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सत्य सनातन वैदिक धर्म आज की आवश्यकता- ‘रामनिवास गुणग्राहक’, वैदिक प्रवक्ता सम्पर्क-07597894991

धर्म शब्द इतने व्यापक अर्थाें वाला है कि संस्कृत व अन्य किसी भाषा में इसका पर्यायवाची शब्द नहीं मिलता। मानव जीवन के लिए धर्म की उपयोगिता प्रकट करते हुए ऋषिवर कणाद वैशेषिक दर्शन में लिखते हैं- ‘यतोऽभ्युदय निः श्रेयससिद्धि स धर्मः।(1.1.4) अर्थात् जिससे मनुष्य का यह लोक और परलोक दानों सुखद, शान्ति प्रद और कल्याणमय हों तथा मोक्ष की प्राप्ति हो, उसे धर्म कहते है। मीमांसा की भाषा में बात करें तो ‘यथा य एव’ श्रेयस्करः स धर्मः शब्देन् उच्यते’ अर्थात मनुष्य मात्र के लिए जो भी कुछ श्रेयस्कर है, कल्याण प्रद है- वह धर्म शब्द से जाना जाता है। हमारे दर्शनकार ऋ़षियों के अनुसार धर्म मनुष्य के लिए एक अक्षय सुख, शान्ति व मोक्ष-आनन्द का देने वाला है धर्म की महत्ता और मानव जीवन के लिए उपयोगिता जान लेने के बाद यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर वह धर्म है क्या? मनुष्य का समग्र हित करने वाले धर्म का स्वरूप क्या है? इस प्रश्न का उत्तर भी हम ऋषियों से ही पूछें तो अधिक उत्तम होगा? महर्षि मनु महाराज की मान्यता है- ‘वेदोऽखिलो धर्म मूलम्’ अर्थात् सम्पूर्ण वेद ही धर्म का मूल है इसे और स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं ‘वेद प्रतिपादितों धर्मः अधर्मस्तविपर्ययः’ – अर्थात् जिस-जिस कर्म को करने की वेद आज्ञा देते हैं, वह-वह कर्म ही धर्म है, इसके विपरीत अधर्म है। महर्षि मनु के ये दोनों वचन बड़ी स्पष्ट घोषणा करते हैं कि ईश्वर की वेदाज्ञा का श्रद्धा और निष्ठा पूर्णक पालन करना ही वह सच्चा धर्म है।
जब संसार में ऐ मात्र वेदमत ही था, सब वेद धर्म को मानने वााले थे, तो क्या सबका जीवन सुख समृद्धि से परिपूर्ण था? ऋषि दयानन्द लिखते हैं- ‘सृष्टि से ले के पाँच सहस्र वर्षों से पूर्व समय पर्यन्त आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती अर्थात् भूगोल में सर्वोपरि एक मात्र राज्य था।’’ अन्यत्र ऋषि लिखते हैं- ‘‘स्वायंभुव राजा से लेकर पाण्डव पर्यन्त आर्यों का चक्रवर्ती राज्य रहा है।’’ महाभाारत के युद्ध से पूर्व सर्वत्र वेद धर्म का बोलबाला था, वेद धर्म का पालन करने के कारण भारत का एक ओर भूगोल भर में चक्रवर्ती राज्य था, तो दूसरी ओर भारत को ‘विश्व गुरु’ और ‘सोने की चिडि़या’ जैसे गौरव पूर्ण सम्बोधनों के साथ पुकारा जाता था। भारत का वह प्राचीन गौरव, वह चक्रवर्ती राज्य आज हमारे लिए एक सुहाने सपने जैसा लगता है। प्रत्येक भारतवासी का हृदय चाहता है कि हमारे प्यारे राष्ट्र को वह गौरव पुनः प्राप्त हो जाए। हाँ, हाँ- हो सकता है, क्यों नहीं हो सकता? अगर हम उन्हीं वैदिक आदर्शों की जीवन के धरातल पर स्वीकार कर लें, ऋषियों के बताए हुए उसी वैदिक धर्म को अपने जीवन का आधार बना लें, तो कोई कारण नहीं कि हमें वह गौरव प्राप्त न हो। धर्म के सम्बन्ध में हमसे जो थोड़ी सी भूल महाभारत के बाद हो गई थी, उसे सुधार लें, तो भारत पुनः ‘विश्व गुरू’ और ‘सोनेे की चिडि़या’ बनकर अपने खोए हुए गौरव को पा सकता है। कितने भाग्यवान होंगे वे विवेकशील सज्जन, जो धर्म के नाम पर फैल चुकी अधार्मिक प्रवृतियों से ऊपर उठकर परमात्मा की वेद वाणी पर श्रद्धा टिकाते हुए युग परिवर्तनकारी अभियान में सक्रिय भूमिका निभाएँगे? महानुभावो। हम ऋषियों की सन्तान हैं, हमारे रोम-रोम में गौतम, कपिल कणाद और पतंजलि का तप, तेज और स्वाभिमान हिलोरें ले रहा है। उनकी तपः साधना से प्राप्त पावन प्रज्ञा से प्रसूत अथाह ज्ञान राशि आज भी हमारी प्रतीक्षा कर रही है कि हम उसे जीवन का अंग बनाकर उनकी तपस्या को सार्थक करें। उन ऋषियों ने ये अमूल्य ग्रन्थ हमारे कल्याण की भावना लेकर ही लिखे थे।
धर्म को लेकर कई बार हम बड़े गौरव के साथ कहते हैं कि हमारा धर्म सनातन धर्म है। हम सनातन का अर्थ समझ लें- काल वाचक तीन शब्द हैं। अधुनातन अर्थात् वर्तमान काल से या नवीन, दूसरा पुरातन अर्थात् प्राचीन काल से या पुराना और तीसरा है सनातन अर्थात् प्रारम्भ से या नित्य। जब हम सनातन धर्म कहते हैं तो इसका अर्थ होता है, प्रारम्भ में चलें आने वाला नित्य धर्म। और वह नित्य धर्म वेद ही हो सकता है, क्योंकि वह सृष्टि के प्रारम्भ से ही चला आ रहा है। धर्म के नाम पर वर्तमान में जो कुछ चल रहा है, वह माहभारत के युद्ध के बाद वेद विद्या के लोप हो जाने के बाद पैदा हुआ है। यह पुरातन तो हो सकता है सनातन नहीं हो सकता। सनातन तो वही है, जो वेदों में कहा है, सनातन तो वही है जो महर्षि मनु से लेकर याज्ञवल्य, गौतम, कपिल, कणाद व व्यास ने अपने ग्रन्थों में लिखा है।
ऋषि महर्षियों के बताए वेद धर्म को त्यागकर, सनातन धर्म के स्थान पर पुरातन प्रवृतियों को धर्म के रूप में स्वीकार करके आज हमारी क्या स्थिति हो गई है? धर्म के नाम पर पिछले कुछ वर्षों से जो कुछ देखने और सुनने को मिल रहा है, देश के विभिन्न क्षेत्रों से हमारे आधुनिक धर्माचार्यों की जो लीलाएँ देखने को मिल रही हैं, क्या उन सबको हम अपने सत्य सनातन धर्म का अंग मान सकते है? हमारे धार्मिक स्थलों का जो नैतिकक्षरण हो रहा है, भगवा वस्त्रों की गरिमा जिस ढंग से नीलाम की जा रही है, क्या यह हमारे सत्य सनातन धर्म के साथ मेल खाती है? धर्म दिखावे की वस्तु नहीं है। धर्म के नाम पर वर्तमान में हमारे धर्मस्थलों व धार्मिक आयोजनों में जो कुछ हो रहा है, यदि वही सनातन धर्म है, तो अधर्म की परिभाषा क्या होगी?
आज ज्ञान-विज्ञान का युग है, आज के युग में धर्म के नाम पर वह सब कुछ नहीं चल सकता जो पिछले हजारों वर्षों से चला आ रहा है। आज धर्म के सम्बन्ध में उठने वाले प्रश्नों को हम धर्म में ‘अकल का दखल’ नही होना चाहिए, कह कर नहीं टाल सकते। टालें भी क्यों? हमारे ऋषियों ने हमें धर्म ज्ञान के साथ यह भी सिखाया है- तर्क प्रमाणाभ्यां वस्तु सिद्धिः न तु संकल्प मात्रेण’ अर्थात् किसी वस्तु की सिद्धि तर्क और प्रमाणों से ही जाती है, संकल्प मात्र से नहीं। धर्म के सम्बन्ध में उठने वाले प्रश्नों के उत्तर हमें तर्क और प्रमाणों सहित देने होंगे।

की पूजा उपासना के अधिकार तक में सबको समान मानने वाला धर्म ही विश्व धर्म हो सकता है।
विश्वयापी भ्रातृभावः- सबको समान मानने के बाद दूसरी बात आती है कि सबाके अपना मानकर चलें। ऐसा धर्म जो विश्व के मानव मात्र को जापित, नस्ल तथा लिंग भोद में न बाँटकर सबको अपना समझने के उपदेश दे। मानव-मानव के साथ भाई-भाई जैसार अपनापन बनाने की शिक्षा व उपदेश देने वाला धर्म ही विश्वधर्म बन सकता है। धर्म के नाम पर किसी भी प्रकार का भोद भाव और अपने-पराये की भावना के रंग में रंगाा कोई धर्म विश्वमानव को क्यों कर स्वीकार होगा?
सर्वागींण विकास- विश्वधर्म की तीसरी विशेषता यह होनी चाहिए कि वह मनुष्य की सर्वागींण उन्नति एव समग्र विकास की सैद्धान्तिक रूपरेखा प्रस्तुत करता हो। मानव का शारीरिक विकास, बौद्धिक विकास, आत्मिक विकास, सामाजिक विकास आदि की सम्पूर्ण प्रक्रिया प्रस्तुत कर सकने वाले धर्म को विश्वमानव निःसंकोच होकर उत्साहपूर्वक स्वीकार करेगा ही। सामाजिक संरचना के प्रत्येक क्षेत्र में काम करने वाले डाॅक्टर, वकील, किसान, व्यापारी, व राज काज में लगे विभिन्न लोगों से लेकर श्रमिक तक के सम्पूर्ण जीवन के विकास की व्यवस्था देने वाले धर्म को विश्वधर्म माना जाना समय की माँग है।
वैज्ञानिक आधारः- विश्वधर्म चुने जाने की प्रतिस्पर्धा में विजयी होने वाले धर्म के सम्पूर्ण सिद्धान्त, उसके धार्मिक अनुष्ठान व धर्म सम्बन्धी अवधारणाएँ, मान्यताएँ पूर्णतः वैज्ञानिक होनी चाहिए। धर्म ग्रन्थों का विज्ञान के विरुद्ध होना संसार का सबसे बड़ा मानवीय अभिशाप है। विज्ञान विरुद्ध तथ्यों को धर्म का नाम देकर प्रचारित-प्रसारित करना किन्हीं लोगों के लिए सत्ता पाने या पेट भरने का कुटिल अभियान तो हो सकता है, धर्म नहीं।
वेद पढ़ने वाला कोई भी विवेकशील सज्जन, निष्पक्ष होकर विचार करे तो वह पाएगा कि 1893 में शिकागो के विश्वधर्म सम्मेलन में संसार भर के धर्माचार्यों, दार्शनिकों व वैज्ञानिकों ने विश्व-धर्म की जो चार कसौटी स्वीकार की थीं, उन पर संसार का एक मात्र सत्य सनातन वैदिक धर्म ही पूर्णतः खरा उतरता है।
धर्म कभी हमारे राष्ट्र की सबसे बड़ी शक्ति हुआ करता था, धर्म हमारे सामाजिक व पारिवारिक जीवन को मर्यादित रखता था। आज वही धर्म हमारे राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन से लेकर पारिवारिक और व्यक्तिगत जीवन में बिगाड़ और बिखराव ही पैदा कर रहा है। धर्म की वह पावनता हमें दुबारा लौटानी होगी। धर्म के सच्चे स्वरूप को समझकर उसके अनुसार जीवन बनाना होगा। धर्मशील सज्जनो और देवियो। धार्मिक बनना चाहते हो तो सच्चे धार्मिक बनो। धार्मिक दिखना अलग बात है तथा धार्मिक होना अलग बात है। धार्मिक दिखने, धर्मात्मा होने का दिखावा करने से धर्म का फल नहीं मिलता। असली और नकली धार्मिक को आज सामान्य जनता भी जानती है तो क्या परमात्मा नहीं जानता होगा? उसे धोखा देना सम्भव नहीं है, जो देने की कोशिश कर रहे हैं उन्हें भी समझाओ। धर्म की पावनता को नष्ट करने वालों से कह दो-
दे मुझको मिटा जालिम, मत धर्म मिटा मेरा।
ये धर्म मेरा मेरे ऋषियों की निशानी है।।
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‘रामनिवास गुणग्राहक’, वैदिक प्रवक्ता सम्पर्क-07597894991

परिवार में समन्वय का अभाव ही दुःख का कारण है

स्तुता मया वरदा वेदमाता-७

अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।

जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम्।।

मन्त्र कहता है परिवार में समन्वय का अभाव ही दुःख का कारण है। परिवार विविधता की दृष्टि से अपूर्व इकाई है। इसमें पति-पत्नी समान युवा होने पर भी स्त्री-पुरुष के भेद से नितान्त भिन्न हैं। बच्चे और बूढ़े एक-दूसरे आयुवर्ग से नितान्त भिन्न होते हैं। माता-पिता और बालक सम्बन्ध से सबसे निकट होने पर भी योग्यता सामर्थ्य से शून्य और शिखर का अन्तर रखते हैं। इन सबको मिलाकर एक इकाई बनती है जिसे हम परिवार के रूप में जानते हैं।

अधिक समय तक एक साथ समय बिताने वाली इस इकाई में विविधता के कारण समस्याओं की अधिकता तथा विविधता होना स्वाभाविक है। परिवार में विविधता एक-दूसरे के पूरक हैं। पूरक होना एक-दूसरे को एक-दूसरे की आवश्यकता बताता है। परिवार के सदस्य एक-दूसरे को इसीलिए चाहते हैं क्योंकि उनका कार्य परस्पर सहयोग से चलता है। इस सहयोग को व्यवस्थित करने के उपाय को व्रत नाम दिया गया है। व्रत शब्द  से सभी व्यक्ति परिचित होते हैं परन्तु रूढ़िगत अर्थ ही सबके काम में आता है। व्रत से हम समझते हैं ऐसी प्रतिज्ञा जिसके पालन करने का कोई मनुष्य संकल्प करता है। कोई किसी वस्तु के त्याग का संकल्प करता है, कोई किसी वस्तु के स्वीकार करने की इच्छा करता है। व्रत व्यापक शब्द है, इसका अर्थ है चयन करके स्वीकार करना।

ब्रह्मचारी को व्रती कहते हैं, उसने बहुत सारे संकल्प लिये होते हैं

जब बालक को यज्ञोपवीत धारण कराते हैं तो व्रत का मन्त्र बोलकर आहुति दिलवाते हैं। अग्ने व्रतपते, चन्द्र व्रतपते, सूर्य व्रतपते, वायो व्रतपते और व्रतानां व्रतपते। व्रतों का पालन करने वाले पदार्थों का उदाहरण दिया गया है। संसार में अग्नि व्रतपति है, सूर्य-चन्द्र-वायु सभी तो व्रतपति हैं, व्रतों के स्वामी हैं। यहाँ व्रतपति कहने से नियमों के स्वामित्व का बोध होता है। ये नियम विवशता नहीं हैं, स्वीकृत हैं इनका पालन करना इनका स्वभाव है। स्वभाव बन गये नियम खण्डित नहीं होते। परमेश्वर को इस प्रसंग में व्रतानां व्रतपते कहा है अर्थात् संसार में जितने भी व्रत हो सकते हैं उन सब व्रतों का वह स्वामी है। जितने नियम उसके अपने हैं उतने नियम तो किसी ने भी नहीं धारण कर रखे हैं। इसी कारण वह समस्त संसार को नियम में चलाने का सामर्थ्य रखता है। परमेश्वर नित्य है, इसलिए उसके नियम भी नित्य हैं, परमेश्वर सर्वत्र है, इस कारण उसके नियम ज्ञानपूर्ण हैं, उसके नियमों में कहीं त्रुटि नहीं होती। वह सर्वशक्तिमान् है अतः उसके नियमों में पालन कराने का सामर्थ्य भी है।

व्रत चलने के लिए अनिवार्य है- जिस मार्ग पर आप चलना चाहते हैं, चलने की इच्छा करते हैं, तब आप अपने विचारों का विश्लेषण करके निर्णय की ओर ले चलते हैं। तब पहली स्थिति बनती है और आपका विचार संकल्प का रूप लेता है। जब भली प्रकार विचार करके निश्चय करते हैं, तब यह संकल्पित विचार स्थायी बन जाता है। यह विचार के स्थायी करने की घोषणा का नाम व्रत हो जाता है।

संकल्प व्रत बन जाता है, वह अपने नियम पर, अपने मार्ग पर चल पड़ता है। यह व्रत है। यह व्रत उसे नियम पर चलने का अधिकार देता है, उसे दीक्षा कहा गया है। दीक्षित होने का अर्थ है, उस व्रत के साथ उसे सब पहचानते हैं। वह पहचान उसे चलने का, आवश्यक वस्तु को प्राप्त करने का अधिकार देता है। यह यात्रा जब प्रयोजन की पूर्णता तक जाती है तब उस पूर्णता को, सफलता को दक्षिणा कहा जाता है। यह सफलता का आधार है। व्रत अर्थात् व्रत पर चलकर ही सफलता की पूर्णता तक पहुँचा जा सकता है। व्रत की मनुष्य को पूरे जीवन में आवश्यकता रहती है। मनुष्य का जीवन निरर्थक नहीं है, सप्रयोजन है, यदि प्रयोजन जीवन में है तो उसको प्राप्त करने का उपाय भी होना चाहिए, इसलिए व्रत की आवश्यकता होती है।

जैसे बालक के, छात्र के जीवन में व्रत की आवश्यकता है, उसी प्रकार गृहस्थ के जीवन में भी व्रत की आवश्यकता होती है। इसी कारण विवाह संस्कार में वर-वधु एक दूसरे के हृदय पर हाथ रखकर व्रतों के पालन करने का संकल्प लेते हैं, इतना ही नहीं वे अपने व्रतों का पालन भी करते हैं, वे अपने साथी के व्रत से भी परिचित होते हैं तभी तो कहते हैं- मैं तुम्हारे व्रतों को अपने हृदय में धारण करता हूँ। व्रत को समझ लें तो जीवन को चलाना और समझना सरल हो जायेगा।

स्तुता मया वरदा वेदमाता-५

वेद कहता है हमारे अन्दर एक दूसरे के प्रति चाहना हो। परस्पर अभिलाषा होनी चाहिए। यह जो मानसिक परिस्थित है, इसका मन में विचार होने की भूमिका बन चुकी है, मनुष्य के मन में जब द्वेष नहीं होता, सहानुभूति का भाव किसी के प्रति अनुकूलता का लक्षण है। इस भाव की अधिकता ही अपनेपन को जन्म देती है। अपनापन स्वाभाविकता को बताता है। यदि हमारे मन में किसी के प्रति द्वेष नहीं है तो हम उसके कष्ट को देखकर उसे यह कष्ट क्यों मिल रहा है, इस प्रकार का दुःख उसको नहीं मिलना चाहिए इस प्रकार का विचार मन में आता है। अपनापन दूसरे के प्रति मन में निकटता का भाव उत्पन्न करता है। इस निकटता से उत्पन्न प्रसन्नता का विचार प्रेम को प्रकाशित करता है। समाज में जब कोई हमारे साथ सद्भाव दिखाता है तो हमें भी उसके प्रति सद्भाव प्रदर्शित करने की इच्छा होती है। सद्भाव की अधिकता होने पर दूसरे से उसकी अपेक्षा नहीं रहती, हमें वस्तु अच्छी लगती है। दूसरे व्यक्ति में सम्भव है जो भाव हमारे मन में है, वह न हो, या उतना न हो तब भी हम अपना सम्पूर्ण अपनापन देते हैं तो दूसरे पक्ष से कई बार उसप्रकार की अपेक्षा भी नहीं रहती। वेद कहता है प्रेम की आकांक्षा दोनों ओर से होनी चाहिए। इसलिए मन्त्र कहता है अन्योऽन्यमभिहर्यत परिवार के सदस्यों में एक दूसरे के हित की चिन्ता होनी चाहिए। हम समुदाय में रहते हुए यदि अपने लाभ या अपने हित की बात ही सोचते हैं, सदा अपनी ही चिन्ता करते हैं तो स्वाभाविक रूप से यह मान लिया जाता है अब आपकी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। जब कोई असमर्थ होता है तो उसकी चिन्ता की जाती है, उसके चाहने वाले उसका ध्यान रखते हैं। जब हमें लगता है यह व्यक्ति स्वयं अपना भला कर सकता है, अपना हित साध सकता है तब किसी के लिए उसके विषय में सोचना प्राथमिकता नहीं रहती। और हाँ सब अपना अपना सोचेंगे तो फिर वहाँ कोई दूसरे के बारे में क्यों सोचेगा?

अपने बारे में सोचना अपना हित चाहना बुरी बात नहीं है। यहाँ अनुचित तब होता है जब मनुष्य अपने बारे में सोचता है तब उसे दूसरे की चिन्ता नहीं होती या वह दूसरे की उपेक्षा कर देता है। अपनी चिन्ता करते हुए केवल अपनी ही चिन्ता होती है, दूसरे की चिन्ता नितान्त नहीं होती हैं। जब हम अपने को मुख्य न मानकर दूसरे की चिन्ता करते हैं, ऐसा सभी करते हैं तो सब सब की चिन्ता कर सकते हैं। अपनी चिन्ता में सब सम्मिलित नहीं हो सकते परन्तु एक-एक औरों की चिन्ता करे तो सबको सबकी चिन्ता हो जाती है। यह लाभ सबमें प्रेम भाव होने पर होता है। परिवार में सबको अपने तुल्य हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि की चिन्ता करनी चाहिए। इसी से सबमें परस्पर प्रीति बढ़ती है।

वेद मन्त्र में एक उपमा दी है वत्सं जातमिवाघ्न्या जैसा एक गाय अपने सद्य जात बछड़े से करती है वेद में जो उपमायें दी गई वे स्वाभाविक हैं। संसार के पदार्थों में, व्यक्तियों के व्यवहार में सदा ही उन्हें देखा जा सकता है। सब उसे अनुभव कर सकते हैं। वेद कहता है हमें गति करनी चाहिए सूर्य और चन्द्र की भाँति। भगवान् ने सृष्टि कैसे बनाई, संसार की रचना कैसे की, वेद कहता है- यथापूर्वमकल्पयत् जैसे प्रत्येक सर्ग में ईश्वर सृष्टि की रचना करता है उसी प्रकार रचना करता रहेगा। यहाँ भी प्रेम कैसा करना चाहिए जैसे एक गाय अपने सद्य जात बछड़े से करती है। गाय बछड़े से प्रेम करती है परन्तु उसका प्रेम तभी तक रहता है जब तक उसका बछड़ा असमर्थ होता है, अपनी माँ पर निर्भर होता है। जैसे ही बछड़ा बड़ा हो जाता है, गाय में उसप्रकार का प्रेम नहीं रहता। यह उपमा सम्भवतः इस बात को स्पष्ट करने के लिए है जब कोई प्राणी, या मनुष्य समर्थ हो जाता है तब उसके साथ उसप्रकार का सहयोग अपेक्षित नहीं होता। इसलिए प्रेम में केवल भावना नहीं औचित्य भी अपेक्षित है।

इसप्रकार इस मन्त्र में अपने व्यवहार को सुधारने के लिए मनुष्य को, अपने परिवार को प्रसन्न व सुखी रखने के लिए परस्पर द्वेष का न होना, एक दूसरे के सुख-दुःख को स्वात्मवत् समझना। परस्पर प्रसन्नता के लिए यत्न करना और प्रत्येक सदस्य में परिवार के सदस्यों के प्रति आकर्षण उत्पन्न करने वाला वार्तालाप और व्यवहार करते रहना चाहिए। इसलिए मन्त्र में-

अविद्वेषम् सहृदयम्, सामनस्यम् के साथ अभिहर्यत कहा है।

मृत्यु के बाद आत्मा दूसरा शरीर कितने दिनों के अन्दर धारण करता है? आचार्य सोमदेव जी परोपकारिणी सभा

प्रश्न हैमृत्यु के बाद आत्मा दूसरा शरीर कितने दिनों के अन्दर धारण करता है? किन-किन योनियों में प्रवेश करता है? क्या मनुष्य की आत्मा पशु-पक्षियों की योनियों में जन्म लेने के बाद फिर लौट के मनुष्य योनियों में बनने का कितना समय लगता है? आत्मा माता-पिता के द्वारा गर्भधारण करने से शरीर धारण करता है यह मालूम है लेकिन आधुनिक पद्धतियों के द्वारा टेस्ट ट्यूब बेबी, सरोगसि पद्धति, गर्भधारण पद्धति, स्पर्म बैंकिंग पद्धति आदि में आत्मा उतने दिनों तक स्टोर किया जाता है क्या? यह सारा विवरण परोपकारी में बताने का कष्ट करें।

– एन. रणवीर, नलगोंडा, तेलंगाना

समाधान १ मृत्यु के  बाद आत्मा कब शरीर धारण करता है, इसका ठीक-ठीक ज्ञान तो परमेश्वर को है। किन्तु जैसा कुछ ज्ञान हमें शास्त्रों से प्राप्त होता है वैसा यहाँ लिखते हैं। बृहदारण्यक-उपनिषद् में मृत्यु व अन्य शरीर धारण करने का वर्णन मिलता है। वर्तमान शरीर को छोड़कर अन्य शरीर प्राप्ति में कितना समय लगता है, इस विषय में उपनिषद् ने कहा-

तद्यथा तृणजलायुका तृणस्यान्तं गत्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्यात्मानम्

उपसँ्हरत्येवमेवायमात्मेदं शरीरं निहत्याऽविद्यां गमयित्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्य् आत्मानमुपसंहरति।।

– बृ. ४.४.३

जैसे तृण जलायुका (सुंडी=कोई कीड़ा विशेष) तिनके के अन्त पर पहुँच कर, दूसरे तिनके को सहारे के लिए पकड़ लेती है अथवा पकड़ कर अपने आपको खींच लेती है, इसी प्रकार यह आत्मा इस शरीररूपी तिनके को परे फेंक कर अविद्या को दूर कर, दूसरे शरीर रूपी तिनके का सहारा लेकर अपने आपको खींच लेता है। यहाँ उपनिषद् संकेत कर रहा है कि मृत्यु के बाद दूसरा शरीर प्राप्त होने में इतना ही समय लगता है, जितना कि एक कीड़ा एक तिनके से दूसरे तिनके पर जाता है अर्थात् दूसरा शरीर प्राप्त होने में कुछ ही क्षण लगते हैं, कुछ ही क्षणों में आत्मा दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है। आपने पूछा है- आत्मा कितने दिनों में दूसरा शरीर धारण कर लेता है, यहाँ शास्त्र दिनों की बात नहीं कर रहा कुछ क्षण की ही बात कह रहा है।

मृत्यु के विषय में उपनिषद् ने कुछ विस्तार से बताया है, उसका भी हम यहाँ वर्णन करते हैं-

स यत्रायमात्माऽबल्यं न्येत्यसंमोहमिव न्येत्यथैनमेते प्राणा अभिसमायन्ति स एतास्तेजोमात्राः समभ्याददानो हृदयमेवान्ववक्रामति स यत्रैष चाक्षुषः पुरुषः पराङ् पर्यावर्ततेऽथारूपज्ञो भवति।।

– बृ. उ.४.४.१

अर्थात् जब मनुष्य अन्त समय में निर्बलता से मूर्छित-सा हो जाता है, तब आत्मा की चेतना शक्ति जो समस्त बाहर और भीतर की इन्द्रियों में फैली हुई रहती है, उसे सिकोड़ती हुई हृदय में पहुँचती है, जहाँ वह उसकी समस्त शक्ति इकट्ठी हो जाती है। इन शक्तियों के सिकोड़ लेने का इन्द्रियों पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका वर्णन करते हैं कि जब आँख से वह चेतनामय शक्ति जिसे यहाँ पर चाक्षुष पुरुष कहा है, वह निकल जाती तब आँखें ज्योति रहित हो जाती है और मनुष्य उस मृत्यु समय किसी को देखने अथवा पहचानने में अयोग्य हो जाता है।

एकीभवति न पश्यतीत्याहुरेकी भवति, न जिघ्रतीत्याहुरेकी भवति, न रसयत इत्याहुरेकी भवति, न वदतीत्याहुरेकी भवति, न शृणोतीत्याहुरेकी भवति, न मनुत इत्याहुरेकी भवति, न स्पृशतीत्याहुरेकी भवति, न विजानातीत्याहुस्तस्य हैतस्य हृदयस्याग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्क्रामति चक्षुष्टो वा मूर्ध्नो वाऽन्येभ्यो वा शरीरदेशेभ्यस्तमुत्क्रामन्तं प्राणोऽनूत्क्रामति प्राणमनूत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति सविज्ञानो भवति, सविज्ञानमेवान्ववक्रामति तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च।।

– बृ.उ. ४.४.२

अर्थात् जब वह चेतनामय शक्ति आँख, नाक,जिह्वा, वाणी, श्रोत्र, मन और त्वचा आदि से निकलकर आत्मा में समाविष्ट हो जाती है, तो ऐसे मरने वाले व्यक्ति के पास बैठे हुए लोग कहते हैं कि अब वह यह नहीं देखता, नहीं सूँघता इत्यादि। इस प्रकार इन समस्त शक्तियों को लेकर यह जीव हृदय में पहुँचता है और जब हृदय को छोड़ना चाहता है तो आत्मा की ज्योति से हृदय का अग्रभाग प्रकाशित हो उठता है। तब हृदय से भी उस ज्योति चेतना की शक्ति को लेकर, उसके साथ हृदय से निकल जाता है। हृदय से निकलकर वह जीवन शरीर के किस भाग में से निकला करता है, इस सम्बन्ध में कहते है कि वह आँख, मूर्धा अथवा शरीर के अन्य भागों-कान, नाक और मुँह आदि किसी एक स्थान से निकला करता है। इस प्रकार शरीर से निकलने वाले जीव के साथ प्राण और समस्त इन्द्रियाँ भी निकल जाया करती हैं। जीव मरते समय ‘सविज्ञान’ हो जाता है अर्थात् जीवन का सारा खेल इसके सामने आ जाता है। इसप्रकार निकलने वाले जीव के साथ उसका उपार्जित ज्ञान, उसके किये कर्म और पिछले जन्मों के संस्कार, वासना और स्मृति जाया करती है।

इस प्रकार से उपनिषद् ने मृत्यु का वर्णन किया है। अर्थात् जिस शरीर में जीव रह रहा था उस शरीर से पृथक् होना मृत्यु है। उस मृत्यु समय में जीव के साथ उसका सूक्ष्म शरीर भी रहता, सूक्ष्म शरीर भी निकलता है।

आपने पूछा किन-किन योनियों में प्रवेश करता है, इसका उत्तर  है जिन-जिन योनियों के कर्म जीव के साथ होते हैं उन-उन योनियों में जीव जाता है। यह वैदिक सिद्धान्त है, यही सिद्धान्त युक्ति तर्क से भी सिद्ध है। इस वेद, शास्त्र, युक्ति, तर्क से सिद्ध सिद्धान्त को भारत में एक सम्प्रदाय रूप में उभर रहा समूह, जो दिखने में हिन्दू किन्तु आदतों से ईसाई, वेदशास्त्र, इतिहास का घोर शत्रु ब्रह्माकुमारी नाम का संगठन है। वह इस शास्त्र प्रतिपादित सिद्धान्त को न मान यह कहता है कि मनुष्य की आत्मा सदा मनुष्य का ही जन्म लेता है, इसी प्रकार अन्य का आत्मा अन्य शरीर में जन्म लेता है। ये ब्रह्माकुमारी समूह यह कहते हुए पूरे कर्म फल सिद्धान्त को ताक पर रख देता है। यह भूल जाता है कि जिसने घोर पाप कर्म किये हैं वह इन पाप कर्मों का फल इस मनुष्य शरीर में भोग ही नहीं सकता, इन पाप कर्मों को भोगने के लिए जीव को अन्य शरीरों में जाना पड़ता है। वेद कहता है-

असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः।

ताँऽस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।।

– यजु. ४०.३

इस मन्त्र का भाव यही है कि जो आत्मघाती=घोर पाप कर्म करने वाले जन है वे मरकर घोर अन्धकार युक्त=दुःखयुक्त तिर्यक योनियों को प्राप्त होते हैं। ऐसे-ऐसे वेद के अनेकों मन्त्र हैं जो इस प्रकार के कर्मफल को दर्शाते हैं। किन्तु इन ब्रह्माकुमारी वालों को वेद शास्त्र से कोई लेना-देना नहीं है। ये तो अपनी निराधार काल्पनिक वाग्जाल व भौतिक ऐश्वर्य के द्वारा भोले लोगों को अपने जाल में फँसा अपनी संख्या बढ़ाने में लगे हैं। अस्तु।

क्या भारत में गोहत्या कभी पुण्यदा थी यश आर्य

http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2015/04/150331_beef_history_dnjha_sra_vr

वैदिक साहित्य में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि उस दौर में भी गोमांस का सेवन किया जाता था. जब यज्ञ होता था तब भी गोवंश की बली दी जाती थी.

उत्तर: प्रमाण कहां  है ?

धर्मशास्त्रों में यह कोई बड़ा अपराध नहीं है इसलिए प्राचीनकाल में इसपर कभी प्रतिबंध नहीं लगाया गया.

उत्तर :ये  झूठ है।वेद में गो वध निषेध है ।
सारा विवाद 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ जब आर्य समाज की स्थापना हुई और स्वामी दयानंद सरस्वती ने गोरक्षा के लिये अभियान चलाया. और इसके बाद ही ऐसा चिह्नित कर दिया गया कि जो ‘बीफ़’ बेचता और खाता है वो मुसलमान है. इसी के बाद साम्प्रदायिक तनाव भी होने शुरू हो गए. उससे पहले साम्प्रदायिक दंगे नहीं होते थे.

उत्तर: ऋषि द्यानंद ने कहां कहा है  कि गो  मांस भक्षक केवल मुसल्मान होता है , और   ईसाइ आदि  नहीं ? क्या  साम्प्रदायिक दंगे अंग्रेज़ सरकार आदि ने नहीं भडकाए ? बंगाल विभाजन क्यों हुआ ?

सारांश :  द्विजेंद्र नारायण झा  एक मांसाहारी  समाज का सदस्य है । उसका समाज तंत्र [शक्ति ] को मानता है । तंत्र अवैदिक मत है,मांसाहार करने देता है । वह स्वयम कार्ल मार्क्स का पुजारी है ।  यदि वह वेद मंत्र लिखता  तो मैं  खंडित करता ।  सारा लेख झा जी की कल्पना पर आधारित है । अत: लेख निराधार है । क्या यह व्यक्ति यह सिद्ध  कर सकता है, कि वेदिक संहिताओं में गोहत्या  करने पर अमुक पुण्य प्राप्त होगा ,  ऐसा लिखा है  ?  देखो वेद क्या कह्ता है :
http://www.onlineved.com/yajur-ved/?language=2&adhyay=14&mantra=8

बैल से बिजली

मार्क्स वाद के  कारनामे:

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http://www.aryamantavya.in/beef-ban-strengthens-secularism-by-yash-arya/

http://www.aryamantavya.in/beef-eating-in-ancient-time/

http://www.aryamantavya.in/whether-beef-was-allowed-in-vedic-time/

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http://satyarthprakash.in/

Beef ban strengthens secularism by Yash Arya

http://www.bbc.com/news/world-asia-india-32172768

Mr Justin Rowlatt argues that beef ban endangers secularism. He cites the following reasons:

1. The Hindu majority – 80% of the country’s 1.2 billion people – regard cows as divine; the 180 million-strong Muslim minority see them as a tasty meal.

2. Secularism in India means something a little different from elsewhere. It doesn’t mean the state stays out of religion, here it means the state is committed to supporting different religions equally.

3. India’s secularism was a response to horrors of the partition when millions of people were murdered as Hindus and Muslims fled their homes. The country’s first prime minister, Jawaharlal Nehru, argued equal treatment was a reasonable concession to the millions of Muslims who’d decided to risk all by staying in India.

4. India’s triumph has been forging a nation in which Hindus and Muslims can live happily together. The fear is that the beef ban is part of a process that is gradually undermining the compromises that made that possible.

My anwer is as follows.

a1. U have not cited any evidence from the quran along with the authentic tafseer as to how beef ban is anti-islam.

a2. The state is right in supporting the beef ban till u answer a1 above.

a3. The horrors of partition were engineered by the British Imperialists and their Jesuit teachers. They experimented with it during the bengal partition and perfected it in 1947. Just look at Korea, Ottoman empire, etc for the records of european catholic brand imperialism.

a4. The mughal king Babar does not agree with your insinuation that ‘The fear is that the beef ban is part of a process that is gradually undermining the compromises that made that possible.’ Read what ur own website says:
“His [Mughal King Babar] first act after conquering Delhi was to forbid the killing of cows because that was offensive to Hindus.” [http://www.bbc.co.uk/religion/religions/islam/history/mughalempire_1.shtml]

Mr Rowlatt further says that :

Unfortunately for India’s buffaloes, they aren’t regarded as close enough to God to deserve protection. Buffalo is banned in just one of the country’s 29 states. [ I am for banning the slaughter of buffaloes too. Why dont u join PETA and espouse their cause].

There is an economic issue here.

Beef is significantly cheaper than chicken and fish and is part of the staple diet for many Muslims, tribal people and dalits – the low caste Indians who used to be called untouchables. It is also the basis of a vast industry which employs or contributes to the employment of millions of people.

A: People can be employed in areas where they dont have to murder animals. Whenn u murder animals, the habit carries on with u and u find it easy to murder humn beings too.

http://en.wikipedia.org/wiki/St._Bartholomew%27s_Day_massacre

http://www.gutenberg.org/ebooks/20321

–And yes we had untouchability. U have slaveryhttp://www.religioustolerance.org/sla_bibl3.htm

— The fact is that the european settlers are committing genocide on the native american people. And one of the methods employed to decimate the population of the red indians was destruction of cattle [http://indiancountrytodaymedianetwork.com/2011/05/09/genocide-other-means-us-army-slaughtered-buffalo-plains-indian-wars-30798%5D . In India the british imperialists used muslims to do this job.

In this video one can see how a living non-milk producing cow is more beneficial to the Indians than a dead cow’s meat. And how the mouthpiece of the urea/pesticide corporates r trying to mislead the populations. This misinformation and the urea/pesticide/bank-credit causes the farmer suicides.

Again, we can produce electricity using animal power and stop paying the germans for solar cells.

onclusion:

Why should we killl our animals so that the west is able to eat cheap meat ?

Secularism will be strengthened by the beef ban since murders will be reduced on our land. Ahimsa paramo dharma….

We will work towards import substitution to reduce our dependence on the west. That will give more jobs to the indians.

 

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प्राचीन काल में हिन्दू गौ मांस खाते थे – BBC का खंडन यश आर्य

भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माताओं में से एक डॉक्टर बीआर अंबेडकर अच्छे शोधकर्ता भी थे. उन्होंने गोमांस खाने के संबंध में एक निबंध लिखा था, ‘क्या हिंदुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया?’

यह निबंध उनकी किताब, ‘अछूतः कौन थे और वे अछूत क्यों बने?’ में है.

दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम ने इस निबंध को संपादित कर इसके कुछ हिस्से बीबीसी हिंदी के पाठकों के लिए उपलब्ध करवाए हैं.

‘पवित्र है इसलिए खाओ’

अपने इस लेख में अंबेडकर हिंदुओं के इस दावे को चुनौती देते हैं कि हिंदुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया और गाय को हमेशा पवित्र माना है और उसे अघन्य (जिसे मारा नहीं जा सकता) की श्रेणी में रखा है.

अंबेडकर ने प्राचीन काल में हिंदुओं के गोमांस खाने की बात को साबित करने के लिए हिन्दू और बौद्ध धर्मग्रंथों का सहारा लिया.

उनके मुताबिक, “गाय को पवित्र माने जाने से पहले गाय को मारा जाता था. उन्होंने हिन्दू धर्मशास्त्रों के विख्यात विद्वान पीवी काणे का हवाला दिया. काणे ने लिखा है, ऐसा नहीं है कि वैदिक काल में गाय पवित्र नहीं थी, लेकिन उसकी पवित्रता के कारण ही बाजसनेई संहिता में कहा गया कि गोमांस को खाया जाना चाहिए.” (मराठी में धर्म शास्त्र विचार, पृष्ठ-180).

अंबेडकर ने लिखा है, “ऋगवेद काल के आर्य खाने के लिए गाय को मारा करते थे, जो खुद ऋगवेद से ही स्पष्ट है.”

ऋगवेद में (10. 86.14) में इंद्र कहते हैं, “उन्होंने एक बार 5 से ज़्यादा बैल पकाए’. ऋगवेद (10. 91.14) कहता है कि अग्नि के लिए घोड़े, बैल, सांड, बांझ गायों और भेड़ों की बलि दी गई. ऋगवेद (10. 72.6) से ऐसा लगता है कि गाय को तलवार या कुल्हाड़ी से मारा जाता था.”

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ये झूठ है । देखो

rigved-10-72-6-pt-harisharan-vedalankar

 

rigved-10-91-14

rigved-10-86-14-pt-harisharan-vedalankar

download the original from here

http://www.aryamantavya.in/rigveda-7-7-harisharan-siddhantalankar/
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‘अतिथि यानि गाय का हत्यारा’

अंबेडकर ने वैदिक ऋचाओं का हवाला दिया है जिनमें बलि देने के लिए गाय और सांड में से चुनने को कहा गया है.

अंबेडकर ने लिखा “तैत्रीय ब्राह्मण में बताई गई कामयेष्टियों में न सिर्फ़ बैल और गाय की बलि का उल्लेख है बल्कि यह भी बताया गया है कि किस देवता को किस तरह के बैल या गाय की बलि दी जानी चाहिए.”
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माध्यंदिनी सन्हिता ही यजुर्वेद है । तैत्तिरीय  वेद  नहीं है ।
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वो लिखते हैं, “विष्णु को बलि चढ़ाने के लिए बौना बैल, वृत्रासुर के संहारक के रूप में इंद्र को लटकते सींग वाले और माथे पर चमक वाले सांड, पुशन के लिए काली गाय, रुद्र के लिए लाल गाय आदि.”

“तैत्रीय ब्राह्मण में एक और बलि का उल्लेख है जिसे पंचस्रदीय-सेवा बताया गया है. इसका सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, पांच साल के बगैर कूबड़ वाले 17 बौने बैलों का बलिदान और जितनी चाहें उतनी तीन साल की बौनी बछियों का बलिदान.”

अंबेडकर ने जिन वैदिक ग्रंथों का उल्लेख किया है उनके अनुसार मधुपर्क नाम का एक व्यंजन इन लोगों को अवश्य दिया जाना चाहिए- (1) ऋत्विज या बलि देने वाले ब्राह्मण (2) आचार्य-शिक्षक (3) दूल्हे (4) राजा (5) स्नातक और (6) मेज़बान को प्रिय कोई भी व्यक्ति.

कुछ लोग इस सूची में अतिथि को भी जोड़ते हैं.

मधुपर्क में “मांस, और वह भी गाय के मांस होता था. मेहमानों के लिए गाय को मारा जाना इस हद तक बढ़ गया था कि मेहमानों को ‘गोघ्न’ कहा जाने लगा था, जिसका अर्थ है गाय का हत्यारा.”

‘सब खाते थे गोमांस’

इस शोध के आधार पर अंबेडकर ने लिखा कि एक समय हिंदू गायों को मारा करते थे और गोमांस खाया करते थे जो बौद्ध सूत्रों में दिए गए यज्ञ के ब्यौरों से साफ़ है.

अंबेडकर ने लिखा है, “कुतादंत सुत्त से एक रेखाचित्र तैयार किया जा सकता है जिसमें गौतम बुद्ध एक ब्राह्मण कुतादंत से जानवरों की बलि न देने की प्रार्थना करते हैं.”

अंबेडकर ने बौद्ध ग्रंथ संयुक्त निकाय(111. .1-9) के उस अंश का हवाला भी दिया है जिसमें कौशल के राजा पसेंडी के यज्ञ का ब्यौरा मिलता है.

संयुक्त निकाय में लिखा है, “पांच सौ सांड, पांच सौ बछड़े और कई बछियों, बकरियों और भेड़ों को बलि के लिए खंभे की ओर ले जाया गया.”

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यहाँ  बौद्ध लोगों ने वाम मार्गी लोगों की चर्चा की  है। सच्चे  ब्राह्मणों की नहीं  ।

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अंत में अंबेडकर लिखते हैं, “इस सुबूत के साथ कोई संदेह नहीं कर सकता कि एक समय ऐसा था जब हिंदू, जिनमें ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण दोनों थे, न सिर्फ़ मांस बल्कि गोमांस भी खाते थे.”

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अ‍ॅम्बेद्कर और  B B C  और   दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम  और  गो मांस भक्षक हिंदुओं का मत असत्य है ।

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आर्य समाज के मन्तव्य: त्रैतवाद शिवदेव आर्य गुरुकुल पौंधा, देहरादून

आर्य समाजः- श्रेष्ठ व्यक्ति का नाम आर्य है। जिसके कर्म अच्छे हों उसे श्रेष्ठ कहते हैं। सभ्य मनुष्यों के संगठन को समाज कहते हैं। संगठन अज्ञान, अन्याय, अभाव को दूर करने के लिए बनाया जाता है। आर्य समाज एक प्रजातान्त्रिक संगठन है जिसकी स्थापना महर्षि दयानन्द जी ने मुम्बई में सन् १८५७ ई॰ में की थी।

उद्देश्यः- संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।

आर्य समाज के मन्तव्य:

त्रैतवाद –आर्य समाज ईश्वर, जीव, प्रकृति इन तीनों को अनादि मानता है। किसी वस्तु के निर्माण में तीन कारणों का होना आवश्यक है।

१.उपादान कारण,             २. निमित्त कारण,         ३.साधारण कारण

१.उपादान कारणः- वस्तु के निर्माण में जो मूल तत्व है उसे उपादान कारण कहते हैं। जैसे घड़े का निर्माण में मिट्टी और आभूषण में सोना-चान्दी आदि उपादान कारण हैं।

२.निमित्त कारणः- जिसके बनाने से कुछ बने, न बनाने से न बने, प्रकारान्तर से दूसरे को बना दे उसे निमित्त कारण कहते हैं। इसके दो भेद हैं-

क. मुख्य निमित्त कारण- परमात्मा

ख. साधारण निमित्त कारण – आत्मा

३.साधारण कारणः-निमित्त और उपादान कारण के अतिरिक्त अन्य अपेक्षित कारण साधारण कारण कहलाते हैं। जैसे घड़े के निर्माण में मिट्टी उपादान कारण कुम्भकार निमित्त कारण और दण्ड, चक्रादि साधारण कारण है। वैसे ही सृष्टि निर्माण में प्रकृति साधारण कारण, ईश्वर निमित्त कारण और दिशा, आकाशादि साधारण कारण हैं।

उपादान कारण प्रकृति:- प्रकृति जगत् का उपादान कारण है जिससे कार्य जगत् उत्पन्न होता है। उपादान कारण में निम्न बातें पाई जाती हैं-

१. उपादान कारण परिणामी, नित्य और जड़ होता है। चेतन कभी भी उपादान कारण नहीं हो सकता है।

२. उपादान कारण के गुण कार्य में किसी न किसी रूप में आते हैं।

३. उपादान कारण से ही कार्य बनता है और उसी में लीन भी होता है।

४. उपादान कारण असत्य, मिथ्या और अमान रूप नहीं होता।

५. उपादान बनाने से कार्य रूप में बनता है और न बनाने से नहीं बनता।

यें सभी बातें प्रकृति में पाई जाती हैं अतः प्रकृति जगत् का उपादान कारण है। प्रकृति त्रिगुणात्मक सत्त्व रजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः सांख्य दर्शन, जड़ और अनादि है। क्योंकि कारण का कारण नहंी होता। प्रकृति के अनादि होने में हेतु

१.अभाव से भाव उत्पन्न नहंीं होता। जगत् भाव रूप है अतः उसका कारण भी भाव रूप होना चाहिये और वह प्रकृति है।

२. जगत् कार्य रूप होने से उसका कारण प्रकृति ही उपादान कारण सिध्द होती है।

३. कार्य अपने उपादान कारण में विद्यमान रहता है। जगत् कार्य है और उसकी विद्यमानता प्रकृति में है।

४. कार्य अपने कारण में लय को प्राप्त होता है अतः जगत् का उपादान कारण प्रकृति होना ही चाहिये।

५. कोई कार्य तभी सम्पन्न होता है जब उसके कारण में कार्य रूप में परिणत होने की शक्ति हो अतः प्रकृति रूपी कारण में जगत् रूप में परिणत होने की शक्ति विद्यमान रहती है।

६. किसी भी वस्तु का सर्वथा विनाश नहीं होता वह सूक्ष्म रूप हो अपने कारण में विलीन हो जाती है। प्रलयावस्था में जगत् अपने कारण प्रकृति में विद्यमान रहता है।

७. बीज के होने पर उससे अंकुर का प्रादुर्भाव होता है। प्रकृति ही जगत का मूल कारण होने से उसका अनादि होना सिध्द होता है।

प्रमाण-

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषष्वजाते।

                                                तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्यवश्न्नन्यो अभि चाकशीति।।       ऋ॰ १/१६४/२॰)

(द्वा) ब्रह्म और जीव दोनों (सुपर्णा) चेतनता और पालनादि गुणों से कुछ सदृश (सयुजा) व्याप्य-व्यापक भाव से संयुक्त (सखाया) परस्पर मित्रता युक्त (समानम्‍) वैसा ही (वृक्षम्द्ध प्रलय में छिन्न भिन्न होने वाले संसार रूप वृक्ष का (परिषष्वजाते) आश्रय लिये हुए हैं। (तयोरन्यः) इनमें से जो जीव है वह इस वृक्ष रूपी संसार में पाप-पुण्य रूप फलों को (स्वाद्वत्ति) स्वाद लेकर खा रहा है, भोग रहा है ओर दूसरा परमात्मा (अनश्नन्) न भोगता हुआ (अभि चाकशीति) चारों ओर विराजमान हो उसे देख रहा है।

अजामेकां लोहित शुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां स्वरूपाः।

                                                अजो हयेको जुषमाणोऽनुशेते जहाव्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः। (श्वेता॰उप॰ ४१५)

प्रकृति, जीव और परमात्मा ये तीनों अज अर्थात् इनका जन्म कभी नहीं होता। प्रकृति रजोगुणयुक्त, सत्त्वगुणात्मक और कृष्ण अर्थात् तमोगुणी होने से उससे विभिन्न पदार्थों की उत्पत्ति होती है। इसे अजन्मा जीवात्मा भोग रहा है और दूसरी अविनाशी, जन्म मरण से रहित ईश्वर जीवों द्वारा भोग्य होने के कारण इसका परित्याग अर्थात् भोग से पृथक है।

सृष्टि की उत्पत्ति में मूलतत्त्वों की गणना:-

१. एकत्ववाद एकत्ववाद का सिध्दान्त कहता है कि जड़ या चेतन तत्त्व से ही सृष्टि का निर्माण हुआ है। जड़ से सृष्टि का निर्माण हुआ है। जड़ से सृष्टि की उत्पत्ति चार्वाक और वर्तमान भौतिक वादियों (वैज्ञानिकों) की है।

चेतन तत्व से ही सृष्टि का निर्माण हुआ यह मान्यता शंकराचार्य, यहूदी, ईसाई, मुसलमानों की है। इनका कहना है कि एक ईश्वर ही अनादि तत्व है जिसने अभाव से अर्थात् अपनी माया से जीव तथा जगत् की उत्पत्ति की है।

२. द्वैतवाद द्वैतवादियों का कहना है कि मूलभूत सत्ता दो हैं चेतन जीव तथा भौतिक द्रव्य प्रकृति। यह धारणा सांख्य दर्शन की मानी जाती है।

३. त्रैतवाद इस सिध्दान्त को मानने वाले ईश्वर, जीव, प्रकृति को मूलभूत सत्ता मानते हैं रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य और महर्षि दयानन्द जी इसी सिध्दान्त को मानने वाले थे।

समीक्षा:-एकत्ववादियों का मानना है कि भौतिक द्रव्य से ही सृष्टि का निर्माण हुआ है। जैसे दही और गोबर को मिला देने से उसमें कुछ समय पश्चात् बिच्छू उत्पन्न हो जाते हैं। इसी भांति मदिरा बनाने के लिये कुछ पदार्थों को मिला देने से कालान्तर में उनमें गति उत्पन्न हो जाती है। वर्तमान समय में बैटरी का निर्माण भी तेजाब और जस्ता की प्लेट का संयोग होने पर विद्युत प्रवाहित होने लगती है। इसी भांति जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी के तत्वों का संयोग होने से सृष्टि का निर्माण स्वयमेव होता है और इन तत्वों के क्षीण हो जाने पर प्रलय भी अपने आप होती है। सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय का यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है।

समाधान:-यदि गोबर या दही को सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखें तो उसमें सूक्ष्म जीव पहले से विद्यमान दिखाई देंगे जो उचित वातावरण में बिच्छू के शरीर में परिणत हो गये। दही और गोबर को मिलाकर अनुकूल वातावरण में रखने वाली चेतन सत्ता का होना आवश्यक है।

यदि सृष्टि का बनना और बिगड़ना स्वभाव से माने तो स्वभाव से ही उत्पन्न पदार्थ का विनाश नहीं होगा। यदि विनाश को स्वाभाविक माने तो फिर उत्पत्ति नहीं होगी। दोनों अर्थात् उत्पत्ति और विनाश यदि स्वाभाविक माने जायें तो अनवस्था दोष आ जायेगा।

आज का विज्ञान यह मानता है कि सृष्टि की अन्तिम सत्ता आत्मा-परमात्मा न होकर ऊर्जा अर्थात् वे सूक्ष्म विद्युत तरंगे हैं जो मेंढक की गति से प्रवाहित हो रही है। ये तरंगें तीन प्रकार के विद्युत कणों से बनी हैं जिन्हें इलेक्ट्राॅन, प्रोटाॅन, न्यूट्राॅन कहा जाताहै।

समाधान- यदि विद्युत तरंगों का प्रवाह विच्छेद युक्त है अर्थात् मेंढक की भांति कुदान मार-मार कर प्रवाहित होता है और फिर बन्द हो जाता है तो उसके बन्द या विच्छेद होने पर उसे दोबारा गति किससे प्राप्त होती है। जड़ पदार्थ अपने आप गतिशील नहीं हो सकता।

जिन परमाणुओं से सृष्टि का निर्माण होता है वहां पर भी व्यवस्था है। प्रत्येक परमाणु के केन्द्र में न्यूट्राॅन होता है और उसके समीप ही प्रोटाॅन के कण रहते हैं। जितने प्रोटाॅन के कण होते हैं, उतने ही इलेक्ट्राॅनों की संख्या होती है। इलेक्ट्राॅन विपरीत दिशा में गतिशील रहते हैं। उनमें गति एवं निश्चित अनुपात में प्रोटाॅन, इलेक्ट्राॅन की विद्यमानता किसी दूसरी सत्ता द्वारा ही सम्भव है। जड़ में स्वयं यह गुण नहंी आ सकता।

‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ परमाणु सौरमण्डल की एक छोटी इकाई का ही नमूना है। सूर्य के चारों ओर हमारी पृथ्वी सहित दूसरे ग्रह-उपग्रह घूम रहे हैं। सूर्य भी अपनी कक्षा में गति कर रहा है। हमारी आकाश गंगा में सूर्य सदृश लाखों नक्षत्र एवं लोक लोकान्तर हैं जो अपनी-अपनी कक्षा में भ्रमण कर रहे हैं। ऐसी करोड़ों आकाशगंगाओं देखी जा चुकी हैं। इनहें कौन गति दे रहा है इसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं है।

शंकर का अद्वैतवाद:- शंकराचार्य का मत है कि सृष्टि की मूल सत्ता केवल एक चेतन ईश्वर है। ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या। जैसे मकड़ी अपने में से ही जाला बुनने के लिए तन्तु निकालती है और फिर उसे समेट भी लेती है वैसे ही ब्रह्म अपनी माया से सृष्टि की उत्पत्ति कर अपने में ही समेट लेता है। माया ब्रह्म की शक्ति है जो न सत् न ही असत् अर्थात अनिर्वचनीय है। जैसे अज्ञान के कारण रज्जु में सर्प और सीप में रजत का भ्रम हो जाता है वैसे ही यह जगत् स्वप्न के समान मिथ्या है। जैसे एक ही मूर्ख का प्रतिबिम्ब सहस्रों दर्पणों में अवभाषित हो अनेक रूपों में दिखाई देता है वैसे ही एक ब्रह्म अनेक अन्तः करणों से युक्त हो बहुत दिखाई दे रहा है।

समाधान:-जब अकेला ब्रह्म ही था तो उससे यह जड़ संसार कैसे उत्पन्न हो गया। यदि यह ब्रह्म की माया है तो फिर ब्रह्म और माया दो हो गये। यदि माया सत् है तो एकत्व का सिध्दान्त नहीं टिकता असत् मानने पर उसकी प्रतीति कैसे होगी। यदि उसे सत् असत् दोनों ही मान लिया जाये तो परस्पर विरोध उत्पन्न हो जायेगा। उसे सत्असत से भिन्न अनिर्वचनीय मानना निरर्थक है। मकड़ी और उसका सूत्र निकालना दो हो गये। क्योंकि सूत्र तो मकड़ी के शरीर से निकलता है और शरीर का निर्माण प्रकृति के पदार्थों से होता है। सीप में रजत और रज्जु में सर्प का भ्रम होना भी द्वैत को सिध्द करता है। जिसका भ्रम हो रहा है वह वस्तु दूसरी है। ऐसे ही स्वप्न भी देखे सुनें विषयों से सम्बन्धित होता है और जागने पर उन पदार्थों की सत्ता समाप्त हो जाती है परन्तु संसार तो दिखाई दे रहा है।

यदि ब्रह्म अपने में से ही जगत् का निर्माण करता है तो विकार वाला हो गया और उससे निर्मित जगत् भी चेतन स्वरूप वाला होना चाहिये। जो यह कहते हैं कि खुदा ने कुन कहा और सृष्टि रचना हो गई सो अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं हो सकती। कार्य से पहले उसके कारण का होना आवश्यक है।

द्वैतवाद:- यह पहले कहा जा चुका है कि अकेला जड़ या चेतन सृष्टि की उत्पत्ति करने में समर्थ नहीं हो सकता। जब तक चेतन उसका निमित्त कारण नहीं बने तब तक जड़ स्वयं बन या बिगड़ नहीं सकता। इसलिए सृष्टि उत्पत्ति के लिये दो सत्ताओं का मानना अनिवार्य है। सांख्य दर्शन में इसे प्रकृति पुरूष कहां है ओर गीता ने क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ। शरीर, मन, बुध्दि, इन्द्रियाँ क्षेत्र है और पुरूष इनका स्वामी।

सांख्य दर्शन के प्रमाण:-

संहत परार्थत्वात्।।१।१४॰।।

संहत शरीरादि पृथिव्यादि विभिन्न तत्वों के योग से निर्मित हैं ओर संघात दूसरों के लिए होता है। जैसे खट्वादि पुरूष के लिए निर्मित किये जाते हैं वैसे ही जीवात्मा के लिये यह शरीर प्राप्त हुआ है ओर वह इससे भिन्न है।

अधिष्ठानात्।।१।१४२।।

रथ तभी चलता है जब इसका चलाने वाला हो। शरीर भी एक रथ है। (आत्मानं रथं विध्दि शरीरं रथमेव च) जिसका अधिष्ठाता चेतन आत्मा है।

भोक्तृभावात् ।।१।१४३।।

संसार के सब विषय भोग्य और पुरूष उनका भोक्ता है।

कैवल्यार्थं प्रवृत्तेश्च।।१।१४४।।

सब जीवों की मोक्ष अर्थात् सांसारिक दुःखों से छूटने की प्रकृति देखी जाती है। बन्धन में कोई नहीं रहना चाहता। यदि आत्मा नहीं है तो दुःख से छूटना कौन चाहता है?

षष्ठी व्यपदेशादपि सांख्य ६/३

मेरा शरीर, मेरा मन इत्यादि व्यवहार से शरीर से भिन्न आत्मा सिध्द होता है।

अस्त्यात्मा नास्तित्व साधनाभावात् (सांख्य ६/१)

आत्मा है क्योंकि उसके न होने में कोई प्रमाण नहीं है। जो मैं कहता हुॅं वह शरीर से पृथक चैतन्य स्वरूप आत्मा ही जानना चाहिए।

अन्य प्रमाण:-

१. कोई भी मरना नहीं चाहता। यह मरने से बचने वाला चेतन आत्मा ही है जिसने अनेक जन्मों में मृत्यु दुःख का अनुभव किया है।

२. यदि जीव का पृथक अस्तित्व न माना जाये तो जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं का अभाव होगा। ये अवस्थायें होती है अतः जीव का अस्तित्व भी सिध्द है।

३. इच्छा, द्वेष, प्रधान, ज्ञान आदि से भी जीव प्रकृति से भिन्न सिध्द होता है।

४. जड़ का प्रकाशक, जड़ से भिन्न होता है, शरीर, इन्द्रिय, मन-बुध्दि को प्रकाश गति देने वाला जीव इससे भिन्न है।

       बालादेकर्मणायस्कमुतैकं नैव दृश्यते।

     ततः परिष्वजीयसी देवता सा मम प्रिया।।

(अथर्व॰ १॰/८/२५)

एक (जीवात्मा) बाल से भी अधिक सूक्ष्म है और एक (प्रकृति) मानो दीखती ही नहीं। उससे भी अधिक सूक्ष्म और व्यापक जो परमात्मा है वही मेरा प्रिय है।

आत्मा का परिणामः-

बालाग्र शत भागस्य शतधा कल्पितस्य च।

                                                                             भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते।।

(श्वेता॰ ५/९)

बाल के अगले भाग के सौ टुकड़े कर दिये जायें, उसके सौवें भाग के भी सौ हिस्से कर दिये जायें, उस सूक्ष्म भाग के समान जीव का प्रमाण दें किन्तु उसमें सामथ्र्य बहुत है। जीव स्व, सूक्ष्म पदार्थ है जो एक परमाणु में भी रह सकता है। उसकी शक्तियाँ शरीर में प्राण, बिजली और नाड़ी आदि के साथ संयुक्त होकर रहती है, उनसे सब शरीर का वर्तमान जानता है।

(सत्यार्थ प्रकाश द्वादश समुल्लास)

प्रश्न: जीव शरीर में विभु है या परिच्छिन्न?

उत्तर: परिच्छिन्न। जो विभु होता तो जागृत, स्वप्न सुषुप्ति, मरण, जन्म, संयोग, वियोग, जाना, आना कभी नहीं हो सकता। इसलिए जीव का स्वरूप अल्पज्ञ, अल्प अर्थात् सूक्ष्म है। सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास।

आत्मा के गुण, कर्म स्वभाव

प्रश्न: जीव और ईश्वर का स्वरूप, गुण कर्म और स्वभाव कैसा है?

उत्तर: दोनों चेतन स्वरूप है। स्वभाव दोनों का पवित्र, अविनाशी और धार्मिकता आदि हैं। परन्तु परमेश्वर के सृष्टि उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय सबको नियम में रखना, जीवों को पाप-पुण्य रूप फलों को देना आदि धर्मयुक्त कर्म हैं और जीव के सन्तानोत्पत्ति, उनका पालन, शिल्प विद्या आदि अच्छे-बुरे कर्म हैं।

इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिंगभूति      (न्याय द॰ १/१/१॰)

प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवन मनोगतीन्द्रियान्तरविकाराः सुख दुःखे इच्छाद्वेषौ प्रयत्नश्चात्मनो लिंगानि।।                                                 (वैशेषिक दर्शन ३/२/४)

दोनों सूत्रों में (इच्छा) पदार्थों के प्राप्ति की अभिलाषा (द्वेष) दुःखादि की अनिच्छा, वैर, (प्रयत्न), पुरूषार्थ, बल, (सुख) आनन्द (दुःख) विलाप, अप्रसन्नता (ज्ञान) विवेक, पहिचानना। ये तुल्य हैं परन्तु वैशेषिक में (प्राण) को बाहर निकालना (अपान) प्राण को बाहर से भीतर को लेना, (निमेष) आंख मींचना (उन्मेष) आंख का खोलना (जीवन) प्राण का धारण करना (मन) निश्चय, स्मरण और अहंकार करना (गति) चलना, (इन्द्रिय) सब इन्द्रियों को चलाना (अन्तरविकार) भिन्न-भिन्न क्षुधा, तृष्णा, हर्ष, शोकादि का होना, ये जीवात्मा के गुण परमात्मा से भिन्न हैं। इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी, क्योंकि वह स्थूल नहीं है।

जब तक आत्मा देह में होता है तभी तक ये गुण प्रकाशित रहते हैं और जब शरीर छोड़ कर चला जाता है, तब ये गुण शरीर में नहीं रहते। जिसे होने से जो हों और न होने से न हों, वे गुण उसी के होते हैं। जैसे दीप एवं सूर्यादि के होने से प्रकाशादि का होना और न होने से न होना है, वैसे ही जीव और परमात्मा का विज्ञान गुण द्वारा होता है।

पुरूष बहुत्व:-

जन्मादि व्यवस्थातः पुरूष बहुत्वम् (सांख्य १.१४९)

संसार में देखा जाता है किसी का जन्म हो रहा है और किसी की मृत्यु हो रही है। जन्म-मरणादि अवस्थायें तभी सम्भव है जब अनेक जीवात्मा होंवे। इसमें प्रश्न उठता है कि मुक्ति का साधन करके बहुत सारे लोग मुक्त हो जायेंगे। इसका उत्तर अगले सूत्र में दिया है-

  इदानीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेदः (सांख्य १/१५९)

हम देख रहे हैं कि वर्तमान समय में पुरूषों का सर्वथा उच्छेद नहीं है। कोई मरता है तो दूसरा जन्म लेता है। मुक्ति की अवधि समाप्त होने पर आत्मा फिर शरीर     धारण करता है। इसलिये सर्वथा उच्छेद का प्रश्न ही नहीं उठता। आवागमन का यह चक्र चलता ही रहता है।

त्रैतवाद:-

ईश्वर:  जिस प्रकार घड़े को बनाने में मिट्टी उपादान कारण और कुभ्म्भकार निमित्त कारण है वैसे ही सृष्टि की उत्पत्ति में प्रकृति उपादान कारण और ईश्वर निमित्त कारण है। जीव साधारण निमित्त कारण है। जड़ पदार्थ में यह सामथ्र्य नहीं कि वह स्वयं योजनाबध्द हो जगत् रूप हो जाये। जीव का भी सामथ्र्य इतना नहीं कि इस विशाल सृष्टि की रचना कर सके। तब केवल ईश्वर ही रह जाता है जो निराकार, सर्व व्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान होने के कारण परमाणु में भी व्याप्त हो उसे गति प्रदान कर सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय कर रहा है।

ईश्वर के कार्य:-

१. सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करना।

२. सब जीवों को कर्मानुसार यथायोग्य फल देना।

गुण:-ईश्वर सगुण और निगुण दोनों है।

स्वभाव:-ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप है।

ईश्वर की सिध्दि:-उदयनाचार्य ने न्याय कुसुमा´जलि में ईश्वर की सिध्दि में आठ प्रमाण दिये हैं-

कार्ययोजन धृत्यादेः पद प्रत्ययतः श्रुतेः।

                                                     वाक्यात् संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वकृदव्ययः।।

(न्याय कुसुमांजलि)

१. कार्य-सृष्टि की रचना कार्य है। अतः इसका कारण भी होना चाहिये। बिना कारण के कार्य नहीं हो सकता।

२. आयोजन-सृष्टि रचना के समय परमाणुओं को मिलाने में क्रिया हुई होगी। उस क्रिया का कर्ता होना चाहिये।

३. धृत्यादि-सृष्टि रचना के अनन्तर भी उसका कोई धारण करने वाला होना चाहिये।

४. पद – पद गति का वाचक है। सृष्टि के प्रारम्भ में मनुष्यों को बुना, खेती करना और अन्य लौकिक व्यवहार पहले किसी ने सिखाये होंगे क्योंकि ये नैमित्तिक कर्म हैं।

५. प्रत्यय – वेदों में ज्ञान-प्रदान करने की शक्ति मन्त्रों के माध्यम से किसने दी?

६. श्रुतेः – वेदों का ज्ञान किसने दिया?

७. वाक्य – मनुष्यों को बोलना किसने सिखाया भाषा किसने दी?

८. संख्या- यह किसको सूझा कि दो परमाणुओं से द्वयणु और तीन द्वयणु से त्रसरेणु इत्यादि बनते हैं।

इन प्रमाणों के आधार पर ईश्वर की सिध्दि होती है।

अन्य प्रमाण

१. जीवों के किये हुये कर्म न स्वयं फल दे सकते हैं और न स्वयं जीवन ही फल की व्यवस्था अपने आप कर सकते हैं। अतः ईश्वर की सिध्दि कर्मफल के दाता के रूप में भी है।

२. जगत् में सर्वत्र नियम देखा जाता है अतः उसका नियामक भी होना चाहिये।

उत्पत्ति :-

                                                इयं विसृष्टिर्यत आबभूव ॰ १॰/१२९/७

जिससे यह सृष्टि प्रकाशित हुई है।

स्थिति :-

 स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमाम् ॰ १॰/१२१/१

जिसने पृथिवी से लेके सूर्यपर्यन्त जगत् को धारण किया हुआ है।

प्रलय :-

नहि ते अग्ने तन्वः क्रूरमानंश मत्र्यः।

कपिर्बभस्ति तेजनम्।।(अथर्व॰ ६/४९/१द)

हे परमेश्वर! मनुष्य तेरे क्रूर स्वरूप को नहीं जानते प्रलय के समय कम्पाने वाले आप प्रकाशमान सूर्य मण्डल को खा जाते हैं जैसे प्रसूता गो अपनी झिल्ली को खा लेती है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश  के सप्तम समुल्लास में इस विषय पर लिखा है-

प्रश्न-आप ईश्वर-ईश्वर कहते हो, उसकी सिध्दि किस प्रकार करते हो?

उत्तर-सब प्रत्यक्षादि प्रमाणों से।

प्रश्न-ईश्वर में प्रत्यक्ष प्रमाण कभी नहीं घट सकता?

उत्तर-इन्द्रियों का विषयों के साथ जो सीधा सम्बन्ध होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। अब विचारना चाहिये कि इन्द्रिय और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं। जैसे शब्द, स्पर्श रूप, रस, गन्ध का ज्ञानेन्द्रियों से प्रत्यक्ष होता है वैसे ही इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना विशेष आदि ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। और जब आत्मा किसी गलत कार्य में प्रवृत्त होता है उस समय आत्मा के भीतर बुरे काम करने में भय, शंका, लज्जा तथा अच्छे कर्मों के करने में अभय, निशंकता और आनन्दोत्साह उठता है। यह जीवात्मा की ओर से नहीं किन्तु परमात्मा की ओर से है।

और जब जीवात्मा शुध्द होके शुध्दान्तकरण से युक्त योगी समाधिस्थ होकर आत्मा और परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है। तब उसको उसी समय दोनों (गुण और गुणी) प्रत्यक्ष होते हैं।

।। इत्योम्।।

महात्मा बुद्ध के प्राचीन ब्राह्मणों ,ऋषियों पर विचार


आज कल के अम्बेडकरवादी बुद्ध के भक्त तो बनते है लेकिन बुद्ध का एक भी कथन नही मानते है ऋषियों का अपमानइनका बुद्ध वचन के विरुद्ध कृत है ,,यहा हम ब्राह्मण धम्मिय सूक्त के कुछ सूक्त रखेंगे –
बुद्ध के समय के एक ब्राह्मण महाशाळा ने बुद्ध से कहा –
है गौतम ! इस समय ब्राह्मण ओर पुराने समय ब्राह्मणों के ब्राह्मण धर्म पर आरूढ़ दिखाई पड़ते है न ?
बुद्ध – ब्राह्मणों | इस समय के ब्राह्मण धर्म पर आरूढ़ नही है |
म्हाशालो – अच्छा गौतम अब आप हमे पुराने ब्राह्मणों के उनके धर्म पर कथन करे | यदि गौतम आपको कष्ट न होतो
बुद्ध – तो ब्राह्मणों ! सुनो अच्छी तरह मन में करो ,कहता हु |”
– पुराने ऋषि संयमी ओर तपस्वी होते थे | पांच काम भोगो को छोड़ अपना ज्ञान ओर ध्यान लगाते थे ||१||

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अम्बेडकर वादी ऋषियों को अश्लील ओर कामी कहते नही थकते लेकिन बुद्ध स्वयम ,संयमी ,ध्यानी कहते है |
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ऋषियों को पशु न थे , न अनाज | वह स्वध्याय रूपी धन धान्य वाले ओर ब्रह्म निधि का पालन करने वाले थे ||2||
ब्राह्मण अबध्य अ जेय धर्म से रक्षित थे |
कुलो द्वारो पर उन्हें कोई कभी भी नही रोक सकता था ||५||
वह अडतालीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करते थे |
पूर्वकाल में ब्राह्मण विद्या व् आचरण की खोज करते थे ||६||
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एक पोस्ट में मेने पारस्कर ग्रहसूत्र से ४८ वर्ष ब्रह्मचर्य के कथन की पुष्टि की थी प्राचीन लोग उत्तम ब्रह्मचर्य ४८ का पालन करते थे ..ये स्वामी दयानद जी का भी मत है इस पर कुछ पौराणिक प्रश्न भी करते है लेकिन ग्र्ह्सुत्र .स्मृति ओर बुद्ध वचन में यह तथ्य है |
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ब्रह्मचर्य तप शील अ कुटिलता मृदुता सुरती अंहिसा ओर क्षमा की प्रशंसा करते थे ||9||
जो उनमे सर्वोतम दृढ पराक्रमी ऋषि ब्रह्मा था |
उसने स्वप्न में भी मैथुन धर्म का सेवन नही किया था ||१० ||
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बुद्ध का ये कथन पौरानिको , मुस्लिमो ,इसाइयो ओर अम्बेडकरवादीयो पर गहरा तमाचा है जो झूटी पौराणिक कथा उठा कर ब्रह्मा पर अश्लील आरोप लगाते है ..अम्बेडकरवादी अगर सच्चे बुद्ध है तो उन्हें बुद्ध वचन को प्रमाण मानना चाहिए अपेक्षा पुराणों के …. क्यूंकि बुद्ध ने कहा है की ब्रह्मा ने मैथुन का कभी स्वप्न में भी विचार नही किया था |

ये ऋषियों के बारे में बुद्ध के वचन थे इसके विपरीत अम्बेडकरवादी ऋषियों के विरुद्ध विष वमन करते है अम्बेडकर ने ऋषियों को मासाहारी शराबी तक लिखा है जो कि उनके वेद ओर ब्राह्मण आदि ग्रंथो के विरुद्ध कथन है ओर साथ ही बुद्ध वचन के विरुद्ध भी है |

‘वेदाविर्भाव और वेदाध्ययन की परम्परा पर विचार’

veda adhyan

ओ३म्

वेदाविर्भाव और वेदाध्ययन की परम्परा पर विचार

                सृष्टिकाल के आरम्भ से देश में अनेक ऋषि व महर्षि उत्पन्न हुए हैं। इन सबकी श्रद्धा व पूरी निष्ठा ईश्वरीय ज्ञान वेदों में रही है। यह वेद सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा हमारे अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को उनकी आत्मा में अपने आत्मस्थ स्वरूप से प्रेरणा द्वारा प्रदान किये थे। आप्त प्रमाणों के अनुसार इन ऋषियों ने यह ज्ञान ब्रह्माजी को दिया और ब्रह्माजी से इन चारों वेदों को सृष्टि के आरम्भ में अन्य स्त्री व पुरूषों को पढ़ाये जाने की परम्परा का आरम्भ हुआ। इस विवरण से यह ज्ञात होता है कि ब्रह्मा जी को ईश्वर से सीधा ज्ञान नहीं मिला। ब्रह्मा जी को वैदिक संस्कृत भाषा और वेदों का ज्ञान अग्नि आदि चार ऋषियों से मिला। इसी प्रकार से ब्रह्माजी सहित इन 5 ऋषियों के अतिरिक्त अमैथुनी सृष्टि में जितने भी स्त्री-पुरूष उत्पन्न हुए थे वह सभी ज्ञान रहित थे। उनके पास न तो वेदों का ज्ञान था और न किसी भाषा का ही। भाषा के ज्ञान के लिए भी माता-पिता अथवा आचार्य की आवश्यकता होती है। उपलब्ध विवरण से यही ज्ञात होता है कि इन सबको भाषा व वेदों का ज्ञान ब्रह्मा जी से प्राप्त हुआ। यदि यह बात सत्य है, जो कि प्रमाणानुसार है, तो ब्रह्मा जी को इन सभी स्त्री व पुरूषों को पढ़ाने में बहुत लम्बा समय लगा होगा। इन मनुष्यों की कुल संख्या का विवरण भी प्रमाणिक साहित्य में उपलब्ध नहीं होता। हो सकता है कि इनकी संख्या एक सौ से 1000 के बीच या इससे भी अधिक हो सकती है। पूर्णतः ज्ञान शून्य युवा स्त्री पुरूषों को पढ़ाना ब्रह्मा जी के लिए काफी कठिन रहा होगा। पहले तो उन्हें स्वयं ही चार ऋषियों से अध्ययन करने में लंबा समय लगा होगा और फिर अन्य सभी स्त्री व पुरूषों को चारों वेदों का भाषा सहित ज्ञान देना अत्यन्त ही कठिन अनुभव होता है। परन्तु यह अवश्य हुआ और आज तक यह परम्परा चली आयी है। अतः इस पर सन्देह करने का कोई औचीत्य नहीं है।

 

यहां एक प्रश्न विचारार्थ और लेना चाहते हैं। शतपथ ब्राह्मण में उपलब्ध विवरण के अनुसार ईश्वर द्वारा अन्तर्यामीस्वरूप से अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा इन चार ऋषियों को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान ईश्वर द्वारा इनकी जीवात्माओं में प्रेरणा द्वारा प्राप्त हुआ था। इन ऋषियों ने इन वेदों का ज्ञान ब्रह्माजी को कराया। यहां एक प्रश्न और उसका उत्तर उपस्थित हो रहा है कि ब्रह्माजी सहित यह पांचों ऋषि किसी एक स्थान पर एकत्र हुए होंगे। यह कार्य ईश्वर की प्रेरणा से ही हुआ होगा। इसके बाद सबसे पहले अग्नि ऋषि ने ब्रह्माजी को ऋग्वेद के मन्त्र सुनाएं होंगे और ब्रह्माजी एक-एक मन्त्र करके उनको स्मरण कर रहे होंगे। कहीं शंका होने पर अग्नि ऋषि से पूछते भी होंगे? मन्त्र रटाने के बाद फिर वह उनका अर्थ भी ब्रह्माजी को बताते होंगे और ब्रह्माजी उनसे अपनी शंकाओं का निवारण करते होंगे। जब अग्नि ऋषि द्वारा ब्रह्माजी को ऋग्वेद का पाठ व अध्ययन कराया जा रहा होगा तो वहां वायु, आदित्य और अंगिरा बैठे हुए यह सब कुछ देख व सुन रहे होंगे। यह स्वाभाविक है कि इससे इन तीन ऋषियों को भी ब्रह्माजी सहित ऋग्वेद का ज्ञान हो गया होगा। इसके बाद वायु ने ब्रह्माजी को यजुर्वेद का अध्ययन व पाठ कराया होगा और अब अग्नि, आदित्य व अंगिरा ऋषियों ने इस वार्तालाप को देख व सुन कर यजुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर लिया होगा। और इसी प्रकार से क्रमशः सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान भी ब्रह्माजी सहित सभी ऋषियों को हो गया होगा। कुछ विद्वान हमारे इस अनुमान पर आपत्ति कर सकते हैं कि इसका उल्लेख तो शास्त्रों में है नहीं। हमारा उत्तर है कि यह सामान्य बात है कि जब दो व्यक्ति बातें कर रहें हों तो वहां उपस्थित अन्य व्यक्ति भी उनकी बातों को सुनते हैं। बैठकों में एक व्यक्ति बोलता है तो सभी उपस्थित जन उसकी बातों को सुनते हैं और प्रश्नोत्तर करते हैं। ऐसा ही आर्य समाज के साप्ताहिक सत्संगों व वार्षिकोत्सव की बैठकों में भी होता है। अतः इस प्रकार की आपत्ति का कोई आधार नहीं बनता। इस प्रकार से अध्ययन समाप्त होने पर पांचों ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा और ब्रह्मा वेदों के ज्ञानी बन गये होंगे और इसके बाद इन्होंने अलग-अलग वा मिलकर शेष शताधिक या सहस्राधिक स्त्री-पुरूषों को ज्ञान कराया होगा। इस अमैथुनी सृष्टि के बाद मैथुनी सृष्टि भी आरम्भ होनी थी जो कि निश्चित रूप से हुई और इन उत्पन्न नई पीढ़ी के बालक व बालिकाओं को इन ऋषियों व शेष स्त्री पुरूषों में से योग्य विदुषी और विद्वान पण्डितों द्वारा सभी बच्चों को अध्ययन कराया गया होगा। इस प्रकार से सृष्टि के आरम्भ में अध्ययन अध्यापन की परम्परा प्रचलित होने का अनुमान है।

 

हमने एक अन्य प्रश्न पर भी विचार किया है। वह यह कि सृष्टि के आरम्भ में जो मनुष्य उत्पन्न हुए उन्हें वेद मन्त्रों के अर्थ जानने में भारी कठिनाई होती होगी। मनुष्यों का आत्मा जो आज है वही सृष्टि के आरम्भ में भी था। हमारा शरीर पंच भूतों से मिलकर बना था। सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में भी सभी ऋषियों व साधारण जनों का शरीर भी इन्हीं पंचभूतों से बना था। भिन्नता केवल यही हो सकती है कि उनकी आत्माओं के संस्कार हमारी आत्माओं से उत्कृष्ट रहे हो सकते हैं। यदि ऐसा न होता तो अध्ययन अध्यापन व वेदों के ज्ञान के पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाने में काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता। ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अनादि, अनुत्पन्न, अजर अमर भी है। अतः सृष्टिकर्ता ईश्वर ने हर समस्या का निदान अपने विवेक से पहले ही किया हुआ रहा होगा। इस आधार पर जब हम देखते हैं तो हमें आदि अमैथुनी सृष्टि व उसके बाद की अनेकानेक पीढि़यों में उच्च कोटि के योगियों व मुनियों की सृष्टि अनुभव होती है। यह ऋषियों से पढ़ व सुन कर तत्काल उसे जान लेते होंगे। जिन वेद मन्त्रों के अर्थ जानने में कठिनता होती होगी उसे यह समाधि लगाकर ईश्वर से पूछ लेते होंगे या क्रमशः मन्त्रों पर विचार व चिन्तन कर अर्थ जान लेते होंगे जैसा कि महर्षि दयानन्द किया करते थे। और जब यह परम्परा सुस्थापित हो गई तो फिर धीरे-धीरे बुद्धि व स्मरण शक्ति का ह्रास होने लगा। ऐसा होने पर भी देश व समाज में अनेक ऋषि-मुनियों के होने पर हर समस्या का हल विवेक पूर्वक ढूंढा जाता रहा होगा। ऐसा होते-होते महाभारत काल का समय आ गया। रामायण-कालीन और महाभारत-कालीन वर्णन इन ग्रन्थों में उपलब्ध हैं ही। इस क्रम को यहां रोक कर हम पहले आदिकालीन मनुष्यों द्वारा भाषा व ज्ञान की उत्पत्ति पर विचार करते हैं तथा इस क्रम को इसके बाद जारी रखेगें।

 

क्या मनुष्य स्वयं भाषा व ज्ञान की उत्पत्ति कर सकता है? इसका उत्तर हमें नहीं में मिलता है। इसका कारण यह है कि सर्वप्रथम भाषा जो भी हो या होती है, उसके निर्माण के लिए ज्ञान का होना आवश्यक है। ज्ञानहीन व्यक्ति बुद्धिपूर्वक ज्ञान का कोई काम नहीं कर सकता। भाषा क्या है? यह वाक्यों का समूह होती है। वाक्य शब्दों से मिलकर बनते हैं। शब्द संज्ञायें, सर्वनाम व क्रियाओं आदि के रूप में होते हैं। इसके आतरिक्त का, को, कि, से, पर, में आदि जैसे अनेक शब्दों का प्रयोग भी होता है। यह सभी शब्द कुछ मिश्रित ध्वनियों के उच्चारण से बनते हैं। इन ध्वनियों को पृथक-पृथक किए बिना, जैसा कि हिन्दी की वर्णमाला देवनागरी लिपि में है, भाषा बन नहीं सकती। इसको बनाने के लिए ज्ञान की आवश्यकता अपरिहार्य है। ज्ञान है ही नहीं तो भाषा कदापि नहीं बन सकती। भाषा से पूर्व विचार करना होगा, विचार भाषा में ही हो सकता है, भाषा ज्ञान की वाहिका है व ज्ञान का आधार व मूल भाषा है। अतः ज्ञान बिना भाषा के रहता ही नहीं और जब भाषा ही नहीं है तो भाषा बनाने के लिए अपेक्षित ज्ञान न होने के कारण भाषा नहीं बन सकती है। इससे सिद्ध होता है कि आदि भाषा वैदिक संस्कृत और वैदिक संस्कृत में निहित ज्ञान “चार वेद” सर्वप्रथम सृष्टि की आदि में ईश्वर से प्राप्त हुए थे। इस ईश्वर कृत वैदिक संस्कृत भाषा के प्राप्त होने पर अध्ययन का क्रम चल पड़ता है और देश, काल व परिस्थिति के अनुसार उच्चारण दोषों आदि से नई-नई भाषायें बना करती हैं। हमारा यह भी निवेदन है कि इस विषय पर मौलिक विचारों को जानने के लिए महर्षि दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित उनके सभी ग्रन्थ उपयोगी हैं।

 

पुनः रामायण व महाभारत से आगे चर्चा करते हैं। महाभारत काल के बाद का इतिहास पूरी तरह सुरक्षित नहीं रहा है। इसका एक कारण विधर्मियों द्वारा तक्षशिला और नालन्दा के पुस्तकालयों को आग के समर्पित कर देना रहा। दूसरा कारण महाभारत काल के बाद आलस्य प्रमाद भी बढ़ता रहा और देश में अध्ययन व अध्यापन की सक्षम वा कारगर व्यवस्था व प्रणाली न रही जिससे महर्षि दयानन्द तक घोर अज्ञान व अन्धविश्वासों का समय हमारे देश में आया। विदेशों का कुछ-कुछ हाल भी अनुमान व उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर जाना जा सकता है। इतना और कहना समीचीन होगा कि महाभारत काल तक के लम्बे समय में देश में अनेकानेक ऋषि-मुनि हुए जिन्होंने ब्राह्मण, दर्शन, उपनिषद, ज्योतिष, आयुर्वेद, संस्कारों आदि के अनेकानेक ग्रन्थों का प्रणयन किया था। सौभाग्य की बात है कि इन विपरीत परिस्थितियों में हमारे अनेक ग्रन्थ सुरक्षित रह सके, यह ईश्वर की हम पर बहुत महती कृपा है। दूसरी कृपा हम पश्चिम के वैज्ञानिकों की भी मानते हैं जिन्होंने कागज, मुद्रण प्रेस, कमप्यूटर आदि नाना प्रकार के यन्त्र व संयत्रों का आविष्कार किया जिससे आज हमारे पास न केवल चार वेद, दर्शन व उपनिषदें ही विद्यमान हैं अपितु चारों वेदों के अनेक विद्वानों के भाष्य एवं इतर विपुल वैदिक साहित्य भी सुलभ है। हमारा अनुमान है महाभारत काल उससे पूर्व भी आजकल की तरह एक व्यक्ति के पास सहस्रों ग्रन्थ नहीं रहा करते होंगे जैसे कि आजकल हैं। यह आधुनिक युग की देन जिसका अधिकांश श्रेय पश्चिमी जगत के वैज्ञानिकों को है। इस कार्य में सबसे अधिक यदि किसी अन्य का महनीय योगदान है तो वह महर्षि दयानन्द सरस्वती व उनके अनुयायियों का है। हम उनके चरणों का वन्दन करते हैं। यह भी कहना चाहते हैं कि हमारे देश के लोगों सहित विदेश के लोगों ने भी उनका उचित मूल्याकंन नहीं किया और न ही उनके द्वारा की गई आध्यात्मिक खोजों से लाभ उठाया है। राजनैतिक व अनेक सामाजिक दलों ने तो उनकी जानबूझकर उपेक्षा की है और उनसे न्यून व विपरीत ज्ञान तथा आचरण में भी कमजोर लोगों को उनसे अधिक योग्य सिद्ध करने का प्रयास किया है व किए जा रहे हैं। हम महर्षि दयानन्द की जय बोलकर इस लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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