Category Archives: वेद विशेष

‘धर्म प्रवतर्कों व प्रचारकों के लिए वेद-ज्ञानी होना अपरिहार्य’

veda knower

ओ३म्

धर्म प्रवतर्कों प्रचारकों के लिए वेदज्ञानी होना अपरिहार्य


देश व विदेशों में नाना मत मतान्तर, जो स्वयं को धर्म कहते हैं, सम्प्रति प्रचलित हैं। इनमें से कोई भी वेदों को या तो जानता ही नहीं है और यदि वेदों का नाम आदि जानता भी है तो वेदों के यथार्थ महत्व से वह सर्वथा अपरिचित होने के कारण वेदों का उपयोग नहीं कर सकता। क्या बिना वेदों का ज्ञान प्राप्त किए किसी सत्य मत की स्थापना की जा सकती है? हमारा अध्ययन कहता है कि बिना वेदों के यथार्थ ज्ञान के धर्म की स्थापना नहीं की जा सकती। यदि की गई है व की जायेगी तो वह धर्म न होकर मत व मजहब होगा और वह पूर्ण सत्य मान्यताओं पर आधारित नहीं हो सकता है। यह बात सभी मतों व सम्प्रदायों पर पर समान रूप से लागू होती है। वेद के ज्ञान से विहीन मत पूर्ण सत्य क्यों नहीं होंगे, इसका कारण यह है कि ईश्वर ने इस ब्रह्माण्ड तथा मनुष्यों को बनाया है। ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वज्ञ है और मनुष्य एकदेशी, ससीम व अल्पज्ञ है। ईश्वर के सर्वव्यापक और सर्वज्ञ होने तथा मनुष्यों व अन्य सभी प्राणियों को उत्पन्न करने से केवल वह ही जानता है कि जीवात्मा को क्या करना चाहिये और क्या नहीं? कोई भी मनुष्य, विद्वान या महापुरूष जो भी पूर्ण सत्य धर्म को जानने का प्रयास करेगा उसमें वह पूर्णतः सफल नहीं हो सकता। अल्पज्ञ होने के कारण वह ईश्वर की सहायता के बिना सत्य ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। अतः उसे ईश्वर की शरण में जाना ही होगा और उससे पूछना पड़ेगा कि मनुष्यों के कर्तव्य और अकर्तव्य क्या हैं? ईश्वर से पूछने पर उसे पहले ईश्वर में एकाकार अर्थात् समाधिस्थ होना पड़ेगा। सभी के लिए यह सम्भव नहीं होता। अतः वह स्वयं, अपने आचार्यों व विद्वानों से ईश्वर के प्रति मनुष्यों के कर्तव्यों के विषय में ज्ञान प्राप्त करेंगे जो कि कुछ व अधिकांश सत्य हो सकता है परन्तु उसका कुछ या बड़ा भाग असत्य या अर्धसत्य भी हो सकता है।

 

इस कारण मनुष्य सत्य धर्म का निर्धारण नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में मनुष्य के सामने क्या विकल्प बचता है? इसका एक ही विकल्प है कि संसार में सबसे प्राचीनतम ज्ञान क्या है, इसे जानने का प्रयास करे। ऐसा करने पर उसे वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, बाल्मिकी रामायण, महाभारत, जेन्दावस्था, बाइबिल, कुरआन, बौद्धों और जैनियों के मत वा धर्म की पुस्तकें व 18 पुराण आदि प्राप्त होती है। अब उसका कर्तव्य है कि वह एक-एक करके सभी ग्रन्थों का पूर्ण निष्पक्षता, सूक्ष्मता व गम्भीरता से  अध्ययन करे। इसमें वह अनेक विद्वानों की सहायता भी ले सकता है। इस अध्ययन के बाद जो बातें सब पुस्तकों में निर्विवाद हैं उन्हें धर्म माना जा सकता है या कहें कि वह मान्यतायें व सिद्धान्त निर्विवाद रूप से संसार के प्रत्येक व्यक्ति का धर्म हैं। अब जिन विषयों में एक से अधिक मत या विचार सामने आते हैं, उन्हें लेकर गोष्ठी व चर्चा की जानी चाहिये। पहली कसौटी तो यह हो सकती हैं कि क्या वह मान्यतायें तर्क व युक्ति से सिद्ध होती हैं। यदि वह तर्क संगत हैं तो तर्क संगत को स्वीकार कर उनका संग्रह करना चाहिये और तर्कहीन, युक्ति विरूद्ध एवं सृष्टि कर्म के विरूद्ध मान्यताओं को त्याग देना चाहिये। इस प्रकार तर्क व युक्ति आदि की कसौटी पर जो बाते सिद्ध हैं, वह स्वीकार्य और उसके विपरीत बातें अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड व अकर्तव्य होती हैं। उन बातों को जो तर्क संगत व युक्ति संगत हैं, उन्हें वेद के साथ तुलना कर देखना होगा कि क्या इनमें कोई मान्यता या सिद्धान्त वा बात वेद विरूद्ध तो नहीं है? वेद विरूद्ध मान्यताओं और वेद की मान्यताओं को तर्क, युक्ति व सृष्टि कर्म के अनुकूल होने पर अथवा निभ्र्रान्त होने पर ही स्वीकार किया जा सकता है। यह कार्य महर्षि दयानन्द ने सन् 1836 से आरम्भ कर सन् 1860 तक किया और उसके बाद 30 अक्तूबर, 1883 को अपने देहावसान तक जारी रखा। उन्होंने पाया कि वेदों की कोई भी बात तर्क विरूद्ध या युक्ति विरूद्ध नहीं है। वेदों की सभी बातें सृष्टिक्रम के अनुकुल हैं व सिद्ध योगी उनके निभ्र्रान्त होने का अनुभव अपनी समाधि अवस्था में करता है। यह भी रोचक तथ्य है कि असम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था केवल वैदिक व सनातन मत के कुछ थोड़े से ही लोगों को प्राप्त होती है, अन्य मत वालों को इसका लाभ नहीं मिलता। इस कारण उन्होंने वेदों में विहित मान्यताओं को धर्म स्वीकार किया है। अन्य सभी मत-मतान्तरों की बातें जो वेदों के सिद्धान्तों के विपरीत या विरूद्ध न हों उन्हें भी उन्होंने ग्राह्य व धर्म स्वीकार किया जाना चाहिये या वह धर्म के अन्तर्गत आयेंगी। इस प्रकार से जो मनुष्यों के कर्तव्य व मान्यतायें सत्य सिद्ध होती हैं वही सारे संसार का धर्म कहलाती हैं व हो सकती हैं। इस प्रकार से यह धर्म सारे संसार के लोगों के लिए एक ही सिद्ध होता है।

 

यदि हम ऐसा नहीं करते तो फिर हमें अन्य-अन्य मत का अनुयायी बनना पड़ेगा जैसे कि हम वर्तमान में हैं। इससे हम मनुष्य जन्म के उद्देश्य, जो इस संसार को बनाने वाला ईश्वर हमसे अपेक्षा करता है और जिससे जीवन की इस जन्म व परजन्म में उन्नति व मोक्ष आदि की प्राप्ति होती है, उस करूणासिन्धु व दयानिधान ईश्वर के निकट जाने के स्थान पर हम उससे दूर होते जायेंगे। इससे हानि हमारी ही होनी है, इसे सभी मनुष्यों को समझना है। ईश्वर क्योंकि अनादि, अजंन्मा, नित्य और सर्वज्ञ है और इस सृष्टि का रचयिता, पालक और इसका नियंत्रक है, समस्त प्राणी जगत का वह आधार व रचयिता एवं पालक है, अतः उसके द्वारा प्रवर्तित धर्म ही मनुष्य धर्म हो सकता है।

 

अब हम इस प्रश्न पर विचार कर लेते है कि क्या ईश्वर धर्म प्रचार के लिाए सृष्टि के आदि काल के बाद शेष अवधि में किसी मनुष्य को अपने पुत्र, मत-धर्म-प्रवर्तक, प्रचारक आदि के रूप में भेजता है? इसका उत्तर यह मिलता है कि ईश्वर ने सृष्टि की आदि में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य अंगिरा के द्वारा चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान दिया जो यथार्थ मनुष्य धर्म है। यह धर्म किसी एक जाति या समूह, सम्प्रदाय आदि के लिए नहीं अपितु संसार के सभी लोगों के लिए है। वेदों पर किसी एक जाति, मत या सम्प्रदाय के मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है अपितु यह ज्ञान प्रत्येक मनुष्य के लिए है और वह इसको जानने, समझने व आचरण करने के पूर्ण अधिकारी हैं। यदि कोई यह समझता या मानता है कि वेदों पर किसी एक जाति, धर्म या सम्प्रदाय के लोगों का ही अधिकार है, इतर मतों के अनुयायियों व अन्यों को अधिकार नहीं है तो ऐसे लोग पहले भी अज्ञान ग्रस्त थे और आज भी अज्ञान ग्रस्त हैं। वेदों पर मानवमात्र व सभी जातियों, मतवादियों वा धर्मानुयायियों का समान अधिकार है। हां कोई वेद का दुरूप्योग न करे, इसका पूरा पूरा प्रबन्ध होना चाहिये। इस चर्चा से यह सिद्ध होता है कि वेद मानव धर्म है और इसके सत्य स्वरूप को जानकर इसका प्रचार करना ही उचित है। इससे इतर अन्य किसी धर्म की मनुष्यों को किंचित आवश्यकता नहीं है। जो वेद ज्ञान के पूर्ण अधिकारी या ज्ञानी नहीं है, उन्हें धर्म का प्रचार करने का अधिकार नहीं है जबकि आजकल इसके विपरीत हो रहा है। यदि वह ऐसा करेंगे या कर रहे हैं तो उनके अज्ञान व स्वार्थ के कारण देश व समाज पर इसका बुरा प्रभाव पड़ना अनिवार्य है। चूंकि वेद स्वयं में सर्वांगीण व पूर्ण मानव धर्म है, वेद सब सत्य विद्याओं वा धर्म की प्रथम व अन्तिम पुस्तकें है, इसमें कोई कमी या त्रुटि नहीं है, अतः ईश्वर सृष्टि उत्पत्ति के बाद वेदों का ही ज्ञान देता है और उसके बाद वह किसी को मत-धर्म स्थापना के लिए नहीं भेजता है।

 

आज कल हम देश भर में अनेक धर्म गुरुओं को प्रवचन आदि के द्वारा प्रचार करते हुए देख रहे हैं। यद्यपि वह प्रचार तो कर रहे हैं परन्तु उसे धर्म प्रचार की संज्ञा नहीं दी सकती। यह भी कहा जा सकता है कि गुरूडमों को बढ़वा दे रहे हैं। अभी पिछले दिनों हमने कई धर्म गुरूओं व गुरूडमों का कच्चा चिट्ठा जाना है। उनके व अन्य धर्म गुरुओं के प्रवचनों व उपदेशों में बहुत सा भाग वेदों के विरूद्ध होता है। बहुत कुछ उनकी अपनी मान्यतायें होती हैं जिसके पीछे उनके अज्ञान व स्वार्थ भी होते हैं। हमारे भोले व धर्म-अज्ञानी बन्धु अल्पज्ञ होने के कारण उनके निहित स्वार्थों को जान नहीं पाते और उनका अन्धानुकरण करते वह कर रहे हैं। उनका यह कार्य देश में एक सामाजिक समस्या को भी उत्पन्न कर रहा है। सबसे श्रेष्ठ समाज वही हो सकता है कि जहां सभी लोग एक मत व एक विचारधारा के मानने वाले हों। परमात्मा एक है, सत्य एक है अतः धर्म भी एक ही होना चाहिये जो कि ईश्वर की आज्ञा के पालन को कहते हैं। क्या ईश्वर की आज्ञायें अनेक मत संस्थापकों या प्रचारकों के अनुयायियों के लिए अलग-अलग हो सकती हैं? कदापि नहीं। वेद समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्। समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि।। तथा समानी आकूतिः समाना हृदयानि वः। समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।कहकर संसार के सभी मनुष्यों के लिए एक धर्म, एक मत का उदघोष करते हैं। अतः सभी को अज्ञानी व स्वार्थी गुरूओं के अन्धभक्त बनने से बचना चाहिये और स्वयं स्वाध्याय वा अध्ययन कर तथा सत्पुरूषों की शरण में जाकर ईश्वर के द्वारा सृष्टि के आरम्भ में दिये गये वेद ज्ञान को अपनाना, मानना व पालन करना चाहिये। इसी से उनके इस जीवन का और परजन्म का कल्याण होगा, यह सुनिश्चित है। धर्म जिज्ञासुओं को हम सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने का भी सुझाव देंगे। वेदों का यह भी शाश्वत व विशिष्ट सन्देश है कि संसार के सभी लोग एवं प्राणी परस्पर भाई-बहिन हैं और ईश्वर हमारा माता-पिता, आचार्य, राजा व न्यायाधीश है।

 –मनमोहन कुमार आर्य

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‘जीवात्मा ईश्वर नहीं, ईश्वर का मित्र बन सकता है’

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ओ३म्

जीवात्मा ईश्वर नहीं, ईश्वर का मित्र बन सकता है


मनुष्य जीवन का उद्देश्य है उन्नति करना। संसार में ईश्वर सबसे बड़ी सत्ता है। जीवात्माओं की ईश्वर से पृथक स्वतन्त्र सत्ता है। जीवात्मा को अपनी उन्नति के लिए सर्वोत्तम या बड़ा लक्ष्य बनाना है। सबसे बड़ा लक्ष्य तो यही हो सकता है कि वह ईश्वर व ईश्वर के समान बनने का प्रयास करे। प्रश्न यह है कि मनुष्य यदि प्रयास करे तो क्या वह ईश्वर बन सकता है? इसका उत्तर विचार पूर्वक दिया जाना समीचीन है। इसके लिए ईश्वर तथा जीवात्मा, दोनों के स्वरूप को जानना होगा। ईश्वर क्या है? ईश्वर वह है जिससे यह संसार अस्तित्व में आता है अर्थात् ईश्वर इस सृष्टि या जगत का निमित्त कारण हैं। निमित्त कारण किसी वस्तु के बनाने वाले चेतन तत्व व सत्ता को कहते हैं। इसमें ईश्वर भी आता है और मनुष्य वा जीवात्मा भी। ईश्वर ने इस सारे संसार को रचकर बनाया है। ईश्वर ने अमैथुनी सृष्टि में हमारे पूर्वजों अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, ब्रह्मा आदि पुरूषों सहित स्त्रियों को भी बनाया और उसके बाद से वह मैथुनी सृष्टि द्वारा मनुष्य आदि और समस्त प्राणियों की रचना कर उन्हें जन्म देता आ रहा है।

 

ईश्वर के कार्यों में सृष्टि की रचना कर उसका संचालन करना और अवधि पूरी होने पर प्रलय करना भी सम्मिलित है जिसे वह इस सृष्टि के कल्प में विगत 1.96 अरब वर्षो से करता आ रहा है। इससे पूर्व भी वह अनन्त बार अनन्त कल्पों में सृष्टि की रचना कर उसका पालन करता रहा है। वह यह कार्य इस लिए कर पाता है कि उसका स्वरूप सच्चिदानन्द (सत्य, चित्त व आनन्द) स्वरूप है। वह सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकत्र्ता है। जीवों के पुण्य व पापों के अनुसार जीवों को भिन्न-भिन्न योनियों में भेजकर उन्हें उनके अनुसार सुख-दुःख रूपी फल देना भी ईश्वर का कार्य है और यह भी उसका स्वरूप है। दूसरी ओर जीवात्मा के कुछ गुण ईश्वर के अनुरूप हैं व कुछ भिन्न। जीवात्मा अर्थात् हम वा हमारा आत्मा अर्थात् हमारे शरीर मे विद्यमान चेतन तत्व है। यह या इसका स्वरूप कैसा है? जीवात्मा सत्य पदार्थ, चेतन तत्व, आनन्द रहित व ईश्वर से आनन्द की अपेक्षा रखने व प्राप्त करने वाला, अल्पज्ञ, निराकार, अल्प व सीमित शक्ति से युक्त, न्याय व अन्याय करने वाला, अजन्मा, अनादि, अविनाशी, अमर, जिसका आधार ईश्वर है, ईश्वर से ऐश्वर्य प्राप्त करने वाला, एकदेशी, ससीम, ईश्वर से व्याप्य, अजर, नित्य व पवित्र है। यह कर्म करने में स्वतन्त्र तथा उनका फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। ईश्वर की उपासना करना इसका कर्तव्य है।

 

जीवात्मा और ईश्वर का वेद सम्मत युक्ति व तर्क सम्मत स्वरूप उपर्युक्त पंक्तियों में वर्णित है। जीवात्मा के स्वाभाविक गुणों में अल्पज्ञता, नित्य व इसका अनादि होना आदि गुण हैं जो सर्वज्ञता में कदापि नहीं बदल सकते। ईश्वर अपने स्वाभाविक गुण के अनुसार ही सर्वज्ञ है। जीवात्मा अल्प शक्तिशाली है तो ईश्वर सर्वशक्तिमान है। ईश्वर सृष्टि को बनाकर इसका सफलतापूर्वक संचालन करता है। यह कार्य जीवात्मा कितनी भी उन्नति कर ले नहीं कर सकता। ईश्वर सर्वव्यापक है और जीवात्मा एकदेशी। यह जीवात्मा अधिकतम उन्नति कर भी सर्वव्यापकता को प्राप्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार से जीवों की अपनी सीमायें है। अतः जीवात्मा सदा जीवात्मा ही रहेगा और ईश्वर सदा ईश्वर रहेगा। यह जान लेने के बाद यह जानना शेष है कि जीवात्मा अधिकतम उन्नति कर किस स्थान को प्राप्त कर सकता है। इसका उत्तर यह मिलता है कि जीवात्मा के अन्दर मुख्य रूप से दो गुण विद्यमान हैं। एक ज्ञान व दूसरा कर्म या क्रिया। जीवात्मा अल्पज्ञ और ससीम होने से सीमित ज्ञान ही प्राप्त कर सकता है और सीमित कर्म या क्रियायें ही कर सकता है। ज्ञान प्राप्ति व कर्म करने में भी इसे ईश्वर की सहायता की अपेक्षा है। ईश्वर ने जीवात्मा में ज्ञान की उत्पत्ति के लिए सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अर्थववेद का ज्ञान चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा के माध्यम से दिया था जो विगत 1.96 अरब वर्षों से यथावत् चला आ रहा है। वेदों में एक साधारण तिनके से लेकर सभी सृष्टिगत पदार्थों व संसार की सबसे सूक्ष्म व बड़ी सत्ता ईश्वर तक का आवश्यक ज्ञान दिया गया है। ईश्वर प्रदत्त ज्ञान होने से यह पूर्णतया निभ्रान्त सत्य ज्ञान है और परम प्रमाण है। यह भी कह सकते हैं कि वेदो में सत्य ज्ञान की पराकाष्ठा है। जीवात्मा परम्परानुसार पुरूषार्थ व तप पूर्वक वेदों का ज्ञान अर्जित कर सर्वोच्च उन्नति पर पहुंच सकता है। यही उसका उद्देश्य व लक्ष्य भी है। जीवात्मा में दूसरा गुण कर्म करने का है। कर्म भी मुख्यतः शुभ व अशुभ भेद से दो प्रकार के हैं। उसे कौन से कर्म करने हैं और कौन से नहीं, इसका ज्ञान भी वेदों से मिलता है। अन्य सामान्य आवश्यक कर्मों के साथ ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, माता-पिता-आचार्य व विद्वान अतिथियों की सेवा तथा सभी प्राणियों के प्रति मित्रता का भाव रखते हुए उनके जीवानयापन में सहयोगी होना ही मनुष्य के मुख्यः कर्म हैं जो उन्हें नियमित रूप से करने होते हैं। इनमें अनाध्याय नहीं होता। इस प्रकार वेदों का ज्ञान प्राप्त कर वेद विहित कर्मों को करके मनुष्य उन्नति के शिखर पर पहुंचता है। इसके अलावा जीवन की उन्नति का अन्य कोई मार्ग है ही नहीं। केवल धन कमाना और सुख सुविधाओं को एकत्रित करना ही जीवन का उद्देश्य नहीं है। धर्म व सदाचार पूर्वक घन कमाना यद्यपि धर्म के अन्तर्गत आता है परन्तु इससे जीवन की सर्वांगीण उन्नति नहीं हो सकती। इसके लिए तो वेद विहित व निर्दिष्ट सभी करणीय कर्मों को करना होगा और निषिद्ध कर्मों का त्याग करना होगा।

 

ईश्वरोपासना व अग्निहोत्र आदि वेद विहित कर्मों को करके मनुष्य की ईश्वर से मित्रता हो जाती है अर्थात् जीवात्मा ईश्वर का सखा बन जाता है। महर्षि दयानन्द, मर्यादा पुरूषोत्तम राम, योगेश्वर कृष्ण, पतंजलि, गौतम, कपिल, कणाद, व्यास, जैमिनी, पाणिनी तथा यास्क आदि ऋषियों ने सम्पूर्णं वेदों का ज्ञान प्राप्त कर वेदानुसार कर्म करके ईश्वर का सान्निध्य, मित्रता व सखाभाव को प्राप्त किया था। यह ईश्वर तो नहीं बने परन्तु ईश्वर के सखा अवश्य बने। यह सभी विद्वान भी थे और धर्मात्मा भी। महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ व्यवहार भानु में एक प्रश्न उठाया है कि क्या सभी मनुष्य विद्वान व धर्मात्मा हो सकते हैं? इसका युक्ति व प्रमाण सिद्ध उत्तर उन्होंने स्वयं दिया है कि सभी विद्वान नहीं हो सकते परन्तु धर्मात्मा सभी हो सकते हैं। ईश्वर का मित्र बनने के लिए वेदों का विद्वान बनना व वेद की शिक्षाओं का आचरण कर धर्मात्मा बनना मनुष्य जीवन की उन्नति का शिखर स्थान है। इससे ईश्वर से सखा भाव बन जाता है। यदि कोई विद्वान न भी हो तो वह विद्वानों की संगति कर उनके मार्गदर्शन में ऋषियों मुनियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय कर धर्मात्मा बन कर ईश्वर से मित्रता व सखाभाव उत्पन्न कर सकता है और जीवन सफल बना सकता है। यह सफलता धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चार पुरूषार्थों का युग्म है। यह वेद के ज्ञान से सम्पन्न और वेदानुसार आचरण करने वाले योगियों या ईश्वर भक्तों को ही प्राप्त होती है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि आजकल प्रचलित मत-मतान्तर के अनुयायियों को ईश्वर का यह मित्रभाव पूर्णतः प्राप्त नहीं हो सकता, आंशिक व न्यून ही प्राप्त हो सकता है। यह सभी मत-मतान्तर धर्म नहीं है। यह विष मिश्रित अन्न के समान त्याज्य हैं इसलिए कि इनमें सत्य व असत्य दोनों का मिश्रण हैं। पूर्ण सत्य केवल वेदों में है जिसे स्वाध्याय द्वारा जाना जा सकता है। आईये, वेद की शरण में चले और वेदाचरण कर ईश्वर से मित्रभाव सखा प्राप्त कर अपने जीवन की उच्चतम उन्नति कर धर्म, अर्थ, काम मोक्ष को प्राप्त करें। यह मित्रभाव ऐसा होता है कि दोनों एक तो नहीं बनते लेकिन लगभग समान कहे जा सकते हैं। ऐसी स्थिति में जीव यह धोषणा कर सकता है कि अहं ब्रह्मास्मिअर्थात् मैं ब्रह्म में हूं, ब्रह्म अर्थात् ईश्वर मुझ में है, हम दोनों परस्पर सखा व मित्र बन गये हैं। यही नहीं सर्वा आशा मम मित्रं भवंतुअर्थात् सभी दिशायें और सभी प्राणी मेरे मित्र बन गये हैं। मेरा जीवन सार्थक हो गया है।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘ईश्वर को क्यों जानें, जानें या न जानें?’

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ओ३म्

ईश्वर को क्यों जानें, जानें या जानें?’

 हमारे एक लेख ईश्वर सर्वज्ञ है तथा जीवात्मा अल्पज्ञ है को गुरूकुल में शिक्षारत एक ओजस्वी युवक व हमारे मित्र ने पसन्द किया और अपनी प्रतिक्रया में कहा कि लोग ईश्वर को मानते नहीं है अतः एक लेख इस शीर्षक से लिखें कि हम ईश्वर को क्यों मानें? हमें यह सुझाव पसन्द आया और हमने इस विषय पर लिखने का उन्हें आश्वासन दिया। ईश्वर को हम मानें या न मानें, परन्तु पहले उसे जानना आवश्यक हैं। जानना क्यों है? इसलिये कि यदि हमें उससे कुछ लाभ होता या हो सकता है तो हम उससे वंचित न रहें। यदि उससे कुछ लाभ नहीं भी होता है तो फिर उसे जानकर उसको मानना छोड़ सकते हैं। प्रश्न का मूल यह भी है कि क्या ईश्वर है? इसका उत्तर है कि ईश्वर हो भी सकता है और नहीं भी। यदि नहीं है तो फिर एक प्रश्न जिसका उत्तर ढूंढना होगा वह यह है कि यदि नहीं है तो यह ब्रह्माण्ड कैसे बना, किसने बनाया व क्यों बनाया? प्राणी जगत को कौन बनाता है और इनका नियमन किसके द्वारा होता है? कोई भी क्रिया यदि होती है तो उसके कर्ता का होना अवश्यम्भावी है। यदि कर्ता न हो तो क्रिया होना सम्भव नहीं है। संसार में हम अपनी आंखों से जिन सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि पदार्थों और प्राणी जगत को देखते हैं उनका कर्ता अर्थात उन्हें बनाने वाला कोई न कोई तो अवश्य ही है। यदि नहीं है तो अपने-आप वा स्वतः तो कुछ बनेगा नहीं। संसार यथार्थतः अर्थात् सचमुच में है, यह इस बात का प्रमाण है कि संसार का कर्ता अर्थात् इसका बनाने वाला अवश्य है। उसका अस्तित्व सिद्ध हो जाने के बाद उसके स्वरूप का तर्क, बुद्धि वा युक्तिसंगत ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा फिर अन्ध-विश्वास अपना काम करते हैं और हमारा जीवन अज्ञान पूर्ण कृत्यों व झूठी आस्था को समर्पित हो जाता है।

                उस स्रष्टा का स्वरूप जानने के लिए उसका पहला गुण उसकी सत्ता का होना है अतः इस कारण से वह सत्य पदार्थ कहा जाता है। रचना हमेशा चेतन तत्व द्वारा होती है, जड़ या निर्जीव तत्व के द्वारा नहीं होती, अतः स्रष्टा का एक स्वरूप या गुण उसका चेतन तत्व होना है जिसे चित्त कहा जाता है। अब कोई चेतन सत्ता जिसमें दुख व क्लेश हो, वह तो संसार को बना नहीं सकती, अतः उसका समस्त दुःखों से रहित होना और आनन्द स्वरूप होना भी सिद्ध होता है। इसके बाद हम इस ब्रह्माण्ड के स्वरूप पर ध्यान देते हैं और विचार करते हैं तो हमें यह अनन्त परिमाण वाला दिखाई देता है। रचना व रचयिता का एक स्थान पर होना आवश्यक है। हम देहरादून में बैठे हुए जहां पर हैं, वही पर कोई रचना कर सकते हैं। देहरादून में या किसी स्थान पर स्थित कोई व्यक्ति वहां से 5 या 10 किलोमीटर वा कम या ज्यादा दूरी पर कोई रचना नहीं कर सकते। अतः इस संसार को अनन्त परिमाण में देखकर ईश्वर भी अनन्त व सर्वव्यापक, सर्वदेशी सिद्ध होता है और उसका सूक्ष्मतम होना भी आवश्यक है। इस ब्रह्माण्ड को बनाने के लिए अल्प शक्ति से काम नहीं चलेगा अतः उसका सर्वशक्तिमान होना भी अपरिहार्य है। कोई भी उपयोगी रचना के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है। ज्ञान की कमी से रचना करने पर उसका उद्देश्य पूरा नहीं होता तथा रचना में दोष आ जाते हैं। जिस सत्ता से यह सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, मानव शरीर व अन्य प्राणी जगत बना है, वह कोई साधारण ज्ञानी नहीं है अपितु उसमें ज्ञान की पराकाष्ठा है, ऐसी सत्ता वह सिद्ध होती है। अतः उसे सर्वज्ञानमय या सर्वज्ञ कहा जाता है। इस प्रकार से अन्यान्य गुणों का समावेश उस सत्ता में सिद्ध होता व किया जा सकता है। महर्षि दयानन्द ने इस सत्ता के स्वरूप को एक वाक्य में इस प्रकार से कहा है – ईश्वर सत्यचित्तआनन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करनी योग्य है।

 

ईश्वर के इस स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर उसके अन्य कार्यों को भी विचार कर जान लेते हैं। ईश्वर ने प्राणी जगत को बनाया है जिसमें मनुष्य, पशु, पक्षी अर्थात् समस्त थलचर, नभचर तथा जलचर आदि सम्मिलित हैं। इन सभी प्राणियों के शरीरों में हम एक-एक जीवात्मा को पाते हैं। इन सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम, चेतन तत्व जीवात्माओं को ही ईश्वर ने भिन्न-भिन्न प्राणि-शरीर प्रदान किये हैं जिनसे यह सुख व दुखों का भोग करने के साथ कर्म में प्रवृत्त रहते हैं। सभी प्राणियों के सुख-दुख के जब कारणों की विवेचना करते हैं तो ज्ञात होता है कि शुभ व अशुभ, अच्छे वा बुरे तथा पुण्य वा पाप कर्मों को मनुष्य योनि में लोग करते हैं। शुभ, अच्छे व पुण्य कर्मों का फल सुख दिखाई देता है और अशुभ, बुरे वा पाप कर्मों का फल दुःख दिखाई देता है। अतः ईश्वर जीवात्माओं को कर्म के फल प्रदान करने वाला तथा सभी प्राणियों को उनके शुभाशुभ कर्मों के आधार पर मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनियेां में जन्म देता है, यही तर्क व युक्तियों से सिद्ध होता है। यह भी ईश्वर के स्वरूप व कार्यों का एक मुख्य अंग है।

 

ईश्वर का स्वरूप विदित हो जाने के बाद हमें थोड़ा सा अपने स्वरूप पर भी विचार करना उचित प्रतीत होता है। हम सब चेतन तत्व है और हमारी सत्ता यथार्थ अर्थात् सत्य है। हमारी सत्ता काल्पनिक व अन्धकार में रस्सी को देख कर सांप की भ्रांति होने जैसी नहीं है अपितु यह पूर्णतः सत्य है व उसका अस्तित्व यथार्थ है। यह अस्तित्व अनुत्पन्न, अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर सिद्ध होता है। कोई मनुष्य दुःख नहीं चाहता परन्तु वह इसमें विवश है। जब-जब उसे दुःख, रोगादि व दुर्घटनाओं, आर्थिक तंगी, अशिक्षा, अज्ञान आदि के कारण होता है तो उसमें वह विवश व परतन्त्र होता है। इससे यह सिद्ध होता है दुःख का कारण उसके अशुभ कर्म वा उन कर्मों के ईश्वर द्वारा दिये जाने वाले फल हैं जो वर्तमान व पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर ईश्वर से उसे जीवन भर मिलते रहते हैं। इस प्रकार से जीव की सत्ता अनादि, नित्य व इसका स्वरूप सत्य व चेतन, एकदेशी, सूक्ष्म, आकार-रहित, अजर, अमर, जन्म-मरण-धर्मा सिद्ध होता है।

 

ईश्वर के बारे में संक्षेप में तो हम जान ही गये हैं। उसका अस्तित्व निभ्र्रान्त रूप से सिद्ध है। अब उसको माने या न मानें, इस प्रश्न पर विचार करते हैं। जो पदार्थ यथार्थ रूप में हैं उनको मानना ही ज्ञान व न मानना अज्ञान कहलाता है। ईश्वर है तो उसे तो मानना ही पड़ेगा। अब दूसरी प्रकार का मानना यह है कि हम उससे क्या कोई लाभ ले सकते हैं या स्वयं को होने वाली हानियों से बचा सकते हैं? इसका उत्तर है कि हम उसका चिन्तन कर उसे अधिक से अधिक जानने का प्रयास करें। इस कार्य में हम सत्यार्थ प्रकाश आदि सत्य के अर्थ का प्रकाश करने वाले ग्रन्थ की सहायता भी ले सकते हैं। मनुष्य को ज्ञान नैमित्तिक साधनों से प्राप्त होता है। यह ज्ञान माता-पिता-आचार्यों से भी प्राप्त होता है या फिर पुस्तकों का अध्ययन कर ज्ञान हो सकता है। माता-पिता-आचार्यों व पुस्तकों की बहुत सी या कुछ बातें अज्ञान व अविवेक पूर्ण भी हो सकती है जो कि उनकी ज्ञान की क्षमता पर निर्भर होती है जो कि सीमित है। कोई भी मनुष्य पूर्ण ज्ञानी अर्थात् सर्वज्ञ कदापि नहीं हो सकता। ससीम व एकदेशी होने के कारण जीवात्मा अल्पज्ञ अर्थात् अल्प ज्ञान प्राप्त करने वाली है। इसे ज्ञान वृद्धि के लिए माता-पिता-आचार्यों की अपेक्षा होती है जो इससे अधिक जानते हों। अतः सत्य ज्ञान की पुस्तकों को पढ़कर ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। पुस्तकों का ज्ञान भी दो प्रकार का होता है। अधिकांश पुस्तके सत्य व असत्य का मिश्रण होती हैं। अनेक पुस्तकें, धार्मिक व सामाजिक सभी प्रकार की, क्षुद्राशय मनुष्यों ने अपनी अज्ञानता व कुछ स्वार्थों के कारण बनाई हुई होती हैं वा हैं जिसमें सत्य के साथ असत्य मिश्रित है और ऐसी पुस्तकें विष मिश्रित अन्न या भोजन के समान हैं। प्रायः अल्पज्ञानी मनुष्यों द्वारा ही निर्मित सभी पुस्तकें हैं और सभी इसी कोटि में आती है। चार वेद यद्यपि ज्ञान की पुस्तकें हैं परन्तु यह किसी मनुष्य की रचना न होकर संसार को बनाने वाले और चलाने वाले सच्चिदानन्द स्वरूप ईश्वर की रचनायें हैं। इन पुस्तकों में निहित ज्ञान को ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार श्रेष्ठ बुद्धि व स्वस्थ शरीरधारी पुण्यात्माओं को प्रदान किया था। इन्हीं वेदों के आधार सतत वेदों का अघ्ययन, चिन्तन, उपासना करके हमारे प्राचीन ऋषियों ने वेदानुकूल सत्य ज्ञान की पुस्तकेों को रचा था। ऐसे ग्रन्थों में वेदों से इतर शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, निघण्टु, ज्योतिष, उपनिषद व दर्शन, प्रक्षेप रहित मनुस्मृति आदि ग्रन्थ हैं। इनमें सत्यार्थ प्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका आदि ग्रन्थ भी सम्मिलित होते हैं।

 

इन पुस्तकों का अध्ययन कर सत्य-सत्य ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है। इनसे यह जाना जाता है कि हम ईश्वर से जीवन में जो चाहें, वह प्राप्त कर सकते हैं। उसके लिए हमें अपनी प्रार्थना के अनुरूप पात्रता को प्राप्त करना होता है। संसार में धन व सम्पत्ति आवश्यक हैं। इसकी प्राप्ति के लिए मनुष्यों का स्वस्थ शरीर होना आवश्यक है। अतः स्वास्थ्यवर्धक भोजन, व्यायाम व प्राणायाम आदि करके शरीर को स्वस्थ रखना चाहिये और रोगादि होने पर उचित उपचार करना चाहिये। इसके अतिरिक्त संसार के सबसे बहुमूल्य पदार्थ ईश्वर को जानकर उसकी प्राप्ति के लिए स्तुति, प्रार्थना व उपासना करनी चाहिये।  इससे ईश्वर से मित्रता व पे्रम सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। इसकी अन्तिम परिणति ईश्वर साक्षात्कार के रूप में होती है। यह ऐसी अवस्था होती है कि इसे प्राप्त कर कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रहता। मनुष्य के आधिदैविक, आधिभौतिक व आध्यात्मिक, इन तीन कारणों से होने वाले सभी दुःखए ईश्वरोपासना एवं सदकर्मों से  दूर हो जाते हैं। जीवन पूर्णतः सुखी हो जाता है। इस स्थिति में पहुंच कर मनुष्य दूसरों का मार्गदर्शन, उपदेश व प्रवचन द्वारा तथा सरल भाषा में अज्ञान व अन्धविश्वास रहित तथा ज्ञान से पूर्ण पुस्तकें लिखकर कर सकता है। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु होने पर वह जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है। कारण यह है कि जन्म व मरण हमारे कर्मों के आश्रित हैं और जब हम कोई अशुभ कर्म करेंगे ही नही तो फिर जन्म होगा ही नहीं। यह मोक्ष की अवस्था कहलाती है। जिस प्रकार अच्छा व श्रेष्ठ कार्य करने पर माता-पिता-आचार्यों व शासन से पुरस्कार मिलता है, उसी प्रकार से उपासना की सफलता व अशुभ कर्मों का क्षय हो जाने पर पुरस्कार स्वरूप ईश्वर केे द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है। यह मोक्ष ऐसा है कि इसमें जीवात्मा को ईश्वर के द्वारा सुखों की पराकाष्ठा आनन्द की प्राप्ति होती है। इसकी अवधि 31 नी 10 खरब 40 अरब वर्षों की होती है। इतनी अवधि तक जीवात्मा जन्म व मृत्यु के चक्र से छूट कर ईश्वर के सान्निध्य में रहकर आनन्द का उपभोग करता है। मोक्ष व उपासना के बारे में वेदों व ऋषियों के ग्रन्थों को पढ़कर निर्भ्रांत ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

 

हमने अपने अध्ययन में पाया कि महर्षि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती आदि महात्माओं ने वेदों एवं इतर वैदिक साहित्य का अध्ययन कर ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति के सत्य स्वरूप को जाना था। उनका जीवन ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना के साथ वैदिक कर्तव्यों का निर्वहन अर्थात् पंच महायज्ञ आदि कर्मों को करने के साथ समाज के हितकारी परोपकारी, सेवा व समाजोन्नति तथा देशोन्नति के कार्यां में व्यतीत हुआ। यह सभी लोग प्रातः व सायं नियमित रूप से ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना करते थे। इससे यह बात भी ज्ञात होती है कि इन महात्माओं की गुणों व कर्मों की समानता व पवित्रता के कारण ईश्वर से पूर्ण निकटता थी। समाज के हित के सभी सेवा व परोपकार आदि कार्य भी इन्होंने किये। स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती तथा महात्मा हंसराज शिक्षा जगत से जुड़े हुए थे और इस क्षेत्र में इन्होंने प्रशंसनीय कार्य किया। पं. लेखराम ने महर्षि दयानन्द जी के जीवन चरित की खोज के साथ वैदिक धर्म का प्राणपन से प्रचार किया और अगणित स्वजातीय बन्धुओं को विधर्मी होने से बचाया और अन्य मतों के बन्धुओं में वैदिक मत का प्रचार कर उन्हें वैदिक धर्म का प्रेमी व प्रशंसक बनाया। इन सभी बन्धुओं ने उपासना के द्वारा ईश्वर से अत्यन्त निकटता प्राप्त की हुई थी। महर्षि दयानन्द तो असम्प्रज्ञात समाधि को भी सिद्ध किये हुए थे। अन्य महात्मा वा महापुरूष भी असम्प्रज्ञात समाधि के अत्यन्त निकट थे जो कि मोक्ष व जीवन की पूर्ण सफलता का द्वारा व आरम्भ है। इन सभी महात्माओं ने पवित्र जीवन व्यतीत किया जो हम सभी के लिए आदर्श एवं अनुकरणीय है। समाज में इनका अति उच्च एवं सम्माननीय स्थान था और इनका व्यक्तिगत जीवन भी सन्तोष रूपी सुख से भरपूर था। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि इन जैसा जीवन ही सभी मनुष्य जीवनधारी प्राणियों का होना अभीष्ट है।

 

ईश्वर को क्यों जाने ? जाने या न जाने? का उत्तर हमें मिल चुका है। यदि हमने ईश्वर को जान लिया तो हम निश्चय ही उसे मानेगे भी अर्थात् अपने लाभों के लिए उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना वेद के अनुसार करेंगे जिसका परिणाम होगा कि हम सभी प्रकार के दुःखों से मुक्त होकर सदा आनन्द में विचरण करने वाले होकर मोक्ष को प्राप्त कर सकेंगे। आईयें, ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानने का प्रयास करें, सत्साहित्य का अध्ययन करें और अज्ञान, ढ़ोग, पाखण्ड, अन्धविश्वासों व कुरीतियों को तिलांजलि दे दें क्योंकि इनसे बन्धन पैदा होते हैं और जीवन सुख-दुख के चक्र में फंस कर असफल होता है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘पुनर्जन्म व त्रैतवाद के सिद्धांत पर एक आर्य विद्वान के नए तर्क व युक्तियाँ ‘

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ओ३म्

पुनर्जन्म त्रैतवाद के सिद्धांत पर एक आर्य विद्वान के नए तर्क युक्तियाँ

वैदिक सनातन धर्म पुनर्जन्म के सिद्धान्त को सृष्टि के आरम्भ से ही मानता चला आ रहा है। इसका प्रमाण है कि सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने प्रथम चार ऋषियों और स्त्री-पुरूषों को उत्पन्न किया। अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नाम के चार ऋषियों को परमात्मा ने चार वेदों का ज्ञान दिया। वेदों में पुनर्जन्म का सिद्धान्त ईश्वर द्वारा बताया गया है। इसलिए इस सिद्धान्त पर शंका करने का कोई कारण नहीं है। तथापि अनेक तर्कों से इस सिद्धान्त को सिद्ध भी किया जा सकता है। वैसे सिद्धान्त कहते ही उसे हैं जो स्वयं सिद्ध हो व जिसे तर्क व युक्तियों से सिद्ध किया जा सके। असिद्ध बातों को सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता। एक प्रसिद्ध सिद्धान्त है कि अभाव से भाव उत्पन्न नहीं हो सकता और भाव का अभाव नहीं हो सकता। गीता में भी इस आशय का श्लोक है कि जिस वस्तु का अस्तित्व होता है उसका अभाव अर्थात् उसका विनाश कभी नहीं होता। जो सत्ता है ही नहीं वह कभी अस्तित्व में नहीं आ सकती। ईश्वर भी अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं कर सकता। वह भाव से भाव को उत्पन्न करता है अर्थात् कारण प्रकृति से संसार बनाता है और जीवात्माओं को मनुष्यादि जन्म देता  है। सृष्टि में कारण प्रकृति व जीव का अस्तित्व नित्य व शाश्वत् है और नित्य पदार्थ सदा अविनाशी होता है।

 

आर्य जगत के प्रसिद्ध विद्वान प्राध्यापक राजेन्द्र जिज्ञासु एक बार नागपुर के हंसापुरी आर्य समाज के कार्यक्रम में भाग लेने पहुंचे। वहां उनकी प्रेरणा से हुतात्मा पं. लेखराम जी की स्मृति में कुछ समय पूर्व वैदिक साहित्य की बिक्री का केन्द्र आरम्भ किया गया था। इस पुस्तक बिक्री केन्द्र में प्रा. जिज्ञासु जी की स्वसम्पादित पुस्तक कुरान वेद की ठण्डी छाओं में उपलब्ध थी। संयोगवश एक मुस्लिम युवक अपने एक हिन्दू मित्र के साथ घूमता हुआ आर्य समाज मन्दिर आ गया। इस समाज के अधिकारी श्री उमेश राठी इन युवकों को वहां मिल गये। उन्होंने इन दोनों युवकों को पुस्तक बिक्री केन्द्र कक्ष में ही बैठाया। यह मुस्लिम युतक जमायते इस्लामी की तबलीग के लिए एक वर्ष में एक मास का समय दिया करता था।

 

युवक ने वहां विद्यमान पुस्तक कुरान वेद की ठण्डी छाओं में को देखा तो उसे लेकर उसके पन्ने पलटने कर देखने लगा। उसने पुस्तक को लेने के लिए राठी जी से पुस्तक का मूल्य पूछा तो उन्होंने कहा कि यह हमारी ओर से आपको भेंट है। राठी जी ने उसे बताया कि हमारे यहां इस समय इस्लाम के एक अधिकारी विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी विद्यमान हैं। क्या वह उनसे चर्चा करना पसन्द करेगा। वह युवक इसके लिए एकदम तैयार हो गया। जिज्ञासुजी सन्ध्या कर रहे थे। उससे निवृत होकर उस मुस्लिम युवक से वार्तालाप आरम्भ करते हुए उन्होंने कहा कि आप तबलीग़ करते हुए मुख्य विचार क्या देते हैं? उस युवक ने कहा-जो हज करे, नमाज़ पढ़े, रोज़ा रखे, वह सच्चा मुसलमान है। जो आवागमन को माने वह काफिर है। उसने ऐसी कुछ और बातें भी कहीं यथा मुहम्मद अल्लाह का अन्तिम नबी और कुरान उसका अन्तिम इल्हाम है, इस बात को विशेष बल देकर कहा। यह सब सुनकर प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु उस युवक से बोले – क्या आपने बर्फ देखी है? उसने कहा, क्यों नहीं?, देखी है। उन्होंने पूछा बर्फ पर घूप पड़े तो क्या होगा? युवक ने उत्तर दिया कि बर्फ पिघल कर जल बन जायेगा। जिज्ञासु जी ने फिर पूछा कि उस जल पर सूर्य की किरणे पड़ने पर जल का क्या होगा? उत्तर मिला कि भाप बन जायेगी। युवक से फिर पूछा कि भाप का क्या होगा तो युवक बोला कि मेघ बनेंगे। ऐसे ही मेघ वर्षा बनकर वर्षेंगे। यह उस युवक का कथन था। अब जिज्ञासु जी ने समीक्षा करते हुए कहा कि ‘‘जड़, निर्जीव अचेतन ज्ञान शून्य ब़र्फ का तो आप आवागमन मानते हैं और ज्ञानवान चेतन जीव के पुनर्जन्म को कु़फ्र्र बता रहे हैं। यह कैसी फि़लास्फी है?’’

 

जिज्ञासु जी ने आगे कहा कि आप आवागमन को मानने वालों को काफिर बता रहे हैं और आपका सबसे बड़ा दार्शनिक डा. इकबाल सुबह से रात व रात से सुबह, सूर्य तारों का उदय व अस्त होना, दिन व रात का एक दूसरे के बाद आना मानता है। वह जीवन का अन्त नहीं मानता। हज़रत मुहम्मद की कामना, “‘मैं अल्लाह की राह में शहीद हो जाऊं, फिर जन्मूँफिर शहीद हो जाऊं …… को क्या कुफ्र ही मानेंगे? क्या यह आवागमन नहीं है?

 

जिज्ञासु जी युवक को बता रहे हैं – एक मियां मर गया। उसे कबर में दबाया गया। इसके शरीर की खाद बन गई। कबर पर उगे पौधे को अच्छी खाद मिली। कब्रस्तान के मजावर की बकरी उस पौधे के पत्ते खाखा कर पल गई। उसे कसाई ने क्रय कर लिया। उसका मांस खाखा कर एक मियां का शरीर बन गया। वह मरा तो कबर में दबाया गया। उसका शव भी खाद बन गया फिर कब्रस्तान की बकरी ने खाया और वही चक्र चल पड़ा। क्या यह आवागमन है या नहीं?’’ वह लिखते हैं कि उस युवक के पास अब कहने के लिए कुछ था ही नहीं। उसे जो रटाया गया था वही उसने प्रकट किया। अब वह आगे क्या कहें?

 

जिज्ञासुजी ने उस युवक से एक अन्य विषय पर चर्चा आरम्भ कर कहा कि सृष्टि रचना से पूर्व क्या था? उसने कहा कि केवल अल्लाह था। उससे जिज्ञासु जी ने पूछा कि क्या आप अल्लाह को न्यायकारी, दयालु, दाता, पालक, स्रष्टा, स्वामी मानते हैं? उस युवक ने कहा – क्यों नहीं? वह अल्लाह आदिल (न्यायकारी), दयालु है और यह उसका स्वभाव है। उससे पूछा कि क्या अल्लाह के यह गुण सदा से, हमेशा से हैं? उस युवक ने कहा कि हां, अनादि काल से वह दयालु, न्यायकारी आदि है। इस पर जिज्ञासुजी ने उससे पूछा कि जब अल्लाह के अतिरिक्त कोई था ही नही तो वह दया किस पर करता था? न्याय किसे देता था? जब प्रकृति थी ही नहीं, वह देता क्या था? सृजन क्या करता था? जीव तो थे नहीं, वह पालक स्वामी किसका था? उस युवक से वार्ता के समय वहां आर्य समाज के विद्वान व अन्य लोग भी उपस्थित थे। उन्होंने जिज्ञासुजी से कहा कि आवागमन व त्रैतवाद के बारे में आपकी युक्तियां हमने प्रथम बार ही सुनी हैं। यह वर्णन आर्य समाज या किसी वैदिक ग्रन्थ में भी नहीं है।

 

इस युवक से संयोग का परिणाम यह हुआ कि प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आवागमन सहित कुछ अन्य विषयों पर नये अन्दाज से विचार प्रस्तुत किये जिनसे वैदिक मत के सिद्धान्तों की पुष्टि हुई। वैदिक मत और आर्य समाज में पुनर्जन्म अर्थात् आवागमन पर इतनी सामग्री है कि जिसे पढ़कर पुनर्जन्म संबंधी सभी शंकाओं का निराकरण हो जाता है। इस विषय पर एक शताब्दी से कुछ अधिक पहले रक्तसाक्षी, हुतात्मा शहीद पं. लेखराम जी ने एक महत्वपूर्ण तर्क प्रमाण पुरस्सर पुस्तक लिखी थी। पुस्तक लिखने से पूर्व उन्होंने विज्ञप्तियां देकर सभी मत-मतान्तर के लोगों को पुनर्जन्म विषयक अपनी शंकायें भेजने के लिए प्रेरित किया था। उन्होने सभी प्रकार की सभी शंकाओं का निराकरण व समाधान अपनी पुस्तक में किया है। वेद और गीता पुनर्जन्म को स्वीकार करती हैं। वर्तमान में समय में कोई कुछ भी कहे व माने, परन्तु आवागमन और ईश्वर-जीव-प्रकृति के नित्य, अजन्मा व अविनाशी होने का त्रैतवाद का सिद्धान्त सर्वत्र व्यवहार में है। विज्ञान भी जड़ प्रकृति के अस्तित्व को स्वीकार करता है जो कि निभ्र्रान्त सत्य है। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘सृष्टि के आदि राजपुरूष मनु का शूद्रादि वर्णों के ब्राह्मण वर्ण में वर्णोन्नति के लिए गुणवर्धन का प्रशंसनीय विधान’–मनमोहन कुमार आर्य

maharshi manu

ओ३म्

सृष्टि के आदि राजपुरूष मनु का शूद्रादि वर्णों के ब्राह्मण वर्ण में

वर्णोन्नति के लिए गुणवर्धन का प्रशंसनीय विधान

 


हमारे अनेक क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र वर्ण के बन्धु प्रायः कहा करते हैं कि महाराज मनु ने ब्राह्मणेतर वर्णों के साथ अन्याय किया है। उनका यह आरोप समाज में प्रचलित जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था के कारण होता है। आरोपकर्ता बन्धुओं के इस आरोप के पीछे की पीड़ा तो समझ में आती है परन्तु जैसे किसी आरोप में पुलिस कई बार असली आरोपी के स्थान पर अन्य निर्दोष व्यक्तियों को पकड़ लेती है, ऐसा ही हमारे आरोपकर्ता बन्धुओं का महाराज मनु पर आरोप है। मनु कौन थे? इसके उत्तर में हम यह बताना चाहते हैं कि सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में ब्रह्माजी व अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा आदि ऋषि उत्पन्न हुए थे। ब्रह्माजी की पहली पीढ़ी में स्वायम्भुव मनु उत्पन्न हुए। उन्होंने अपने समय में राज्य व्यवस्था को सर्वप्रथम प्रचलित किया और इसके लिए वैदिक मान्यताओं को केन्द्र में रखते हुए देश के संविधान मनुस्मृति की रचना व प्रणयन किया। ब्रह्माजी की उत्पत्ति आज से 1,96,08,53,114 वर्ष पूर्व हुई थी। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इतने वर्ष पूर्व प्रणीत मनुस्मृति का मूल स्वरूप क्या सुरक्षित रहा है? मनुस्मृति में प्रक्षेपकों ने नाना प्रकार के विकार, परिवर्तन व संशोधन आदि समय-समय पर किये हैं जिस कारण आज प्राप्त होने मनुस्मृति वह प्राचीन मनुस्मृति नहीं है जो कि महाराज मनु ने सृष्टि के आरम्भ में रची थी। हम समान्य साहित्य के सन्दर्भ में यह जानते हैं कि कई बार संशोधन अच्छा व उपयोगी होता है और कई बार गलत भी। मनुस्मृति के बारे में महर्षि दयानन्द और अनेक वैदिक विद्वानों का यह सुनिश्चित मत है कि प्रक्षेपकों ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए इसमें वेदों व महाराज मनु की मूल भावना के विपरीत परिवर्तन व प्रक्षेप किये हैं। यह अच्छी बात रही कि प्रक्षेपकों ने प्रक्षेप करते समय अपने पाठ तो इसमें जोड़े और बढ़ाये परन्तु मूल पाठों को इसमें से हटाया नहीं। इस कारण आज जो मनु-स्मृति प्राप्त होती है, उसमें महाराज मनु के मूल श्लोक भी सुरक्षित व विद्यमान हैं। ऐसे ही मनु के एक श्लोक को प्रस्तुत कर हम यह दिखाना चाहते हैं कि मनु ने ब्राह्मणेतर अन्य तीन वर्णों क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को भी ब्राह्मण वर्ण का बनने का अवसर सुलभ कराया था और वैदिक काल में अनेक लोग अन्य-अन्य वर्णों से ब्राह्मण भी बने थे। इस सन्दर्भ में हम अपने समय के एक सिद्ध योगी, धर्मात्मा, ईश्वर का साक्षात्कार किए हुए तथा वेदों एवं वैदिक साहित्य के शीर्षस्थ विद्वान महर्षि दयानन्द (1825-1883) के वचनों को प्रस्तुत करते हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने अपनी कालजयी कृति सत्यार्थ प्रकाश के चैथे समुल्लास में स्वयं प्रश्न उपस्थित किया है कि क्या जिसके माता-पिता ब्राह्मण हों, वह ब्राह्मणी-ब्राह्मण होता है? और क्या जिसके माता-पिता अन्य वर्णस्थ हों   उनका सन्तान कभी ब्राह्मण हो सकता है? महर्षि दयानन्द का कहना व मानना है कि ब्राह्मण माता-पिता की सन्तान वेदों व वैदिक साहित्य में ब्राह्मण वर्ण के लिए प्रतिपादित गुण-कर्म-स्वभाव के अनुकूल दीक्षित व योग्य होने पर ब्राह्मण-ब्राह्मणी हो सकते हैं और यदि उनके गुण-कर्म व स्वभाव ब्राह्मण वर्ण के अनुकूल नहीं हैं तो नहीं भी हो सकते। अन्य वर्णस्थ माता-पिता की सन्तानों के ब्राह्मण होने न होने के प्रश्न पर वह लिखते हैं – ‘हां बहुत से (अन्यवर्णस्थ ब्राह्मण) हो गये, होते हैं, और होंगे भी। जैसे छान्दोग्य उपनिषद् में जाबाल़ ऋषि अज्ञातकुल (संदर्भप्रमाणः सा (जाबाला) हैनमु वाच नाहमेतद् वेद तत यद्गोत्रस्त्वमसि बह्वहं चरन्ती परिचारिणी यौवने त्वामलभे। …… होवाच (आचार्यः) नैतदब्राह्मणो विवक्तुमर्हति। छान्दोग्योपनिषद 4/4/2-5), महाभारत में विश्वामित्र क्षत्रियवर्ण (प्रमाण सन्दर्भःकथं प्राप्तं महाराज क्षत्रियेण महात्मना। विश्वामित्रेण धर्मात्मन् ब्राह्मणत्वं नरर्षभ।। महा. अनु. 3/1,2) और मातंग ऋषि चाण्डाल कुल से (संदर्भप्रमाणःस्थाने मतंगो ब्राह्मण्यमालभद् भरतर्षभ। चण्डालयोनौ जातो हि कथं ब्राह्मण्यमवाप्तवान्।। महाभारत अनु. 3/19) ब्राह्मण हो गये थे। अब भी जो उत्तम विद्या स्वभाववाला है, वही ब्राह्मण के योग्य और मूर्ख शूद्र के योग्य होता है। और वैसा ही आगे भी होगा।

 

इसके बाद महर्षि दयानन्द ने प्रश्न किया है कि भला जो रज-वीर्य से शरीर हुआ है, वह बदल कर दूसरे वर्ण के योग्य कैसे हो सकता है? इसका वह स्वयं उत्तर देते हैं कि रजवीर्य के योग से ब्राह्मण शरीर नहीं होता। इसके बाद वह महाराज मनु की मनुस्मृति से क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र को ब्राह्मण बनाने की योग्यता का उल्लेख करते हुए मनुस्मृति के श्लोक संख्या 2/28 को प्रस्तुत कर उसका हिन्दी अनुवाद करते हैं जो पाठकों के लिए उद्धृत करते हैं। श्लोक है – स्वाध्यायेन जनैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः।। इस श्लोक का अर्थ है – (स्वाध्यायेन) पढ़नेपढ़ाने (जपैः) विचार करनेकराने, (होमैः) नानाविध होम के अनुष्ठान, (त्रैविद्येन) सम्पूर्ण वेदों को शब्दअर्थसम्बन्धस्वरोच्चारण सहित पढ़नेपढाने, (इज्यया) पौर्णमासी इष्टि आदि के करने, पूर्वोक्त विधिपूर्वक (सुतैः) धर्म से सन्तानोत्पत्ति,  (महायज्ञैश्च) ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेवयज्ञ और अतिथियज्ञ, (यज्ञैश्च) अग्निष्टोमादि यज्ञ, विद्वानों का संगसत्कार, सत्यभाषण, परोपकारादि सत्कर्म, और सम्पूर्ण शिल्पविद्यादि पढ़के दुष्टाचार छोड़ श्रेष्ठाचार में वत्र्तने से (इयम्) यह (तनुः) मानव शरीर (ब्राह्मी) ब्राह्मण का (क्रियते) किया जाता है। जो मनुष्य रज-वीर्य से उत्पन्न सन्तान को उसी वर्ण का अर्थात् ब्राह्मण-ब्राह्मणी के पुत्र व पुत्री को ब्राह्मण व ब्राह्मणी मानते हैं, उनसे पूछते हैं कि क्या इस श्लोक को तुम नहीं मानते? उत्तर- मानते हैं।, फिर क्यों रज-वीर्य के योग से वर्णव्यवस्था मानते हो? मैं अकेला नहीं मानता, किन्तु बहुत से लोग परम्परा से ऐसा ही मानते हैं। महर्षि फिर स्वयं से प्रश्न करते हैं कि क्या तुम परम्परा का भी खण्डन करोगे? इसका उत्तर देते हुए वह लिखते हैं कि नहीं, परन्तु तुम्हारी उलटी समझ को नहीं मान के खण्डन भी करते हैं। प्रश्न- हमारी उलटी और तुम्हारी सूधी समझ है, इसमें क्या प्रमाण है? उत्तर- यही प्रमाण है कि जो तुम पांच-सात पीढि़यों के वर्तमान को सनातन व्यवहार मानते हो, और हम वेद तथा सृष्टि के आरम्भ से आज-पर्यन्त की परम्परा (को परम्परा) मानते हैं। देखो, जिसका पिता श्रेष्ठ उसका पुत्र दुष्ट, और जिसका पुत्र श्रेष्ठ उसका पिता दुष्ट, तथा कहीं दोनों श्रेष्ठ वा दुष्ट देखने में आते हैं। इसलिए तुम लोग भ्रम में पड़े हो। इसके आगे वह लिखते हैं कि देखो, मनु महाराज (मनुस्मृति 4/178) ने क्या कहा है- येनास्य पितरो याता येन याताः पितामहाः। तेन या यात् सतां मार्गं तेन गच्छन्न रिष्यते।। अर्थात् जिस मार्ग से इसके पिता-पितामह चले हों, उसी मार्ग में सन्तान भी चलें। परन्तु सताम्= जो सत्पुरूष पितापितामह हों उन्हीं के मार्ग में चलें और जो पितापितामह दुष्ट हों, तो उनके मार्ग में कभी चलें। क्योंकि उत्तम धर्मात्मा पुरूषों के मार्ग में चलने से दुःख कभी नहीं होता।

 

महर्षि दयानन्द महाभारत काल के बाद भारत ही नहीं वरन् विश्व के वेद, वैदिक साहित्य एवं संस्कृत के महान विद्वान हुए हैं। उनके द्वारा मनुस्मृति के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि वर्ण गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर होते हैं, जन्म के आधार पर नहीं। विद्याध्ययन एवं चारित्रिक गुणों में वृद्धि कर वर्ण में उन्नति की जा सकती है और अपनी इच्छा के अनुसार वर्णों के गुण-कर्म व स्वभाव को धारण कर वर्ण परिवर्तन अर्थात् मनोवांछित वर्ण को ग्रहण व धारण किया जा सकता है। इन विधानों के प्रकाश में मनु जी को समाज व मनुष्यों में असमानता, ऊंच-नीच, विषमता या छुआ-छूत फैलाने का दोषी नहीं माना जा सकता। इसका दोष मनुस्मृति में प्रक्षेप करने वाले अज्ञात विद्वानों का है जिन्होंने अपने वर्ग के स्वार्थ के लिए मनृस्मृति में प्रक्षेपों को किया। उनका यह कार्य एक निन्दनीय कर्म है। महर्षि दयानन्द को इस बात का श्रेय प्राप्त है कि उन्होंने मनु पर लगने वाले मिथ्या आरोपों से उन्हें मुक्त किया। यहां यह भी उल्लेख करना है कि आर्य समाज द्वारा देश भर में लगभग 500 गुरूकुलों में वेद और वेद-व्याकरण की शिक्षा बिना जाति व वर्ण का अन्तर किये समान रूप से दी जाती है। जो व्यक्ति स्वयं या अपनी सन्तानों को ब्राह्मण बनाना चाहते हैं, वह वहां प्रवेश लेकर इसका लाभ उठा सकते हैं। आर्य समाज ने विगत 130 वर्षों में सहस्रों अब्राह्मणों को गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार ब्राह्मण ही नहीं अपितु वेद-भाष्यकार तक बनाया है। उन जितनी व जैसी योग्यता देश के वर्तमान शीर्षस्थ विद्वान संस्कृतज्ञ ब्राह्मणों में भी नहीं है। मनुस्मृति में सेे मिलावट दूर करने के उद्देश्य से प्रक्षेप निकाल कर विशुद्ध मनुस्मृति प्रकाशित करने का महनीय कार्य भी महर्षि दयानन्द के अनुयायियों द्वारा किया गया है जिसके लिए दिल्ली स्थित आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, नयाबांस, खारी बावली, दिल्ली-6, स्थापक प्रकाशक महात्मा दीपचन्द आर्य, लेखक, अनुवादक सम्पादक पं. राजवीर शास्त्री एवं प्रो. सुरेन्द्र कुमार तथा वर्तमान प्रकाशक श्री धर्मपाल आर्य विशेष रूप से बधाई के पात्र हैं। हमारा निवेदन है कि यदि किसी को मनु महाराज से कोई शिकायत है तो उसे सार्वजनिक करने से पहले वह इस ग्रन्थ का गम्भीरता से अध्ययन अवश्य करे अन्यथा उसकी आलोचना निराधार व प्रमाण विरूद्ध होने से असत्य व अज्ञानी व्यक्ति की खीज के समान होगी।

 

वर्तमान समय परिवर्तनकारी युग है जिसमें सभी धार्मिक व सामाजिक कुप्रथाओं व अन्धविश्वास आदि को समाप्त व नष्ट होना ही होगा। अब समय आ गया है कि विज्ञान की भांति सभी धार्मिक व सामाजिक विषयों में एक मत हुआ जाये जिससे सामाजिक, धार्मिक कटुता व विषमता समाप्त होकर समाज, देश व विश्व में चिरस्थाई सुख-शान्ति स्थापित हो। हम ईश्वर से भी प्रार्थना करते हैं कि वह सामाजिक व धार्मिक भेदभाव समाप्त करने व सत्य व ज्ञान-विज्ञान पर आधारित एक सत्य मत की स्थापना में समाज के शीर्ष लोगों को प्रेरित करे।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

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Namaste Meaning – swargeeya pandit sukhdev vidya vachaspati

हमारी आर्य जाति का वेद ही एक मात्र स्वतः प्रमाण धर्म -पुस्तक है। यही हमारा ईश्वरीय ज्ञान है। अपने आपको आर्य हिन्दू कहनेवाला कोई भी व्यक्ति इस सिद्धान्त से इन्कार नहीं करेगा । वैदिकधर्मी तथा पौराणिकधर्मी, सभी के आचार- व्यवहार का मूलस्त्रोत वेद ही होना चाहिए। वैसे तो भारतवर्ष के अन्दर बहुत से धर्म प्रचलित है। परन्तु हमें इस लेख में उन धर्मो से कोई शिकायत नहीं करनी, जो वेद को स्वीकार नहीं करते, क्योंकि जब वे वेदों को श्रद्धा की दृष्टि से देखते ही नहीं तो उनके सामने वेदों का प्रमाण उपस्थित करके हम क्या कहेंगे ? अतः हे वेदानुयायी भाइयो! आओ, आज हम इस बात पर विचार करें कि वैदिक साहित्य के अनुसार हमारा परस्पर सत्कार एवम् आशीर्वादसूचक शब्द क्या होना चाहिए ? हमारी जाति में तो एकता को आने में ही डर लगता है। हमारे रीति -रिवाज एक नहीं, हमारे विचार एक नहीं, हमारी शिक्षा एक नहीं, मतलब कहने का यह कि हमारा कुछ भी एक नहीं। ‘एकता’के विश्राम के लिए जब कि हमारा कुछ भी एक नहीं, तो एकता आवे कहाँ से ? कोई कहता है ‘नमस्ते’ तो दूसरा चिल्लाता हैं ‘जय गोपाल जी’ ; एक ने बड़े मीठे स्वर में कहा ‘सीताराम’,  तो दूसरा भन्नाकर बोलता है ‘बोलो राधेश्याम’;  और लगे दोनों लड़ने । एक ने किया ‘राम -राम’ तो दूसरे ने उत्तर दिया ‘जय श्रीकृष्ण ’। एक करे दण्डवत् और प्रणाम तो दूसरा करे सलाम । कुछ समझ में नहीं आता कि कौन ठीक कहता है ?

भला पूछो तो ‘राम – राम कहने वालों से कि क्या महाराजा रामचन्द्र जी अपने पिता दशरथ को सत्कार करते समय ‘राम-राम ’ ही कहा करते थे और राजा दशरथ भी अपने बेटे को ‘राम-राम’ ही कहा करते थे और राजा दशरथ भी अपने बेटे को ‘राम -राम ’ कहकर ही उत्तर देते थे ? जिस समय राधा (जिसके बारे में सुना गया है कि वह श्रीकृष्ण की विवाहिता पत्नी नहीं थी) और कृष्ण परस्पर बड़ी उत्कण्ठा से चिर प्रतीक्षा के पश्चात् मिलते थे तो वे भी कया परस्पर ‘राधाकृष्ण ही कहा करते थे ? स्थूलबुद्धि तो यही कहती है। कि रामचन्द्र और दशरथ ‘ राम – राम ’ नहीं पुकारते होंगे। यह भी समझ में आता है। कि कृष्ण ने भी कभी किसी का ‘जय गोपाल ’ सूचक शब्द से सम्मान नहीं किया होगा।

मिलें परस्पर सम्मान करने के लिए या आशीर्वाद लेने के लिए और बोलें किसी स्त्री या पुरूष का नाम! यह कैसी अप्रासंगिक बात है।

पूर्व पक्षी महाराजा रामचन्द्र और कृष्ण विष्णु के अवतार थे, अतः वे साक्षात् परमात्मा थे। परस्पर मिलते समय यदि परमात्मा का नाम लिया जाये तो उसमें क्या दोष है ?

सिद्धान्ती एक तो भाई परमात्मा अवतार लेता ही नहीं। यदि ‘दुर्जनताषन्याय’ से मान भी लिया जाए कि परमात्मा अवतार लेता है, तब भी तो उस समय वह पुरूष ही बना था। उस पुरूष बने परमात्मा का नाम लेना अपके मत में बुरा नहीं, अच्छा है। तो ठीक रहा, ऐसे पुरूष बने परमात्मा का नाम हर स्थान- पर बिना प्रसंग के भी ले लिया करो। लेने से शायद पाप तो न हो पर व्यवहार तो नहीं चलेगा। एक मालिक को पानी की प्यास लगी है और वह अपने नौकर से कहता ‘राम – राम’पति को लगी भूख और वह लगा अपनी स्त्री से कहने ‘राधाकृष्ण । भाई ! इन दोनों स्थानों पर आपके कथनानुसार सम्भवतः ‘राम -राम’और राधाकृष्ण कहना पाप तो नहीं, पर इतना कहने मात्र से तो मालिक तथा पति दोनों ही प्यासे तथा भूखें मरेंगे। तुम इस प्यास और भूख के अवसर पर ‘राम – राम’ को स्मरण करो या न करो, हमें इससे काई मतलब नहीं, परन्तु हमारा कहना यह है कि प्यास के समय यह अवश्य कहो कि ‘पानी लाओं’और भूख के समय यह अवश्य कहो कि ‘भोजन लाओ । तभी जान बचेगी।

छोटा अपने बड़े का सत्कार करने गया और कहने लगा ‘राम -राम’ । बड़े ने भी आशीर्वाद में दोहरा दिया ‘राम -राम’ , तो इससे क्या सत्कार और आशीर्वाद सूचित हो गये ? कदापि नहीं । जैसे ‘राम – राम’ आदि शब्दों के प्रयोग से भूख और प्यास नहीं बुझती, इसी प्रकार इन शब्दों से सत्कार एवम् आशीर्वाद भी सूचित नहीं होते।

पू० तो आप ही बताइये , ऐसे अवसर पर किस शब्द का प्रयोग किया जाए ?

सि० शब्द ऐसा कहो जो वेदप्रतिपादित हो।

हमारा यह दावा है कि वेदों में ‘राम – राम’ आदि शब्दों से कहीं भी सत्कार – सूचक शब्दों का प्रयोग नहीं है। वेदों में तो क्या आप सारे प्राचीन संस्कृत साहित्य – को भी पढ़ जाइये, कहीं एक – दूसरे के साथ ‘राम – राम’ या ‘राधाकृष्ण’ आदि शब्दों का प्रयोग नहीं है। पौराणिक धर्मावलम्बियों को अपने पुराण, महाभारत तथा रामायण या मनुस्मृति आदि ग्रन्थों को भी देखना चाहिए । उनमें कहीं भी इन मनुष्यवाचक शब्दों का परस्पर सत्कार के लिए प्रयोग विहित नहीं है। सभी वेद, पुराण, इतिहास तथा स्मृति आदि ग्रन्थ और शब्द की आज्ञा देते है। आर्यसमाज उसी शब्द का प्रचार करना चाहता है।

पू० वह शब्द क्या है ?

सि० वेदादि सत्य शास्त्र तथा पुराणदि ग्रन्थ सभी एक स्वर से यही कहते हैं कि परस्पर ‘ नमस्ते ’ शब्द का प्रयोग होना चाहिए।

इस नमस्ते शब्द में बहुत से प्रमाण देने से पूर्व इस शब्द का अर्थ जान लेना आवश्यक है । ‘नमस्ते ’ शब्द को दो टुकड़ों में बाँटा जा सकता है-

‘नमः -ते’ । व्याकरण के जाननेवाले जानते है कि ‘ते’ शब्द का अर्थ है – तुम्हारे लिए (ते, तुभ्यम् -तुम्हारे लिए) परिणमत: ‘नमस्ते’ शब्द का अर्थ यह हुआ कि तुम्हारे लिए नमः। अब केवल विवाद है ‘नमः’ शब्द पर। आइए, हम इस ’नमः’ शब्द के अर्थ का भी विवेचन करें। ‘नमः’ शब्द के निम्न अर्थ अधिक प्रसिद्ध हैं-

                () नमः = सत्कार, श्रद्धा, किसी के सामने झुकना।

क – अमरकोष में आया है ‘नमो नतौ’ । ‘नमस्’ अव्यय ‘ ज्ञति’ अर्थात् किसी के सामने झुकने के अर्थ में आता है।

ख – यास्क निघण्टु ३ । ५ में ‘नमस्यति ’ का अर्थ किया है ‘परिचरति’ । अर्थात् सेवा करने, सत्कार करने के अर्थ में नमस्यति शब्द आता है।

ग – सिद्धान्तकौमुदी में ‘णम’ धातु प्रहत्व अर्थात सत्कार अर्थ में आता है।

घ – पं० शिवदत्त तत्वबोधिनी की टिप्पणी में लिखते हैं-

अपकृष्टत्वज्ञानबोधनानुकूलो व्यापारो नमः पदार्थः।

अर्थात् जब मनुष्य दूसरे के सामने ऐसी किया करे जिससे वह उस दूसरे से छोटा प्रतीत हो, वही क्रिया ‘ नमः’ शब्द का अर्थ है। जैसे जब कोई हाथ जोड़कर माथा नवाकर किसी के सामने झुकता है तो वह उससे छोटा ही प्रतीत होता है। अर्थात् ‘नमः’करनेवाला दूसरे का सत्कार कर रहा होता है।

                () नम:= भेंट, त्याग

क – आप्टे संस्कृत कोश में ‘नमः’ शब्द का अर्थ किया है – a gift, present-  जिसका अर्थ भेंट ही है।

ख – श्री पं० शिवदत्त जी तत्वबोधिनी पर टिप्पणी करते समय लिखते है – ‘ एषोऽर्घः   शिवाय नमः इत्यादौ त्यागो नमः शब्दार्थः । शिव के लिए जब अर्घ भेंट किया जाता हो, वहाँ यदि ‘नमः’ शब्द का प्रयोग हो तो उसका अर्थ ‘ त्याग’ है।

ग – नमः sacrifice त्याग । आप्टे संस्कृत कोश।

                (3) नमः = अन्न

क – यास्क निघण्टु २।७ में ‘नमः’ शब्द का अर्थ ‘ अन्न’ भी किया गया है। अन्न यहाँ सब भेाग सामग्री का उपलक्षक या प्रतिनिधि है। इसमें अपने निर्वाह के कपड़े, रूपया, पैसा, पशु तथा मकानादि सभी आ जाते है।

ख – शतपथ ब्राह्मण ६।३।१। १७ में भी कहा है ‘ अन्न नमः’ अर्थात् अन्न ही ‘नमः’  है।

ग – आप्टे संस्कृत कोश में ‘ नम:’ शब्द का अर्थ किया है Food भोजन।

                (नमः = वज्र

क – यास्क निघण्टु २ । २० में नमः शब्द का अर्थ वज्र भी किया गया है। वज्र – का मतलब उन सब भयंकर शस्त्रास्त्रों से है। जिनसे दुष्टों का संहार किया जाए।

ख – नमः a thunder bolt वज्र । आप्टे संस्कृत कोश।

                () नमः = यज्ञ

शतपथ ब्राह्मण ७। ४।१।३०।। २।४।२।२४।।२।६।१।४२।।९।१।१।१६।। में ‘ यज्ञों वै नमः ‘ कहकर ‘नमः’ शब्द का अर्थ ‘यज्ञ’भी किया गया है। इसी प्रकार शतपथ – ब्राह्मण में कहा है –

                ‘तस्मादु नायज्ञियं ब्रूयान्नमस्तऽइति यथा हैनं’(अयज्ञियं) ब्रूयाद् यज्ञस्त इति तादृक्तत् ।।

यह वाक्य भी यही सिद्ध करता है कि ‘ नमः शब्द ’यज्ञ’ का भी वाचक है।

यधपि संस्कृत साहित्य में ‘ नमः ’ शब्द के कई अर्थ है। तथापि थोड़े से अर्थ हम ने यहाँ प्रसंगवशात् दिये हैं। इस प्रकार यदि हम ‘ नमः ’ शब्द के अर्थों का संक्षेप में संग्रह करें तो वह संग्रह इस प्रकार होगा –

नमः – सत्कार, श्रद्धा, किसी के सामने झुकना, नीचा होना, त्याग , अन्न (सम्पूर्ण भोग्य सामग्री) , वज्र (सम्पूर्ण धातक शस्त्रास्त्र): यज्ञ और भेंट ।

पू० यह कैसे प्रतीत हो कि इन बहुत से अर्थों में से ‘नमः ’ शब्द का कहाँ क्या अर्थ है ?

सि० थोड़ी – सी भी बुद्धि का प्रयोग किया जाए तो यह उलझन भी आसानी से सुलझ सकती है। प्रकरण, समय तथा स्थानादि को देखकर यह बात बड़ी आसानी से पहचानी जा सकती है कि ‘ नमः ’ शब्द का कहाँ क्या अर्थ होना चाहिए। संस्कृत साहित्य में ‘ सैन्धव’ शब्द के ‘नमक’ और ‘घेाड़ा ’ दोनों अर्थ है। एक आदमी रसोई – घर में भोजन करते समय अपने नौकर से कहता है –

सूपाय किचित् सैन्धवमानीयताम्, नूनमघ न्यूनमाभाति।

अर्थात् दाल के लिए थोड़ा ‘ सैन्धव’ले आओ, कुछ कम मालूम होता है। यह सुनते ही नौकर सैन्धव अर्थात् सेन्धा नमक ले आएगा, घोड़ा नहीं । और जब मालिक को हवाखेरी करने जाना होगा, उस समय नौकर सैन्धव – घोड़ा ही लाएगा, नमक नहीं । ठीक इसी तरह ‘ नमः ’ शब्द का प्रयोग को  देखकर पहचानो कि यहाँ ‘ नमः ’ शब्द का  प्रयोग किस दृष्टि से है। पाठक अब इस बात को समझ गए होंगे कि इन सब अर्थो को कण्ठाग्र कर लेने पर यह कहनेवालों की जबान बन्द हो जाएगी कि छोटा तो बड़ों को ‘नमस्ते’  करे पर बड़ा छोटों को नमस्ते कैसे करे ?

जिस समय छोटा, पुत्र या शिष्य आपने पिता या आचार्य को ‘ नमस्ते ’ करता है उस समय उसका यही अर्थ होता है कि आपके लिए सत्कार हो, मैं आपके सामने झुकता हूँ , मेरे हृदय में आपके प्रति श्रद्धा है इत्यादि। और उसके उत्तर – में पिता या आचार्य अपने बेटे या शिष्य को आशीर्वाद देते हैं कि ‘ नमस्ते ’ अर्थात् ’ तेरे लिए अन्नादि समस्त भेाग्य सामग्री प्राप्त हो, तू फूले – फले, समृद्धिशाली हो।’ इत्यादि। यही तो बड़ों का आर्शीवाद होता है। अब चाहे परस्पर ‘ नमस्ते करते हुए क्यों न हृदय में परमात्मा का नाम याद करते रहो । हमें इसमे कोई आपत्ति नहीं। इसी का नाम है भूख के समय भोजन माँगना , प्यास के समय पानी माँगना तथा सत्कार के समय सत्कार और आशीर्वाद के समय आशीर्वाद देना । परमात्मा का नाम स्मरण करने से तुम्हें कोई नहीं रोकता।

बराबरवाले परस्पर ‘ नमस्ते ’ करके एक – दूसरे का सत्कार ही करते हैं, परन्तु इसके साथ ही यह भी स्मरण रखना चाहिए कि यदि बड़ा भी छोटों को सत्कार करने के अभिप्राय से ‘ नमस्ते ’ करता है तो भी कोई दोष नहीं और कोई पाप नहीं । संसार में तो यह होता ही है कि बड़ा भी छोटे का सत्कार करता है, क्याकि वह छोटा बड़े के सत्कार का साधन बन सकता है। यदि तुम स्वयं सत्कार चाहते हो तो औरों का भी सत्कार करो। छोटों का सत्कार करना उनको अपने समान बनाने का अच्छा साधन है। जितना तुम उसका सत्कार करोगे उतना ही वह तुम्हारा भी सत्कार करेगा और कराएगा।

यदि ’नमस्ते ’ शब्द का शास्त्रोक्त प्रयोग देखना हो तो आइए सारे वैदिक साहित्य एवं लौकिक साहित्य पर सरसरी नजर डालें, बहुत स्थानों पर ‘ नमस्ते’ शब्द का प्रयोग मिलेगा। हमें स्थान – स्थान पर नमस्ते शब्द का प्रयोग मिलेंगा । हम स्थान-स्थान पर ‘ नमस्ते’ शब्द का प्रयोग दिखायेंगे, प्रकरण तथा स्थान को देखकर पाठकवृन्द स्वयं विचार लेंगे कि उपरिलिखित ‘ नमः’ शब्द के अर्थों में से कौन – सा अर्थ उपयुक्त है। ‘ ते’ शब्द का अर्थ सब जगह ’तुम्हारे लिए’ ही होगा।

यजुर्वेद का सारा १६ वाँ अध्याय मन्त्र ३२ उठाकर देख जाइए ।, उसमें ’ नमस्ते ’ शब्द का बहुत प्रयोग है-

() नमो ज्येष्ठाय कनिष्ठाय नमः पूर्वजाय चापरजाय नमो मध्यमाय चापगल्भाय नमो जघन्याय बुध्न्याय ।।

इस मन्त्र में छोटे , बडे , पूर्वज एवं नीच तथा मध्यम आदि सब के लिए ’ नमस्ते ’ का प्रयोग है।

() नमस्तक्षभ्यो रथकारेभ्यश्च वा नमो नमो कुलालेभ्यः कर्मारेभ्यश्च वो नमो नमो निषादेभ्यः पुञिजष्ठेभ्यश्च वा नमो नमः श्वनिभ्यो मृगयुभ्यष्च वो नमः ।।

(यजु० १६।२७)

यहाँ तो तक्ष – तरखान , राजमिस्त्री , रथकार, कुलाल -कुम्हार, निषाद अर्थात् चाण्डाल तथा कुत्तों के शिक्षक, आदि सब के लिए ’ नमस्ते ’ का प्रयोग है अर्थात् इनके लिए अन्नादि भोग्य सामग्री देने का विधान है।

() नमो वञचते परिवञचते स्तायूनां पतये नमो नमो निषडिग्णऽइषुधिमते तस्कराणां पतये नमो नमः सृकायिभ्यो जिघा् सद्भ्यो मुष्णतां पतये नमो नमोऽसिमद्भ्यो नक्तञचद्भ्यो विकृन्तानां पतये नमः।

(यजु० १६।२१)

इस मन्त्र में छली, कपटी चोरों के सरदार , हिंसक, लुटेरे तथा गठकतरे आदि सभी के लिए ’ नमस्ते ’ शब्द का प्रयोग होता है अर्थात् उन्हें नमः वज्र से मारने का विधान है।

यजुर्वेद के १६ वें अध्याय के हमने तीन ही मन्त्र केवल दिखाने मात्र के लिए लिखे हैं यह तो सारा अध्याय नमस्ते श्ब्द से भरा पड़ा है।

हमारे पौराणिक भाई कहते है। कि यह तो रूद्राध्याय है इसमें परमात्मा के प्रति ‘नमस्ते’ है।

यथा – नमस्ते रूद्र मन्यवे – ’ इत्यादि।                                                               (यजु० १६।१)

मै अपने उन पौराणिक भाइयों से पूछता हूँ कि यदि वस्तुतः इस अध्याय में सर्वत्र रूद्र अर्थात् परमात्मा को ही ‘नमस्ते’ है, तब तो इस अध्याय में आए चोर , लुटेरे, डाकू, कुत्ते, शूद्र तथा चाण्डालादि सभी प्राणी परमात्मा के ही रूप हो गए जिनको भिन्न – भिन्न अभिप्राय से ’ नमस्ते किया गया है। तब तो भाई । जब तुम्हारे घर में चोर, लुटेरे, कसाई या चाण्डाल घुस आवें तब तुम उनकी अर्घ आदि देकर पूजा किया करो। वे लुटेरे आपकी भक्ति से बड़े प्रसन्न होंगे, और आपको आपने घर में रूपया – पैसा तथा अन्य सामान आदि रखने की तकलीफ भी नहीं होगी, क्योंकि वे सब उठाकर ले जायेंगे। शूद्र और चाण्डालों को भी मन्दिरों से आने से क्यों रोकते हों ? भाई ! वे भी तुम्हारे कथनानुसार रूद्र परमात्मा के ही तो रूप हैं।

() नमस्ते हरसे शोचिषे नमस्तेऽअस्त्वर्चिषे।

(यजु० १७।११)

() नमस्ते यातुधानेभ्यो नमस्ते भेषजेभ्यः मृत्यो मूलेभ्यो ब्राहाणेभ्य इद नमः

(अथर्व० ६।१४।३)

नमस्ते लाङलेभ्यो                                                                                            (अथर्व० २।९।४)

() नमस्ते राजन्                                                                                                     (अथर्व० २।१०।२)

() नमस्ते अग्न ओजसे

सामवेद प०१, अथ् प०१, द०२, मं०१।।

इन सब स्थानों में ’ नमस्ते शब्द का प्रयोग है।

() नमोमहद्भ्यो नमो अर्भकेम्यो नमो युवभ्यो नमो आशिनेभ्यः।

(ऋग्०   १। २७। १३)

यहाँ पर क्रमशः बड़े , छोटे, जवान तथा बूढ़े सब के लिए नमस्ते किया गया है। अर्भक शब्द का अर्थ है छोटा। यास्क मुनि निरूक्त ३।४।२० में लिखते है- ’दभ्रमर्भकमित्यल्पस्य’ अर्थात् ’दभ्र’और ’अभ्रक’शब्द थोड़े या छोटे के अर्थ में आते हैं।

(९) शतपथ ब्राह्मण में आता है कि गार्गी अपने पति याज्ञवल्क्य को नमस्ते करती है।

सा होवाचनमस्ते याज्ञवल्क्य।

(१०) याज्ञवल्क्य यद्यपि ऋषि थे, वे पदवी में अपने से छोटे राजा जनक को नमस्ते करते हैं –

होवाचजनको वैदेहोनमस्ते (शतपथ)

(११) महर्षि ’यम’ जो कि नचिकेता के आचार्य होने के कारण अपने शिष्य से बडे थे, अपने शिष्य नचिकेता को नमस्ते कहते हैं-

नमस्तेऽस्तु ब्रहा्न् स्वस्ति तेऽस्तु।

(कठोपनिषद् व० १ कं० ९)

(१२) गीता में अर्जुन ने कृष्ण को नमस्ते किया-

नमो नमस्तेऽस्तु सहस्त्रकृत्वः , पुनष्च भूयोऽपि नमो नमस्ते।

नमःपुरस्तादथ पृष्ठतस्ते, नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।।

गीता १।३९।४०

(१३) पौराणिक काल के भवभूति नाम के महाकवि लिखित ग्रन्थ उत्तररामचरित में राम ने सीता को नमस्ते किया है –

भगवति ! नमस्ते (उत्तररामचरित)

(१४) आइए, अब हम पुराणों को टटोलें कि उन में भी कहाँ – कहाँ नमस्ते शब्द का प्रयोग है।

                देवदेव जगन्नाथ , नमस्ते भुवनेश्वर।

                जीवच्छाद्धं महादेव, प्रसादेन विनिर्मितम् ।।

(लिंग पु० ३। २७। ७)

हे सम्पूर्ण संसार के स्वामी महादेव ! कृपापूर्वक तुम ने जीवित श्रद्धा का निर्माण किया है। इसलिए तुम्हें नमस्ते हो।

(१५) पृथ्वी वराहरूपधारी भगवान् की स्तुति करती हुई बोली-

शेषपर्यड़क्शयने, धृतवक्षःस्थ्लश्रिये ।

नमस्ते सर्वदेवेश, नमस्ते मोक्षकारिणे।।

(वाराह पु० १। २१)

शेषनागरूपी शय्या पर छाती पर लक्ष्मी को धारण करने वाले भगवान् को नमस्ते हो, मोक्षदायक भगवान् को नमस्ते हो।

(१६) वराह पृथ्वी से बोला –

नमोऽस्तु विष्णवे नित्यं, नमस्ते पीतवाससे।

      नमस्ते चाघरूपाय, नमस्ते जलरूपिणे।।

(वाराह पु० ११। ११)

पीतवस्त्रधारी विष्णु को नित्य नमस्ते हो, पापरूप विष्णु को नमस्ते हो, जलरूप विष्णु को नित्य नमस्ते हो।।

नमस्ते सर्वसंस्थाय, नमस्ते जलशायिने

 नमस्ते क्षितिरूपाय, नमस्ते तैजसात्मने।।

(वाराह पु० ११। १२)

सर्वव्यापक, जल में सोने वाले, पृथ्वीरूप तथा तेजः स्वरूप विष्णु को नित्य नमस्ते हो।

(१७) केतकी का फूल जड़ होता हुआ भी महादेव को नमस्ते करता है-

नमस्ते नाथ मे जन्म , निष्फलं भवदाज्ञया।

(शिव पु० विधेश्वर सं० अ० ८, श्लोक १७)

हे नाथ ! मेरा जन्म आपकी आज्ञा से निष्फल हो गया। मैं आपको नमस्ते करता हूँ । यहाँ नमस्ते शब्द में कहीं कुछ व्यंग्य तो नहीं!

(१८) ब्रह्मा तथा विष्णु महादेव को नमस्ते करते हैं –

नम: सकलनाथाय, नमस्ते सकलात्मने ।।२८ ।।

(शिव पु० विधेश्वर सं० १, अध्याय १०)

सब के नाथ तथा सब के आत्मा शिव के लिए नमस्ते हो।

(१९) पौराणिकों के यहाँ। स्त्री तथा शूद्र अच्छी दृष्टि से नहीं देखे जाते।’ स्त्रीशूद्रौ नाधीयाताम्ंइत्यादि मनगढ़न्त वाक्यों के प्रमाण से वे स्त्री तथा शूद्र को पढ़ने का अधिकार तक नहीं देते । अतः प्रतीत ऐसा होता है कि हमारे पौराणिक भाई, स्त्री तथा शूद्र को नीच समझते हैं। परन्तु पुराणों में तो उन स्त्री और शूद्रों के लिए भी नमः शब्द का प्रयोग है-

द्धिजानाञ्च नमः पूर्वमन्येषाञ्च नमोऽन्तकम्।

स्त्रीणां क्वचिदिच्छन्ति, नमोऽन्तं यथाविधि ।।

(शिव पु०विधेश्वर सं० १। अ० ११। श्लो० ४२)

द्धिजों के लिए पूर्व नमः शब्द का प्रयोग करना चाहिए तथा अन्यों के लिए अन्त में नमः शब्द प्रयुक्त होना चाहिए और स्त्रियों के लिए भी यथाविधि कहीं नमः शब्द का अन्त में प्रयोग करते हैं। (कहीं पूर्व भी)

परिणामतः पौराणिकों का यह कहना कि नीचों के लिए नमस्ते नहीं होता, ठीक नहीं।

(२०) दक्ष अपनी पुत्री सतीको नमस्ते करता है-

वीरिणीसम्भवां दृष्ट्वा, दक्षस्तां जगदम्बिकाम्

नमस्कृत्य करौ बद्ध्वा, बहु तुष्टाव भक्तितः ।। २७।।

(शिव पु० रूद्र० सं० २ सती खं० अध्याय १४)

दक्ष ने अपने स्त्री वीरिणी से उत्पन्न जगत् की माता सती को देखकर दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते करके भक्ति से उसकी स्तुति की ।

पौराणिक भाई अब इसका उत्तर दें कि यदि पिता अपनी पुत्री को नमस्कार या नमस्ते करके सत्कार करे तो उसका क्या मतलब होता है ? क्या यह अपने से छोटे को नमस्ते करने का प्रमाण नहीं है ?

(२१) मनुस्मृति में एक वाक्य आता है कि –

क्षत्रियाद् विप्रकन्यायां, सूतो भवति जातितः।

(मनु० १०।११)

अर्थात् एक ब्राह्मण की लड़की में क्षत्रिय के द्धारा जो सन्तान पैदा हो उसे सूत कहते हैं। इस वाक्य के प्रमाण से हमारे पौराणिक – धर्मी भइयों के सिद्धान्त में सूत एक वर्णसंकर शूद्र होता है। परन्तु पुराण के अध्ययन से पता चलता है कि सूत नामवाले वर्ण संकर शूद्र को भी ऋषियों ने नमस्ते किया। ऋषि बोले –

सूतसूत महाभाग, व्यासशिष्य नमोऽस्तु ते

तदेव व्यासतो ब्रूहि, भस्ममाहात्म्यमुत्तमम् ।।१।।

(शिव पु० विधेश्वर सं० १ अध्याय २३)

हे सौभाग्य युक्त ! व्यास के शिष्य सूत ! हम आपको नमस्ते करते है। आप व्यास से पढ़ा हुआ भस्म का महात्म्य हमें सुनाइए।।

क्या यहाँ बड़े ने छोटे को नमस्ते नहीं किया ? एक और भी बात यहाँ प्रसडक्वशात् लिख देनी आवश्यक है और वह यह कि पुराणों के अनुसार इन सूत जी ने जो कि शूद्र से भी पतित है। पुराणों को गा – गाकर सुनाया है । मालूम होता है कि पुराण अवश्यमेव शूद्र के ही लिए हैं । इसीलिए भागवत में आया है कि –

स्त्रीशूद्रद्धिजबन्धूनां , त्रयी श्रुतिगोचरा।

कर्मश्रेयसि मूढानां, श्रेय एवं भवेदिह ।। २५।।

इति भारमाख्यानं, कृपया मुनिना मृतम् ।। २५।।

(भागवत स्कं० १ अध्याय ४)

अर्थात स्त्री, शूद्र तथा जो पतित द्धिज हैं वे वेदाध्ययन नहीं कर सकते इसलिए उनके लिए मुनि ने महाभारत की रचना की जिससे कि वे भी अपना कर्तव्याकर्तव्य निश्चय कर सकें।

(२२) विष्णु का दधीचि को नमस्ते –

बिभेमीति सकृद् वक्तुमर्हसि त्वं नमस्तव ।।१२।।

जगाम निकटं तस्य, प्रणनाम मुनिं हरिः ।।४३।।

(शिव पू० रूद्र० सं० २। सती खं० २। अ० ३९)

विष्णु ने दधीचि से कहा – मैं एक बार कहने में डरता हूँ। तुम पूजा के योग्य हो। मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। तब विष्णु जी उस दधीचि के समीप गए और उसको भी प्रणाम किया।

(२३) ब्रह्म ने अपने पुत्र को नमस्ते किया-

ब्रह्मोवाच-

नमस्ते भगवन् यद्र, भास्कारामिततेजसे ।। ४१।।

भगवन् भूतभव्येश, मम पूत्र महेश्वर

सृष्टिहेतोस्त्वमुत्पन्नो, ममाङेऽनङनाशनः।। ४५।।

(शिव पु० वायु सं० ७। खं० 1। अ० १२)

ब्रह्मा बोले – सूर्य के समान महातेजस्वी भगवान् यद्र के लिए नमस्ते हो ।। ४१ ।। हे भगवन् ! हे भूत, भविष्य तथा वर्तमान के अधिपति मेरे पुत्र महेश्वर ! हे कामनाशक ! तुम मेरे शरीर से सृष्टि के निमित्त उत्पन्न हुए हो ।। ४५ ।।

ऐसे स्थल पर हमारे पौराणिक भाई कहा करते हैं कि यहाँ वस्तुतः पिता अपने पुत्र को नमस्ते नहीं करता। यहाँ परमेश्वर स्वयं ही पुत्र रूप में प्रकट हुए हैं , अतः नमस्ते परमेश्वर को ही है।

मेरा निवेदन यह है कि पौराणिकसम्मत वेदान्त के अनुसार तो सारा संसार ही ब्रह्मरूप है लौकिक माता, पिता तथा पुत्रादि सभी सम्बन्धी भी ब्रह्मरूप ही हैं। अतः यदि वे परस्पर नमस्ते करें तो क्या दोष ? तब भी तो आप के कथनानुसार ब्रह्म ही ब्रह्म को नमस्ते करेगा।

(२४) शिव ने अपनी स्त्री पार्वती को नमस्ते किया –

तथा प्रणयभङेन , भीतो भूतपतिः स्वयम्।

पादयोः प्रणमन्नेव, भवानीं प्रत्यभाषत ।। ४० ।।

(शिव पु० वायवीय० सं० ७।खं १। अध्याय २४)

तथा स्वयं शिव ने प्रीतिभंग से भयभीत होकर पार्वती के चरणों में नमस्ते करके उत्तर दिया।

(२५) ब्रह्म ने अपनी पत्नी सावित्री के चरणों में गिरकर नमस्ते किया-

चापराधं भूयोऽन्यं, करिष्ये तव सुव्रते !

पादयोः पतितस्तेऽहं, क्षम देवि नमोऽस्तु ते ।।१५०।।

 (पझ० पु० सृ० खं० अ० १७)

ब्रह्म बोले – हे सुवते देवि ! मैं तुम्हारे पेरों पर गिरा हूँ । क्षमा करो । मैं फिर तुम्हारे अपराध नहीं करूँगा । तुम्हें नमस्ते हो।

इन उपर के दो श्लोकों में तो पति अपनी स्त्रियों के पैरों पर गिरकर नमस्ते कर रहे हैं यह अपनी स्त्री के चरणों में गिरकर नमस्ते करना तो वेदविरूद्ध पौराणिक लीला है। परन्तु पति – पत्नी का परस्पर प्रेम से सत्कारार्थ नमस्ते करना आर्य समाज का वैदिक सिद्धान्त है।

इस नमस्ते के लिए प्रमाण बहुत अधिक हैं। अतः लेख की काया कढ़ने के भय से मैं केवल प्रमाण देता चला जाऊॅंगा। जहाँ आवश्यक होगा वहाँ अर्थ भी कर दिया जायेगा-

(२६) वासना वासुदेवस्य वासितं भुवनत्रयम्

सर्वभूतनिवासानां वासुदेव नमोऽस्तु ते ।। ३४ ।।

 (विष्णु सहस्त्रनाम)

वसुदेव को नमस्ते किया गया है।

(२७) नमस्ते भगवन् रूद्र देवानां पतये नमः

   सर्वोपासितरूपाय सुरासुरपतये नमः।।

(पार्थिव पूजन)

यहाँ सुरासुर पति रूद्र को नमस्ते किया गया है।

(२८) गोविन्द  नमो नमस्ते      

हे गोविन्द  ! तुम्हें नमस्ते हो ।

(२९) या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संसिथता

            नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ।।

नमस्ते शरण्ये शिवे सानुकम्पे,

                                नमस्ते जगद्व्यापिके चित्स्वरूपे।

   नमस्ते सदानन्दरूपे नमस्ते,

                                जगत्तारिणी त्राहि दुर्गे नमस्ते ।।

(देवी भागवत)

इन उपरिलिखित श्लोकों में जगद्रक्षिका दुर्गा को नमस्ते किया गया है।

(३०) नमस्ते भगवन् भूयो, देहि मे मोक्ष शाश्वतम्

 (सारस्व सूत्र २५८)

हे भगवान ! तुम्हें बार- बार नमस्ते हो। तुम मुझे मुक्ति दो।

(३१) नमस्ते वाङ्मनोतीतरूपाय

 (सत्यनारायण)

वाणी तथा मन के अगोचर प्रभु को नमस्ते हो।

(३२) इसी प्रकार दुर्गापाठ के पञ्चम अध्याय के श्लोक १६ से लेकर ७९ तक अनेक स्थलों पर नमस्ते शब्द आया है।

(३३) जगदादिरनादिस्त्वं, नमस्ते स्वात्मवेदिने

(शिव पु० उत्तर खं० अध्याय १४ श्लो० २८)

हे प्रभो ! तुम जगत् के आदि कारण ओर स्वयम् अनादि हो, तुम्हें नमस्ते हो।

(३४) श्रीमद्गवत में श्रीकृष्ण ने उत्तम ब्राह्मणों को नमस्ते किया है-

विप्रान् स्वालाभसन्तुष्टान्, साधून् भूतसुहत्तमान्।

निरहङकारिणः शान्तान्ः शान्तान् नमस्ते शिरसाऽसकृद्।।

ऐसे विप्रों को बार – बार नमस्ते हो, जब सब मित्र अहंकारशून्य शान्ति तथा लाभ न होने पर भी सन्तोष करने वाले हैं।

(३५) बृहदारण्यकोपनिषद् में आया है कि राजा जनक ने अपने आसन से उठकर मुनि याज्ञवल्क्य को नमस्ते किया –

जनकोऽहं वैदेहः कूर्चादुपापसर्पन्नुवाच नमस्ते।

(३६) वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग ५० श्लोक १७ में विश्वामित्र ने ’नमस्तेऽस्तु’ आपको मेरा नमस्ते हो, ऐसा कहकर वसिष्ठ से विदा ली थी।

(३७) सीता जङग्ल में विराध नाम के राक्षस को नमस्ते करती है-

मां वृका भझयिष्यन्ति, शार्दूला दीपिनस्तथा

मां हरोत्सृज्य काकुत्स्थौ नमस्ते राक्षसोत्तम ।।

(वाल्मीकि रामायण काण्ड २। सर्ग २। श्लोक १३)

(३८) अथर्ववेद में स्त्री जाति के लिए नमस्ते का प्रयोग है –

नमस्ते जायमानायै, जाताया उत ते नमः

 (अथर्ववेद १०।१०।१)

नमस्ते शब्द का व्यवहार अथर्ववेद तथा अन्य वेदों के अन्दर बहुत अधिक है। विज्ञ पाठक स्वयं भी देख सकते है।

इस प्रकार हम ने नमस्ते शब्द का व्यवहार संक्षेप रूप से वेद, ब्राह्मण, उपनिषद्, गीता, रामायण तथा पुराणादि सभी ग्रन्थों में दिखा दिया है। मैं समझता हूँ कि इतने विवेचन से हमारे पण्डितम्मन्य पौराणिक भाइयों की आँखें अवश्य खुल गई होंगी ।

पू० नमस्ते इस शब्द में दो विभाग हैं- नमः – ते । वास्तव में यहाँ था – नमः – तुभ्यम् । परन्तु यह याद रखना चाहिए कि तुभ्यम् के स्थान पर ते आदेश पद्य (श्लोकादि) में ही होता है, गद्य अर्थात् सीधी बोलचाल की भाषा में नही होता है। । अतः व्याकरण की दृष्टि से आर्यसमाजियों का बोलचाल की भाषा में नमस्ते शब्द का प्रयोग अशुद्ध है। तभी तो भट्टोजी दीक्षित ने सिद्धान्तकौमुद्री मे तुभ्यम् के सथान पर ते आदेश होने का जो प्रमाण दिया है, वह श्लोक में दिखाकर दिया है। यथा-

श्रीस्त्वावतु मापीह, दत्तात्ते मेऽपि शर्म सः।

स्वामी ते मेऽपि हरिः पातु वामपि नौ हरिः ?।।१।।

सि० पौराणिक भाई की यह शंका व्यर्थ है। यदि वह सिद्धान्तकौमुदी का ठीक तरह से मनन करे तो उसे ऐसी बात कहने की हिम्मत ही न पड़े । आगे चलकर कौमुदीकार ने एक वार्तिक लिखा है –

समानवाक्ये निघातयुष्मदस्मदादेशा वक्तव्याः

इस वार्तिक के अनुसार एक ही वाक्य में, (भिन्न वाक्य में नहीं) हम तुभ्यम् के स्थान पर ते आदेश कर सकते है। इसमें यह आग्रह हठ नहीं है कि वह किसी पद्य में ही आया है। इसीलिए भट्टोजी दीक्षित ने आगे जो ते आदेश होने का दृष्टान्त दिया है वह पद्य का नहीं है अपितु गद्य अर्थात् सीधी बोलचाल की भाषा का है। यथा – शालीनं ते ओदनं वास्यामि।

यहाँ यह गद्य वाक्य है। अगले –

ʿʿ एते वां नावादया आदेशा अनन्वादेशे वा वक्तव्या ’’

इस वार्तिक को पढ़ने से यह बात ओर भी स्पष्ट हो जाती है , कि जब हम देखते हैं कि इस वार्तिक का प्रत्युदाहरण भट्टोजी दीक्षित ने गद्य में ही दिया है-

ʿतस्मै ते नमः

परिणमतः हम यह दावे से कह सकते हैं कि नमस्ते शब्द ठीक है, प्रामाणिक है तथा इसी का बोलचाल की भाषा में प्रयोग होना चाहिए।

पू० नमस्ते शब्द को दो टुकड़ों में बाँटा जाता है। नमः, ते । ते शब्द तुभ्यम् के स्थान पर आदेश होता है। परन्तु विचारणीय बात यहाँ पर यह है कि तुभ्यम् शब्द युष्मद् शब्द की चतुर्थी विभक्ति के एक वचन का रूप है। इसका अर्थ है तेरे लिए । ऐसी अवस्था में यह कैसा असभ्य व्यवहार होगा कि पुत्र अपने पिता को यह कहे कि तेरे लिए नमः हो ? आदर के लिए उसको कहना तो यह चाहिए था कि आपके लिए नमः हो । अतः समझ में यही आता है कि आर्यसमाज में नमस्ते शब्द का व्यवहार अनुपयुक्त है।

सि० यह कोई आवश्यक नहीं कि ते एकवचन का रूप प्रयोग करने से बड़ों का अनादर होता है। यह तो केवल प्रत्येक भाषा का अपना – अपना तरीका होता है। अंग्रेजी में ’ही’इस एक – वचन के रूप का अर्थ है वह । परन्तु इसका प्रयोग छोटे – बडें सब के लिए समान रूप से होता है। यदि कोई छोटा पुरूष बड़े के लिए ही इस एकवचनान्त शब्द का व्यवहार करता है, तो इसमें बड़ा व्यक्ति अपना अपमान नहीं समझता, क्योंकि यह उसकी भाषा के व्यवहार का तरीका है। परन्तु हाँ, यदि हम नमस्ते शब्द में ते शब्द का हिन्दी अनुवाद करके किसी महापुरूष से कहें कि तेरे लिए नमः तो यह एक अपमानसूचक प्रयोग होगा , क्योकि इस हिन्दी के व्यवहार का यही भाव समझा जाता है। थोड़ी देर के लिए यदि हम मान भी लें कि ते शब्द अपमानसूचक है, तो पौराणिक भाइयों से पूछा जा सकता है कि पूर्व दिये हुए पुराणों के उदाहरण में परमात्मा के लिए , अपने – अपने पिता के लिए , गुरूओं के लिए , ऋषियों के लिए तथा अपने अन्य पूज्यों के लिए, एकवचन के ते शब्द का प्रयोग क्यों किया गया है? क्या वहाँ अपमानसूचित नहीं होता ? दिवचन का प्रयोग तो एक के लिए हो ही नहीं सकता । शेष रह गया बहुवचन का प्रयोग । अब यदि ते के स्थान पर बहुवचन वः शब्द प्रयुक्त कर देते तो हमारे पौराणिक भाई यह प्रश्न कर बैठते , कि छोटों को नमः करते समय बहुवचनान्त शब्द के प्रयोग की क्या आवश्यकता ? बहुत हद तक यह उनका प्रश्न ठीक भी होता । इन आपत्तियों से बचने के लिए वैदिक साहित्यज्ञों ने ते एक वचनान्त शब्द का सब के लिए प्रयोग करना उचित समझा और यह युक्तियुक्त भी है।

हमारे पौराणिक धर्मियों के तो पुराण उनके विश्वास के अनुसार वेद हैं । जैसा कि भागवत में आया है-

ऋग्यजुः सामाथर्वाख्या, वेदाश्चत्वार उद्धृताः।

इतिहासपुराणं , पञ्चमो वेद उच्यते।।२०।।

 (भागवत स्कं० १। अ० ४२०)

इतिहासपुराणानि पञ्चमं वेदमीश्वरः।

सर्वेभ्य एव वक्त्रेभ्यः ससृजेसर्वदर्शनः ।।३९।।

(भागवत स्कं० ३।अ० १२३९)

इन दोनों श्लोकों के अनुसार पुराणों को पाँचवाँ वेद माना गया है । इन पौराणिकों के वेद में से भी हम ने अच्छी तरह दिखा दिया है कि छोटे – बड़े सब के लिए ’ नमस्ते ’ उपयुक्त है। सच्चे वेदों (ऋग्, यजु ,साम और अथर्व) में से भी ‘नमस्ते’ की प्रामाणिकता को सिद्ध कर दिया गया है। अतः हे आर्य भाइयों ! आओ, हम एक – दूसरे में अनेकता तथा विद्वेष फैलानेवाले ’सीताराम’ तथा ’ राधेश्याम’ आदि असम्बद्ध शब्दों का परित्याग करके परस्पर के सत्कार एवम् आशीर्वाद के लिए वैदिक ’नमस्ते ’ को ही अपनायें और परस्पर नमस्ते करके एकता के सूत्र में बॅंध जायें। आप भी परस्पर नमस्ते कीजिए और मैं भी आपसे सादर नमस्ते करके विदा होता हॅूं।

नमस्ते वासुदेवाय नमः सङक्र्षणाय

प्रद्युम्नायःनिरूद्धाय तुभ्यं भगवते नमः।।

नारायणाय ऋषये पुरूषाय महान्मने।

विश्वेश्वराय विश्वाय सर्वभूतात्मने नमः।।

भागवत ५।अध्याय ११। स्कन्ध २९-३०

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‘महर्षि दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानन्द और गुरूकुल प्रणाली’-मनमोहन कुमार आर्य

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ओ३म्

महर्षि दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानन्द और गुरूकुल प्रणाली

महर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) आर्य समाज के संस्थापक हैं। आर्य समाज की स्थापना 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई के काकडवाड़ी स्थान पर हुई थी। इसी स्थान पर संसार का सबसे पुराना आर्य समाज आज भी स्थित है। आर्य समाज की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य वेदों का प्रचार व प्रसार था तथा साथ ही वेद पर आधारित धार्मिक तथा सामाजिक क्रान्ति करना भी था जिसमें आर्य समाज आंशिक रूप से सफल हुआ है। चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद सभी सत्य विद्याओं के ग्रन्थ हैं। यह वेद सृष्टि के आरम्भ में सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सृष्टिकर्ता, सर्वान्तर्यामी परमेश्वर से अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न प्रथम चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को उनके अन्तःकरण में सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर की प्रेरणा द्वारा प्राप्त हुए थे। आजकल गुरू अपने शिष्यों को ज्ञान देता है और पहले से भी यही परम्परा चल रही है। वह बोल कर, व्याख्यान व उपदेश द्वारा ज्ञान देते हैं। ज्ञान प्राप्ति का दूसरा तरीका पुस्तकों का अध्ययन है। सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने ऋषियों वा मनुष्यों को ज्ञान देना था। ईश्वर अन्तरर्यामी है अर्थात् वह हमारी आत्माओं के भीतर भी सदा-सर्वदा उपस्थित रहता है। अतः वह अपना ज्ञान आत्मा के भीतर प्ररेणा द्वारा प्रदान करता है। यह ऐसा ही है जैसे गुरू का अपने शिष्य को बोलकर उपदेश करना। गुरू की आत्मा में जो विचार आता है वह उन विचारों को अपनी वाणी को प्रेरित करता है जिससे वह बोल उठती है। शिष्य के कर्ण उसका श्रवण करके उस वाणी को अपनी आत्मा तक पहुंचाते हैं। इस उदाहरण में गुरू का आत्मा और शिष्य की आत्मायें एक दूसरे से पृथक व दूर हैं अतः उन्हें बोलना व सुनना पड़ता है। परन्तु ईश्वर हमारे बाहर भी है और भीतर भी है। अतः उसे हमें कुछ बताने के लिए बोलने की आवश्यकता नहीं है। वह जीवात्मा के अन्तःकरण में प्रेरणा द्वारा अपनी बात हमें कह देता है और हमें उसकी पूरी यथार्थ अनुभूति हो जाती है। इसी प्रकार से ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को ज्ञान दिया था।

 

वर्तमान सृष्टि में वेदोत्पत्ति की घटना को 1,96,08,53,114 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। इस लम्बी अवधि में वेद की भाषा संस्कृत से अनेकों भाषाओं की उत्पत्ति हो चुकी है। वर्तमान में संस्कृत का प्रचार न होने से यह भाषा कुछ लोगों तक सीमित हो गई। इसके विकारों से बनी भाषायें हिन्दी व अंग्रेजी व कुछ अन्य भाषायें हमारे देश व समाज में प्रचलित हैं। संस्कृत का अध्ययन कर वेदों के अर्थों को जाना जा सकता है। दूसरा उपाय महर्षि दयानन्द एवं उनके अनुयायी आर्य विद्वानों के हिन्दी व अंग्रेजी भाषा में वेद भाष्यों का अध्ययन कर भी वेदों का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। ईश्वर से वेदों की उत्पत्ति होने, संसार की प्राचीनतम पुस्तक होने, सब सत्य विद्याओं से युक्त होने, इनमें ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य स्वरूप का यथार्थ वर्णन होने आदि कारणों से वेद आज व हर समय प्रासंगिक है। इस कारण वेदों का अध्ययन व अध्यापन सभी जागरूक, बुद्धिमान व विवेकी लोगों को करना परमावश्यक है अन्यथा वह इससे होने वाले लाभों से वंचित रहेंगे। वेदों से दूर जाने अर्थात् वेद ज्ञान का अध्ययन व अध्यापन बन्द होने के कारण संसार में अज्ञान व अन्धविश्वास उत्पन्न हुए जिससे हमारे देश व मनुष्यों का पतन हुआ और हम गुलामी व अनेक दुःखों से ग्रसित हुए। महर्षि दयानन्द ने संसार में सत्य ज्ञान वेदों का प्रकाश करने और प्राणी मात्र के हित के लिए वेदों का प्रचार व प्रसार किया और वेदों का पढ़ना-पढ़ाना व सुनना-सुनाना सभी मनुष्यों जिन्हें उन्होंनंे आर्य नाम से सम्बोधित किया, उनका परम धर्म घोषित किया।

 

अब विचार करना है कि वेदों का ज्ञान किस प्रकार से प्राप्त किया जाये। इसका उत्तर है कि जिज्ञासु या विद्यार्थी को वेदों के ज्ञानी गुरू की शरण में जाना होगा। वह बालक को अपने साथ तब तक रखेगा जब तक की शिष्य वेदादि शास्त्रों की शिक्षा पूरी न कर ले। हम जानते हैं कि जब बच्चा जन्म लेता है तो उस समय वह अध्ययन करने के लिए उपयुक्त नहीं होता। लगभग 5 वर्ष की आयु व उसके कुछ समय बाद तक वह माता-पिता से पृथक रहकर ज्ञान प्राप्त करने के लिए योग्य होता है। ऐसे बालकों को उनके माता-पिता किसी निकटवर्ती गुरू के आश्रम में ले जाकर उस गुरू द्वारा बच्चों का प्रारम्भिक अध्ययन से आरम्भ कर सांगोपांग वेदों का अध्ययन करा सकते हैं। उस स्थान पर जहां बालक-बालिकाओं को वेदों का अध्ययन व अध्यापन कराया जाता है गुरूकुल कहा जाता हैं। यह गुरूकुल कहां हों, इनका स्वरूप व अध्ययन के विषय आदि क्या हों इस पर विचार करते हैं। अध्ययन करने का स्थान माता-पिता व पारिवारिक जनों से दूर होना चाहिये जहां शिष्य अपने गुरू के सान्निध्य में रह कर निर्विघ्न अपनी शारीरिक व बौद्धिक उन्नति करने के साथ अपने श्रम व तप के द्वारा गुरू की सेवा कर सके। अध्ययन करने का स्थान वा शिक्षा का केन्द्र गुरूकुल किसी शान्त वातावरण में जहां वन, पर्वत व नदी अथवा सरोवर आदि हों, होना चाहियेे। गुरू, शिष्यों व भृत्यों के आवास के लिये कुटियायें आदि उपलब्ध हों। एक गोशाला हों जिसमें गुरूकुल वासियों की आवश्यकता के अनुसार दुग्ध उपलब्ध हो। यदि अन्न आदि पदार्थों की भी व्यवस्था हों, तो अच्छा है अन्यथा फिर भिक्षा हेतु निकट के ग्राम व नगरों में जाना होगा। वर्तमान परिस्थिति के अनुसार भोजन वस्त्र आदि की भी सुव्यवस्था होनी चाहिये और पुस्तकें व अन्य आवश्यक सामग्री भी उपलब्ध होनी चाहिये। यह सब सुव्यवस्था होने पर गुरूजी को पढ़ाना है व बच्चों को पढ़ना है। वेदों का ज्ञान शब्दमय होने से शब्द का ज्ञान शिष्य को गुरू से करना होता है। वेदों के शब्द रूढ़ नहीं हैं। वह सभी धातुज या यौगिक हैं। अतः घातु एवं यौगिक शब्दों के ज्ञान में सहायक पुस्तक व ग्रन्थों का होना आवश्यक है। सम्भवतः यह ग्रन्थ वर्णमाला, अष्टाध्यायी, धातु पाठ, महाभाष्य, निधण्टु व निरूक्त आदि ग्रन्थ होते हैं। गुरूजी को क्रमशः इनका व वेदार्थ में सहायक अन्य व्याकरण ग्रन्थों व शब्द कोषों का ज्ञान कराना है। गुरूकुल में अध्ययन पर कुछ आगे विचार करते हैं। हम जानते हैं कि हम वर्तमान में रहते हैं। बीता हुआ समय भूतकाल और आने वाला भविष्य काल कहलाता है। जब हम भाषा का प्रयोग करते हैं तो क्रिया पद को यथावश्यकता भूत, वर्तमान व भविष्य का ध्यान करते हुए तदानुसार संज्ञा, सर्वनाम आदि का प्रयोग करते हैं। यह व्याकरण शास्त्र के अन्तर्गत आते हैं। अतः गुरूकुल में गुरूजी को शिष्य को पहले वर्णमाला व व्याकरण शास्त्र का ज्ञान कराना होता है।  व्याकरण शास्त्र का ज्ञान हो जाने के बाद गुरूजी से प्रकीर्ण विषयों को जानकर वेद के ज्ञान में सहायक इतर अंग व उपांग ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं और उसके बाद वेदों का अध्ययन करने पर विद्या पूरी हो जाती है। विद्या पूरी होने पर शिष्य स्नातक हो जाता है। अब वह घर पर रहकर स्वाध्याय आदि करते हुए कृषि, चिकित्सा, ग्रन्थ लेखन, आचार्य व उपदेशक, पुरोहित, सैनिक, राजकर्मी, वैज्ञानिक, उद्योगकर्मी आदि विभिन्न रूपों में सेवा करके अपना जीवनयापन कर सकता है। वेद, वैदिक साहित्य एवं वेद व्याकरण का अध्ययन करने के बाद स्नातक अनेक भाषाओं को सीखकर तथा आधुनिक विज्ञान व गणित आदि विषयों का अध्ययन कर जीवन का प्रत्येक कार्य करने में समर्थ हो सकता है। यह कार्य उसको करने भी चाहिये। हम ऐसे लोगों को जानते हैं जिन्होंने गुरूकुल में अध्ययन किया और बाद में वह आईपीएस, आईएएस आदि भी बने। विश्वविद्यालय के कुलपति, कुलसचित, संस्कृत अकादमियों के निदेशक, सफल उद्योगपति आदि बने, अनेक सांसद भी बने। स्वामी रामदेव और आचार्य बालकृष्ण भी आर्य गुरूकुलों की देन हैं। अतः वेदों का अध्ययन कर भी जीवन में सर्वांगीण उन्नति हो सकती है, यह अनेक प्रमाणों से सिद्ध है। यह उन लोगों के लिए अच्छा उदाहरण हो सकता है जो अपने बच्चों को धनोपार्जन कराने की दृष्टि से महंगी पाश्चात्य मूल्य प्रधान शिक्षा दिलाते हैं और बाद में आधुनिक शिक्षा में दीक्षित सन्तानें अपने माता-पिता आदि परिवारजनों की उपेक्षा व कर्तव्यहीता करते दिखाई देते हैं।

 

प्राचीनकाल में गुरूकुल वैदिक शिक्षा के केन्द्र हुआ करते थे जो महाभारत काल के बाद व्यवस्था के अभाव में धीरे धीरे निष्क्रिय हो कर समाप्त हो गये। स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में गुरूकुलीय शिक्षा पर विस्तार से प्रकाश डाला है। उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में स्कूलों में शिक्षा दी जाती थी। इसका उद्देश्य शासक वर्ग अंग्रेजों का भारत के बच्चों को अंग्रेजी के संस्कार देकर उन्हें गुप्त और लुप्त रूप से वैदिक संस्कारों से दूर करना और उन्हें अंग्रेजियत और ईसाईयत के संस्कारों व परम्पराओं के निकट लाना था। स्वामी दयानन्द ने अंग्रेजों की इस गुप्त योजना को समझा था और इसके विकल्प के रूप में गुरूकुलीय शिक्षा प्रणाली का अपने ग्रन्थों में विधान किया जिससे अंग्रेजी शिक्षा के खतरों का मुकाबला किया जा सके। स्वामी श्रद्धानन्द महर्षि दयानन्द सरस्वती के योग्यतम् अनुयायी थे। उन्होंने गुरूकुलीय शिक्षा के महत्व को समझा था और अपना जीवन अपने गुरू की भावना के अनुसार हरिद्वार के निकट एक ग्राम कांगड़ी में सन् 1902 में गुरूकुल की स्थापना में समर्पित किया और उसको सुचारू व सुव्यवस्थित संचालित करके दुनियां में एक उदाहरण प्रस्तुत किया। स्वामी श्रद्धानन्द का यह कार्य अपने युग का एक क्रान्तिकारी कदम था। उनके द्वारा स्थापित गुरूकुल ने आज एक विश्वविद्यालय का रूप ले लिया है। आज समय के साथ देशवासियों व आर्य समाजियों का भी वेदों के प्रति वह अनन्य प्रेमभाव दृष्टिगोचर नहीं होता जो हमें महर्षि दयानन्द के साहित्य को पढ़ कर प्राप्त होता है। यहां वेद भी अन्य भाषाओं व उनके साहित्य की ही तरह एक विषय बन कर रह गये हैं और प्रायः अपना महत्व खो बैठे हैं। इसका एक कारण समाज की अंग्रेजीयत तथा आत्मगौरव, स्वधर्म व स्वसंस्कृति के अभाव की मनोदशा है। संस्कृत व वेदों का अध्ययन करने से उतनी अर्थ प्राप्ति नहीं हो पाती जितनी की अन्य विषयों को पढ़ कर होती है। नित्य प्रति ऐसे अनेक लोग सम्पर्क में आते हैं जो संस्कृत पढ़े है और पढ़ा भी रहे हैं परन्तु उनका पारिवारिक व समाजिक जीवन सन्तोषजनक नहीं है। ऐसे लोगों को देखकर लोगों में संस्कृत के प्रति उत्साह में कमी का होना स्वाभाविक है।

 

हमारे आर्य समाज के विद्वानों व नेताओं को इस समस्या पर गम्भीरता से विचार करना चाहिये। सरकार व निजी प्रतिष्ठानों में आज हिन्दी, अंग्रेजी व क्षेत्रीय भाषाओं का महत्व है जहां संस्कृत प्रायः गौण, उपेक्षित व महत्वहीन है। वर्तमान में संस्कृत केवल धर्म संबंधी कर्मकाण्ड की भाषा बन कर रह गई है। समाज में इस मनोदशा को बदलकर संस्कृत के व्यापक उपयोग के मार्ग तलाशने होंगे। हमें लगता है कि संस्कृत पढ़े हमारे स्नताकों को हिन्दी व अंगेजी भाषा सहित आधुनिक ज्ञान, विज्ञान तथा गणित आदि विषयों का अध्ययन भी करना चाहिये जिससे वह सरकारी सेवा व अन्य व्यवसायों में अन्य अभ्यर्थियों के समान स्थान प्राप्त कर सकें जो सम्प्रति प्राप्त नहीं हो पा रहे हैं।  संस्कृत के भविष्य से जुड़े एक प्रसंग का उल्लेख करना भी यहां उचित होगा। कुछ सप्ताह पूर्व वैदिक साधन आश्रम तपोवन देहरादून में पाणिनी कन्या महाविद्यालय, वाराणसी की विदुषी आचार्या डा. नन्दिता शास्त्री ने कहा कि संस्कृत भाषियों की संख्या दिन प्रति घट रही है। विगत जनगणना में यह 15-20 हजार ही थी। यदि यह 10 हजार या इससे कम हो जाती है तो सरकार के द्वारा संस्कृत को मिलने वाली सभी सुविधायें व संरक्षण बन्द हो जायेंगे और यह दिन संस्कृत प्रेमियों के लिए अत्यन्त दुखद होगा। स्वामी श्रद्धानन्द के बाद स्वामी दयानन्द के अनुयायियों ने स्वामी श्रद्धानन्द का अनुकरण कर अनेक गुरूकुल खोले जिनकी संख्या वर्तमान में 500 से अधिक है। यदि यह सभी गुरूकुल सुव्यवस्थित रूप से चलायें जा सकें तो यह वैदिक धर्म की रक्षा और उसके प्रचार प्रसार का सबसे बड़ा साधन सिद्ध हो सकते हैं और भविष्य में भी होंगे। वेद, वैदिक साहित्य, धर्म, संस्कृत और संस्कृति की रक्षा व देश के भावी स्वरूप की दृष्टि से में इन गुरूकुलों की भूमिका महत्वपूर्ण हैं। इसका उन्नयन करना आर्य समाज का तो कार्य है ही साथ ही सरकार में वेदों को मानने वाले लोगों को वेदों की रक्षा व प्रचार के लिए प्रभावशाली योजनायें एवं कार्य करने चाहियें। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो ‘धर्मो एव हतो हन्ति’ की भांति धर्म रक्षा में प्रमाद करने से यह धर्म हमे ही मार देगा।

 

स्वामी श्रद्धानन्द आर्य समाज के प्रसिद्ध नेता थे। वह आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब तथा सार्वदेशिक सभा के भी प्रधान रहे। शुद्धि आन्दोलन के भी वह प्रमुख सूत्रधार रहे और सम्भवतः यही उनकी शहादत का कारण बना। स्वामी जी का देश की आजादी के आन्दोलन में भी महत्वपूर्ण योगदान था। समाज सुधार के क्षेत्र में उनकी उपलब्धियां अनेकों हैं। हम उनके जीवन को वेदों का मूर्त रूप देखते हैं जिसमें कहीं कोई कमी हमें दिखाई नहीं देती। काश कि महर्षि दयानन्द अधिक समय तक जीवित रहते तो श्रद्धानन्द उनके सर्वप्रिय शिष्य होते। आर्य समाज व महर्षि दयानन्द की भक्ति के लिए उन्होंने घर फूँक तमाशा देखा। उनका व्यक्तित्व आदर्श पिता, आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श समाज सुधारक, आदर्श नेता, आदर्श स्वतन्त्रता सेनानी, पत्रकार, साहित्यकार, लेखक, विद्वान, शिक्षा शास्त्री, धर्म गुरू, वेदभक्त, वेद सेवक, वेद पुत्र, ईश्वर पुत्र व ईश्वर के सन्देशवाहक का था। 23 दिसम्बर, 1926 को वह एक षडयन्त्र का शिकार होकर एक कातिल अब्दुल रसीद द्वारा शहीद कर दिये गये। हम समझते हैं कि उन्होंने अपने रक्त की साक्षी देकर वैदिक सिद्धान्तों व मान्यताओं की साक्षी दी है। हम उन्हें अपनी श्रद्धाजंलि प्रस्तुत करते हैं। जब तक सृष्टि पर मनुष्यादि प्राणी विद्यमान हैं, विवेकी देशवासी स्वामी श्रद्धानन्द जी के यश, कीर्ति, उनके कार्य और बलिदान को स्मरण कर उनसे प्रेरणा लेते रहेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

            देहरादून-248001

फोनः 09412985121

‘ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व के प्रमाण’ – मनमोहन कुमार आर्य

god and soul

ओ३म्

ईश्वर जीवात्मा के अस्तित्व के प्रमाण


 

बच्चा जब संसार में जन्म लेता है तो वह न तो अपनी भावना को बोल कर कह सकता है और न अपने आप उठ-बैठ सकता है, चलना फिरना तो उसका कई महीनों व एक वर्ष का हो जाने पर आरम्भ होता है। माता-पिता बच्चे को बोलना सिखाते हैं, उठना-बैठना व चलना-फिरना सिखाते हैं। इस परम्परा पर दृष्टि डाले तो हम सृष्टि के आरम्भ में पहुंच जाते हैं। हमारे आदि पूर्वजों के माता पिता नहीं थे। आदि का अर्थ ही प्रारम्भ की अवस्था है। वैदिक साहित्य इसका उत्तर देता है कि आदि सृष्टि में युवा स्त्री व पुरूष पैदा हुए थे। यह सृष्टि अमैथुनी सृष्टि थी जिसका अर्थ होता कि बिना माता-पिता की सृष्टि। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इन्हें फिर किसने जन्म दिया? इसका उत्तर है कि माता पिता के न होने से यह जन्म इस संसार को बनाने व चलाने वाले “ईश्वर” ने दिया था। अब हमारे नास्तिक बन्धु कहेंगे कि सिद्ध करो कि ईश्वर है? हम पूछते हैं कि हम मान लेते हैं कि ईश्वर नहीं है। नास्तिक बन्धु हमें बतायें और सिद्ध करें कि ईश्वर के न होने पर यह सूर्य, चन्द्र, तारे, पृथिवी, गृह व उपग्रह व प्राणिजगत आदि संसार कब, किससे व कैसे बना? कौन इसे चला रहा है? इसका उत्तर न ईश्वर को न मानने वालों के पास है और न वैज्ञानिकों के पास ही। इसका उत्तर न होना ही ईश्वर के होने का प्रमाण है क्योंकि ईश्वर के अतिरिक्त इसका कोई उत्तर है ही नहीं। कोई भी उत्पत्ति किसी न किसी उत्पत्तिकर्ता के द्वारा ही होती है। यदि उत्पत्तिकर्ता दिखाई न दें तो उसे ढूढंना चाहिये न कि उसके अस्तित्व से इनकार करना। हमारे सामने भी यह प्रश्न आया कि ईश्वर दिखाई तो देता नहीं फिर उसे क्यों माना जाये? हमने स्वयं से तर्क किया तो उत्तर मिला कि यदि रचना है तो उसका रचयिता होना आवश्यक है।

 

दूसरा प्रश्न कि यदि वह है तो दिखाई क्यों नहीं देता?  इसका उत्तर यह मिला कि अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ आंखों से दिखाई नहीं देते परन्तु उनका अस्तित्व होता है। आजकल माइक्रोस्कोप से ऐसे जीवाणु व सूक्ष्म कीट आदि तथा रक्त के सूक्ष्म कणों को देखा जाता है जिसको हमारी आंखे देखने में अपनी असमर्थता प्रकट करती है। अतः ईश्वर सूक्ष्म है इस सम्भावना का ज्ञान इन तर्कों से होता है। अब वह सत्ता संसार में रहती कहा हैं? इसका उत्तर भी तर्क से यह प्राप्त हुआ कि यह ब्रह्माण्ड अनन्त है। इसका न कोई ओर है न छोर। ब्रह्माण्ड में अनेक सूर्य व सौर्य मण्डल होने और इनकी संख्या अनन्त होने के प्रमाण हमारे वैज्ञानिकों ने अपनी बहुत ही आधुनिक दूरबीनों की सहायता व विवेचन से प्राप्त किये हैं। रचना जहां होती है वहां रचयिता का होना आवश्यक होता है। इस जानकारी पर तर्क करने से सिद्ध हुआ कि ईश्वर सर्वव्यापक, निराकार, सर्वदेशी, सर्वातिसूक्ष्म व सर्वान्तर्यामी है। अब इस प्रश्न पर विचार किया गया कि ईश्वर यदि है तो वह उत्पन्न कैसे हुआ, तर्क ने उत्तर दिया कि वह अनादि, अजन्मा और नित्य है। उत्पन्न सत्ता को उत्पत्तिकर्ता चाहिये और उत्पन्न सत्ता अमर या अविनाशी या नाशरहित नहीं हो सकती। यदि ईश्वर को उत्पत्तिधर्मा मानते हैं तो उसका नाश व मृत्यु भी माननी पड़ेगी, फिर एक अन्य उससे बड़े ईश्वर को मानना होगा जिसने उस ईश्वर को उत्पन्न किया था। और इस प्रकार से मानने से अनावस्था दोष आता है जिसका समाधान एक अनादि, अनुत्पन्न, अविनाशी, अनन्त अर्थात् जन्म व मृत्यु से रहित सत्ता को मानने से होता है। और विचार किया गया तो ज्ञात हुआ है कि वह सत्य, चेतन तत्व व आनन्द स्वरूपवान होना ही सम्भव है। यदि ऐसा न होगा तो ईश्वर कुछ कर ही न सकेगा। अब ईश्वर का स्वरूप निर्धारित हो जाने पर इसको सिद्ध करना है तो इसका सरल उपाय है कि आंखे बन्द करो और इन सब तर्कों व इसके विपरीत तर्कों का चिन्तन करो तो हमारी आत्मा में सत्य ज्ञान प्रकट हो जायेगा और वह वही होता है जिसे पूर्व तर्क के आधारित किया गया है। यहां इतना बताना आवश्यक है कि ईश्वर के स्वरूप के सम्बन्ध में यही स्वरूप हमारे वेदों, वैदिक साहित्य, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में वर्णित किया गया है। हम वेदों की एक बात का यहां और वर्णन करना चाहेंगे जिसमें कहा गया है कि यह अनन्त ब्रह्माण्ड ईश्वर के सर्वव्यापक आकार का 1/3 भाग ही है। ईश्वर के इसके अतिरिक्त 2/3 भाग में भी ईश्वर अपने आनन्द स्वरूप में स्थित है। हमें लगता वहां यदि किसी की पहुंच हो सकती है तो वह मोक्ष प्राप्त करने वाली जीवात्माओं की हो सकती है।

 

अब दूसरा प्रमाण है कि सृष्टि की आदि में जब युवा स्त्री व पुरूष उत्पन्न हुए तो उनको ज्ञान की आवश्यकता थी। ज्ञान भाषा में निहित होता है अतः भाषा की भी आवश्यकता थी अन्यथा आदि स्त्री-पुरूषों का जीवन आगे चल ही नहीं सकता था। यहां फिर केवल ईश्वर की शरण में जाना पड़ता है और तर्क से उत्तर मिलता है कि ज्ञान व भाषा सिखाने व देने वाला यदि कोई है तो वह सृष्टिकर्ता ईश्वर ही है। अब यदि ऐसा है तो उसने जो ज्ञान दिया उसका प्राचीन साहित्य में उल्लेख होना चाहिये। उसका उल्लेख प्राचीनतम ब्राह्मण ग्रन्थों, मनुस्मृति, दर्शन ग्रन्थों व उपनषिदों आदि में मिलता है। यह सब एक मत से बताते हैं कि ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद है। वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानने की परम्परा आज तक चली आ रही है। आधुनिक काल में इसका प्रमाण पुरस्सर उत्तर महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने वार्तालाप, उपदेशों, शास्त्रार्थों एवं सत्यार्थ प्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका आदि ग्रन्थों में दिया है जिसका अनुसंधान एवं विस्तार उनके अनुयायियों ने विगत 140 वर्षों में किया है। वेद का ज्ञान व उसकी भाषा का अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष सामने आता है कि वेद कोई मानवी कृति नही हो सकती, इसका ज्ञान प्रबुद्ध अध्येता को सहज ही जाता है। यहां हम यह भी बताना चाहते हैं कि आरम्भ में मनुष्य भाषा बना नहीं सकता। यदि आपके पास एक भाषा हो तो उसमें अपभ्रंस होकर कुछ मिलती-जुलती भाषा व भाषायें तो बनाई जा सकती हैं परन्तु सर्वप्राचीन भाषा केवल ईश्वर द्वारा ही दी जाती है। यदि वह भाषा न दे तो मनुष्य कुछ भी कर ले, भाषा नहीं बना सकता। इसका उत्तर यह भी है कि जिस प्रकार शरीर के सभी अंग ईश्वर के बनाये हुए हैं। आज विज्ञान उन्नति के चरम पर पहुंच गया है पर क्या एक किसी वैज्ञानिक ने मनुष्य की एक छोटी सी आंख, नाक, कान व जिह्वा अथवा कोई अंग बना पाया है, इसका उत्तर है कि नहीं। जो ईश्वरीय रचनायें हैं वह ईश्वर ही करता है। मनुष्य वही कर सकता है जो उसके लिए सम्भव है। पहली अर्थात् सृष्टि की आदि भाषा बनाना मनुष्य के लिए सम्भव नहीं है। हम चाहते हैं कि यदि किसी बन्धु को हमारी बात स्वीकार न करे तो वह चिन्तन करे और फिर अपने निष्कर्षों को भाषाविदों व ज्ञानविदों से शेयर करें और उनको सहमत कर लें, उसका सिद्धान्त सारी दुनियां में प्रचलित हो जायेगा। यदि आज भाषाविदों को भाषा की उत्पत्ति का निभ्र्रान्त उत्तर नहीं मिल रहा है तो इसका कारण यह है कि इसका उत्तर जो हमने पूर्व दिया है वही है और दूसरा कोई नहीं है। वैज्ञानिकों को कुछ समय बाद या भविष्य में कभी न कभी इस सिद्धान्त को सर्वसम्मति से स्वीकार करना ही होगा। यहां हम वेदों के आधार पर ईश्वर का संक्षिप्त स्वरूप प्रस्तुत कर रहे हैं जो स्वामी दयानन्द ने वेदों का गहन अध्ययन, योगाभ्यास व समाधि सिद्ध करने के बाद प्राप्त किया। वह है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, सर्वज्ञ, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। वही सब मनुष्यों के उपासना के योग्य है अन्य कोई जन्मधारी मनुष्य, महापुरूष या अवतार उपासना के योग्य नहीं है। उन्होंने यह भी बताया कि अजन्मा होने से वह कभी अवतार या मनुष्य के रूप में जन्म न लेता है और न ले सकता है।

 

ईश्वर के साक्षात्कार के विषय में हम यह भी कहना चाहते हैं कि हमारे उपनिषदों के ऋषि ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए उच्च कोटि के महापुरूष थे। मुण्डकोपनिषद् के ऋषि समाधि में ईश्वर की प्राप्ति का उल्लेख कर कहते हैं कि भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे पराऽवरे।। अर्थात् समाधि में ईश्वर-साक्षात्कार की अवस्था सिद्ध हो जाने पर जीवात्मा के हृदय की अविद्या-अज्ञानरूपी गांठ कट जाती है और सब संशय छिन्न होकर उसके दुष्ट व पाप कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं। तभी आत्मा के भीतर और बाहर व्यापक हो रहा परमात्मा में वह योगी वा उसका जीवात्मा निवास करता है और आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है।

 

मानव शरीर में ईश्वर की प्राप्ति के स्थान के विषय में समाधि को सिद्ध किए हुए महर्षि दयानन्द अपने ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के उपासना विषय में लिखते हैं कि कण्ठ के नीचे और उदर से ऊपर तथा दोनों स्तनों के बीच में जो हृदय देश है, जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त है उसमें कमल के आकार वेश्म अर्थात् अवकाश रूप एक स्थान है और उसके बीच में जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा बाहर भीतर एकरस होकर भर रहा है, वह आनन्दस्वरूप परमेश्वर उसी प्रकाशित स्थान के बीच में खोज करने (अर्थात् योग रीति से उपासना करने) से मिल जाता है। दूसरा उसके मिलने का कोई उत्तम स्थान वा मार्ग नहीं है।

 

ईश्वर को जान लेने के बाद अब जीवात्मा के अस्तित्व व स्वरूप पर विचार करते हैं। जीवात्मा भी एक स्वतन्त्र सत्ता है। यह ईश्वर का अंश नहीं है। हां, इसका कुछ स्वरूप व गुण ईश्वर के समान व कुछ विपरीत है। यह सत्य, चित्त, आकार रहित, अल्पज्ञ, एकदेशी, जन्म-मरण धर्मा, कर्मों का कर्ता व उसके फलों को सुख व दुःख के रूप में भोक्ता आदि स्वभाव, स्वरूप व गुणों वाला है। ईश्वर ही इसे माता-पिता के माध्यम से मनुष्यादि योनियों में जन्म देता है और वृद्धावस्था व आयु पूरी होने पर मृत्यु के होने के अवसर पर शरीर से इसका सम्बन्ध विच्छेद करता है। इसको जानने व समझने के लिए भी सत्यार्थ प्रकाश एक सर्वोत्तम ग्रन्थ है जिसका सभी को अध्ययन करना चाहिये जिससे धार्मिक व आध्यात्मिक व अन्य सभी प्रकार के भ्रम व भ्रान्तियां दूर हो सकें। इस ग्रन्थ के मुकाबले में संसार में कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं है। इसको पढ़कर ही इसकी महत्ता का अनुमान किया जा सकता है। इन्हीं विचारों को यदि स्वयं पर लागू करें तो हम यह कहेंगे कि मैं वस्तुतः एक जीवात्मा हूं। मेरा जन्म कभी नहीं हुआ है। मैं हमेशा से हूं और हमेशा रहूंगा। ईश्वर की कृपा से मुझे कर्मानुसार बार-बार जन्म मिलेगा, आयु पूरी होने पर मेरी मृत्यु हेाती रहेगी। प्रारब्ध के अनुसार अनेकानेक योनियों में मेरा जन्म होता रहेगा। मेरे अब तक असंख्य जन्म हो चुके हैं। मैं संसार में विद्यमान सभी योनियों में कई-कई बार जन्म लेकर कर्मों का भोग कर चुका हूं। मैं कई बार मोक्ष में भी रहा हूं। कई बार पूर्व में मैं ईश्वर का साक्षात्कार कर चुका हूं। अनेकानेक बार साधू-संन्यासी, योगी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र भी रहा हूं एवं इनसे निकृष्ट क्षूद्र प्राणी भी। यह सब कर्मों का खेल है। इसे समझना है और आसक्तियों का त्याग कर ज्ञान की वृ़िद्ध करके सत्कर्मों को करके, ईश्वर उपासना से समाधि को सिद्ध करना है जिससे ईश्वर का साक्षात्कार हो सके। ऐसा करके मेरा मोक्ष हो सकेगा। मोक्ष की अवस्था ब्रह्माण्ड के सभी जीवों की सबसे अधिक उन्नत अवस्था है। सभी को इसके लिए प्रयास करने चाहिये। मत-मतान्तरों के चक्र से मुक्त होकर सत्य ज्ञान की खोज करनी चाहिये और इस प्रकार से जाने गये सत्य मार्ग पर चलना चाहिये जो उन्नति की ओर ले जाता है। यदि हम मत-मतान्तरों की अन्धविश्वासों व अविद्याजन्य कर्म व उपासना पद्धतियों में फंसे रहे तो हमारा यह मानव जीवन व्यर्थ हो जायेगा और इस जन्म के बाद अगले जन्म में हमारा भविष्य निश्चय ही दुःखद होगा। सत्य पर चल कर हमारा यह जीवन भी उन्नत होता है व भावी जीवन भी। अतः हमें सत्य को जानना और उसको धारण कर सत्य-धर्म का ही आचरण करना है। यही वास्तविक मनुष्य धर्म है। वेद धर्म का साक्षात् रूप व ग्रन्थ हैं और इनकी शिक्षाओं के अनुरूप आचरण ही समस्त मानव जाति का कर्तव्य है। हम समझते है हमारे इस लेख से ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व को न मानने वाले बन्धुओं की आस्था व मिथ्या विश्वास का समाधान होगा एवं इस संक्षिप्त विवेचन से पाठको को लाभ होगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

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‘मनुस्मृति का सर्वग्राह्य शुद्ध स्वरूप’

vishuddha manusmriti

ओ३म्

मनुस्मृति का सर्वग्राह्य शुद्ध स्वरूप

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

समस्त वैदिक साहित्य में मनुस्मृति का प्रमुख स्थान है। जैसा कि नाम है मनुस्मृति मनु नाम से विख्यात महर्षि मनु की रचना है। यह रचना महाभारत काल से पूर्व की है। यदि महाभारत काल के बाद की होती तो हमें उनका जीवन परिचय कुछ या पूरा पता होता जिस प्रकार विगत 5,000 वर्षों में हुए विद्वानों व महर्षि पाणिनी इसहउ का ज्ञात होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि मनु महाभारत काल व उससे पूर्व ही हुए थे। महर्षि दयानन्द इन्हें सृष्टि के आदि काल में अमैथुनी सृष्टि के बाद ब्रह्माजी की पहली व दूसरी पीढ़ी का ऋषि स्वीकार करते हैं। यह उनके द्वारा रचित मनुस्मृति की विषय वस्तु से सिद्ध होती है। देश का संविधान व आचार संहिता आरम्भ में ही बनाये जाते हैं न कि मध्य में या बाद के वर्षों में। मनुस्मृति भी देश का एक प्रकार से संविधान है व सम्पूर्ण आचार शास्त्र है जो इसका अध्ययन करने पर ज्ञात होता है। इसलिए इसे मानव धर्म शास्त्र की संज्ञा दी गई है। महर्षि दयानन्द का वैदिक साहित्य विषयक ज्ञान विगत 5,000 वर्षों में उत्पन्न वेदादि धर्मशास्त्र के पण्डितों व विद्वानों में अद्वितीय है। उनका वेद एवं वैदिक साहित्य का जितना अध्ययन व ज्ञान था उसके आधार पर उनके किसी निर्णय को बिना पुष्ट प्रमाणों के एकतरफा वनज.तपहीज अस्वीकार नहीं किया जा सकता और न सन्देह ही किया जा सकता है। यदि महर्षि दयानन्द को मनु विषयक कोई तथ्य ज्ञात न होता तो वह उसे प्रकट ही न करते और यदि करते तो यह अवश्य कहते कि मनु के सृष्टि के आदि में होने की सम्भावना है, इसके पुख्ता प्रमाण उपलब्ध नहीं है। परन्तु उन्होंने ऐसा नही कहा। इससे उनके द्वारा निश्चयात्मक रूप से कही बात को सत्य मानना ही होगा जो कि आप्त प्रमाण की कोटि में आती है।

 

मनु ने मनुस्मृति का प्रणयन क्यों किया? सृष्टि के आरम्भ में कुछ समय तक किसी विधि या नियमों अथवा दण्ड व्यवस्था की आवश्यकता नहीं थी। कालान्तर में आपस में विवाद होने लगे तो शासन व्यवस्था, न्याय व दण्ड व्यवस्था एवं समाज व्यवस्था को सुव्यवस्थित रूप देने की आवश्यकता पड़ी। उस समय मनु महाराज में पण्डितों व क्षत्रियोचित गुणों का अद्भुत सम्मिश्रण था। वह ऋषि कोटि के असाधारण विद्वान थे। तत्कालीन नागरिकों ने उनसे प्रार्थना की होगी कि हमारे परस्पर के विवादों का हल व समाधान कीजिए। उन्होंने वेदों के आधार पर निर्णय किया होगा क्योंकि वेद ज्ञान के अतिरिक्त अन्य ज्ञान व नीति विषयक ग्रन्थ व ज्ञान तो उस समय था नहीं। विवाद वृद्धि पर रहे होंगे तो उन्हें लगा होगा कि इसके लिए एक पूरा आचार, न्याय व दण्ड शास्त्र बनाना होगा जिससे समाज व देश के नागरिक सुव्यवस्थित होकर वेद मत के अनुसार जीवनयापन कर सके। महर्षि मनु वेदों के परम भक्त थे यह उनके द्वारा रचित मनुस्मृति के कुछ श्लोकों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है। मनु जी से पूर्व इस प्रकार का कोई ग्रन्थ अस्तित्व में नहीं था। यदि होता तो वह यह ग्रन्थ न बनाते अथवा उसमें ही संशोधन करते। इससे पूर्व यदि कोई ग्रन्थ व ज्ञान था तो वह केवल वेद ही थे। वह ऋषि थे और वेदों के मर्म को अच्छी तरह से जानते थे। उन्हें वेदों का ज्ञान आदि व प्रथम ऋषि ब्रह्माजी से प्राप्त हुआ था। अतः वेदों की सहायता से वेदों के अनुकूल उन्होंने मनुस्मृति ग्रन्थ की रचना की थी। इसका उद्देश्य यह था कि समाज की रचना पर प्रकाश पड़े। स्त्री-पुरूषों के बीच सामाजिक बन्धन व सम्बन्ध किस प्रकार के हों, इसका ज्ञान हो। सभी नागरिकों के कर्तव्य व अधिकार क्या व कैसे हों, क्या बातें अपराध की श्रेणी में आती हैं और कौन सी अपराध से मुक्त हैं, कृषि करने के क्या नियम हों, पशु-पालन की व्यवस्था किस प्रकार की होगी,  सन्ध्या व हवन तथा अन्य कर्तव्यों पर भी उन्होंने प्रकाश डालना था, आदि आदि। इस प्रकार से सामाजिक व राजधर्म सम्बन्धी सभी पहलुओं पर उन्होंने सारगर्भित प्रकाश डालते हुए सामाजिक नियमों का प्रणयन किया। यह ऐसा ही था जैसे कि भारत के स्वतन्त्र होने पर एक संविधान सभा के द्वारा इसके अध्यक्ष व सदस्यों ने परस्पर चर्चा करके संविधान की रचना की। यद्यपि प्राचीन काल में संविधान तो चार वेद थे परन्तु वेदों को सरलतम् रूप में मनुस्मृति द्वारा प्रस्तुत किया गया था। यह कुछ ऐसा ही कहा जा सकता है जैसे हमें गाय माता से दुग्ध प्राप्त होता है। उस दुग्ध से गोपालक आवश्यकता के अनुसार दधि, नवनीत, घृत व मट्ठा आदि पदार्थों को बनाते है। वेद से इसी प्रकार से आवश्यकतानुसार सामाजिक नियमों का संग्रह महर्षि मनु जी ने किया जिसे ही आजकल मनुस्मृति कहा जाता है।

 

अब इस मनुस्मृति के अनुसार व्यवस्था को चलाना था। अतः जो इन नियमों व समाज संचालन के प्रावधानों को धारण कर सके ऐसे व्यक्ति की तलाश करनी थी। उस समय के योग्यतम व्यक्ति मनु जी ही थे। इसी लिए तो उनसे ही प्रार्थना की गई थी और उन्होंने ही इसका निर्माण भी किया। अतः उपलब्ध ज्ञान के अनुसार हमारा मानना है कि देश के राजा का पद भी सर्वसम्मति से उन्हें ही प्रजा द्वारा दिया गया था। इस प्रकार से पहली सामाजिक व शासन व्यवस्था भारत में अस्तित्व में आयी। हमारे मत का समर्थन इस बात से होता है कि महर्षि मनु को सर्वप्रथम राजा अर्थात् first law giver कहा जाता है। जयपुर के हाई कोर्ट और फ्रांस के सुप्रीम कोर्ट के बाहर राजर्षि मनु की मूर्ति की स्थापना कर उन्हें सम्मानित किया गया है।

 

आज हमारे पौराणिकों में जो मनुस्मृति उपलब्ध है उसका अध्ययन करने पर उसमें अनेकानेक बातें ऐसी हैं जिन्हें कोई भी बुद्धिजीवी व विवेकशील मनुष्य स्वीकार नहीं कर सकता। महर्षि दयानन्द के सामने भी यह स्थिति आई। उन्होंने पूरी मनुस्मृति का अध्ययन किया। जो बाते वेदानुकूल थी वह उनको ग्राह्य लगी और जो वेद व मानवता के विपरीत थी, उसका उन्होंने त्याग किया। विचार करने पर मनुस्मृति की वेद विरूद्ध मान्यताओं का कारण उन्हें समझ आया। कारण यह था कि महाभारतकाल के बाद वेदों के ज्ञान का सूर्य अध्ययन व अध्यापन में आई शिथिलता से धूमिल हो गया। अन्धकार में जिस प्रकार से वस्तु का दर्शन उसके शुद्ध स्वरूप में नहीं होता ऐसा ही मध्यकाल में ज्ञान के ह्रास के कारण अन्ध विश्वास, कुरीतियों व पाखण्डों का जन्म हुआ। कुछ अल्पज्ञानी स्वार्थी व साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के भी थे। मनुस्मृति की वेदों के बाद सर्वोपरि मान्यता थी। वेद देश के अनेक भागों के लोगों को सस्वर स्मरण व कण्ठाग्र थे। उसमें मिलावट करने का उनका साहस नहीं हुआ। ऐसे लोगों ने अपनी इच्छा व स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपने अपने मत के श्लोक बनाकर मनुस्मृति के बीच में डालना आरम्भ कर दिया। हमें लगता है कि कुछ श्लोकों का मूल स्वरूप भी परिवर्तित व विकृत किया गया होगा। इसका एक कारण यह भी था कि उन दिनों मुद्रण की व्यवस्था तो थी नहीं। हाथ से ताड़ या भोज पत्रों पर लिखा जाता था। एक प्रति तैयार करने के लिए भी भागीरथ प्रयत्न करना पड़ता था। अतः ऐसे पठित अज्ञानी व अल्पज्ञानी, स्वार्थी, अन्ध विश्वासी एवं साम्प्रदायिक लोग अपनी इच्छानुसार अपनी हस्त-लिखित प्रतियों में अपने आशय व मत विषयक नये श्लोक बनाकर बीच-बीच में जोड़ देते थे। उसके बाद वह ग्रन्थ उन्हीं की मनोवृत्तियों वाले उनके शिष्यों के पास पहुंचता था तो वह भी उसमें स्वेच्छाचार करके कुछ नया जोड़ते थे और संशोधित प्रति तैयार कर लेते थे। फिर उसी प्रक्षिप्त अंशों सहित मनुस्मृति की कथा अज्ञानी व अंधविश्वासी श्रद्धालुओं में करते थे। इस पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी। हमें लगता है प्रक्षेप करते समय किसी प्रतिलिपि कर्ता ने अपने गुरूओं की आज्ञानुसार अच्छी बातें भी जोड़ी होगीं परन्तु मिथ्या प्रक्षेपों का क्रम मध्यकाल में स्वच्छन्दापूर्वक जारी रहा जिसका प्रमाण परस्पर विरोधी मान्यताओं का यह मनुस्मृति ग्रन्थ बन गया। यह सामान्य बात है कि जब भी कोई विद्वान कोई ग्रन्थ लिखता है तो उसमें विरोधाभास व परस्पर विरोधी मान्यतायें नहीं हुआ करती। पुनरावृत्ति का दोष भी नहीं होता। ऋषि व महर्षि तो साक्षात्कृतधर्मा होते हैं जिन्हें सत्य व असत्य का पारदर्शी ज्ञान होता है। उनके कथन व लेखन में असत्य, सामाजिक असमानता व विषमता व पुनरावृत्ति जैसी बातों का होना असम्भव है। यदि किसी प्राचीन ग्रन्थ में ऐसा पाया जाता है तो वह प्रक्षेपों के कारण होता है। हमारे पौराणिक बन्धुओं की मनुस्मृति इसी प्रकार की पुस्तक है। महर्षि दयानन्द को यह मनुस्मृति अपने विकृत रूप में मान्य नहीं थी। इसलिए उन्होंने बुद्धि संगत श्लोकों को ग्रहण किया और तर्क, युक्ति आदि प्रमाणों के विरूद्ध श्लोकों का त्याग किया। उनके बाद उनके परम भक्त व अनुयायी लाला दीपचन्द आर्य ने स्वस्थापित आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली की ओर से प्रक्षेपयुक्त मनुस्मृति पर अनुसंधान कार्य कराया जिसमें आर्य जगत के विद्वत शिरोमणि पं. राजवीर शास्त्री और डा. सुरेन्द्र कुमार की सेवायें ली गईं। इस अनुसंधान कार्य के सफलतापूर्वक समापन होने पर मनुस्मृति का शुद्ध स्वरूप सामने आया। एक वृहद समीक्षात्मक मनुस्मृति जिसमें शुद्ध व प्रक्षिप्त दोनों प्रकार के श्लोक टिप्पणियों सहित दिए गये हैं और दूसरी पुस्तक विशुद्ध मनुस्मृति जिसमें से प्रक्षिप्त पाये गये श्लोकों को हटा दिया गया है। यही विशुद्ध मनुस्मृति ही ग्राह्य है और इसी का स्वाध्याय करना चाहिये। हम पं. राजवीर शास्त्री जी के शब्दों में मनुस्मृति के महत्व एवं प्रक्षेप के कुछ कारणों को प्रस्तुत करने लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं जिसे आगामी पंक्तियों में प्रस्तुत करते हैं।

 

मनुस्मृति के महत्व पर पं. राजवीर शास्त्री लिखते हैं कि समस्त वैदिक वाडंमय का मूलाधार वेद है और समस्त ऋषियों की यह सर्वसम्मत मान्यता है कि वेद का ज्ञान परमेश्वरोक्त होने से स्वतः प्रमाण एवं निभ्र्रान्त है। इस वेद-ज्ञान का ही अवलम्बन एवं साक्षात्कार करके आप्तपुरूष ऋषि-मुनियों ने साधना तथा तप की प्रचण्डाग्नि में तपकर शुद्धान्तःकरण से वेद के मौलिक सत्य-सिद्धान्तों को समझा और अनृषि लोगों की हितकामना से उसी ज्ञान को ब्राह्मण, दर्शन, वेदांग, उपनिषद् तथा धर्मशास्त्रादि ग्रन्थों के रूप में सुग्रथित किया। महर्षि मनु का धर्मशास्त्र मनुस्मृति भी उन्हीं उच्चकोटि के ग्रन्थों में से एक है। जिसमें चारो वर्णों, चारों आश्रमों, सोलह संस्कारों तथा सृष्टि-उत्पत्ति के अतिरिक्त राज्य की व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, अठारह प्रकार के विवादों एवं सैनिक प्रबन्धन आदि का बहुत सुन्दर सुव्यवस्थित ढंग से वर्णन किया गया है। मनु जी ने यह सब धर्म-व्यवस्था वेद के आधार पर ही कही है। उनकी वेद-ज्ञान के प्रति कितनी अगाध दृढ़ आस्था थी, यह उनके इस ग्रन्थ को पढ़ने से स्पष्ट होता है। मनु ने धर्म-जिज्ञासुओं को स्पष्ट निर्देश दिया है कि धर्म के विषय में वेद ही परम प्रमाण है और धर्म का मूलस्रोत वेद है। मनु का यह धर्मशास्त्र बहुत प्राचीन है, पुनरपि निश्चित समय बताना बहुत कठिन कार्य है। महर्षि दयानन्द ने मनु को सृष्टि के आदि में माना है – ‘यह मनुस्मृति जो सृष्टि की आदि में हुई, उसका प्रमाण है।’ (सत्यार्थ प्रकाश)  यहां महर्षि का यही भाव प्रतीत होता है कि धार्मिक मर्यादाओं के सर्वप्रथम व्याख्याता मनु ही थे। मनु ने मानव की सर्वांगीण-मर्यादाओं का जैसा सत्य एवं व्यवस्थित रूप से वर्णन किया है, वैसा विश्व के साहित्य में अप्राप्य ही है।  मनु की समस्त मान्यतायें सत्य ही नहीं, प्रत्युत देश, काल तथा जाति के बन्धनों से रहित होने से सार्वभौम हैं। मनु का शासन-विधान कैसा अपूर्व तथा अद्वितीय है, उसकी समता नहीं की जा सकती। विश्व के समस्त देशों के विधान निर्माताओं ने उसी का आश्रय लेकर विभिन्न विधानों की रचना की है। मनु का विधान प्रचलित साम्राज्यवाद तथा लोकतान्त्रिक त्रुटिपूर्ण पद्धतियों से शून्य, पक्षपात रहित, सार्वभौम तथा रामराज्य जैसे सुखद शान्तिपूर्ण राज्य के स्वप्न का साकार करने वाला होने से सर्वोत्कृष्ट है। इसी का आश्रय करके सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर महाभारत पर्यन्त अरबों वर्षों तक आर्य लोग अखण्ड चक्रवर्ती शासन समस्त विश्व में करते रहे।

 

पं. राजवीर शास्त्री जी ने यद्यपि मनुस्मृति में प्रक्षेपों के 9 कारणों पर प्रकाश डाला है परन्तु हम यहां प्रमुख कारण का उन्हीं के शब्दों में उल्लेख कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि ऐसे वेदानुकूल तथा मानव-समाज में प्रामाणिक एवं प्रतिष्ठा प्राप्त धर्मशास्त्र की मान्यता को देखकर परवत्र्ती वाममार्ग आदि के स्वार्थी क्षुद्राशय लोगों ने अपनी मिथ्या बातों पर विश्वास कराने के लिये जहां ऋषि-मुनियों के नाम से विभिन्न ग्रन्थों की रचना की, वहां ऋषि-मुनियों के ग्रन्थों में भी प्रक्षेप करने में संकोच नहीं किया। मनुस्मृति से भिन्न अनेक ऐसी स्मृतियों की रचना भी की, जिनका नाम महाभारत तक के प्राचीन साहित्य में कहीं नहीं मिलता। सामान्य जनता का धीरे-धीरे संस्कृत भाषा से अनभिज्ञ रहना, एक वर्ग विशेष का ही संस्कृत पठन-पाठन पर पूर्णाधिकार हो जाना और प्रकाशनादि की व्यवस्था न होने से परम्परा से हस्तलिखित ग्रन्थों का ही पठन-पाठन में व्यवहार होने से प्रक्षेपकों को प्रक्षेप करने में विशेष बाधा नही हुई। उन्हें जहां भी अवसर मिला, वहीं पर प्रक्षिप्त श्लोकों का मिश्रण करने में वे प्रयत्नशील दिखायी देते हैं। कहीं पूर्ण श्लोक, कहीं अर्ध श्लोक और कहीं-कहीं तो एक चरण का ही प्रक्षेप श्लोकों में दिखायी देता है। यह प्रक्षेप बहुत ही चतुरता से किया गया है, जिसे सामान्य व्यक्ति तो क्या तत्कालीन विद्वान् भी समझ नहीं सके। धार्मिक परम्पराओं से अनुप्राणित, अन्धभक्त और गुरूडम के कारण श्रद्धा करके भारतीय जनता ने ऐसी काल्पनिक बातों को भी नतमस्तक होकर स्वीकार कर लिया।

 

लेख की सीमा का ध्यान रखते हुए उपसंहार में यह बताना भी उचित होगा कि मनुस्मृति में 11 अध्याय हैं। प्रथम अध्याय सृष्टि तथा धर्म की उत्पत्ति पर है, दूसरा संस्कार एवं ब्रह्मचर्य आश्रम पर, तीसरा समावर्तन, विवाह, पंच-यज्ञ विधान पर, चैथा गृहस्थान्तर्गत आजीविकाओं और व्रतों के विधानों, पांचवा भक्ष्य-अभक्ष्य, प्रेत-शुद्धि, द्रव्य-शुद्धि व स्त्री धर्म विषय पर, छठा अध्याय वानप्रस्थ व संन्यास धर्म विषय पर, सातवां राजधर्म पर, आठवां राज-धर्मान्तर्गत व्यवहारों वा मुकदमों के निर्णय पर, नवां राजधर्मान्तर्गत व्यवहारों के निर्णय, दशवां चातुर्वण्र्य धर्मान्तर्गत वैश्य, शूद्र के धर्म तथा चातुर्वण्य-धर्म का तथा ग्यारहवां प्रायश्चित विषय पर है। प्रत्येक व्यक्ति को इस विशुद्ध मनुस्मृति ग्रन्थ को अवश्य पढ़ना चाहिये जिससे सभी प्रकार की भ्रान्तियां दूर होंगी। यदि हिन्दी भाष्य वा अनुवाद के साथ उपलब्ध विशुद्ध मनुस्मृति के कोई पाठक एक दिन में 15-20 पृष्ठ भी पढ लें, तो मात्र एक महीने से भी कम समय में इसे पूरा पढ़ा जा सकता है। विशुद्ध मनुस्मृति को प्रत्येक व्यक्ति को अवश्य पढ़ना चाहिये, विशेष कर उन लोगों को तो अवश्य पढ़ना चाहिये जो इस ग्रन्थ के आलोचक हैं। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

 

                –मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121 

‘आयुष्काम (महामृत्युंजय) यज्ञ और हम’

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ओ३म्
‘आयुष्काम (महामृत्युंजय) यज्ञ और हम’
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

सभी प्राणियों को ईश्वर ने बनाया है। ईश्वर सत्य, चेतन, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तरयामी, सर्वातिसूक्ष्म, नित्य, अनादि, अजन्मा, अमर, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान है। जीवात्मा सत्य, चेतन, अल्पज्ञ, एकदेशी, आकार रहित, सूक्ष्म, जन्म व मरण धर्मा, कर्मों को करने वाला व उनके फलों को भोगने वाला आदि स्वरूप वाला है। संसार में एक तीसरा एवं अन्तिम पदार्थ प्रकृति है। इसकी दो अवस्थायें हैं एक कारण प्रकृति और दूसरी कार्य प्रकृति। कार्य प्रकृति यह हमारी सृष्टि वा ब्रह्माण्ड है। मूल अर्थात् कारण प्रकृति भी सूक्ष्म व जड़ तत्व है जिसमें ईश्वर व जीवात्मा की तरह किसी प्रकार की संवेदना नहीं होती।

जीवात्मायें अनन्त संख्या में हमारे इस ब्रह्माण्ड में हैं। इनका स्वरूप जन्म को धारण करना व मृत्यु को प्राप्त करना है। मनुष्य जीवन में यह जिन कर्मों को करता है उनमें जो क्रियमाण कर्म होते हैं उसका फल उसको इसी जन्म में मिल जाता है। कुछ संचित कर्म होते हैं जिनका फल भोगना शेष रहता है जो जीवात्मा को पुनर्जन्म प्राप्त कर अगले जन्म में भोगने होते हैं। कर्मानुसार ही जीवों को मनुष्य व इतर पशु, पक्षी आदि योनियां प्राप्त होती हैं। मनुष्य योनि कर्म व भोग योनि दोनो है तथा इतर सभी पशु व पक्षी योनियां केवल भोग योनियां है। यह पशु पक्षी योनियां एक प्रकार से ईश्वर की जेल है जिसमें अनुचित, अधर्म अथवा पाप कर्मों के फलों को भोगा जाता है।

हम, सभी स्त्री व पुरूष, अत्यन्त भाग्यशाली हैं जिन्हें ईश्वर की कृपा, दया तथा हमारे पूर्व जन्म के संचित कर्मों अथवा प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य योनि प्राप्त हुई। इसका कारण है कि मनुष्य योनि सुख विशेष से परिपूर्ण हैं तथा इसमें दुख कम हैं जबकि इतर योनियों में सुख तो हैं परन्तु सुख विशेष नहीं है और दुःख अधिक हैं। वह उन्नति नहीं कर सकते हैं जिस प्रकार से मनुष्य योनि में हुआ करती है। हमें मनुष्य जन्म ईश्वर से प्राप्त हुआ है। यह क्यों प्राप्त हुआ? इसका या तो हमें ज्ञान नहीं है या हम उसे भूले हुए हैं। पहला कारण व उद्देश्य तो यह है कि हमें पूर्व जन्मों के अवशिष्ट कर्मों अर्थात् अपने प्रारब्ध के अच्छे व बुरे कर्मों के फलों के अनुरूप सुख व दुःखों को भोगना है। दूसरा कारण व उद्देश्य अधिक से अधिक अच्छे कर्म यथा, ईश्वर भाक्ति अर्थात् उसकी ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने के साथ यज्ञ-अग्निहोत्र, सेवा, परोपकार, दान आदि पुण्य कर्मों को करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमें अपना ज्ञान भी अधिक से अधिक बढ़ाना होगा अन्यथा न तो हम अच्छे कर्म ही कर पायेंगे जिसका कारण हमारा यह जीवन व मृत्यु के बाद का भावी जीवन भी दुःखों से पूर्ण होगा। ज्ञान की वृद्धि केवल आजकल की स्कूली शिक्षा से सम्भव नहीं है। यह यथार्थ ज्ञान व विद्या वेदों व वैदिक साहित्य के अध्ययन से प्राप्त होती हैं जिनमें जहां वेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि ग्रन्थ हैं वहीं सरलतम व अपरिहार्य ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश, आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, व्यवहारभानु, संस्कार विधि आदि भी हैं। इन ग्रन्थों के अध्ययन से हमें अपने जीवन का वास्तविक उद्देश्य पता चलता है। वह क्या है, वह है धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष। अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है जो विचारणीय है। यह जीवात्मा की ऐसी अवस्था है जिसमें जीवन जन्म-मरण के चक्र से छूट कर मुक्त हो जाता है। परमात्मा के सान्निध्य में रहता है और 31 नील 10 खरब व 40 अरब वर्षों (3,11,04,000 मिलियन वर्ष) की अवधि तक सुखों व आनन्द को भोगता है। इसको विस्तार से जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन करना चाहिये।

ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद का ज्ञान दिया और उसके माध्यम से यज्ञ-अग्निहोत्र करने की प्रेरणा और आज्ञा दी। ईश्वर हमारा माता-पिता, आचार्य, राजा व न्यायाधीश है। उसकी आज्ञा का पालन करना हमारा परम कर्तव्य है। हम सब मनुष्य, स्त्री व पुरूष वा गृहस्थी, यज्ञ क्यों करें? इसलिए की इससे वायु शुद्ध होती है। शुद्ध वायु में श्वांस लेने से हमारा स्वास्थ्य अच्छा रहता है, हम बीमार नहीं पड़ते और असाध्य रोगों से बचे रहते हैं। हमारे यज्ञ करने से जो वायु शुद्ध होती है उसका लाभ सभी प्राणियों को होता है। दूसरा लाभ यह भी है कि यज्ञ करने से आवश्यकता व इच्छानुसार वर्षा होती है और हमारी वनस्पतियां व ओषधियां पुष्ट व अधिक प्रभावशाली होकर हमारे जीवन व स्वास्थ्य के अनुकूल होती हैं। यज्ञ करने से 3 लाभ यह भी होते हैं कि यज्ञ में उपस्थित विद्वानों जो कि देव कहलाते हैं, उनका सत्कार किया जाता है व उनके अनुभव व ज्ञान से परिपूर्ण उपदेशामृत श्रवण करने का अवसर मिलता है। यज्ञ करना एक प्रकार का उत्कृष्ट दान है। हम जो पदार्थ यज्ञ में आहुत करते हैं और जो दक्षिणा पुरोहित व विद्वानों को देते हैं उससे यज्ञ की परम्परा जारी रहती है जिससे हमें उसका पुण्य लाभ मिलता है। यज्ञ में वेद मन्त्रों का उच्चारण होता है जिसमें हमारे जीवन के सुखों की प्राप्ति, धन ऐश्वर्य की वृद्धि, यश व कीर्ति की प्राप्ति, ईश्वर आज्ञा के पालन से पुण्यों की प्राप्ति जिससे प्रारब्ध बनता है और जो हमारे परजन्म में लाभ देने के साथ हमारे मोक्ष रूपी अभीष्ट व उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होने के साथ हमें मोक्ष के निकट ले जाता है। हमारे आदर्श मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम तथा श्री योगेश्वर कृष्ण सहित महर्षि दयानन्द भी यज्ञ करते कराते रहे हैं। महर्षि दयानन्द ने आदि ऋषि व राजा मनु का उल्लेख कर प्रत्येक गृहस्थी के लिए प्रातः सायं ईश्वरोपासना-ब्रह्मयज्ञ-सन्ध्या व दैनिक अग्निहोत्र को अनिवार्य कर्तव्य बताया है। हम ऋषि-मुनियों व विद्वान पूर्वजों की सन्ततियां हैं। हमें अपने इन पूर्वजों का अनुकरण व अनुसरण करना है तभी हम उनके योग्य उत्तराधिकारी कहे जा सकते हैं। यह सब लाभ यज्ञ व अग्निहोत्र करने से होते हैं। अन्य बातों को छोड़ते हुए अपने अनुभव के आधार पर हम यह भी कहना चाहते हैं कि यज्ञ करने से अभीष्ट की प्राप्ति व सिद्धि होती है। उदाहरणार्थ यदि हम रोग मुक्ति, सुख प्राप्ति व लम्बी आयु के लिए यज्ञ करते हैं तो हमारे कर्म व भावना के अनुरूप ईश्वर से हमें हमारी प्रार्थना व पात्रता के अनुसार फल मिलता है अर्थात् हमारी सभी सात्विक इच्छायें पूरी होती हैं और प्रार्थना से भी कई बार अधिक पदार्थों की प्राप्ति होती है। इसके लिए अध्ययन व अखण्ड ईश्वर विश्वास की आवश्यकता है।

मृत्युंजय मन्त्र ‘त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम्। उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।’ में कहा गया है कि हम आत्मा और शरीर को बढ़ानेवाले तथा तीनों कालों, भूत, वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता परमेश्वर की प्रतिदिन अच्छी प्रकार वेद विधि से उपासना करें। जैसे लता से जुड़ा हुआ खरबूजा पककर सुगन्धित एवं मधुर स्वाद वाला होकर बेल से स्वतः छूट जाता है वैसे ही हे परमेश्वर ! हम यशस्वी जीवनवाले होकर जन्म-मरण के बन्धन से छूटकर आपकी कृपा से मोक्ष को प्राप्त करें। यह मन्त्र ईश्वर ने ही रचा है और हमें इस आशय से प्रदान किया कि हम ईश्वर से इसके द्वारा प्रार्थना करें और स्वस्थ जीवन के आयुर्वेद आदि ग्रन्थों में दिए गये सभी नियमों का पालन करते हुए ईश्वर स्तुति-प्रार्थना-उपासना को करके बन्धनों से छूट कर मुक्ति को प्राप्त हों। हम शिक्षित बन्धुओं से अनुरोध करते हैं कि वह यज्ञ विज्ञान को जानकर उससे लाभ उठायें।
-मन मोहन कुमार आर्य
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