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गृह नक्षत्र और सितारों के गुलाम ( फलित ज्योतिष की पोल) – पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

सुर्यादास- देखो भाई , अब हम अंग्रेजों की गुलामी से छूट गए. अब हम स्वतंत्र हैं .

बुद्धि प्रकाश- ठीक तो है . एक गुलामी गयी परन्तु कई प्रकार की गुलामी बाकी हैं. जब तक दुसरी गुलामियाँ रहेंगी हम कभी स्वतंत्र नहीं कहलाये जा सकते .

सुर्यादास – क्या स्वतंत्र नहीं है ? हम अपने देश के आप मालिक हैं . हमीं में से प्रधानमंत्री है हमीं में से राष्ट्रपति है हमीं में से कलेक्टर और कमिश्नर हैं . हमीं में से गवर्नर भी है .

बुद्धि प्रकाश- यह तो सच है. परन्तु जब तक देश में अविद्या का राज है तब तक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हो सकती अविद्या की गुलामी सबसे बड़ी गुलामी है .

सुर्यादास – आपका क्या मतलब है . हम किसके दास हैं ?

बुद्धि प्रकाश- लीजिये भारतवर्ष में सबसे बड़ी दासता है सितारों की . बच्चा पैदा होते ही ज्योतिषी से पूछते हैं की इसके गृह कैसे हैं ?

सुर्यादास – तो क्या जन्मपत्री नहीं बनवानी चाहिए ? फिर आयु की गणना कैसे होगी? कैसे मालूम होगा की अमुक आदमी इतना बड़ा है ?

बुद्धि प्रकाश- आयु के लिए साधारण तिथि से काम चल सकता है . लाल पीले जन्म पत्र की क्या आवश्यकता है ? यह जन्म पत्र नहीं शोक पत्र हिया . बालक के माता पिता दर जाते हैं की बालक के अमुक ग्रह ख़राब हैं .

सुर्यादास – भाई साहब , पहले ग्रहों का दोष मालूम हो जाने से ग्रहों को शांत कर सकते हैं .

बुद्धि प्रकाश- ग्रहोंकी शांति का क्या अर्थ ? मनुष्य का भाग्य उसके कर्मों से मिलता हिया. कर्मों का फल तो अवश्य ही भोगना है. गीता में लिखा है

अवश्यमेव भोकतम कृतं कर्म शुभाशुभम

ग्रहों का कर्मफल से क्या सम्बन्ध ? ग्रह तो अपनी चाल चलते हैं. उनकी चाल तो आकाश में नित्य रहती है . उन्हीं“ग्रहों” में अच्छे आदमी अच्छे कर्म करते हैं . बुरे आदमी बुरे .

ग्रहों की शांति तो ठग विद्या है . ज्योतिषियों ने लोगों से दान दक्षिणा लेने के लिए मनमानी बात गढ़ ली है . यदि शनिश्चर नक्षत्र तुमसे नाराज है तो पंडित जी को दक्षिणा देकर वह कैसे प्रसन्न होगा ? भला क्या पंडित जी शनिश्चर के एजेंट या वकील हैं ? या शनिश्चर के कोई रिश्तेदार हैं ? हमको तो यही दीखताहै की पंडित जी स्वयं ही शनिश्चर हैं जो पुरश्चरण की सामग्री है वह पंडित जी के ही घर रह जाती है . शनिश्चर तक नहीं पहुँचती .

सुर्यादास – अजी देखिये . लड़केलड़की का विवाह भी जन्म पत्र देखकर ही होता है . ग्रह मिलने से वैवाहिक जीवन सुख से बीतता है .

बुद्धि प्रकाश- हम भी यही कहते हैं . भाग्य अपने कर्मों से बनता है . ग्रहों के प्रभाव से नहीं . एक ही महूर्त में लाखों बच्चे उत्पन्न होते हैं . कोई राजा होता है कोई आयु भर रंक अर्थात फ़कीर ही रहता है. ग्रह मनुष्य का न कुछ बिगाड़ सकते हैं न ही बना सकते हैं . जब भाग्य पर ही निर्भर होना है  तो नक्षत्रों और ग्रहों का मुंह ताकना मुर्खता है और जो स्वयं मूर्खों को ठगते हैं वह ठग हैं . यदि ज्योतिषी लोग स्वयं सबसे सुखी होते उनके घर में कुसमय मृत्यु न होती या वह मृत्यु को पुरश्चरण द्वारा टाल सकते थे .

सुर्यादास – ज्योतिषी तो पहले से ही बता देते हैं की अमुक दिन ग्रहण पड़ेगा और उसकी बात सच निकलती  है.

बुद्धि प्रकाश- यह तो ग्रहों की चाल का हिसाब है . भूगोल के साधारण विद्यार्थी भी जानते हैं की पृथ्वी अपनी कीली पर घुमती है और सूर्य के चारो और भी और चाँद पृथ्वी के चारों और घूमता है . जिस  रात पृथ्वी सूर्य और चाँद के बीच में इस प्रकार आ जाती है कि  सूर्य की किरणों को पृथ्वी बीच में ही रोक लेती है और चाँद तक नहीं आने देती उस दिन चाँद ग्रहण पड जाता है और जिस दिन चाँद पृथ्वी और सूर्य के इस प्रकार बीच में आ जाता है की सूर्य की किरणों को चाँद बीच में ही रोक लेता है और पृथ्वी तक नहीं आने देता उस दिन सूर्य ग्रहण पड़ जाता है . स्कूलों में इस प्रकार के गोलों के यन्त्र दिखाए जाते हैं जिससे ठीक बात समझ में आ जाती है .

सुर्यादास-  तो क्या राहू और केतु राक्षसों के आक्रमण की बात झूटी है .

बुद्धि प्रकाश- पंडित जी आप विद्वान होकर ऐसी अनर्गल बातों पर विश्वास करते हैं . यदि राहू और केतु कोई वास्तविक राक्षस होते तो कोई बतावे की वह कहाँ रहते हैं ? अमावस्या और पूर्णिमा कोई ही क्यूँ आक्रमण करते हैं ? और आपके गंगा नहाने और मेहतरों को दान देने से प्रभाव कैसे नष्ट हो जाता है .

सुर्यादास-   देखिये अभी कुछ दिन हुए नक्षत्रों में गड़बड़ हो गयी थी ? काशी के पंडितों ने बहुत से पुरश्चरण कराये . सारे भारतवर्ष में कोलाहल मच गया . बड़े बड़े यज्ञ किये गए .

बुद्धि प्रकाश- यह कोलाहल तो केवल मुर्ख हिन्दुओं को डराने और लुटने के लिए था . आप जैसे डर गए और ज्योतिषियों की ठगाई से देश भर के लोगों में चिंता की लहर फ़ैल गयी . बुद्धिमानों ने कुछ भी चिंता नहीं की . न उनके बीच कुछ कोलाहल हुआ .  यही तो सितारों की गुलामी है . बच्चा पैदा होने से लेकर मृत्यु तक ज्योतिषी उसका पीछा नहीं छोड़ते नाम रखेंगे तो सितारों से पूछकर. मुंडन करेंगे तो सितारों से पूछ कर . विवाह करेंगे तो सितारों से पूछकर :

अंजुम शनास को भी खलल है दिमाग का

पूछो अगर जमीन की कहे आसमां की बात

सुर्यादास-   बड़े बड़े प्रोफ़ेसर जज वकील सभी तो ज्योतिषियों से ग्रह दिखाते हैं और जन्म पत्र बनवाते यहीं .

बुद्धि प्रकाश- यह न पूछिए इसी को टी भेडचाल कहते हैं . यह लोग स्कूलों में कुछ और पढ़ते और घर में आकर मुर्ख बन जाते हैं . वह गणित ज्योतिष आदि सभी विद्याओं को पढ़ते हैं परन्तु अन्धविश्वास उनका पीछा ही नहीं छोड़ता . ज्योतिषी लोग उनकी स्त्रियों को बहकाया करते हैं . जिन देशों में नक्षत्रों पर विश्वास नहीं किया जाता वहां तो ज्योतिषियों की कुछ नहीं चलती . क्यों कोई बुध्धिमान सेनापति ज्योतिषियों से मुहूर्त दिखाकर लड़ाई करेगा . क्या कोई बुद्धिमान वकील ज्योतिषियों से पूछकर मुकदमे लडेगा? क्या कोई बुद्धिमान व्यापारी ज्योतिषियों से पूछकर व्यापार करेगा? क्या कोई कालेज का विद्यार्थी परीक्षा उत्तीर्ण होने के लिए ज्योतिषियों और जन्म पत्र पर विश्वास करके परीक्षा उत्तीर्ण करेगा ? भारतवर्ष सैकड़ों वर्षों से भुत प्रेत चुडैलों और सितारों का गुलाम रह चुका. अब इस पर दया कीजिये .

हमारे क्रांतिकारियों शहीदों तथा अन्य देश भक्तों के आत्म त्याग से देश स्वतंत्र हुआ है  ज्योतिषियों की करतूतों से नहीं. अब भी यदि देश को शत्रुओं के हाथ से बचा सकेगा तो चतुर नीतिज्ञ और वीर सेनाध्यक्ष ही बचा सकेंगे . ज्योतिषियों के पोथी पत्रे धर के धरे रह जायेंगे . नक्षत्र बेचारे तो हमसे कुछ कहते सुनते नहीं . वह क्या कहें ? वह तो जड़ हैं . चेतन नहीं . हमको डर अगर है तो इन धूर्त ज्योतिषियों का है जो बिना वकालतनामे के ही इन ग्रहों के वकील बने हुए हैं . कैसी हंसी की बात है किशनिश्चर को तेल कीदक्षिणा देने से शनिश्चर देवता का कोप दूर हो जाये .

देहात में इन ज्योतिषियों की चाल खूब चल जाती है . अतः हमारे ग्रामों के लोगों को इससे सावधान रहना चाहिए . स्त्रियों और बालकों को भी चाहिए कि इनके पास न फटकें और इस नियम कोई दृढ गाँठ बांधकर याद कर लें कि – अच्छेकर्मों का अवश्य अच्छा फल मिलेगा और बुरे कर्मों का बुरा . झूठ मक्कारी चोरी जारी इनसे बचिए और ग्रहों या सितारों के चक्कर में मत पड़िए .

‘ईश्वर व उसकी उपासना पद्धतियां – एक वा अनेक?’

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ओ३म्

विचार व चिन्तन

ईश्वर उसकी उपासना पद्धतियांएक वा अनेक?’

 

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

हम संसार में देख रहे हैं कि अनेक मत-मतान्तर हैं। सभी के अपने-अपने इष्ट देव हैं। कोई उसे ईश्वर के रूप में मानता है, कोई कहता है कि वह गाड है और कुछ ने उसका नाम खुदा रखा हुआ है। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न भाषाओं में एक ही संज्ञा – माता के लिए मां, अम्मा, माता, मदर, मम्मी या अम्मी आदि नाम हैं उसी प्रकार से यह ईश्वर के अन्य-अन्य भाषाओं व उपासना पद्धतियों में ईश्वर के नाम हैं। क्या यह ईश्वर, ळवक व खुदा अलग-अलग सत्तायें हैं? कुछ ऐसे मत भी हैं जो ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं करते तथा अपने मत के संस्थापकों को ही महान आत्मा मानते हैं जिनकी स्थिति प्रकारान्तर से ईश्वर के ही समान व ईश्वर की स्थानापन्न है। जहां तक सभी मतों का प्रश्न है, हमने अनुभव किया है कि सभी मतों के सामान्य अनुयायी अपनी बुद्धि का कम ही प्रयोग करते हैं। उन्हें जो भी मत के प्रवतर्कों व उसके नेताओं द्वारा कहा या बताया जाता है या जो उन्हें परम्परा से प्राप्त हो रहा है, उस पर आंखें बन्द कर विश्वास कर लेते हैं। उनकी वह आदत, कार्य व व्यवहार उनके अपने जीवन के लिए हानिकर ही सिद्ध होती है एवं इसके साथ यह देश व समाज के लिए भी अहित कर सिद्ध होती है। यहां यदि विचार करें तो यह ज्ञात होता है कि ईश्वर ने सभी मनुष्यों को बुद्धि तत्व लगभग समान रूप से दिया है। इस बुद्धि तत्व का प्रयोग व उपयोग बहुत कम लोग ही करना जानते हैं। आजकल बहुत से लोग ऐसे हैं जो विद्या का अध्ययन धनोपार्जन के लिए करते हैं। उनके जीवन का एक ही उद्देश्य है कि अधिक से अधिक धन का उपार्जन करना और उससे अपने व अपने परिवार के लिए सुख व सुविधा की वस्तुओं को उपलब्ध करना तथा उन सबका जी भर कर उपयोग करना। यह मानसिकता व सोच हमें बहुत ही घातक अनुभव होती है। एकमात्र धन की ही प्राप्ति में मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्य को भूलकर उससे इतनी दूर चला जाता कि जहां से वह कभी लौटता नहीं है और उसका यह जीवन एक प्रकार से नष्ट प्रायः हो जाता है।

हम यह मानते हैं कि धन की जीवन में अत्यन्त आवश्यकता है परन्तु जिस प्रकार से हर चीज की सीमा होती है उसी प्रकार से धन की भी एक सीमा है। उस सीमा से अधिक धन, धन न होकर हमारे पतन व नाश का कारण बन सकता है व बनता है। इस धन को अर्थ नहीं अपितु अनर्थ कहा जाता है। जिस प्रकार से भूख से अधिक भोजन करने पर उसका पाचन के यन्त्रों पर कुप्रभाव पड़ता है उसी प्रकार से आवश्यकता से कहीं अधिक धन का उपार्जन व संचय, जीवन व उसके उद्देश्य की प्राप्ति पर कुप्रभाव डालता है। हमारे ऋषि-मुनि-योगी साक्षात्कृतधर्मा होते थे जिन्हें अपने ज्ञान व विवेक से किसी भी क्रिया के परिणाम का पूरा ज्ञान होता था। उन्होंने एक सूत्र दिया कि जो व्यक्ति धन व काम की एषणा से युक्त है, उसे धर्म का ज्ञान नहीं होता। धर्म का सम्बन्ध हमारे दैनिक कर्तव्यों एवं आचार, विचार व व्यवहार से होता है। दैनिक कर्तव्य क्या हैं यह आज के ज्ञानी व विद्वानों तक को पता नहीं है। इन दैनिक कर्तव्यों में प्रातः उठकर शारीरिक शुद्धि करके ईश्वर के गुणों व स्वरूप का ध्यान कर निज भाषा एवं वेद मन्त्रों से अर्थ सहित सर्वव्यापाक व निराकार ईश्वर प्रार्थना की जाती है। उसका धन्यवाद किया जाता है जिस प्रकार से हम अपने सांसारिक जीवन में किसी से कृतज्ञ होने पर उसका धन्यवाद करते हैं। ईश्वर ने भी हमें यह संसार बना कर दिया है। हमें माता-पिता-आचार्य-भाई-बहिन-संबंधी-मित्र-भौतिक सम्पत्ति-हमारा शरीर-स्वास्थ्य आदि न जाने क्या-क्या दिया है। इस कारण वह हम सब के धन्यवाद का पात्र है। इन्हीं सब बातों पर विचार व चिन्तन करना, ईश्वर के गुणों व उपकारों का चिन्तन व ध्यान करना ही ईश्वर की उपासना कहलाती है। इससे मनुष्य को अनेक लाभ होते हैं। इससे निराभिमानता का गुण प्राप्त होता है। निराभिमानता से मनुष्य अनेक पापों से बच जाता है। दूसरा कर्तव्य यज्ञ व अग्निहोत्र का करना है। तीसरा कर्तव्य माता-पिता आदि के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन है जिससे माता-पिता पूर्ण सन्तुष्ट हों। इसे माता-पिता की पूजा भी कह सकते हैं। इसके बाद अतिथि यज्ञ का स्थान आता है जिसमें विद्वानों व आचार्यों का पूजन अर्थात् उनका सम्मान व उनकी आवश्यकता की वस्तुएं उन्हें देकर उनको सन्तुष्ट करना होता हैं। अन्तिम मुख्य दैनिक कर्तव्य बलिवैश्वदेव यज्ञ है जिसमें मनुष्येतर सभी प्राणियों मुख्यतः पशुओं व कीट-पतंगों को भोजन कराना होता है।

हम बात कर रहे थे कि अनेकानेक मतों में अपने अपने गुरू व अपने-अपने भगवान हैं। सबकी पूजा पद्धतियां अलग-अलग हैं। क्या वास्तव में ईश्वर भी अलग-अलग हैं व एक है? यदि एक है तो फिर सब मिलकर उसके एक सत्य स्वरूप का निर्धारण करके समान रूप से एक ही तरह से पूजा या उपासना क्यों नहीं करते? इसका उत्तर ढूढंना ही इस लेख का उद्देश्य है। ईश्वर केवल एक ही है, पहले इस पर विचार करते हैं। संसार में ईश्वर वस्तुतः एक ही है। एक से अधिक यदि ईश्वर होते तो न तो यह संसार बन सकता था और न ही चल सकता है। हम एक उदाहरण के लिए एक बड़े संयुक्त परिवार पर विचार कर सकते हैं। यदि परिवार का एक मुख्या न हो, समाज का एक प्रतिनिधि न हो, प्रान्त का एक मुख्य मंत्री न हो और देश का एक प्रधान न होकर अनेक प्रधान मंत्री हों तो क्या देश कभी चल सकता है? कदापि नहीं। आज हमारे देश में जितने राजनैतिक दल हैं, यदि सभी दलों के या एक से अधिक दलों के दो-चार या छः प्रधान मंत्री बना दें तो देश की जो हालत होगी वही एक से अधिक ईश्वर के होने पर इस संसार या ब्रह्माण्ड की होने का अनुमान आसानी से कर सकते हैं। हम पौराणिक भगवानों को देखते हैं कि पुराणों की कथाओं में उनमें परस्पर एकता न होकर कईयों में इस बात का विवाद हो जाता है कि कौन छोटा है और कौन बड़ा है। वैष्णव स्वयं को शैवों से श्रेष्ठ मानते हैं और शैव स्वयं को वैष्णवों से श्रेष्ठ। अतः हमें हमारे प्रश्न का उत्तर मिल गया है कि संसार व ब्रह्माण्ड केवल एक सर्वव्यापक, चेतन सत्ता ईश्वर स ेचल सकता है, उनके सत्ताओं से कदापि नहीं। संसार का रचयिता, संचालक, पालक व प्रलयकर्ता ईश्वर केवल एक ही सत्ता है जो पूर्ण धार्मिक और सब प्राणियों का सच्चा हितैषी है और वह माता-पिता-सच्चे आचार्य के समान सबके कल्याण की भावना से कार्य करता है।

अब उपासना पद्धतियों की चर्चा करते हैं। उपासना का अर्थ होता है पास बैठना। जैसे विद्यालय में एक कक्षा में विद्यार्थी अगल-बगल में बैठते हैं। जहां गुरू सामने बैठ या खड़ा होकर उपदेश दे रहा होता है तो वह गुरू-शिष्य एक दूसरे की उपासना कर रहे होते हैं। ईश्वर सर्वव्यापक होने से सबके पास पहले से ही उपस्थित व मौजूद है। उसे मिलने या प्राप्त करने के लिए कहीं आना-जाना नहीं है। हमारा मन व ध्यान सांसारिक वस्तुओं में लगा रहता है जिसका अर्थ है कि हम उन-उन सांसारिक वस्तुओं की उपासना कर रहे होते हैं। यदि हम सभी सांसारिक विषयों से अपना मन व ध्यान हटाकर ईश्वर के गुणों व उसके स्वरूप में स्थिर कर लेते हैं तो यह ईश्वर की उपासना होती है। इसके अलावा ईश्वर की किसी प्रकार से उपासना हो नहीं सकती है। योग दर्शन में महर्षि पतंजलि जी ने भी ईश्वर की उपासना का यही तरीका व विधि बताई है। ध्यान अर्थात् ईश्वर के स्वरूप वा उसके गुणों का विचार व चिन्तन ध्यान करलाता है जो लगातार करते रहने से समाधि प्राप्त कराता है। समाधि में ईश्वर के वास्तविक स्वरूप व प्रायः सभी मुख्य गुणों का साक्षात् व निभ्र्रान्त ज्ञान होता है। नान्यः पन्था विद्यते अयनायः, अन्य दूसरा कोई मार्ग या उपासना पद्धति इस लक्ष्य को प्राप्त करा ही नही सकती। यही मनुष्य जीवन का और किसी जीवात्मा का परम लक्ष्य या उद्देश्य है। अतः ईश्वर की पूजा, उपासना, स्तुति व प्रार्थना आदि सभी की विधि केवल यही है और इसी प्रकार से उपासना करनी चाहिये व की जा सकती है। बाह्याचार आदि जो सभी मतों में दिखाई देता है वह पूर्ण उपासना न होकर आधी-अधूरी व आंशिक उपासना ही कह सकते हैं जिससे परिणाम भी आधे व अधूरे ही प्राप्त होते हैं। अतः सभी मनुष्यों को चाहें वह किसी भी मत, धर्म, सम्प्रदाय या मजहब के ही क्यों न हों, सत्यार्थ प्रकाश, आर्याभिविनय एवं वेदादि सत्य शास्त्रों का अध्ययन, स्वाध्याय, विचार व चिन्तन करना चाहिये। यही ईश्वर की सही उपासना पद्धति है और इसी से ईश्वर की प्राप्ति अर्थात् साक्षात्कार होगा। ईश्वर केवल एक ही है और नाना भाषाओं में उसके नाना व भिन्न प्रकार के नाम यथा, ईश्वर, राम, कृष्ण, खुदा व गौड आदि शब्द उसी के लिए प्रयोग किये जाते हैं। ईश्वर का मुख्य नाम केवल एक है और वह है “ओ३म्” जिसमें ईश्वर के सब गुणों का समावेश है। इस ओ३म् नाम की तुलना में ईश्वर का अन्य कोई नाम इसके समान, इससे अधिक व प्रयोजन को प्राप्त नहीं कर सकता। “ओ३म्” का अर्थ पूर्वक ध्यान व चिन्तन करने से भी उपासना होती है और इससे समयान्तर पर मन की शान्ति सहित अनेकानेक लाभ होते हैं। रोगों का शमन व स्वास्थ्य लाभ भी होता है। इसी के साथ हम इस चर्चा को विराम देते हैं। पाठकों की निष्पक्ष प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

‘यात्रा व पर्यटन से देवपूजा व संगतिकरण का लाभ, देश की एकता व अखण्डता को बढा़वा तथा प्रदेशों का आर्थिक विकास’

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ओ३म्

यात्रा पर्यटन से देवपूजा संगतिकरण का लाभ, देश की एकता अखण्डता को बढा़वा तथा प्रदेशों का आर्थिक विकास

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

जब हम किसी उद्देश्य से एक स्थान से अन्य दूरस्थ स्थान पर जाते हैं तो घर से निकल कर घर वापिस लौटने तक भ्रमण किये गये स्थानों पर जाने को हम यात्रा का नाम देते हैं। यात्रा के अनेक उद्देश्य हुआ करते हैं। जैसे बच्चे सुदूर स्थानों पर रहने वाले अपने माता-पिता, दादी-दादा व नानी-नाना के घर जाते हैं तो इसे यात्रा कहा जाता है। इसी प्रकार शिक्षा के उद्देश्य से हम आवासीय स्कूलों में पढ़ते हैं तो हमारा वहां जाना व अवकाश के दिनों में घर पर आना भी एक संक्षिप्त व सीमित यात्रा की परिधि में आता है। शिक्षा पूरी होने पर व्यवसाय के लिए युवक व युवतियां प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए आवेदन करते हैं। लिखित परीक्षा के लिए दूर-दूर के स्थानों पर जाना पड़ता है। उत्तीर्ण होने पर साक्षात्कार के लिए भी किसी अन्य दूरस्थ स्थान पर जाना होता है। यह सब भी यात्रायें हैं। यदि हमें अपने नगर या गांव से कहीं बाहर व्यवसाय करना होता है तो सप्ताह, माह या इससे अधिक अवधि के अन्तराल पर आना-जाना होता है। विवाह यदि निवास स्थान से दूर अन्य नगरों व स्थानों पर होता है तो समय-समय पर ससुराल में जाना-आना होता है तो इसके लिए भी यात्रा करनी पड़ती है।

 

केन्द्र सरकार, सार्वजनिक प्रतिष्ठान, राज्य सरकारों व कुछ प्राइवेट सेवाओं में नियोक्ताओं की ओर से अपने कार्मिकों को वर्ष, दो वर्ष या इससे कुछ अधिक अवधि में एक या अनेक बार यात्रा सुविधा दी जाती है जिसका उपभोग कर व्यक्ति पर्यटन के प्रसिद्ध स्थानों यथा पोर्ट ब्लेयर, गोवा, कन्याकुमारी, गंगटोक, शिलांग-गुवाहाटी, अरूणाचल प्रदेश, मुम्बई, द्वारिका, सोमनाथ मन्दिर, हरिद्वार, ऋषिकेश, मसूरी आदि स्थानों पर जाते हैं। उन्हें अपने विभाग की ओर से यात्रा का किराया मिल जाता है और परिवार के लोग कुछ होटल-धर्मशालाओं व भोजन आदि पर अपनी तरफ से व्यय करके इन स्थानों पर घूम कर मन को प्रसन्न व आनन्दित अनुभव करते हैं।  ईश्वरीय ज्ञान मानी जाने वाली सृष्टि की सबसे प्राचीन पुस्तक वेद में एक स्थान पर आता है कि हे मनुष्यों, तुम ईश्वर की बनाई हुई इस सृष्टि को देखो, परखो व जानों, जो न कभी नष्ट होती है, न पुरानी और जीर्ण होती है। दार्षनिक सिद्धान्त भी है कि रचना को देखकर रचयिता का ज्ञान होता है। इसी प्रकार से सृष्टि की सुन्दरता, भव्यता व रचनादि विशेष गुणों को देखकर इसके रचयिता सृष्टिकर्ता अर्थात् ईश्वर का ज्ञान होता है। अतः यात्रा का उद्देश्य ऐसे स्थानों पर जाना होता है जो सुन्दर, सुविधापूर्ण, सुख की अनुभूति कराने वाले हों व इसके साथ वहां के लोगों के पहनावें, बोलचाल, व्यवहार, आचार व संस्कृति आदि का अनुभव कराने वाले हों।  मनुष्य को सुखद जीवन व्यतीत करने के लिए संसार में जड़ व चेतन की संगति करना अपरिहार्य है। मनुष्य का जन्म ही संगति का परिणाम है। परिवार में बच्चों की माता-पिता, दादी-दादा, भाई-बहिन, ताऊ-चाचा, तायी-चाची, बुआ आदि हुआ करती हैं। इनकी संगति व सहयोग से ही शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक विकास व उन्नति हुआ करती है। इसके बाद वह अपने आचार्यों व सहपाठी विद्यार्थियों की संगति करते हैं जिससे उन्हें नये-नये अनुभव होते हैं। इसी प्रकार से वह जीवन-यात्रा में जिन-जिन व्यक्तियों के सम्पर्क में आते हैं उनकी संगति से भी उन्हें नये-नये अनुभव होते हैं। इन सबसे व्यक्तित्व के निर्माण में लाभ होता है। यात्रा या पर्यटन का आरम्भ सृष्टि के आरम्भ से ही हो गया था। तिब्बत में लगभग 2 अरब वर्ष पहले सृष्टि की रचना सम्पन्न होने, मनुष्य व प्राणी जगत की उत्पत्ति होने के बाद लोगों की जनसंख्या में वृद्धि के साथ लोग चारों ओर बढ़ते या फैलते गये। नये-नये स्थानों का अनुसंधान किया गया और वहां बस्तियां बसाईं गईं। आरम्भ में कुछ व्यक्ति 10, 20 या 50 बसे होगें जो आज एक नगर या देश बन गये हैं। इस प्रकार से यात्रा का आरम्भ सृष्टि के आरम्भ में ही हो गया था जो सतत जारी है और आज भी समर्थ व सम्पन्न लोग समय-समय पर यात्रा कर अपनी उस प्रवृत्ति को पूरा करते हैं।

 

मनुष्यों में यात्रा की प्रवृत्ति जन्मजात या ईश्वर प्रदत्त एक गुण के रूप में है। इसी प्रवृत्ति के कारण सुदूर अतीत में धार्मिक पर्यटन का उद्भव हुआ था। देश की एकता व अखण्डता के लिए भी धार्मिक पर्यटन सहायक रहा है। हमारे सनातन धर्म के बन्धुओं के तीर्थ स्थान भारत के सभी स्थानों पर हैं जिससे दक्षिण, पूर्व व पश्चिम के लोग उत्तर में हरिद्वार, ऋषिकेश, बदरीनाथ, केदारनाथ आदि स्थानों पर आते हैं। यहां उत्तर भारत व अन्य स्थानों के लोग दक्षिण के रामेश्वरम्, मदुरै के विशाल भव्य मीनाक्षी मन्दिर, कांचीपुरम् के शंकराचार्य मठ, पश्चिम के सोमनाथ मन्दिर, द्वारिका, दिलवाड़ा व पालिताना मन्दिरों तथा पूर्व के कामाख्या, जगन्नाथपुरी, गंगासागर आदि स्थानों पर जाते हैं जिससे पूरे देश की यात्रा और धर्म-कर्म हो जाता है। देश के सभी स्थानों के लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं। एक विचारधारा होने से प्रेम व सहयोग की भावना उत्पन्न होती है जिससे राष्ट्रीय एकता को बल मिलता है। अतः यात्रा बहु-प्रयोजनीय सिद्ध होती है। आजकल इन यात्राओं का एक पहलु और सामने आया है और वह है पर्यटन स्थल व प्रदेश का आर्थिक व सामाजिक विकास।  हम लोग चेन्नई में एक समुद्र तट पर गये जहां प्रतिदन सायं को मेला सा लगता था। वहां फुटपाथ पर सामान रखकर बेचने वाले सभी तमिल भाषी लोग थे परन्तु यह सब ग्राहकों से अच्छी हिन्दी बोल रहे थे। ऐसा ही हमने दक्षिण भारत के त्रिवेन्द्रम, मदुरै व कन्याकुमारी आदि स्थानों पर भी पाया। हमें लगता है कि यात्राओं व पर्यटन से गुजरात के महर्षि दयानन्द का वह स्वप्न कुछ साकार हुआ सा लगता है जिसमें उन्होंने कहा था कि मेरी आंखे वह दिन देखना चाहती हैं कि जब भारत के सभी स्थानों व प्रदेशों में देवनागरी अक्षरों, लिपि व हिन्दी भाषा = बोली का प्रचार होगा। यह सब कार्य पर्यटन और यात्राओं से सम्भव हुआ है। धार्मिक व पर्यटन स्थलों पर देश व विदेश से लोग आते हैं। इससे वहां होटल, वाहन व यात्रा के साधनों व इनसे जुड़े नाना छोटे-बड़े उद्योगों को बढ़ावा मिलता है और वहां का आर्थिक विकास होता है। सरकारें भी तीर्थ स्थलों व पर्यटन स्थलों के विकास के लिए सावधान हैं जिससे देश व समाज को नानाविध लाभ हो रहे हैं। हम यहां यह भी बताना चाहते हैं कि तीर्थ स्थान का अर्थ होता है कि जहां जाने से दुःख छूट जायें। प्राचीन काल में जिन स्थानों पर बड़े-बड़े योगी, ईश्वर के उपासक, ज्ञानी, चिन्तक व विचारक रहते थे, उनके आश्रमों को तीर्थ कहा जाता था। वहां जाने से यात्री अपनी शंकाओं, समस्याओं, दुःखों, सामाजिक व आध्यात्मिक प्रश्नों का समाधान पाते थे। आजकल तीर्थ स्थानों पर जाने का महात्म्य तो बहुत बताया जाता है परन्तु वह किसी का आज तक पूरा हुआ या नहीं, इसका कोई प्रमाण किसी के पास नहीं है। यहां महर्षि दयानन्द व दर्शनों का कार्य-कारण cause and effect का सिद्धान्त काम करता है। इसे कर्म-फल सिद्धान्त भी कहते हैं। कोई भी पाप क्षमा नहीं किया जाता है। कर्मों के फल भोगने ही पड़ते हैं। हां, प्रायश्चित करने से भविष्य के लिए पापों में प्रवृत्ति को रोक कर उसे सद्कर्मों में प्रेरित किया जा सकता है। यदि हम केवल किसी जड़ पदार्थों से निर्मित देव मूर्तियों के दर्शन करके ही किसी बड़े फल की इच्छा करने लगें तो यह असम्भव है। दर्शन से तो केवल आंखों को लाभ हो सकता है जैसे भोजन का लाभ उठाने के लिए खाना पड़ता है, दवा को देखने से लाभ नहीं होता अपितु उसे भी नियम पूर्वक सेवन करने से लाभ होता है। मूर्तिपूजा से भी इसी प्रकार आंखों से अनुभूत क्षणिक सुख-लाभ ही होता अन्य कुछ नहीं। यदि हमारे कर्म व पाप-पुण्यों में ईश्वर के गुणों व शिक्षाओं का सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है तो उससे कदापि कोई लाभ नहीं न हुआ है न होगा। उदाहरण के लिए यदि कोई कसाई तीर्थ यात्रा करे और वह अपना काम उसके बाद भी जारी रखे तो उसे इस जन्म व परजन्म में लाभ होने के स्थान पर हानि ही होती है। हां, यदि बार-बार परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाला कोई मूर्तिपूजक व तीर्थगामी विद्यार्थी किसी गुरू के पास जाकर अथवा किसी तीर्थ स्थान पर जाकर वहां विद्वानों से मिलकर अपना सुधार करे, मनोयोग से समझ कर अध्ययन करे, असत्य व मिथ्या आचरण के त्याग की प्रतिज्ञा, व्रत व संकल्प करता है तथा सत्य के ग्रहण व उसके लिए पुरूषार्थ का संकल्प कर तदानुकूल आचरण करता है तो इससे निश्चित रूप से उसे लाभ होगा।

 

यात्रा के सम्बन्ध में यह भी महत्वपूर्ण है कि हमारा जीवन अपने आप में एक यात्रा है। हम यहां माता-पिता के माध्यम से संसार में आते हैं, कर्म करते हैं, पूर्व व वर्तमान जीवन के कर्मों के फलों को भोगते हैं, सुख-दुख का अनुभव कर शैषव, किशोर, युवा व वृद्धावस्थाओं से गुजरते हुए मुत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। कर्मों की बची पूंजी जिसे प्रारब्ध या भाग्य कहा जाता है उसके अनुसार हमारा पुनर्जन्म होता है और फिर उस जन्म में भी प्रारब्ध का भोग व नये कर्म करके नया प्रारब्ध बना कर वहां से फिर अन्य जन्म के लिए आगे बढ़ जाते हैं। इस प्रकार से जीवन की एक अनन्त यात्रा चल रही है जिसका कोई प्रारम्भ नहीं है और न हि अन्त। यह बिना ओर व छोर वाली नदी है। इसमें निरन्तरता है। विज्ञान का अविनाशिता का नियम अर्थात् न कोई वस्तु बनाई जा सकती है और न हि नष्ट की जा सकती है, यहां भी लागू होता है। आत्मा न बनती है न नष्ट होती है। इसी बात को कहा जाता है कि आत्मा अजन्मा व अमर है, अनादि व अनन्त है। इस जीवन यात्रा में एक बड़ा मुकान “मोक्ष या मुक्ति” का आता है। मुक्ति सद्कर्मों व ईश्वर साक्षात्कार का परिणाम होती है। सद्कर्मों व ईश्वरोपासना से ईश्वर साक्षात्कार के लिए पुरूषार्थ करना पड़ता है। यह पुरूषार्थ अर्थात् धर्म-कर्म ही मोक्ष व मुक्ति का कारण, साधन या आधार होता है। चिन्तन, मनन, अध्ययन व अनुभव के आधार पर हम कह सकते हैं कि यह मत, सम्प्रदाय व धर्म के नाम से माने जाने वाले सभी धर्मावलम्बी मनुष्यों के लिए एक समान ही है। संसार के सभी मत-सम्प्रदायों व धर्मों का आधार मनुष्य ही हैं, परमात्मा नहीं। परमात्मा ने तो एक ही धर्म बनाया है और वह है मानवता, मनुष्यता, सत्य का आचरण, ज्ञान पूर्वक कर्म।  सम्प्रदाय व मत विशेष की विचारधारा में अपने आपको कैद न करके इस ब्रह्माण्ड की स्वयं को एक इकाई मानना और सर्वव्यापक, सर्वोत्तम, चेतन, न्यायकारी व आनन्दस्वरूप परमात्मा को अपना नेता, आचार्य, गुरू, माता-पिता, राजा और न्यायाधीश मानना चाहिये। इससे स्वयं को भी सुख मिलेगा और संसार में भी सुख-शान्ति में वृद्धि होगी। यह जीवन यात्रा का संक्षेप में उल्लेख किया है जो कि सत्य है और इसे स्वाध्याय, विचार व चिन्तन तथा विद्वानों से शंका समाधान कर जाना व माना जा सकता है।

 

यात्रा कैसी भी हो, उसका एक उद्देश्य होता है। वह उद्देश्य सुख व सकून की प्राप्ति व उपलब्धि है। जब तक संसार है, मनुष्य छोटी-बड़ी सभी प्रकार की यात्रायें करते रहेगें। हां, हमें यह प्रयास करना चाहिये कि यात्रा में जाने पर हम जहां जायें वहां के बारे में अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करें। वहां जो सबसे अधिक ज्ञानी व्यक्ति हों, उनसे मिले। उनके जीवन का निचोड़ जाने और उन्हें सम्मान व कुछ द्रव्य देकर तथा कृतज्ञता पूर्वक उनसे विदा लें। वहां सामान्य व सभी लोगों के सम्पर्क में आकर उन्हें अधिक से अधिक जानने का प्रयास करें। उनके अनुभवों से लाभ उठायें व अपने अनुभव उन्हें बतायें जिससे यात्रा का उद्देश्य भली-भांति पूरा हो सके।

मनमोहनकुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2 

देहरादून-248001

 फोनः 09412985121

सृष्टि रचना पर प्रश्न करने वाले नास्तिक मित्र को आर्य मित्र का उत्तर

नास्तिक मित्र
द्वारा अपने आक्रोशित मन से सृष्टि की पूर्णता पर प्रश्नचिन्ह लगाने का असफल प्रयास किया गया । उनके प्रश्नों की समीक्षा देखते है ।
दावा –
जैसे हम जानते हैं की प्रथ्वी आग का गोला थी और ठंढे होने पर इसपर जीवन आरम्भ हुआ । यदि हम यह माने की पृथ्वी ईश्वर द्वारा बनाया हुआ घर है तो जिसपर हम निवास करते हैं ,तो ईश्वर ने सीधा सीधा पृथ्वी को आज जैसा ही क्यों न बना दिया? आग का गोला बना के लाखो साल बाद इंसान को क्यों बनाया? ईश्वर ने सीधा सीधा रहने लायक बना के इंसान की उत्पत्ति क्यों नहीं की?
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समीक्षा – वाह क्या मुर्खता की पराकाष्ठा दिखाई है ? इन महाशय का कहना है की ईश्वर ने इतना समय लिए बिना सीधा पृथ्वी और मनुष्य को उत्पन्न क्यूँ नही किया ?? मैं पूछता हु की हालांकि यह विग्यांविरुद्ध , सृष्टिं नियम विरुद्ध है फिर भी अगर इश्वर ऐसा कर भी दे तो ये नास्तिक फिर भी कहेंगे की ईश्वर ने जब सीधा पृथ्वी को ही बना दिया तो हम इंसानों के लिए आवश्यक सामग्री भी बना देता जैसे की विज्ञान के आविष्कार यथा car , skooter , mobile , train इत्यादि । पुनः यदि ऐसा संभव है तो सीधा प्रलय भी क्योंकर न हो ?
नियमबद्धता का ही नाम विज्ञान है , पुनः आधुनिक विज्ञानं को ही सब कुछ मानने वाले नास्तिक इसी विज्ञानं को ही नहीं जानते । यदि ईश्वर सीधा पृथ्वी को बना दे तो जो वैज्ञानिक सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया खोज रहे है वो कभी सफल हो पायेंगे जब पृथ्वी बिना नियमबद्धता के ही अस्तित्व में आ गयी हो ? पुनः उन महान वैज्ञानिकों के पुरुषार्थ का कोई फल ना मिलने पर ये नास्तिक इस अन्याय का दोष भी ईश्वर पर थोपने से बाज नहीं आयेंगे ।
लगता है नास्तिक  जी ने ईश्वर को कुरान का अल्ला समझ रखा है ।
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दावा –
पृथ्वी 100% परफेक्ट नहीं है यंहा कंही समुन्द्र ही समुन्द्र है, तो कंही रेत ही रेत तो कंही जंगल ही जंगल। जापान में जंहा रोज भूकंप आते हैं तो अरब जैसे देशो में पानी ही नहीं जबकि चेरापुंजी में वर्षा ही वर्षा होती है । कंही लोग सूखे से मर रहे हैं तो कंही लोग बाढ़ से , कंही ज्वालामुखी फटते रहते हैं । कंही हजारो फिट खाइयाँ हैं तो कंही हजारो फिट पहाड़ जंहा रहना संभव नहीं। कंही बिजली गिरने से लोग मारे जाते हैं,क्या मारे जाने वाले लोग ईश्वर के बच्चे नहीं हैं?
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समीक्षा –
इनका कथन है की पृथ्वी 100 % perfect नही है कहीं समुन्द्र ही समुन्द्र तो कही मरुस्थल व् कही खाई
ऐसा होना ये imperfection मानते है मैं पूछना चाहता हु की आप के अनुसार क्या होना चाहिए ? कैसे पृथ्वी को design करना चाहिए था ??
चलिए ईश्वर की रचना के विपरीत कल्पना करके देखते है क्या होगा ?
समुद्र की स्थिति की कितनी सम्भावनाए हो सकती है
सम्पूर्ण पृथ्वी पर समुद्र ही होता तो सिर्फ जलीय जीव ही रह पाते पुनः मनुष्य व अन्य जानवरों को आप कहाँ रखते केशव जी अरे इन जीवो व मनुष्यों की छोडिये आप खुद कहाँ रहते?
एक सम्भावना यह भी है सिर्फ थोड़े ही मात्र में बहुत जगहों पर जल हो
लेकिन यहाँ प्रश्न फिर से होगा की बड़े या छोटे अनेकों समुद्री जीवों का थोड़े ही जल में रहना कैसे सम्भव होता ? पुनः थोड़े ही जल में रहना उन जीवों के लिए बंधन रूप होगा स्वतंत्रता नहीं होगी जो की उनके लिए अन्याय होगा ।
समुद्र ही नही होता बल्कि थल ही होता तो भी जलीय जीवों को कैसे रखते ?
इसीलिए समुद्र व थल दोनों की अवश्यकता रहेगी । किसी निश्चित मात्र में ही समुद्र होगा ।
पुनः उपरी वर्णित बातें थल व् रेगिस्तान के बारे में भी समझ लीजियेगा ।
रेगिस्तान में भी जीव रहते है ।
ज्वालामुखी से ही पहाड़ बनते है और सब जानते ह की पहाड़ कितने उपयोगी है खनिज पदार्थ प्राप्त होते है , हमरे घर बनाने में उपयोगी है , सड़कें बनाने में और मुख्यतः नदियाँ पहाड़ों से बहकर समुद्र में मिलती है व् नदियों का पानी पीने के लिए उपयोग होता है अगर केशव जी के अनुसार ईश्वर पहाड़ नहीं बनता तो नदियों को बहाव देने के लिए क्या आपके तथाकथित महात्मा बुद्ध को बुलाना पड़ता ??
इस से पता चला कहीं समुद्र ,कहीं पहाड़ कही थल ऐसी व्यवस्था ही सही होगी ।
आपने प्रश्न करने से पहले यह भी न सोचा की ये सभी समुद्र व् पहाड़ एक दुसरे से किस प्रकार सम्बन्ध रखते है ।आपकी बुद्धि की क्या दाद दें ?
प्रत्येक विज्ञानं व् सामान्य ज्ञान का विद्यार्थी भी जानता है की पर्यावरण विज्ञानं के अनुसार इन बाढ़ , भूकंप , सूखे के लिए हम इंसान ही उत्तरदायी है प्रकृति का अत्यधिक दोहन करने के कारण ।
नास्तिक जी कृपया पुनः पर्यावरण विज्ञानं पढने की कोशिश करें ।
नास्तिक  जी आपको हर जगह रहने की ही फ़िक्र सता रही है ??
हर जगह सिर्फ रहने के लिए ही नही होती ।
यहाँ पर एक और बात है केशव जी हर जगह सुरक्षा पर अपनी चिंता जता रहे है अब इनको बताते है की पूर्ण सृष्टि में आपकी किस प्रकार सुरक्षा भी की गयी है ।
पृथ्वी की सुरक्षा के लिए सूर्य , चन्द्रमा व् बृहस्पति गृह का भी भूमिका है
जब भी कोई उल्कापिंड आता है तो पहले उसे बृहस्पति गृह अपने गुरुत्व बल से खिंच लेता यदि वह पृथ्वी की सीमा में आ भी जाये तो उसे चन्द्रमा के गुरुत्व बल से सामना करना पड़ता है व् कुछ उल्कापिंड सूर्य में समा जाते है । अब यदि पृथ्वी पर भी गिरे तो अधिकतर भाग समुद्र , रेगिस्तान , खाई आदि है व् अधिकतर उल्का पिंड भी यही गिरते है । अब देखिये ईश्वर की व्यवस्था में इनका कितना उपयोग है ? यही नही पृथ्वी की सीमा में प्रवेश करते ही वायुमंडल के अत्यधिक घर्षण से बड़ा उल्का पिंड ध्वस्त होकर कई भागों में विभक्त हो जाता है ।
कहिये नास्तिक  जी कैसी लगी सृष्टि की पूर्णता ।
दावा -आस्तिको का तर्क है की सभी चीजो का रचियेता ईशश्वर है और उसकी प्रत्येक रचना का कुछ उद्देश्य होता है ,तो हैजे, एड्स, केंसर आदि के सूक्ष्म जीवाणु को किस उद्देश्य से बनाया है ईश्वर ने?
मरे हुए बच्चो को किस उदेश्य से पैदा करता है ईश्वर?
जैसा की सभी जानते हैं की मानव शरीर में लगभग 200 रचनाये ऐसी हैं जिनका मनुष्य के लिए कोई उपयोग नहीं जैसे अपेंडिक्स , अब यदि हमें ईश्वर ने बनाया तो ईश्वर कैसे यह मुर्खता बार बार करता जा रहा है और अनुपयोगी चीजो को बनता जा रहा है?
कैसा परफेक्ट ईश्वर है?
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समीक्षा –
यह सवाल पूछ कर आपने बहुत अच्छा किया ताकि इस के उत्तर में नास्तिकों के कुकृत्य के बारे में भी बता दिया जाये ।
aids का virus एक चिम्पांजी और मनुष्य के यौन सम्बन्ध से पैदा हुआ था
इस बारे में यह धारणा भी ह की चिम्पांजी का मांस खाने पर यह वायरस mutation से बढ़ कर aids का virus बन गया था
व एक और धरना है की us america में सबसे पहले समलैंगिक पुरुषों में यह पाया गया
अब उपरोक्त तीनो कारणों से स्पष्ट हुआ की aids का virus सृष्टि नियम विरुद्ध मुर्खता के कार्यों का परिणाम था लेकिन यह स्वार्थी मनुष्य चार्वाक के अनुयायी जिन्हें यौन ही सब कुछ दिखे वो ईश्वर पर इसका दोष लगाने में कैसे पीछे हटेंगे ??
बाकी जीवाणु भी इसी प्रकार सृष्टि नियमविरुद्ध कार्यों का ही परिणाम है ।
नास्तिक  जी मरे हुए बच्चों का विषय तो कर्मफल का है यह विषयांतर प्रश्न उठाकर भागने का असफल प्रयास न करियेगा ।
apandix का अवश्य कोई कार्य है ही वर्ना अधिक वजन उठाने पर ये ख़राब क्यूँ होती ?
यदि madical science शरीर विज्ञानं पूरा जानती तब तो यह प्रश्न उठ सकता था लेकिन अभी तो विज्ञानं को और भी बातें खोजनी है इसलिए आपका यह तथ्य बालू की रेत से बनाये महलों के सामान ध्वस्त होता है ।
अब आप ये निर्णय कर लें की मुर्खता किसने की है ?
दावा -आस्तिक कहते हैं सूरज समय पर उगता है, प्रथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है, 24 घंटे में अपना चक्कर पूरा करती है,ग्रहों का अपने परिक्रमापथ पर एक निर्धारति गति से घूमना आदि ईश्वर के नियम हैं।
पर, यह तर्क भी तर्कहीन है और आस्तिको के अल्पज्ञान का परिचारक है ।
गंभीरता से सोचने पर हम पाते हैं की प्रतिदिन सूर्य के उगने और अस्त होने में एक आध मिनट का फर्क रहता है ,फर्क इतना है की सर्दियों में राते 13 घंटे की तक की हो जाती है और इतने ही समय का दिन हो जाता है गर्मियों में ।
इसी प्रकार पृथ्वी कभी भी 365 दिन में सूर्य की परिक्रमा नहीं पूरी कर पाती है , समय घटता बढ़ता रहता है।
तो फिर यह कहना की सृष्टि ईश्वर के नियम से चल रही है सरासर मुर्खता है। एक प्रश्न और उठता है यंहा की यदि ईश्वर ने सृष्टि को नियमों से बाँधा हुआ है तो ईश्वर के लिए कौन नियम निर्धारित करता है?
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समीक्षा- पहली बात कि जो आस्तिक यह बात कहते है वह अपने सामान्य ज्ञान के अनुसार नियमबद्धता को जानकर ऐसा कहते है इस हिसाब उनका कहना सही भी है ।
लेकिन यहाँ जो तथ्य दिखाए गए है उनसे नियमबद्धता टूटती नही देखते है कैसे ?
हम आधुनिक विज्ञान के कारण जानकर पता करते है की ऐसा क्यूँ होता है तो हमारा विश्वाश ईश्वर के प्रति और दृढ होता है ।
नास्तिक  जी ने गंभीरता से सोचकर यह आक्षेप लगाया है की प्रतिदिन व् हर साल सूर्योदय व सुर्यस्त में फर्क आता है लेकिन यदि नास्तिक  जी थोडा और गंभीरता की गहराई में जाते तब तो सत्य का पता चलता लेकिन इन्हें ईश्वर पर दोष लगाने का बहाना मिल गया तो और गहराई में क्यों जाये भला ??
जिस परिवर्तन की बात यहाँ की गयी है वह पृथ्वी का अपने अक्ष पर झुकाव के कारण होता है । अब इस झुकाव के कारण पृथ्वी से सूर्य की स्थिति बदलती रहती है एक वर्ष तक । अब इस स्थिति के बदलने से जो पथ बनता है वह लगभग 8 अंक जैसी होती है । और यह पथ हर वर्ष वैसा ही बनता है बदलता नही । केशव जी इसे कहते है नियमबद्धता और इसे कहते है पूर्णता ।
पृथ्वी अपने अक्ष पर घूर्णन करते हुए उसी अक्ष के सापेक्ष साथ ही वृत्ताकार आकृति का अनुसरण करती है यह वृत्ताकार आकृति का पथ 26000 साल में एक बार ख़त्म होता है व् 26000 सालों के हर प्रवाह के अंत में पृथ्वी का अक्ष एक तारे की और इंगित होता है अर्थात 26000 साल खत्म होने के अगले 26000 साल के प्रवाह में भी अंत में पृथ्वी का अक्ष उसी तारे की और इंगित होता है ।
और उस तारे की और इंगित होने पर पृथ्वी की ice age पर effect पड़ता है ।
नास्तिक  जी इसे कहते ह पूर्णता ।
अभी कहानी ख़त्म नहीं हुयी है पृथ्वी सूर्य के चारों और elliptical orbit में घुमती है ।अब यह elliptical orbit का पथ भी सूर्य के केंद्र के सापेक्ष ऊपर निचे गति करता है यह गति भी कई सालों में संपन्न होती है ।
अब इतने सरे complication के बाद भी नियमबद्धता बनी हुयी है यहाँ तक सूर्य भी आकाशगंगा के केंद्र के चरों घूमता है और वह तारा जिस की और पृथ्वी का अक्ष इंगित होता है वह भी सूर्य की तरह इस प्रकार के complications से घिरा हुआ है अब इतने complication के बाद भी पृथ्वी का प्रत्येक 26000 साल के चरण में उस तारे की और इंगित करना व सूर्य का हर साल अपने पथ पर पुनः अनुगमन करना सृष्टि की पूर्णता को ही साबित करता है ।
अब सामान्य आस्तिक बंधु इन complications को न जानकर भी इस नियमबद्धता के सिद्धांत को अपने सामान्य ज्ञान से बतलाते है तो उसमे कुछ गलत नही ।
नास्तिक  जी आप भी अपने पूर्वाग्रह को छोड़कर सूर्य की तरह सत्य पथ के अनुगामी बनिए ।
अतः हमें अंत में पता चला कि सृष्टि में अनेक रहस्य भरे पड़े है जिन्हें इन्सान पूर्ण रूप से नही जानता इसलिए सृष्टि को बिना जाने ईश्वर पर आक्षेप लगाना मुर्खता है ।
इसीलिए वेद में आया
की इस सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुयी यह कोई नही जानता क्यूँ कि यह रहस्य जानने वाले विद्वानों की उत्पत्ति भी बाद में हुयी ।
नास्तिक  जी आपने यह मन्त्र दिया था व् आक्षेप लगाया लेकिन यही मन्त्र आपकी पोस्ट का उत्तर बना ।
नास्तिक  जी यहाँ सृष्टि की पूर्णता सिद्ध हुयी अतः पूर्णता सिद्ध होने पर ईश्वर की भी सिद्धि मेरी पिछली पोस्ट के अनुसार जिसमे आपने ईश्वर के कारण पर प्रश्न उठाया था ।
इसलिए अब आपको सत्य को ग्रहण करने से पीछे नही हटना चाहिए , व सत्य से भागने का असफल प्रयास नही करना चाहिए ।

Family in Veda

pariwar
Atharv Ved Sookt 12.3 is a very interesting and big Sookt containing 60 mantras.
Among many other topics I have been studying thisSookt also. I take the opportunity to share my interpretation of the first ten mantras of this Sookt.
I shall be obliged and honoured to hear comments of Vedic scholars on my understanding of this Sookt. Family AV12.3 ऋषि: -यम: , देवता:-स्वर्ग;, ओदन: ,अग्नि:

 लेखक – सुबोध कुमार 

गृहस्थाश्रम का आरम्भ. Start of Married Life

1.  पुमान्पुंसोऽधि तिष्ठ चर्मेहि तत्र ह्वयस्व यतमा प्रिया ते ।

यावन्तावग्रे प्रथमं समेयथुस्तद्वां वयो यमराज्ये समानं  । । AV12.3.1

शक्तिशालियों में भी शक्तिशाली स्थान  पर स्थित होवो ।(ब्रह्मचर्याश्रम के पूर्ण होने पर सब प्रकार की शक्ति और कुशलता प्राप्त कर गृहस्थाश्रम में स्थित होवो)

जो तुझे सब से प्रिय हो उस को  अपनी  जीवन साथी बना । प्रथम तुम दोनों द्वारा अलग अलग जैसे ब्रह्मचर्याश्रम का पालन किया अब दोनों सन्युक्त हो कर समान रूप से व्यवस्था चला कर सन्यम पूर्वक गृहस्थाश्रम का धर्म  निर्वाह  करो ।

दाम्पत्य  जीवन Sex Life

2.  तावद्वां चक्षुस्तति वीर्याणि तावत्तेजस्ततिधा वाजिनानि ।

अग्निः शरीरं सचते यदैधोऽधा पक्वान्मिथुना सं भवाथः  । । AV12.3.2

कामाग्नि जब तुम्हारे  शरीर को   ईंधन की तरह जलाने लगे तब अपने परिपक्व सामर्थ्य से संतानोत्पत्ति के लिए मैथुन करो   परंतु यह  ध्यान रहे कि  कामाग्नि में शरीर  ईंधन की तरह जलने पर भी (गृहस्थाश्रम में ) तुम्हारी दृष्टि, समस्त उत्पादक सामर्थ्य, तेज और बल वैसे ही  बने रहें जैसे पहले (ब्रह्मचर्याश्रम में थे )

संतान पालन Bringing up Children

3.  सं अस्मिंल्लोके सं उ देवयाने सं स्मा समेतं यमराज्येषु ।

पूतौ पवित्रैरुप तद्ध्वयेथां यद्यद्रेतो अधि वां संबभूव  । । AV12.3.3

इस संसार में  तुम दोनों दम्पति यम नियम का पालन करते हुए संयम से सब लौकिक काम एक मन से करते हुए देवताओं के  मार्ग पर चलो। पवित्र जीवन शैलि और शुभ संस्कारों द्वारा प्राप्त संतान को अपने समीप  रखो।

(जिस से  वह  तुम्हारे आचार व्यवहार  से अपने जीवन के लिए  सुशिक्षा  प्राप्त करे और तुम्हारे प्रति उस  की  भवनाएं जागृत हो सकें  ) ।

आहार Food for the family

4. आपस्पुत्रासो अभि सं विशध्वं इमं जीवं जीवधन्याः समेत्य ।

तासां भजध्वं अमृतं यं आहुरोदनं पचति वां जनित्री  । । AV12.3.4

तुम स्वयं परमेश्वर की संतान हो , अपना जीवन धन धान्य से सम्पन्न बनाओ जिस से अपनी  संतान के समेत अपने सब कर्त्तव्यों के पालन कर सको और  इन्हें सुपच, अमृत तुल्य भोजन)   दो जिस के सेवन से संतान अमृतत्व को प्राप्त करे। (शाकाहारी  कंद मूल फल  वनस्पति इत्यादि जिसे  प्रकृति पका रही  है

5. यं वां पिता पचति यं च माता रिप्रान्निर्मुक्त्यै शमलाच्च वाचः ।

स ओदनः शतधारः स्वर्ग उभे व्याप नभसी महित्वा  । । AV12.3.5

वह अन्न  जिसे आकाश से सहस्रों जल धाराओं से सींच बनाया जाता है जिसे  द्युलोक रूप पिता भूमि  माता बनाते  हैं और फिर जिसे  माता पिता भोजन के लिए पकाते  हैं वह शरीर से मल को  मुक्त करके  निरोगी बनाने  वाला और मस्तिष्क की पुष्टि से वाणी को  शांत बनाने  वाला हो । सौ वर्षों तक स्वर्गमय दोनों लोकों में यश प्राप्त कराने वाला हो ।

सन्युक्त परिवार वृद्धावस्था Joint family Old age care

6. उभे नभसी उभयांश्च लोकान्ये यज्वनां अभिजिताः स्वर्गाः ।

तेषां ज्योतिष्मान्मधुमान्यो अग्रे तस्मिन्पुत्रैर्जरसि सं श्रयेथां  । । AV12.3.6

(उभे नभसी) द्यावा पृथिवी के अपने परिवारके  वातावरण सात्विक  आहार और  यज्ञादि की जीवन शैलि से (ज्योतिष्मान मधुमान) प्रकाशमान और माधुर्य वाला  बना कर (स्वर्गा: ) तीनों स्वर्ग प्राप्त प्राप्त करो. जिस में संतान, दम्पति माता पिता, और जरावस्था को प्राप्त  तीनो मिल कर मधुरता से  आश्रय पाएं ।

No divorce

7.  प्राचींप्राचीं प्रदिशं आ रभेथां एतं लोकं श्रद्दधानाः सचन्ते ।

यद्वां पक्वं परिविष्टं अग्नौ तस्य गुप्तये दंपती सं श्रयेथां  । । AV12.3.7

श्रद्धा से गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए,  पके अन्न की यज्ञ (बलिवैश्वदेव यज्ञ)में  आहुति  से यज्ञशेष ग्रहण करने वाले  हुए दम्पति पति  पत्नी जीवन में उन्नति करते हुए  साथ साथ मिल् कर रहो।

8. दक्षिणां दिशं अभि नक्षमाणौ पर्यावर्तेथां अभि पात्रं एतत् ।

तस्मिन्वां यमः पितृभिः संविदानः पक्वाय शर्म बहुलं नि यछात् । । AV12.3.8

(दक्षिणं दिशम्‌ अभि) दक्षिण दिशा निपुणता से प्रगति करने की दिशा है। ( इस  प्रगति के मार्ग पर चलते हुए लोग प्राय: भोगमार्गावलम्बी  हो जाते हैं) । गृहस्थ में प्रगति के  मार्ग पर चलते हुए  तुम दोनो ( एतत् पात्रम्‌ अभि पर्यावर्त्तेथाम्‌ ) इस रक्षक देवमार्ग की ओर लौट  आओ । देवमार्ग में तुम्हारा (यम: ) नियंता (पितृभि: ) घर के बुज़ुर्ग (सं विदान) से सलाह (पक्वाय) mature दूरदर्शी विवेक पूर्ण  मार्ग  दर्शन द्वारा अत्यंत सुखी जीवन प्रदान करेगी ।

Simple living High thinking –Good company

9. प्रतीची दिशां इयं इद्वरं यस्यां सोमो अधिपा मृडिता च  ।

तस्यां श्रयेथां सुकृतः सचेथां अधा पक्वान्मिथुना सं भवाथः  । । AV12.3.9

(इयं प्रतीची) = पीछे (प्रति अञ्च ) यह प्रत्याहार –इ न्द्रियों  को विषय्पं से वापस लाने की दिशा –पीछे  जाने की दिशा ही(दिशाम्‌ इत वरम्‌ ) दिशाओं  में निश्चय ही श्रेष्ठ है। सोम – शांत स्वभाव से प्रेरित आचरण  रक्षा करने वालाऔर सुखी करने वाला है । (तस्यां  श्रेयाम ) उस प्रत्याहार  की  दिशाका आश्रय लो, (सुकृत: सचेथाम्‌) –पुण्य कर्म करने वाले लोगों से ही मेल  करो, (पक्वात्‌ मिथुनां संभवाथ:) परिपक्व वीर्य से ही  संतान उत्पन्न करो ।

Virtuous Nation

10. उत्तरं राष्ट्रं प्रजयोत्तरावद्दिशां उदीची कृणवन्नो अग्रं ।

पाङ्क्तं छन्दः पुरुषो बभूव विश्वैर्विश्वाङ्गैः सह सं भवेम  । । AV12.3.11

उत्कृष्ट राष्ट्र प्रकृष्ट   संतानों  से  ही   उत्कृष्ट  होता है । इस उन्नति की  दिशा में प्रत्येक मनुष्य पञ्च महाभूतों “पृथ्वी,जल,तेज,आकाशऔर वायु” से (पांक्तम्‌ ) पांचों कर्मेद्रियों से , पांचों ज्ञानेंद्रियों से , पांचों प्राणों  “पान , अपान,व्यान, उदान और  समान” से पांच  भागों में विभक्त “ मन, बुद्धि,चित्त, अहंकार और हृदय” मे बंटे अन्त:करण  से ,   यह सब पांच मिल कर जो जीवन का (छन्द) का संगीत हैं, विश्व के लिए सब अङ्गों  से  पूर्ण  समाज का निर्माण करते हैं।

वर्तमान युग में वेदों की प्रासंगिकता : शिवदेव आर्य, पौन्धा, देहरादून

veda

 

परमपिता परमेश्वर ने जब सृष्टि का निर्माण किया तब सृष्टि में अनेकविध जड़-चेतनों का निर्माण किया। इन नाना विध जड़-चेतनों में यदि कोई सर्वश्रेष्ठ है तो वह है मनुष्य। जैसे परमात्मा ने अपनी सर्वोत्तम कृति मनुष्य को बनाया है ठीक वैसे ही मनुष्यों ने भी अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना के रुप में संसार का निर्माण किया है। इसीलिए मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा जाता है। मनुष्य ने जिस प्रकार के नियम और व्यवस्था की है उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता  हैै कि उसने पूर्णरुप से परमात्मा की नकल की है क्योंकि परमेश्वर अपने द्वारा निर्मित सृष्टि के नियमों के सदैव अनुकुल रहता है वैसे ही मनुष्य अपने द्वारा निर्मित समाज के नियमों में बंधा हुआ होता है। इस प्रकार हम इसके मूल को खोजे  तो हमें ज्ञात होता है कि अनुशासन में इसकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। परमेश्वर अपने द्वारा निर्मित सृष्टि नियमों के सर्वदानुकुल रहता है। क्योंकि परमेश्वर अपने आपमें अनुशासित होता है। यदि परमेश्वर अनुशासित नहीं होता तो प्रतिदिन प्रलय और निर्माण करता रहता। वह १४ मनवन्तरों के इतने लम्बे समय की प्रतीक्षा नहीं करता। जिस समय जो चाहता वहीं करता। इसी अनुशासन को हम जड़-चेतन दोनों में ही देख सकते हैं। जड़रुपी सूर्य यदि अनुशासन के अन्दर नहीं होता तो वह अपनी इच्छा से निकलता और डूबता, परन्तु ऐसा नहीं है।

इसीलिए अनुशासन की नितान्त अनिवार्यता है। इसी कारण अनुशासन के अभाव में अव्यवस्था न फैल जाये । इस प्रकार सोचकर परमपिता परमेश्वर ने सृष्टि के आदि में चार सर्वश्रेष्ठ आत्माओं को वेद का ज्ञान दिया। इस वेद के ज्ञान से सम्पूर्ण प्राणी मात्र अनुशासन सहित अनेक विध ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त करे व करावें और धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष को प्राप्त होवे।

पशुओं को अपने जन्म के पश्चात् माँ के स्तनपान करना सीखना नहीं पड़ता। पशुओं में जन्म से ही तैरने का गुण विद्यमान होता है। पशुओं की संवेदन शक्ति बहुत तीव्र होती है। इस बात को वैज्ञानिक लोग भी स्वीकार करते हैं। इसीलिए तो जब कोई मन्त्री या नेता आदि लोग आते हैं  उनके सेवक गण गुप्त स्फोटक पदार्थों को ढूढ़ने के लिए मशीन के साथ-साथ कुत्तों को भी लेकर आते हैं। इसप्रकार हम कह सकते है कि पशु जन्म से ही पूर्ण है। वो भोगों को भोगने के लिए इस सृष्टि पर आये हैं न कि कर्म करने के लिए। इसीलिए पशुओं को भोगयोनि की श्रेणी में रखा जाता है। अतः परमेश्वर ने वेदों का ज्ञान प्राणीमात्र के लिए प्रदान किया है।

सृष्टि के आदि में परमेश्वर ने चार सर्वश्रेष्ठ आत्माओं को वेद का ज्ञान दिया। ऋग्वेद का ज्ञान अग्नि ऋषि को, यजुर्वेद का ज्ञान वायु ऋषि को, सामवेद का ज्ञान आदित्य ऋषि को, अथर्ववेद का ज्ञान अंगिरा को प्रदान किया। इन्हीं ऋषिओं की परम्परा से वेदों का शुध्द ज्ञान आज हम को प्राप्त हो रहा है। इन चारों वेदों में प्रत्येक विषय का ज्ञान है। पुनरपि मुख्य रुप से ज्ञान, कर्म और उपासना ये तीन वेदों के विषय हैं।

माता-पिता जिस प्रकार अपनी सन्तान को कार्य करने के लिए सुख, सुविधा के लिए उसकी आवश्यकताओं  की पूर्ति करते हैं वैसे ही संसार के लोगों के लिए उस  परमेश्वर ने आवश्यक वस्तु वेद को मानव समाज को दिया। इन वेदों में वो सम्पूर्ण सामग्री है जिसे पाकर मनुष्य सुख-शान्ति व समृध्दि को पा कर अत्यन्त परमधाम मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।

जब हमारा जन्म होता है तब हमारी माता जी हमें बताती हैं कि अमुक व्यक्ति तुम्हारा भाई हैं, पिता हैं इत्यादि। जितना माता अपने  बच्चों से प्यार करती है, उतना और कोई कदापि नहीं कर सकता।

वेदों को भी इसीलिए वेदमाता प्रचोदयन्ताम्…..मन्त्र से माता के नाम से सम्बोधित किया जाता है। क्योंकि वेदमाता परमपिता परमेश्वर के विषय में जितना बता सकती है, उतना और दूसरा कोई नहीं बता सकता  इसलिए परमपिता परमेश्वर को अच्छी प्रकार से जानने के लिए वेद को जानना और मानना नितान्त अनिवार्य है। मानव समाज के लिए वेद की भूमिका में सबसे महत्वपूर्ण बात है आस्तिक बनना। जब व्यक्ति आस्तिक हो जायेगा तो समाज अत्यधिक उन्नति करेगा। आस्तिकता के आते ही मनुष्य अनुशासित हो जाता है। अनुशासन के अन्तर्गत ही मनुष्य नियम पूर्वक कार्य करने लगता है। आस्तिक होने का सीधा-साफ अर्थ है-परमेश्वर को सर्वव्यापक मानना। इसी से मनुष्य जब भी कोई कार्य करता है तब यही महसुस करता है कि उसे परमेश्वर देख रहा है। परन्तु वर्तमान समय में अनुशासन नहीं हैं, इसका कारण है कि हम आस्तिक नहीं है, वेद को नहीं मानते  (नास्तिको वेद निन्दकः)

इसी अनुशासन के आभाव में दुराचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार व्याप्त हो रहा है। इन सब समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए हमें वेद की शरण में जाना पडे़गा। वेदों की महत्वपूर्ण भूमिका मनुष्य की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में है। प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि – मेरा घर परिवार सुखी हो, समृध्दि से भरा हो, पुत्र आज्ञाकारी हो, पत्नी मधुरभाषी हो। इन्हीं बातों को वेद में इसप्रकार व्यक्त किया गया है –

अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।

जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शान्तिवान् ।।

                                                    ( अथर्व.-३/३॰/२)

अर्थात् पुत्र पिता का अनुव्रती होवे अर्थात् पिता के व्रतों को पूर्ण करने वाला हो। पुत्र माता के साथ उत्तम मन वाला हो अर्थात् माता के मन को संतुष्ट करने वाला हो। पत्नी पति के साथ मधुर एवं शान्ति युक्त बोले। इसी बात को चाणक्य ने लिखा है कि –

यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्या छन्दानुगामिनी।

विभवे यश्च संतुष्टस्तस्य स्वर्गम् इहैवहि

                                                                 (चाणक्यनीति)

मनुष्य को सुखी रखने के लिए चाणक्य जी कहते हैं कि-

ते पुत्रा ये पितुर्भक्ता स पिता यस्तु पोषकः।

तन्मित्रं यस्य विश्वासः सा भार्या यत्र निवृत्तिः।।

पुत्र वही है जो पिता का भक्त हो और पिता  का भक्त हो और पिता वही जो पुत्र का पालन पोषण करता हो, मित्र वही जिस पर विश्वास किया जाये और पत्नी वही है जिससे सुख प्राप्त किया जाए।

इस प्रकार वेद तथा ऋषिग्रन्थ यही बताते हैं कि सुखी जीवन के लिए परिवार में परस्पर उत्तरदायित्व तथा सहयोग की भावना बनी रहे।

मानव समाज को व्यवस्थित रखने के लिए लोगों के कार्य भी व्यवस्थित होने चाहिए। इसीलिए वेद में कहा गया है-

ब्राह्मणोऽस्यमुखमासीद् बाहूः राजन्यः कृतः।

उरु तदस्य यद् वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत्

इस मन्त्र से सिध्द होता है कि सम्पूर्ण संसार के मनुष्यों को कर्म के आधार पर चार भागों में बाँटा गया है।

ब्राह्मण: वेद आदि शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना-कराना, यज्ञ करना-कराना, दान लेना तथा देना करना कर्मों को करना ब्राह्मणों का परम कर्तव्य है;-

अध्यापनमध्यनं यजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिगृह´चैव ब्रह्मणनामकल्पमत्।। (मनु.-१/८८)

क्षत्रिय: प्रजा का रक्षण, दान देना, यज्ञ करना, वेदाध्ययन करना एवं विषयों में आसक्त न होना आदि कर्मों को करना क्षत्रियों का परम कर्तव्य है।।

प्रजानां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च।

विषयेष्वप्रशक्ति क्षत्रियस्य समासतः।। (मनु.-१/८९)

वैश्य: पशुओं का रक्षण, दान देना, यज्ञ करना, वेदाध्ययन करना, वाणिज्य-व्यापार आदि कर्मों को करना वैश्यों का परम कर्तव्य है।

पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।

वाणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च।। (मनु.-१/९॰)

शुद्र: उपर्युक्त तीनों वर्णों की सेवा शुश्रूषा करना शूद्रों के कर्म हैं।

एकमेव तु शुद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।

एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया।। (मनु.-१/९१)

इस प्रकार की वर्ण व्यवस्था समाज में होने से सुख-शान्ति का माहौल बना रहता है।

मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो कर्म योनी के अन्तर्गत आता है। मनुष्यों को कार्य करने की स्वतन्त्रता है परन्तु फल भोगने की स्वतन्त्रता नहीं है। जैसे योगेश्वर श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि-

      कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

      मा कर्मफल हेतुर्भूमा ते संगोस्त्वकर्मणि।।

मनुष्य कर्म करने में सर्वदा स्वतन्त्र है परन्तु फल भोगने में परतन्त्र है। इसीलिए उसे सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म का ज्ञान होना चाहिए क्योंकि इन्हीं कर्मों के अनुसार मनुष्यों को फल मिलता है। अच्छे बुरे कर्मों की पहचान के लिए कहा गया है कि आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्’ अर्थात् स्वयं को जो व्यवहार अच्छा न लगे, उसे अन्यों के साथ कदापि नहीं करना चाहिए। हमारी आत्मा सही गलत का सही निर्णायक है। इसीलिए जब अपनी आत्मा को कोई कार्य अच्छा न लगता हो भला वह कार्य दूसरों के लिए कैसे हितकर हो सकता है? ऐसी विचारधारा के होने से हम गलत कार्यों के करने से रुक जायेंगे।

मनुष्य का सदाचारी होना बहुत जरुरी है। सदाचारी मनुष्य ही समाज में सुखी रह सकता है और दूसरों को सुख दे सकता है। वर्तमान समाज में सदाचार की नितान्त अनिवार्यता है। इसके लिए वेद हमें उपदेश देते हुए कहता है कि-

सप्त मर्यादाः कवयस्ततक्षुस्तासामेकामिदभ्यं हुरो गात्।

आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीतो पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ।। (ऋग्वेद-१॰/५/६)

अर्थात् हिंसा, चोरी, व्यभिचार, मद्यपान, जुआ, असत्य भाषण और इन पापों के करने वालों दुष्टों का सहयोग करने का नाम सप्त मर्यादा है। इनमें से जो एक भी मर्यादा का उल्लंघन करता है अर्थात् एक भी पाप करता है, वह पापी होता है और जो धैर्य से इन हिंसादि पापों को छोड़  देता है, वह निस्संदेह जीवन का स्तम्भ ;आदर्शद्ध होता है और मोक्षभागी होता है।

उलूकयातुं शुशुलूकयातुं जाहि श्वयातुमुत कोकयातुम्।

सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुं दृषदेव प्र मृण रक्ष इन्द्र।। (ऋग्वेद-७/१॰४/२२)

अर्थात् गरुड़ के समान मद (घमंड), गीध के समान लोभ, कोक के समान काम, कुत्ते के समान मत्सर, उलूक के समान मोह (मूर्खता) और भेडि़या के समान क्रोध को मार भगाना अर्थात् काम, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि छह विकारों को अपने अन्तःकरण से हटा दो।

आज संसार में सत्यता का अभाव है इसी लिए कहा जाता है कि – सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्………’ सत्य बोलने के साथ-साथ मधुर भाषण होना चाहिए। अतः कहा गहा है कि-

जिह्नाया अग्रे मधु मे जिह्नामूले मधूलकम्।

     ममेदह क्रतावसो मम चित्तमुपायसि।।   

     मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम्।

     वाचा वदामि मधुमद् भूयासं मधु संदृशः।।        (अथर्ववेद-१/३४/२-३)

अर्थात् मेरी जिह्ना के अग्रभाग में मधुरता हो और जिह्ना के मूल में मधुरता हो। हे मधुरता! मेरे कर्म में तेरा वास हो और मेरे मन के अन्दर भी तू पहुँच जा। मेरा आना-जाना मधुर हो, मैं स्वयं मधुर मूर्ति बन जाऊॅ।

हमारी किसी भी इन्द्रिय से अभद्र, असभ्य व्यवहार न होवे इसके लिए वेद बारम्बार आदेश देता है –

भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।

स्थिरैरंगैस्तुष्टुवां सस्तनूभिव्र्यशेमहि देवहितं यदायुः।। (यजुर्वेद-२५/२१)

समाज में शराब पीना व जुआ खेलना एक शौक हो गया है। इन कृत्यों से समाज का निरन्तर पतन ही हो रहा है। एतदर्थ इनकी रोकथाम के लिए वेद कहता है कि –

हत्सु पीतासे युध्यन्त दुर्मदासो न सुशयाम्। ऊधर्न नग्ना जरन्ते।।

अर्थात् दिल खोलकर शराब पीने वाले दुष्ट लोग आपस में लड़ते हैं और नंगे होकर व्यर्थ बड़बड़ाते हैं, इसीलिए शराब कदापि नहीं पीनी चाहिए।

जिसप्रकार शराब पीना बुरा है, उसी प्रकार जुआ खेलना भी बुरा है। वेद उपदेश देता है:-

जाया तप्यते कितवस्य हीना माता पुत्रस्य चरतः क्वस्वित्। 

ऋणावा विभ्यध्दनमिच्छमानोऽन्येषामस्तमुप नक्तमेति।।

अर्थात् जुआरी की स्त्री कष्टमय अवस्था के कारण दुःखी रहती है, गली-गली मारे-मारे फिरने वाले जुआरी की माता रोती रहती है,  कर्जे से लदा हुआ जुआरी स्वयं सदा डरता रहता है और धन की इच्छा से वह रात के समय दूसरों के घरों में चोरी करने के लिए पहुँचना है, इसलिए जुआ खेलना अत्यन्त बुरा है।

इसी प्रकार चोरी को भी बुरा बतलाया गया है। अतः अथर्ववेद में कहा गया है कि-

येऽमावास्यां रात्रिमुदस्थुव्र्राजमत्रिणः।

अग्निस्तुरीयो यातुहा सो अस्मभ्यमधि ब्रवत्।।

अर्थात् जो मुफ्तखोरे, भूखे और भटकने वाले रात्री में बस्ती के भीतर चोरी करने और डाका डालने के लिए आते हैं, उनसे बचने के लिए राजपुरुष सबको सचेत करता है और उन्हें पकड़कर मार डालता है। इसीलिए कभी भी किसी की चोरी नहीं करनी चाहिए।

वास्तव में यह सत्य प्रतीत होता है कि हम यदि वेद के द्वारा निर्दिष्ट मार्गों का अनुसरण करने तो निश्चित ही आज समाज में फैली बुराईयाँ समाप्त हो जायेंगी। इसीलिए हम सबको वेदों की प्रासंगिता को समझते हुए संगच्छध्वं संवदध्वम्’ की भावना से ओत-प्रोत होते हुए वेद के द्वारा दिखाये गये मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।

वेदों की श्रेष्ठता के बारे में श्री अटलबिहारी वाजपेयी जी कहते हैं कि-

वेद-वेद के मन्त्र मन्त्र में,

                मन्त्र मन्त्र की पंक्ति-पक्ति में।

                पंक्ति-पंक्ति के अक्षर स्वर में,

                दिव्य ज्ञान आलोक प्रदीप्त।।

आर्यों! वेदनिधि को पहचान कर स्वयं को वेदानुकुल बनावें और दूसरों को भी वेद मार्ग का अनुसरण करने का उपदेश देवें।

 

– श्रीमद् दयानन्दार्ष-ज्योतिर्मठ-गुरुकुल,

दून-वाटिका-२, पौन्धा, देहरादून

पारसी मत का मूल वैदिक धर्म(vedas are the root of parsiseem)

वेद ही सब मतो व सम्प्रदाय का मूल है,ईश्वर द्वारा मनुष्य को अपने कर्मो का ज्ञान व शिक्षा देने के लिए आदि काल मे ही परमैश्वर द्वारा वेदो की उत्पत्ति की गयी,लैकिन लोगो के वेद मार्ग से भटक जाने के कारण हिंदु,जेन,सिख,इसाई,बुध्द,पारसी,मुस्लिम,यहुदी,आदि मतो का उद्गम हो गया। मानव उत्पत्ति के वैदिक सिध्दांतानुसार मनुष्यो की उत्पत्ति सर्वप्रथम त्रिविष्ट प्रदेश(तिब्बत) से हुई (सत्यार्थ प्रकाश अष्ट्म समुल्लास) लेकिन धीरे धीरे लोग भारत से अन्य देशो मे बसने लगे जो लोग वेदो से दूर हो गए वो मलेच्छ कहलाए जैसा कि मनुस्मृति के निम्न श्लोक से स्पष्ट होता है “
शनकैस्तु  क्रियालोपादिमा: क्षत्रियजातय:।
वृषलत्वं गता लोके ब्रह्माणादर्शनेन्॥10:43॥  –
निश्चय करके यह क्षत्रिय जातिया अपने कर्मो के त्याग से ओर यज्ञ ,अध्यापन,तथा संस्कारादि के निमित्त ब्राह्मणो के न मिलने के कारण शुद्रत्व को प्राप्त हो गयी।
” पौण्ड्र्काश्र्चौड्रद्रविडा: काम्बोजा यवना: शका:।
पारदा: पहल्वाश्र्चीना: किरात: दरदा: खशा:॥10:44॥
पौण्ड्रक,द्रविड, काम्बोज,यवन, चीनी, किरात,दरद,यह जातिया शुद्रव को प्राप्त हो गयी ओर कितने ही मलेच्छ हो गए जिनका विद्वानो से संपर्क नही रहा।  अत: यहा हम कह सकते है कि भारत से ही आर्यो की शाखा अन्य देशो मे फ़ैली ओर वेदो से दूर रहने के कारण नए नए मतो का निर्माण करने लगे। इनमे ईरानियो द्वारा “पारसियो” मत का उद्गम हुआ।पारसी मत की पवित्र पुस्तक जैद अवेस्ता मे कई बाते वेदो से ज्यों की त्यों ली गयी है। यहा मै कुछ उदाहरण द्वारा वेदो ओर पारसी मत की कुछ शिक्षाओ पर समान्ता के बारे मे लिखुगा-   1 वैदिक ॠषियो का पारसी मत ग्रंथ मे नाम-
पारसियो की पुस्तक अवेस्ता के यास्ना मे 43 वे अध्याय मे आया है ” अंड्गिरा नाम का एक महर्षि हुवा जिसने संसार उत्पत्ति के आरंभ मे अर्थववेद का ज्ञान प्राप्त किया।
 एक अन्य पारसी ग्रंथ शातीर मे व्यास जी का उल्लेख है-“

“अकनु बिरमने व्यास्नाम अज हिंद आयद  !                                दाना कि  अल्क    चुना  नेरस्त  !!

अर्थात  :- “व्यास नाम का एक ब्राह्मन हिन्दुस्तान से आया . वह बड़ा ही  चतुर  था और उसके सामान अन्य कोई बुद्धिमान नहीं हो सकता  ! ”    पारसियो मे अग्नि को पूज्य देव माना गया है ओर वैदिक ॠति के अनुसार दीपक जलाना,होम करना ये सब परम्परा वेदो से पारसियो ने रखी है।

 इनकी प्रार्थ्नात की स्वर ध्वनि वैदिक पंडितो द्वारा गाए जाने वाले साम गान से मिलती जुलती है।
 पारसियो के ग्रंथ  जिन्दावस्था है यहा जिंद का अर्थ छंद होता है जैसे सावित्री छंद या छंदोग्यपनिषद आदि|
 पारसियो द्वारा वैदिक वर्ण व्यवस्था का पालन करना-
पारसी भी सनातन की तरह चतुर्थ वर्ण व्यवस्था को मानते है-
1) हरिस्तरना (विद्वान)-ब्राह्मण
2) नूरिस्तरन(योधा)-क्षत्रिए
3) सोसिस्तरन(व्यापारी)-वैश्य
 4) रोजिस्वरन(सेवक)-शुद्र
संस्कृत ओर पारसी भाषाओ मे समानता-
यहा निम्न पारसी शब्द व संस्कृत शब्द दे रहा हु जिससे सिध्द हो जाएगा की पारसी भाषा संस्कृत का अपभ्रंश है-
 कुछ शब्द जो कि ज्यों के त्यों संस्कृत मे से लिए है बस इनमे लिपि का अंतर है-
 पारसी ग्रंथ मे वेद- अवेस्ता जैद मे वेद का उल्लेख-
1) वए2देना (यस्न 35/7) -वेदेन
अर्थ= वेद के द्वारा
 2) वए2दा (उशनवैति 45/4/1-2)- वेद
 अर्थ= वेद
वएदा मनो (गाथा1/1/11) -वेदमना
अर्थ= वेद मे मन रखने वाला
अवेस्ता जैद ओर वेद मंत्र मे समानता:- वेद से अवेस्ता जैद मे कुछ मंत्र लिए गए है जिनमे कुछ लिपि ओर शब्दावली का ही अंतर है, सबसे पहले अवेस्ता का मंथ्र ओर फ़िर वेद का मंत्र व अर्थ-                                        1) अह्मा यासा नमडंहा उस्तानजस्तो रफ़ैब्रह्मा(गाथा 1/1/1)
मर्त्तेदुवस्येSग्नि मी लीत्…………………उत्तानह्स्तो नमसा विवासेत ॥ ॠग्वेद 6/16/46॥
=है मनुष्यो | जिस तरह योगी ईश्वर की उपासना करता है उसी तरह आप लोग भी करे।
   2) पहरिजसाई मन्द्रा उस्तानजस्तो नम्रैदहा(गाथा 13/4/8)
 …उत्तानहस्तो नम्सोपसघ्………अग्ने॥ ॠग्वेद 3/14/5॥
 =विद्वान लोग विद्या ,शुभ गुणो को फ़ैलाने वाला हो।
 3) अमैरताइती दत्तवाइश्चा मश्क-याइश्चा ( गाथा 3/14/5)
-देवेभ्यो……अमृतत्व मानुषेभ्य ॥ ॠग्वेद 4/54/2॥
 =है मनु्ष्यो ,जो परमात्मा सत्य ,आचरण, मे प्रेरणा करता है ओर मुक्ति सुख देकर सबको आंदित करते है।  4) मिथ्र अहर यजमैदे।(मिहिरयश्त 135/145/1-2)
-यजामहे……।मित्रावरुण्॥ॠग्वेद 1/153/1॥
जैसे यजमान अग्निहोत्र ,अनुष्ठानो से सभी को सुखी करते है वैसे समस्त विद्वान अनुष्ठान करे।        उपरोक्त प्रमाणो से सिध्द होता है कि वेद ही सभी मतो का मूल स्रोत है,किसी भी मत के ग्रंथ मे से कोई बात मानवता की है तो वो वेद से ली गई है बाकि की बाते उस मत के व्यक्तियो द्वारा गडी गई है।
संधर्भित पुस्तके :-(१)भारत का इतिहास -प्रो.रामदेव जी 
(२) zend avstha (gatha):- english translation by prof.ervand maneck furdoonji kanga M.A.
(3)zend avstha (yastha):- english translation by prof.______________kanga M.A.
(4)वेदों का यथार्थ स्वरूप :-धर्मदेव विध्यावाचम्पति 
(5) ऋग्वेद :-आर्य समाज जामनगर भाष्य 
(6) मनुस्म्रती:- आर्यमुनी जी  
http://bharatiyasans.blogspot.in/2014/04/vedas-are-root-of-parsiseem.html

सोम रस ओर शराब

कई पश्चमी विद्वानों की तरह भारतीय विद्वानों की ये आम धारणा है ,कि सोम रस एक तरह का नशीला पदार्थ होता है । ऐसी ही धारणा डॉ.अम्बेडकर की भी थी ,,डॉ.अम्बेडकर अपनी पुस्तक रेवोलुशन एंड काउंटर  रेवोलुशन इन असिएन्त इंडिया मे निम्न कथन लिखते है:-ambedkar

यहाँ अम्बेडकर जी सोम को वाइन कहते है ।लेकिन शायद वह वेदों मे सोम का अर्थ समझ नही पाए,या फिर पौराणिक इन्द्र ओर सोम की कहानियो के चक्कर मे सोम को शराब समझ बेठे ।

सोम का वैदिक वांग्मय मे काफी विशाल अर्थ है ,सोम को शराब समझने वालो को शतपत के निम्न कथन पर द्रष्टि डालनी चाहिए जो की शराब ओर सोम पर अंतर को स्पष्ट करता है :-

शतपत (5:12 ) मे आया है :-सोम अमृत है ओर सूरा (शराब) विष है ..

ऋग्वेद मे आया है :-” हृत्सु पीतासो मुध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् ।।

अर्थात सुरापान करने या नशीला पदार्थ पीने वाला अक्सर उत्पाद मचाते है ,जबकि सोम के लिए ऐसा नही कहा है ।

वास्तव मे सोम ओर शराब मे उतना ही अंतर है जितना की डालडा या गाय के घी मे होता है ,,निरुक्त शास्त्र मे आया है ”  औषधि: सोम सुनोते: पदेनमभिशुण्वन्ति(निरूकित११-२-२)” अर्थात सोम एक औषधि है ,जिसको कूट पीस कर इसका रस निकलते है । लेकिन फिर भी सोम को केवल औषधि या कोई लता विशेष समझना इसके अर्थ को पंगु बना देता है ।

सोम का अर्थ बहुत व्यापक है जिसमे से कुछ यहाँ बताने का प्रयास किया है :-

कौषितिकी ब्राह्मणों उपनिषद् मे सोम रस का अर्थ चंद्रमा का रस अर्थात चंद्रमा से आने वाला शीतल प्रकाश जिसे पाकर औषधीया पुष्ट होती है किया है ।

शतपत मे ऐश्वर्य को सोम कहा है -“श्री वै सोम “(श॰4/1/39) अर्थात ऐश्वर्य सोम है ।

शतपत मे ही अन्न को भी सोम कहा है -” अन्नं वै सोमः “(श ॰ 2/9/18) अर्थात इस अन्न के पाचन से जो शक्ति उत्पन्न होती है वो सोम है । कोषितिकी मे भी यही कहा है :-“अन्न सोमः”(कौषितिकी9/6)

ब्रह्मचर्य पालन द्वारा वीर्य रक्षा से उत्पन्न तेज को सोम कहा है .शतपत मे आया है :-“रेतो वै सोमः”(श ॰ 1/9/2/6)अर्थात ब्रहमचर्य से उत्पन्न तेज (रेत) सोम है .कौषितिकी मे भी यही लिखा है :-“रेतः सोम “(कौ॰13/7)

वेदों के शब्दकोष निघुंट मे सोम के अंनेक पर्यायवाची मे एक वाक् है ,वाक् श्रृष्टि रचना के लिए ईश्वर द्वारा किया गया नाद या ब्रह्मनाद था ..अर्थात सोम रस का अर्थ प्रणव या उद्गीत की उपासना करना हुआ । वेदों ओर वैदिक शास्त्रों मे सोम को ईश्वरीय उपासना के रूप मे बताया है ,जिनमे कुछ कथन यहाँ उद्रत किये है :-

तैतरिय उपनिषद् मे ईश्वरीय उपासना को सोम बताया है ,ऋग्वेद (10/85/3) मे आया है :-”  सोमं मन्यते पपिवान्सत्सम्पिषन्त्योषधिम्|
सोमं यं ब्राह्मणो विदुर्न तस्याश्राति कश्चन||” अर्थात पान करने वाला सोम उसी को मानता है ,जो औषधि को पीसते ओर कूटते है ,उसका रस पान करते है ,परन्तु जिस सोम को ब्रह्म ,वेद को जानने वाले ,व ब्रह्मचारी लोग जानते है ,उसको मुख द्वारा कोई खा नही सकता है ,उस अध्यात्मय सोम को तेज ,दीर्घ आयु ,ओर आन्नद को वे स्वयं ही आनन्द ,पुत्र,अमृत रूप मे प्राप्त करते है ।

ऋग्वेद (8/48/3)मे आया है :-”   अपाम सोमममृता अभूमागन्मु ज्योतिरविदाम् देवान्|
कि नूनमस्कान्कृणवदराति: किमु धृर्तिरमृत मर्त्यस्य।।” अर्थात हमने सोमपान कर लिया है ,हम अमृत हो गये है ,हमने दिव्य ज्योति को पा लिया है ,अब कोई शत्रु हमारा क्या करेगा ।

ऋग्वेद(8/92/6) मे आया है :-”  अस्य पीत्वा मदानां देवो देवस्यौजसा विश्वाभि भुवना भुवति” अर्थात परमात्मा के संबध मे सोम का पान कर के साधक की आत्मा ओज पराक्रम युक्त हो जाती है ,वह सांसारिक द्वंदों से ऊपर उठ जाता है ।

गौपथ मे सोम को वेद ज्ञान बताया है :-  गोपथ*(पू.२/९) वेदानां दुह्म भृग्वंगिरस:सोमपान मन्यन्ते| सोमात्मकोयं वेद:|तद्प्येतद् ऋचोकं सोम मन्यते पपिवान इति|
वेदो से प्राप्त करने योग्य ज्ञान को विद्वान भृगु या तपस्वी वेदवाणी के धारक ज्ञानी अंगिरस जन सोमपान करना जानते है|
वेद ही सोम रूप है|

सोम का एक विस्तृत अर्थ ऋग्वेद के निम्न मन्त्र मे आता है :-”   अयं स यो वरिमाणं पृथिव्या वर्ष्माणं दिवो अकृणोदयं स:|
अयं पीयूषं तिसृपु प्रवत्सु सोमो दाधारोर्वन्तरिक्षम”(ऋग्वेद 6/47/4) अर्थात व्यापक सोम का वर्णन ,वह सोम सबका उत्पादक,सबका प्रेरक पदार्थ व् बल है ,जो पृथ्वी को श्रेष्ट बनाता है ,जो सूर्य आकाश एवम् समस्त लोको को नियंत्रण मे करने वाला है ,ये विशाल अन्तरिक्ष मे जल एवम् वायु तत्व को धारण किये है ।

अतः उपरोक्त कथनों से स्पष्ट है की सोम का व्यापक अर्थ है उसे केवल शराब या लता बताना सोम के अर्थ को पंगु करना है ।चुकि डॉ अम्बेडकर अंगेरजी भाष्य कारो के आधार पर अपना कथन उदृत करते है ,तो ऐसी गलती होना स्वाभिक है जैसे कि वह कहते है “यदि यह कहा जाये कि मै संस्कृत का पंडित नही हु ,तो मै मानने को तैयार हु।परन्तु संस्कृत का पंडित नही होने से मै इस विषय मे लिख क्यूँ नही सकता हु ? संस्कृत का बहुत थोडा अंश जो अंग्रेजी भाषा मे उपलब्ध नही है ,इसलिए संस्कृत न जानना मुझे इस विषय पर लिखने से अनधिकारी नही ठहरया जा सकता है ,अंग्रेजी अनुवादों के १५ साल अध्ययन करने के बाद मुझे ये अधिकार प्राप्त है ,(शुद्रो की खोज प्राक्कथ पृ॰ २)

मह्रिषी मनु बनाम अम्बेडकर के पेज न 198 व् 202 पर सुरेन्द्र कुमार जी अम्बेडकर का निम्न कथन उदृत करते है -“हिन्दू धर्म शास्त्र का मै अधिकारी ज्ञाता नही हू …

अतः स्पष्ट है की अंग्रेजी टीकाओ के चलते अम्बेडकर जी ने ऐसा लिखा हो लेकिन वो आर्य समाज से भी प्रभावित थे जिसके फल स्वरूप वो कई वर्षो तक नमस्ते शब्द का भी प्रयोग करते रहे थे ,,लेकिन फिर भी अंग्रेजी भाष्य से पुस्तके लिखना चिंता का विषय है की उन्होंने ऐसा क्यूँ किया ।

लेकिन अम्बेडकर जी के अलावा अन्य भारतीय विद्वानों ओर वैदिक विद्वानों द्वारा सोम को लता या नशीला पैय बताना इस बात का बोधक है कि अंग्रेजो की मानसिक गुलामी अभी भी हावी है जो हमे उस बारे मे विस्तृत अनुसंधान नही करने देती है ।

संधर्भित पुस्तके एवम ग्रन्थ :-(१) ऋग्वेद -पंडित जयदेव शर्मा भाष्य

(२) बोलो किधर जाओगे -आचार्य अग्निव्रत नैष्टिक

(३) शतपत ओर कौषितिकी

(४)revoulation and counterrevoulation in acient india by dr.ambedkar

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ओम् का माहात्म्य :- उत्तरा नेरूर्कर

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ओम् का माहात्म्य

 

सभी हिन्दू ’ओम्’ पद का अत्यधिक सम्मान करते हैं । जहां एक ओर वैदिक पाठों में तो इसका उच्चारण होता ही है, परन्तु अन्य अवैदिक स्तुतियों, भजनों, पूजाओं में भी इसका विशेष स्थान पाया जाता है । यहां तक कि अन्य धर्मों में भी इसका बोलबाला है । ईसाइयों का ’आमैन्’ और मुसलमानों का ’आमीन्’ स्पष्ट रूप से ओम् के अपभ्रंश हैं । हर प्रार्थना के बाद इसे जोड़ा जाता है । इनके धर्म-ज्ञाताओं से इन शब्दों के अर्थ पूछे जाएं, या उनके महत्त्व पर प्रकाश डालने को कहा जाए, तो वे कोई भी सन्तोषजनक उत्तर न दे पायेंगे । वस्तुतः, कब ओम् उन देशों में पहुंचा, इसका कोई लेखा-जोखा नहीं है । बौद्ध धर्म तो हिन्दू-धर्म के बहुत निकट है । सो, वहां ओम् जैसा का तैसा पाया जाता है – “ओम् मनि पद्मे हुम्’ । वैदिक संस्कृति में, जबकि परमात्मा के नाम असंख्य हैं, ओम् का स्थान शिखर पर है । ऐसा क्यों है ? इस प्रश्न पर इस लेख में विचार किया गया है।

पहले हम देखते हैं कि किसने हमें बताया कि ओम् परमात्मा का मुख्य नाम है । एक ओर जहां ब्राह्मण-ग्रन्थों ने उसके माहात्म्य का वर्णन किया है, वहीं प्रायः सभी उपनिषदों ने इसकी स्तुति में कसर नहीं छोड़ी है । कुछ ऐसे ही श्लोक नीचे दिये हैं –

सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति

तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति ।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति

तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीमि – ओमित्येतत् ॥ कठ० १।२।१५ ॥

यहां यमराज नचिकेता को परम सत्य बताते हुए कहते हैं कि, “जिस प्राप्तव्य को सब वेद बार-बार कहते हैं, जिस के लिए सभी तप बताये गये हैं, जिसकी इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्य जैसे कठिन व्रत का आचरण किया जाता है, वह संक्षेप में ’ओम्’ – यह पद है ।

प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ॥ मुण्डक० २।२।४ ॥

उस ब्रह्म को जब लक्ष्य करो, तब प्रणव का धनुष बनाओ, अर्थात् ओंकार का जप करो, और आत्मा को बाण बना कर उसपर चढ़ जाओ, और अपने लक्ष्य को बींध दो, प्राप्त कर लो । ओम् के सहारे से ब्रह्म जितनी शीघ्रता से मिलता है, उतना किसी और शब्द से नहीं मिलता । यही बात एक अन्य श्लोक कहता है –

एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम् ।

एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते ॥ कठ० १।२।१७ ॥

इस ओम् का ही आलम्बन श्रेष्ठ है, सबसे ऊंचा है । जो इस आश्रय को जान गया, वह ब्रह्म के लोक में महत्त्व पाता है, अर्थात् ब्रह्म को पा जाता है, मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।

इस प्रकार हम पाते हैं कि पुनः पुनः आध्यात्मिक शास्त्र हमें बता रहे हैं कि ओम् को अपने मार्ग का दीपक बनाओ, क्योंकि यही सब से शक्तिशाली और प्रभावात्मक आलम्बन है ।

फिर भी, यह स्पष्ट नही हुआ कि ओम् में वह कौन सी विशेषता है जिसके कारण सब ऋषि-मुनि हमें यह बता रहे हैं ! इसको समझने के लिए थोड़ा और अन्वेषण करते हैं ।

ओम् की एक व्युत्पत्ति ’अव’ धातु से मन् प्रत्यय लगाकर बताई गई है । इस धातु को पाणिनि के धातु-पाठ में इस प्रकार पढ़ा गया है – अव रक्षण-गति-कान्ति-प्रीति-तृप्ति-अवगम-प्रवेश-श्रवण-स्वामी-अर्थ-याचन- क्रिया-इच्छा-दीप्ति-अवाप्ति-आलिङ्गन-हिंसा-दान-भाग-वृद्धिषु । उपर्युक्त प्रकार से सन्धि-विच्छेद करने से २० अर्थ बनते हैं; ’स्वामी+अर्थ’ को एक पद मानने से, और ’दान’ के बदले ’आदान’ पढ़ने से दो अर्थ और बनते हैं । इस प्रकार यहां कुल २२ अर्थों का योग है । इतने अधिक अर्थ पाणिनि ने किसी और धातु के नहीं लिखे ! इसीसे इस धातु की विशेषता ज्ञात होती है । फिर, ये सभी अर्थ कर्ता या कर्म या दोनों के रूप में परमात्मा में घटाए जा सकते हैं । यथा –

प्रवेश – जो सब में प्रवेश करे अर्थात् सर्वव्यापक है (कर्ता)

याचन – जिसे या जिससे सब मांगें (कर्म)

अवाप्ति – जिसको सब प्राप्त है (कर्ता), और जो सब वस्तुओं में प्राप्त होता है (कर्म)

इसीलिए स्वामी दयानन्द ने लिखा है कि इस नाम में परमात्मा के अन्य सभी नाम समाहित हो जाते हैं । इस विशेषता के कारण ही केवल यही पद परमात्मा का निज नाम होने योग्य है; अन्य किसी का भी यह नाम नहीं हो सकता – तस्य वाचकः प्रणवः (योगदर्शनम् १।२५) । जहां इन्द्र, आदि, शब्द विभिन्न प्रकरणों में जीवात्मा, मेघ, विद्युत्, आदि के द्योतक हो सकते हैं, वहां ओम् शब्द किसी और का वाचक सम्भव ही नहीं है । अपितु इस शब्द का अपने वाच्य से इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि इसको परमात्मा की तरह अक्षर = अकाट्य, नाश-रहित ही कहा गया है, जबकि यह २ अक्षरों का बना हुआ है –

एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म ॥ कठ० १।२।१६ ॥ – यह ’ओम्’ अक्षर ही ब्रह्म है ।

ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं । भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव । यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥ माण्डूक्य० १ ॥ – ओम् यह अक्षर (ब्रह्म) है । इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ दिख रहा है, वह इसका उपव्याख्यान – इसको कुछ अंश में कहने वाला है । (उदाहरण के लिए -) जो भूत, वर्तमान और भविष्य में हुआ, है और होगा, वे सभी ओंकार ही हैं । और जो इन तीनों कालों से परे है, वह भी ओंकार ही है । कितनी सुन्दरता से ऋषि ने ओम् का व्याख्यान किया है !

माण्डूक्य ने इसका एक अन्य प्रकार से विवरण दिया है । वहां ओम् को ३ मात्राओं में विभक्त किया गया है – अ, उ और म् । फिर अकार को ब्रह्म का जागरित रूप बताया है, जिस प्रकार प्राणी की जागरित-अवस्था होती है । इस रूप में परमात्मा इस विराट् ब्रह्माण्ड की रचना करके वैश्वानर अग्नि के समान सब में व्याप्त होता है, और सब प्राणियों के ज्ञान और व्यवहार के लिए प्रकट होता है । इसलिए मोटी टाइप में दिये शब्द भी इस अकार के अन्तर्गत अर्थ हैं ।

उकार से परमात्मा का स्वप्नस्थान अभिप्रेत है, जो कि जागरित और सुषुप्ति के बीच की अवस्था है । उस समय मन अन्दर ही अन्दर काम करता है, बाहरी विषयों से दूर । इसी प्रकार ब्रह्माण्ड के रचन में सूक्ष्मावस्था को प्राप्त प्रकृति का रूप, उत्पन्न होते हुए भी, अप्रकट होता है । वहां परमात्मा तैजस और हिरण्यगर्भ के रूप में स्थित होता है । उस सूक्ष्मावस्था को वायु से भी सम्बोधित किया जाता है ।

मकार में शब्द के उच्चारण के अन्त के साथ-साथ जैसे परमात्मा भी सुषुप्ति में चले जाते हैं ! सुषुप्ति प्रलयावस्था या कारण जगत् की द्योतक है । इस अवस्था में केवल एक ईश्वर ही प्राज्ञ रहता है, जबकि अन्य सब सुषुप्ति में पहुंच जाते हैं । इस रूप को आदित्य = न नष्ट होने वाला भी कहा गया है ।

माण्डूक्य ने एक चौथी मात्रा भी बताई है, जो सबसे गूढ़ है । ओम् के उच्चारण का अन्त होने पर जो नीरवता है, उसे ऋषि ने अव्यवहार्य मात्रा बताया है, जो परमात्मा के निराकार रूप की द्योतक है, जो कि इस प्रपञ्च से अतीत है । इस अवस्था को वेदों ने इस प्रकार कहा है –

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ यजु० ३१।३ ॥

अर्थात् परमात्मा के एक पाद में तो यह समूचा विश्व है, और उसके शेष तीन पादों में वह अपने अमिश्रित, अमृत, प्रकाशमय रूप में स्थित है । सो, जो ओम् की चार मात्राओं में से यह अन्तिम मात्रा है, वही वास्तव में तीन मात्राओं के बराबर है, जबकि अन्य तीन मात्राएं महत्त्व में एक मात्रा के बराबर हैं !

मनु इस विषय में कहते हैं –

अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापतिः ।

वेदत्रयान्निरदुहद् भूर्भुवः स्वरितीति च ॥ मनुस्मृतिः २।७६ ॥

तीनों वेदों से प्रजापति ने एक-एक मात्रा – अ, उ और म् – दुह कर निकाली, और उसी प्रकार तीन व्याहृतियां – भूः, भुवः, स्वः – भी वेदों का निचोड़ हैं ।

इस प्रकार ओम् पद को ऋषियों ने सदा से परमात्मा का समीपतम नाम माना है, बल्कि उसको सही रूप में व्यक्त करने वाला बताया है । ओम् के विभिन्न अर्थों से भी ज्ञात होता है कि ओम् में अर्थों का सागर समाया हुआ है । जिस प्रकार ईश्वर अनन्त गुण-कर्म-स्वभाव वाला है, उसी प्रकार यह छोटा-सा नाम उन सभी को प्रकाशित करने का सामर्थ्य रखता है । उसकी सरलता में भी परमात्मा का एक गुण सन्निहित है । परमात्मा भी सरल स्वभाव वाले हैं, उनमें कोई धोखा या दिखावा नहीं है । और ऐसे ही मनुष्य उसे प्रिय भी हैं !

शासन पद्धति और इसकी समस्याएँ : डा. अशोक आर्य

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आज भारत सहित विश्व में अनेक शासन व्यवस्थाएं चल रही हैं | इन में एकतंत्र ,सीमित एकतंत्र,प्रजातंत्र,गणतंत्र आदि कुछ शासन पद्धतियाँ हमारे सामने आती हैं | इन पद्धतियों में से हम किस पद्धति को उत्तम मानते हैं तथा वेद किस पद्धति को अपनाने के लिए हमें प्रेरणा देता है | इन बातों पर यहाँ हम विचार करते हैं | यजुर्वेद में कहा गया है कि विशी राजा प्रतिष्ठित: यजुर्वेद २०.९ || अर्थात राजा का सब कुछ प्रजा पर ही आधारित होता है | प्रजा जब तक खुश है तब तक ही राजा कार्य कर सकता है | प्रजा के विरोध में आते ही राजा के हाथ से सत्ता चली जाती है | इस से स्पष्ट होता है कि राजा का चुनाव करने की प्रथा वेद ने ही दी है | वेद प्रजातंत्र व्यवस्था में शासन चलाने के लिए स्पष्ट आदेश देता है | आज के मानव ने अनेक बार वेद के विरुद्ध शासन व्यवस्था की है , जिससे अनेक समस्याएँ पैदा हो रही हैं | इन सब समस्याओं का समाधान केवल वेद ही देता है | अत: अमारे लिए आवश्यक है कि वेद में इन समस्याओं का समाधान खोज कर तदनुरूप शासन चला कर समस्या दूर करें | वेद तो कहता है कि जब राजा प्रजा को प्रसन्न नहीं रख पाता तो उसे तत्काल हटा देना चाहिए | ऋग्वेद में इस प्रकार बताया गया है :
आ त्वाहार्षमन्त्रेधि ध्रुवस्तिष्ठाविचाचलि: |
विशस्त्वा सर्वा वान्छ्न्तु मा त्वद्राष्टमधि भ्रशट ||ऋग्वेद १०.१७३.१ ||


राज्य सता में एक पुरोहित होता है | यह पुरोहित सत्ता क्षेत्र में प्रजा का प्रतिनिधित्व करता है | चुनाव होने के पश्चात यह पुरोहित नवनिर्वाचित शासक को सम्बोधन करते हुए कहता है कि मैं तुझे प्रजा में से चुनकर लाया हूँ | प्रजा के आदेश से मैं तुझे राजा के पद पर आसीन कर रहा हूँ | इससे स्पष्ट होता है कि जिसे आज हम चुनाव अधिकारी कहते हैं , उसे वेद ने पुरोहित कहा है | आज के चुनाव अधिकारी इस पुरोहित का ही प्रतिरूप होते हैं | यह पुरोहित अथवा चुनाव अधिकारी जनता की प्रतिमूर्ति होने के कारण जनता की इच्छानुसार ही राजा को चलाते हैं , ज्योंही प्रजा किसी राजा के , किसी शासक के अथवा किसी शासक दल के विमुख होती है ,त्यों ही यह पुरोहित , यह चुनाव अधिकारी राजा को हटा कर दूसरा शासक चुनने के लिए जनता के पास जाता है | समस्या तो उस समय पैदा होती है , जब शासक अथवा राजा प्रजा की चिंता भी नहीं करता और पद को छोड़ने के लिए तैयार भी नहीं होता , जैसा की हम विगत कुछ वर्षों से भारत में देख रहे हैं | प्रजा ने वर्तमान शासक का भरपूर विरोध किया किन्तु यहाँ का शासक निरंकुश बनकर कहने लगा हम जनता के चुने हुए प्रतिनिधि हैं , अब जनता में से कोई भी हमारे विरोध में नहीं बोला सकता | जो बोलेगा , उसे हम कुचल कर रख देंगे | इससे देश में अव्यवस्था को बल मिला तथा समस्याएँ खडी हुई |
नए राजा को उपदेश करते हुए चुनाव अधिकारी अथवा पुरोहित आगे कहता है कि जनता के निर्णय के अनुसार मैं तुझे इस देश की सता का अधिकारी बना रहा हूँ | तु इस सता पर स्थिर हो , इस का अधिष्ठाता बन , इस पर बैठ कर जनता के लिए कार्य कर | इस शासन को संभालने के पश्चात तूं कभी भी अपने कर्तव्य से विचलित मत होना | बड़ी से बड़ी समस्या आने पर भी घबराना नहीं | तुझे उत्तम मान कर ही यह शासन की चाबी तेरे हाथ में दी गई है कि तेरे में तत्काल उत्तम निर्णय लेने की शक्ति है , तेरे में

उत्तम व्यवस्था करने के गुण हैं | यदि तूं ठीक से इस कार्य को करता रहेगा तो मैं तेरे साथ हूँ तथा यह जनता , यह प्रजा तेरा आदर करती है | ज्योंही तूने जनता को भुला दिया , जनता की इच्छा के विरुद्ध कार्य करने लगा त्यों ही तुझे इस सता से वंचित कर दिया जावेगा |
पुरोहित आगे कहता है कि इस सता को संभालने के पश्चात इस देश की सारी प्रजाएँ , सारी जनता तेरा आदर करेगी | अब तूं किसी एक समुदाय का , किसी एक दल का प्रतिनिधि नहीं है , अब पूरे देश की जनता का तू प्रतिनिधि है , शासक है | तूं ऐसे कार्य कर की देश की पूरी की पूरी प्रजा तुझे पसंद करे , तुझे चाहे तथा तेरी कामना करे | सारी प्रजा की सब कामनाएं जब तू पूरा करेगा तो इस सत्ता का अधिकारी बना रहेगा किन्तु प्रजा के रुष्ट होते ही तेरी यह सत्ता तेरे से छीन जावेगी | प्रजा तुझे हटा देवेगी | इसलिए तू सदा ऐसे कार्य करना कि यह सत्ता तेरे से कभी भी छीन न पावे | इसका एक मात्र उपाय है कि तूं प्रजा की इच्छा के अनुरूप शासन चला |
इस से स्पष्ट होता है कि वेद शासन व्यवस्था में प्रजा को सर्वोपरि मानता है तथा आदेश देता है की देश की सरकार का चुनाव प्रजा करे तथा यह सरकार तब तक ही कार्य करे , जब तक प्रजा प्रसन्न है | प्रजा के विरोध में आते ही यह सरकार सता के सूख को त्याग दे तथा नई सरकार को चुना जावे | इस से यह भी स्पष्ट होता है कि राजा का शासन प्रजा की दया पर ही निर्भर है | ज्यों ही राजा निरंकुश होता है , प्रजा के अनुरूप कार्य नहीं करता तो यह प्रजा तत्काल उसे पदच्युत करने की शक्ति रखती है , उसे इस शासन के पद से हटा सकती है अर्थात इस सरकार या उसके किसी भी अंग को , किसी भी अधिकारी को वापिस बुला कर , उसके स्थान पर नए व्यक्ति को, अथवा नए दल को बैठा सकती है |

ऋग्वेद का यह मन्त्र स्पष्ट आदेश दे रहा है कि राजा तब तक ही सत्ता का अधिकारी है , कोई भी सरकार तब तक ही इस सत्ता की गद्दी पर आसीन है , जब तक वह प्रजा को प्रसन्न रख सकती है , अन्यथा नहीं | देश में अत्याचार बढ़ रहे हों , अनाचार का शासन हो जावे, महंगाई बढ़ने लगे किन्तु इसे रोकने की क्षमता सरकार के पास न हो या फिर जान बुझ कर इसे रोक न पा रही हो , भृष्टाचार बढ़ जावे , सरकार के अंगभूत सांसद या विधायक अथवा मंत्रिगण भ्रष्टाचार से अपना घर भर रहे हों , देश की सुरक्षा व्यवस्था गड़बड़ा रही हो , अन्याय का राज्य हो , जनता को अकारण ही परेशान किया जाने लगे, शिक्षा, बिजली , पानी आदि की ठीक से व्यवस्था न हो पा रही हो अथवा जनता की किसी मांग को सरकार स्वीकार करने को तैयार न हो तो जनता के पास एसी शक्ति हो कि वह तत्काल एसी सरकार को चलता करे तथा अपनी व्यवस्था के लिए नयी सरकार को चुने |

डा. अशोक आर्य
१०४ शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी २०१०१०
गाजियाबाद , भारत
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