोध नहीं हो सकेगा, तो संस्कृत पढ़ने की आवश्यकता ही क्या रहेगी? संस्कृत का प्रामाणिक अनुवाद शेल्डन पोलक आपकी सेवा के लिये ही तो कर रहा है। इस प्रकार संस्कृता भाषा शोध एवं अनुसन्धान की धारा से अपने-आप ही बाहर हो जायेगी।

अंग्रेज लेखक चाहे मैक्समूलर हो या पोलक, सभी संस्कृत पढ़कर यह स्थापित करना चाहते हैं कि संस्कृत तथा कथित कुलीन, दरबारी लोगों की भाषा है। राजे-रजवाड़ों को प्रसन्न करने के लिये संस्कृत में ग्रन्थों की रचना की गई। इसमें महिलाओं और दलितों का अपमान ही किया गया, उनको समान के योग्य भी नहीं माना गया, अधिकार देना तो बहुत दूर की बात है।

शेल्डन पोलक की मान्यता है कि हिन्दू और हिन्दुत्व को इस देश के लोगों में भय उत्पन्न करने के लिये उपयोग में लाया जा रहा है। पोलक का उद्देश्य ईसाई, मुसलमान, दलित को हिन्दुत्व से अलग करके प्रस्तुत करना है। हिन्दुत्व को अल्पसंखयक और दलितों को दबाने वाला समुदाय बताया जाता है। शेल्डन पोलक के मत में हिन्दुत्व की बात करना संकीर्ण मानसिकता का द्योतक है, वही बात ईसाई, मुसलमान करें तो यह उदारता का परिचायक है। राष्ट्र की एकता देशभक्ति की बात करना संकीर्णता है, देशद्रोह की घोषणा करना, विचारों की अभिव्यक्ति और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का परिचायक है। हिन्दू और इनकी भाषा का इस देश की अन्य भाषाओं और लोगों से कोई सबन्ध नहीं है और हिन्दुत्व की विचारधारा देश की बहुसंखयक विचारधारा से अलग है, यह भी उसकी मान्यता है।

शेल्डन पोलक के अनुसन्धान से आप गद्गद् हो जायेंगे। उसकी स्थापना है कि वेद बुद्ध के बाद की रचना है। मीमांसा जैसे दार्शनिक विचार बुद्ध के बाद ही संस्कृत में लिये गये हैं। रामायण का लेखन भी बुद्ध के बाद हुआ है। रामायण-महाभारत कोई इतिहास नहीं हैं, ये तो मनोरंजन के लिये लिखे गये काल्पनिक काव्य हैं। इनमें दलितों और महिलाओं के उत्पीड़न के अतिरिक्त कोई आदर्श बात नहीं है। पोलक को सबसे पीड़ा देने वाली बात लगती है, संस्कृत साहित्य में आदर्श और अध्यात्म की बात करना। उसके विचार से वेद, वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत और बाद के साहित्य का अध्यात्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है। ये सब काल्पनिक बातें हैं। ये ग्रन्थ धर्म निरपेक्षता, व्यक्तिगत विचार स्वातन्त्र्य से कोई समबन्ध नहीं रखते हैं।

इन्हीं सब बातों से कुछ भारतीय विद्वानों ने इस संस्था और उसके संचालकों के विरुद्ध वाद दायर किया है, जिसमें शेल्डन पोलक को हटाने और भारत से समबद्ध कार्य को भारत से बाहर न किया जाकर, भारत में ही करने की माँग की गई है। इस विषय में विस्तार से जानकारी के लिये राजीव मल्होत्रा की पुस्तक ‘द बैटल फॉर संस्कृत’ पढ़ें, दिल्ली में सुलभ है।

इस परिस्थिति में भारतीय संस्कृति, साहित्य और इतिहास अंग्रेज तो नष्ट करेगा ही, परमपरावादी भी उसे रुढ़ि और अन्धविश्वास से बाहर नहीं निकलने देंगे। तब कौन वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति को बचाने का बीड़ा उठायेगा? आज फिर यह पंक्ति उत्तर माँग रही है-

किं करोमि क्व गच्छामि, को वेदानुद्धरिष्यति।।

– धर्मवीर

क्या ईश्वर के दर्शन होते हैं?: अभिषेक कुमार

प्रश्न: क्या ईश्वर के दर्शन होते हैं?

उत्तर : अवश्य होते हैं पर वैसे नहीं जैसे आप इस समय सोच रहे हैं!

* ईश्वर स्वभाव से चेतन है और चेतन तत्त्व निराकार होता है इसलिए ईश्वर का दीदार, देखना या दर्शन करने का तात्पर्य होता है – उसकी सत्ता का ज्ञान होना, उसकी अनुभूति (feeling) होना! इसी feeling को दार्शनिक भाषा में ‘ईश्वर साक्षात्कार’ कहते हैं।

* “दृश्यन्ते ज्ञायन्ते याथातथ्यत आत्मपरमात्मनो बुद्धिन्द्रियादयोतिन्द्रियाः सूक्ष्मविषया येन तद दर्शनम् “||
अर्थात् जिससे आत्मा, परमात्मा, मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदि सूक्ष्म विषयों का प्रत्यक्ष = ज्ञान होता है, उसको दर्शन कहते हैं। इसलिए कहते हैं कि ईश्वर को देखने के लिए ज्ञान-चक्षुओं की आवश्यकता होती है, चरम-चक्षुओं (भौतिक नेत्रों) की नहीं!।

* पदार्थ दो प्रकार के होते हैं – 1) जड़ और 2) चेतन। जड़ वास्तु ज्ञानरहित होती है और चेतन में ज्ञान होता है। प्रकृति तथा उससे बनी सृष्टि की प्रत्येक वास्तु जड़ होती है। परमात्मा और आत्मा दोनों चेतन हैं।

* चेतन (आत्मा) को ही चेतन (परमात्मा) की अनुभूति होती है। चेतनता अर्थात् ज्ञान।

* हमारे नेत्र जड़ होते है, देखने के साधन हैं और जो उनके द्वारा वस्तुओं को देखता है वह चेतन (जीवात्मा) होता है। जह वस्तुचेतन को नहीं देख सकती क्योंकि उसमें ज्ञान नहीं होता पर चेतन वास्तु (आत्मा और परमात्मा) जड़ और चेतन दोनों को देख सकती है।

* अतः ईश्वर का साक्षात्कार आत्मा ही कर सकता है शर्त यह है कि आत्मा और परमात्मा के बीच किसी भी प्रकार का मल, आवरण या विक्षेप न हो अर्थात् वह शुद्ध, पवित्र और निर्मल हो अर्थात् वह सुपात्र हो।

* ईश्वर की कृपा का पात्र (सुपात्र) बनाने के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने अमूल्य जीवान को वैदिक नियमों तथा आज्ञाओं के अनुसार बनाए, नियमित योगाभ्यास करे और अष्टांग योग के अनुसार समध्यावस्था को प्राप्त करे। समाध्यावास्था में ही ईश्वर के साक्षात्कार हो सकते हैं, अन्य कोई मार्ग नहीं है।

* इस स्थिति तक पहुँचने के लिए साधक को चाहिए कि वह सत्य का पालन करे और किसी भी परिस्थिति में असत्य का साथ न दे। जब तक जीवन में सत्य का आचरण नहीं होगा ईश्वर की प्राप्ति या उसके आनन्द का अनुभव (feeling) नामुमकिन है जिस की सब को सदा से तलाश रहती है।

See translation:-

योग के सन्दर्भ में, स्वस्थ जीवन, आध्यात्मिक ज्ञान, तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिये आवश्यक यम- नियम:–
The 5 (यम)Yamas listed by Patañjali in Yogasūtra are:
Ahiṃsā (अहिंसा): Nonviolence, non-harming other living beings.
Satya (सत्य): truthfulness, non-falsehood.
Asteya (अस्तेय): non-stealing.
Brahmacharya (ब्रह्मचर्य): chastity, marital fidelity or sexual restraint.
Aparigraha (अपरिग्रहः): non-avarice, non-possessiveness.

The 10 (यम) Yamas listed in Śāṇḍilya Upanishad, are:
Ahiṃsā (अहिंसा): Nonviolence.
Satya (सत्य): truthfulness.
Asteya (अस्तेय): not stealing.
Brahmacharya (ब्रह्मचर्य): chastity, marital fidelity or sexual restraint.
Kṣamā (क्षमा): forgiveness.
Dhṛti (धृति): fortitude.
Dayā (दया): compassion.
Ārjava (आर्जव): non-hypocrisy, sincerity.
Mitāhāra (मितहार): measured diet.
Sauch (शौच): purity, cleanliness.

The 5 (नियम) Niyamas listed by Patañjali in Yogasūtra are:
Śaucha(शौच): purity, clearness of mind, speech and body.
Santoṣha(सन्तोष): contentment, acceptance of others and of one’s circumstances as they are, optimism for self.
Tapas(तपस): accepting and not causing pain.
Svādhyāya(स्वाध्याय): study of self, self-reflection, introspection of self’s thoughts, speeches and actions.
Īśvarapraṇidhāna(ईश्वरप्रणिधान): contemplation of the Ishvara (God/Supreme Being, True Self, Unchanging Reality).

The 10 (नियम) Niyamas listed in Śāṇḍilya Upanishad/Varuha Upanishad/ Hatha Yoga Pradipika are:
Tapas(तपस): persistence, perseverance in one’s purpose, austerity.
Santoṣa(सन्तोष): contentment, acceptance of others and of one’s circumstances as they are, optimism for self
Āstika(आस्तिक्य): faith in Real Self (jnana yoga, raja yoga), belief in God (bhakti yoga), conviction in Vedas/Upanishads (orthodox school).
Dāna(दान): generosity, charity, sharing with others.
Īśvarapūjana(ईश्वरपूजन): worship of the Ishvara (God/Supreme Being, Brahman, True Self, Unchanging Reality).
Siddhānta vakya śrāvaṇa(सिद्धान्तवाक्यश्रवण): listening to the ancient scriptures.
Hrī(हृ): remorse and acceptance of one’s past, modesty, humility.
Mati(मति): think and reflect to understand, reconcile conflicting ideas.
Japa(जाप): mantra repetition, reciting prayers or knowledge.
Huta(हुत): rituals, ceremonies such as yajna sacrifice.

[REGVEDA–1-164-44–N —1-164-1–N 10-5-7–N 164-22 N 10-177-1 N 10-177-2 N ATHARWAVED KA PARMAN –10-8-17 AND 1-164-20 YA]

धन्यवाद।

आर्य समाज द्वारा वैदिक धर्म के उत्थान के लिए।

 

Author can be reached at

अथर्ववेद मे यथार्थ स्वर्ग का वर्णन’

ओ३म्

अथर्ववेद मे यथार्थ स्वर्ग का वर्णन

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

अथर्ववेद के मन्त्र 6/120/3 में यथार्थ स्वर्ग का वर्णन हुआ है। लोगों ने पुराणों के आधार पर मिथ्या स्वर्ग की कल्पना कर रखी है और उसी को मानते हैं। वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि पुराण वर्णित स्वर्ग संसार व ब्रह्माण्ड में कहीं नहीं है। हम एकमात्र यथार्थ वैदिक स्वर्ग पर पहले आर्यजगत के एक महान संन्यासी स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का संक्षिप्त वेदव्याख्यान दे रहे हैं। इसके बाद वेदमन्त्र व उसके पदों वा शब्दों का अर्थ भी प्रस्तुत है।

 

यथार्थ स्वर्ग का व्याख्यान

 

स्वर्ग किसी देशविशेष (स्थान विशेष) या लोकविशेष का नाम नहीं है, वरन् उस अवस्था को स्वर्ग कहते हैं, जिस अवस्था मे मनुष्य को शारीरिक, आत्मिक, पारिवारिक आदि सब प्रकार के सुख प्राप्त हैं, जिस अवस्था में मनुष्य को कोई शारीरिक क्लेश, मानसिक पीड़ा नहीं सताती, मातापिता तथा सन्तान का सुख प्राप्त हो, शरीर सुन्दर तथा सुडौल हो, कोई त्रुटि हो, इसकी प्राप्ति का साधन सद्विचार तथा उत्तम सदाचार है। दूसरे शब्दों में रोग, दुःख, अंगभंग, कुरूप शरीर आदि पापों का फल है। संक्षेप मेंसुखविशेष भोग तथा उसकी सामग्री का नाम स्वर्ग है। (यह स्वर्ग मनुष्य के अपने भीतर, अपने निवास, परिवार, समाज देश में ही होता है माना जा सकता है। वाल्मिीकी रामायण में भी मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम लक्ष्मण जी से कहते हैं किजननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। पूरे श्लोक का भाव है कि मैं जानता हूं कि लंका सोने की है परन्तु फिर भी मुझे यह अच्छी नहीं लगती। क्योंकि अपनी माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं। यह इसलिए कि जो सुख विशेष अपनी माता और अपनी जन्म देश भूमि में मनुष्य को प्राप्त होता हो सकता है, वह अन्यत्र नहीं मिल सकता।लेखक)

 

अथर्ववेद का मन्त्र संख्या 6/120/3

 

यात्रा सुहार्दः सुकृतो मदन्ति विहाय रोगं तन्वः स्वायाः।

अश्लोणा अंगैरह्रुताः स्वर्गे तत्र पश्येम पितरौ पुत्रान्।।

 

मन्त्र का पद वा शब्दार्थ

 

यत्र=जिस अवस्था में सुहार्दः=उत्तम हृदयवाले अपने तन्वः=शरीर के रोगम्=रोग को विहाय=छोड़कर, अर्थात् पूर्णतया नीरोग होकर अंगैः अश्लोणाः=अंग-भंगरहित, अर्थात् पूर्णांगवयवयुक्त शरीरवाले तथा अह्रुताः=शरीर, आत्मा तथा मन की कुटिलता से विरहित हुए मदन्ति=सुखी रहते हैं तत्र स्वर्गे=उस स्वर्ग में हम पितरौ=माता-पिता च=और पुत्रान्=पुत्रों-सन्तान को पश्येम=देखें, अर्थात् हमारे माता-पिता तथा सन्तान सदा सुखी रहे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

 

‘वैदिक प्राचीन पर्व नव संवत्सर’

ओ३म्

वैदिक प्राचीन पर्व नव संवत्सर

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य के जीवन में पर्वों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वर्ष या संवत्सर के रूप में पर्व को इस रूप में जान सकते हैं कि एक वर्ष की समाप्ती व उसके अगले दिन से दूसरे वर्ष का आरम्भ। मनुष्य जीवन में एक शिशु के रूप में जन्म लेता है और समय के साथ शिशु की अवस्था समाप्त होकर बाल व किशोरावस्था आ जाती है। इसके बाद युवावस्था, फिर प्रौढ़ावस्था और अन्त में वृद्धावस्था आती है। यह जीवन की विभिन्न अवस्थाओं का आना व पिछली का पूरा होना एक प्रकार का पर्व ही होता है परन्तु हमें इसका पता ही नहीं चलता और न इसे मनाने की परम्परा ही हैं। हां, इसका एक अन्य रूप जन्म दिवस को मनाने की परम्परा को कह सकते हैं। मनुष्य की आयु एक-एक दिन, एक-एक माह और एक-एक वर्ष करके बढ़ती है। हर दिन और हर माह तो पर्व व उत्सव मना नहीं सकते, अतः वर्ष में एक दिन जन्मोत्सव मनाने की परम्परा कुछ समय से चल पड़ी है। लोगों को इस दिवस को मनाने का कोई ज्ञान भी नहीं है। लोग सोचते हैं कि मित्रों व सम्बन्धियों को एकत्रित कर केक आदि काटकर व प्रीतिभोज करा दिया जाये। वैदिक परम्परा के आधार पर दृष्टि डाले तो जन्म दिवस मनाने में कोई आपत्ति नहीं है परन्तु इसको मनाने के रूप में गुणवर्धन किया जा सकता है। यदि जन्म दिवस के दिन लोग वृहत यज्ञ करें तो यह जीवन में अनेक दृष्टियों से लाभप्रद व प्रेरणादायक हो सकता है। सुधी आर्य परिवारों में यज्ञ के द्वारा ही जन्म दिवस व अन्य पर्व मनाये आते हैं। यह अल्पव्यय साध्य तो हैं ही, साथ ही परिणाम में और अनुष्ठानों की तुलना में अधिक लाभदायक हैं। ऐसे ही अनेक पर्व हैं जिनमें से एक नव-संवत्सर का पर्व भी होता है। यह भारतीय परम्परा का पर्व है जो प्रत्येक वर्ष चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को मनाया जाता है। यह नवसंवत्सर एक प्रकार से इस सृष्टि ब्रह्माण्ड का जन्म दिवस है। इससे हमें यह लाभ होता है कि अनेक तथ्यों का स्मरण इस पर्व को मनाकर हो जाता है। मुख्य तथ्य तो यह है कि हमारी सृष्टि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन आज से 1,96,08,53,116 एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ सोलह वर्ष पूर्व आरम्भ हुई थी। आज चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को इस सृष्टि में मानव उत्पत्ति का 1,96,08,53,117 हवां वर्ष आरम्भ हुआ है। यह तथ्य है और यह सारे विश्व के लिए मार्गदर्शक होना चाहिये। हमें ज्ञात है कि सृष्टि में मानव धर्म, सभ्यता व संस्कृति का सर्वप्रथम आविर्भाव व विकास भारत में ही हुआ। संसार के जितने भी देश हैं उनका इतिहास कुछ सौ या हजार वर्ष पुराना है जबकि भारत का इतिहास 1.96 अरब वर्ष पुराना है। सृष्टि के आरम्भिक काल में लिखी गई मनुस्मृति के एक श्लोक को भी स्मरण कर लेते हैं। एतददेशस्य प्रसुतस्य सकाशाद अग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथिव्याम् सर्वमानवाः।। इस श्लोक में महर्षि व राजा मनु जी ने आर्यावर्त्त देश की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा है कि प्राचीन काल से हमारा देश ही संसार के अग्रणीय मनुष्यों को जन्म देता, उत्पन्न करता अर्थात् शिक्षित कर अनका निर्माण करता आ रहा है। संसार के देशों के लोग हमारे देश में अपने-अपने योग्य चरित्र व ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा लेने हमारे देश में ही आते थे। इससे यह अनुमान होता है कि सृष्टिकाल के आरम्भ से लेकर कुछ हजार वर्ष पूर्व तक हमारा भारत वा आर्यावत्र्त देश ही संसार के लोगों को ज्ञान-विज्ञान सहित परा व अपरा विद्या एवं चरित्र आदि की शिक्षा दिया करता था और संसार के लोग अध्ययन के लिए भारत में ही आया करते थे। यह इस कारण से सम्भव हुआ था कि सृष्टि के आरम्भ में प्रथम दिन ही ईश्वर ने मनुष्यों को युवावस्था में अमैथुनी सृष्टि कर आर्यावत्र्त में जन्म दिया था और साथ हि उन्हें सभी सत्य विद्याओं से सम्पन्न कराने के लिए वेदों का ज्ञान भी दिया था।

 

हिमाद्रि ज्योतिष का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में एक श्लोक आता हैचैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि। शुक्लपक्षे समग्रन्तु, तदा सूर्योदये सति।। इसका अर्थ है कि चैत्र शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन सूर्योदय के समय ब्रह्मा ने जगत की रचना की। प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य भास्करार्चा रचित ‘‘सिद्धान्त शिरोमणि का एक श्लोकलंकानगर्यामुदयाच्च भानोस्तस्यैव वारं प्रथमं बभूव। मघोः सितादेर्दिनमासवर्षयुगादिकानां युगपत्प्रवृत्तिः।। है। इसका भावार्थ है कि लंका नगरी में सूर्य के उदय होने पर उसी सूर्य के वार अर्थात् आदित्यवार को चैत्र मास, शुक्ल पक्ष के आरम्भ में दिन, मास, वर्ष युग आदि (अर्थात् सृष्टि संवत्सर) एक साथ आरम्भ हुए। आज भी संसार के अधिकांश विद्वान इन तथ्यों से अपरिचित है। जिन को इसका ज्ञान भी होता है तो वह संस्कृत में होने के कारण इसे स्वीकार नहीं करते। हां, यदि इसी प्रकार का कोई लेख अंग्रेजी व अन्य किसी यूरोपीय भाषा के पुराने ग्रन्थ में होता तो सारा विश्व इसे कभी का एक मत से स्वीकार कर लेता। कोई स्वीकार करे या न करे परन्तु यह दोनों श्लोक व इसमें लिखी व कहीं बातें आप्त-प्रमाण, सृष्टि क्रम, युक्ति, तर्क व ज्ञान विज्ञान के आधार पर सत्य सिद्ध होती हैं। इन तथ्यों व पूर्व से चली आ रही परम्पराओं से यह ज्ञात होता है कि चैत्र शुक्ला प्रतिपदा के इस दिवस से ही ब्रह्म दिन, सृष्टि संवत्, वैवस्वतादि मन्वन्तर का आरम्भ, सतयुग आदि युगारम्भ, कलिसंवत्, विक्रम संवत् का आरम्भ होता है।

 

आर्यसमाज के विद्वान पं. भवानी प्रसाद लिखते हैं कि आदि सृष्टि से ही आर्य जाति में नवसंवत्सरारम्भ का वर्ष मानने की प्रथा प्रचलित है। मुसलमानी राज्य में आर्यों की सनातन संस्थाएं अस्तव्यस्त होने पर भी नवसंवत्सरोत्सव को समारोहपूर्वक मनाने की परिपाटी बराबर बनी हुई थी। इसका प्रमाण देते हुए उन्होंने दूसरे मतों के प्रति असहिष्णु, पक्षपाती अत्याचारी मुगल सम्राट् औरंगजेब के अपने ज्येष्ठ पुत्र युवराज मुहम्मद मोअज्जम के नाम लिखे एक पत्र से मिलता है। अपने पत्र में औरंगजेब ने धृणा के शब्दों में लिखा था किईरोज ऐयाद मजू सअ स्त, एकादकफ्फार नूद रोज जलूस विक्रमाजीत लाईन मबदाए तारीख हिंदू। अर्थात् यह दिन अग्निपूजक (पारसियों) का पर्व है, और काफिर (धर्मशून्य) हिन्दुओं के विश्वासानुसार धिक्कृत विक्रमाजीत की राज्याभिषेक तिथि है और भारतवर्ष का नव संवत्सरारम्भ दिवस है।

 

नवसंवत्सर-आरम्भ-उत्सव संसार की प्रायः सब सभ्य जातियों में मनाया जाता है। ईसाइयों के यहां उसको न्यू इयर्स डे (New Years Day) कहते हैं और वह पहली जनवरी को होता है। फारस देश के पारसियों के यहां वह जश्न नौरोज के नाम से प्रसिद्ध है। अन्य जातियों में जहां इस अवसर पर केवल प्रसन्नता प्रदर्शन और रंग-रेलियां मनाने की रीति है, वहां धर्मप्राण आर्य जाति में आनन्दानुभव के साथ-साथ यज्ञ आदि धर्मानुष्ठानपूर्वक इस उत्सव को मनाने की परम्परा है। पं. भवानी प्रसाद जी ने आगे लिखा है कि प्रतीत होता है कि सृष्टि के आरम्भ के प्रथम दिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन सौर मेष संक्रान्ति एक साथ ही पड़ी थी, किन्तु पीछे से सौर और चान्द्र वर्षों की दो प्रकार की गणना संसार में प्रचलित होने पर सौर और चान्द्र संवत्सरों का नवसंवत्सरारम्भ भी पृथक् पृथक् तिथियों पर होने लगा। चान्द्र संवत्सरारम्भ चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को और सौर संवत्सरारम्भ मेष संक्रान्ति के दिन होता है। अतः ऋतुओं की गणना सौर वर्ष के अनुसार ही होती है, इसलिए भूमण्डल की अधिकांश सभ्य जातियों में सौर संवत्सर प्रचलित है। भारतवर्ष के भी अधिकांश प्रांतों में सौर वर्ष का ही व्यवहार है। बंगाल प्रांत में बंगाब्द, दक्षिण में शालिवाहन शक और पंजाब में प्रविष्टा सौर वर्ष गणना पर ही चलते हैं। अतएव आर्य जाति में जहां चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को चान्द्र नव-संवत्सरारम्भ का समारोह होता है, वहां मेष संक्रांति के दिन सौर संवत्सरेष्टि भी की जाती है। अतएव जिन प्रांतों में चान्द्र संवत्सर का व्यवहार होता हो, वहां चैत्र सुदि प्रतिपदा को नवसंवत्सरारम्भोत्सव वा संवत्सरेष्टि पर्व मनाना चाहिए। इस दिवस को वृहत यज्ञ कर मनाने के साथ सामूहिक प्रीतिभोज वा लंगर तथा काव्य गोष्ठी सहित बालक-बालिकाओं एवं युवाओं की अनेक प्रतियोगितायें आयोजित कर मनाया जा सकता है। इस पर्व के महत्व को जानकर और इसे सामूहिक रूप से वृहत यज्ञ, सामूहिक प्रीतिभोज व अनेक प्रतियोगिताओं के आयोजन के साथ मनाने से समाज में अच्छी परम्पराओं के स्थापित होने से लाभ मिल सकता है।

 

समय के साथ नववर्षाभिनन्दन के इस दिन से अनेक ऐतिहासिक महत्वपूर्ण घटनायें जुडती व विस्मृत होती गई हैं। सम्प्रति सुप्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य का राज्याभिषेक भी इस नववर्षारम्भ के दिन से जुड़ा हुआ है जो अब से 2072 वर्ष पूर्व हुआ था। महाभारत युद्ध के बाद महाराज युधिष्ठिर जी ने भी इस नवसंवत्सराम्भ के दिवस पर ही राज्यारोहण किया था। ऐसी अन्य कई घटनायें हो सकती हैं परन्तु इस दिन मुख्य महत्व इस दिन से इस सृष्टि, मानवोत्पत्ति व ईश्वर से सब सत्य विद्याओं की पुस्तक वेदों का चार ऋषियों अग्नि, वायु,आदित्य व अंगिरा को ज्ञान प्राप्त होना है जो हमारे ऋषि व पूर्वजों की तपस्या से आज तक सुरक्षित है। यही वेद ज्ञान आज सभी परा व अपरा अर्थात् आध्यात्मिक व भौतिक विद्याओं का आधार है। इस नववर्ष को मनाते हुए यदि हम वेदाध्ययन का संकल्प लें और वेदों के संरक्षण की योजना बनायें, तो यह भी उचित होगा।

मनमोहन कुमार आर्य

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क्या संसार महर्षि दयानन्द की मानव कल्याण की यथार्थ भावनाओं को समझ सका?

ओ३म्

क्या संसार महर्षि दयानन्द की मानव कल्याण की यथार्थ भावनाओं को समझ सका?’

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने देश व समाज सहित विश्व की सर्वांगीण उन्नति का धार्मिक व सामाजिक कार्य किया है। क्या हमारे देश और संसार के लोग उनके कार्यों को यथार्थ रूप में जानते व समझते हैं? क्या उनके कार्यों से मनुष्यों को होने वाले लाभों की वास्तविक स्थिति का ज्ञान विश्व व देश के लोगों को है? जब इन व ऐसे अन्य कुछ प्रश्नों पर विचार करते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि हमारे देश व संसार के लोग महर्षि दयानन्द, उनकी वैदिक विचारधारा और सिद्धान्तों के महत्व के प्रति अनभिज्ञ व उदासीन है। यदि वह जानते होते तो उससे लाभ उठा कर अपना कल्याण कर सकते थे। न जानने के कारण वह वैदिक विचारधारा से होने वाले लाभों से वंचित हैं और नानाविध हानियां उठा रहे हैं। अतः यह विचार करना समीचीन है कि मनुष्य महर्षि दयानन्द की वैदिक विचारधारा के सत्य यथार्थ स्वरूप को क्यों नहीं जान पाये? इस पर विचार करने पर हमें इसका उत्तर यही मिलता है कि महर्षि दयानन्द के पूर्व व बाद में प्रचलित मत-मतान्तरों के आचार्यों व तथाकथित धर्मगुरुओं ने स्वार्थ, हठ, दुराग्रह व अज्ञानतावश उनका विरोध किया और उनके बारे में मिथ्या प्रचार करके अपने-अपने अनुयायियों को उनके व उनकी विचारधारा को जानने व समझने का अवसर व स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की। आज भी संसार के अधिकांश लोग मत-मतान्तरों के सत्यासत्य मिश्रित विचारों व मान्यताओं से बन्धे व उसमें फंसे हुए हैं। सत्य से अनभिज्ञ वा अज्ञानी होने पर भी उनमें ज्ञानी होने का मिथ्या अहंकार है। रूढि़वादिता के संस्कार भी इसमें मुख्य कारण हैं। इन मतों व इनके अनुयायियों में सत्य-ज्ञान व विवेक का अभाव है जिस कारण वह भ्रमित व अज्ञान की स्थिति में होने के कारण यदि आर्यसमाज के वैदिक विचारों व सिद्धान्तों का नाम सुनते भी हैं तो उसे संसार के मत-मतान्तरों व अपने मत-सम्प्रदाय का विरोधी मानकर उससे दूरी बनाकर रखते हैं।

 

महर्षि दयानन्द का मिशन क्या था? इस विषय पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि वह संसार के धार्मिक, सामाजिक देशोन्नति संबंधी असत्य विचारधारा, मान्यताओं सिद्धान्तों को पूर्णतः दूर कर सत्य मान्यताओं सिद्धान्तों को प्रतिष्ठित करना चाहते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने अपने पिता का घर छोड़ा था और सत्य की प्राप्ति के लिए ही वह एक स्थान से दूसरे स्थान तथा एक विद्वान के बाद दूसरे विद्वान की शरण में सत्य-ज्ञान की प्राप्ति हेतु जाते गये और उनसे उपलब्ध ज्ञान प्राप्त कर उनको प्राप्त होने वाले सभी अर्वाचीन व प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन भी करते रहे। अपनी इसी धुन व उद्देश्य के कारण वह अपने समय के देश के सभी बड़े विद्वानों के सम्पर्क में आये, उनकी संगति की और उनसे जो विद्या व ज्ञान प्राप्त कर सकते थे, उसे प्राप्त किया और इसके साथ हि योगी गुरुओं से योग सीख कर सफल योगी बने। उनकी विद्या की पिपासा मथुरा में स्वामी विरजानन्द सरस्वती की पाठशाला में सन् 1860 से सन् 1863 तक के लगभग 3 वर्षों तक अष्टाध्यायी, महाभाष्य तथा निरुक्त प़द्धति से संस्कृत व्याकरण का अध्ययन करने के साथ गुरु जी से शास्त्र चर्चा कर अपनी सभी भ्रान्तियों को दूर करने पर समाप्त हुई। वेद व वैदिक साहित्य का ज्ञान और योगविद्या सीखकर वह अपने सामाजिक दायित्व की भावना व गुरु की प्ररेणा से कार्य क्षेत्र में उतरे और सभी मतों के सत्यासत्य को जानकर उन्होंने विश्व में धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में असत्य व मिथ्या मान्यताओं तथा भ्रान्तियों को दूर करने के लिए उसका खण्डन किया। प्रचलित धर्म-मत-मतान्तरों में जो सत्य था उसका उन्होंने अपनी पूरी शक्ति से मण्डन वा समर्थन किया। आज यदि हम स्वामी दयानन्द आर्यसमाज के किसी विरोधी से पूंछें कि महर्षि दयानन्द ने तुम्हारे मत की किस सत्य मान्यता वा सिद्धान्त का खण्डन किया तो इसका उत्तर किसी मतमतान्तर वा उसके अनुयायी के पास नहीं है। इसका कारण ही यह है कि उन्होंने सत्य का कभी खण्डन नहीं किया। उन्होंने तो केवल असत्य मिथ्या ज्ञान का ही खण्डन किया है जो कि प्रत्येक मनुष्य का मुख्य कर्तव्य वा धर्म है। दूसरा प्रश्न अन्य मत वालों से यदि यह करें कि क्या स्वामी दयानन्द जी ने वेद संबंधी अथवा अपने किसी असत्य व मिथ्या विचार व मान्यता का प्रचार किया हो तो बतायें? इसका उत्तर भी किसी मत के विद्वान, आचार्य व अनुयायी से प्राप्त नहीं होगा। अतः यह सिद्ध तथ्य है कि महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में कभी किसी मत के सत्य सिद्धान्त का खण्डन नहीं किया और ही असत्य मिथ्या मान्यताओं का प्रचार किया। उन्होंने केवल असत्य का ही खण्डन और सत्य का मण्डन किया जो कि मनुष्य जाति की उन्नति के लिए सभी मनुष्यों व मत-मतान्तरों के आचार्यों को करना अभीष्ट है। इसका मुख्य कारण यह है कि सत्य वेद धर्म का पालन करने से मनुष्य का जीवन अभ्युदय को प्राप्त होता है और इसके साथ वृद्धावस्था में मृत्यु होेने पर जन्ममरण के बन्धन से छूट कर मोक्ष प्राप्त होता है।

 

यह भी विचार करना आवश्यक है कि सत्य से लाभ होता है या हानि और असत्य से भी क्या किसी को लाभ हो सकता है अथवा सदैव हानि ही होती है? वेदों के ज्ञान के आधार पर सत्य के सन्दर्भ में महर्षि दयानन्द ने एक नियम बनाया है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। यह नियम संसार में सर्वमान्य नियम है। अतः सत्य से लाभ ही लाभ होता है, हानि किसी की नहीं होती। हानि तभी होगी यदि हमने कुछ गलत किया हो। अतः मिथ्याचारी व्यक्ति व मत-सम्प्रदाय के लोग ही असत्य का सहारा लेते हैं और सत्य से डरते हैं। ऐसे मिथ्या मतों, उनके अनुयायी व प्रचारकों की मान्यताओं के खण्डन के लिए महर्षि दयानन्द को दोषी नहीं कहा जा सकता। इस बात को कोई स्वीकार नहीं करता कि मनुष्य को जहां आवश्यकता हो वहां वह असत्य का सहारा ले सकता है और जहां सत्य से लाभ हो वहीं सत्य का आचरण करे। किसी भी परिस्थिति में असत्य का आचरण अनुचित, अधर्म वा वा पाप ही कहा जाता है। अतः सत्याचरण करना ही धर्म सिद्ध होता है और असत्याचरण अधर्म। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर सत्यार्थप्रकाश, ऋ़ग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की है। इन ग्रन्थों में उन्होंने मनुष्य के धार्मिक व सामाजिक कर्तव्यों व अकर्तव्यों का वैदिक प्रमाणों, युक्ति व तर्क के आधार पर प्रकाश किया है। सत्यार्थप्रकाश साधारण मनुष्यों की बोलचाल की भाषा हिन्दी में लिखा गया वैदिक धर्म का सर्वांगीण, सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रभावशाली धर्मग्रन्थ है। धर्म व इसकी मान्यताओं का संक्षिप्त रूप महर्षि दयानन्द ने पुस्तक के अन्त में स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश लिखकर प्रकाशित किया है। यह स्वमन्तव्यामन्तव्य ही मनुष्यों के यथार्थ धर्म के सिद्धान्त व कर्तव्य हैं जिनका विस्तृत व्याख्यान सत्यार्थप्रकाश व उनके अन्य ग्रन्थों में उपलब्घ है। स्वमन्तव्यामन्तव्य की यह सभी मान्यतायें संसार के सभी मनुष्यों के लिए धर्मपालनार्थ माननीय व आचरणीय है परन्तु अज्ञान व अन्धविश्वासों के कारण लोग इन सत्य मान्यताओं से अपरिचित होने के कारण इनका आचरण नहीं करते और न उनमें सत्य मन्तव्यों को जानने की सच्ची जिज्ञासा ही है। इसी कारण संसार में मत-मतान्तरों का अस्तित्व बना हुआ है। इसका एक कारण यह भी है कि देश व संसार में धर्म सम्बन्धी सत्य व यथार्थ ज्ञान के प्रचारकों की कमी है। यदि यह पर्याप्त संख्या में होते तो देश और विश्व का चित्र वर्तमान से कहीं अधिक उन्नत व सन्तोषप्रद होता।

 

महर्षि दयानन्द ने सन् 1863 से वेद वा वैदिक मान्यताओं का प्रचार आरम्भ किया था जिसने 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना के बाद तेज गति पकड़ी थी। इसके बाद सन् 1883 तक उन्होंने वैदिक मान्यताओं का प्रचार किया जिसमें वैदिक मत के विरोधियों व विधर्मियों से शास्त्र चर्चा, विचार विनिमय, वार्तालाप और शास्त्रार्थ सम्मिलित थे। अनेक मौलिक ग्रन्थों की रचना सहित ऋग्वेद का आंशिक और पूरे यजुर्वेद का उन्होंने भाष्य किया। उनके बाद उनके अनेक शिष्यों ने चारों वेदों का भाष्य पूर्ण किया। न केवल वेदों पर अपितु दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण व महाभारत आदि पर भी भाष्य, अनुवाद, ग्रन्थ व टीकायें लिखी र्गइं। संस्कृत व्याकरण विषयक भी अनेक नये ग्रन्थों की रचना के साथ प्रायः सत्यार्थप्रकाश सहित सभी आवश्यक ग्रन्थों को अनेक भाषाओं में अनुवाद व सुसम्पादित कर प्रकाशित किया गया जिससे संस्कृत अध्ययन सहित आध्यात्मिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करना अनेक भाषा-भाषी लोगों के लिए सरल हो गया। एक साधारण हिन्दी पढ़ा हुआ व्यक्ति भी समस्त वैदिक साहित्य का अध्ययन कर सकता है। यह सफलता महर्षि दयानन्द, आर्यसमाज इसके विद्वानों की देश विश्व को बहुमूल्य देन है। यह सब कुछ होने पर भी आर्यसमाज की वैदिक विचारधारा का जो प्रभाव होना चाहिये था वह नहीं हो सका। इसके प्रमुख कारणों को हमने लेख के आरम्भ में प्रस्तुत किया है। वह यही है कि देश संसार के लोग महर्षि दयानन्द की मानवमात्र की कल्याणकारी विचारधारा उनके यथार्थ भावों को अपनेअपने अज्ञान, स्वार्थ, हठ और पूर्वाग्रहों वा दुराग्रहों के कारण जान नहीं सके। कुछ अन्य और कारण भी हो सकते हैं। इसके लिए आर्यसमाज को अपने संगठन व प्रचार आदि की न्यूनताओं पर भी ध्यान देना होगा और उन्हें दूर करना होगा। वेद वा धर्म प्रचार को बढ़ाना होगा और वैदिक मान्यताओं को सारगर्भित व संक्षेप में लघु पुस्तकों के माध्यम से प्रस्तुत कर उसे घर-घर पहुंचाना होगा। यदि प्रचारकों की संख्या अधिक होगी और संगठित रूप से प्रचार किया जायेगा तो सफलता अवश्य मिलेगी और मानवता का कल्याण होगा।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

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इस्लाम और औरत को पीटने का अधिकार

इस्लाम के मानने वाले औरतों के बारे में  सम्मानजनक सोच और उसके सिलसिले में अधिकारों की कल्पना को  इस्लाम की देन बताते हैं. और इस बात का दंभ भरते हैं कि इस्लाम ने औरत को अपमान की गहरी खाई से निकाल कर सम्मान की बुलंदी पर पहुँचा दिया लेकिन इस्लामी किताबें और इतिहास इसके विपरीत ही कुछ प्रदर्शित करता है. औरतों के प्रति इस्लामी गलियारों में जो कुछ जुल्म होते हैं उनमें से एक पर यहाँ विचार करेगें और इस्लाम के जानने वालों से इस बारे में अपेक्षा रखेंगे की वो इस पर प्रकाश डालें कि क्या ऐसी मान्यतायें जो कुरान, जिसे मुसलमान आसमानी किताब का दर्ज़ा देते हैं, आदि से पुष्ट होती हैं को वो आज भी मानते हैं ?

कुरान सूरा निसा आयत ३४ ( ४ -३४)( मौलाना सैयद  अबुल आला मौदूदी)

मर्द औरतों के मामलों के जिम्मेदार हैं इस आधार पर कि अल्लाह ने उनमें से एक को दूसरे के मुकाबले आगे रखा है और इस आधार पर कि पुरुष अपने माल खर्च करते हैं अतः जो भली औरतें हैं वे आज्ञाकारी होती हैं और मर्दों के पीछे अल्लाह की रक्षा और संरक्षण में उनके अधिकारों की रक्षा करती हैं और जिन औरतों से तुम्हें सरकशी का भय हो उन्हें समझाओं , सोने की जगहों (ख्वाह्गाहों ) में उनसे अलग रहो और मारो फिर अगर वे तुम्हारी बात मानने लगें तो अकारण उनपर हाथ चलाने के लिए बहाने तलाश न करो यकीन रखो कि ऊपर अल्लाह मौजूद है जो बढ़ा सर्वोच्च है .

तर्जुमा : मौलाना सैयद  अबुल आला मौदूदी, पृष्ट १३०-१३१ , संस्करण दिसम्बर २०१३ ई

कुरान सूरा निसा आयत ३४ ( ४ -३४)( अल्लामा शब्बीर अहमद उस्मानी )

Men are made lord over women for that Allah gave greatness to one over the other and for that they expended of their wealth, then those women who are virtuous they are obedient and guard at back with God’s guarding and those women you fear their misconduct admonish them and sleep away from their couches and beat them, if then they obey you, look not for any way of blame against them surely god is the highest of all, the great

कुरान सूरा निसा आयत ३४ ( ४ -३४)( अत्यातुल्लाह आघा )

Men have authority over women on account of the qualities with which God hath caused the one of them to excel the other and for what they spend of their property therefore the righteous women are obedient guarding the unseen that which God hath guarded and as to those whose perverseness ye fear admonish them and avoid them in beds and beat them and if  they obey you them seek not a way against them verily God is ever high ever great.
The Holy Quran – Page – 383

कुरान की इस आयत के अलग अलग तर्जुमे उसी बात को दोहरा रहे हैं कि पुरुष का स्त्री के ऊपर अधिकार है और पुरुष की बात न मानने के कारण पुरुष स्त्री को पीटने उसे प्रताड़ित करने का अधिकार रखता है.

 

अत्यातुल्लाह आघा साहब अपनी तफसीर में लिखते हैं:

The remedy  prescribed against any such disobedience on the part of the wife is pointed out three fold. In the first stage she is to be admonished and if she desists the evil is mended, but f she persists in the wrong course the second stage is her bed to be separated If the woman still persists then the third stage is to chastise her.

The Holy Quran – Page – 374
भावार्थ यह है कि पति के पास पत्नी के बात न मानने की स्तिथी में तीन विकल्प में पहले उसे समझाया जाये, उससे बिस्तर अलग कर लिया जाये और तीसरी विकल्प में उसे पीटा जाये

अल्लामा शब्बीर अहमद उस्मानी अपनी तफसीर में लिखते हैं:

If she is not redeemed then the third stage is beating. This is the last stage. Beating should not be serious short of bone fracture. Every fault has its own degree. Beating should not be taken up at first stage. there are three stages of amelioration. beating is the last remedy Beating should not be undertaken on small faults. If there is any big fault on the part of woman then there is no sin or fault in beating but that too in the final stage. The beating should not be so serious that the bone is fractured not the blow should be so hard that it may smite a wound leaving a scar after healing.
The Nobel Quran, Vol-1 Page -335

भावार्थ यह है कि पत्नी यदि समझाने के बाद न माने तो तीसरा तरीका उसे पीटना है . पीटना ऐसा नहीं हो की हड्डियाँ टूट जाएँ . मौलाना साहब कहते हैं कि पीटना अंतिम तरीका है और छोटे अपराध पर नहीं होना चाहिए  लेकिन यदि अपराध बड़ा है तो पीटने में कोई पाप नहीं है .

हाँ मौलाना साहब इतनी छुट देते हैं की पीटना ऐसा न हो की हड्डियाँ टूट जाएँ या फिर घाव बन जाये जो बाद में निशान छोड़ दे.

मौलाना सैयद  अबुल आला मौदूदी अपनी तफसीर में लिखते हैं:

This does not mean that a man should resort to these three measures all at once but that they may be employed if wife adopts an attitude of obstinate defiance. so far as the actual application of these measures is concerned, there should, naturally be some correspondence between the fault and the punishment that is administered. Moreover it is obvious that wherever a light touch can prove effective one should not resort to sterner measures.

Towards understanding the Quran b Sayyid Abul Ala Maududi. Vol 2, Page 36

भावार्थ यह है कि तीनों कम एक साथ कर डाले जाएँ यह अर्थ नहीं है बल्कि अर्थ यह है की सरकशी की हालत में इन तीनों उपायों को अपनाया जा सकता है . अब रहा इनको व्यव्हार में लाना तो हर हाल में इसमें अपराध और सजा के बीच अनुकूलता होनी चाहिए और हलके उपाय से बात बन सकती हो वहां कड़े उपाय से काम न लेना चाहिए.

तीनों तफसीरों को देखने से साफ़ जाहिर होता है कि कुरान स्त्रियों को पीटने की आज्ञा देती है . अलग अलग कुरान के व्याख्याकारों की भाषा देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि इस आयत की व्याख्या में स्त्रियों को पीटने के मुद्दे को स्पष्ट करने में दिक्कतों को सामना किया होगा. व्याख्याकारों ने पिटाई के अलग अलग स्तर बना दिए की पिटाई ऐसी न हो की हड्डियाँ टूट जाएँ पिटाई ऐसी न हो की घाव भरने पर निशान रह जाये .

लेकिन कोई भी भाष्यकार ये हिम्मत न कर सका की पिटाई करना गलत है . आखिरकार कुरान की आयत जो कह रही है लेकिन उनकी व्याख्या की भाषा से यह प्रदर्शित हो रहा है की पिटाई करना वो गलत मानते हैं लेकिन शायद कुरान की आयत में लिखा होने की वजह से खुल कर न लिख सके और यही कहते रहे की पिटाई ऐसी न हो कि हड्डियाँ तोड़ दे .

 

 

‘सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति के पुनरुद्धार में स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज का योगदान’

ओ३म्

सनातन वैदिक धर्म संस्कृति के पुनरुद्धार में  स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज का योगदान

भारतीय धर्म व संस्कृति विश्व की प्राचीनतम, आदिकालीन, सर्वोत्कृष्ट, ईश्वरीय ज्ञान वेद और सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों पर आधारित है। सारे विश्व में यही संस्कृति महाभारत काल व उसकी कई शताब्दियों बाद तक भी प्रवृत्त रहने सहित सर्वत्र फलती-फूलती रही है। इस संस्कृति की विशेषता का प्रमुख कारण यह था कि यह ईश्वरीय ज्ञान वेद पर आधारित होने के साथ वेदों के प्रचारक व रक्षक ईश्वर के साक्षात्कृत धर्मा हमारे ऋ़षि मुनियों द्वारा प्रचारित व संरक्षित थी। महाभारत के विनाशकारी युद्ध के प्रभाव से ऋषि परम्परा समाप्त हो गई जिससे संसार में धर्म व संस्कृति सहित शिक्षा के क्षेत्र में घोर अन्धकार छा गया। इस विषम परिस्थिति में देश-देशान्तर में वही हुआ जैसा कि नेत्रान्ध व अल्प नेत्र ज्योति वाले अशिक्षित व्यक्तियों के कार्य होते हैं। यह अन्धकार समाप्त नहीं हो रहा था अपितु समय के साथ बढ़ रहा था। इस स्थिति में हम देखते हैं कि देश-देशान्तर में कुछ महापुरुषों का जन्म हुआ जिन्होंने समाज को नई दिशा देने के लिए सामयिक ज्ञान की अपनी योग्यतानुसार अपने-अपने मत व धर्म प्रचलित किये और इन्हीं मत व धर्मों के पालन के लिए उन-उन देशों में, मुख्यतः यूरोप व अरब आदि देशों में, वहां की भौगोलिक एवं समाज के पुरुषों की योग्यता के अनुसार संस्कृति का प्रादुर्भाव व विकास हुआ। भारत में सृष्टि के आदि काल से लेकर महाभारत काल तक वैदिक धर्म व संस्कृति प्रचलित रही थी। समाज में अज्ञान बढ़ जाने से इसका विपरीत प्रभाव धर्म व संस्कृति दोनों पर हुआ जिस कारण संस्कृति का स्वरुप भी सत्य के विपरीत अज्ञान प्रधान होकर अनेक विकारों से युक्त हुआ।

 

संस्कृति का अध्ययन करने के लिए हमें धर्म, भाषा, स्वदेश गौरव की भावना, वेषभूषा, परम्परा वा रीति-रिवाजों आदि की स्थिति पर विचार और इसमें महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के योगदान की चर्चा करना उपयुक्त होगा।  धर्म के क्षेत्र में भारत सृष्टि के आदि काल से वेद और वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का पालक रहा है। वेद ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण सत्य मान्यताओं, यथार्थ धर्म व संस्कृति के पोषक रहे हैं। हमारे ऋषि-मुनि भी विचार, चिन्तन, ध्यान व मनन द्वारा वेदों के सभी मन्त्रों व शब्दों में निहित मनुष्यों के लिए कल्याणकारी अर्थों व ज्ञान से देश की जनता को उपकृत करते थे जिससे सारा समाज व देश सत्य ज्ञान से युक्त व उन्नत था। गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली से सभी मनुष्यों व वर्णों की सन्तानों को गुरुकुलीय शिक्षा दी जाती थी जहां निर्धन व धनवानों के लिए वेद-वेदांगों के ज्ञान कराने वाली शिक्षा का सबके लिए समान रूप से निःशुल्क प्रबन्ध था। स्वामी दयानन्द ने प्रत्येक व्यक्ति के लिए शिक्षा को अनिवार्य करने की बात कही है। कृष्ण व सुदामा एक साथ पढ़ते थे और परस्पर मित्रवत् व्यवहार करते थे। वैदिक काल के सभी आचार्य व गुरु भी वैदिक ज्ञान के प्रबुद्ध विद्वान होते थे जिनके आचार्यत्व में विद्यार्थियों से नास्तिकता का नाश होकर एक सच्चे सच्चिदानन्द, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, न्यायकारी, दयालु व सृष्टिकर्ता ईश्वर की उपासना देश देशान्तर में प्रचलित थी। सभी स्त्री व पुरुष स्वाध्यायशील व योगाभ्यासी होते थे जिससे सभी स्वस्थ, सुखी, अपरिग्रही व सन्तोषी होते थे। समाज व देश में ऋषि-मुनियों की बड़ी संख्या होने से कहीं कोई अज्ञान व अन्धविश्वास उत्पन्न व प्रचलित नहीं होता था। शंका होने पर राजाओं के द्वारा बड़े-बड़े शास्त्रार्थों का आयोजन होता था और विजयी पक्ष के विचारों को समस्त देश को स्वीकार करना पड़ता था। धर्मनिरपेक्षता जैसा शब्द महाभारत काल तक व उसके बाद के साहित्य में भी कहीं नहीं पाया जाता। इस प्रकार सर्वत्र वैदिक धर्म का पालन होता था।

 

महाभारत काल के बाद मध्यकाल में अज्ञान व अन्धविश्वासों के उत्पन्न हो जाने से धर्म का सत्य स्वरूप विकृत हो गया जिससे समाज में अवतारवाद, मूर्तिपजा, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, पाखण्ड व आडम्बर, जन्मना जातिवाद आदि मिथ्या विश्वास उत्पन्न हो गये। महर्षि दयानन्द (1825-1883) तक इन मिथ्या विश्वासों में वृद्धि होती रही। स्वामी दयानन्द जी को सन् 1938 की शिवरात्रि को ईश्वर विषयक बोध प्राप्त हुआ। इसके कुछ काल बाद उनसे छोटी बहिन व चाचा की मृत्यु ने उनमें वैराग्य के संस्कारों को प्रबुद्ध किया। उन्होंने सत्य धर्म व संस्कृति की खोज के लिए सन् 1846 में माता-पिता व स्वगृह का त्याग कर देश भर के धार्मिक विद्वानों, शिक्षकों व योगियों को ढूंढ कर उनकी संगति व शिष्यत्व प्राप्त किया। मथुरा के प्रज्ञाचक्षु गुरू स्वामी विरजानंद सरस्वती के पास वह सन् 1860 में पहुंचे और उनसे तीन वर्षों में संस्कृत के आर्ष व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य व निरुक्त संस्कृत-व्याकरण प्रणाली का ज्ञान प्राप्त कर समस्त वैदिक व इतर धार्मिक साहित्य के विद्वान बने। गुरु की प्रेरणा से उन्होंने संसार से मिथ्या ज्ञान नष्ट करने के साथ आर्ष ज्ञान व सत्य सनातन वैदिक मत एवं संस्कृति के प्रचार व स्थापना का कार्य किया। इस कार्य को सम्पादित करने के लिए ही उन्होंने देश का भ्रमण कर न केवल धर्मोपदेश व शास्त्रार्थ आदि ही किये अपितु आर्यसमाज की स्थापना सहित पंचमहायाविधि, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय का प्रणयन किया औरे साथ हि चारों वेदों का संस्कृत व हिन्दी में भाष्य का अभूतपूर्व महनीय कार्य भी आरम्भ किया। वह यजुर्वेद का पूर्ण व ऋग्वेद का आंशिक भाष्य ही कर पाये। उनके इन कार्यों ने धर्म व संस्कृति के सुधार व उन्नति का अपूर्व कार्य किया। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ लिख कर व उसमें देश व देशान्तर के प्रायः सभी मतों की समीक्षा कर वैदिक सनातन मत को वास्तविक व यथार्थ धर्म सिद्ध व घोषित किया। उनकी चुनौती उनके जीवनकाल व बाद में भी कोई स्वीकार नहीं कर सका जिस कारण से आज भी वेद धर्म सर्वोपरि महान व संसार के सभी लोगों के लिए आचरणीय बन गया है। महर्षि दयानन्द के समय व उनसे पूर्व ईसाई व इस्लाम के अनुयायी हिन्दुओं के धर्म-परिवर्तन का आन्दोलन चलाये हुए थे। बहुत बड़ी संख्या में उन्होंने सफलता भी प्राप्त की थी परन्तु स्वामी दयानन्द के कार्यों ने उनके धर्मान्तरण के कार्यपर प्रायः पूर्ण विराम लगा दिया। यदि हिन्दुओं ने उनकी वेद विषयक सत्य विचारधारा को अपना लिया होता तो आज देश का इतिहास कुछ नया व भिन्न होता। पतन को प्राप्त हो रहे वैदिक धर्म की रक्षा के लिए उनके द्वारा किया गया कार्य अपूर्व एवं महान है।

 

महर्षि दयानन्द ने स्वभाषा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। वह वेदों की संस्कृत को विश्व की सभी भाषाओं की जननी मानते थे और उसके अधिकारी विद्वान व प्रचारक हुए। इसके लिए उन्होंने वेदांग प्रकाश नाम से संस्कृत व्याकरण के अनेक ग्रन्थ भी लिखे हैं। गुजराती होते हुए भी उन्होंने गुजराती के प्रति कभी पक्षपात नहीं किया। वह प्रचार आरम्भ करने के समय से ही संस्कृत में व्याख्यान देते थे जो सरल सुबोध व मुहावरेदार होती थी जिसे संस्कृत न जानने वाले लोग भी समझ लेते थे। उनके वार्तालाप की भाषा भी यही भाषा थी। कालान्तर में उन्होंने हिन्दी भाषा को अपनाया और इसे आर्यभाषा का नाम दिया। बहुत कम समय में आपने हिन्दी सीख ली और हिन्दी में ही व्याख्यान, वार्तालाप व लेखन कार्य करने लगे। हिन्दी के प्रचार व प्रसार के लिए आपने अपने सभी ग्रन्थ हिन्दी में ही लिखे व प्रकाशित किये। आपने अपने ग्रन्थों का उर्दू आदि भाषाओं में अनुवाद करने की अनुमति इस कारण नहीं दी कि इससे हिन्दी का प्रचार व प्रसार पर विपरीत प्रभाव हो सकता था। इस सन्दर्भ में उन्होंने यहां तक कह दिया था कि जो व्यक्ति इस देश में उत्पन्न होकर और यहां का अन्न आदि खा कर यहां की सरल भाषा हिन्दी को नहीं सीख सकता उससे देश के हित के लिए और क्या उम्मीद की जा सकती है? भारत के सरकारी दफतरों में काम काज की भाषा तय करने के लिए अंग्रेजों ने जब एक कमीशन बनाया तो हिन्दी को सरकारी कामकाज की भाषा स्वीकार कराने के लिए स्वामी दयानन्द जी ने देश भर में एक हस्ताक्षर अभियान चलाया और उस पर करोड़ो लोगों के हस्ताक्षर कराये। हस्ताक्षर अभियान चलाकर सरकार से अपनी बात स्वीकार कराने वाले शायद स्वामी दयानन्द भारत के प्रथम महापुरुष थे। ऐसा ही अभियान उन्होंने गोरक्षा अथवा गोहत्या बन्द कराने के लिए भी चलाया था। महर्षि दयानन्द के कार्यों से देश में हिन्दी भाषा का अपूर्व प्रचार हुआ जिसका प्रभाव उनके समकालीन व परवर्ती संस्कृत व हिन्दी साहित्य पर भी पड़ा। इस विषय पर शोधार्थियों ने शोध प्रबन्ध भी प्रस्तुत किये हैं। स्वभाषा संस्कृत व हिन्दी के प्रचार व प्रसार में स्वामी दयानंद जी का सर्वाधिक योगदान है।

 

मनुष्यों की वेशभूषा भी किसी संस्कृति का एक आवश्यक अंग होती है। भारत में प्राचीन काल से ही पुरुषों व स्त्रियों की वेश भूषा निर्धारित है। पुरुषों के लिए धोती, कुर्ता, लोई वा शाल सहित बन्द गले का कोट व जैकेट एवं सिर पर पगड़ी निर्धारित रही है। इसी प्रकार से स्त्रियों के लिए भी बचपन में फ्राक से आरम्भ कर किशोर, युवावस्था व उसके बाद शलवार, कुर्ता, चुन्नी वा दुपट्टा, साड़ी आदि का पहनावा प्रचलन में रहा है। भौगोलिक दूरियों के कारण इनमें कुछ न्यूनाधिक परिवर्तन आदि भी देखने को मिलता है जिसमें एक ही मूल भावना काम करती दिखाई देती है। वेशभूषा विषयक भारतीय चिन्तन फैशन न होकर शरीर की रक्षा व सभ्यता का सूचक होता है जिससे किसी के मन में किसी प्रकार विकार आदि उत्पन्न न हो। 8वीं शताब्दी से भारत में मुगलों का आना आरम्भ हुआ और उन्होंने अपने धर्म, भाषा व वेशभूषा आदि थोपने में कोई कसर नहीं रखी। उसके बाद अंग्रेज आये और देश को गुलाम बनाया। उन्होंने भी अपने ईसाई धर्म, अंग्रेजी भाषा व परम्पराओं का प्रचार व प्रसार किया। हमारे देश के लोग अंग्रेजों से कुछ अधिक ही प्रभावित हो गये और आज भी इनकी ही वेश भूषा का प्रचलन देश भर में देखने को मिलता है। भारतीय वेशभूषा का प्रचलन कम हो रहा है और विेदेशी यूरोपीय वेशभूषा का प्रचलन बढ़ रहा है। महर्षि दयानन्द ने भारतीय धर्म, संस्कृति के प्रति गौरव का भाव जगाया तो इसमें भारतीय वेशभूषा पर भी ध्यान केन्द्रित रखा। वह सदैव धोती का प्रयोग करते थे। भारतीय कुर्ते में भी उनके चित्र उपलब्ध है। सम्मान की निशानी सिर पर पगड़ी का भी वह प्रयोग करते थे और यदि ऊपर का उनका भाग वस्त्रहीन है, तो वह प्रायः शाल या लोई ओढ़ते थे। उनके जीवन में प्रसंग आता है कि एक बार उनका एक अनुयायी अपने पुत्र को उनके पास लाया और उसके सुधार के लिए स्वामी जी को उस युवक उपदेश देने को कहा। स्वामी जी ने देखा कि उस युवक ने विदेशी वेशभूषा पैण्ट-शर्ट पहन रखी है। इसका उल्लेख कर उन्होंने उस बालक को अपने पूर्वजों की याद दिलाई और बताया कि उनकी वेशभूषा क्या व कैसी होती थी? यह भी बताया कि ज्ञान व चरित्र की दृष्टि से हमारे उन पूर्वजों की संसार में कोई समानता नहीं है। उनके विचारों का उस युवक पर प्रभाव पड़ा और उसने अपना सुधार किया। आज भी हम देखते हैं कि आर्यसमाज के अनुयायी अपने घरों में बच्चों, विशेष कर कन्याओं व स्त्रियों के भारतीय वेशभूषा के पक्षधर है और उनके परिवारों में इस दृष्टि से सख्त निर्देश हैं कि भारतीय वेशभूषा का ही प्रयोग हो। जहां तक अन्य सभी संस्थाओं से तुलना की बात है, आर्यसमाज पहले भी और आज भी भारतीय वेशभूषा का सबसे बड़ा समर्थक व पक्षधर है। आज भी हमारे युवक व युवतियों के गुरुकुलों व शिक्षण संस्थाओं में भारतीय वेशभूषा का ही प्रचलन व प्रभाव है। हां, डी.ए.वी. कालेज को आर्यसमाज के वेशभूषा विषयक प्रभाव में सम्मिलित स्वीकार नहीं किया जा सकता।

 

किसी मनुष्य जाति व धर्म के मानने वाले लोगों की अपनी परम्परायें व रीति-रिवाज भी होते हैं जो कि उनकी संस्कृति का अंग कहलाते हैं। भारतीय धर्म व संस्कृति की बात करें तो यहां भी अनेकानेक परम्परायें व रीति-रिवाज प्रचलित हैं जिनके संशोधन व सुधार सहित अनावश्यक का त्याग तथा भूली हुई आवश्यक परम्पराओं का पुनः प्रचलन स्वामी दयानन्द जी व आर्यसमाज ने किया है। स्वामी दयानन्द ने समस्त वैदिक परम्पराओं को पंच महायज्ञों व 16 वैदिक संस्कारों में ढ़ालने सहित भारत में मनायें जाने वाले मुख्य पर्वों होली, दीपावली, शिवरात्रि आदि पर्वों को वैदिक विधि से मनाये जाने का शुभारम्भ किया। वैदिक परम्पराओं में प्रातः व सायं ईश्वरोपासना, दैनिक अग्निहोत्र, माता-पिता-आचार्य-वृद्धों आदि का सम्मान, पशु-पक्षी-कीट-पतंगों आदि को अन्न व भोजन कराना तथा अतिथियों का सत्कार करने सहित गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त 16 संस्कारों को प्रचलित किया। आर्यसमाज अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि का पक्षधर है और सभी मनुष्यों को वेदादि ग्रन्थों सहित सभी प्रकार के ज्ञान की पुस्तकों को नियमित रूप से पढ़ने व पढ़ाने को जीवन का अनिवार्य अंग मानता है। आर्यसमाज वेदादि सभी लाभकारी ग्रन्थों के नियमित सवाध्याय का प्रबल समर्थक है। वैदिक संस्कृति में अच्छी परम्पराओं का प्रचलन व अनावश्यक एवं बुरी प्रथाओं के नियंत्रण का आर्यसमाज समर्थक है। इस क्षेत्र में आर्यसमाज ने बहुमूल्य योगदान दिया है। आर्यसमाज की प्रत्येक मान्यता व सिद्धान्त सत्य मान्यताओं व तर्कों पर आधारित हैं जिनसे समाज लाभान्वित होता है। इसी कारण सभी लोग अपनी अपनी ज्ञान की योग्यता के अनुसार इसे पसन्द करते व अपनाते हैं। यही कारण है कि आर्यसंमाज भारत तक ही सीमित न होकर एक विश्वव्यापी संगठन है।

 

मनुष्य का व्यवहार, व्यक्तिगत व सामाजिक नियम तथा विधि-विधान कैसें हों, इसके लिए आर्यसमाज वैदिक परम्पराओं व मनुस्मृति के अविवादित सभी बुद्धिसंगत व देश समाजोपयोगी नियमों को स्वीकार करता है। स्वामी दयानन्द ने ऐसे अधिकांश नियमों का सत्यार्थप्रकाश सहित अपने ग्रन्थों में उल्लेख भी किया है। इसके अतिरिक्त स्वामी दयानन्द वैदिक धर्म के प्रतीक चोटी, यज्ञोपवीत व सिर पर पगड़ी धारण करने के भी समर्थक है। बहुत से लोग आर्यसमाज के एतदविषयक तर्कों से सहमत होने के कारण इनका अनुसरण करते हैं। महर्षि दयानन्द द्वारा वैदिक धर्म के विश्वास व नियम मान्यता व परम्परा को सत्य व असत्य की कसौटी पर कस कर निर्धारित किये गये हैं। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, पुनविर्वाह व विधवा विवाह व इतर कार्यों विषयक नियम, जन्मना जातिवाद, वर्णव्यवस्था, स्त्री शिक्षा आदि विश्वासों को भी सत्य व असत्य की कसौटी पर कस कर निर्धारित किया गया है जिसका समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। अधिकांश शिक्षित लोग आर्यसमाज की विचारधारा से सहमत हैं। आर्यसमाज ही देश की पहली संस्था है जिसने अंग्रेजों के दमनकारी शासन में स्वदेश भक्ति को उदबुद्ध किया जिसका परिणाम भारत को सन् 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। शहीद पं. रामप्रसाद बिस्मिल, लाला लाजपतराय, स्वामी श्रद्धानन्द व शहीद भगतसिंह जी का परिवार स्वामी दयानन्द व आर्यसमाज के अनुयायी थे। आजादी के आन्दोलन में आर्यसमाज के अनुयायी की संख्या सर्वाधिक थी ऐसा इतिहास में अंकित है।

 

स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज भारत की वैदिक कालीन प्राचीन व विशुद्ध संस्कृति के पोषक व पक्षधर थे और इसी को उन्होंने अपने घर्म व संस्कृति प्रचार के आन्दोलन में समाहित किया। इनका समाज पर व्यापक प्रभाव हुआ और आज के वैज्ञानिक युग में इसका भविष्य उज्जवल स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। आर्यसमाज के पास संस्कृति से सम्बन्धित संसार की सबसे प्राचीन पुस्तकें चार वेद व महाभारतकाल व उससे पूर्व लिखे गये मनुस्मृति, 6 दर्शन, उपनिषदें, रामायण व महाभारत आदि ग्रन्थ हैं। यह ग्रन्थ न केवल भारतीय वैदिक धर्मियों के लिए ही मान्य हैं अपितु यह सारे संसार के मनुष्यों के धर्म व संस्कृति के आदि व आदर्श स्रोत हैं और सनातन सर्वकल्याणकारी शिक्षाओं के ग्रन्थ हैं। विश्व को सभी पूर्वाग्रह छोड़कर वैदिक साहित्य का अध्ययन कर अपने मत-पन्थों की अविद्या से युक्त मान्यताओं व परम्पराओं को संशोधित व सुधार कर अपनाना चाहिये जिससे संस्कृति के क्षेत्र में एकरूपता आ सके।

मनमोहन कुमार आर्य

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मिर्ज़ा साहब गर्भवती हो गए ………

मिर्ज़ा गुलाम अहमद को इस्लाम के मनाने वाले मुहम्मद साहब के बाद अंतिम रसूल ए खुदा मानते हैं. हालांकि ज्यादातर मुसलमान मुहम्मद साहब को ही अंतिम रसूल मानते हैं लेकिन अहमदिया सम्प्रदाय मुहम्मद साहब के साथ नबुबत का खात्मा न मानकर इसे मिर्ज़ा गुलाम अहमद के साथ खात्मा मानते हैं और मिर्ज़ा गुलाम अहमद को अंतिम नबी मानते हैं.

मशहूर कादियानी शायर काजी अकमल के शेर का हवाला  देते हुए मौलाना मुहम्मद अब्दुर्रउफ़ ने लिखा है कि मिर्ज़ा गुलाम अहमद को मुहम्मद साहब से श्रेष्ठ मुलमानों का यह संप्रदाय मानता है. ये शेर मिर्ज़ा गुलाम अहमद मिर्ज़ा की मौजूदगी में पढ़े गए और मिर्ज़ा साहब ने भी उन्हें पसंद किया :

मुहम्मद फिर उतर आये हैं  हममें

और आगे से हैं बढ़कर अपनी शान में

मुहम्मद देखने हों जिसने अकमल

गुलाम अहमद को देख कादियां में

मुहम्मद साहब के बाद नबी होने के अतिरिक्त मिर्ज़ा गुलाम अहमद उनकी भविष्य वाणियों के लिए जाने गए . अल्लाह के द्वारा वही आने का दावा इस्लाम में  मुहम्मद साहब के बाद मिर्ज़ा  गुलाम अहमद  ने भी किया. वही भी नायाब  कहीं महामारी फ़ैली किसी की मृत्यु हुयी किसी का क़त्ल हुआ मिर्ज़ा गुलाम अहमद तुरंत वही का दावा कर दिया करते थे .

लेकिन कुछ ऐसी बातें भी हैं जो मिर्ज़ा साहब और उनके इस्लाम का एक अलग ही नज़ारा प्रस्तुतु करती हैं. ये कुछ ऐसे वाकये हैं जो इस्लाम में मिर्ज़ा साहब से पहले किसी ने किये हों ऐसा मालूम नहीं होता.

मिर्ज़ा जी गर्भवती हो गए

मिर्ज़ा साहब फरमाते हैं  कि मरियम की तरह ईसा की रूह मुझमें फूंकी गई और लाक्षणिक रूप में मुझे गर्भ धारण कराया गया और की महीने के बाद दस महीने से ज्यादा नहीं , इह्लाम के जरिये से मुझे मरियम से ईसा बनाया गया . इस प्रकार से में मरियम का बेटा ईसा (इब्न मरियम ) ठहरा

– कश्ती ए नूह पृष्ट – ४६, ४७ संस्करण १९०२ ई

मिर्ज़ा साहब खुदा की बीवी

काजी यार मुहम्मद साहब कादियानी लिखते हैं कि हजरत मसीह मौउद ने एक अवसर पर अपनी यह स्तिथी प्रकट की कि “कश्फ़” (इलहाम या वहय) की हालात  आप पर इस तरह तारी हुयी कि मानों आप औरत हें और अल्लाह तआला ने अपनी पौरुष शक्ति (Sex Power) को जाहिर किया I समझदारों के लिए इशारा ही काफी है

– ट्रैक्ट १३४, इस्लामी कुर्बानी , पृष्ट १२ लेखक काजरी यार मुहम्मद

अभी तक तो इस्लाम के रसूल अल्लाह से बात करने, फरिश्तों  के युद्ध में लड़ने, चाँद के टुकडे होने जैसे चमत्कारों की बात किया करते थे.

लेकिन मिर्ज़ा साहब ने इससे आगे जाकर ये चमत्कार भी बढ़ा दिए कि वो गर्भवती हुए थे और  अल्लाह तआला पुरुषों पर अपनी पौरुष शक्ति (Sex Power) को जाहिर करता है I