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स्तुता मया वरदा वेदमाता : डॉ धर्मवीर

सध्रीचीनान्वः संमनसस्कृणोयेकश्नुष्टीन्त्संवनेन सर्वान्।

एक परिवार एक साथ सुखपूर्वक कैसे रह सकता है, यह इस सूक्त का केन्द्रीय विचार है। सामनस्य सूक्त का यह अन्तिम मन्त्र है। इस मन्त्र में परिवार को एक साथ सौमनस्यपूर्वक रहने के लिये उसको धार्मिक होने की प्रेरणा दी गई है। मन्त्र में एक शद है ‘सध्रीचीनान्’। परिवार के जो लोग एक साथ रह रहे हैं, वे ‘संमनसः’ समान मत वाले होने चाहिएँ। समान मन एक दूसरे के लिये अनुकूल सोचने वाले होते हैं। परस्पर हित की कामना करते हैं, तभी समान बनते हैं। वेद कहता है- समान हित सोचने के लिये ‘एकश्नुष्टीन्’- एक धर्म कार्य में प्रवृत्त होने वाला होना चाहिए। जो धार्मिक नहीं है, वे शान्त मन वाले, परोपकार की भावना वाले नहीं हो सकते। परिवार को सुखी और साथ रखने के लिये परिवार के सदस्यों का धार्मिक होना आवश्यक है। परिवार के सदस्य धार्मिक हैं, तो उनमें शान्ति और सहनशीलता का गुण होगा। धार्मिक व्यक्ति स्वाभाविक रूप से उदार और सहनशील होता है।

आज समाज में जहाँ भी संघर्ष है, पारिवारिक विघटन है, वहाँ सहनशीलता का अभाव देखने में आता है। हम क्रोध करने को, विरोध करने को, असहमति को अपना सामर्थ्य मान बैठे हैं, जबकि वस्तुस्थिति यह है कि जिस मनुष्य को जितनी शीघ्रता से क्रोध आता है, प्रतिक्रिया व्यक्त करता है, वह उतना ही दुर्बल होता है। सामर्थ्यवान व्यक्ति का सहज गुण क्रोध न आना है, जिसे क्रोध नहीं आता, वही सहनशील होता है। परिवार के सदस्य धार्मिक होते हैं तो वे सहनशील और उदार होते हैं। परिवार के बड़े सदस्यों में उदारता तथा छोटे सदस्यों में नम्रता और बड़ों के प्रति आदर का भाव होता है। ये गुण धर्म की कसौटी है। परिवार में धार्मिकता होने से ईश्वर-भक्ति का भाव सभी सदस्यों में रहता है। अच्छे कार्यों में मन लगने से बुरे कार्यों और स्वार्थ भावना से मनुष्य दूर रहता है।

धार्मिक होना मनुष्य के लिये आवश्यक है, अधार्मिक व्यक्ति में स्वार्थ और अन्याय का भाव आता है। परिवार के किसी भी सदस्य में स्वार्थ का भाव उत्पन्न हो जाता है तो मनुष्य अन्याय करने में संकोच नहीं करता। एक गाँव में दो भाई एक साथ रहते थे। परिवार में सामञ्जस्य था, अच्छी प्रगति हो रही थी। दोनों भाई दुकान में बैठे थे। बच्चे बाहर से खेलते हुए आये। बड़े भाई के पास आम रख थे, बड़े भाई ने बच्चों में आम बाँट दिये। बच्चे आम लेकर खेलने चले गये। दो दिन बाद छोटे भाई ने बड़े भाई को प्रस्ताव दिया- भाई अब हमें अपना व्यवसाय, घर बाँट लेना चाहिए। बड़े भाई ने पूछा- तुहारे मन में ऐसा विचार क्यों आया, तो छोटे भाई ने बड़े भाई से कहा- भैया जब परसों बच्चे दुकान पर आये, आपने बच्चों को आम बाँटे, परन्तु आपने अपने बेटे को क्रम तोड़कर आम का बड़ा फल दिया, तभी मैंने निर्णय कर लिया था कि अब हमें अलग हो जाना चाहिए। बड़ा भाई कुछ नहीं बोल सका और दोनों भाई अलग हो गये।

इस प्रकार धर्म उचित व्यवहार का नाम है। जो लोग धर्म को अनावश्यक या वैकल्पिक समझते हैं, उन्हें जानने की आवश्यकता है कि धर्म विकल्प नहीं, जीवन का अनिवार्य अंग है।

मनुष्य को स्वार्थ, अन्याय से दूर रहने के लिये धार्मिक होना चाहिए। धार्मिक व्यक्ति परोपकार करने में प्रवृत्त होता है। जिस परिवार के सदस्य धार्मिक आचरण और परोपकार की भावना वाले होते हैं, वही परिवार सुखी और संगठित रह सकता है।

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता-१०

मन्त्र में एक वाक्य आया है- वाचं वदतं भद्रया-वाणी सभी बोलते हैं, वाणी के प्रयोग दोनों हो सकते हैं। हानि के, लाभ के, मृदु के, कठोर के, सत्य के, असत्य के। कोयल की भाँति सभी की वाणी मीठी होती, सब एक-दूसरे के साथ मधुर वाणी का व्यवहार करते तो किसी को यह कहने की आवश्यकता ही नहीं होती कि मधुर वाणी बोलनी चाहिए। यदि ऐसा होता तो अच्छा नहीं होता, क्योंकि तब मेरा कोई अधिकार ही नहीं होता, मुझे मेरी इच्छा का प्रयोग करने का अवसर ही नहीं मिलता, विवेक की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। कोई दूसरे से अलग नहीं होता, कोई किसी से अच्छा तो किसी से बुरा भी नहीं होता। इस परिस्थिति में मेरे होने का अर्थ ही क्या होता? मेरी सत्ता  मेरे अधिकार से प्रकट होती है, मेरा अधिकार मेरे अस्तित्व का प्रकाशक है।

जितना मुझे अच्छा करने का अधिकार है, उतना ही मुझे बुरा करने का अधिकार भी है। उसे मुझसे कोई नहीं छीन सकता, इसी कारण उनके फल को भी मुझसे कोई अलग नहीं कर सकता। यही कारण है कि मुझे मेरे कर्म का फल मिलता है, क्योंकि वे मेरे हैं, चाहे वे अच्छे हैं, चाहे वे बुरे। इसीलिए उपदेश देने की आवश्यकता पड़ती है। उपदेश से मेरे विवेक पर प्रभाव पड़ता है, मैं अपने विचार को बदल सकता हूँ। इसी प्रक्रिया को संकल्प- विकल्प कहा गया है। जब मनुष्य सोचता है कि मैं यह करूँगा तो मुझे लाभ होगा। मैं सोचता हूँ- मैं ऐसा करूँगा तो मेरी हानि होगी, मैं ऐसा नहीं करूँगा। यह मेरी दशा, मेरे निर्णय की भूमिका है। मैं निश्चय कर लेता हूँ, तब वह मेरा निर्णय होता है, उसका फल अच्छा या बुरा मेरा ही होता है।

वाणी भी मेरी है, मैं इसका अच्छा या बुरा कैसा भी उपयोग कर सकता हूँ। जब अच्छा उपयोग करता हूँ तो मुझे अच्छा फल मिलता है, बुरा उपयोग करता हूँ तो बुरा फल मिलता है। मुझे मेरी वाणी के अच्छे-बुरे का ज्ञान होना चाहिए। वेद कहता है- लाभ के लिए, पुण्य के लिये भद्र वाणी का प्रयोग करना चाहिए। भद्र का अर्थ शरीर के लिए, वर्तमान में लाभप्रद और मन, बुद्धि, आत्मा के लिए शान्तिप्रद होना है। यदि ऐसा नहीं तो केवल मधुर वाणी से भी कार्य चल सकता था। हम समझते हैं कि मीठा बोलना ही पर्याप्त है पर केवल मीठा नहीं, वह परिणाम में भी लाभप्रद होना चाहिए। इस मन्त्र भाग में बोलने वालों के लिए बहुवचन का प्रयोग किया गया है, अर्थात् परिवार में सभी सदस्यों को एक-दूसरे के साथ कल्याण कारिणी वाणी का प्रयोग करना चाहिए। वाणी का प्रभाव ही व्यवहार को प्रभावित करता है। मनुष्य आदर से बोलता है तो उसे प्रत्युत्तर  में अनुकूल ही उत्तर  प्राप्त होता है। यदि कठोरता से, असभ्यता से बोलता है तो निकटस्थ व्यक्ति भी अपमान का अनुभव करता है।

वाणी के सम्बन्ध में महाभारत में एक शिक्षाप्रद प्रसंग आया है। युधिष्ठिर युद्ध भूमि में घायल होकर शिविर में चिकित्सा के लिये उपस्थित हुए हैं। अर्जुन को बड़े भाई के घायल होने का समाचार मिलता है, वह तत्काल युद्ध छोड़ भाई को देखने शिविर में पहुँचता है। युधिष्ठिर ने पूछा- क्या युद्ध जीत लिया? अर्जुन ने कहा- नहीं। युधिष्ठिर ने अर्जुन के गाण्डिव को धिक्कार कह दिया। अर्जुन को क्रोध आया, उसने अपने बड़े भाई को मारने के लिए तलवार उठा ली। अर्जुन ने कहा- मेरी प्रतिज्ञा है कि जो गाण्डिव को धिक्कारेगा, उसके प्राण हरण करूँगा। श्री कृष्ण ने समझाया- मारना केवल तलवार से नहीं होता, बड़े भाई को ‘तू’ कह दे तो भी वह मर जायेगा। अर्जुन ने कह तो दिया, परन्तु फिर सोचने लगा कि उसने बड़े भाई का अपमान किया है। उसने कहा- अब इस अपराध के लिए मैं मरूँगा। श्री कृष्ण ने कहा- क्यों मरते हो? मरना भी कई प्रकार का होता है। मनुष्य के लिए आत्म-प्रशंसा भी मरने के समान है, तुम अपनी प्रशंसा स्वयं करो, मर जाओगे। मनुष्य वाणी से ही मरता है और वाणी से जीवन पाता है, अतः वेद ने कल्याणकारिणी वाणी के प्रयोग करने का आदेश दिया है।

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता-९

सांमनस्य सूक्त के दूसरे मन्त्र में प्रथमशब्द  था-अनुव्रत, जिसका अभिप्राय सन्तान का पिता के अनुकूल आचरण वाला होना है। इस मन्त्र में घर की सुख-शान्ति के लिए परिवार के सभी सदस्यों का सहज होना आवश्यक है। जहाँ सन्तान का पिता के अनुकूल आचरण वाला होना कहा है, वहीं पर सन्तान के माता के साथ कैसा व्यवहार हो, इसके लिये कहा गया है- माता भवतु संमना अर्थात् सन्तान का मन भी माता के अनुसार होना चाहिए। सन्तान के व्यवहार होना कहा गया है। यहाँ शंका हो सकती है कि माता-पिता का व्यवहार क्यों नहीं सन्तान के अनुकूल होना चाहिए? इसका उत्तर  है- सामान्य रूप से माता-पिता का व्यवहार सन्तान के साथ प्रेमयुक्त और हितकारी होता ही है। व्यवहार के बनने-बिगड़ने की सम्भावना तो सन्तान के व्यवहार की है। घर में सन्तान के मन में यह भाव रहना आवश्यक है कि उनके माता-पिता, उनसे प्रेम करते हैं और उनका भला चाहते हैं। घर में बच्चों का मन अपने बड़े-छोटे भाई-बहनों के साथ होने वाले व्यवहार से प्रभावित होता रहता है। माता-पिता कभी छोटों को अधिक स्नेह करते दीखते हैं, तो कभी बड़ों को अधिक मह      व देते हैं। इससे साथ के बच्चों में प्रतिकूल प्रभाव होने की सम्भावना सदा ही बनी रहती है, यही अतः सन्तानों का माता-पिता से और परस्पर सम्बन्ध ठीक बना रहे, यही इस मन्त्र का विशेष भाव है।

बच्चों के व्यवहार के सामान्य बने रहने का एक मह     वपूर्ण बिन्दु है-पति-पत्नी के मध्य का व्यवहार। यही बच्चों के लिए आदर्श भी होता है और प्रेरक भी। माता-पिता जैसे परस्पर बोलते, व्यवहार करते हैं, वैसा ही बच्चे करते हैं, इसलिए मन्त्र में कहा गया है- जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु। अर्थात् पत्नी मधुर वाणी का व्यवहार करे। यदि परस्पर व्यवहार की भाषा कठोर होगी तो बच्चे भी वैसा ही सीखेंगे।

एक बार दिल्ली के बस अड्डे पर एक व्यक्ति अपना सामान एक बस से उतार कर दूसरी बस में ले जाना चाहता था। वह पहले कुछ सामान और अपनी तीन-चार साल की बच्ची को सामान के पास खड़ी कर पुनः शेष सामान व पत्नी को लेने बस की ओर बढ़ा, तो बच्ची ने अपनी बात कहते हुए पिता से कहा- पापा आपमें तो अक्ल ही नहीं है! यह बात इतने ऊँचे स्वर से कही गई थी कि पास खड़े यात्रियों का ध्यान उस पिता-पुत्री की ओर जाना स्वाभाविक था। बच्ची के पिता ने कुछ लज्जा का अनुभव करते हुए बच्ची को डाँटना चाहा तो मैंने उस व्यक्ति से कहा- भाई साहब, यह दोष बच्ची का नहीं है। आपकी पत्नी, आपको इतने मधुर सम्बोधन से पुकारती होगी, वही तो बच्ची कर रही है। आप उसे व्यर्थ ही डाँट रहे हैं। इसलिए बच्चों पर अच्छा प्रभाव डालने के लिए घर के वातावरण का अच्छा होना आवश्यक है।

मन्त्र में पत्नी को मधुमतीं वाचम्– मधुर वाणी बोलने के लिये कहा गया है, वहीं ऋषि दयानन्द संस्कार विधि के गृहाश्रम प्रकरण में इस मन्त्र का अर्थ करते हुए शान्तिवान् का अर्थ करते हैं- पति को भी पत्नी की बात शान्त भाव से सुननी चाहिए। सामान्य रूप से घर में एक ही बात बहुत बार कही-सुनी जाती है, इस कारण सुनने वाले को उससे आक्रोश आने लगता है। आक्रोश से सामने वाला भी आक्रोश में आ जाता है। जब कोई काम पत्नी या बच्चों के द्वारा बार-बार किया जाता है और घर के स्वामी को वह पसन्द नहीं है, तब आक्रोश, क्रोध, तनाव की स्थिति बनती जाती है।

घर में बच्चे भी अपने बारे में बार-बार टिप्पणियाँ सुनना पसन्द नहीं करते। माता-पिता इस बात पर ध्यान नहीं देते और बच्चों में प्रतिक्रिया होने लगती है। बच्चे या तो ऐसे माता-पिता से भयभीत होने लगते हैं, उनसे बचते हैं, उनसे संवाद स्थापित नहीं करना चाहते अथवा धृष्टता से उस कार्य को बार-बार करना चाहते हैं। ये दोनों ही परिस्थितियाँ घर के वातावरण को तनावपूर्ण बनाने के कारण बनती हैं। विशेष कर बच्चे अपने साथी या अतिथि के सामने डाँट या टिप्पणी सुनना नहीं चाहते। माता-पिता कि इस बात पर बच्चों के मन में कुण्ठा बनने लगती है, अतः घरेलू परिस्थितियों को सहज सामान्य रखने की नितान्त आवश्यकता है। वेद जहाँ पत्नी के लिए मधुर वाणी बोलने की बात करता है, वहीं पति को पत्नी की बात शान्तिपूर्वक सुनने का निर्देश करता है।

विवाह संस्कार में भी घर के वातावरण को अच्छा रखने के लिए सुनने का निर्देश दिया गया है- मम वाचं एकमना जुषस्व। यह मन्त्र दोनों द्वारा बोला जाता है। दोनों परस्पर कह रहे हैं- तुम मेरी बात को एकाग्र मन से सुनो। एकाग्रता से सुनने पर बात समझ में आती है, देर तक स्मरण रहती है और बात करने वाले के मन में सन्तुष्टि भी होती है, अतः मन्त्र में सन्तान को माता-पिता के अनुकूल आचरण वाला, पति-पत्नी को एक दूसरे की बात को शान्ति से सुनने वाला और मधुर वाणी बोलने वाला बनने के लिए कहा गया है।

स्तुता मया वरदा वेदमाता-५

वेद कहता है हमारे अन्दर एक दूसरे के प्रति चाहना हो। परस्पर अभिलाषा होनी चाहिए। यह जो मानसिक परिस्थित है, इसका मन में विचार होने की भूमिका बन चुकी है, मनुष्य के मन में जब द्वेष नहीं होता, सहानुभूति का भाव किसी के प्रति अनुकूलता का लक्षण है। इस भाव की अधिकता ही अपनेपन को जन्म देती है। अपनापन स्वाभाविकता को बताता है। यदि हमारे मन में किसी के प्रति द्वेष नहीं है तो हम उसके कष्ट को देखकर उसे यह कष्ट क्यों मिल रहा है, इस प्रकार का दुःख उसको नहीं मिलना चाहिए इस प्रकार का विचार मन में आता है। अपनापन दूसरे के प्रति मन में निकटता का भाव उत्पन्न करता है। इस निकटता से उत्पन्न प्रसन्नता का विचार प्रेम को प्रकाशित करता है। समाज में जब कोई हमारे साथ सद्भाव दिखाता है तो हमें भी उसके प्रति सद्भाव प्रदर्शित करने की इच्छा होती है। सद्भाव की अधिकता होने पर दूसरे से उसकी अपेक्षा नहीं रहती, हमें वस्तु अच्छी लगती है। दूसरे व्यक्ति में सम्भव है जो भाव हमारे मन में है, वह न हो, या उतना न हो तब भी हम अपना सम्पूर्ण अपनापन देते हैं तो दूसरे पक्ष से कई बार उसप्रकार की अपेक्षा भी नहीं रहती। वेद कहता है प्रेम की आकांक्षा दोनों ओर से होनी चाहिए। इसलिए मन्त्र कहता है अन्योऽन्यमभिहर्यत परिवार के सदस्यों में एक दूसरे के हित की चिन्ता होनी चाहिए। हम समुदाय में रहते हुए यदि अपने लाभ या अपने हित की बात ही सोचते हैं, सदा अपनी ही चिन्ता करते हैं तो स्वाभाविक रूप से यह मान लिया जाता है अब आपकी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। जब कोई असमर्थ होता है तो उसकी चिन्ता की जाती है, उसके चाहने वाले उसका ध्यान रखते हैं। जब हमें लगता है यह व्यक्ति स्वयं अपना भला कर सकता है, अपना हित साध सकता है तब किसी के लिए उसके विषय में सोचना प्राथमिकता नहीं रहती। और हाँ सब अपना अपना सोचेंगे तो फिर वहाँ कोई दूसरे के बारे में क्यों सोचेगा?

अपने बारे में सोचना अपना हित चाहना बुरी बात नहीं है। यहाँ अनुचित तब होता है जब मनुष्य अपने बारे में सोचता है तब उसे दूसरे की चिन्ता नहीं होती या वह दूसरे की उपेक्षा कर देता है। अपनी चिन्ता करते हुए केवल अपनी ही चिन्ता होती है, दूसरे की चिन्ता नितान्त नहीं होती हैं। जब हम अपने को मुख्य न मानकर दूसरे की चिन्ता करते हैं, ऐसा सभी करते हैं तो सब सब की चिन्ता कर सकते हैं। अपनी चिन्ता में सब सम्मिलित नहीं हो सकते परन्तु एक-एक औरों की चिन्ता करे तो सबको सबकी चिन्ता हो जाती है। यह लाभ सबमें प्रेम भाव होने पर होता है। परिवार में सबको अपने तुल्य हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि की चिन्ता करनी चाहिए। इसी से सबमें परस्पर प्रीति बढ़ती है।

वेद मन्त्र में एक उपमा दी है वत्सं जातमिवाघ्न्या जैसा एक गाय अपने सद्य जात बछड़े से करती है वेद में जो उपमायें दी गई वे स्वाभाविक हैं। संसार के पदार्थों में, व्यक्तियों के व्यवहार में सदा ही उन्हें देखा जा सकता है। सब उसे अनुभव कर सकते हैं। वेद कहता है हमें गति करनी चाहिए सूर्य और चन्द्र की भाँति। भगवान् ने सृष्टि कैसे बनाई, संसार की रचना कैसे की, वेद कहता है- यथापूर्वमकल्पयत् जैसे प्रत्येक सर्ग में ईश्वर सृष्टि की रचना करता है उसी प्रकार रचना करता रहेगा। यहाँ भी प्रेम कैसा करना चाहिए जैसे एक गाय अपने सद्य जात बछड़े से करती है। गाय बछड़े से प्रेम करती है परन्तु उसका प्रेम तभी तक रहता है जब तक उसका बछड़ा असमर्थ होता है, अपनी माँ पर निर्भर होता है। जैसे ही बछड़ा बड़ा हो जाता है, गाय में उसप्रकार का प्रेम नहीं रहता। यह उपमा सम्भवतः इस बात को स्पष्ट करने के लिए है जब कोई प्राणी, या मनुष्य समर्थ हो जाता है तब उसके साथ उसप्रकार का सहयोग अपेक्षित नहीं होता। इसलिए प्रेम में केवल भावना नहीं औचित्य भी अपेक्षित है।

इसप्रकार इस मन्त्र में अपने व्यवहार को सुधारने के लिए मनुष्य को, अपने परिवार को प्रसन्न व सुखी रखने के लिए परस्पर द्वेष का न होना, एक दूसरे के सुख-दुःख को स्वात्मवत् समझना। परस्पर प्रसन्नता के लिए यत्न करना और प्रत्येक सदस्य में परिवार के सदस्यों के प्रति आकर्षण उत्पन्न करने वाला वार्तालाप और व्यवहार करते रहना चाहिए। इसलिए मन्त्र में-

अविद्वेषम् सहृदयम्, सामनस्यम् के साथ अभिहर्यत कहा है।