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क्या संसार महर्षि दयानन्द की मानव कल्याण की यथार्थ भावनाओं को समझ सका?

ओ३म्

क्या संसार महर्षि दयानन्द की मानव कल्याण की यथार्थ भावनाओं को समझ सका?’

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने देश व समाज सहित विश्व की सर्वांगीण उन्नति का धार्मिक व सामाजिक कार्य किया है। क्या हमारे देश और संसार के लोग उनके कार्यों को यथार्थ रूप में जानते व समझते हैं? क्या उनके कार्यों से मनुष्यों को होने वाले लाभों की वास्तविक स्थिति का ज्ञान विश्व व देश के लोगों को है? जब इन व ऐसे अन्य कुछ प्रश्नों पर विचार करते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि हमारे देश व संसार के लोग महर्षि दयानन्द, उनकी वैदिक विचारधारा और सिद्धान्तों के महत्व के प्रति अनभिज्ञ व उदासीन है। यदि वह जानते होते तो उससे लाभ उठा कर अपना कल्याण कर सकते थे। न जानने के कारण वह वैदिक विचारधारा से होने वाले लाभों से वंचित हैं और नानाविध हानियां उठा रहे हैं। अतः यह विचार करना समीचीन है कि मनुष्य महर्षि दयानन्द की वैदिक विचारधारा के सत्य यथार्थ स्वरूप को क्यों नहीं जान पाये? इस पर विचार करने पर हमें इसका उत्तर यही मिलता है कि महर्षि दयानन्द के पूर्व व बाद में प्रचलित मत-मतान्तरों के आचार्यों व तथाकथित धर्मगुरुओं ने स्वार्थ, हठ, दुराग्रह व अज्ञानतावश उनका विरोध किया और उनके बारे में मिथ्या प्रचार करके अपने-अपने अनुयायियों को उनके व उनकी विचारधारा को जानने व समझने का अवसर व स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की। आज भी संसार के अधिकांश लोग मत-मतान्तरों के सत्यासत्य मिश्रित विचारों व मान्यताओं से बन्धे व उसमें फंसे हुए हैं। सत्य से अनभिज्ञ वा अज्ञानी होने पर भी उनमें ज्ञानी होने का मिथ्या अहंकार है। रूढि़वादिता के संस्कार भी इसमें मुख्य कारण हैं। इन मतों व इनके अनुयायियों में सत्य-ज्ञान व विवेक का अभाव है जिस कारण वह भ्रमित व अज्ञान की स्थिति में होने के कारण यदि आर्यसमाज के वैदिक विचारों व सिद्धान्तों का नाम सुनते भी हैं तो उसे संसार के मत-मतान्तरों व अपने मत-सम्प्रदाय का विरोधी मानकर उससे दूरी बनाकर रखते हैं।

 

महर्षि दयानन्द का मिशन क्या था? इस विषय पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि वह संसार के धार्मिक, सामाजिक देशोन्नति संबंधी असत्य विचारधारा, मान्यताओं सिद्धान्तों को पूर्णतः दूर कर सत्य मान्यताओं सिद्धान्तों को प्रतिष्ठित करना चाहते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने अपने पिता का घर छोड़ा था और सत्य की प्राप्ति के लिए ही वह एक स्थान से दूसरे स्थान तथा एक विद्वान के बाद दूसरे विद्वान की शरण में सत्य-ज्ञान की प्राप्ति हेतु जाते गये और उनसे उपलब्ध ज्ञान प्राप्त कर उनको प्राप्त होने वाले सभी अर्वाचीन व प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन भी करते रहे। अपनी इसी धुन व उद्देश्य के कारण वह अपने समय के देश के सभी बड़े विद्वानों के सम्पर्क में आये, उनकी संगति की और उनसे जो विद्या व ज्ञान प्राप्त कर सकते थे, उसे प्राप्त किया और इसके साथ हि योगी गुरुओं से योग सीख कर सफल योगी बने। उनकी विद्या की पिपासा मथुरा में स्वामी विरजानन्द सरस्वती की पाठशाला में सन् 1860 से सन् 1863 तक के लगभग 3 वर्षों तक अष्टाध्यायी, महाभाष्य तथा निरुक्त प़द्धति से संस्कृत व्याकरण का अध्ययन करने के साथ गुरु जी से शास्त्र चर्चा कर अपनी सभी भ्रान्तियों को दूर करने पर समाप्त हुई। वेद व वैदिक साहित्य का ज्ञान और योगविद्या सीखकर वह अपने सामाजिक दायित्व की भावना व गुरु की प्ररेणा से कार्य क्षेत्र में उतरे और सभी मतों के सत्यासत्य को जानकर उन्होंने विश्व में धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में असत्य व मिथ्या मान्यताओं तथा भ्रान्तियों को दूर करने के लिए उसका खण्डन किया। प्रचलित धर्म-मत-मतान्तरों में जो सत्य था उसका उन्होंने अपनी पूरी शक्ति से मण्डन वा समर्थन किया। आज यदि हम स्वामी दयानन्द आर्यसमाज के किसी विरोधी से पूंछें कि महर्षि दयानन्द ने तुम्हारे मत की किस सत्य मान्यता वा सिद्धान्त का खण्डन किया तो इसका उत्तर किसी मतमतान्तर वा उसके अनुयायी के पास नहीं है। इसका कारण ही यह है कि उन्होंने सत्य का कभी खण्डन नहीं किया। उन्होंने तो केवल असत्य मिथ्या ज्ञान का ही खण्डन किया है जो कि प्रत्येक मनुष्य का मुख्य कर्तव्य वा धर्म है। दूसरा प्रश्न अन्य मत वालों से यदि यह करें कि क्या स्वामी दयानन्द जी ने वेद संबंधी अथवा अपने किसी असत्य व मिथ्या विचार व मान्यता का प्रचार किया हो तो बतायें? इसका उत्तर भी किसी मत के विद्वान, आचार्य व अनुयायी से प्राप्त नहीं होगा। अतः यह सिद्ध तथ्य है कि महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में कभी किसी मत के सत्य सिद्धान्त का खण्डन नहीं किया और ही असत्य मिथ्या मान्यताओं का प्रचार किया। उन्होंने केवल असत्य का ही खण्डन और सत्य का मण्डन किया जो कि मनुष्य जाति की उन्नति के लिए सभी मनुष्यों व मत-मतान्तरों के आचार्यों को करना अभीष्ट है। इसका मुख्य कारण यह है कि सत्य वेद धर्म का पालन करने से मनुष्य का जीवन अभ्युदय को प्राप्त होता है और इसके साथ वृद्धावस्था में मृत्यु होेने पर जन्ममरण के बन्धन से छूट कर मोक्ष प्राप्त होता है।

 

यह भी विचार करना आवश्यक है कि सत्य से लाभ होता है या हानि और असत्य से भी क्या किसी को लाभ हो सकता है अथवा सदैव हानि ही होती है? वेदों के ज्ञान के आधार पर सत्य के सन्दर्भ में महर्षि दयानन्द ने एक नियम बनाया है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। यह नियम संसार में सर्वमान्य नियम है। अतः सत्य से लाभ ही लाभ होता है, हानि किसी की नहीं होती। हानि तभी होगी यदि हमने कुछ गलत किया हो। अतः मिथ्याचारी व्यक्ति व मत-सम्प्रदाय के लोग ही असत्य का सहारा लेते हैं और सत्य से डरते हैं। ऐसे मिथ्या मतों, उनके अनुयायी व प्रचारकों की मान्यताओं के खण्डन के लिए महर्षि दयानन्द को दोषी नहीं कहा जा सकता। इस बात को कोई स्वीकार नहीं करता कि मनुष्य को जहां आवश्यकता हो वहां वह असत्य का सहारा ले सकता है और जहां सत्य से लाभ हो वहीं सत्य का आचरण करे। किसी भी परिस्थिति में असत्य का आचरण अनुचित, अधर्म वा वा पाप ही कहा जाता है। अतः सत्याचरण करना ही धर्म सिद्ध होता है और असत्याचरण अधर्म। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर सत्यार्थप्रकाश, ऋ़ग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की है। इन ग्रन्थों में उन्होंने मनुष्य के धार्मिक व सामाजिक कर्तव्यों व अकर्तव्यों का वैदिक प्रमाणों, युक्ति व तर्क के आधार पर प्रकाश किया है। सत्यार्थप्रकाश साधारण मनुष्यों की बोलचाल की भाषा हिन्दी में लिखा गया वैदिक धर्म का सर्वांगीण, सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रभावशाली धर्मग्रन्थ है। धर्म व इसकी मान्यताओं का संक्षिप्त रूप महर्षि दयानन्द ने पुस्तक के अन्त में स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश लिखकर प्रकाशित किया है। यह स्वमन्तव्यामन्तव्य ही मनुष्यों के यथार्थ धर्म के सिद्धान्त व कर्तव्य हैं जिनका विस्तृत व्याख्यान सत्यार्थप्रकाश व उनके अन्य ग्रन्थों में उपलब्घ है। स्वमन्तव्यामन्तव्य की यह सभी मान्यतायें संसार के सभी मनुष्यों के लिए धर्मपालनार्थ माननीय व आचरणीय है परन्तु अज्ञान व अन्धविश्वासों के कारण लोग इन सत्य मान्यताओं से अपरिचित होने के कारण इनका आचरण नहीं करते और न उनमें सत्य मन्तव्यों को जानने की सच्ची जिज्ञासा ही है। इसी कारण संसार में मत-मतान्तरों का अस्तित्व बना हुआ है। इसका एक कारण यह भी है कि देश व संसार में धर्म सम्बन्धी सत्य व यथार्थ ज्ञान के प्रचारकों की कमी है। यदि यह पर्याप्त संख्या में होते तो देश और विश्व का चित्र वर्तमान से कहीं अधिक उन्नत व सन्तोषप्रद होता।

 

महर्षि दयानन्द ने सन् 1863 से वेद वा वैदिक मान्यताओं का प्रचार आरम्भ किया था जिसने 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना के बाद तेज गति पकड़ी थी। इसके बाद सन् 1883 तक उन्होंने वैदिक मान्यताओं का प्रचार किया जिसमें वैदिक मत के विरोधियों व विधर्मियों से शास्त्र चर्चा, विचार विनिमय, वार्तालाप और शास्त्रार्थ सम्मिलित थे। अनेक मौलिक ग्रन्थों की रचना सहित ऋग्वेद का आंशिक और पूरे यजुर्वेद का उन्होंने भाष्य किया। उनके बाद उनके अनेक शिष्यों ने चारों वेदों का भाष्य पूर्ण किया। न केवल वेदों पर अपितु दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण व महाभारत आदि पर भी भाष्य, अनुवाद, ग्रन्थ व टीकायें लिखी र्गइं। संस्कृत व्याकरण विषयक भी अनेक नये ग्रन्थों की रचना के साथ प्रायः सत्यार्थप्रकाश सहित सभी आवश्यक ग्रन्थों को अनेक भाषाओं में अनुवाद व सुसम्पादित कर प्रकाशित किया गया जिससे संस्कृत अध्ययन सहित आध्यात्मिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करना अनेक भाषा-भाषी लोगों के लिए सरल हो गया। एक साधारण हिन्दी पढ़ा हुआ व्यक्ति भी समस्त वैदिक साहित्य का अध्ययन कर सकता है। यह सफलता महर्षि दयानन्द, आर्यसमाज इसके विद्वानों की देश विश्व को बहुमूल्य देन है। यह सब कुछ होने पर भी आर्यसमाज की वैदिक विचारधारा का जो प्रभाव होना चाहिये था वह नहीं हो सका। इसके प्रमुख कारणों को हमने लेख के आरम्भ में प्रस्तुत किया है। वह यही है कि देश संसार के लोग महर्षि दयानन्द की मानवमात्र की कल्याणकारी विचारधारा उनके यथार्थ भावों को अपनेअपने अज्ञान, स्वार्थ, हठ और पूर्वाग्रहों वा दुराग्रहों के कारण जान नहीं सके। कुछ अन्य और कारण भी हो सकते हैं। इसके लिए आर्यसमाज को अपने संगठन व प्रचार आदि की न्यूनताओं पर भी ध्यान देना होगा और उन्हें दूर करना होगा। वेद वा धर्म प्रचार को बढ़ाना होगा और वैदिक मान्यताओं को सारगर्भित व संक्षेप में लघु पुस्तकों के माध्यम से प्रस्तुत कर उसे घर-घर पहुंचाना होगा। यदि प्रचारकों की संख्या अधिक होगी और संगठित रूप से प्रचार किया जायेगा तो सफलता अवश्य मिलेगी और मानवता का कल्याण होगा।

मनमोहन कुमार आर्य

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पाखण्ड खण्डिनी पताका, सद्धर्म प्रचार और महर्षि दयानन्द

ओ३म्

पाखण्ड खण्डिनी पताका, सद्धर्म प्रचार और महर्षि दयानन्द

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

किसी भी विषय में सत्य का निर्धारण करने पर सत्य वह होता है जो तर्क व युक्ति के आधार पर सिद्ध हो। दो संख्याओं 2  व 3 का योग 5 होता है। तर्क व युक्ति से यही उत्तर सत्य सिद्ध होता है। अतः 2 व 3 का योग 4 या 6 अथवा अन्य कुछ कहा जाये तो वह असत्य की कोटि में आता है। धार्मिक मान्यताओं व सिद्धान्तों की दृष्टि से भी एक विषय में सत्य मान्यता व सिद्धान्त केवल एक ही होता है। इसका प्रथम ज्ञान परमात्मा ने स्वयं ही सृष्टि के आरम्भ में वेदों के द्वारा आदि ऋषियों को कराया था। आज भी सम्पूर्ण वेद अपने मूल स्वरूप सहित संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं में भाष्यों के रूप में उपलब्ध है। इनके द्वारा सत्य धर्म, मत, मान्यताओं व सिद्धान्तों का निर्धारण किया जा सकता है। धर्म का सम्बन्ध ईश्वर व आत्मा के ज्ञान व मनुष्य द्वारा ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना से भी जुड़ा हुआ है। अतः ईश्वर, जीव व उपासना से जुड़ी सभी मान्यतायें व सिद्धान्त जो परस्पर विरोधी व युक्ति प्रमाणों के विरुद्ध हैं, सत्य नहीं कहे जा सकते। सत्य की विस्मृति से ही अज्ञान उत्पन्न होता है जो समय के साथ बढ़ता रहता है। महाभारत युद्ध के बाद वेदों के विलुप्त हो जाने व अल्प ज्ञानी लोगों द्वारा वेदों के अर्थ न समझने के कारण भारत व विश्व के सभी देशों में अज्ञान व पाखण्ड में वृद्धि होती रही।

 

महर्षि दयानन्द ने सत्य ज्ञान की खोज की। उन्होंने भारत के सभी ज्ञानी गुरूओं से धर्म, योग व उपासना आदि का ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने संस्कृत का व्याकरण व अन्य सभी आर्ष व अनार्ष ग्रन्थों को पढ़ कर उनका मन्थन कर अपने विद्यागुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती की कृपा से सत्य व असत्य के भेद व अन्तर को जाना था। इसके साथ उन्होंने गुरू की प्रेरणा व आज्ञा तथा स्वयं के विवेक से समस्त मानवता के हित व कल्याण के लिए पाखण्ड व असत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों का खण्डन कर सत्य वैदिक मान्यताओं की स्थापना का संकल्प किया था जिसका उन्होंने अपनी अन्तिम श्वांस तक पालन किया। स्वामी जी ने सन् 1863 तक गुरु विरजानन्द की मथुरा स्थित कुटिया वा गुरुकुल में अध्ययन कर इसके बाद सत्य धर्म वैदिक मत का प्रचार आरम्भ किया था। आगरा व ग्वालियर आदि अनेक स्थानों पर प्रचार करते हुए वह सन् 1867 के हरिद्वार के कुम्भ मेले में धर्म प्रचार करने के उद्देश्य से आये थे। इसका कारण था कि कुम्भ के मेले में हिन्दू स्त्री-पुरुष और साधु लाखों की संख्या में इकट्ठे होते हैं। यह लेाग समझते हैं कि कुम्भ के मेले पर गंगा में स्नान करने से पाप धुल जाते हैं और मनुष्य को दुःखों व जन्म-मरण से मुक्ति मिल जाती है। हरिद्वार में उन्होंने देखा कि साधु और पण्डे धर्म का उपदेश देकर लोगों को सीधे रास्ते पर लाने के स्थान पर उन्हें पाखण्ड की शिक्षा देकर लूट रह हैं। उन्होंने पाया कि संसार सत्य धर्म पर चलने के स्थान पर अज्ञान के गहरे गड्ढ़े में गिर रहा है। जिसे हर की पैड़ी कहा जाता है, वह हर की पैड़ी न होकर हाड़ की पैड़ी बन रही है। गंगा में डुबकी लगाने से सब पाप दूर हो जाते है, इस मिथ्या विश्वास से लोग बिना सोचे विचारे अन्धाधुन्ध गंगा नदी में डुबकियां लगा रहे थे।

 

हरिद्वार में इन दृश्यों को देखकर स्वामी दयानन्द जी को गहरी चोट लगी। उन्होंने पाया कि इन कृत्यों से लोग दुःखों से छूटने के स्थान पर दुःखों के सागर में डूब रहे हैं। अतः उन्होंने साधुओं और पण्डों के इस पाखण्ड की पोल खोलने का निर्णय लिया। इसके बाद एक दिन यात्रियों ने देखा कि हरिद्वार से ऋषिकेश को जाने वाली सड़क पर वहां एक स्थान पर स्वामी दयानन्द ने पाखण्ड-खण्डिनी पताका गाड़ दी है। वह वहां गरज-गरज कर उपदेश दे रहे हैं। वह अपने उपदेशों में साधुओं और पण्डों की करतूतें दिखला कर झूठे गंगा-महात्म्य की धज्जियां उड़ा रह हैं। स्वामी दयानन्द की इस गरजना से मेले में भारी हलचल मच गई। आज तक लोगों ने किसी संन्यासी को श्राद्ध, मूर्ति-पूजा, अवतार और गंगा-स्नान से मुक्ति मिलने का खण्डन करते हुए तथा पुराणों को झूठा कहते नहीं सुना था। सहस्त्र्रों की संख्या में लोग उनका क्रान्तिकारी उपदेश सुनने आने लगे। स्वामीजी सबसे यही कहते थे कि हर की पैड़ी पर नहाने से पाप नहीं धुलते। वेद की शिक्षा पर चलो। अच्छे काम करो। इसी से सुख और मोक्ष मिलेगा। धर्म ग्रन्थों का पढ़ना-सुनना और सच्चे धर्मात्माओं की संगति ही सच्चा तीर्थ होती है।

 

आने को तो स्वामी दयानन्द जी के सत्संग व प्रवचन में सहस्त्रों लोग उपदेश सुनने आते थे परन्तु वे केवल सुनकर चले जाते, उन पर उनके उपदेशों का प्रभाव दिखाई नहीं देता था। यह देख कर स्वामीजी को गहरी निराशा हुई। उन्होंने विचार किया कि मेरे तप व त्याग में कहीं कुछ कमी है जिस कारण से उनकी बात का लोगों पर असर नहीं हो रहा है। बस उन्होंने निर्णय किया कि वह अब आगे प्रचार न कर मौन रहकर तपस्या करेंगे। उन्होंने अपने सब वस्त्र उतार कर फेंक दिये। महाभाष्य की एक कापी, सोने की एक मुहर और मलमल का एक थान अपने गुरूदेव स्वामी विरजानन्द जी के लिए मथुरा भिजवा दिया। श्री कैलासपर्वत नाम के एक साधु ने स्वामी से पूछा कि महाराज आप यह क्या कर रहे हैं? स्वामी जी ने उन्हें उत्तर दिया कि जब तक अपनी आवश्यकताओं को कम से कम न किया जाये, पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं होती और कार्य में सफलता भी नहीं हो सकती। कैलास पर्वत को उन्होंने कहा कि वह सत्य वैदिक धर्म के विरोधी सभी असत्य मत, पन्थों व सम्प्रदायों का खण्डन कर सत्य को स्थापित करना चाहते हैं। इसके लिए वह सांसारिक आवश्यकताओं और सुख-दुःख से ऊपर उठना चाहते हैं। इसके बाद स्वामीजी ने पुस्तकें आदि छोड़कर अपने सारे शरीर पर राख रमा ली। अपने तन पर केवल एक कौपीन रख कर मौन रहने का व्रत ले लिया। जो वेदों का विद्वान शेर की तरह किसी समय लाखों के समूह में गरजता था, जिसकी गरज को सुनकर झूठे मतों और पंथों के दिल दहल जाते थे, वह अब मौन रहकर अपनी कुटी में बैठ गया। बातचीत करना पूरी तरह से बन्द हो गया। इस स्थिति में उनके मन में जो तूफान उठ रहा होगा, उसका अनुमान किया जा सकता है। अतः यह स्थिति अधिक दिन नहीं चली। उन्होंने तो यह पाठ पढ़ा हुआ था कि मौन रहने से अच्छा सत्य बोलना होता है। ऐसा व्यक्ति कब तक चुप रह सकता था? कुछ दिन बाद एक घटना घटी। एक व्यक्ति उनके तम्बू के बाहर खड़ा होकर पुराणों की प्रशंसा करने लगा। उसने वेदों को पुराणों से हेय बताया। इस असत्य वचन को सुनकर स्वामी जी से रहा न गया और वह अपना मौन व्रत तोड़कर बाहर निकले और उस व्यक्ति के असत्य वाक्यों का खण्डन आरम्भ कर दिया। हो सकता है कि उस व्यक्ति ने यह कार्य ईश्वर की प्रेरणा से स्वामी जी का मौन व्रत भंग करने के लिए किया हो? जो भी रहा हो, यह अच्छा ही हुआ और अब स्वामीजी पूरे बल से वेद प्रचार करने लगे।

 

अब स्वामी दयानन्द नगर-नगर और स्थान-स्थान में घूम कर वैदिक धर्म का प्रचार करने लगे। चारों वेदों का अध्ययन कर उन्होंने जाना था कि वेदों में कहीं मूर्तिपूजा का विधान व समर्थन नहीं है। उन्होंने मूर्तिपूजा और अन्य अवैदिक अन्धविश्वासों व पाखण्डों का खण्डन करना आरम्भ कर दिया। बहुत से लोग उनके साथ शास्त्रार्थ करने आते परन्तु हार खाकर चले जाते। कर्णवास में पं. हीरावल्लभ नाम के एक बहुत बड़े विद्वान पण्डित थे। वह नौ और पण्डितों को अपने साथ लेकर स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने आये। आते हुए साथ में एक पाषाण मूर्ति भी उठा लाये और प्रतिज्ञा की कि जब तक दयानन्द से इसकी पूजा न करा लूंगा, वापस न जाऊंगा। कोई एक सप्ताह तक प्रतिदिन ना-नौ घंटे तक शास्त्रार्थ हुआ करता था। दोनों ओर से संस्कृत बोली जाती थी और वाद प्रतिवाद होता था। अन्तिम दिन पण्डित जी उठे और ऊंचे स्वर से बोले–स्वामी दयानन्द जी महाराज जो कुछ कहते हैं, वह सब सत्य है। इतना कहकर उन्होंने अपनी मूर्तियां उठाई और गंगा में फेंक दीं। उनको देखकर बाकी पण्डितों और नगर-निवासियों ने भी अपनी-अपनी मूर्तियां घर से लाकर गंगा की भेंट कर दीं। हीरावल्लभजी ने मूर्तियों की जगह सिंहासन पर वेदों को प्रतिष्ठत कर दिया। इस कर्णवास के शास्त्रार्थ की सर्वत्र बड़ी धूम मची। बहुत से ठाकुर लोग स्वामी जी महाराज के पास आकर उपदेश लेने लगे। स्वामी जी ने उन्हें यज्ञोपवीत-जनेऊ देकर गायत्री मन्त्र को गुरु-मन्त्र के रूप में दिया। गंगा के किनारे भ्रमण करते हुए स्वामी दयानन्द ने इस प्रकार गायत्री के उपदेश से सहस्त्रों स्त्री-पुरुषों को धर्म का अमृत पिलाकर उनका कल्याण किया।

 

महर्षि दयानन्द ने देश से अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां, परतन्त्रता, गोहत्या दूर करने, गोरक्षा का महत्व स्थापित करने, हिन्दी को अपनाने, विदेशी भाषाओं के अंधाधुन प्रयोग न करने सहित सामाजिक विषमा दूर करने, समाज सुधार व मानव जाति के हित के अनेकानेक कार्य किये और इनके लिए अपना एक-एक पल व एक-एक श्वांस व्यतीत किया। उनके जैसा महापुरूष इतिहास के पृष्ठों पर दूसरा देखने को नहीं मिलता जिसने देश व मानवता के हित के लिए अपना सर्वस्व त्याग किया हो। उनका बलिदान तो महत्व पूर्ण है ही परन्तु हमें लगता है कि उनका कार्य उनके बलिदान से भी अधिक महत्वूपर्ण है। उनके कार्य का किंचित परिचय देना ही आज के इस लेख का उद्देश्य है। आज के इस लेख में हमने महर्षि दयानन्द भक्त श्री सन्तराम जी के ऋषि जीवन से सहायता ली है। उनका आभार व्यक्त करते हैं। आशा है कि पाठक इस लेख को पसन्द करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘वेदाविर्भाव और वेदाध्ययन की परम्परा पर विचार’

veda adhyan

ओ३म्

वेदाविर्भाव और वेदाध्ययन की परम्परा पर विचार

                सृष्टिकाल के आरम्भ से देश में अनेक ऋषि व महर्षि उत्पन्न हुए हैं। इन सबकी श्रद्धा व पूरी निष्ठा ईश्वरीय ज्ञान वेदों में रही है। यह वेद सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा हमारे अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को उनकी आत्मा में अपने आत्मस्थ स्वरूप से प्रेरणा द्वारा प्रदान किये थे। आप्त प्रमाणों के अनुसार इन ऋषियों ने यह ज्ञान ब्रह्माजी को दिया और ब्रह्माजी से इन चारों वेदों को सृष्टि के आरम्भ में अन्य स्त्री व पुरूषों को पढ़ाये जाने की परम्परा का आरम्भ हुआ। इस विवरण से यह ज्ञात होता है कि ब्रह्मा जी को ईश्वर से सीधा ज्ञान नहीं मिला। ब्रह्मा जी को वैदिक संस्कृत भाषा और वेदों का ज्ञान अग्नि आदि चार ऋषियों से मिला। इसी प्रकार से ब्रह्माजी सहित इन 5 ऋषियों के अतिरिक्त अमैथुनी सृष्टि में जितने भी स्त्री-पुरूष उत्पन्न हुए थे वह सभी ज्ञान रहित थे। उनके पास न तो वेदों का ज्ञान था और न किसी भाषा का ही। भाषा के ज्ञान के लिए भी माता-पिता अथवा आचार्य की आवश्यकता होती है। उपलब्ध विवरण से यही ज्ञात होता है कि इन सबको भाषा व वेदों का ज्ञान ब्रह्मा जी से प्राप्त हुआ। यदि यह बात सत्य है, जो कि प्रमाणानुसार है, तो ब्रह्मा जी को इन सभी स्त्री व पुरूषों को पढ़ाने में बहुत लम्बा समय लगा होगा। इन मनुष्यों की कुल संख्या का विवरण भी प्रमाणिक साहित्य में उपलब्ध नहीं होता। हो सकता है कि इनकी संख्या एक सौ से 1000 के बीच या इससे भी अधिक हो सकती है। पूर्णतः ज्ञान शून्य युवा स्त्री पुरूषों को पढ़ाना ब्रह्मा जी के लिए काफी कठिन रहा होगा। पहले तो उन्हें स्वयं ही चार ऋषियों से अध्ययन करने में लंबा समय लगा होगा और फिर अन्य सभी स्त्री व पुरूषों को चारों वेदों का भाषा सहित ज्ञान देना अत्यन्त ही कठिन अनुभव होता है। परन्तु यह अवश्य हुआ और आज तक यह परम्परा चली आयी है। अतः इस पर सन्देह करने का कोई औचीत्य नहीं है।

 

यहां एक प्रश्न विचारार्थ और लेना चाहते हैं। शतपथ ब्राह्मण में उपलब्ध विवरण के अनुसार ईश्वर द्वारा अन्तर्यामीस्वरूप से अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा इन चार ऋषियों को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान ईश्वर द्वारा इनकी जीवात्माओं में प्रेरणा द्वारा प्राप्त हुआ था। इन ऋषियों ने इन वेदों का ज्ञान ब्रह्माजी को कराया। यहां एक प्रश्न और उसका उत्तर उपस्थित हो रहा है कि ब्रह्माजी सहित यह पांचों ऋषि किसी एक स्थान पर एकत्र हुए होंगे। यह कार्य ईश्वर की प्रेरणा से ही हुआ होगा। इसके बाद सबसे पहले अग्नि ऋषि ने ब्रह्माजी को ऋग्वेद के मन्त्र सुनाएं होंगे और ब्रह्माजी एक-एक मन्त्र करके उनको स्मरण कर रहे होंगे। कहीं शंका होने पर अग्नि ऋषि से पूछते भी होंगे? मन्त्र रटाने के बाद फिर वह उनका अर्थ भी ब्रह्माजी को बताते होंगे और ब्रह्माजी उनसे अपनी शंकाओं का निवारण करते होंगे। जब अग्नि ऋषि द्वारा ब्रह्माजी को ऋग्वेद का पाठ व अध्ययन कराया जा रहा होगा तो वहां वायु, आदित्य और अंगिरा बैठे हुए यह सब कुछ देख व सुन रहे होंगे। यह स्वाभाविक है कि इससे इन तीन ऋषियों को भी ब्रह्माजी सहित ऋग्वेद का ज्ञान हो गया होगा। इसके बाद वायु ने ब्रह्माजी को यजुर्वेद का अध्ययन व पाठ कराया होगा और अब अग्नि, आदित्य व अंगिरा ऋषियों ने इस वार्तालाप को देख व सुन कर यजुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर लिया होगा। और इसी प्रकार से क्रमशः सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान भी ब्रह्माजी सहित सभी ऋषियों को हो गया होगा। कुछ विद्वान हमारे इस अनुमान पर आपत्ति कर सकते हैं कि इसका उल्लेख तो शास्त्रों में है नहीं। हमारा उत्तर है कि यह सामान्य बात है कि जब दो व्यक्ति बातें कर रहें हों तो वहां उपस्थित अन्य व्यक्ति भी उनकी बातों को सुनते हैं। बैठकों में एक व्यक्ति बोलता है तो सभी उपस्थित जन उसकी बातों को सुनते हैं और प्रश्नोत्तर करते हैं। ऐसा ही आर्य समाज के साप्ताहिक सत्संगों व वार्षिकोत्सव की बैठकों में भी होता है। अतः इस प्रकार की आपत्ति का कोई आधार नहीं बनता। इस प्रकार से अध्ययन समाप्त होने पर पांचों ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा और ब्रह्मा वेदों के ज्ञानी बन गये होंगे और इसके बाद इन्होंने अलग-अलग वा मिलकर शेष शताधिक या सहस्राधिक स्त्री-पुरूषों को ज्ञान कराया होगा। इस अमैथुनी सृष्टि के बाद मैथुनी सृष्टि भी आरम्भ होनी थी जो कि निश्चित रूप से हुई और इन उत्पन्न नई पीढ़ी के बालक व बालिकाओं को इन ऋषियों व शेष स्त्री पुरूषों में से योग्य विदुषी और विद्वान पण्डितों द्वारा सभी बच्चों को अध्ययन कराया गया होगा। इस प्रकार से सृष्टि के आरम्भ में अध्ययन अध्यापन की परम्परा प्रचलित होने का अनुमान है।

 

हमने एक अन्य प्रश्न पर भी विचार किया है। वह यह कि सृष्टि के आरम्भ में जो मनुष्य उत्पन्न हुए उन्हें वेद मन्त्रों के अर्थ जानने में भारी कठिनाई होती होगी। मनुष्यों का आत्मा जो आज है वही सृष्टि के आरम्भ में भी था। हमारा शरीर पंच भूतों से मिलकर बना था। सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में भी सभी ऋषियों व साधारण जनों का शरीर भी इन्हीं पंचभूतों से बना था। भिन्नता केवल यही हो सकती है कि उनकी आत्माओं के संस्कार हमारी आत्माओं से उत्कृष्ट रहे हो सकते हैं। यदि ऐसा न होता तो अध्ययन अध्यापन व वेदों के ज्ञान के पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाने में काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता। ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अनादि, अनुत्पन्न, अजर अमर भी है। अतः सृष्टिकर्ता ईश्वर ने हर समस्या का निदान अपने विवेक से पहले ही किया हुआ रहा होगा। इस आधार पर जब हम देखते हैं तो हमें आदि अमैथुनी सृष्टि व उसके बाद की अनेकानेक पीढि़यों में उच्च कोटि के योगियों व मुनियों की सृष्टि अनुभव होती है। यह ऋषियों से पढ़ व सुन कर तत्काल उसे जान लेते होंगे। जिन वेद मन्त्रों के अर्थ जानने में कठिनता होती होगी उसे यह समाधि लगाकर ईश्वर से पूछ लेते होंगे या क्रमशः मन्त्रों पर विचार व चिन्तन कर अर्थ जान लेते होंगे जैसा कि महर्षि दयानन्द किया करते थे। और जब यह परम्परा सुस्थापित हो गई तो फिर धीरे-धीरे बुद्धि व स्मरण शक्ति का ह्रास होने लगा। ऐसा होने पर भी देश व समाज में अनेक ऋषि-मुनियों के होने पर हर समस्या का हल विवेक पूर्वक ढूंढा जाता रहा होगा। ऐसा होते-होते महाभारत काल का समय आ गया। रामायण-कालीन और महाभारत-कालीन वर्णन इन ग्रन्थों में उपलब्ध हैं ही। इस क्रम को यहां रोक कर हम पहले आदिकालीन मनुष्यों द्वारा भाषा व ज्ञान की उत्पत्ति पर विचार करते हैं तथा इस क्रम को इसके बाद जारी रखेगें।

 

क्या मनुष्य स्वयं भाषा व ज्ञान की उत्पत्ति कर सकता है? इसका उत्तर हमें नहीं में मिलता है। इसका कारण यह है कि सर्वप्रथम भाषा जो भी हो या होती है, उसके निर्माण के लिए ज्ञान का होना आवश्यक है। ज्ञानहीन व्यक्ति बुद्धिपूर्वक ज्ञान का कोई काम नहीं कर सकता। भाषा क्या है? यह वाक्यों का समूह होती है। वाक्य शब्दों से मिलकर बनते हैं। शब्द संज्ञायें, सर्वनाम व क्रियाओं आदि के रूप में होते हैं। इसके आतरिक्त का, को, कि, से, पर, में आदि जैसे अनेक शब्दों का प्रयोग भी होता है। यह सभी शब्द कुछ मिश्रित ध्वनियों के उच्चारण से बनते हैं। इन ध्वनियों को पृथक-पृथक किए बिना, जैसा कि हिन्दी की वर्णमाला देवनागरी लिपि में है, भाषा बन नहीं सकती। इसको बनाने के लिए ज्ञान की आवश्यकता अपरिहार्य है। ज्ञान है ही नहीं तो भाषा कदापि नहीं बन सकती। भाषा से पूर्व विचार करना होगा, विचार भाषा में ही हो सकता है, भाषा ज्ञान की वाहिका है व ज्ञान का आधार व मूल भाषा है। अतः ज्ञान बिना भाषा के रहता ही नहीं और जब भाषा ही नहीं है तो भाषा बनाने के लिए अपेक्षित ज्ञान न होने के कारण भाषा नहीं बन सकती है। इससे सिद्ध होता है कि आदि भाषा वैदिक संस्कृत और वैदिक संस्कृत में निहित ज्ञान “चार वेद” सर्वप्रथम सृष्टि की आदि में ईश्वर से प्राप्त हुए थे। इस ईश्वर कृत वैदिक संस्कृत भाषा के प्राप्त होने पर अध्ययन का क्रम चल पड़ता है और देश, काल व परिस्थिति के अनुसार उच्चारण दोषों आदि से नई-नई भाषायें बना करती हैं। हमारा यह भी निवेदन है कि इस विषय पर मौलिक विचारों को जानने के लिए महर्षि दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित उनके सभी ग्रन्थ उपयोगी हैं।

 

पुनः रामायण व महाभारत से आगे चर्चा करते हैं। महाभारत काल के बाद का इतिहास पूरी तरह सुरक्षित नहीं रहा है। इसका एक कारण विधर्मियों द्वारा तक्षशिला और नालन्दा के पुस्तकालयों को आग के समर्पित कर देना रहा। दूसरा कारण महाभारत काल के बाद आलस्य प्रमाद भी बढ़ता रहा और देश में अध्ययन व अध्यापन की सक्षम वा कारगर व्यवस्था व प्रणाली न रही जिससे महर्षि दयानन्द तक घोर अज्ञान व अन्धविश्वासों का समय हमारे देश में आया। विदेशों का कुछ-कुछ हाल भी अनुमान व उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर जाना जा सकता है। इतना और कहना समीचीन होगा कि महाभारत काल तक के लम्बे समय में देश में अनेकानेक ऋषि-मुनि हुए जिन्होंने ब्राह्मण, दर्शन, उपनिषद, ज्योतिष, आयुर्वेद, संस्कारों आदि के अनेकानेक ग्रन्थों का प्रणयन किया था। सौभाग्य की बात है कि इन विपरीत परिस्थितियों में हमारे अनेक ग्रन्थ सुरक्षित रह सके, यह ईश्वर की हम पर बहुत महती कृपा है। दूसरी कृपा हम पश्चिम के वैज्ञानिकों की भी मानते हैं जिन्होंने कागज, मुद्रण प्रेस, कमप्यूटर आदि नाना प्रकार के यन्त्र व संयत्रों का आविष्कार किया जिससे आज हमारे पास न केवल चार वेद, दर्शन व उपनिषदें ही विद्यमान हैं अपितु चारों वेदों के अनेक विद्वानों के भाष्य एवं इतर विपुल वैदिक साहित्य भी सुलभ है। हमारा अनुमान है महाभारत काल उससे पूर्व भी आजकल की तरह एक व्यक्ति के पास सहस्रों ग्रन्थ नहीं रहा करते होंगे जैसे कि आजकल हैं। यह आधुनिक युग की देन जिसका अधिकांश श्रेय पश्चिमी जगत के वैज्ञानिकों को है। इस कार्य में सबसे अधिक यदि किसी अन्य का महनीय योगदान है तो वह महर्षि दयानन्द सरस्वती व उनके अनुयायियों का है। हम उनके चरणों का वन्दन करते हैं। यह भी कहना चाहते हैं कि हमारे देश के लोगों सहित विदेश के लोगों ने भी उनका उचित मूल्याकंन नहीं किया और न ही उनके द्वारा की गई आध्यात्मिक खोजों से लाभ उठाया है। राजनैतिक व अनेक सामाजिक दलों ने तो उनकी जानबूझकर उपेक्षा की है और उनसे न्यून व विपरीत ज्ञान तथा आचरण में भी कमजोर लोगों को उनसे अधिक योग्य सिद्ध करने का प्रयास किया है व किए जा रहे हैं। हम महर्षि दयानन्द की जय बोलकर इस लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘धर्म प्रवतर्कों व प्रचारकों के लिए वेद-ज्ञानी होना अपरिहार्य’

veda knower

ओ३म्

धर्म प्रवतर्कों प्रचारकों के लिए वेदज्ञानी होना अपरिहार्य


देश व विदेशों में नाना मत मतान्तर, जो स्वयं को धर्म कहते हैं, सम्प्रति प्रचलित हैं। इनमें से कोई भी वेदों को या तो जानता ही नहीं है और यदि वेदों का नाम आदि जानता भी है तो वेदों के यथार्थ महत्व से वह सर्वथा अपरिचित होने के कारण वेदों का उपयोग नहीं कर सकता। क्या बिना वेदों का ज्ञान प्राप्त किए किसी सत्य मत की स्थापना की जा सकती है? हमारा अध्ययन कहता है कि बिना वेदों के यथार्थ ज्ञान के धर्म की स्थापना नहीं की जा सकती। यदि की गई है व की जायेगी तो वह धर्म न होकर मत व मजहब होगा और वह पूर्ण सत्य मान्यताओं पर आधारित नहीं हो सकता है। यह बात सभी मतों व सम्प्रदायों पर पर समान रूप से लागू होती है। वेद के ज्ञान से विहीन मत पूर्ण सत्य क्यों नहीं होंगे, इसका कारण यह है कि ईश्वर ने इस ब्रह्माण्ड तथा मनुष्यों को बनाया है। ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वज्ञ है और मनुष्य एकदेशी, ससीम व अल्पज्ञ है। ईश्वर के सर्वव्यापक और सर्वज्ञ होने तथा मनुष्यों व अन्य सभी प्राणियों को उत्पन्न करने से केवल वह ही जानता है कि जीवात्मा को क्या करना चाहिये और क्या नहीं? कोई भी मनुष्य, विद्वान या महापुरूष जो भी पूर्ण सत्य धर्म को जानने का प्रयास करेगा उसमें वह पूर्णतः सफल नहीं हो सकता। अल्पज्ञ होने के कारण वह ईश्वर की सहायता के बिना सत्य ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। अतः उसे ईश्वर की शरण में जाना ही होगा और उससे पूछना पड़ेगा कि मनुष्यों के कर्तव्य और अकर्तव्य क्या हैं? ईश्वर से पूछने पर उसे पहले ईश्वर में एकाकार अर्थात् समाधिस्थ होना पड़ेगा। सभी के लिए यह सम्भव नहीं होता। अतः वह स्वयं, अपने आचार्यों व विद्वानों से ईश्वर के प्रति मनुष्यों के कर्तव्यों के विषय में ज्ञान प्राप्त करेंगे जो कि कुछ व अधिकांश सत्य हो सकता है परन्तु उसका कुछ या बड़ा भाग असत्य या अर्धसत्य भी हो सकता है।

 

इस कारण मनुष्य सत्य धर्म का निर्धारण नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में मनुष्य के सामने क्या विकल्प बचता है? इसका एक ही विकल्प है कि संसार में सबसे प्राचीनतम ज्ञान क्या है, इसे जानने का प्रयास करे। ऐसा करने पर उसे वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, बाल्मिकी रामायण, महाभारत, जेन्दावस्था, बाइबिल, कुरआन, बौद्धों और जैनियों के मत वा धर्म की पुस्तकें व 18 पुराण आदि प्राप्त होती है। अब उसका कर्तव्य है कि वह एक-एक करके सभी ग्रन्थों का पूर्ण निष्पक्षता, सूक्ष्मता व गम्भीरता से  अध्ययन करे। इसमें वह अनेक विद्वानों की सहायता भी ले सकता है। इस अध्ययन के बाद जो बातें सब पुस्तकों में निर्विवाद हैं उन्हें धर्म माना जा सकता है या कहें कि वह मान्यतायें व सिद्धान्त निर्विवाद रूप से संसार के प्रत्येक व्यक्ति का धर्म हैं। अब जिन विषयों में एक से अधिक मत या विचार सामने आते हैं, उन्हें लेकर गोष्ठी व चर्चा की जानी चाहिये। पहली कसौटी तो यह हो सकती हैं कि क्या वह मान्यतायें तर्क व युक्ति से सिद्ध होती हैं। यदि वह तर्क संगत हैं तो तर्क संगत को स्वीकार कर उनका संग्रह करना चाहिये और तर्कहीन, युक्ति विरूद्ध एवं सृष्टि कर्म के विरूद्ध मान्यताओं को त्याग देना चाहिये। इस प्रकार तर्क व युक्ति आदि की कसौटी पर जो बाते सिद्ध हैं, वह स्वीकार्य और उसके विपरीत बातें अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड व अकर्तव्य होती हैं। उन बातों को जो तर्क संगत व युक्ति संगत हैं, उन्हें वेद के साथ तुलना कर देखना होगा कि क्या इनमें कोई मान्यता या सिद्धान्त वा बात वेद विरूद्ध तो नहीं है? वेद विरूद्ध मान्यताओं और वेद की मान्यताओं को तर्क, युक्ति व सृष्टि कर्म के अनुकूल होने पर अथवा निभ्र्रान्त होने पर ही स्वीकार किया जा सकता है। यह कार्य महर्षि दयानन्द ने सन् 1836 से आरम्भ कर सन् 1860 तक किया और उसके बाद 30 अक्तूबर, 1883 को अपने देहावसान तक जारी रखा। उन्होंने पाया कि वेदों की कोई भी बात तर्क विरूद्ध या युक्ति विरूद्ध नहीं है। वेदों की सभी बातें सृष्टिक्रम के अनुकुल हैं व सिद्ध योगी उनके निभ्र्रान्त होने का अनुभव अपनी समाधि अवस्था में करता है। यह भी रोचक तथ्य है कि असम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था केवल वैदिक व सनातन मत के कुछ थोड़े से ही लोगों को प्राप्त होती है, अन्य मत वालों को इसका लाभ नहीं मिलता। इस कारण उन्होंने वेदों में विहित मान्यताओं को धर्म स्वीकार किया है। अन्य सभी मत-मतान्तरों की बातें जो वेदों के सिद्धान्तों के विपरीत या विरूद्ध न हों उन्हें भी उन्होंने ग्राह्य व धर्म स्वीकार किया जाना चाहिये या वह धर्म के अन्तर्गत आयेंगी। इस प्रकार से जो मनुष्यों के कर्तव्य व मान्यतायें सत्य सिद्ध होती हैं वही सारे संसार का धर्म कहलाती हैं व हो सकती हैं। इस प्रकार से यह धर्म सारे संसार के लोगों के लिए एक ही सिद्ध होता है।

 

यदि हम ऐसा नहीं करते तो फिर हमें अन्य-अन्य मत का अनुयायी बनना पड़ेगा जैसे कि हम वर्तमान में हैं। इससे हम मनुष्य जन्म के उद्देश्य, जो इस संसार को बनाने वाला ईश्वर हमसे अपेक्षा करता है और जिससे जीवन की इस जन्म व परजन्म में उन्नति व मोक्ष आदि की प्राप्ति होती है, उस करूणासिन्धु व दयानिधान ईश्वर के निकट जाने के स्थान पर हम उससे दूर होते जायेंगे। इससे हानि हमारी ही होनी है, इसे सभी मनुष्यों को समझना है। ईश्वर क्योंकि अनादि, अजंन्मा, नित्य और सर्वज्ञ है और इस सृष्टि का रचयिता, पालक और इसका नियंत्रक है, समस्त प्राणी जगत का वह आधार व रचयिता एवं पालक है, अतः उसके द्वारा प्रवर्तित धर्म ही मनुष्य धर्म हो सकता है।

 

अब हम इस प्रश्न पर विचार कर लेते है कि क्या ईश्वर धर्म प्रचार के लिाए सृष्टि के आदि काल के बाद शेष अवधि में किसी मनुष्य को अपने पुत्र, मत-धर्म-प्रवर्तक, प्रचारक आदि के रूप में भेजता है? इसका उत्तर यह मिलता है कि ईश्वर ने सृष्टि की आदि में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य अंगिरा के द्वारा चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान दिया जो यथार्थ मनुष्य धर्म है। यह धर्म किसी एक जाति या समूह, सम्प्रदाय आदि के लिए नहीं अपितु संसार के सभी लोगों के लिए है। वेदों पर किसी एक जाति, मत या सम्प्रदाय के मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है अपितु यह ज्ञान प्रत्येक मनुष्य के लिए है और वह इसको जानने, समझने व आचरण करने के पूर्ण अधिकारी हैं। यदि कोई यह समझता या मानता है कि वेदों पर किसी एक जाति, धर्म या सम्प्रदाय के लोगों का ही अधिकार है, इतर मतों के अनुयायियों व अन्यों को अधिकार नहीं है तो ऐसे लोग पहले भी अज्ञान ग्रस्त थे और आज भी अज्ञान ग्रस्त हैं। वेदों पर मानवमात्र व सभी जातियों, मतवादियों वा धर्मानुयायियों का समान अधिकार है। हां कोई वेद का दुरूप्योग न करे, इसका पूरा पूरा प्रबन्ध होना चाहिये। इस चर्चा से यह सिद्ध होता है कि वेद मानव धर्म है और इसके सत्य स्वरूप को जानकर इसका प्रचार करना ही उचित है। इससे इतर अन्य किसी धर्म की मनुष्यों को किंचित आवश्यकता नहीं है। जो वेद ज्ञान के पूर्ण अधिकारी या ज्ञानी नहीं है, उन्हें धर्म का प्रचार करने का अधिकार नहीं है जबकि आजकल इसके विपरीत हो रहा है। यदि वह ऐसा करेंगे या कर रहे हैं तो उनके अज्ञान व स्वार्थ के कारण देश व समाज पर इसका बुरा प्रभाव पड़ना अनिवार्य है। चूंकि वेद स्वयं में सर्वांगीण व पूर्ण मानव धर्म है, वेद सब सत्य विद्याओं वा धर्म की प्रथम व अन्तिम पुस्तकें है, इसमें कोई कमी या त्रुटि नहीं है, अतः ईश्वर सृष्टि उत्पत्ति के बाद वेदों का ही ज्ञान देता है और उसके बाद वह किसी को मत-धर्म स्थापना के लिए नहीं भेजता है।

 

आज कल हम देश भर में अनेक धर्म गुरुओं को प्रवचन आदि के द्वारा प्रचार करते हुए देख रहे हैं। यद्यपि वह प्रचार तो कर रहे हैं परन्तु उसे धर्म प्रचार की संज्ञा नहीं दी सकती। यह भी कहा जा सकता है कि गुरूडमों को बढ़वा दे रहे हैं। अभी पिछले दिनों हमने कई धर्म गुरूओं व गुरूडमों का कच्चा चिट्ठा जाना है। उनके व अन्य धर्म गुरुओं के प्रवचनों व उपदेशों में बहुत सा भाग वेदों के विरूद्ध होता है। बहुत कुछ उनकी अपनी मान्यतायें होती हैं जिसके पीछे उनके अज्ञान व स्वार्थ भी होते हैं। हमारे भोले व धर्म-अज्ञानी बन्धु अल्पज्ञ होने के कारण उनके निहित स्वार्थों को जान नहीं पाते और उनका अन्धानुकरण करते वह कर रहे हैं। उनका यह कार्य देश में एक सामाजिक समस्या को भी उत्पन्न कर रहा है। सबसे श्रेष्ठ समाज वही हो सकता है कि जहां सभी लोग एक मत व एक विचारधारा के मानने वाले हों। परमात्मा एक है, सत्य एक है अतः धर्म भी एक ही होना चाहिये जो कि ईश्वर की आज्ञा के पालन को कहते हैं। क्या ईश्वर की आज्ञायें अनेक मत संस्थापकों या प्रचारकों के अनुयायियों के लिए अलग-अलग हो सकती हैं? कदापि नहीं। वेद समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्। समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि।। तथा समानी आकूतिः समाना हृदयानि वः। समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।कहकर संसार के सभी मनुष्यों के लिए एक धर्म, एक मत का उदघोष करते हैं। अतः सभी को अज्ञानी व स्वार्थी गुरूओं के अन्धभक्त बनने से बचना चाहिये और स्वयं स्वाध्याय वा अध्ययन कर तथा सत्पुरूषों की शरण में जाकर ईश्वर के द्वारा सृष्टि के आरम्भ में दिये गये वेद ज्ञान को अपनाना, मानना व पालन करना चाहिये। इसी से उनके इस जीवन का और परजन्म का कल्याण होगा, यह सुनिश्चित है। धर्म जिज्ञासुओं को हम सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने का भी सुझाव देंगे। वेदों का यह भी शाश्वत व विशिष्ट सन्देश है कि संसार के सभी लोग एवं प्राणी परस्पर भाई-बहिन हैं और ईश्वर हमारा माता-पिता, आचार्य, राजा व न्यायाधीश है।

 –मनमोहन कुमार आर्य

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‘जीवात्मा ईश्वर नहीं, ईश्वर का मित्र बन सकता है’

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ओ३म्

जीवात्मा ईश्वर नहीं, ईश्वर का मित्र बन सकता है


मनुष्य जीवन का उद्देश्य है उन्नति करना। संसार में ईश्वर सबसे बड़ी सत्ता है। जीवात्माओं की ईश्वर से पृथक स्वतन्त्र सत्ता है। जीवात्मा को अपनी उन्नति के लिए सर्वोत्तम या बड़ा लक्ष्य बनाना है। सबसे बड़ा लक्ष्य तो यही हो सकता है कि वह ईश्वर व ईश्वर के समान बनने का प्रयास करे। प्रश्न यह है कि मनुष्य यदि प्रयास करे तो क्या वह ईश्वर बन सकता है? इसका उत्तर विचार पूर्वक दिया जाना समीचीन है। इसके लिए ईश्वर तथा जीवात्मा, दोनों के स्वरूप को जानना होगा। ईश्वर क्या है? ईश्वर वह है जिससे यह संसार अस्तित्व में आता है अर्थात् ईश्वर इस सृष्टि या जगत का निमित्त कारण हैं। निमित्त कारण किसी वस्तु के बनाने वाले चेतन तत्व व सत्ता को कहते हैं। इसमें ईश्वर भी आता है और मनुष्य वा जीवात्मा भी। ईश्वर ने इस सारे संसार को रचकर बनाया है। ईश्वर ने अमैथुनी सृष्टि में हमारे पूर्वजों अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, ब्रह्मा आदि पुरूषों सहित स्त्रियों को भी बनाया और उसके बाद से वह मैथुनी सृष्टि द्वारा मनुष्य आदि और समस्त प्राणियों की रचना कर उन्हें जन्म देता आ रहा है।

 

ईश्वर के कार्यों में सृष्टि की रचना कर उसका संचालन करना और अवधि पूरी होने पर प्रलय करना भी सम्मिलित है जिसे वह इस सृष्टि के कल्प में विगत 1.96 अरब वर्षो से करता आ रहा है। इससे पूर्व भी वह अनन्त बार अनन्त कल्पों में सृष्टि की रचना कर उसका पालन करता रहा है। वह यह कार्य इस लिए कर पाता है कि उसका स्वरूप सच्चिदानन्द (सत्य, चित्त व आनन्द) स्वरूप है। वह सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकत्र्ता है। जीवों के पुण्य व पापों के अनुसार जीवों को भिन्न-भिन्न योनियों में भेजकर उन्हें उनके अनुसार सुख-दुःख रूपी फल देना भी ईश्वर का कार्य है और यह भी उसका स्वरूप है। दूसरी ओर जीवात्मा के कुछ गुण ईश्वर के अनुरूप हैं व कुछ भिन्न। जीवात्मा अर्थात् हम वा हमारा आत्मा अर्थात् हमारे शरीर मे विद्यमान चेतन तत्व है। यह या इसका स्वरूप कैसा है? जीवात्मा सत्य पदार्थ, चेतन तत्व, आनन्द रहित व ईश्वर से आनन्द की अपेक्षा रखने व प्राप्त करने वाला, अल्पज्ञ, निराकार, अल्प व सीमित शक्ति से युक्त, न्याय व अन्याय करने वाला, अजन्मा, अनादि, अविनाशी, अमर, जिसका आधार ईश्वर है, ईश्वर से ऐश्वर्य प्राप्त करने वाला, एकदेशी, ससीम, ईश्वर से व्याप्य, अजर, नित्य व पवित्र है। यह कर्म करने में स्वतन्त्र तथा उनका फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। ईश्वर की उपासना करना इसका कर्तव्य है।

 

जीवात्मा और ईश्वर का वेद सम्मत युक्ति व तर्क सम्मत स्वरूप उपर्युक्त पंक्तियों में वर्णित है। जीवात्मा के स्वाभाविक गुणों में अल्पज्ञता, नित्य व इसका अनादि होना आदि गुण हैं जो सर्वज्ञता में कदापि नहीं बदल सकते। ईश्वर अपने स्वाभाविक गुण के अनुसार ही सर्वज्ञ है। जीवात्मा अल्प शक्तिशाली है तो ईश्वर सर्वशक्तिमान है। ईश्वर सृष्टि को बनाकर इसका सफलतापूर्वक संचालन करता है। यह कार्य जीवात्मा कितनी भी उन्नति कर ले नहीं कर सकता। ईश्वर सर्वव्यापक है और जीवात्मा एकदेशी। यह जीवात्मा अधिकतम उन्नति कर भी सर्वव्यापकता को प्राप्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार से जीवों की अपनी सीमायें है। अतः जीवात्मा सदा जीवात्मा ही रहेगा और ईश्वर सदा ईश्वर रहेगा। यह जान लेने के बाद यह जानना शेष है कि जीवात्मा अधिकतम उन्नति कर किस स्थान को प्राप्त कर सकता है। इसका उत्तर यह मिलता है कि जीवात्मा के अन्दर मुख्य रूप से दो गुण विद्यमान हैं। एक ज्ञान व दूसरा कर्म या क्रिया। जीवात्मा अल्पज्ञ और ससीम होने से सीमित ज्ञान ही प्राप्त कर सकता है और सीमित कर्म या क्रियायें ही कर सकता है। ज्ञान प्राप्ति व कर्म करने में भी इसे ईश्वर की सहायता की अपेक्षा है। ईश्वर ने जीवात्मा में ज्ञान की उत्पत्ति के लिए सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अर्थववेद का ज्ञान चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा के माध्यम से दिया था जो विगत 1.96 अरब वर्षों से यथावत् चला आ रहा है। वेदों में एक साधारण तिनके से लेकर सभी सृष्टिगत पदार्थों व संसार की सबसे सूक्ष्म व बड़ी सत्ता ईश्वर तक का आवश्यक ज्ञान दिया गया है। ईश्वर प्रदत्त ज्ञान होने से यह पूर्णतया निभ्रान्त सत्य ज्ञान है और परम प्रमाण है। यह भी कह सकते हैं कि वेदो में सत्य ज्ञान की पराकाष्ठा है। जीवात्मा परम्परानुसार पुरूषार्थ व तप पूर्वक वेदों का ज्ञान अर्जित कर सर्वोच्च उन्नति पर पहुंच सकता है। यही उसका उद्देश्य व लक्ष्य भी है। जीवात्मा में दूसरा गुण कर्म करने का है। कर्म भी मुख्यतः शुभ व अशुभ भेद से दो प्रकार के हैं। उसे कौन से कर्म करने हैं और कौन से नहीं, इसका ज्ञान भी वेदों से मिलता है। अन्य सामान्य आवश्यक कर्मों के साथ ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, माता-पिता-आचार्य व विद्वान अतिथियों की सेवा तथा सभी प्राणियों के प्रति मित्रता का भाव रखते हुए उनके जीवानयापन में सहयोगी होना ही मनुष्य के मुख्यः कर्म हैं जो उन्हें नियमित रूप से करने होते हैं। इनमें अनाध्याय नहीं होता। इस प्रकार वेदों का ज्ञान प्राप्त कर वेद विहित कर्मों को करके मनुष्य उन्नति के शिखर पर पहुंचता है। इसके अलावा जीवन की उन्नति का अन्य कोई मार्ग है ही नहीं। केवल धन कमाना और सुख सुविधाओं को एकत्रित करना ही जीवन का उद्देश्य नहीं है। धर्म व सदाचार पूर्वक घन कमाना यद्यपि धर्म के अन्तर्गत आता है परन्तु इससे जीवन की सर्वांगीण उन्नति नहीं हो सकती। इसके लिए तो वेद विहित व निर्दिष्ट सभी करणीय कर्मों को करना होगा और निषिद्ध कर्मों का त्याग करना होगा।

 

ईश्वरोपासना व अग्निहोत्र आदि वेद विहित कर्मों को करके मनुष्य की ईश्वर से मित्रता हो जाती है अर्थात् जीवात्मा ईश्वर का सखा बन जाता है। महर्षि दयानन्द, मर्यादा पुरूषोत्तम राम, योगेश्वर कृष्ण, पतंजलि, गौतम, कपिल, कणाद, व्यास, जैमिनी, पाणिनी तथा यास्क आदि ऋषियों ने सम्पूर्णं वेदों का ज्ञान प्राप्त कर वेदानुसार कर्म करके ईश्वर का सान्निध्य, मित्रता व सखाभाव को प्राप्त किया था। यह ईश्वर तो नहीं बने परन्तु ईश्वर के सखा अवश्य बने। यह सभी विद्वान भी थे और धर्मात्मा भी। महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ व्यवहार भानु में एक प्रश्न उठाया है कि क्या सभी मनुष्य विद्वान व धर्मात्मा हो सकते हैं? इसका युक्ति व प्रमाण सिद्ध उत्तर उन्होंने स्वयं दिया है कि सभी विद्वान नहीं हो सकते परन्तु धर्मात्मा सभी हो सकते हैं। ईश्वर का मित्र बनने के लिए वेदों का विद्वान बनना व वेद की शिक्षाओं का आचरण कर धर्मात्मा बनना मनुष्य जीवन की उन्नति का शिखर स्थान है। इससे ईश्वर से सखा भाव बन जाता है। यदि कोई विद्वान न भी हो तो वह विद्वानों की संगति कर उनके मार्गदर्शन में ऋषियों मुनियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय कर धर्मात्मा बन कर ईश्वर से मित्रता व सखाभाव उत्पन्न कर सकता है और जीवन सफल बना सकता है। यह सफलता धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चार पुरूषार्थों का युग्म है। यह वेद के ज्ञान से सम्पन्न और वेदानुसार आचरण करने वाले योगियों या ईश्वर भक्तों को ही प्राप्त होती है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि आजकल प्रचलित मत-मतान्तर के अनुयायियों को ईश्वर का यह मित्रभाव पूर्णतः प्राप्त नहीं हो सकता, आंशिक व न्यून ही प्राप्त हो सकता है। यह सभी मत-मतान्तर धर्म नहीं है। यह विष मिश्रित अन्न के समान त्याज्य हैं इसलिए कि इनमें सत्य व असत्य दोनों का मिश्रण हैं। पूर्ण सत्य केवल वेदों में है जिसे स्वाध्याय द्वारा जाना जा सकता है। आईये, वेद की शरण में चले और वेदाचरण कर ईश्वर से मित्रभाव सखा प्राप्त कर अपने जीवन की उच्चतम उन्नति कर धर्म, अर्थ, काम मोक्ष को प्राप्त करें। यह मित्रभाव ऐसा होता है कि दोनों एक तो नहीं बनते लेकिन लगभग समान कहे जा सकते हैं। ऐसी स्थिति में जीव यह धोषणा कर सकता है कि अहं ब्रह्मास्मिअर्थात् मैं ब्रह्म में हूं, ब्रह्म अर्थात् ईश्वर मुझ में है, हम दोनों परस्पर सखा व मित्र बन गये हैं। यही नहीं सर्वा आशा मम मित्रं भवंतुअर्थात् सभी दिशायें और सभी प्राणी मेरे मित्र बन गये हैं। मेरा जीवन सार्थक हो गया है।

मनमोहन कुमार आर्य

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