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धर्म तर्क की कसौटी पर : प्रकृति के सिद्धान्त – आचार्य राम चन्द्र जी

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वैज्ञानिकों में प्राय: मतभेद पाया जाता है। भिन्न भिन्न विषयों में उनकी भिन्न भिन्न धारणाएं होती हैं। यह स्वाभाविक भी है। जब दो वैज्ञानिक परीक्षण आरम्भ करते हैं तो उनकी भिन्न भिन्न धारणाएं, भिन्न भिन्न शैलियां, परिस्थितियां और उपकरण होते हैं। अत: यदि उनके विचारों में भेद पाया जाए तो इसमें आश्चर्य का कोई कारण नहीं है। परन्तु संसार भर के वैज्ञानिक इस बात में एकमत हैं कि प्रकृति के सिद्धान्त एक है,अटल और अपरिवर्तनशील  हैं। उनमें कोई भी परिवर्तन नहीं हो सकता।

  जब हम प्रकृति का अध्ययन करते हैं तो हमें यह ज्ञात होता है कि प्रकृति सतत परिवर्तनशील है। जो आज है वह कल नहीं होगा। जो अवस्था इस समय है, दो क्षण पूर्व वह नहीं थी। दो क्षण में कितना परिवर्तन आ सकता है ? अभी आंधी आ सकती है, शान्त वातावरण में तूफान आ सकता है, वर्षा हो सकती है, सूर्य का तेज बढ़ सकता है। पर्वतों में बर्फ गिर सकती है, सैकडों मील भूमि उससे प्रभावित हो सकती है फिर भूकम्प आते हैं क्षण भर में पृथ्वी के हिलनें से नगर के नगर धराशायी हो जाते हैं। सहस्रों प्राणियो की मृत्यु हो जाती है, सैकड़ों एकड़ भूमि पर बालू बिछ जाती है। पर्वतों के बर्फीले भाग खिसक जाने हैं। लहलहाते उपवन और चहचहाते नगर वीरान हो जाते हैं    इतनें बड़े बड़े परिवर्तन होने पर भी कोई भी वैज्ञाानिक एक पल के लिए भी प्रकृति के सिद्धान्तों को परिवर्तनशील मानने को एक पल के लिए भी उद्यत नहीं होगा।

यदि प्रकृति के नियमों में स्थायित्व न होता तो संसार में एक भी अन्वेषणशाला न होती। प्रकृति के अस्थाई परिवर्तनशील नियमों को जानने की आवश्यकता किसी को भी अनुभव न होती। उदाहरणस्वरूप जब पानी का अध्ययन किया गया तो पता चला कि दो भाग हाईड्रोजन और एक भाग आक्सीजन को यदि मिलाया जाए तो उसका रूप पानी होता है। यह सिद्धान्त अटल है। देश काल परिस्थिति का इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। फिर चाहे वह गंगा का जल हो, टेम्ज+,वोल्गा वा मिस्सीसिप्पी का जल हो सर्वत्र यह नियम इसी रूप में कार्य करता है। अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया और अफ्रीका आदि स्थनों, सतयुग द्वापर, त्रेता अथवा कलियुग आदि युग तथा भूत भविष्य और वर्तमान काल के लिए भी बलपूर्वक यह कहा जा सकता है कि जल के विषय में सदा यही नियम कार्य करेगा।

विज्ञान की सर्वत्र यही  स्तिथी है। पाठशाला में आज जो रेखागणित अथवा बीजगणित के नियम पढ़ाए जाते हैं वे आज भी वे ही हैं जिनका यूक्लिड नें आरम्भ किया था। आर्यभÍ, पाइथागेारस, प्लैटो, न्यूटन, जगदीषचन्द्र वसु, रमन आदि संसार प्रसिद्ध वैज्ञानिकों नें प्रकृति के सिद्धान्तों का जो अध्ययन किया था, वही आज भी हमारे मतिष्कों को आलोकित कर रहा है।

वैज्ञानिकों की विचारधाराएं भिन्न भिन्न रही हैं। उनमें मतभेद भी रहे हैं। उसमें उनकी अपनी अल्पज्ञता अथवा किन्हीं कारणों से उचित निर्णय पर न पहुंच पाना जैसे कारण रहे। उन्होंने पुन: प्रयत्न किए और ठीक ठीक निर्णयों पर पहुंचकर अपने ज्ञान का परिष्कार किया।

कहते हैं यह विज्ञान का युग है। विज्ञान ने बड़ी उन्नति कर ली है। इससे केवल इतना ही तात्पर्य है कि पहले प्रकृति के जिन सिद्धान्तों से हमारा परिचय नहीं था, अब ऐसे असंख्य नियमों से हम परिचित हो गए हैं। प्रकृति विषयक हमारा ज्ञान पूर्वापेक्षा अधिक परिष्कृत हो गया है। हम प्राय: देखते हैं कि हमसे कभी कभी भूल हो जाती है और हम कुछ का कुछ समझ बैठते है। इस पर हम यह कभी नहीं कहते कि प्रकृति ने अपना नियम बदल लिया अब उसमें परिवर्तत हो गया है।

परिवर्तनशील वस्तु में परिवर्तन तो होगा ही। उदाहरण स्वरूप आपने धातु निर्मित कोई छड़ ली। नापने पर वह आठ फुट की पाई गई। कुछ कालोपरान्त नापने पर यह एक इंच अधिक पाई गई धातु की छड़ परिवर्तनशील हैं। इसलिए हम यह नहीं कह सकते पहले नापनें वाले से अवश्य ही भूल हुई थी। यह सम्भव है कि ताप के प्रभाव से लम्बाई में परिवर्तन आ गया हो।

इसी प्रकार कलकत्ता अथवा बम्बई का डेढ़ सौ वर्ष पूर्व का वर्णन पढ़ा जाय तो उसमें कितनी विभिन्नता मिलेगी । डेढ़ सौ वर्ष पूर्व कलकत्ता एक छोटी सी नगरी थी। आज गगनचुम्बी अट्टालिका इसकी शोभा बढ़ा रही हैं। किस प्रकार मछुआरों का एक गांव आज का इतना बड़ा नगर हो गया। बम्बई भी किस प्रकार उन्नत हो गया। इस सब को देखकर हम यह तो न कहेंगे कि १५० वर्ष पूर्व किसी पर्यटक नें इन नगरों का भ्रान्तिपूर्ण वर्णन कर दिया। रामायण मे प्रयागराज का वर्णन है। वह वर्णन वर्तमान के प्रयाग से कितना अलग है। क्या इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वाल्मीकि जी ने प्रयागराज की कल्पना मात्र की थी।

परन्तु प्रकृति के सिद्धान्तों का जो वर्णन वर्तमान बाईबल में पाया जाता है उस पर कौन विश्वास करेगाा। बाईबल में पृथ्वी को चपटा माना गया है। वहां पृथ्वी को गतिशील भी नहीं माना गया। हमारा मस्तिष्क कभी भी इस बात को स्वीकार नहीं करेगा कि पृथ्वी कभी चपटी रही होगी अथवा यह किसी समय सूर्य का चक्कर नहीं लगाती होगी। आज का कोई विद्यार्थी ऐसी भूल नहीं करेगा। और विक्षिप्त व्यक्ति तो ऐसी धारणाओं का उपहास उड़ाएगे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रकृति परिवर्तनशील है परन्तु उसके नियम अटल हैं। भ्रम इसलिए होता है कि हमने प्रृकृति और इसके सिद्धान्त को ठीक प्रकार नहीं समझा। हम कहते हैं प्रकृति के सिद्धान्त या  सोने का रंग इन दोनों में का और के अर्थों पर विचार करो। जब हम सोने का रंग कहते हैं तो इसमें का शब्द का वह अर्थ नहीं होता जो प्रकृति का सिद्धान्त मे का शब्द का है। यहां सोना एक वस्तु है और वह आधार है रंग का। परन्तु जब हम प्रकृति के सिद्धान्त कहते है तो यहां सिद्धान्त प्रकृति का आधार स्वरूप नहीं है। प्राय: शब्दों की खींचतान समाज में की जाती है। बाल की खाल निकाली जाती है। इससे प्रकृति के सम्बन्ध में अनेक भ्रान्त धारणाएं लोगों के हृदय में स्थान पा जाती हैं। इस प्रकार की खींचतान से अप सिद्धान्त प्रचलित हो जाते हैं उनका विचारपूर्वक अध्ययन करना चाहिए।

प्रकृति में विभिन्नताएं प्रकट करनें वाली आश्चर्यजनक घटनाएं समाचार पत्रों में बहुधा स्थान पा जाती हैं। उनका सहारा पाकर अनकों पौराणिक कथानकों की पुष्टी की जाती है। अमुक स्त्री के सांप उत्पन्न हुआ, अमुक बालक के दो मुख थे और एक शरीर, अमुक बालक के मुख पर हाथी जैसी नाक थी। अमुक घोड़ी नें बकरी को जन्म दिया। यह सब विभिन्नताएं देखनें में तो आश्चर्यजनक होती है, परन्तु सन्तति’शास्त्र के उल्लंघन मात्र से एसी घटनाएं हो जाती हैं। दो मुख वाला बालक होना या हाथी जैसा मुख होने से यह सिद्ध नहीं होता कि मानवी माता हाथी को जन्म दे सकती है। ऐसी ऐसी रेत की नींव पर बड़े बडे हवाई किले खड़े कर लिए जाते हैं। बुद्धिमान व्यक्ति अपनी कल्पना की उड़ान से ऐसी ऐसी धारणाओं को जन्म देते है कि जिससे समाज की महान क्षति होती है। यह विचार ही है जो मानव के परिष्कार अथवा पतन का कारण बनते है उदाहरण स्वरूप कुछ ज्ञान शास्त्र की कोटि में आ गए हैं। सूर्य सिद्धान्त का ज्ञान वास्तविक है परन्तु क्या  फलित ज्योतिष जिसको जिस किसी प्रकार सूर्य सिद्धान्त से जोड़ दिया गया है, इसको कौन युक्ति युक्त कहेगा ? ग्रहों का हेर फेर, अमुक ग्रह में उत्पन्न व्यक्ति अमुक भाग्य रखेगा इसको कौन बुद्धिमान व्यक्ति स्वीकार करेगा। जिन ग्रहों के फेर हमारे देश में विपत्तियों की आंधी आ रही है अमरीका और रूस देश वासी उनमें क्या क्या नहीं कर रहे। ग्रहों के हेर फेर,उच्चाटन, मारण की क्रियायें, दानवों की कपोल कल्पनाएं,जादू टोने, आत्माओं का आवाहन आदि अनेक विद्याएं हैं जिनकी जड़ समाज में गहरी जम चुकी हैं। यह सब केवल भ्रान्तियां है जो मानव जाति में जड़ता की वृद्धि कर रही हैं।

 

Making of Bharat Desh

 

jagrut bharat

वेदों के अनुसार भारत  देश.

राजा द्वारा भारत देश निर्माण

गौ ,शिक्षा और राजा के आचरण, इन तीन का राष्ट्र निर्माण मे महत्व

 RV5.27

 

 ऋषि:- त्रैवृष्ण्याष्ययरुण:,पौरुकुत्सस्त्रसदस्यु:भारतोश्वमेधश्च राजान: ।

अग्नि:, 6 इन्द्राग्नी। त्रिष्टुप्, 4-6 अनुष्टुप्।

ऋषि: = 1. त्रैवृष्णा:= जिस के उपदेश तीनों  मन शरीर व आत्मा के सुखों को शक्तिशाली बनाते  हैं  

            2. त्र्यरुण:= वह तीन जो  मन शरीर व आत्मा के सुखों को प्राप्त कराते हैं

            3.पौरुकुत्स त्रसदस्य: = जो राजा सज्जनों का पालक व तीन (दुराचारी,भ्रष्ट , समाज द्रोही)

              दस्युओं को दूर करने वाला

4. राजान भारतो अश्वमेध: ;

भारतो  राजान:  – राजा जो स्वयं की यज्ञमय आदर्श जीवनशैलि  से प्रजा को भी यज्ञीय

मनोवृत्ति वाला बना कर राष्ट्र का उत्तम भरण करता है .

               अश्वमेध: – अश्व- ऊर्जा  और मेधा- यथा योग्य मनन युक्त आत्म ज्ञान को धारण करने वाली

परम बुद्धि

            इन्द्राग्नी = इन्द्राग्नि: = उत्साह और ऊर्जा से  पूर्ण सदैव अपने लक्ष्य को प्राप्त करने मे विजयी व्यक्ति  Have fire in their belly to be ultimate Doers

 

COWS’ role in Vision for Bharat varsh  Nation

1.    अनस्वन्ता सत्पतिर्मामहे मे गावा चेतिष्ठो असुरो मघोन: ।

त्रैवृष्णो अग्ने दशभि: सहस्रैर्वैश्वानर ष्ययरुणश्चिकेत ।।RV5.27.1

(गावा चेतिष्ठ:) गौओं से  प्राप्त उत्तम चेतना द्वारा (सत्पति: ) सज्जनों के पालन के लिए भूत  काल की उपलब्धियों के अनुभव के आधार पर  वर्तमान और भविष्य के लिए (तीनों काल )(त्रैवृष्ण:)में शरीर, मन, बुद्धि  तीनों को  शक्तिशाली बनाने वाली (असुरो मघोन:) ऐश्वर्यशाली प्राण ( जीवन शैलि ) को  (त्र्यरुण:) शरीर , मन और बुद्धि  के लिए ज्ञान ,कर्म और उपासना द्वारा  (दशभि: सहस्रैर्वैश्वानर) समस्त प्रजा की प्रवृत्तियों की  धर्म अर्थ और काम की उन्नति के लिए (अनस्वन्ता) उत्तम वाहनों से युक्त समाज, (मामहे) उपलब्ध कराओ.

Excellent cows should be ensured to build physically healthy, peaceful and high intellectual society. Current and Future planning should be based on experience of past working results, to obtain excellent Health, Mentality and Intellect in the nation to provide for a prosperous life style. Such a nation is self motivated in following the path of righteous behavior, charitable disposition and God loving conduct in their daily life.

Among other things excellent infrastructure of communication, transport should be provided.

Hundreds of well fed cows

 2.यो मे शता च विंशतिं च गोनां हरी च युक्ता सुधुरा ददाति ।

वैश्वानर सुष्टुतो वावृधानोऽग्ने यच्छ त्र्युरुणाय शर्म ।। RV 5.27.2

(वैश्वानर) धर्म अर्थ और काम को प्राप्त कराने वाली ऊर्जा और (वावृधान: अग्नि:) निरन्तर प्रगति देने वाले यज्ञ (त्र्यरुणाय) शरीर, मन और बुद्धि  के लिए सेंकड़ों गौओं और  बीसियों  उत्तम शकटों से (हरी:) जितेंद्रिय पुरुषों से –भौतिक साधनों और श्रेष्ठ समाज से  युक्त हो कर  (शर्म यच्छ) विश्व का कल्याण  प्राप्त करो

Urge for continuous strong positive motivation based activities in individuals creates a prosperous, peace loving, healthy, self disciplined sustainable society with hundreds of cows and dozens of carts loaded with green fodder for cows for a organic food, and good infrastructure base. Nation provided with such infrastructure has a society that is rich in physical resources, and  has well behaved people for welfare of the world.

Planning in Nation

3. एवा ते अग्ने सुमतिं चकानो नविष्ठाय नवमं त्रसदस्यु: ।

     यो मे गिरस्तुविजातस्य पूर्वीर्युक्तेनाभि ष्ययरुणो गृणाति ।।RV 5.27.3

तेजस्वी विद्वान प्रकृति के विधान और अनुभव से प्राप्त ज्ञान के उपदेशों की कामना करता हुआ सब वासनाओं से मुक्त समाज के निर्माण द्वारा भविष्य के लिए उत्तम नवीन समाज की  आवश्यकताओं की पूर्ती और  तीनो प्रकार तन , मन और आत्मा से सुखी समाज का निर्माण करता है और सब से ऐसी विचार धारा का सम्मान करने को कहता है.

Bright enlightened intellectual leadership seeks guidance from Nature the environment friendly and traditional empirical wisdom to build a hedonism free culture for the growing needs and aspirations of future generations. By honoring and propagating such wisdom only an ideal and happy society is evolved.

Education in Nation

 4. यो म इति प्रवोचत्यश्वमेधाय सूरये ।

दददृचा सनिं यते ददन्मेधामृतायते ।।RV 5.27.4

(राजा का दायित्व है कि ) जो विद्वद्जन (राष्ट्र की उन्नति के लिए) समाज में ऊर्जा (भौतिक और आत्मबल ) के विस्तार और सत्य असत्य के निर्णय करने मे समाज को सक्षम  करने के वेद विद्यानुसार उपदेश करते  हैं,उन को सम्माननीय पद दे  और उन का सत्कार करे.

For growth of the nation it is responsibility of King recognize, honor and promote intelligent teachers that develop the society by educating it in growth conservation of physical energies and their mental energies, with ability to discern truth from untruth.

Bulls make excellent Nation

5. यस्य मा परुषा: शतमुध्दर्षयन्त्युक्षण: ।

अश्वमेधस्य दाना: सोमा इव त्र्याशिर: ।। RV5.27.5

(यस्य मा शतम्‌ उक्षण: परुषा:) जो मेरे लिए , सेंकड़ो क्रोध  से  रहित सधे हुए वीर्य सेचन में समर्थ उत्तम वृषभ और  कठिन परिश्रम साध्य बैल, (त्रयाशिर:)   तीनों – बालक,  युवा, वृद्ध तीनों प्रजाजनों  के लिए – राष्ट्र में (अश्वमेध-ऊर्जा और मेधा)  –  तीनों  वसु (भौतिक सुख के साधन) रुद्र रोगादि से मुक्त,आदित्य सौर ऊर्जा के द्वारा, तीनों दूध,दही और अन्न  (सोमा: इव) श्रेष्ठ मानसिकता  तीन प्रकार से  शरीर को नीरोग,मन को निर्मल बुद्धि को तीव्र बनाते और (दाना:)इन दानों से  (उद्धर्ष्यन्ति ) उत्कृष्ट उल्लास का कारण बनते हैं .

Bulls that have excellent breeding soundness for providing excellent cows and oxen that are strong and mild mannered to provide power to the nation

Provide excellent health nutrition and intellect to all the three ie. infants youth and old persons with three bounties of happiness ie. Healthy environments, cheerfulness and solar energy by the three items of cows milk, curds and organic food to provide the three bounties of healthy disease free life, positive attitudes in life and sharp intellect to spread happiness all round.

6. इन्द्राग्नी शतदाव्न्यश्वमेधे सुवीर्यम् । 

क्षत्रं धारयतं बृहद् दिवि सूर्यमिवाजरम् ।।RV 5.27.6

उत्साह और ऊर्जा से  पूर्ण सदैव अपने लक्ष्य को प्राप्त करने मे विजयी,  योग्य मनन युक्त आत्मज्ञान  को धारण करने वाली परम बुद्धि से युक्त समाज,  असङ्ख्य पदार्थों से सूर्य के सदृश उत्तम पराक्रम तथा बलयुक्त  नाश से रहित महान राष्ट्र का निर्माण होता है.

Thus is created a Nation that is strong to protect itself from all destructive internal and external enemies, where the society consists of a prosperous, self motivated well behaved intelligent people.

वेदों में गुण, कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था

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वेदों में गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था:-

लेखक – विपुल प्रकाश 

अक्सर लोगो में एक भ्रान्ति देखने को मिलती है कि वेदों  में जन्माधारित वर्ण व्यवस्था है। और साथ साथ लोग ये भी कह्ते हैं कि आर्य जाति के लोगों ने शुद्र जो कि भारत के मूल निवासी थे उनको अपना मातहत बनाया और वेदाध्ययन से वञ्चित रखा । सर्वप्रथम तो हम यह विचार करे कि वेदों में आर्य शब्द गुणसूचक है अथवा जातिसूचक।

कृणवन्तो विश्वमार्यम्

अर्थात् “सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाना है” ऐसा वेदों में लिखा हुआ है। अब सवाल यह उठता है कि अगर आर्य कोई जाति विशेष है जिस प्रकार अफ़्रीकन,अमेरिकन इत्यादि,फ़िर तो इस कथन का कहना कभी सार्थक नही हो सकता है। कारण यह कि अफ़्रीकन नस्ल का व्यक्ति मृत्युपर्यन्त भी अमेरिकन नस्ल का नही बन सकता है। इससे यही सिद्ध होता है कि आर्य कोई जातिसूचक शब्द नही अपितु एक गुणसूचक शब्द है।

अब सवाल उठता है कि ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र में से आर्य कौन और अनार्य कौन है ?

तो इसका उत्तर है कि वेदो में कर्मों के आधार पर  मनुष्यों का विभाजन आर्य और दस्यु के रूप में किया गया है और आर्यों (कर्म से श्रेष्ठ) के बीच गुणों के आधार पर आर्य और शूद्र के रूप में :-उत शूद्रे उतार्ये।। (अथर्व. 19.62.1)।

इससे स्पष्ट होता है कि ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य आर्य (गुणों के आधार पर श्रेष्ठ ) हैं और शूद्र अनार्य है। अब चूकि वेदों मे कृणवन्तो विश्वमार्यम् की बात लिखी हुई है तो इससे ये स्पष्ट होता है कि शूद्रों को भी आर्य बनाया जाना सम्भव है क्योकि आर्य बनाना तो अनार्य के लिए ही सार्थक है भला जो पहले से ही आर्य है उसे फ़िर से दोबारा आर्य बनाने का क्या अर्थ रह जाता है?अतः वेद स्पष्ट रूप से ये आदेश देते है कि अगर कोइ शूद्र भी उत्तम गुण कर्मो वाला हो तो वह आर्य अर्थात ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य बन सकता है।

और आर्य गुण कर्म के आधार पे ही होना सम्भव है इसिलिये कोई आर्य कुल( ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य) में पैदा हुआ व्यक्ति भी गुण कर्म से श्रेष्ठ  न होने पर अनार्य अर्थात शूद्र हो जाएगा ऐसा वेदों का आदेश है। अब अगर शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण शूद्र तो फ़िर क्षत्रिय व वैश्य भी इसी प्रकार से वर्ण परिवर्तन को प्राप्त हो सकते हैं । अगर दूसरे शब्दों में बोला जाये तो किसी भी वर्ण का व्यक्ति अन्य तीनो वर्णो को प्राप्त कर सकता है। और तो और अगर  दस्यु   भी उत्तम कार्य करने लगे तो आर्य बन जाएगा।

ऋषि दयानंद सरस्वती द्वारा लिखित विवाह विधि वैदिक, युक्तिसंगत है

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ऋषि दयानंद सरस्वती द्वारा लिखित  विवाह विधि वैदिक, युक्तिसंगत है –

सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में स्वामी जी ने कहा –

“जब तक इसी प्रकार सब ऋषि-मुनि, राजा-महाराजा आर्य लोग ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ ही के स्वयंवर विवाह करते थे तब तक इस देश की सदा उन्नति होती थी | जब से ब्रह्मचर्य से विद्या का न पढना, बाल्यावस्था में पराधीन, अर्थात माता-पिता के अधीन विवाह होने लगा; तब से क्रमश: आर्यावर्त देश की हानी होती चली आई है |इससे इस दृष्ट काम को छोड़ के सज्जन लोग पूर्वोक्त प्रकार से स्वयंवर विवाह किया करे |

“ जब स्त्री-पुरुष विवाह करना चाहे तब विद्या, विनय, शील, रूप, आयु, बल, कुल, शरीर का परिमाण आदि यथा योग्य होना चाइये | जब तक इनका मेल नहीं होता तब तक विवाह में कुछ भी सुख नहीं होता | न बाल्यावस्था में विवाह करने में सुख होता है |

“कन्या और वर का विवाह के पूर्व एकांत में मेल ने होना चाइये, क्यों की युवावस्था में स्त्री-पुरुष का एकांत वास दूषण कारक है |

“परन्तु जब कन्या व वर के विवाह का समय हो, अर्थात जब एक वर्ष व छह महीने ब्रह्मचर्य आश्रम और विद्या पूरी होने में शेष रहे तब कन्या और कुमारो का प्रतिबिम्ब, अर्थात जिसको ‘फोटोग्राफ’ कहते है अथवा प्रतिकृति उतारके कन्याओ की अध्यापिकाओ के पास कुमारो की और कुमारों के अध्यापको के पास कन्याओ की प्रतिकृति भेज देवे |

“ जिस-जिस का रूप मिल जाए, उस-उसका इतिहास अर्थात जन्म से लेके उस दिन पर्यंत जन्म-चरित्र का जो पुस्तक हो, उसको अध्यापक लोग मंगवा के देखे | जब दोनों के गुण-कर्म-स्वाभाव सदृश हों तब- जिस-जिसके साथ जिसका विवाह होना योग्य समझे उस-उस पुरुष व कन्या का प्रतिबिम्ब और इतिहास कन्या और वर के हाथ में देवे और कहे कि इसमें जो तुम्हारा अभिप्राय हो सो हम को विदित कर देना |

“ जब उन दोनों का निश्चय परस्पर विवाह करने का हो जाए तब उन दोनों का समावर्तन एक ही समय में होवे | जो वे दोनों अध्यापकों के सामने विवाह करना चाहें तो वहा, नहीं तो कन्या के माता-पिता के घर में विवाह होना योग्य है | जब वे समक्ष हों तब अध्यापकों व कन्या के माता-पिता आदि भद्र पुरषों के सामने उन दोनों की आपस में बात-चित, शास्त्रार्थ करना औरजो कुछ गुप्त व्यवहार पूछे सो भी सभा में लिखके एक दुसरे के हाथ में देकर प्रश्नोत्तर कर लेवे इत्यादि |

प्रश्न :- अब यहाँ विधर्मी शंका यह करते है “ स्वामी दयानन्दजी ने विवाह संस्कार में जो यह लिखा है कि विवाह स्वयंवर रीती से होना चाइये, कन्या और वर की इच्छा ही विवाह में प्रधान है | कन्या और वर सबके समक्ष वार्तालाप व शास्त्रार्थ करे इत्यादि |यह सब बातें वेद शास्त्र के विरुद्ध है | आर्य समाजियों का यह दावा है कि स्वामी दयानंद की शिक्षा वैदिक है, अत: वे इन सब बातों को सिद्ध करने के लिए वेद, शास्त्रों के प्रमाण देवे |

समाधान :- ऋषि दयानंद जी ने विवाह के सम्बन्ध में सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रंथो में लिखी है वे सब वेद, शास्त्रों और इतिहास के अनुकूल तथा युक्ति संगत है | इस बात को सिद्ध करने के लिए प्रमाण नीचे दिए जाते है |

प्रमाण संख्या १

तमस्मेरा युवतयो युवानं ……………यन्त्याप: | ऋग्वेद २/३५/४

भावार्थ : जवान स्त्रिया उत्तम ब्रह्मचर्य से युक्त होकर जवान ब्रह्मचारी पुरषों को जैसे जल वा नदी स्वयं समुद्र को प्राप्त होती है वैसे स्वयमेव प्राप्त होती है |

प्रमाण संख्या २

कियती योषा मर्यतो ……………………………….वार्येण |

भद्रा वधुभर्वति ……………………………………..जने चित || ऋग्वेद १०/२७/१२

भावार्थ : १. प्रथम, स्त्री-पुरुष का परिमाण यानी लम्बाई, चौड़ाई, बल, दृढ़ता आदि गुणों को देखना चाइये | २. स्त्री, पुरुष ऐसे हो जो एक दुसरे के गुणों को देककर परस्पर प्रीटी व अनुराग करनेवाले हो | ३. वधू कल्याण करनेवाली हो, भद्र देखनेवाली, भद्रा चरण करनेवाली, सुन्दर दृढ हो | ४. विवाह सब जनों के समक्ष होना चाइये और कन्या स्वयमेव उस जन समूह में से गुण-कर्म-स्वभाव देखकर वर को पसंद कर लेवे |

प्रमाण संख्या ३

१.      अपश्यं त्वा मनसा चेकितानम……………………..तपसो विभुतम |

इह प्रजमिह रयिं…………………………..प्रजया पुत्रकाम ||

२.      अपश्यं त्वा  मनसा दिध्यानाम ………………….ऋतव्ये नाधमानाम |

उप मामुच्चा युवति………………………………..प्रजया पुत्रकामे || ऋग्वेद १०/१८४/१-२

भावार्थ : कन्या कहती है कि हे वर ! मैंने तुमको परीक्षा पूर्वक अच्छी प्रकार देख लिया है कि तुम मुझसे विवाह के योग्य हो और मैंने यह भी जान लिया है की तुमने तपश्चर्या से विद्या, ज्ञान को प्राप्त किया है तथा रूप, लावण्य, बल, पराक्रम को बढाया है | इस संसार में प्रजा व धन की इच्छा करते हुए, हे पुत्र की कामना करने वाले ! विवाह करके मेरे साथ गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करो |

इन उपयुक्त दो मंत्रो से ये बाते स्पष्ट होती है —

१.      कन्या-वर-एक दुसरे की सबके समक्ष परीक्षा करे | जब उन दोनों को निश्चय हो कि हम दोनों के गुण-कर्म-स्वभाव परस्पर मिलते है तब वे परस्पर मिलते है तब वे परस्पर एक-दूसरे को जतलाकर वार्तालाप करके विवाह करे |

२.      विवाह से प्रथम कन्या तथा वर तपश्चर्या पूर्वक विद्याध्यन करनेवाले तथा बल, पराक्रम, रूप लावण्य को बढ़ानेवाले हो |

३.      कन्या-वर अत्यंत जवान हों | इससे बाल्यावस्था के विवाह का सर्वथा निषेध हो जाता है और उन दोनों का परस्पर ज्ञान हो किदोनों पुत्र की कामना करनेवाले और संतान-विज्ञानं के पंडित है |

प्रमाण संख्या ४

वांछ में तन्वं पादौ ……………………………..वांछ सकथ्यौ |

अक्षौ वृषन्यन्त्या केशा:…………………………..कामेन शुश्यन्तु || अथर्व वेद ६/९/१

भावार्थ : वर कहता है कि तू मेरे शरीर, पैरो, और आँखों को पसंद कर | मै तुम्हारे रूप-लावण्यादी बातों को पसंद करता हु |

इस मंत्र में यह बात स्पष्ट है कि वर-कन्या के अंग-प्रत्यंग की भी परीक्षा करनी चाइये | जब दोनों के अंग-प्रत्यंग निर्दोष हो तब उनका परस्पर विवाह होना चाइये |

इस मंत्र अनुसार कन्या-वर का एक दुसरे को परस्पर देखना, एक-दुसरे के पास एक-दुसरे का फोटो भेजना, अध्यापक व अध्यापिकाओ द्वारा परीक्षा करना आदि सब बाते आ जाती है | इन मंत्रो पर मनु का ने निम्नलिखित श्लोक में कहा है –

“जिसके सरल-सुधे अंग हो, विरुद्ध न हो, जिसका नाम सुन्दर अर्थात यशोदा, सुखदा, आदि हो, हंस और हथिनी के तुल्य जिसकी चाल हो, सुक्ष्म लोम केश और दन्त युक्त हो, सब अंग कोमल हो. ऐसी स्त्री के साथ विवाह होना चाइये | मनुस्मृति ३/१०

प्रमाण संख्या ६

एतैरेव गुनैर्युक्त: ……………………वर: |

यत्नात परीक्षित: …………………….धीमान जनप्रिय: || याज्ञवल्क स्मृति १/५५

भावार्थ : इन गुणों से युक्त, सवर्ण, वेद के जाननेवाला, बुध्दिमान, सब जनों से प्यार करनेवाला, जिसको पुरुषत्व की यत्न से परीक्षा की है वह वर विवाह के योग्य है |

कहो, विधर्मियो ! तुम जो ऋषि दयानंद की विवाह परीक्षा पर आक्षेप करते हो | उपहास करते हो, क्या कोई वर-वधु परीक्षा विधि पर आचरण करने को तयार है ? क्या कोई इस परीक्षा के अनुसार ब्रह्मचारी रहने को तयार है ? यह परीक्षा वेदों और अन्य शास्त्रों में रहते हुए ऋषि दयानंद पर शंका करते हो | इस पर इन्हें लज्जित होना चाइये |

प्रमाण संख्या ७

कुलं च शीलं च वपुर्वयश्च विद्याम…………………….च सनाथतं च |

एतान गुनान सप्त ……………………………………….शेषमचिन्तनीयम || – प० सं० आ० का० ३/२/१९

भावार्थ – कुल, शील, शरीर अवस्था. आयु, विद्या,धन, सनाथता – इन सात गुणों की परीक्षा करके फिर कन्या देवे |

इस स्मृति-वचन में विवाह के लिए जो बातें ऋषि दयानंद जी महाराज ने बतलाई है प्राय: वे सब आ गई है | यदि इन बातों को देककर विवाह किया जाये तो संसार के बहोत से दुःख स्वयमेव नष्ट हो जाये |

उपयुक्त लेख में हमने वेद-शास्त्र, स्मृति आदि प्रमाण देकर यह सिद्ध कर दिया है की ऋषि दयानंद महाराज ने विवाह सम्बन्ध में जो बातें लिखी है वे सब वैदिक, युक्तिसंगत तथा संसार के कष्ट को मिटानेवाली है |

पाठ्य ग्रन्थ :- मीरपुरी सर्वस्व – पंडित बुद्धदेव मीरपुरी 

नवजीवन-उत्पादक वैदिक शिक्षाये

brahmacharya

नवजीवन-उत्पादक वैदिक शिक्षाये

लेखक – श्री डॉक्टर केशवदेव शास्त्री 

भारतवर्ष की प्राचीन संस्कृति का प्रधान अंक ब्रह्मचर्य की शिक्षा था | ब्रह्मचर्य पर ही संस्कारो का आधार था | ब्रहमचर्य पर ही योग की ऋषि सिद्धियो का दारोमदार था | समय था जब विश्वास पूर्वक ऋषि महर्षि ब्रह्मज्ञान के जिज्ञासुओ को ब्रह्मचर्य के धारण करने और तदन्तर प्रश्नों के उत्तर मांगने का आदेश दिया करते थे | समय की निराली गति ने भारत वर्ष के निवासियों की वह दुर्दशा की कि जंहा नित्य प्रति लोग ब्रह्मचर्य के गीत गाते थे, वाही बाल विवाह का शिकार बन रहे है | सुश्रुत में बताया है कि यदि २५ वर्ष से न्यून आयु का पुरुष और १६ वर्ष से न्यून कि कन्या विवाह करेंगे तो प्रथम तो कुक्षि में ही गर्भ कि हानि होंगी | यदि बालक उत्पन्न हो भी जावे तो चिरकाल पर्यंत जीवेंगा नहीं और यदि जीता भी रहा तो दुर्बलेन्द्रिय होंगा |

पाठक गण ! विचारिये, आज हमारी क्या स्तिथि है ? क्या लाखो बालक बालिकाये शिशु जीवन धारण कर मर नहीं रहे और यदि जीते भी है तो करोडो नर नारी दुर्बलेन्द्रिय बन रोगों में ग्रसित दिखाई देते है | कितनी बार हम लोगो ने इन जातीय त्रुटियों पर आंसू बहाये है परन्तु निदान ही जब भूल युक्त हो तो लाभ कि आशा कैसे हो सकती है ?

वेद ने तो स्पष्ट कहा है कि :-

ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम |

अंडवान ब्रह्मचर्य्येणाश्वो घासम जिघिर्षति ||

गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकार केवल ब्रह्मचारी पुरुष और ब्रह्मचारिणी कन्या को ही प्राप्त है |

शाकभोजी बैल और घोड़े ब्रह्मचर्य कि शक्ति द्वारा बोझ को खींचते और विजय को प्राप्त करते है | जब पशु ब्रह्मचर्य कि महिमा से कितनी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक उन्नति कर सकते है, इसका कोई परिमाण नहीं | वेद में तो दर्शाया है कि कोई राजा योग्य व्यक्ति बन उतमता से राज्य भी नहीं कर सकता जो पूर्ण ब्रह्मचारी न हो | यथा :-

ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं विरक्षति |

आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिछ्ते ||

ब्रह्मचर्य और तपस्या द्वारा राजा राज्य की विशेष रीति से रक्षा करता है और आचार्य ब्रह्मचर्य द्वारा ब्रह्मचारी तथा तपस्वी होना चाइये तभी उसमे रक्षक की क्षमता उत्पन्न हो सकती है |

जो महात्मा आचार्य बनना चाहे उसे प्रथम स्वयं ब्रह्मचारी बनना उचित है | ब्रह्मचर्य की वृति से वह मेधावी बन ब्रह्मज्ञान का उपदेश कर सकता है |

ब्रह्मचर्य का किसी समय इतना प्रचार था कि इस देश में आने वाले महापुरषों ने इस शिक्षा का प्रचार सर्वत्र भूगोल में कर दिया था | आर्यो का तो ब्रह्मचर्य में यहाँ तक विश्वास था कि प्रत्येक तपस्वी ब्रह्मचर्य को धारण करता और म्रृत्यु पर विजय पाने की कामना किया करता था |

अथर्ववेद के इसी अध्याय में वर्णित है कि-

इन्द्रो  तपसा देवा मृत्यु मुपाघत |

इन्द्रो ह  ब्रह्मचर्येण देवेभ्य: स्वराभरत ||

ब्रह्मचर्य और ताप के द्वारा देवो ने मृत्यु को नष्ट कर दिया | ब्रह्मचर्य द्वारा ही इन्द्र देवो के लिए सुख लाया है | वेद में एक सौ  वर्ष पर्यंत जीने का आदेश मिलता है | आत्मा सुखी तभी रहता है जब इन्द्रिय स्वस्थ हो जब सौ वर्ष पर्यंत वह सबल रहकर अपने अपने कर्त्तव्य का यथोचित पालन करे | क्यों कि जीवात्मा ब्रह्मचर्य द्वारा ही इन्द्रियों को सुखी बना सकता है | स्वस्थ स्त्री पुरुष ही आनंद मय जीवन का उपभोग कर सकते है |

इस प्रकार वेद में ब्रह्मचर्य कि महिमा पर अनेक वेद मंत्रो द्वारा उपदेश दिया गया है | ब्रह्मचर्य की अवधि २४, ३६, और ४८ वर्ष पुरषों के लिए और ३६, १८, और २४ वर्ष स्त्रियों के लिए बतलाया गया है |

४८ वर्ष का ब्रह्मचर्य उत्तम बताया गया है, २५ वर्ष का निकृष्ट परन्तु हम है की अपने बालक बालिकाओ को २४ और १६ वर्ष की आयु तक पहुचने ही नहीं देते कि उनके विवाहों कि चिंता करने लगते है | वेदानुसार तो वर कन्या को पारस्परिक स्वयम्वर रीति द्वारा विवाह कि आज्ञा है | आज पौराणिक संसकारो में फंसी हुई आर्य संतान वर और कन्या के अधिकार छीन माता-पिता को विवाह का अधिकार दिए बैठे है | अनपढ़ पठान ब्रह्मचर्य द्वारा हष्ट पुष्ट संतान पैदा कर सकते है परन्तु वेदों के मानने वाले आर्य दुर्बलेन्द्रिय बन अपने शरीरों को बोदा और निकम्मा बना रहे है | आवश्यकता है कि आर्य नर नारी वेद की ब्रह्मचर्य सम्बन्धी शिक्षा की और अधिक ध्यान दे और अपने अंदर विश्वास धारण करे की ब्रह्मचारी अमोघ वीर्य होता है | ऋतुगामी गृहस्थी कर संतान उत्पन्न कर सकते है | इस लिए ब्रह्मचारी व ब्रह्मचारिणी बन वह अपने शरीरों को सदृढ़, सबल और हष्ट पुष्ट रखे ताकि उनमे सभी शक्तियो  का प्रादुर्भाव हो और वह निरंतर स्वस्थ चित्त हो एक सौ वर्ष पर्यंत स्वाधीन और आनंदमय जीवन को धारण कर सखे |

मूर्तिपूजा-अवैदिक

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ओउम्

प्राक्कथन

यद्यपि प्रस्तुत पुस्तक छोटी है परन्तु लेखक ने इस विषय वस्तु से सम्बंधित अनुच्छेदों के संकलन में संभवतः सभी यूरोपीय आधिकारिक सूत्रों से विचार-विमर्श किया है और आशा है कि ध्यान आकर्षण करने वाले ये सभी अनुच्छेद पाठकगणों के विश्वास प्राप्त करेंगे।

प्रसिद्धआर्य समाज विद्वानों द्वारा पुनरावलोकन

(१) इस छोटी पुस्तिका में स्वामी मंगलानंद पूरी ने यूरोपीय और भारतीय संस्कृत विद्वानों और कुछ इतिहासकारों के भी विचारों का संकलन करके यह सिद्ध किया है कि मूर्तिपूजा वेद सम्मत नहीं है। जिन लोगों की ऐसी धारणा है कि मूर्तिपूजा वेद सम्मत है उनके लिए ये पुस्तिका विशेष लाभकारी है। वैदिक विचारधारा से अनभिज्ञ जनसामान्य में ये पुस्तिका निशुल्क वितरित की जानी चाहिए।

घासीदास, एम.ए. एल.एल.बी.

अधिष्ठातागुरुकुल ब्रिन्दाबन एवं अध्यक्ष आर्य प्रतिनिधि सभा उ.प्र.(मेरठ)

(२) स्वामी मंगलानंद पूरी द्वारा मूर्तिपूजा-अवैदिक पुस्तिका: लेखक ने शब्दों के  पक्के और विश्व के प्रसिद्ध यूरोपीय और एशियाई सूत्रों के अच्छे-खासे लेखोंका संकलन करके यह स्थापित किया है कि वेदों में मूर्तिपूजा का कोई समर्थन नहीं है और सफलतापूर्वक यह सिद्ध किया है कि मूर्तिपूजा का मूल इसाई मत में है ।

यह पुस्तिका निर्देशात्मक और रुचिपूर्ण है साथ ही दिए गए उद्धरण प्रेरणादायक और लाभकारी हैं। कम मूल्य में पुस्तिका उपलब्ध करा कर लेखक ने निश्चय ही असाधारण काम किया है।

बाबूश्याम सुन्दरलाल बी.ए. एल.एल.बी.

अधिवक्ता, अध्यक्ष आर्य समाज मैनपुरी

(३) लेखक धन्यवाद के अधिकारी हैं जिन्होंने इतनी अच्छी पुस्तिका बनाई जो सभाओं और समाजों द्वारा महाविद्यालयऔर विद्यालय के उच्च कक्षाओं के छात्रों को वितरित की जानी चाहिए। शुल्क यद्यपि कम है पर महत्व की दृष्टी से यह पुस्तिका अनमोल है और महाविद्यालय के नवजवान छात्रों की अध्यात्मिक उन्नति केलिए विशेष रूप से लाभदायक है जिससे उन्हें परमात्मा के निराकार स्वरुप की उपासना की शिक्षा मिलेगी ।

श्रीमान राव (मास्टर) आत्मा राम जी अमृतसरी

आर्य समाज के श्रेष्ठ नेताओ में से एक

 

                                                                                                                                    ओउम्

मूर्तिपूजा-अवैदिक

यूरोपीय व्याख्यानों में

आज के समय में एक हिन्दू सामान्यतःमूर्तिपूजक होता है परन्तु आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती ने पूरेविश्व को बताया कि ना तो पुरातन कालीन हिन्दू (आर्य) मूर्तिपूजक थे ना ही वेदादि सत्यशास्त्रों और आर्ष ग्रंथों में मूर्तिपूजा का लेशमात्र भी संकेत  हैं।

स्वामी जी की सत्यता इसी से प्रमाणित होती है कि अन्य पक्षपात रहित वेद विद्वान भी इसी निर्णय पर पहुंचे और मूर्तिपूजाका पुरजोर विरोध किया।अतः हम यहाँ यूरोपीय एवं अन्य संस्कृत विद्वानों को उद्धृत कर रहें हैं। हम पाठक को अपने विवेक के सहारे निर्णय पर पहुचने की स्वच्छंदता प्रदान करते हुए अनुरोध करेंगे कि यहाँ संकलित सभी मतों को यथोचित महत्व प्रदान करते हुए इनका लाभ एवं मार्गदर्शन लें  |

प्रथम अध्याय

यूरोपीय जन मूर्ति पूजा विषय पर

(१)  सरमोंलर विलियम्स (sir Monler Williams) लिखतें हैं :- “मनु स्मृति* के संकलन काल में मूर्तिपूजा के अस्तित्व के विषय में घोर संशय है”( इंडियन विजडम पृष्ट २२६)

(२)  जे.आई. वीलर(J.I. Wheeler) कहतें हैं :- “ऐसा प्रतीत होत्ता है जैसे कोई मंदिर नहीं थे और वे(आर्य या पुरातन कालीन हिन्दू)खुले वातावरण में या हर मकान के एक विशेष गृह में हवन किया करते थे” (वीलर्स हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया इंट्रोडक्शन पृष्ट ११)

(३)  प्रोफेसर डब्लू.डी. ब्राउन कहतें हैं :- “विचारवान छात्रों के लिए कई प्रबल प्रमाण यह सिद्ध करतें हैं कि पूर्व में हिन्दू मूर्तिपूजक ना थे और ना ही अशिक्षित, निर्दयी और असभ्य थे”

(४)  श्रीमान मिल कहतें हैं :- “मूर्तिपूजापूर्ण रूप से आगे विकसित हुई है। श्रेष्ठ निराकार मान्यताओं से समक्रमण ना स्थापित कर पाने वाली बुद्धि की यह उपज है। पतन अपनी व्याख्या स्वयं करता है। कपट ढोंग आदि मतान्धता और एकेश्वरवाद के पतन के प्रमुख कारण हुए। यह ढोंग स्वतंत्र देवीदेवताओं की विविधता नहीं थी वरन विशेष आयोजनों के मुख्य देव और आहावन था।“ (मिल्स ब्रिटिश इंडिया पृष्ट ११७ मई१९१८को वैदिक पत्रिका में प्रकाशित)

(५)  मक्स्मुलर लिखते हैं :- “कभी कभी यह भी कहा जाता है की वैदिक धर्म का लोप हो चुका है क्यूंकि तांत्रिकों एवं पुराणिकों द्वारा प्रतिपादित ब्राह्मणिक धर्मशिव, ब्रह्मा और विष्णु के विभिन्न रूपों के डरावने मूर्तियों की पूजा करते हैं” | (ओरिजिन एंड ग्रोथ ऑफ़ रिलीजन्स पृष्ट १५४)

(६)  मक्स्मुलर आगे लिखते हैं :- “यदि हम वसिष्ठ या विश्वामित्र या अन्य किसी आर्य कवि से पूछ पातेकि क्या वे सूर्य, जो आग का गोला है,वह हाथ पैर ह्रदय स्नायु आदि युक्त देहधारी है? तो निसंदेह वे हमारे प्रश्न पर ठहाके लगाते हुए कहते की हमने उनकी भाषाएँ जान कर भी उनके मंतव्यों को नहीं जाना।“(ओरिजिन एंड ग्रोथ ऑफ़ रिलीजन्स पृष्ट २७५)

(दूसरा अध्याय जो मक्स्मुलर के विचारों पर था वह अनुवादक को प्रयास करने पर भी प्राप्त नहीं हुआ अतः अनुवादक ने उनके कुछ प्राप्त अंशों को प्रथम अध्याय में ही जोड़ दिया है।)

द्वितीय अध्याय

मूर्तिपूजा पर आर.सि. दत्त

प्रसिद्ध भारतीय विद्वान रोमेशचन्द्रदत्त जो किसी भी रूप से आर्य समाजी भी नहीं हैं लखते हैं:

(१)ऋग्वेद में मूर्ति का कोई संकेत ही नहीं हैं, ना ही किसी पूजागृह और ना ही मंदिरों में।

(सिविलाइज़ेशन ऑफ़ अन्सिएंट इंडिया कितब१ पृष्ट ६६)

(२)और रेखागणित के व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा का महत्व उस समय ख़तम हो गया जब पुराणिक काल में चित्र आदि जड़ पूजा प्रचलित हुई और भक्तों के घर से समिधाग्नि शांत हो गयी और लोगों ने वेदी बनाने की विद्या भुला दी।

(सिविलाइज़ेशन ऑफ़ अन्सिएंट इंडिया किताब १ पृष्ट २६९ २७४)

(३) आगे वह लिखतें हैं :

“… और कोई मूर्तिपूजा का ज्ञान ना था”

(क)बौद्ध मत में मूर्तिपूजा इसाई कालके सदियों बाद आई इसलिए मूर्तिपूजा बौद्धों द्वारा शुरू हुई ऐसी शंका करना असंभव तो नहीं हैं।

(ख)ऐसा अनुमान है मनु स्मृति के संकलन काल में बौद्धों द्वारा पूजा का प्रचालन बढ़नेपर पुर्वग्रहियों द्वारा विरोध हुआ।

(ग)मूर्तियों की पूजा का विधान हिन्दुवों में बौद्ध आन्दोलन तक ना था और बौद्ध मत के प्रचार के साथ यह विकसित हुई।

(घ)मनु …क्रोधपूर्वक मूर्तिपूजकों को शराब और मांस बेचने वालो की श्रेणी में रखते हैं।

(सिविलाइज़ेशन ऑफ़ अन्सिएँट इंडिया कितब२ पृष्ट १८९-१९५ )

(४)पुरातन काल में अग्न्याधानकी एक छोटी सि विधि सभी गृहस्तों के जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग था, जब हर किसी द्वारा अपने हवनकुंड में ही ईश्वारुपसना की जाती थी और मंदिरों-मूर्तियों से सभी अनभिज्ञ थे।

(हिज सिविलाइज़ेशन किताब १ पृष्ट१८४)

(५)तीर्थों के विषय में आर.सि.दत्त लिखते हैं :

तीर्थभ्रमण, जो पुरातन काल में नगण्य या अनजाने थे, का मूर्खतापूर्ण तरीके से आयोजन होने लगा। नये-नये भगवान, नयी-नयी मूर्तियाँ-चित्र एवं मंदिरों भारत की भूमि एवं भोले-भालेश्रद्धालुओंके ह्रदय में जन्म लिया।“

(सिविलाइज़ेशनकिताब २ पृष्ट१९५)

(६)आगे श्री दत्त लिखते हैं :

“६२० ईस्वी में चीनीयात्री होव्न सॉंग के आगमन काल में जगन्नाथपुरी के विशाल मंदिर का लेश भीना था।“

(सिविलाइज़ेशन किताब २ पृष्ट १५१)

 

तृतीय अध्याय 

मूर्तिपूजा पर एल्फिन्स्तों

(१) श्री एम.एल्फिन्स्तों लिखतें हैं :

“दृश्यपदार्थ और चित्रों की पूजा का कोई विधान नहीं दिखाई पड़ता”

(एल्फिन्स्तों हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया पृष्ट ४०)

(२)आगे श्री एल्फिन्स्तों लिखते हैं :

“…. औरसाथ ही, उन्होंने ना तो मंदिर ही खड़े किये ना ही सच्चेईश्वर के प्रतिक की पूजा करते थे”

(एल्फिन्स्तों हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया पृष्ट ९३-९४)

(३)आगे जोड़ते हुए लिखतें हैं :

“श्रीमान कॉलेब्रोक स्वयं को पांच  प्रकार के पवित्र कर्मों(पञ्चमहायज्ञ) तक ही सिमित रखतें हैं जो मनु के काल से चली आ रही हैं परन्तु वर्तमान समय में एक विशेष प्रकार की पूजा का विधान है जो पहले भारतीय समाज में ना था, परन्तु अब ये विधान एक प्रधान कर्म हो चला हैं।

ये विधान हैं मूर्तियों की पूजा का, जिनके सामने अनेक प्रकार के नमन और स्तुतियों का रोज़ का विधान हैं।”

(एल्फिन्स्तों हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया पृष्ट ११०)

 

 

चतुर्थ अध्याय 

मूर्तिपूजा पर विल्सन

(१)प्रोफेसर एस.एस.विल्सन लिखतें हैं :

“वेदों में मंदिरों का कहीं संकेत नहीं है ना ही किसी सामूहिक भवन का वर्णन ही मिलता हैं, साफ़ है कि पूजा पूर्णतः घरेलु थीं”

(विल्सन्स ऋग्वेद इंट्रोडक्शन किताब १ पृष्ट XV)

(२)पुनः लिखतें हैं :

“अब तक हमारी जितनी जानकारी हैं, शिव,महादेव,काली,दुर्गा,राम और कृष्ण के नाम वेदों में नहीं मिलते, एक रूद्र नाम आता है जिसे बाद में शिव ही मान लिया गया।“

(आइबीडपृष्टxxvi)

(३)आगे लिखते हैं :

“ औरआज जिस रूप में भारतवर्ष में पूजा होती हैं, अर्थात लिंग की पूजा, उसका नाम मात्र भी संकेत , कम से कम पिछली १० शताब्दियों में नहीं मिलता। ना ही कोई संकेत ब्रह्मा, विष्णु और महेश, त्रिमूर्ति का ही प्राप्त होता है।“                       आइबीड XXVII

(४)आगे श्रीमान लिखतें हैं :

“और फिर भी मनु ना किसी अवतार,ना राम और ना ही कृष्ण कोइंगितकरतेंहैं। अतः यही माननीय हैं कि वे रामायण और महाभारत काल के बाद विकसित हुई पूजा पद्दति के पूर्व कालीन हैं।“

(५)श्री मिल्स एच.एच.विल्सन के विचारों को इस प्रकार उद्धृत करते हैं:

“…. परन्तु वे(ब्राह्मण) पगान पादरियों की तरह या यहूदियों की तरह कभी भी सार्वजानिक पूजा का आयोजन, व्यक्ति विशेष के लिए पूजन, मंदिरों में पूजन यामूर्तियों का पूजन नहीं करते थे।

जोब्राह्मणमूर्तियों की पूजा करता उसेपतित और धार्मिकआयोजनों में ना बुलाया जाता”

(मनुII१५२,१८०)-(मिल्सहिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया कितब२पृष्ट १९२)

(७)  श्रीएच.एच.विल्सन पुनः बताते हैं-

“परन्तु पूजनीय महापुरुषों की पूजा उससमाज का हिस्सा नहीं हैं और ना ही देवताओंका अवतरण जैसा की अन्य ग्रंथों में निर्देशित हैं जो अबतक मैंने देखीं हैं यद्यपि कुछ भाष्यकारों द्वारा इसपर संकेत किया गया है।“

“यह भी सत्य है कि वैदिक पूजा के अधिकतर भाग निजी हैं, जिनमे स्तुति आदि अनुष्ठान,एक अदृश्य व्यापक अप्रमाणिक सत्ता को संबोधित करते हुए,स्वयं की उन्नति लिए संपन्न किये जाते हैं,किसी मंदिर में नहीं।“

“एकशब्द में, वैदिक मत मूर्तिपूजक नहीं हैं।“

(एच.एच.विल्सन विष्णुपुराण प्रकथन पृष्ट १११)

(८)  पुनः लिखतें हैं-

“कर्ता और क्रिया में भेद मूर्तिपूजा से ही विकसित हुई है।प्रतिमा ने मुख्य प्रति की जगह लेली, और ना ही वेदों में परिपूर्ण हो रहे रहस्यवाद और वाक्यरचना[**] की कोई व्यवस्था की गयी।“

(मिल्स हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया कितब१ पृष्ट ३९२)

(९)इसके अलावा वे लिखतें हैं :

“…. परन्तु पद्धति नयी है, जगन्नाथ स्वयं नवीन है और वैष्णवों के पुराणों में इनका कोई स्थान नहीं। यह असम्भाव्य है कि वर्त्तमान स्थल का महिमामंडन अधिक से अधिक एक शताब्दी से पूर्व हुआ हो।“

(मिल्स हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया पृष्ट४१६)

 

पंचम अध्याय 

मोहम्मदनविद्वानों के विचार मूर्तिपूजा विषय पर

अब हम मध्यकालीन भारत के दो सर्वाधिक पढ़े-लिखेमुसलमान सज्जनों केविचारों की ओर नज़र डालेंगे जो यह कहतेंहैंकिहिंदुत्व का मुर्तिपूजन से कोई नाता नहीं हैं।

(१) मौलाना अबुल फज़ल, अकबर के दरबार के प्रधानमंत्री लिखतें हैं :

“वे(हिन्दू) सभीएकेश्वरवाद में विश्वास रखतें हैं औरयद्यपि वे मूर्तियों को विशेष सम्मान से रखतें हैं फिर भी वे किसी प्रकार मूर्तिपूजक नहीं हैं जैसा की अज्ञानी जन समझतें हैं।“

(आयींने अकबरी,एफ़ गोडविनभाष्यकिताब६ पृष्ट २९४)

(२)मौलाना अलबेरुनी, अरबी और संस्कृत के विद्वान जो महमूद ग़ज़नी के साथ भारत आये थे लिखते हैं:

“… परन्तु हम ये घोषणा करते हैं कि मूर्तियाँ केवलअनपढ़लोगों द्वारा स्थापित की जातीं हैं।

स्वच्छंद विचारों के मार्ग पर चलने वाले यादर्शन शास्त्र पढने वाले जो सत्य का सार प्राप्त करना चाहतें हैं वे इश्वारुपसना को छोड़ अन्य सभी विचारों से मुक्त हैंऔर प्रतिक रूप में स्थापित की गयी चित्र आदि वस्तुवों की पूजा की कल्पना भी नहीं करते।“

(अल्बेरुनिस इंडिया डॉ. ई.सि.सोचोऊ भाष्य कितब१ अध्याय XI पृष्ट ११२-११३)

(२) अतः मौलाना अलबेरुनी आगे जोड़ते हैं :

“इन सभी मूढ़ प्रलापों को दर्शाने का  हमारा उद्देश्य पाठक को मूर्ति का विवरण देना है, अगर कोई कहीं मूर्ति देख ले  औरउसकी व्याख्या करे तो जैसा हमने पहले कहा कि मूर्तियाँ नासमझ अनपढ़निम्न दर्जे के लोगों द्वारा स्थापित की गयींऔर हिन्दुवों ने कभी इश्वर के मूर्तियों की स्थापना नहीं की।”

(ईबिड पृष्ट ११२)

षष्ट अध्याय

मूर्तिपूजा का मूलइसाई मत

हमारेमुसलमानऔरइसाई भाइयों की धारणा है कि मूर्तिपूजा का मूल हिन्दू मान्यताओं में हैं, निश्चित रूप से वे गलत हैं। पहले दर्शाये गए विचार अपनी व्याख्या खुद ही करतें हैं। स्वामी राम तीर्थ, जो यूरोप वासी तो नहीं थे परन्तु कई यूरोपीय और अमरीकियों के मार्गदर्शी हुए, पूछते हैं :

“…. भारत में मूर्तिपूजा कौन लाया?आज ये इसाई आपसे कहेंगे कि आप मूर्तिपूजक हो परन्तुभारतकी कविताओं, व्यक्रण, गणित, शिल्पकला, गायन और अन्य वृहद् वैदिक साहित्य में लेश मात्र भी मूर्तिपूजा के संकेत नहीं मिलते। यह मूर्तिपूजा आई कहाँ से? भारतीय धर्म के किसी भी रूप का ये हिस्सा नहीं है। मूर्तिपूजा भारत में ईसाईयों द्वारा आई। इतिहास का यह पृष्ट अब तक लोगों के नेत्रों से दूर रहा हैं परन्तु मेरा अनुसन्धान अबछपकरतैयार होगा।

“मैंने आतंरिक एवं बहारी दोनों साक्ष्यों द्वारा ये सिद्ध किया है कि ईसा के चौंथी और पाँचवी शताब्दीबाद भी कुछ रोमन कैथोलिकइसाई भारत में बसते हैं। दक्षिण भारत में वे संत थॉमस इसाई कहे जाते हैं। इन्होने ही मूर्तिपूजा की शुरुवात की। फिर आतंरिक साक्ष्य से, मैंने सिद्ध किया है कि मूर्तिपूजा के प्रबल समर्थक रामानुजकेनिर्देशकों में से एक ये संत थॉमस इसाई थे। जैसाहमें ज्ञात है, इन्होने पहले जिस मूर्ति को शीश नवाया वह पूर्वमुखी नहीं हैं।

“मेरे सौभाग्यावानो, यह दर्शाता है किमूर्तिपूजा का मूल उस मत में है जिसे आप इसाई मत कहतें हैं। येमिशनरी जोआज मूर्तिपूजा का खंडन करते हैं, एक ओर मुर्तिपूजा को निक्रिस्ट मानते हैं और दूसरी ओर मूर्तियों का व्यापार कर पैसे कमातें हैं। इस तरह तुम (मिशनरी) लोगोंका धर्मान्तरण करना चाहते हो। क्या यह मूर्तियाँ जिन्हें तुम बनाकर बेचते हो वो तुम्हारे गोसपेल से ज्यादा शक्तिशाली हैं? अब ये तुम ही निर्णय करो।“

(इन वुड्स ऑफ़ गॉड-रेलिज़ेशनकिताब ३ पृष्ट ३११-३१२)

इतने संस्कृत और यूरोपीय विद्वानों के साक्ष्य प्रस्तुत करने के बाद लिखने को कुछ और अधिक नहीं रह गया है। अब पाठक स्वयं ये निर्णय करे कि वेदों में मूर्तिपूजा की खोज कहाँ तक सफल होगी।

छोटे शब्दों में :

(क) …..ओल्ड टेस्टामेंट का इश्वर आदम और हव्वा से बातें करता है औरअब्राहम की रसोई से खाना खाता है औरमोसेस से वार्ता करने बादलों से प्रकट हो जाता है।

(ख) …ईसाईयों का इश्वर कुवांरी कन्याओं को गर्भवतीबना सकता है और इस तरह विश्वमें अपने “मात्र पुत्र” का जन्मदाता है।

(ग)  ….. कुरान का अल्लाह आदम, नोआह और अब्राहम के समक्ष प्रकट होने को हमेशा तैयार बैठा रहता है।

(घ)  …… परन्तु वैदिक इश्वर एक ऐसा है जो देहधारी नहीं है और किसी सीमा से बाधित नहीं है और निश्चित रूप से सभी देश, काल और वस्तु में वसता है।

हे सनातनी हिन्दू सज्जनों, आपने ऊपर दिए गए साक्ष्यों को पढ़ा और जाना कि सिर्फ दयानंद ही नहीं हैं जो मूर्तिपूजा त्यागने को कहतें हैं वरन वे सभी, जिन्होंने वेदों और अन्य प्राचीन शास्त्रों का अध्ययन किया है, यही मानते हैं। अतः आप सभी सत्य को स्वीकार करें, जैसा की आप जानते हैं:

“सत्यमेवजयते”

इति

 

Jangidmani

cow pastures

Jangidmani

AV2.4

1.दीर्घायुत्वाय बृहते रणायारिष्यन्तो दक्षमाणाः सदैव ।

मणिं विष्कन्धदूषणं जङ्गिडं बिभृमो वयं  । ।AV2.4.1

अथर्व 12.4.39 के अनुसार वनों में स्वपोषित गौओं के दुग्ध में अमृत तुल्य पोषक तत्व होते हैं . इस तथ्य की पुष्टि आधुनिक विज्ञान भी करता है.  ऐसे गोदुग्ध तथा  वनों में उत्पन्न  वनस्पतियों पर  आधारित शाकाहार मानव को अत्योत्तम  वीर्य प्रदान करता है. यही जङ्गडमणि है.

AV 12-4-39 Importance of Pastures- गोचर महत्व

महदेषाव तपति चरन्ति  गोषु गौरपि ।

अथो ह गोपतये वशाददुषे विषं दुहे ।। अथर्व 12-4-39

(महदेषाव – Big barriers) Barriers in pastures – stall feeding angers the cows,

the milk from such cows is likened to poison.  Only milk of Pasture fed

cows has been found to be rich in all the nutrients. Stall feeding with

unnaturally prepared  formulated cattle feeds damages the natural healthy

composition of cow milk.

(This fact is fully supported by latest dairy science researches. Only milk of

green forage fed cows is rich Essential Fatty acids-Omega3 & Omega 6

and has much lower saturated fat content and is rich with all Carotenoids.

This is confirmed by the researches shown here.)

गोचर में जाने में गौओं को कोई बाधा नही होनी  चाहिए। जो गौ गोचर नहीं जा पाती उन का

दूध विष समान  होता है। गोचर में पोषित गौ के दूध में वे पोषक तत्व होते हैं जिन्हे आधुनिक

वैज्ञानिक करोटिनायड जो नेत्र ज्योति का संरक्षण करते हैं – यह तत्व भैंस के दूध में नहीं पाए जाते.  और असंतृप्त वसा unsaturated Fatty  Acids  कहलाते हैं, जो मानव शरीर के लिए सर्व रोग निरोधक और ओषधि माने जाते हैं.  इन्हीं के कारण गोदुग्ध को अमृत कहा जाता है.

2. जङ्गिडो जम्भाद्विशराद्विष्कन्धादभिशोचनात् ।

मणिः सहस्रवीर्यः परि णः पातु विश्वतः  । । AV2.4.2

3.अयं विष्कन्धं सहतेऽयं बाधते अत्त्रिणः ।

अयं नो विश्वभेषजो जङ्गिडः पात्वंहसः  । । AV2.4.3

4.देवैर्दत्तेन मणिना जङ्गिडेन मयोभुवा ।

विष्कन्धं सर्वा रक्षांसि व्यायामे सहामहे  । । AV2.4.4

5.शणश्च मा जङ्गिडश्च विष्कन्धादभि रक्षतां ।

अरण्यादन्य आभृतः कृष्या अन्यो रसेभ्यः  । । AV2.4.5

6.कृत्यादूषिरयं मणिरथो अरातिदूषिः ।

अथो सहस्वान्जङ्गिडः प्र ण आयुंषि तारिषत् । । AV2.4.6

AV19.34

1.जाङ्गिडोऽसि जङ्गिडो रक्षितासि जङ्गिदः ।

द्विपाच्चतुष्पादस्माकं सर्वं रक्षतु जङ्गिदः  । ।AV19.34.1

2.या गृत्स्यस्त्रिपञ्चाशीः शतं कृत्याकृतश्च ये  ।

सर्वान्विनक्तु तेजसोऽरसां जङ्गिदस्करत् । । AV19.34.2

3.अरसं कृत्रिमं नादं अरसाः सप्त विस्रसः  ।

अपेतो जङ्गिडामतिं इषुं अस्तेव शातय  । । AV19.34.3

4.कृत्यादूषण एवायं अथो अरातिदूषणः  ।

अथो सहस्वाञ्जङ्गिडः प्र न आयुम्षि तारिषत् । । AV19.34.4

5.स जङ्गिडस्य महिमा परि णः पातु विश्वतः  ।

विष्कन्धं येन सासह संस्कन्धं ओज ओजसा  । । AV19.34.5

6.त्रिष्ट्वा देवा अजनयन्निष्ठितं भूम्यां अधि  ।

तं उ त्वाङ्गिरा इति ब्राह्मणाः पूर्व्या विदुः  । । AV19.34.6

7.न त्वा पूर्वा ओषधयो न त्वा तरन्ति या नवाः  ।

विबाध उग्रो जङ्गिडः परिपाणः सुमङ्गलः  । । AV19.34.7

8.अथोपदान भगवो जाङ्गिडामितवीर्य  ।

पुरा त उग्रा ग्रसत उपेन्द्रो वीर्यं ददौ  । । AV19.34.8

9.उग्र इत्ते वनस्पत इन्द्र ओज्मानं आ दधौ  ।

अमीवाः सर्वाश्चातयं जहि रक्षांस्योषधे  । । AV19.34.9

10.आशरीकं विशरीक बलासं पृष्ट्यामयं  ।

तक्मानं विश्वशारदं अरसां जङ्गिडस्करत् । । AV19.34.10

 

AV19.35

1.इन्द्रस्य नाम गृह्णन्त ऋसयो जङ्गिदं ददुः  ।

देवा यं चक्रुर्भेषजं अग्रे विष्कन्धदूषणं  । । AV19.35.1

2.स नो रक्षतु जङ्गिडो धनपालो धनेव  ।

देवा यं चक्रुर्ब्राह्मणाः परिपाणं अरातिहं  । । AV19.35.2

3.दुर्हार्दः संघोरं चक्षुः पापकृत्वानं आगमं  ।

तांस्त्वं सहस्रचक्षो प्रतीबोधेन नाशय परिपाणोऽसि जङ्गिडः  । ।। AV19.35.3

4.परि मा दिवः परि मा पृथिव्याः पर्यन्तरिक्षात्परि मा वीरुद्भ्यः  ।

परि मा भूतात्परि मोत भव्याद्दिशोदिशो जङ्गिडः पात्वस्मान् । ।। AV19.35.4

5.य ऋष्णवो देवकृता य उतो ववृतेऽन्यः  ।

सर्वां स्तान्विश्वभेषजोऽरसां जङ्गिडस्करत् । ।। AV19.35.5

Destiny Improvement in Veda

destiny

Destiny Improvement in Veda

Atharv Ved 19.43  सौभाग्य के लिए

ऋषि: ब्रह्मा: , देवता: अग्न्यादयो: मंत्रोक्ता:

In this Atharva Veda Sukt  consists of 8 mantras. The first line “यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह” is the common refrain line of all the 8 mantras.  This line makes a very unique statement

“One who follows the right path and observes the correct disciplines in life and develops the right temperament in his consciousness, is blessed with all the physical bounties of health wealth and prosperity in the world.”

This faith in power of prayers has been a very strong tradition in all the religions of the world.

Modern science however has always been skeptic about such ‘blind’ faith in power of prayers and thoughts.

But according to findings of Dr Bruce Lipton a scientist working on behavior of Cells and genetic of DNAs, has now established that human consciousness brings about specific changes in body cells. DNA being composed of cells, thus undergoes distinct modifications.

This also establishes the mistake science has so far been making to overemphasize that we are destined to our life according to our inherited DNA. Religiously oriented faithful also have strong belief in their destiny, and consider they are helpless against the force of the destiny. हमारे तो भाग्य में यही लिखा है.

According to Vedas as described in this sookt and as now confirmed by modern science man is maker of his own destiny.

इस वेद सूक्त के अनुसार और आधुनिक विज्ञान के आधार पर मानव अपने भाग्य का स्वयं निर्माण करता है.  

BRUCE H. LIPTON, PH.D.

The secret of life is no secret.

OUR POSITIVE AND NEGATIVE beliefs not only impact our health but also every aspect of our life. Henry Ford was right about the efficiency of assembly lines, and he was right about the power of the mind: “If you believe you can or if you believe you can’t . . . you’re right.” Think about the implications of the man who blithely drank the bacteria that medicine had decided caused cholera. Consider the people who walk across coals without getting burned. If they wobble in the steadfastness of their belief that they can do it, they wind up with burned feet. Your beliefs act like filters on a camera, changing how you see the world. And your biology adapts to those beliefs. When we truly recognize that our beliefs are that powerful, we hold the key to freedom. While we cannot readily change the codes of our genetic blueprints, we can change our minds and, in the process, switch the blueprints used to express our genetic potential.

In my lectures I provide two sets of plastic filters, one red and one green. I have the audience pick one color and then look at a blank screen. I then tell them to yell out whether the image I project next is one that generates love or generates fear. Those in the audience that don the red “belief” filters see an inviting picture of a cottage labeled “House of Love,” flowers, a sunny sky and the message: “I live in Love.” Those wearing the green filters see a threatening dark sky, bats, snakes, a ghost hovering outside a dark, gloomy house and the words: “I live in fear.” I always get enjoyment out of seeing how the audience responds to the confusion when half yell out: “I live in love,” and the other half, in equal certainty, yells out: “I live in fear” in response to the same image.
Then I ask the audience to change to the opposite colored filters. My point is that you can choose what to see. You can filter your life with rose-colored beliefs that will help your body grow or you can use a dark filter that turns everything black and makes your body/mind more susceptible to disease. You can live a life of fear or live a life of love. You have the choice! But I can tell you that if you choose to see a world full of love, your body will respond by growing in health. If you choose to believe that you live in a dark world full of fear, your body’s health will be compromised as you physiologically close yourself down in a protection response.

Learning how to harness your mind to promote growth is the secret of life, which is why I called my book The Biology of Belief. Of course the secret of life is not a secret at all. Teachers like Buddha and Jesus have been telling us the same story for millennia. Now science is pointing in the same direction. It is not our genes but our beliefs that control our lives . . . Oh ye of little belief!

Living in love and living in fear create opposite effects in the body and the mind. I’d just like to emphasize again that not only is there nothing wrong with going through life wearing the proverbial rose-colored glasses. In fact, those rose-colored glasses are necessary for your cells to thrive. Positive thoughts are a biological mandate for a happy, healthy life. In the words of Mahatma Gandhi:

Your beliefs become your thoughts

Your thoughts become your words

Your words become your actions

Your actions become your habits

Your habits become your values

Your values become your destiny

1.  यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह  ।

अग्निर्मा तत्र नयत्वग्निर्मेधा दधातु मे  ।अग्नये स्वाहा  । ।AV19.43.1

(यत्र ) जहां (ब्रह्मविदो) – समस्त वेदों के ज्ञान को जानने वाले ( दीक्षया) सब यम नियमों के व्रतों के  संकल्प से (तपसा सह) प्रयत्न पूर्वक आचरण करके (यान्ति ) जाते हैं , रहते हैं. उन की बुद्धि में देवताओं की ऊर्जा स्थापित होती है.

(इसी संदर्भ मे एक अत्यन्त प्रसिद्ध मंत्र दैनिक यज्ञ में भी प्रयुक्त होता है.   “ यां मेधां देवगणा: पितरश्चोपासते तया मामद्य मेधयाग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा:” )

Wherever individuals dwell who observe well disciplined, intellectually consciously positive and socially constructive thoughts and behavior , their intellect are set afire with positive energies.

 2. यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह  ।

वायुर्मा तत्र नयतु वायुः प्रणान्दधातु मे वायवे स्वाहा  । । AV19.43.2

(यत्रजहां (ब्रह्मविदो ) – समस्त वेदों के ज्ञान को जानने वाले ( दीक्षया) सब यम नियमों के व्रतों के  संकल्प से (तपसा सह) प्रयत्न पूर्वक आचरण करके (यान्ति ) जाते हैं ,स्वच्छ वायु मे श्वास लेने से निरोगी शरीर प्राण शक्ति द्वारा सौभाग्य प्रदान करता  है.

Wherever individuals dwell, who observe well disciplined, intellectually consciously positive and socially constructive thoughts and behaviour, they achieve the wisdom to gain health by having healthy fresh air to breath around them.

3. यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह ।

सूर्यो मा तत्र नयतु चक्षुः सूर्यो दधातु मे  ।सूर्याय स्वाहा  । । AV19.43.3

(यत्र  जहां (ब्रह्मविदो ) – समस्त वेदों के ज्ञान को जानने वाले ( दीक्षया) सब यम नियमों के व्रतों के  संकल्प से (तपसा सह) प्रयत्न पूर्वक आचरण करके (यान्ति ) जाते हैं ,सूर्य देवता से समस्त शरीर की पुष्टि  प्राप्त होती है.  चक्षुओं से आरम्भ कर के

इस संदर्भ में सूर्य देवता का दैनिक संध्या का मंत्र “तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्‌ ! पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शतं शृणुयाम सहरद: शतं प्रब्रवाम शरद:सतमदीना: स्याम शरद: शतं भूयश्च सरद: शतात्‌ “ भी पठनीय है

(आधुनिक विज्ञान के अनुसार गर्भ में मानव शरीर में सर्व प्रथम ज्ञानेंद्रियों में इस  नेत्रों की ही संरचना होती है. इसी अधार पर वेद मंत्र में सर्व प्रथम चक्षुओं के उपदेश की वैज्ञानिकता सिद्ध होती है.)  .

Wherever individuals dwell, who observe well disciplined, intellectually consciously positive and socially constructive thoughts and behavior, they have the wisdom to harness the bounties of Sun for their health& prosperity.

(Modern science confirms that exposure to sun provides the human body the most important hormone for health of human body ordinarily called Vitamin D. Through photosynthesis in biology, solar sterilization &a source of sustainable energy SUN is the most venerable sustainable source for welfare of society.)

यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह  ।

चन्द्रो मा तत्र नयतु मनश्चन्द्रो दधातु मे  ।चन्द्राय स्वाहा  । । AV19.43.4

(यत्र) जहां (ब्रह्मविदो ) – समस्त वेदों के ज्ञान को जानने वाले ( दीक्षया) सब यम नियमों के व्रतों के  संकल्प से (तपसा सह) प्रयत्न पूर्वक आचरण करके (यान्ति ) जाते

हैं , -“ चंद्रमा वै सोमो राजा ” चन्द्रमा के प्रभाव से ज्ञानी व्यक्ति उत्तम

मनसिकता को प्राप्त करते हैं.

(वैदिक परम्परा में चंद्रमा का मानव भावनाओं को दिशा प्रदान करने में अत्यंत महत्व बताया गया है. चंद्रमा किस प्रकार मन को प्रेरित करता है, यह भी एक वेदोंमें विज्ञान का एक अत्यंत वैज्ञानिक विषय है. आधुनिक विज्ञान के अनुसार स्थूल ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव समुद्र में चंद्रमा की पूर्णमास और अमावस्या से ज्वार भाटों के क्रम से स्पष्ट दीखता है.  मानव शरीर की संरचना में जल तत्व 65% से अधिक होता है. चंद्रमा की दशा का प्रभाव जैसे समुद्र के ज्वार भाटे में होता है, उसी प्रकार मानव शरीर पर भी चंद्रमा की दशा का प्रभाव होगा.  मानव मस्तिष्क में तो 80% जल तत्व होता है. जल तत्व का प्रभाव हमारे मस्तिष्क पर जब अधिक होगा तो मस्तिष्क शांति से सकारात्मक भावनाओं से प्रेरित होगा. जैसे प्यासे रहने पर  आप की मानसिकता व्यग्र और पानी से तृप्त रहने पर संतुष्ट  होगी.)

Wherever individuals dwell, who observe well disciplined, intellectually consciously positive and socially constructive thoughts and behavior , in their midst Lunar forces activate mental approaches and control over their behavior.

(Modern science confirms that movement of water in ocean tides is governed by interaction of the force of this planet’s gravity. Human body consists of more than 65% water. However human brain is nearly 80% water. It is therefore logical that corresponding ebb and tide of water in our human body will be also be subjected to lunar influences and affect human behavior.

. यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह  ।

सोमो मा तत्र नयतु पयः सोमो दधातु मे  ।सोमाय स्वाहा  । । AV19.43.5

(यत्र) जहां (ब्रह्मविदो) – समस्त वेदों के ज्ञान को जानने वाले ( दीक्षया) सब यम नियमों के व्रतों के  संकल्प से (तपसा सह) प्रयत्न पूर्वक आचरण करके (यान्ति ) जाते हैं , – “ सोम: पय:”- सोम धारण करने के लिए उत्तम गोदुग्ध की व्यवस्था करते है.

Wherever individuals dwell, who observe well disciplined, intellectually consciously positive and socially constructive thoughts and behavior dwell, they have the wisdom to obtain for themselves cow’s milk for their virility & character.

10. यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह  ।

इन्द्रो मा तत्र नयतु बलं इन्द्रो दधातु मे  ।इन्द्राय स्वाहा  । । AV19.43.6

(यत्रजहां (ब्रह्मविदो) – समस्त वेदों के ज्ञान को जानने वाले ( दीक्षया) सब यम नियमों के व्रतों के  संकल्प से (तपसा सह) प्रयत्न पूर्वक आचरण करके (यान्ति ) जाते हैं ,  इंद्रत्व के बल द्वारा समस्त ऐश्वर्य को प्राप्त करते हैं.  

Wherever individuals dwell, who observe well disciplined, intellectually consciously positive and socially constructive thoughts and behavior, they develop the positive action oriented temperaments & strength to obtain all the prosperity in life.

11. यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह  ।

आपो मा तत्र नयत्वमृतं मोप तिष्ठतु  ।अद्भ्यः स्वाहा  । । AV19.43.7

(यत्रजहां (ब्रह्मविदो) – समस्त वेदों के ज्ञान को जानने वाले ( दीक्षया) सब यम नियमों के व्रतों के  संकल्प से (तपसा सह) प्रयत्न पूर्वक आचरण करके (यान्ति ) जाते हैं , वे उत्तम जल स्थापित करते हैं  (“ आपो यं व: प्रथमं देवयन्त”  ऋ7.47.1 उत्तम जल ही समस्त कामनाओं को सिद्ध करने का प्रथम साधन है

Wherever individuals dwell, who observe well disciplined, intellectually consciously positive and socially constructive thoughts and behavior dwell,they establish availability of best quality water.

12. यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह  ।

ब्रह्मा मा तत्र नयतु ब्रह्मा ब्रह्म दधातु मे  ।ब्रह्मणे स्वाहा  । । AV19.43.8

(यत्र) जहां (ब्रह्मविदो) – समस्त वेदों के ज्ञान को जानने वाले ( दीक्षया) सब यम नियमों के व्रतों के  संकल्प से (तपसा सह) प्रयत्न पूर्वक आचरण करके (यान्ति ) जाते हैं वे ब्रह्म में स्थापित हो जाते हैं.समस्त रूप से सुंदर भौतिकता को प्राप्त करते हैं.  (अथामूर्त्तं ब्रह्मणो रूपम्‌- जो भी भौतिक जगत में सौंदर्य है वह ब्रह्म का ही रूप है. )

Wherever individuals who observe well disciplined, intellectually consciously positive and socially constructive thoughts and behavior dwell, they achieve the most beautiful environments.

परमेश्वर ने क्या दिया और क्या नहीं दिया ?

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परमेश्वर ने क्या दिया और क्या नहीं दिया ?

लेखक – स्वामी विश्वंग जी परिव्राजक , ऋषि उद्यान, अजयमेरू नगरी

मनुष्य के ज्ञान की दृष्टी से संपूर्ण ब्रह्माण्ड में प्राणियों की संख्या असंख्य है | एक मनुष्य ही नहीं, बल्कि सारे मनुष्य मिलकर भी सब प्राणियों की संख्या को गिन नहीं सकते | मनुष्यों की दृष्टी से न गिनने की स्तिथि में असंख्य कहा जाता है | परन्तु परमेश्वर की दृष्टी से प्राणियों की संख्या सिमित है | क्यों की परमेश्वर अपनी असीमित शक्ति से सभी प्राणियों को गिनता है, इसलिए परमेश्वर सब के कर्म-फल ठीक-ठीक प्रधान करता है |

अनेक बार, अनेको लोग परमेश्वर को कोसते रहते है की “ हमे कुछ नहीं दिया, हमे क्या दिया, हमे यह नहीं दिया, हमे वो नहीं दिया “ इत्यादि अर्थात कोई कहता है हमे आँखे नहीं दी, कोई कहता है हमे वाणी नहीं दी, कोई कहता है हमे हाथ, पाँव, नाक, या कोई और अंग नहीं दिया, कोई कहता है हमे अच्छे माता-पिता नहीं दिये, कोई कहता है हमे जमीन नहीं दी | यदि एक-एक को लिखने लगे, तो लिखते ही जायेंगे, लिखना बंद नहीं हो पायेंगा | जितने मनुष्य उतनी शिकायते | शिकायतों की कतार बड़ी लंबी बनेगी |

ऐसा सोच विचार रखना बहोतेक वादी के लिए सामन्य हो सकता है, परन्तु यही सोच विचार अध्यात्मिक व्यक्ति के लिए अत्यंत गातक होंगा | एक और परमेश्वर को परमेश्वर स्वीकार किया जा रहा है और दूसरी और परमेश्वर पर शक किया जा रहा है | यदि परमेश्वर के विषय में किसी से भी यह पूछा जाय की “ क्या परमेश्वर न्यायकारी है या अन्यायकारी ? उत्तर यह मिलेंगा की परमेश्वर न्यायकारी है | यदि परमेश्वर न्यायकारी है तो शक नहीं कर सकते और शक करना है, तो परमेश्वर न्यायकारी नहीं हो सकता | परन्तु साधनों के आभाव से ग्रस्त जनता इस बात को नहीं समझ सकती है | यह ही समझ का अभाव कभी-कभी साधना करने वाले अध्यात्मिक व्यक्तियों में भी देखा जाता है | साधनों के आभाव की पीड़ा इतनी गहरी होती है की साधना के पथिक का सारा ज्ञान दब जाता है | और वह साधक भी परमेश्वर को कोसने लगता है |

यह कैसी विडम्बना है देखिये परमेश्वर ने सारे साधन दिये है पर किसी को आँख, किसी को कान, किसी को नाक या किसी को वाणी नहीं दिये | एक अंग या साधन नहीं है, बाकी सभी अंग या साधन है | सब कुछ दिये जाने पर भी एक साधन को लेकर साधक के मन में परमेश्वर के प्रति शक उत्पन्न हो रहा है | ऐसी स्तिथि में साधक, साधना को साधना के रूप में समूचे पद्धति से नहीं कर पायेंगा | साधक को यह विचार करना चाइये की जितने भी साधन मिले हुए है वे मेरे कर्मो के कर्मो के आधार पर ही मिले है, और जो भी साधन नहीं मिले है, वे भी मेरे कर्मो के आधार पर ही नहीं मिले है | यदि इस बात को साधक समझता है, तो इस समझ को विवेक के रूप में बदले | क्यों की समझने मात्र से प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती है | इसलिए उस समझ को विवेक में बदलना चाइये और उस विवेक को भी वैराग्य में बदलना पड़ता है | उसी स्तिथि में साधक के मन में फिर कभी परमेश्वर के प्रति शंका नहीं होंगी |

साधक को यह भी समझ लेना चाइये की परमेश्वर ने हमे जितने भी साधन दिये है, उन साधनों से भी हम अपने प्रयोजनों को पूर्ण कर सकते है | हा, इतना अवश्य है की समय में थोडा बहोत आगे-पीछे हो सकता है, परन्तु प्रयोजन को अवश्य पूरा कर सकते है | सब साधन उपलब्ध है पर एक आद साधन के आभाव में हताश निराश होने की आवश्यकता नहीं है | चाहे आँख  न हो, चाहे कान न हो, चाहे हाथ न हो, चाहे पाँव न हो, परन्तु हमारी बुद्धि कार्य कर रही है, तो बहोत है | उस बुद्धि के बल पर हम वह सब कुछ कर सकते है, जो मनुष्य के द्वारा करने योग्य है |

हम पर परमेश्वर की इतनी अधिक कृपा है की हमे वह अमूल्य बुद्धि दी है, जो किसी अन्य प्राणी में देखने को नहीं मिलती है, यदि मनुष्य यह विचार न करे की “ मुझे यह नहीं दिया, वो नहीं दिया “ बल्कि यह विचार करे की जो भी परमेश्वर ने मुझ को साधन दिये, उन साधनों के प्रयोग कैसे करू, जिससे अपने प्रयोजन को पूरा कर सकू | हमे जितने भी साधन मिले हुए है, उनका भी पूरा प्रयोग नहीं कर पा रहे है, अर्थात सदुपयोग कम हो रहा है और दुरपयोग ज्यादा हो रहा है | एक-एक साधन के दुरूपयोग को रोक-रोक कर उसे सदुपयोग में लगायाजाय तो हमे समय की कमी दिखाई देंगी और साधनों की अधिकता दिखाई देंगी | परमेश्वर ने उधार मन से इतने साधन उपलब्ध कराये है की उनका सदुपयोग करने का समय ही बच नहीं पाता है तो और अधिक साधनों को पाकर भी क्या कर लेंगे ? हा, जो भी साधन उपलब्ध है, उनका कितना प्रतिशत प्रयोग किया और कितना प्रतिशत प्रयोग नहीं किया, इसका आकलन किया जाय, तो मनुष्य को अनुभूति होंगी की साधन कम मात्रा में है या अधिक मात्रा में है | साधन कम है या अधिक है, यह बड़ी बात नहीं है, बल्कि उन साधनों का समुचित प्रयोग कितनी मात्रा में किया और कितनी मात्रा में नहीं किया | साधक को उपयोग की दिशा में कदम बढ़ाना चाइये, ना की साधनों को पाने की दिशा में | परमेश्वर ने हमे क्या नहीं दिया ? सब कुछ दिया है, ऐसी मति से ही साधक साधना कर सकता है |

सृष्टि का आदिकाल

universe 1

मेघ, इंद्र, परमेश्वर विद्या  (सृष्टि  का आदिकाल )

15 हिरण्यस्तूप आङ्गिरस: इन्द्र:। त्रिष्टुप्

Scientific Background Quoted thankfully from “the secret life of GERMS” by Philip M. Tierno)

(According to modern science during the period of formation of Earth’s History, intense volcanic activity was producing oxygen by releasing it from Earth’s interior. In the primordial soup, ancient blue green algae lived by photosynthesis, and also produced Oxygen. Over the course of perhaps three  billion years, the Oxygen produced by algae and the Oxygen spewed by the volcanoes changed the Earth’s atmosphere , creating an Oxygen blanket that allowed higher life forms to evolve from germs. Oxygen in upper atmosphere came in contact with UV (Ultra Violet) Rays and electrical discharges. This converted Oxygen in upper atmosphere in to ozone that can more strongly absorb UV rays. In this way Earth’s Ozone layer was formed.  If land dwelling organisms had to face the full force of Sun’s UV rays, all life on Earth would have eventually destroyed. This Ozone layer in the upper atmosphere prevents this by acting as a protective shield.)1

Earth’s Atmosphere

The total global environment consists of four major realms: a gaseous atmosphere, liquid hydrosphere, solid lithosphere, and living biosphere.

From space, Earth’s atmosphere looks like a blue sphere  with gaseous envelopes ..  This fragile, nearly transparent envelope of gases supplies the air that we breathe each day. It also regulates the global temperature and filters out dangerous levels of solar radiation. In recent years, scientific research has shown that the chemical composition of the atmosphere is changing because of both natural and human induced causes. There is growing concern over the impact of human activities. Mankind may be increasing levels of heat absorbing gases, thereby contributing to global warming and destroying ozone, the fragile atmospheric ingredient that shields the planet from ultraviolet (UV) radiation.

Ozone and the Atmosphere

Earth is an extraordinary planet. Complex interactions between the land, oceans, and atmosphere created conditions that are favorable for life. One species, man, has managed to alter the environment on a global scale. In order to fully comprehend the impact of our actions, we must view the planet as a whole and understand the relationship between its basic components; land, water, and air.

This web site discusses the chemical composition and evolution of Earth’s atmosphere, focusing on the protective layer of ozone in the stratosphere. The destructive properties of troposphere ozone are also presented. Diagrams and animation sequences are used to visually depict the delicate structure of the ozone molecule and the chemical reactions involved in its formation and destruction. Ozone destroying pollutants were first identified in 1973.Since that time there has been a considerable amount of controversy surrounding the subject of ozone depletion. More than 20 years of ozone-related scientific studies, international meetings, and global industrial agreements are summarized in the last section of this site.

Historical Atmosphere

Earth is believed to have formed about 5 billion years ago. In the first 500 million years a dense atmosphere emerged from the vapor and gases that were expelled during degassing of the planet’s interior. These gases may have consisted of hydrogen (H2), water vapor, methane (CH4), and carbon oxides. Prior to 3.5 billion years ago the atmosphere probably consisted of carbon dioxide (CO2), carbon monoxide (CO), water (H2O), nitrogen (N2), and hydrogen.

The hydrosphere was formed 4 billion years ago from the condensation of water vapour, resulting in oceans of water in which sedimentation occurred.

The most important feature of the ancient environment was the absence of free oxygen. Evidence of such an anaerobic reducing atmosphere is hidden in early rock formations that contain many elements, such as iron and uranium, in their reduced states. Elements in this state are not found in the rocks of mid-Precambrian and younger ages, less than 3 billion years old

Formation of the Ozone Layer

One billion years ago, early aquatic organisms called blue-green algae began using energy from the Sun to split molecules of H2O and CO2 and recombine them into organic compounds and molecular oxygen (O2).This solar energy conversion process is known as photosynthesis. Some of the photo synthetically created oxygen combined with organic carbon to recreate CO2 molecules. The remaining oxygen accumulated in the atmosphere, touching off a massive ecological disaster with respect to early existing anaerobic organisms.As oxygen in the atmosphere increased, CO2 decreased.

High in the atmosphere, some oxygen (O2) molecules absorbed energy from the Sun’s ultraviolet (UV) rays and split to form single oxygen atoms. These with remaining oxygen (O2) to form ozone (O3) molecules, are very effective at absorbing UV rays. The thin layer of ozone that surrounds Earth acts as a shield, protecting the planet from irradiation by UV light.

The amount of ozone required to shield Earth from biologically lethal UV radiation, wavelengths from 200 to 300 nanometers (nm), is believed to have been in existence 600 million years ago. At this time, the oxygen level was approximately 10% of its present atmospheric concentration. Prior to this period, life was restricted to the ocean. The presence of ozone enabled organisms to develop and live on the land. Ozone played a significant role in the evolution of life on Earth, and allows life as we presently know it to exist.

Present Day Atmosphere

The atmosphere we breathe is a relatively stable mixture of several hundred types of gases from different origins. This gaseous envelope surrounds the planet and revolves with it. It has a mass of about 5.15 x 10E15 tons held to the planet by gravitational attraction. The proportions of gases, excluding water vapor, are nearly uniform up to approximately 80 kilometers (km) above Earth’s surface. The major components of this region, by volume, are oxygen (21%), nitrogen (78%), and argon (0.93%).Small amounts of other gases are also present. These remaining trace gases exist in such small quantities that they are measured in terms of a mixing ratio. This ratio is defined as the number of molecules of the trace gas divided by the total number of molecules present in the volume sampled. For example, O3, CO2, and chlorofluorocarbons (CFCs) are measured in parts per million by volume (ppmv), parts per billion by volume (ppbv) or parts per trillion by volume (pptv).

Atmospheric temperature and chemistry are believed to be controlled by the trace gases. There is increasing evidence that the percentages of environmentally significant trace gases are changing because of both natural and human factors. Examples of man-made gases are the chlorofluorocarbons CFC-11 and CFC-12 and halons. Carbon dioxide, nitrous oxide, and methane (CH4) are produced by the burning of fossil fuels, expelled from living and dead biomass, and released by the metabolic processes of microorganisms in the soil, wetlands, and oceans of our planet.

  • Summing up:
  •  The Earth formed more than 4 billion years ago along with the other planets in our solar system.
  • The early Earth had no ozone layer and was probably very hot. The early Earth also had no free oxygen.
  • Without an oxygen atmosphere very few things could live on the early Earth. Anaerobic bacteria were probably the first living things on Earth. These are referred to as Marut gan मरुत गण  in Vedas.
  • The early Earth had no oceans and was frequently hit with meteorites and asteroids. There were also frequent volcanic eruptions. Volcanic eruptions released water vapor that eventually cooled to form the oceans.
  • The atmosphere slowly became more oxygen-rich as solar radiation split water molecules and cyanobacteria began the process of photosynthesis. Eventually the atmosphere became like it is today and rich in oxygen.
  • The first complex organisms on Earth first developed about 2 billion years ago.

RV1.32

ऋषि: -हिरण्यस्तूप  आङ्गिरस =

इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्र वोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री

अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत् पर्वतानाम् ।। 1.32.1

-महर्षि दयानंद के अनुसार; हे विद्वान्‌ लोगो ! तुम लोग जैसे सूर्य के जिन प्रसिद्ध  पराक्रमों को कहो  उन को  मैं भी शीघ्र कहूं | वह सब पदार्थों का छेदन करने  वाली किरणों से -युक्त सूर्य मेघ का हनन कर के वर्षाता है, उस मेघ के अवयव रूप जलों को नीचे  ऊपर करता उसको पृथ्वी पर गिराता और उन मेघों के सकाश से नदियों को छिन्न  भिन्न करके  बहाता है |

अहन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै वज्रं स्वर्यं ततक्ष

वाश्रा  इव धेनव: स्यन्दमाना अंज: समुद्रमव जग्मुराप: ।। 1.32.2

-जैसे यह सूर्यलोक मेघमण्डल में रहने वाल गर्जन शील मेघ को मारता है, इस मेघ के लिए  काटने के स्वभाव वाले किरणों को तोड़ता है. इस कर्म से बछड़ों को प्रीति पूर्वक चाहती हुई गौओं के समान चलते हुए प्रकट जल से पूर्ण समुद्र को नदियों के द्वारा जाते हैं.

Life Begins

वृषायमाणोऽवृणीत सोमं त्रिकद्रुकेष्वपिबत् सुतस्य

सायकं मघवादत्त वज्रमहन्नेनं प्रथमजामहीनाम् 1.32.3

-सशक्त वृषभ की तरह आचरण करता हुवा सूर्य्यलोक मेघ के समान इस उत्पन्न हुए जगत के व्यवहार में बर्ताने वाले पदार्थों की  तीन अवस्थाओं उत्पत्ति, स्थिरता और विनाश की व्यवस्था बनाता है.( पृथ्वी पर वनस्पति और जीव उत्पन्न हो जाते हैं)  और्र पृथ्वी पर सूर्य अपनी शस्त्ररूपी किरण समूह द्वारा और मेघों से वर्षा द्वारा पृथ्वी  पर अपार समृद्धि का साधन बनता है. ( यहां फोटोसिंथेसिस द्वारा वनस्पति और पर्यावरण उत्पत्ति का ज्ञान निहित है)

Ozone layer Formation

यदिन्द्राहन् प्रथमजामहीनामान्मायिनाममिना: प्रोत माया:

आत् सूर्यं जनयन् द्यामुषासं तादीत्ना शत्रुं किला विवित्से ।। 1.32.4

-प्रथम सब भिन्न भिन्न पदार्थों को आस्तित्व प्रदान करने के लिए सूर्य्यलोक में छोटे  छोटे  मेघों के मध्य में सूर्य का  आवरण  करने वाली बड़ी घटा  उठती है. उन मेघों  की अंधकार  रूप घटाओं  को अच्छे  प्रकार  हरता है तब विशेष   किरण  समूह  से प्रात:काल और  प्रकाश को प्रकट करता है.

Dinosaur Period

अहन् वृत्रं वृत्रतरं व्यंसमिन्द्रो वज्रेण महता वधेन

स्कन्धांसीव कुलिशेना विवृक्णाऽहि: शयत उपपृक् पृथिव्या: ।। 1.32.5

-यास्क /दयानंद के अनुसार ; बड़े  बड़े मेघों और बिजलियों के वज्र से बड़े बड़े वृक्षादि को काट कर पृथ्वी पर  धराशायी कर दिया और वे सूर्य के गुणों से मृतक वत पृथ्वी पर सोते हैं

Sedimentary Rock Formation

अयोध्देव दुर्मद हि जुह्वे महावीरं तुविबाधमृजीषम्

नातारीदस्य समृतिं वधानां सं रुजाना: पिपिष इन्द्रशत्रु: ।। 1.32.6

-यास्क/  दयानंद के अनुसार; वे बड़े बड़े पदार्थ सूर्य के शत्रु मेघ से युद्ध न कर सकने वाले, सब पदार्थों के रस को लिए हुए  सूर्य से पिस कर पर्वतों,  पृथ्वी के  बड़े बड़े टीलों को काटती हुई नदियों में बह चले.

अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य वज्रमधि सानौ जघान

वृष्णर्वध्रि: प्रतिमानं बुभूषन् पुरुत्रा वृत्रो अशयद् व्यस्त: ।। 1.32.7

नदं भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अति यन्त्याप:

याश्चिद् वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत् तासामहि: पत्सुत:शीर्बभूव ।। 1.32.8

नीचावया अभवद् वृत्रपुत्रेन्द्रो अस्या अव वधर्जभार

उत्तरा सूरधर: पुत्र आसीद् दानु: शये सहवत्सा धेनु: ।। 1.32.9

अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां काष्ठानां मध्ये निहितं शरीरम्

वृत्रस्य निण्यं वि चरन्त्यापो दीर्घं तम अशयदिन्द्रशत्रु: ।। 1.32.10

-यास्क के अनुसार ; कहीं न रुकने वाले अस्थावर जलों में मेघ निहित है.जब वे मेघ निम्नप्रदेश में विचरते हुए गाढ़  अंधकार  फैला देते हैं.

दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन् निरुध्दा आप: पणिनेव गाव:

अपां बिलमपिहितं यदासीद वृत्रं जघन्वाँ अप तद् ववार ।। 1.32.11

-यास्क के अनुसार; मेघ में  छिपाया हुवा रक्षक वृष्टि जल जो जल के निकलने का  द्वार जो ढका हुआ था उसे विद्युत ने खोल दिया,एवं वृष्ट होने लगी.

अश्व्यो वारो अभवस्तदिन्द्र सृके यत्त्वा प्रत्यहन् देव एक:

अजयो गा अजय: शूर सोममवासृज: सर्तवे सप्त सिन्धून् ।। 1.32.12

नास्मै विद्युन्न तन्यतु: सिषेध यां मिहमकिरद् ध्रादुनिं

इन्द्रश्च यद् युयुधाते अहिश्चोतापरीभ्यो मघवा वि जिग्ये ।। 1.32.13

अहेर्यातारं कमपश्य इन्द्र हृदि यत्ते जघ्नुषो भीरगच्छत्

नव यन् नवतिं स्रवन्ती: श्येनो भीतो अतरो रजांसि ।। 1.32.14

इन्द्रो यातोऽवसितस्य राजा शमस्य शृंंगिणो वज्रबाहु:

सेदु राजा क्षयति चर्षणीनामरान् न नेमि: परि ता बभूव ।। 1.32.15