Category Archives: वेद विशेष

वर्ण-विचार

वर्ण-विचार

श्री गणेश कुमार पेटकर…..

भारतीय संस्कृति और समाज में आर्यों की वर्ण व्यवस्था सामाजिक और राष्टीय एकता के लिए थी, विभाजन के लिए नहीं। वेद में कहा गया है चारो वर्ण एक ही शरीर के अंग है। उनके अनुसार अल्पज्ञ व्यक्ति इसका

अर्थ और स्वरुप ठीक से न समझने के कारण भ्रांति उत्पन्न करते हैं। ‘‘ऊँच नीच का भाव सम्पूर्ण मिथ्या’’ ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारों आर्य जाति के अभिन्न अंग है यदि आर्यजाति श्रेष्ठ है तो ये चारों वर्ण भी श्रेष्ठ है।किसी भी श्रेष्ठ और पूज्य पुरुष के किसी अंग अपूजनीयता का भाव नहीं रहता।व्यवहारिक सत्य तो यह है कि सर ही चरणों पर नवाया (झुकाया) जाता है। आज चारों वर्णों के लोग समान रुप से सभी कार्यों में लगे हुए है। ऐसा कोई भी कार्य नहीं जहाँ ये चारों न हो इसलिये यह कहना सर्वथा मिथ्या है कि एक वर्ण ऊँचा है और दुसरा नीच। महर्षि चाणक्य के अनुसार आर्यजाति के प्राण स्वरुप किसी शूद्र को यदि कोई दास बनाता है तो उसे मृत्युदण्ड दिया जाना चाहिए।हिन्दू धर्म में वर्णव्यवस्था मूलतः कर्म और गुण के आधार पर ही स्वीकार की गई थी ना कि जन्म के आधार पर। यही कारण है कि शास्त्रों में कई स्थानों पर उल्लेख

आता है कि आचारहीन ब्राहमण से राजा को शूद्र का कर्म करवाना चाहिए। आज न तो साम, दाम, विद्या, तपआदि से युक्त ब्राहमण ही दिखाई देते है, न ही धृति शौर्य आदि और कमजोरों के लिए प्राण अर्पित करने वाले क्षत्रियों का ही कहीं पता है, और न उदर के समान सम्पूर्ण शरीर का पोषण करनेवाले वे वैश्य ही नजर आते हैं कि समाज के प्रत्येक वर्ग अथवा वर्ण का पालन करने के लिए उदारता से धन व्यय करें। ऐसी

परिस्थिति में अन्य वर्णों द्वारा शूद्रों को अपने से नीचा मानने का विचार, दम्भ एवं आत्मश्लाघा से अधिक कुछ भी नहीं है। हिन्दू धर्म की यह भी मान्यता रही है कि विभिन्न देश काल में समाज के युग धर्म के

अनुरुप ही वर्णाश्रम धर्म के नियम भी बदल जाते हैं। यही कारण था कि मध्ययुग धर्म के अनुरुप ही वर्णाश्रम धर्म के नियम भी बदल जाते हैं। यही कारण था कि मध्य युग के सन्तों ने यह क्रान्तिकारी सन्देश दिया कि ‘‘जाति पाँति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई’’ बदलते युग-धर्म के आधार पर ही हिन्दू समाज में समानता और एकता का सिद्धान्त मानव मात्र के कल्याण हेतु प्रतिपादित किया गया है।

राज्य द्वारा समान अधिकार

हिन्दू समाज में यह भारी भ्रम व्याप्त है कि शूद्र को शासन एवं सामाजिक कार्यों में कभी समान अधिकार

नहीं दिया गया था। सत्य तो इसके विपरीत है।महाभारत के शान्तिपर्व में मन्त्रि परिषद के गठन की व्यवस्था बड़े स्पष्ट रुप से दी गयी है। उसमें पितामह भीष्म के अनुसार मन्त्रियों की संख्या ३७ होनी चाहिए जिसमें ४ ब्राह्मण, ४ शूद्र, ८ क्षत्रिय, २१ वैश्य होने चाहिए। वैश्यों की इतनी अधिक संख्या सम्भवतः इसलिए थी कि उस समय कृषि, उद्योग एवं व्यापार काफी उन्नत अवस्था में थे।ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि ब्राहमण और शूद्रों की संख्या एक समान रखी गई थी।

आध्यात्म के क्षेत्र में समानताः

आध्यात्म के क्षेत्र में तो हिन्दू धर्म में वर्णव्यवस्था की बात तो दूर रही, कुल, जाति, धन, रूप, विद्याआदि की श्रेष्ठता के अभिमान को भी परमार्थ सिद्धि में बाधक माना गया है। परमार्थ सिद्धि के प्रसंग में वर्ण, कुल, जाति की कल्पना आकाश गमनागमन के लिए सड़को और फुटपाथों की भाँति ही हास्यास्पद लगती है। जैसे आकाश में निश्चित संकेतो पर निर्भर रहकर ही सही रूप से दिशा और लक्ष्य का ज्ञान होता है उसी प्रकार

हिन्दू धर्म में परमात्मा की ओर बढ़ने के लिए ये नियम तो केवल चित्त शुद्धि के आधार है, वास्तविक प्रगति के लिए तो ईश्वर और गुरु की कृपामार्ग का कार्य करते हैं। यही कारण था कि अपने समय के सबसे महान वंश की कुलवधु मीरवाई ने सन्त रैदास जी के चरणों में बैठकर ज्ञान प्राप्त किया।

मध्यकालीन युग, जिसे भक्ति युग भी कहते हैं, जब सारा देश विदेशी आक्रमणकारी मुस्लिम शक्तियों से

आक्रान्त था, उस समय सन्तों एवं भक्तों ने ही मुख्यतः देश के दलित एवं पीड़ित समाज की रक्षा की थी और इन सन्तों में से लगभगं ८० प्रतिशत संत गैर ब्राहमण वर्ण के थे। ये सभी संत देश की समस्त जनता के

लिए श्रद्धा और भक्ति के पात्र थे और आज भी हैं। आध्यात्म के क्षेत्र में एसी समानता का उदाहरण विश्व के इतिहास में कहीं भी नहीं मिलेगा। उपर्युक्त चिंतन से यह स्पष्ट है कि हिन्दू समाज का गठन गुणों और कर्मों के आधार पर हुआ था और प्राशासनिक एवं सामाजिक कार्यों में सभी वर्णों का समान रुप से योगदान रहा है। राष्ट के विपत्ति काल के समय शूद्र एवं वैश्य वर्णों का जो अभूतपूर्व योगदान रहा है उसके उदाहरणों से भारत का इतिहास भरा पड़ा है। मैं यहाँ पर पाठकों का ध्यान शास्त्रों एवं पुराने इतिहास से हटाकर पिछले ३०० वर्षों में हुई ऐसी दो महान घटनाओं की ओर आकर्षित करना चाहूँगा जिन्होने हिन्दू धर्म में दो महान क्षत्रिय जातियों को जन्म दिया और देश की रक्षा की। पहली घटना के प्रवर्तक क्षत्रपति शिवाजी थे जिन्होने

१७ वीं शताब्दी में महाराष्ट के अन्दर अपने अदम्य शौर्य रणकौशल, त्याग एवं बलिदान के बल पर वहाँ की

साधारण हिन्दू जनता को एक शस्त्र जीवी क्षत्रिय के रुप में परिवर्तित कर दिया। इस प्रबल शक्ति ने अपने समय के विश्व के सबसे अन्यायी विदेशी मुगल साम्राज्य को उखाड़ फेंका। दूसरी ऐसी ही महान ऐतिहासिक घटना कुछ ही वर्षों बाद १८ वीं शताब्दी के शुरु में पंजाब में हुई। इसके जन्मदाता थे गुरु गोविन्द सिंह जी, जिन्होनें जान हथेली पर रखकर आये हुए पाँच शिष्यों को लेकर महान खालसा की स्थापना की थी जिसके अन्तर्गत आज शौर्य सम्पन्न सिख समाज विश्व के सामने प्रस्तुत है।

ईश्वरीय व्यवस्था

वर्णव्यवस्था वैदिक धर्म की अपनी रचना नहीं अपितु ईश्वरीय रचना है। इस रचना के बिना किसी राष्ट का स्वरुप, सुखी सम्पन्न तथा प्रगतिशील होना सर्वथा असम्भव है और संसार का कोई राष्ट ऐसा नहीं है जिसमें

वह व्यवस्था न पाई जाती हो। भले ही अन्य राष्ट इस व्यवस्था को वर्णव्यवस्था और इसके अंगो को ब्राहमण,

क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के नाम से न पकार रहे हो अपितु उन्हें शिक्षक, सैनिक, व्यापारी तथा मजदूर नाम से पुकारते हैं। परन्तु यह बात सत्य है। कि इन चारों वर्णों के अतिरिक्त किसी भी समाज में अन्य कोई वर्ग नहीं है। वर्ण-व्यवस्था ईश्वरीय व्यवस्था कैसे हो? इसका पहला प्रमाण तो यही है कि सृष्टि के आदि में मानव जाति के कल्याणार्थ किये गए उपदेश वेद में इसका उल्लेख इस प्रकार है-

ब्राहमणोऽस्य मुखमासीत् बाहु राजन्यः कृताः।

उरु तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शुद्रोऽजायत्।।

वेद को न मानने वाले यह कहते हैं कि वे वेद की बात स्वीकार करने को तैयार नहीं है।परन्तु इस तथ्य को तो सभी धर्मावलम्भी स्वीकार करते हैं कि वेद इतिहास में पुरानी ईश्वरीय रचना है।वास्तव में मान वही राष्ट का छोटा स्वरुप है। ईश्वर ने स्वयं मानव तथा मानव समाज को कल्याणार्थ वेद के रुप में अपना ज्ञान दिया है, वहाँ अपनी रचना द्वारा अपने इस उपदेश को क्रीयात्मक रुप में उपस्थित कर दिया है। मानव अपनी

समस्त समस्याओं का समाधान ईश्वरीय रचना अथवा अपने अन्दर दी गई शक्ति के द्वारा प्राप्त कर सकता है। योग-साधना से सभी कुछ साध्य हो जाता है। मानव शरीर में शरीर के चारों अंश सिर, भुजा, उदर तथा जंघाये अपने कर्तव्य के कारण ही अपना-अपना अलग महत्व रखते हैं। परन्तु आपसी सम्बन्ध में सब समान हैं। इनके अन्दर भेद उत्पन्न करना या किसी को छोटा-बड़ा या छूत-अछूत समझना मूर्खता है। सब अंग मिलकर ही राष्ट बनाते हैं। किसी एक की भी उपेक्षा करना घातक है। दुर्भाग्यवश वर्तमान समय में भारत में यह वर्ग-भेद व्यक्तियों के गुण-कर्म और स्वभाव पर आधारित न होकर जन्म पर आधारित हो गया है। और इसके जन्मगत् जात पात अवैदिक तथा ईश्वरीय विधान के विपरीत है, इसलिए समाज के लिए घातक तथा विनाशकारी हैं। इसे किसी भी रुप में मान्यता देना ईश्वर के आदेश के विपरीत आचरण करना है। वैदिक धर्म का मन्तव्य यह है है कि जन्म से सभी शूद्र होते है। परन्तु बाद में माता पिता गुरु आदि की कृपा से पढ़ने-

लिखने के पश्चात् ही व्यक्ति अपना वर्ण ग्रहण करता है। उससे पूर्व नहीं।

ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्ण के कर्तव्य संक्षिप्त में इस प्रकार हैं-

ब्रा२णचरित्रवान्, धर्मात्मा तथा ज्ञानी व्यक्ति, जो समाज में अविद्या के नाश और विद्या की वृद्धि करने का व्रत लेते हैं वह ब्राहमण कहलाता है।

क्षत्रियजो व्यक्ति चरित्रवान्, ज्ञानी, राष्ट की स्वतन्त्रता की रक्षा करने का व्रत लेते हैं वे क्षत्रिय कहलाते है देश का शासन करने का भी ऐसे ही व्यक्तियों को अधिकार है।

वैश्यआर्थिक दृष्टि से देश को समृद्ध बनाने की प्रतिक्षा कर मुख्यतया कृषि, व्यापार आदि कार्य करने वाले

व्यक्तियों को वैश्य कहा जाता है

शूद्रजो व्यक्ति मानव समाज की सुख-शान्ति के प्रमुख शत्रु अज्ञान अन्याय, अभाव से लड़ने में अपने को असमर्थ पाते हैं और कला कोशल, दस्तकारी आदि शारीरिक परिश्रम से राष्ट की सेवा करते हैं उन्हें शूद्र नाम से पुकारा जाता है।

यहाँ पर बात याद रखने योग्य है कि चारों वर्णों का नाम साझा है अर्थात् चारों वर्ण सेवक के नाम से पुकारे जायें तो अत्युक्ति नहीं रहेगी। चारों वर्ण अपनी योग्यता व क्षमतानुसार राष्ट के सेवक पुकारे जाते हैं। सेवक

होने के नाते राष्ट की दृष्टि में सभी समान हैं। अतः व्यक्ति विशेष से अलग-अलग न बुलाकर उसके कार्य

के अनुसार कह सकते हैं।

जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते

प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है उसके पश्चात् संस्कारों के आधान से गुण-कर्म के द्वारा वह द्विजत्व को

प्राप्त होता है।

-हेड. एन सहायक प्रोफेसर

संस्कृत विभाग संजीवनि महाविद्यालय चापोलि

लातूर (महाराष्ट)

 

वैदिक वर्णव्यवस्था

वैदिक वर्णव्यवस्था

श्रीमती वर्षा भाटी…..

भारतीय संस्कृति का मूलस्रोत वैदिक परम्परा है। इस प्रसंग में ऐसा भी कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृति और वैदिक परम्परा पर्यायरूप में प्रयुक्त होते हैं। इस परम्परा में मानव जीवन एक अमूल्य निधि है। इस अमूल्य निधि को व्यर्थ न खोकर सौ वर्ष तक जीने की अद्वितीय व्यवस्था ही वर्णव्यवस्था है। वर्णव्यवस्था व्यक्ति को एक प्रतिस्पर्धी रूप में उन्नति करने का अवसर प्रदान करती है। अनेक समाजशास्त्री एवं विचारक कई बार ऐसा कहते हैं कि वर्णव्यवस्था एक अत्यन्त जटिल परम्परा है। इस परम्परा में व्यक्तित्व विकास असम्भव है। परन्तु उनका यह कथन अत्यन्त अस्वीकार्य है। क्योंकि यदि हम वर्णव्यवस्था का विश्लेषण

करते है तो पता चलता है कि यह तो रास्त्रोथान, समाजोत्थान एवं आत्मोत्थान की बहुत सुन्दर व्यवस्था है। क्योंकि वर्तमान में हम देखते हैं कि जो व्यक्ति जिस कुल में पैदा हो जाता है वह सदा उसी कुल का माना जाता है। जैसे कुछ सामाजिक उदाहरणों से समझने का प्रयास करते हैं। यदि कोई चतुर्वेदी है तो उसका बेटा भी चतुर्वेदी ही कहा जाता है, क्योंकि वह उसकुल में पैदा हुआ है। इसी प्रकार कोई यदि शूद्रकूल में पैदा हुआ है तो वह भी शूद्र ही माना जाता है चाहे वह कितनी भी उन्नति क्यों न कर ले। जबकि वर्णव्यवस्था में इसके विपरीत व्यवस्था है। यहाँ जन्म से वर्ण प्राप्त नहीं होता है अपितु कर्म से प्राप्त होता है। शूद्र भी यदि प्रयत्न कर अध्ययन- अध्यापन कराता है तो वह समाज में उच्चवर्ण प्राप्त कर सकता है। इसके विपरीत यदि ब्राहमण भी शूद्र के कार्य करता है तो वह शूद्रवर्ण को प्राप्त हो जाता है। यहाँ वर्ण उसके कर्म व प्रयास से प्राप्त होता है। जिसके कारण अपने उच्च वर्ण को बचाने के लिए तथा निम्न वर्ण से उच्च वर्ण को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति निरन्तर परिश्रम करता था। जिसके कारण परस्पर निरन्तर प्रतिस्पर्धा होती थी और समाज का सर्वागीण विकास होता था। आज जन्म के आधार पर वर्णव्यवस्था होने के कारण किसी को कोई भी कम नहीं रहता है। यहाँ सब जन्म से सब अपने उच्च या निम्न समझते हैं। वेद कर्म आधारित व्यवस्था

को स्वीकार करते हैं न कि जन्म आधारित व्यवस्था को स्वीकार करते हैं। उपर्युक्त विचारों से वर्णव्यवस्था को

संक्षिप्त रूप समझने में निश्चित ही सरलता होगी। अब वर्ण शब्द का क्या अर्थ है? इसको समझने का प्रयास

करते हैं।

वर्ण

यास्क ने निरुक्त में कहा है कि ‘‘वर्णो वृणोतेः’’ (निरु. अ. २ पाद ३)अर्थात् वर्ण उसे कहते हैं जो वरण अर्थात् चुना जाये वर्ण शब्द के अर्थ से ही स्पष्ट है कि यहाँ व्यक्ति को स्वतन्त्रता थी कि वह किस वर्ण को चुनना चाहता है। वैदिक वर्णव्यवस्था जबरदस्ती थोपी गयी व्यवस्था नहीं अपितु एक वैज्ञानिक पद्धति है जीवन को

जीने की। आज देश भर में हजारों शैक्षिक सलाहाकार अथवा मनोवैज्ञानिक इस बात को कहते हैं कि बच्चे को

स्वतन्त्र रूप से अपना भविष्य चुनना चाहिए कि उसे क्या बनना है। माता पिता या अन्य किसी के दबाव में आकर उसे किसी भी क्षेत्र में आने का प्रयास नहीं करना चाहिए। क्योंकि बच्चा जब अपने मनपसन्द क्षेत्र को चुनकर आगे बढ़ता है तो उसका विकास अधिक होता है। जैसे अगर बच्चा अध्यापक बनना चाहता है और माता पिता आई. ए. एस. बनना चहाते हैं तो निश्चित है कि ऐसी परिस्थिति में बच्चे को आई. ए. एस. बनना बहुत कठिन होगा और यदि माता-पिता भी उसे अध्यापक बनने के लिए प्रेरित करे तो निश्चित ही वह अत्यन्त प्रसन्नता से से ओर अधिक परिश्रम कर लक्ष्य को प्राप्त करेगा। वर्तमान में वर्णव्यवस्था इसी प्रकार जन्म से थोपी जा रही है न कि स्वतन्त्रता से चुनने का अवसर दिया जा रहा है वर्ण शब्द का अर्थ ही इस बात को पुष्ट करता है कि व्यक्ति किस वर्ण में जाना चाहता है उसे यह पूर्ण स्वतन्त्रता है। आज समाज का आधा विकास इसी कारण से नहीं हो रहा हैं क्योंकि यहाँ स्वतन्त्रता से भविष्य का चयन नहीं अपितु किसी दुसरे को सन्तुष्ट करने के लिए उसी वर्ण का चयन करना पड़ता है।

वैदिककाल में यह वर्णव्यवस्था जन्म आधारित नहीं थी। स्वयं मनु महाराज ने प्रतिपादित किया है कि यह वर्णव्यवस्था जन्म से नहीं अपितु कर्म से प्राप्त होती थी। यदि कोई अपने अपने वर्ण के कर्तव्यों का यथावत्

पालन न करें तो वह अपने वर्ण से पतित भी हो सकता है। यथा-

शूद्रो ब्राहमणतामेति ब्राहमणश्चैति शूद्रताम्।

क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च।। (मनु0 १०/६५)

अर्थात् श्रेष्ठ – अश्रेष्ठ कर्मों के अनुसार शूद्र ब्राहमण और ब्राहमण शूद्र हो जाता है।अर्थात् गुणकर्मों के अनुकूल

कोई ब्राहमण हो तो ब्राहमण रहता है। तथा जो ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के गुणवाला हो तो वह क्षत्रिय,

वैश्य और शूद्र हो जाता है। इसी प्रकार शूद्र के घर उत्पन्न भी मूर्ख हो तो वह शूद्र रहता है और जो उत्तम गुणयुक्त हो तो यथा योग्य ब्राहमण क्षत्रिय और वैश्य हो जाता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य का भी वर्ण

परिवर्तन सम्भव है। एक स्थल पर मनु इस विषय में और कहते हैं कि

योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।

स जीवन्नेव शूत्वमाशु गच्छति सान्वयः।।

अर्थात् जो ब्राहमण, क्षत्रिय या वैश्य वेदादिशास्त्रों का पठन-पाठन छोड़ अन्यत्र परिश्रम करता है वह जीवित ही

सपिरवार शूद्रता को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार अनेक स्थलों पर मनुस्मृति में यह कहा गया है कि उच्चवर्ण यदि अपने कर्मों का यथावत् पालन नहीं करते है तो वह शूद्रत्व को प्राप्त हो जाते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि वर्ण किसी भी व्यक्ति का निश्चित नहीं है। वर्तमान में जो वर्ण निश्चितता का प्रचलन है। यह वेद विरुद्ध एवं समाज को अधोगति में ले जाने वाला है।

ब्रा२णकेकर्तव्य

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राहमणानामकल्पयत्।।

उक्त श्लोक का स्वामी दयानन्द जी संस्कार विधि में अर्थ करते हैं कि पुरुष पुरुषों को और स्त्री स्त्रियों को पढ़ावे (दो) पूर्ण विद्या पढ़ें, (तीन)अग्निहोत्रादि यज्ञ करें, (चार)यज्ञ करावें, (पाँच) विद्या अथवा सुवर्ण आदि का सुपात्रों को दान लेवें भी। वर्तमान में यह सब तो छूट गया है। अब तो केवल नाम के ब्राहमण है।

क्षत्रिय के कर्तव्य

प्रजानां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च।

विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः।।

(१/८९)

स्वामी दयाननद जी उक्त श्लोक का अर्थ सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं कि दीर्घ ब्रहमचर्य से, सांगोपांग

वेदादिशास्त्रों को यथावत् पढ़ना, अग्निहोत्र आदि प्रजा को अभयदान देना, प्रजाओं को सब प्रकार से सर्वदा

यथावत् पालन करना विषयों में अनासक्त होके सदा जितेन्द्रिय रहना, लोभ, व्यभिचार, मद्यपानादि नशा आदि दुर्व्यसनों से पृथक् रहकर विनय सुशीलता आदि शुभ कर्मों में सदा प्रवृत्त रहना। ये सब क्षत्रिय के कर्तव्य हैं।

वैश्य के लक्षण

पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।

वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च।।

(1/10)

उक्त श्लोक का अर्थ सत्यार्थप्रकाश में स्वामी दयाननद जी लिखते हैं कि गाय आदि पशुओं का पालन वर्धन करना, विद्या धर्म की वृद्धि करने कराने के लिए धनादि का व्यय करना, अग्निहोत्रादि यज्ञों का करना, वेदादि शास्त्रों का पढ़ना, सब प्रकार के व्यापार करना, ब्याज का कार्य करना, खेती करना ये सब वैश्य के कर्म हैं।

शूद्र का कर्तव्य

एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादितशत्

एतेषामेव वर्णानां शुश्रषामनसूयया।। (१/९१)

उपर्युक्त श्लोक का अर्थ स्वामी जी संस्कार विधि में लिखते है कि परमेश्वर ने जो विद्या विहीन जिसको

पढ़ने से विद्या न आ सके, शरीर से पुष्ट, सेवा में कुशल हो,  उस शूद्र के लिए इन ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों की निन्दा से रहित प्रीति से सेवा करना, यही एक कर्म करने की आज्ञा दी है।

सार रूप में वर्णव्यवस्था के विषय में यही कहा जा सकता है कि समाज को उन्नत एवं विकासशील, बनाने की यह व्यवस्था वर्तमान में समाज को अधोगति में धकेल रही है। वर्तमान में आवश्यकता है कि यदि हम

समाज का सुव्यवस्थित विकास चाहते है तो हमें निश्चित ही इस वैदिक परम्परा का अनुसरण करना पडेगा। जो लोग वर्णव्यवस्था पर आरोप लगाते है कि यह व्यक्ति को कूपमण्डूक बनाती है। यह सर्वथा गलत है। वे लोग वर्णव्यवस्था को जानते ही नहीं है। वर्ण व्यवस्था के विषय में जो भ्रमक प्रचार हो रहा है उसका एक कारण यह भी है कि लोग वेदादिशास्त्रों के स्वाध्याय से दूर हो गये है। जिसके कारण सत्य सिद्धान्त का उन्हें ज्ञान नहीं होता है। हमें वर्णव्यवस्था की वैज्ञनिकता को समझना होगा और उसकी उपादेयता के आधार पर इसको अपनाना पड़ेगा। अन्यथा समाज की अधोगति को कोई नहीं रोक सकता है।

– हरिद्वार (उ.ख.)

 

मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में वर्णाश्रम धर्म

 

मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में वर्णाश्रम धर्म

स्वामी धर्मेश्वरानन्द सरस्वती…..

कहते हैं कि चौरासी लाख योनि में मनुष्य योनि ही सर्वश्रेष्ठ है। मनुष्य का जीवन बुद्धिप्रधान होने से विवेकवान विचारशील होता है। निरुक्तकार ने मुनष्य शब्द का निर्वचन करते हुए कहा है- मत्वा कर्माणि

सीव्यति इति मनुष्यः। अर्थात् जो ऊँच-नीच, अच्छा-बुरा, सोच-विचार कर कार्य कहते हैं, परन्तु आजकल

दुर्भाग्यवश मनुष्य में सोच-विचार करने की ऊँच-नीच सोचने का सामर्थ्य नहीं रहा। भले ही कई बार पशु-पक्षी

अपना तथा अपने पालक या रक्षक का हिताहित सोच लेते हैं, परन्तु मनुष्य के ऊपर जब तमोगुण का पर्दा पड़ जाता है तो उसके सोच-विचार करने की बुद्धि नष्ट हो जाती है। मनुष्य अपने सामर्थ्य को पहचाने तथा मानव जीवन की महत्ता को समझे, इसलिए भगवान् ने अपने पवित्र वाणी वेद में ज्ञान के अनुसार शास्त्रों में चार वर्ण ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र कहे है, वेद भगवान् कहते हैं-

ब्राहमणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरु तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।

अर्थात्- जो (अस्य) पूर्णव्यापक परमात्मा की सृष्टि में मुख के सदृश सब में मुख्य उत्तम हो वह (ब्राहमण)

ब्राहमण (बाहू) ‘‘बाहुर्वै बलं बाहुर्वै वीर्यम्’’ (शतपथ)।बल वीर्य का नाम बाहु है। वह जिसमें अधिक हो सो

(राजन्यः) क्षत्रिय (ऊरु) कटि के अधो और जानु के उपरिस्थ भाग का नाम है जो सब पदार्थों और सब देशों में

उरु के बल से जाने-आवे प्रवेश करें वह (वैश्यः) और (पद्भ्याम्) जो पग के अर्थात् नीच अन्ग सदृश मुर्खतादि

गुणवाला हो वह शूद्र है। अन्यत्र शतपथ ब्राहमणादि में भी इस मन्त्र का ऐसा ही अर्थ किया है जैसे- ‘‘यस्मादेते

मुख्यास्तस्यामुखतोऽसृज्यन्त’’ इत्यादि । जिससे ये मुख्य है इससे मुख से उत्पन्न हुए ऐसा कथन संगत होता है अर्थात् जैसा मुख सब अन्ग में श्रेष्ठ है वैसे पूर्णविद्या और उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव से युक्त होने से मनुष्य जाति में उत्तम ब्राहमण कहाता है। इसलिए जो बुद्धि से काम करते हैं वह ब्राहमण जो शक्ति (भुजा से काम लेते हैं) वे क्षत्रिय। जो धन-सम्पत्ति का अर्जन करते हैं वो वैश्य परन्तु जो ऊपर के तीनों कार्य न कर सके वह शूद्र है।

प्राचीनकाल में जाति का प्रचलन था ही नहीं मनुष्यों के गुण-कर्म के अनुसार वर्ण बदल सकता था।

शूद्रो ब्राहमणतामेति ब्राहमणश्चैति शूद्रताम्।

क्षत्रियाज्जातमेवन्तु विद्यावैश्यास्तथैव च।। (मनु0)

जो शुद्रकाल में उत्पन्न होके ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य के समान गुण, कर्म, स्वभाव वाला हो तो वह शूद्र

ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाये, वैसे ही ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो और उसके गुण, कर्म और स्वभाव शूद्र के सदृश हो तो वह शूद्र हो जाये।

धर्मचर्य्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ।।१।। अधर्मचर्य्यया पूर्वो वर्णो जघन्यं वर्णमापद्यते जाति परिवृत्तौ।।२।।

ये आपस्तम्ब के सूत्र हैं। धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम-उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है और वह

उसी वर्ण में गिना जावे कि जिस-जिस के योग्य होवें।।१।। वैसे अधर्माचरण से पूर्व अर्थात् उत्तम वर्णवाला मनुष्य अपने से नीचे-नीचे वाले वर्ण को प्राप्त होता और उसी वर्ण में गिना जावें।।२।।

महाभारत के कालतक यही वर्णव्यवस्था देश में चलती रही उस समय किसी भी प्रकार का ऊँच-नीच का भेदभाव मनुष्य जाति में नहीं था। सभी का एक साथ खाना-पीना, उठना-बैठना होता था, परन्तु जब महाभारत के पीछे शनैः-शनैः अज्ञानता फैलने लगी, जाति को जन्म से मानने लगे, ऊँच-नीच का भेदभाव हो गया, जो कोई किसी भी वर्ण का व्यक्ति ज्ञान-अज्ञान वश कुछ भूल कर बैठे तो उसे वर्ण या जाति से अलग कर दिया जाता था। इसी बीच जब विदेशी यवन, शक, हूण, आदि जातियाँ हमारे देश में आ गई, वे अपनी संख्या बढ़ाने के लिए वर्ण गिरे हुए व्यक्तियों को अपने समाज या जाति में मिलाने लगे। इस प्रकार शनैः-शनैः हजारों लोगों को यवन बनाने लगे। उनको धन और भोग-विलास के साधन देने लगे इससे उनकी संख्या बढ़ने लगी। जब सुधारकों ने इन लोगों को जाति में शामिल करने का प्रयत्न किया तो उन सुधारकों का भयंकर विरोध हुआ। कईयों को मार दिया गया। इधर विदेशी धर्मवालों की संख्या बढ़ने लगी वे चिढ़ कर लुटेरों के साथ मिलकर उनका साधन बन गये। यदि किसी से अज्ञानवश कोई भूल हो गई तो उसे धर्म भ्रष्ट कर देते थे। पण्डित कालीचरण के पीछे काला पहाड़ की घटना प्रसिद्ध है। इसने बहुत यत्न किया कि ब्राहमण जाति वाले मुझे क्षमा करके मिला लें, परन्तु उसे बहुत विरोध सहना पड़ा।फलस्वरुप उसके मन में प्रतिक्रीया हुई वह कट्टर मुसलमान हो गया, तब उसने हजारों हिन्दुओं को मार डाला। अनेकों को मुसलमान बनाया। सारे बांग्लादेश के मुसलमान उसी काला पहाड़ की ही देन हैं। इसी प्रकार जब कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने वहाँ के मुसलमानों को हिन्दू बनाना चाहा तो कश्मीर के ब्राहमणों की दुराग्रह का फल भोगना पड़ रहा है। उन्हें दर-दर की ठोकर खाकर भटकना पड़ रहा है।, परन्तु यह जातिवाद का रोग अब तक भी हमारे देश से नहीं छुटा।

देश के हितैषियों से मेरा आग्रह है कि इस जातिवाद के कलंक को देश से शीघ्र मिटायें तथा अपनी सन्तान को विदेशीमति में जाने से रोकें, क्योंकि हमारी भारतीय संस्कृति ही मानवता का सच्चा सन्देश देने वाली है।

-संस्थापक, गुरुकुल आम सेना (उड़ीसा)

मनुप्रतिपादित वर्णाश्रम व्यवस्था

मनुप्रतिपादित वर्णाश्रम व्यवस्था

कु. प्रीति….

प्रत्येक समाज को सुचारू एवं सुव्यवस्थित रूप से चलाने के लिए आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, चारित्रिक एवं नैतिक व्यवस्था की आवश्यकता होती है। उपुर्यक्त व्यस्थाएँ एक स्वस्थ समाज की आधारशिला हैं ‘यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्का उद्घोष करने वाला यह आर्यावर्त्त सम्पूर्ण विश्व का आद्यगुरु रहा है।

भारतीय समाज में सामाजिक व्यवस्था का प्रथम प्रतिपादन वैदिककाल से ही दृष्टिगोचर होता है। वैदिककाल में ही षोडशसंस्कार, पुरुषार्थ, चतुष्टय, वर्णाश्रम व्यवस्था, मोक्ष अथवा निःश्रेयस् की अद्वितीय अवधारणा का निदर्शन होता है।

वैदिककाल में वर्णाश्रम व्यवस्था का जो रूप हमारे समक्ष उपस्थित होता है, वह आधुनिक समाज में अपने मूल रूप से पूर्णतः च्युत हो चुका है। वर्णाश्रम व्यवस्था से अभिप्राय चार वर्ण तथा चार आश्रमों से था। समाज की यह व्यवस्था किसी जाति, वर्ण या लिन्ग पर आधरित न होकर कर्म पर आधारित थी।

मनुस्मृति में अनेक स्थलों पर स्पष्ट संकेत प्राप्त होते हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि मनु वर्णव्यवस्था का निर्धारण मूलतः कर्म से मानते हैं, जन्मना नहीं। यदि जन्म से ही श्रेष्ठत्व स्वीकार कर लिया जाए तो

मनुस्मृति की सम्पूर्ण कर्मव्यवस्था ही व्यर्थ हो जाएगी क्योंकि श्रेष्ठत्व-अश्रेष्ठत्व तो जन्म से ही निर्धरित हो चुका होगा फिर कर्मव्यवस्था का क्या महत्व? अतः मनु ने कर्म के आधार पर वर्णव्यवस्था मानी है। वे स्पष्ट घोषणा करते हैं कि श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ कर्मों के आधर पर शूद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण शूद्र हो जाता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य का भी वर्ण परिवर्तन समझना चाहिए।

प्राचीनकाल में कर्मानुसार वर्णव्यवस्था प्रचलित थी इसमें अन्य प्रमाण भी मिलते हैं। आपस्तम्ब धर्मसूत्र में इसी मान्यता को स्पष्ट किया गया है-

र्ध्मचर्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ।। अर्ध्मचर्यया पूर्वो वर्णो जघन्यं

जघन्यं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ।।

धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जावे कि जिस-जिसके योग्य होवे। वैसे अधर्माचरण से पूर्व अर्थात् उत्तम वर्णवाला मनुष्य अपने से नीचे-नीचे वाले वर्ण को प्राप्त होता है और उसी वर्ण में गिना जावे।ऐतरेयब्राह्मण में कवष ऐलूष नामक व्यक्ति की घटना वर्णपरिवर्तन का ज्वलन्त प्रमाण है। जन्मना निम्नजाति का व्यक्ति ऋषित्व के कारण ऋषियों में परिगणित होकर उच्च वर्णस्थ कहलाया।

छान्दोग्योपनिषद् में सत्यकाम जाबाल का वर्णन है जो अज्ञात कुल के हेाते हुए भी गुण कर्म से ब्राह्मण बन गए। चाण्डाल कुल में मातन्ग ऋषि, क्षत्रियराजा विश्वामित्रा, दस्यु वाल्मीकि आदि के उदाहरण भी गुण कर्म से वर्ण परिवर्तन को सिद्ध करते हैं।

वर्ण शब्द का अर्थ और व्युत्पत्ति भी यह सिद्ध करते हैं कि मनु की व्यवस्था जन्मना न होकर कर्मणा है।

निरुक्त में वर्ण शब्द की व्युत्पत्ति दी है- वर्णो वृणोतेः।अर्थात् कर्मानुसार जिसका वरण किया जाए वह वर्ण है। इस विषय पर प्रकाश डालते हुए महर्षि दयानन्द ने भी स्पष्ट किया है-

वर्णो वृणोतेरिति निरूक्तप्रामाण्याद्वरणीया वरीतुमर्हाः। गुणकर्माणि च दृष्ट्वा यथा योग्यं व्रियन्ते ये ते वर्णाः।।

वर्णों के नामों की व्याकरणानुसारी व्याख्या भी कर्मानुसार वर्णव्यवस्था को ही सिद्ध करती है। ब्रह्मणा वेदेन परमेश्वरस्य उपासनेन च सह वर्तमानो विद्यादि उत्तमगुणयुक्तः पुरुषः अर्थात् वेदाध्ययन और ईशोपासना में तल्लीन रहते हुए विद्यादि उत्तम गुणों को धारण करनेवाला व्यक्ति ब्राह्मण कहलाता है।मनु ने भी इन्ही कर्मों को ब्राह्मण के प्रमुख कर्मों के रूप में वर्णित किया है।

क्षदति रक्षति जनान् क्षत्राः अथवा क्षण्यते हिंस्यते नश्यते पदार्थो येन स क्षतस्ततः त्रायते रक्षतीति क्षत्राः अर्थात्

जनता की आक्रमण, चोट, हानि आदि से रक्षा करने वाला क्षत्रिय कहलाता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में भी कहा गया है कि क्षत्रिय क्षत्र का ही रूप है, जो प्रजा का रक्षक होता है। मनु ने भी क्षत्रिय का मुख्य कर्म प्रजा की रक्षा करना बताया है।

यो यत्रा-तत्र, व्यहारिविद्यासु प्रविशति सः वैश्यः, व्यवहारविद्याकुशलः जनो वा अर्थात् जो विविध् व्यावहारिक व्यापारों में प्रविष्ट रहता है अथवा विविध् विद्याओं में कुशल होता है वह वैश्य होता है। मनु ने भी वैश्यों के कर्म का निर्धरण इसी प्रकार किया है।

शूद्रः शोचनीयः, शोच्यां दशामापन्नो वा, सेवायां साधुरविद्यादिगुणसहितो मनुष्यो वा अर्थात् अज्ञान और अविद्या से जिसकी निम्न जीवन स्थिति रह जाती है, जो केवल सेवाआदि कार्य ही कर सकता है, ऐसा

मनुष्य शूद्र होता है। मनु को भी यही अभिमत है और ये भी स्पष्ट ही है कि वे शूद्र को जन्मना नहीं मानते

तथा न ही घृणास्पद मानते हैं।

महर्षि मनु ने वर्णों के धर्मो व कर्त्तव्यों के साथ-साथ आश्रमों के धर्मों व कर्त्तव्यों का भी विस्तृत वर्णन किया है। क्योंकि भारतीय दार्शनिक चिन्तन परम्परा चाहें वह किसी भी सम्प्रदाय से जुड़ी हो प्रायः सबका अन्तिम लक्ष्य मानव के कल्याण व मोक्ष प्राप्ति से ही था। अतएव समाज चार आश्रमों में विभक्त था।

ब्रह्मचर्य आश्रम में व्यक्ति गुरु का अन्तेवासी बनकर गुरु की सेवाशुश्रूषा करते हुए वेद-वेदान्गो का सम्यग् अध्ययन करता था। प्रायः वर्ष पर्यन्त गुरु के अन्तेवासित्व में रहकर गुरुकी आज्ञा लेकर अग्रिम आश्रम में प्रवेश करता था। ब्रह्मचर्य के काल के विषय में महर्षि मनु का मत है कि प्रत्येक वेद के सान्गोपान्ग पढ़ने में १२ – १२ तक अथवा जब तक विद्या पूर्ण न हो तब तक ब्रह्मचारी रहें।

ब्रह्मचर्य आश्रम में दीक्षित होकर व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था। गृहस्थ आश्रम को महर्षि

मनु ने समुद्रवत् बताया है। क्योंकि उत्पत्ति और जीवनयापन की दृष्टि से ये तीनों आश्रम गृहस्थाश्रम पर ही

आश्रित हैं।

गृहस्थाश्रम में सभी सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए जितेन्द्रिय जितात्मा होकर व्यक्ति वानप्रस्थ में प्रवेश करता था। महर्षि मनु का भी कथन है-

एवं गृहाश्रमे स्थित्वा विध्वित्स्नातको द्विजः।

वने वसेन्तु नियतो यथावद्विजितेन्द्रियः।।{

इस आश्रम में व्यक्ति समाज, परिवार आदि के बन्धन से मुक्त होकर अरण्य में जाकर एकाकी जीवन व्यतीत करता था तथा भोजन में कन्दमूल का ही आहार ग्रहण करता था।जैसा कि नाम से ही विदित होता है कि इस आश्रम में व्यक्ति वन में ही निवास करता था और तप के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होता था।

वानप्रस्थ के पश्चात् सन्यासाश्रम का विधान महर्षि मनु ने किया है। संन्यासियों का मुख्य कर्म है कि अपनी आत्मिक उन्नति के साथ-साथ गृहस्थादि आश्रमों को सब प्रकार के व्यवहारो का यथार्थ ज्ञान कराके, अधर्मव्यवहारों से पृथक् करके सत्य धर्मयुक्त व्यवहारों में प्रवृत्त कराए तथा मोक्ष को प्राप्त करें।

इस प्रकार हम देखते हैं कि महर्षि मनु ने वर्णाश्रम व्यवस्था का एक उच्च आदर्श हमारे समक्ष उपस्थापित किया है जो कि कालक्रम से परिवर्तित होता हुआ अपने मूलस्वरूप को छोड़कर विकृत हो गया है। आज समाज में वर्णव्यवस्था का जो रूप हमें दिखाई देता है वह कर्माश्रित न होकर जन्म मात्रा से निर्धरित किया जाता है। आश्रम व्यवस्था तो प्रायः हमारे लिए इतिहास का विषय बन गई है। भौतिक समाज में आश्रम

व्यवस्था की कल्पना भी दुरूह हो गई है। यदि हमें आधुनीक समाज को सुव्यवस्थित एवं सुचारू रूप से चलाना है तो हम अपनी पुरातन संस्कृति से अधिक दिनों तक पृथक् नहीं रह सकते। वैश्वीकरण भले ही अन्य

देशों के लिए एक नूतन विषय हो परन्तु ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ को प्राण माननेवाले इस देश के लिए वह नवीन नहीं है। अतः हमें आधुनिक समय में भी अपने ऋषि-मुनियों द्वारा प्रदत्त वर्णाश्रमधर्म आदि चिन्तन सरणियों का अनुवर्तन निश्चयेन करना होगा अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब यह विषय केवल लेखमात्रा तक ही सीमित रहकर भविष्य में ऐतिहासिक विषय बन जाएगा।

उपनिषदों में संन्यासयोग

उपनिषदों में संन्यासयोग

डॉ. सुमनशर्मा…..

उपनिषद् ऋषियों की महामेधा से प्रसूत ज्ञान की वह दिव्यराशि है, जो काल से अनवच्छिन्न है। उपनिषद् शब्द ‘उप’ व ‘नि’ उपसर्ग पूर्वक ‘सद्’ धातु में ‘क्विप्’ प्रत्यय लगाकर निष्पन्न हुआ है। ‘सद्’ धातु विशरण, गति व अवसादन तीनों अर्थों में प्रयुक्त होती है। कठोपनिषद् भाष्यानुसार विशरण अर्थात् विनाश करना। ये अविद्यादि संसार बीज का विनाश करती है, इसलिए उपनिषदें कही जाती हैं। उपनिषदों की विषय-वस्तु मुख्य रूप से तो आध्यात्मिक एवं दार्शनिक है, किन्तु इसमें नीति, व्यवहार और सांसारिक कर्त्तव्यों की उपेक्षा नहीं की गई है। उपनिषदों में प्राप्त समस्त योग ज्ञान पर विचार करने का उपक्रम किया जाए तो अत्यन्त विस्तृत होने के कारण अपने लक्ष्य से भटकने का भय है। अतः हंस की रीति से संक्षिप्तीकरण के द्वारा संन्यासयोग

विषय का प्रस्तुतीकरण ही समीचीन है।

संन्यास शब्द की व्युत्पत्ति एवं स्वरूप

संन्यास शब्द का मुख्यार्थ त्याग करना है। आयु के अन्तिम चरण में गृह, पुत्रादि का परित्याग करके सीमित परिवेश से निकलकर असीमित व्यकितत्व को स्वीकार करने वाला पुरुष लोक में संन्यासी कहलाता है। काषायवस्त्र, दण्ड, कमण्डलुआदि का धारण तथा जटी तथा मुण्डी हो जाना तो केवल संन्यास के सूचक चिन्ह मात्र है। यह संन्यास और संन्यासी न रूढ़िलभ्यार्थ है, किन्तु मोक्ष शास्त्रों में परिनिर्दष्ट और परिकल्पित जिस संन्यास को मोक्ष द्वार के रूप में स्वीकृत किया गया है, उस संन्यास के अर्थ को समझने के लिए उसमें व्युत्पत्ति लभ्यार्थ का ज्ञान होना आवश्यक है।

‘संन्यास’ शब्द के साथ जब ‘योग’ शब्द का संयोग हो जाता है तो ‘संन्यासयोग’ का अर्थ और जटिल एवं व्यापक हो जाता है। संन्यास दो प्रकार का होता है- आश्रम संन्यास और भावना संन्यास। संन्यासयोग का सम्बन्ध् दूसरे अर्थ से है। सर्वकर्म परित्याग, सर्भ, वैभव, परावैराग्य और पूर्ण गुण वैतृष्ण्य इसके अनिवार्य तत्त्व है। यही मोक्ष का द्वार है। यही अर्थ उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय है।

असु क्षेपणे

‘सम्’ और ‘नि’ उपसर्गपूर्वक ‘असु क्षेपणे’ धातु से निर्मित ‘आस्’ में जोड़कर संन्यास शब्द बनता है जिसका अर्थ है सम्यग्रूपेण, निश्शेषरूपेण च सर्वकर्मणां क्षेपणं परित्यागः अर्थात् अच्छी प्रकार निरशेष रूप से समस्त कर्मों का क्षेपण अर्थात् परित्याग करना संन्यास है। लोक में प्रायः यही अर्थ गृहीत किया गया है। यह अर्थ निःसन्देह रमणीय है किन्तु संन्यास योग से जो व्यापक अर्थ ध्वनित हो रहा है उसका प्रकाशन केवल एक धातु से सम्भव नहीं है। इसके लिए ‘अस् भूवि’ तथा ‘आस् उपवेशने’ का अर्थ ही ग्रहण करना होगा।

अस् भूवि

‘अस्’ धातु ‘होना’ अर्थ में प्रयुक्त होती है। ‘सम्’ और ‘नि’ उपसर्गपूर्वक ‘अस् भूवि’ धातु से भी संन्यास शब्द की व्युत्पत्ति होती है, जिसका अर्थ है सम्यक रूप से निश्शेष अर्थात् सर्व हो जाना, सबकुछ हो जाना। सबकुछ

तो परमेश्वर ही हो सकता है। परमेश्वर की प्राप्ति अथवा परमेश्वर हो जाना ही संन्यास का लक्ष्य है। ‘सर्व’ और ‘शर्व’ परमेश्वर के वाचक है। जीव भाव का परित्याग करके ब्रह्मभाव अथवा सर्वभाव को प्राप्त करना ही जीव लक्ष्य है। यह लक्ष्य संन्यास से ही प्राप्त होता है। यह अर्थ ‘अस् भूवि’ धातु से ही ध्वनित हो सकता है। इस अर्थ को छोड़कर संन्यास शब्द का अर्थपूर्ण नहीं हो सकता।

आस् उपवेशने

उपर्युक्त दो धातुओं के अतिरिक्त ‘आस् उपवेशने’ धातु से भी संन्यास शब्द की निष्पत्ति होती है। उपवेशन का अर्थ है निकट बैठना। संन्यास का अर्थ हुआ सम्यक रूप से और सम्पूर्ण रूप से परमेश्वर के निकट बैठना, उसकी शरण में जाना, सर्वतोभाव से निज को परमेश्वर के चरणों में समर्पित कर देना।यही अर्थ ‘आस् उपवेशने’ धातु से अभिव्यक्त होता है। इस धातुलभ्य अर्थ के बिना भी संन्यास का अर्थपूर्ण नहीं होता।

स्वामी दयानन्द के अनुसार ब्रह्म और उसकी आज्ञा में उपविष्ट अर्थात् स्थित और जिससे दुष्ट

कर्मों का त्याग किया जाए वह संन्यास कहा गया है।

उपर्युक्त अर्थों का परिशीलन करके यह ध्यातव्य है कि संन्यासाश्रम और संन्यासयोग में पर्याप्त अन्तर है। संन्यासाश्रम उक्त संन्यासयोग का साधन या पूर्वभूमि तो हो सकता है, स्वरूप नहीं हो सकता। संन्यासयोग एक भावना है जो निरन्तर कर्मलिप्त रहकर भी कर्मों से विरक्त होने की एक आध्यात्मिक प्रक्रीया है। यह निज सदन में बैठकर भी सम्पन्न हो सकती है और निर्जन अरण्य में भी। यदि भावना का सम्बन्ध न हो तो निजसदन और निर्जन अरण्य तुल्यरूप से व्यर्थ है। लक्ष्य तो मोक्ष प्राप्त है। चाहे वह सदन से प्राप्त हो या अरण्य में। कहा गया है कि जो पुरुष मैं और मेरा और ममत्वाभिमान से शून्य होकर विषय भोगों से लिप्त हो चुका है, वह अपने घर में रहता हुआ भी कर्मों से बद्ध नहीं होता-

ममताभिमान शून्यो विषयेषु पराघ्मुख पुरुषः।

तिष्ठन्नपि निज सदने न बध्यते कर्मभिः क्वापि।।

संन्यास और त्रिविध् एषणाएँ

संन्यासमार्ग पर आरूढ़ होने के अभिलाषी पुरुष को बाल्य और पाण्डित्य दोनों का सम्यक रूप से सम्पादन करके त्रिविधि एषणाओं से नितान्त मुक्ति प्राप्त करना अनिवार्य होता है। बाल्य एवं पाण्डित्य दोनों ही एषणामुक्ति के प्रधान साधन हैं। बाल्य का अर्थ है बलबत्ता और पाण्डित्यार्थ है नित्यानित्य वस्तु विवेक। संन्यास के लिए शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक बल की आवश्यकता पग-पग पर होती है। संन्यासमार्ग पर आरूढ़ होनेवाले संन्यासी के हृदय में पृथ्वी की सहिष्णुता, हिमालय की उन्नतता तथा समुद्र की गम्भीरता होनी चाहिए। ऐसा होना ही पुत्रौषणा, वित्तैषणा तथा लोकैषणा रूप महान् सत्रुओं का घर्षण कर सकता है। अन्यथा ये तीनों बीच में ही रोक कर संन्यास के पथिक को मार्गभ्रष्ट कर सकती है। बृहदारण्यकोपनिषद् में ‘बाल्य’ शब्द से अभिहित किया गया है। इन त्रिविधि एषणाओं में मानसिक दुर्बलता सदा ही काम करती है। एषणा तो एक ही है। जो पुत्रौषणा है वही वित्तैषणा है और वित्तैषणा ही लोकैषणा है। पुत्राप्राप्ति हेतु ही मनुष्य अनेक विवाह करता है। फिर भी उसे पुत्राप्राप्त नहीं होता तो स्वयं को हृतभाग्य समझता है।

कर्म के साधनभूत गौ, गृह, रत्नादि को प्राप्त करने की इच्छा वित्तैषणा कहलाती है।पुरुष सोचता है कि चित्त का संग्रह करके विवाह करूंगा उससे पुत्र होगा, पुत्र से पितृलोभ की प्राप्ति होगी अथवा वित्त के द्वारा यज्ञादि का सम्पादन करके देवलोक को प्राप्त करूंगा। इस प्रकार लौकिकवित्त और दैववित्त से पितृलोक और देवलोक को जीतने की इच्छा वित्तैषणा कहलाती है। धैर्यवान् और विद्यावान् पुरुष ही बड़े प्रयत्न से इससे बच पाते है। तृतीय एषणा लोकैषणा है। यश की लिप्सा लोकैषणा कहलाती है।वस्तुतः यह पुत्रौषणा एवं वित्तैषणा से भिन्न

नहीं हैं। पुरुष का स्वभाव है कि वह सदैव यही चाहता है कि उसका कोई अपमान न करे, बुराई न करे, उसके

पुत्र-वित्त आदि का नाश न करे। इसी की प्राप्ति हेतु वह पुत्र एवं वित्त का संग्रह करता है। त्रिविध् एषणाओं

से मुक्त होकर ही सर्वसमर्थ संन्यासीयोगी कहलाता है। याज्ञवल्क्योपनिषद्द्भमें कहा गया है कि संन्यासी को वित्तैषणा से इतना दूर रहना चाहिए कि अपने वस्त्रों से भी मोह न हो,यदि वस्त्राछिन्न हो जाएं तो दिशाओं को ही वस्त्र समझे। लोकैषणाओं से इस प्रकार दूर भागे कि किसी से नमस्कार की इच्छा भी न करे। ऐसे संन्यासी को ही लोग प्रणाम करते है वही प्रणाम के योग्य भी होता है।

निष्कर्षतः संन्यासयोग सभी प्रकार के योगों से भिन्न है। अन्य योग जहाँ किसी-न-किसी क्रीया में प्रवृत्त करते है, वहाँ संन्यासयोग निवृत्ति को ही प्रमुखता देता है।सभी प्रकार की अनियमितताओं से निकलकर संन्यासयोग के साधक को स्वातंत्रय की अनुभूति होती है। यहाँ तक कि संध्यावदन, अग्निहोत्रादि नित्यकर्मों की अनिवार्यता भी इससे समाप्त हो जाती है। यद्यपि संन्यासयोग में भावनाओं का बन्धन रहता है, किन्तु वह बन्धन मुख्य बन्धनो को काटने वाला है। भौतिक नियमों के बन्धन को श्लथ करके संन्यासीयोगी निज-निर्मित मानसिक भावनाओं से ही स्वयं को बांधता है- नमे, नायम्, त्वमेव सर्वम्, सर्व नश्वरम् आदि की भावना इसमें प्रधान होती है।

संस्कृत-विभाग,

दिल्ली विश्वविद्यालय,

दिल्ली-०७

 

जाति एवं र्ध्मादि की सामान्य समीक्षा स्मृत्यादि शास्त्र सन्दर्भ में

जाति एवं र्ध्मादि की सामान्य समीक्षा स्मृत्यादि शास्त्र सन्दर्भ में

श्रीविकास आर्य…..

प्राणीजगत् के प्रारम्भकाल से ही मानव जाति, वंश, गौत्र, धर्म, भाषा, क्षेत्रादि के अवलम्ब से उन्मत्त होकर प्रतिकूल-प्राणी के प्राणान्त को आतुर रहा है इस प्रकार तथा कथित सृष्टि-विज्ञानी हमें बोध् कराते रहते हैं। वास्तविकता जो भी हो पर इतना तो सर्वथा स्पष्ट है कि वेदवाणी अथवा भारतीय संस्कृतवाघ्मय के ज्ञान-रूपी अथाह समुद्र से विकसितशेमुषी ऋषि-मुनि निरन्तर उज्ज्वल एवं अमूल्य सूक्तियां (शुक्ता)  सचित कर के समस्त संसार को काल-क्रम से सर्वविध् सौख्य से आप्लावित करते रहे हैं।

उपह्नरे गिरीणां सर्घैंमे च नदीनाम्।

धिया विप्रोजायत।।

अतः आज भी सुप्रज्ञावान् साधकों को करबद्ध प्रणामाजलि समर्पित करके पौनः पुन्येन हमारी संस्कृति समस्त देव-पुरुषों का आह्वान् करती है कि वे वेदों का आलोडन कर नव-नवनीत विनिर्मित करें।

दशा विनिन्द्या पुरुषो न निन्द्य

आभाणकानुासर यदि विचारें, तो पाएंगें कि वर्तमान परिस्थितियां (दशा) नासूर हो चली हैं। विश्वव्यापी सकलसंसारहितैषिणी संस्कृति व सभ्यता संकुचन की पराकाष्ठा पार कर रही है, नित नूतन नये-नवेले आक्रान्ता नेता नजर आने लगे हैं।

किसी भी वस्तु या तथ्य का विवेचन अथवा गुण-दोष का निर्धरण दो मानदण्डों के आधर पर सम्भव है। प्रथम आप्त पुरुषों द्वारा विरचित विपुल शास्त्रा एवं द्वितीय विधि-सम्मतलोक-व्यवहार, इनमें भी प्रगतिवादी सर्वदा लोक-व्यवहार-गौरव को आदर प्रदान करता है। क्योंकि सांसारिक परिवर्तन प्रतिक्षण हो रहा है और क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः।

वर्तमान हिन्दू समाज में छत्तीस बिरादरी अर्थात् ३६ के लगभग जातियों की गणना तो उत्तर भारत के दिल्ली क्षेत्र के आस-पास अंगुलियों पर गिनी जा सकती है। वस्तुतः यह समस्या मध्यकालीन परिस्थितियों से प्रार्दुभूत है, अथवा यूँ कहिये कि आज हमारे समक्ष जो इतिहास उपलब्ध् है वह अंग्रेजों, मुगलों व वामपंथी आदि वैदेशिक आक्रान्ताओं द्वारा प्रदत्त है और वह समाज के तथाकथित सभ्य-नागरिकों ने विश्वस्त बनाकर प्रस्तुत कर दिया है जिसके फलस्वरूप आज नाना जातियाँ ब्राह्मण, जाट, कुर्मी, कायस्थ,यादव, चमारादि विश्वसनीय सामाजिक-विघटन के तत्त्व बन कर राष्ट्र की अवनति के द्योतक हो चले हैं।

हिन्दू चमार जाति एक स्वर्णिम गौरवशाली राजवंशीय इतिहास पुस्तक के लेखक डॉ. विजय सोनकर शास्त्री ने कर्नल टाड के सन्दर्भ से लिखा है कि महाभारत के अनुशासन पर्व में इस जाति का उल्लेख हैं। महाभारत में ऐसा विवरण अनुशासन पर्व में तो छोड़िये किसी भी पर्व में नहीं मिलता है। लेकिन इतिहास के विद्यार्थी इस तथ्य को घोटकर (याद करके) परीक्षा ही नहीं अपितु सामाजिक व्यवहार में भी प्रयोग करने लगते हैं, ध्क्किार है ऐसे पाठक एवं लेखकों को।

हमारी वैदिक-सनातन परम्परा में वर्तमानस्वरूपी जाति का कहीं कोई उल्लेख नहीं है, हाँ वर्ण-व्यवस्था, आश्रम-व्यवस्था, गोत्र, धर्म, भाषा एवं क्षेत्रादि विषयों का व्यवस्थित व व्यावहारिक प्रयोग विशदरूप में अवश्यमेव पदे-पदे दृष्टव्य है।

सृष्टि के आदि में दिव्य-ज्ञान वेद का आविर्भाव हुआ था। शास्त्रा प्रमाणानुसार-

अनादिनिध्ना नित्या, वागुत्सृष्टा स्वयंभुवा।

आदौ वेदमयी दिव्या, यतः सर्वाः प्रवृत्तयः।।

इस प्रकार वेद पुरुष से सृष्टि-सन्तति की उत्पत्ति को इस रूपक से सरल ढंग से समझा जा सकता है कि-

सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युतिः।

मुखबाहूरुपज्जानां पृथक्कर्माण्यकल्पयत्।।

अर्थात् महातेजस्वी परमेश ने सृष्टि के संचालन निमित्त मुख, बाहु, जंघा एवं चरण के सदृश उत्पन्न वर्ण अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र का क्रमशः उत्पन्न होना कर्मसिद्धान्त रूप सिद्ध है। अर्थात् जन्मना

जायते शूद्रः, कर्मणा द्द्विजोच्यते  इस प्रकार जन्म से तो सभी प्राणी शूद्रत्व से विद्यमान होते हैं लेकिन

कर्म द्वारा द्विजत्वादि प्राप्त किया जा सकता है और फिर उसी कर्मानुसार कुल एवं गौत्रादि का उत्पन्न

होना पाया जाता है। उसमें भी पुनः परिवर्तन गुण कर्मानुसार अवश्यंभावी है।

धर्म का मूल भी मनुस्मृत्तिकार ने वेद ही कहा है यथा-

वेदोखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्।

आचारश्चैव साधुनामात्मनस्तुष्टिरेव च।।

और भी

वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।

एतच्चतुर्विध्ं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।।

प्रथम श्लोक में सम्पूर्ण वेद एवं वेदज्ञों की स्मृत्ति एवं धर्मिकों का आचार और स्वयं की सन्तुष्टि आदि तथा द्वितीय श्लोक में वर्णित है कि-वेद, स्मृत्ति, सदाचार और स्वरुचि के अनुसार वर्तना ये चार धर्म के प्रकार हैं। अतः धरणार्द् धर्म इत्याहुः आदि धर्म की शास्त्रोक्त हितकारी परिभाषाओं के अनुसार धर्म को जानना एवं मानना चाहिए।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में धर्म की दुर्गति हो रखी है। नाना मत-मजहबों, सम्प्रदायों ने जो विकृत विकराल-स्वरूप धारण कर लिया है उससे सम्पूर्ण संसार को खतरा है। इसका एक ज्वलन्त उदाहरण आतंकवाद प्रत्यक्ष है।

भाषा के प्रश्न का जहाँ तक विचार है उसमें भी संस्कृत-भाषा निर्विवाद रूप में पश्चिमापश्चिमादि सर्वदिक् विद्वानों के मतानुसार जननी-भाषा स्वरूप में स्वीकृत है। भाषा का एक महत्त्वपूर्ण अंश है भावाभिव्यक्ति। संस्कृत भाषा में क्रम-विन्यास वैशिष्ट्य विशेष रूप में द्रष्टव्य है अर्थात् संस्कृत में भावाभिव्यक्ति की महत्त्वपूर्ण-इकाई वाक्य में शब्दों को किसी भी क्रम में उपन्यस्त कीजिए परिणाम सर्वथा भावेन अपेक्षित ही प्राप्त होगा- देवः शास्त्रम पठति अथवा शास्त्रां देवः पठति वा पठति शास्त्रां देवः किसी भी विध में ऐच्छिक शब्दों का क्रम रखिए अभीष्ट परिणति प्राप्त होगी और इसी विशेषता के कारण अमेरिकी अनुसन्धान केन्द्र नासा ने संस्कृत भाषा का संवरण कर लिया है जो अन्तरिक्ष में उपग्रह आदि के सम्प्रेषण में भाषायी संकेत का आधार होने से अतीव उपयोगी सिद्ध हुआ है तथा हम इसकी औपचारिक व अनिवार्य विषय की जंग में ही संलिप्त हैं।

इस क्षेत्र पर यदि विचार करें तो पाएंगें की जो क्षेत्र सुरम्यवातावरणानुकूल अर्थात् जहाँ का जलवायु श्रेष्ठ हो, आरोग्यप्रद हो वही स्थान श्रेष्ठ मानना एवं जानना चाहिए, वैसे तो जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी मान्यतानुसार जन्मभूमि भी सर्वश्रेष्ठ है।

निष्कर्षरूप में उपर्युक्त विषयों का पूर्ण-विवेक के साथ प्राणीमात्रा के हित में व्यवहार करना ही उद्देश्य है अर्थात्

सर्वेभवन्तुसुखिनः सर्वेसन्तुनिरामयाः अलमतिविस्तरेण।

सम्पादक,

हरियाणा संस्कृत अकादमी,

पचकूला, हरियाणा।

धर्म की आवश्यकता क्यों? – शिवदेव आर्य

धर्म की आवश्यकता क्यों?
– शिवदेव आर्य
गुरुकुल पौन्धा, देहरादून
मो.-8810005096

जीवन की सफलता सत्यता में है। सत्यता का नाम धर्म है। जीवन की सफलता के लिए अत्यन्त सावधान होकर प्रत्येक कर्म करना पड़ता है, यथा – मैं क्या देखूॅं, क्या न देखूॅं, क्या सुनॅूं, क्या न सुनूॅं, क्या जानॅंू, क्या न जानूॅं, क्या करुॅं अथवा क्या न करूॅं। क्योंकि मनुष्य एक चिन्तनशील प्राणी है, जब मनुष्य किसी भी पदार्थ को देखता है तब उसके मन में उस पदार्थ के प्रति भाव ;विचारद्ध उत्पन्न होते हें। क्योंकि यही मनुष्य होने का लक्षण है, इसीलिए निरुक्तकार यास्क ने मनुष्य का निर्वचन करते हुए लिखा है कि ‘मनुष्यः कस्मात् मत्वा कर्माणि सीव्यति’ (३/८/२) अर्थात् मनुष्य तभी मनुष्य है जब वह किसी भी कर्म को चिन्तन तथा मनन पूर्वक करता है। यही मनन की प्रवृत्ति मनुष्यता की परिचायक है अन्यथा मनुष्य भी उस पशु के समान ही है जो केवल देखता है और बिना चिन्तन मनन के विषय में प्रवृत्त हो जाता है।
मनुष्य जब किसी पदार्थ को देखकर कार्य की ओर अग्रसर होता है तब चिन्तन उसको घेर लेता है, ऐसे समय में धर्म बताता है कि आपको किस दिशा में कार्य करना है, यही धर्म की आवश्यकता है। यदि धर्म जीवन में होगा तब जाकर श्रेष्ठ कर्म को कर सकेंगे अथवा पदार्थ का यथायोग्य व्यवहार (कर्म) कर सकेंगे।
काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, मद और मोह ये मानव जीवन में मनःस्थिति को दूषित करने वाले हैं। ये षड्रिपु मनुष्य की उन्नति के सर्वाधिक बाधक होते हैं इनका नाश मनुष्य धर्मरूपी अस्त्र से कर सकता है। इन विध्वंसमूलक प्रवृत्तियों को जीतना ही जितेन्द्रियता तथा शूरवीरता कहलाता है। यदि व्यक्ति के अन्दर धर्म नहीं है तो वह इनके वशीभूत होकर स्वयं तथा सामाजिक पतन का कारण बन जाता है।
इन पतनोन्मुखी प्रवृत्तियों को रोकने के लिए परमावश्यक होता है कि व्यक्ति विवेकशील हो और विवेकशील होने के लिए आवश्यक है अच्छे सद् चरित्रवान् मित्रों का संग करें तथा अच्छे ग्रन्थों का स्वाध्याय करें।
आज हमारी युवा पीढ़ी धर्म के अभाव में पतन की ओर अग्रसरित होती चली जा रही है, ऐसे में लोगों की चिन्तन क्षमता समाप्त हो गयी है। नित्य नये-नये मानवीय ह्रासता के कृत्य दिखायी देते हैं, ऐसा क्यों है? क्या हमने कभी विचार व चिन्तन किया है? आज हमारी सोचने की क्षमता इतनी कम क्यों हो गयी है, क्योंकि हम धर्म को समझ ही नहीं पा रहे हैं। हम धर्म को एकमात्र कर्मकाण्ड का रूप स्वीकार करते हैं। आज हमें धर्म को स्वयं के अन्दर धारण करना होगा। धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध इन दश प्रमुख कर्तव्यों को स्वयं के लिए धारण करने का नाम धर्म बताया है।
धर्म की परिभाषा करने वाले विभिन्न आचार्यों के अपने-अपने मत हैं। संसार में मतवालों ने अपने-अपने धर्म के नाम पर विभिन्न चिह्न बना लिए हैं, जैसे- कोई केश बढ़ा रहा है, कोई लम्बी दाढ़ी बढ़ाये हुए है, कोई केश व दाढ़ी दोनों ही बढ़ाये हुए है, कोई पॉंच शिखाएं रखे हुए है, कोई मूछ कटाकर दाढ़ी बढ़ा रहा है, कोई चन्दन का तिलक लगाए हुए है, कोई माथे पर अनेक रेखाओं को अंकित किये हुए है और न जाने धर्म के नाम पर क्या-क्या करते हैं। किन्तु ये सभी धर्म से सम्बन्ध नहीं रखते हैं क्योंकि कहा भी है – ‘न लिंग धर्मकारणम्’ अर्थात् धर्म का कारण कोई चिह्न विशेष नहीं होता है।
यदि हम धर्म को जानना चाहते हैं तो हमें धर्मशास्त्र की इस पंक्ति को समझना होगा-
‘धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः’
जो व्यक्ति धर्म को जानना चाहता है, उसे वेद को प्रमुखता के साथ जानना होगा। धर्म धारण करने का नाम है इसी लिए कहते हैं ‘धारणाद् धर्म इत्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः’। जो किसी भी कार्य को करने में सत्य-असत्य का निर्णय कराये, चिन्तन व मनन कराये उसे धर्म कहते हैं। हम धर्म को धारण करते हैं तथा उसको व्यवहार रूप में प्रस्तुत करते हैं।
धर्म ज्ञान के लिए वेद ज्ञान की अत्यन्त आवश्यकता है, क्योंकि वेद ज्ञान ईश्वरीय ज्ञान है और ईश्वर सर्वज्ञ होने से उसके ज्ञान में भ्रान्ति अथवा अधूरापन का लेशमात्र भी निशान नहीं है। वेदज्ञान सृष्टि के आदि का है तथा सभी का मूल है, अतः हम मूल को छोड़ पत्तों अथवा टहनियों को समझने में अपना समय व्यर्थ न करें।
इसीलिए धर्म का ज्ञान और उस पर आचरण मनुष्य के लिए परमावश्यक है, यह हमारी उन्नति व सुख का आधार है। मनुष्य के परम लक्ष्य पुरुषार्थ चतुष्ट्य की सिद्धि में परमसहायक है।
वेद मनुष्य को आदेश देता है ‘मा मृत्योरुदगा वशम्’। मनुष्य को प्रतिक्षण सर्तक रहकर अपने चारों ओर फैले मृत्यु के भयंकर पाशों से बचने का प्रयास करना चाहिए।
उपनिषद् का ऋषि प्रार्थना करता है-‘मृत्योर्माऽमृतं गमय’ हे प्रभो ! मुझे इन मृत्युपाशों से बचाकर अमरता का पथिक बनाइए। इसी रहस्य को स्पष्ट करने के लिए ही धर्मशास्त्रकार घोषणा करता है-धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः। अर्थात् जो व्यक्ति धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है और जो धर्म को नष्ट करता है, धर्म उसको नष्ट कर देता है। जीवन में हताशा और किंकर्त्तव्यमूढ़ता धार्मिक पक्ष के निर्बल होने पर ही आती है। जीवन में अधर्म की वृद्धि ही व्यक्ति को निराश तथा दुर्बल बना देती है अतः धर्म की वृद्धि करके व्यक्ति को सबल व सशक्त रहना चाहिये जिससे अधर्म के कारण क्षीणता न आ सके। धर्म से परस्पर प्रीति व सहानुभूति के भावों की वृद्धि होती है।
आचार्य चाणक्य ने लिखा है-‘‘सुखस्य मूलं धर्मः धर्मस्य मूलमिन्द्रियजयः।’’ अर्थात् सुख का मूल धर्म है और धर्म का मूल -इन्द्रियों को संयम में रखना है। संसार में प्रत्येक मनुष्य की इच्छा होती है कि मैं सुखी रहूँ और सुख की प्राप्ति धर्म के बिना नहीं हो सकती। अतः धर्म का आचरण अवश्य ही करना चाहिये। बिना धर्म को अपनाये कोई भी मनुष्य सुखी नहीं हो सकता।
संसार की कोई भी वस्तु सुख का हेतु हो सकती है परन्तु मरणोत्तर किसी के साथ नहीं जा सकती। शास्त्रकार कहते हैं-‘धर्म एकोऽनुगच्छति’ आर्थात् एक धर्म ही मरणोत्तर मनुष्य के साथ जाता है। संस्कृत के नीतिकार कहते है-
धनानि भूमौ, पशवश्च गोष्ठे, नारी गृहे बान्धवाः श्मशाने।
देहश्चितायां परलोकमार्गे, धर्मानुगो गच्छति जीव एक: ।।
अर्थात् समस्त भौतिक धन भूमि में ही गड़ा रह जाता है अथवा आजकल बैंकों में या तिजोरियों में ही धरा रह जाता है और गाय आदि पशु गोशाला में ही बंधे रह जाते हैं । पत्नी घर के द्वार तक ही साथ जाती है और परिवार के भाई-बन्धु व मित्रजन श्मशान तक ही साथ देते हैं एक मनुष्य का शुभाशुभ कर्म ;धर्मद्ध ही परलोक में मनुष्य का साथ देता है अर्थात् धर्म के अनुसार ही मनुष्य को परलोक में अच्छी-बुरी योनियों में जाना पड़ता है।
हमे धर्म को यथार्थ में जानकर व्यवहार रूप में स्वयं के लिए धारण करने की आवश्यकता है। धर्म ही एकमात्र हमारा अस्त्र तथा शस्त्र है, जिसका प्रयोग कर हम इह लोक से पारलौकिक यात्रा को पूर्ण करें। आओं! हम सब मिलकर धर्म को धारण करें।

क्या मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था व्यावहारिक है?

क्या मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था व्यावहारिक है?

श्री कृष्णकान्त वैदिक…..

वर्णाश्रम का इतिहास

चारों वेदों में कहीं भी वर्ण पद का उल्लेख नहीं मिलता है। सर्वप्रथम वर्ण पद भगवद्गीता में पाया गया है, जो निम्न प्रकार हैः-

‘चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः’ (४/१३)

श्लोक के इस अंश में परमेश्वर द्वारा गुण और कर्म के आधार पर चार वर्णों की सृष्टि किया जाना बताया गया है। यदि हम महाभारतकाल में उपलब्ध वर्णव्यवस्था का अध्ययन करें तो पाते हैं कि उस समय भी जाति के आधार पर ही वर्णव्यवस्था थी।गुण और कर्म के आधार पर वर्णव्यवस्था उस समय भी स्थापित नहीं की जा सकती थी। इस विषय में श्रीवसन्तकुमार चट्टोपाध्याय एम. ए. का कहना है- ‘‘ यदि किसी व्यक्ति की जाति उसकी वृत्ति वा कर्म पर निर्भर होती तो द्रोणचार्य क्षत्रिय कहलाते क्योंकि उनका व्यवसाय युद्ध करना था। पर वे जन्म के कारण ही ब्राहमण थे। उधर द्रोण-पुत्र अश्वत्थामा में कोई भी गुण-कर्म ब्राहमण जैसे न थे। क्रूर स्वभाव था। कर्म क्षत्रिय का करते थे। पांडवों के शिविर मे द्रौपदी के पुत्रों का वध करने पर जब वे पकड़े गए तो उन्हें ब्राहमण मान कर मृत्युदण्ड नहीं दिया गया, केवल उनका सिर मूडकर निष्कासित कर दिए गए थे। युधिष्ठर ब्राहमण स्वभाव के थे। जघन्य अपराधी को भी क्षमा कर देते थे। भीम तो जरा सी बात पर युद्ध को तैयार हो जाते थे। यदि गुणों को वर्णों का कारण माना जाता तो दोनों का पृथक्-पृथक् वर्ण मानना चाहिए था। पर थे दोनों क्षत्रिय ही। कर्म से वर्ण परिवर्तन कब हुआ ?’’ उक्त तथ्यों से यह प्रमाणित होता है कि महाभारत काल में जन्मना जाति व्यवस्था लागू थी। गीता के अनुसार वर्णाश्रम धर्म का पालन करने में लाभ और परिवर्तन से हानि- गीता में कहा गया है-

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः (१८/५४)

अर्थात् अपने ही वर्णधर्म के पालन में मनुष्य की उन्नति होती है । गीता में ही कहा गया है-

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः पर धर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।। (३/३५)

अर्थात् सुन्दर रूप से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुण रहित होने पर भी निजधर्म श्रेष्ठतर है अपने (वर्णाश्रम)

धर्म में मृत्यु भी कल्याणकारी है, दूसरों का धर्म भययुक्त या हानिकारक है। गीता में ही अन्यत्र कहा गया है –संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च। (१/४२) अर्थात् वर्ण-संकरता कुल नष्ट करने वालों को और कुल दोनों

को निश्चय से नरक में ले जाती है। इस श्लोक के अगले श्लोक में कहा गया है-

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः।

उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।। (१/४३)

अर्थात् कुल का हनन करनेवाले लोगों के वर्ण-संकरता उत्पन्न करने वाले इन दोषों के कारण जाति-धर्म तथा सदा से चले आ रहे कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं- न समाज की परम्पराएं बनी रहती हैं, नकुल की परम्पराएं बनी रहती हैं। महाभारत काल में यदि वर्ण और जातिभेद जन्म से नहीं था तो गीता में कुल धर्म और

जाति धर्म की बात कहां से आ गई ?

वर्ण व्यवस्था का विधान स्मृतियों, विशेष रूप से मनुस्मृति में है।

जन्मजात वर्णव्यवस्था से हानियां

१. जन्म से वर्ण मानने से एक वर्णवाले मनुष्य के लिए दूसरे वर्ण में प्रवेश के द्वार सदा के लिए बन्द कर

दिए जाते हैं।

२. मनुष्यों में जात्याभिमान उत्पन्न होता है और वे बिना गुण व योग्यता के भी अपने को अन्यों से श्रेष्ठ

समझने लगते हैं।

३. जात्याभिमान के कारण समाज में द्वेष और घृणा उत्पन्न होती है।

४. शूद्र अपने अच्छे गुण, कर्म, सदाचार और भक्ति से भगवान् को प्राप्त कर सकता है, परन्तु कभी शूद्र से

ब्राहमण नहीं बन सकता है।

जाति व्यवस्था का संक्षिप्त इतिहास

जैसा कि उपरोक्त रूप से उल्लिखित किया गया है कि महाभारत काल में भी वर्णव्यवस्था न होकर जाति व्यवस्था लागू थी। महाभारत के बाद तो गुण-कर्म का आधारपूर्ण रूप से विलुप्त हो गया। मनु ने ऐसे

ब्राहमणों का वर्णन किया है जो पतित, नास्तिक और नपुंसक थे। (मनुं २/१५०) अब गुण-कर्म की कसौटी को तिरोहित कर दिए जाने के बाद वर्ण का निर्धारण जन्म के आधार पर ही किया जाने लगा। उसके बाद तो ऊँच-नीच का भेद और भी बढ़ने लगा। सूत्र ग्रन्थों की रचना के समय तो उन्हें अत्यन्तहीन और नीच समझा

जाने लगा था। गौतम धर्मसूत्र (१२-४) के अनुसार यदि ‘‘शूद्र वेद मंत्र का उच्चारण करे तो उसकी जीभ काट

देनी चाहिए। यदि वेद को याद करे तो उसका शरीर चीर डालना चाहिए।’’ बुद्ध के प्रादुर्भाव के समय तक भारत के सामाजिक संगठन का रूप अत्यन्त विकृत हो गया था। बौद्ध साहित्य में इसी कारण से वर्णभेद की कटु आलोचना की गई है। जैन धर्म के प्रवर्त्तक वर्धमान महावीर भी इस व्यवस्था के कटु आलोचक थे। बौद्ध और जैन धर्म के प्रवर्त्तकों ने इन बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया परन्तु उन्हें सीमित सफलता ही प्राप्त हो

सकी थी। बुद्ध ने अपने समय में वर्तमान जन्मना जाति व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठाई और जन्म के आधार पर किसी को उच्च या नीच नहीं माना परन्तु जन्मना जाति व्यवस्था पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा और जातिव्यवस्था पहले की तुलना में अधिक विकृत हो गई। महर्षि पतंजलि (२०० ईं० पूं०) के समय तक जाति व्यवस्था का स्वरूप और अधिक विकृत हो चुका था। पतंजलि ने शूद्रों के महाभाष्य (२/४/१०) में दो

भेद किए हैं- ‘‘ एक अबहिकृत और दूसरे बहिकृत। तक्षा और अयस्कार आदि जो द्विजों के बर्तन छू सकते

थे, अबहिकृत या अनिरवसित जो द्विजों के पात्र नहीं छू सकते थे, चाण्डाल और मृतप आदि निरवसित या बहिकृत शूद्र थे।’’ समय के साथ-साथ वर्णभेद अत्यन्त संकीर्ण और कठोर हो गया।

जातीय भेदभाव को मिटाने के प्रयास

समय-समय पर अनेक महापुरुषों ने जातीय भेदभाव को मिटाने और समाज में समानता लाने के प्रयत्न किए। इन महापुरुषों का कहना था कि अच्छे गुण, कर्म, सदाचार और भक्ति से मनुष्य ऊँचा पद प्राप्त कर सकता है। गौतम बुद्ध और वर्धमान महावीर अपने प्रयासों में आंशिक रूप से ही सफल हो पाए थे। अन्य महापुरुषों में रामानन्द, चैतन्य, नानक, कबीर आदि प्रमुख थे। ये सन्त महात्मा भी हिन्दू समाज में व्याप्त ऊँच-नीच और छूत-अछूत की घोर समस्या का निदान नहीं कर सके थे। उन्नीसवीं शती के पूर्वाद्ध में इस देश में नवजागरण का सूत्रपात हुआ। इस समय पर समाज सुधार के क्षेत्र में ब्राहमसमाज, थियोसोफिकल-सोसाइटी और प्रार्थना समाज ने मुख्य रूप से ऊँच-नीच और छूत-अछूत की घोर समस्या का निदान करने का प्रयास किया।

प्रार्थनासमाज जिसकी स्थापना १८६७ में हुई थी के लोग जाति-प्रथा उन्मूलन, विधवा पुनर्विवाह, स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन देते थे और बाल-विवाह निषेध का प्रचार करते थे। ये लोग कुरीतियों के विरोध में घोर आन्दोलन

करते थे तथा सुधार चाहते थे परन्तु व्यवहार में, इनके हिन्दू समाज के कर्मकाण्डों में उलझे होने के कारण

सामाजिक सुधार के क्षेत्र में इनका प्रभाव नगण्य रहा। इसी प्रकार ब्राहमसमाज और थियोसोफिकल-सोसाइटी

भी जाति-प्रथा उन्मूलन के सम्बन्ध में कोई विशेष प्रगति नहीं कर पाए थे। ऐसे समय पर ऊँच-नीच और

छूत-अछूत की घोर समस्या का निदान करने और वर्णाधारित समाज की स्थापना हेतु उन्नीसवीं शती में

महर्षि दयानन्द सरस्वती और उनके द्वारा स्थापित संगठन आर्य समाज ने इस क्षेत्र में पदार्पण किया।

महर्षि दयानन्द सरस्वती और आर्यसमाज द्वारा किए गए प्रयास

महर्षि दयानन्द सरस्वती और आर्यसमाज गुण, कर्म और स्वभाव से वर्णव्यवस्था स्वीकार करता है, जन्म से नहीं। इसका आधार यजुर्वेद का यह प्रसिद्ध मंत्र है-

ब्राहमणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य कृतः।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत।। (३१/११)

पौराणिकों द्वारा उक्त मंत्र का अर्थ निम्न प्रकार किया गया है-

ब्राहमण परमात्मा के मुख से उत्पन्न हुए, क्षत्रिय उसकी बाहों से, वैश्य जंघाओं से और शूद्र पैरों से उत्पन्न हुए।

महर्षि दयानन्द ने अपने कालजयीग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में उक्त मंत्र के सम्बन्ध में निम्नप्रकार व्याख्या की है-

व्याख्या– इस मंत्र का जो तुमने अर्थ किया है वह ठीक नहीं, क्योंकि यहां पुरुष अर्थात् निराकार, व्यापक परमात्मा की अनुकृत्ति है।जब वह निराकार है तो उसके मुखादि अंग नहीं हो सकते, जो मुखादि अंग वाला हो तो वह पुरुष अर्थात् व्यापक नहीं।और जो व्यापक नहीं वह सर्वशक्तिमान् जगत् का स्रष्टा, धर्त्ता, प्रलयकर्त्ता, जीवों के पुण्य-पापों को जान के व्यवस्था करने हारा, सर्वज्ञ, अजन्मा, मृत्यु रहित आदि विशेषण वाला नहीं हो सकता, इसलिए इसका अर्थ है कि जो (अस्य) पूर्णव्यापक परमात्मा की सृष्टि में मुख के सदृश सब में मुख्य उत्तम हो वह ब्राहमण (बाहू) बाहुर्वैबलम्; (५/४/१/१) बाहुर्वैवीर्यम्; (६/३/२/३५) शतपथब्राहमण। बल-वीर्य का नाम बाहु है, वह जिसमें अधिक हो सो (राजन्यः) क्षत्रिय (ऊरू) कटि के अधोभाग और जानु के उपरिस्थ भाग का नाम ऊरू है, जो सब पदार्थों ओर सब देशों में जावे-आवे, प्रवेश करे वह (वैश्यः) वैश्य और (पद्भ्याम्) जो पग के अर्थात् नीच अंग के सदृश मूर्खत्वादि गुणवाला हो वह शूद्र है। अन्यत्र शतपथ-ब्राहमणादि में भी इस मंत्र का ऐसा ही अर्थ किया है।

महर्षि ने न केवल गुण, कर्म और स्वभाव से वर्णव्यवस्था स्वीकार की अपितु मनुस्मृति के निम्न श्लोक को उवरित करते हुए यह भी कहा कि जो शूद्र कुल में उत्पन्न होके ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य के समान गुण, कर्म और स्वभाव वाला हो तो वह शूद्र, ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाय, वैसे ही जो ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो और उसके समान गुण, कर्म और स्वभाव शूद्र के सदृश हों तो वह शूद्र हो जाय, वैसे क्षत्रिय वा वैश्य के कुल में उत्पन्न होके ब्राहमण, ब्राहमणी वा शूद्र के समान होने से ब्राहमण और शूद्र भी हो जाता है, अर्थात चारों वर्णों में जिस-जिस वर्ण के सदृश जो-जो पुरुष वा स्त्री हो वह-वह उसी वर्ण में गिनी जावे।

शूद्रो ब्राहमणतामेति ब्राहमणश्चैति शूद्रताम्।

क्षत्रियाज्जातमेवन्तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च।। मनुं (१०/६५)

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने यह प्रतिपादित किया कि सब बालक और बालिकाओं को शिक्षा का समान अवसर दिया जाना चाहिए। चाहे वे किसी भी वर्ण या कुल में उत्पन्न हुए हों। स्त्रियों और शूद्रों को शिक्षित करने का उन्होंने प्रबल समर्थन किया। उन्होंने कहा कि सब मनुष्यों को वेदादि शास्त्र पढ़ने का अधिकार है और

अपने कथन के समर्थन में यजुर्वेद का निम्न मन्त्र प्रस्तुत कियाः-

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।

ब्रहमराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय।। (२६/२)

महर्षि का यह मानना था कि जन्म से सब शूद्र होते हैं, शिक्षा और संस्कार से ही द्विज बनते हैं। आर्यसमाज

का इतिहास, प्रथम भाग-पृष्ठ-४४५ (प्रधान सम्पादक- डां सत्यकेतु विद्यालंकार) पर महर्षि के विचार निम्न

प्रकार वर्णित हैं-

‘‘ महर्षि ने प्रतिपादित यह किया, कि विद्या सबके लिए है और सबको ज्ञान प्राप्ति का एक समान अवसर दिया जाना चाहिए, और शिक्षा की समाप्ति पर ही यह निर्धारित किया जाना चाहिए कि अपनी योग्यता और गुणों के कारण कौन व्यक्ति किस वर्ण में होने के योग्य है। जब वर्ण निर्धारित हो जाए, तो सबको उनके वर्णों के अनुरूप कार्य भी दिया जाना चहिए। ’’

महर्षि अपने जीवन में सदैव जन्मना जातीय व्यवस्था के उन्मूलन और छुआछूत दूर करने के लिए संघर्षरत रहे और उनके द्वारा स्थापित संगठन आर्य समाज ने भी उन्नीसवीं शती के अन्तिम वर्षों और बीसवीं शती

के कुछ वर्षों तक सामाजिक कुरीतियों और विषमताओं के विरुद्ध सशक्त आन्दोलन किया जिसके फलस्वरूप

जातीय विषमता में काफी गिरावट भी हुई परन्तु धीरे- धीरे आर्यसमाज का यह आन्दोलन शिथिल पड़ने लगा

और आज तो यह स्थिति आ चुकी है कि यह महारोग आर्यसमाज के किसी एजेन्डा में भी नहीं है। इसका

कारण आर्यसमाज के केन्द्रीय और प्रान्तीय संगठनों का आपसी फूट या अन्य कारणों से कमजोर हो जाना या

समाज के प्रति संवेदनहीन हो जाना भी हो सकता है।जहां कहीं इस दिशा में कोई कार्य हो रहा है, वह कतिपय आर्यजनों या श्रेष्ठ आर्यसमाजों के निजी प्रयासों से ही कार्य किया जा रहा है। वेद प्रचारिणी सभा नागपुर का

नाम एक उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में रखा जा सकता है जो समय-समय पर सम्मेलन/गोष्ठियों और प्रचार कार्य करके महर्षि के मिशन को आगे बढ़ा रहे हैं। आज तो स्थिति यह लगती है कि आर्यसमाज के अधिकांश सदस्य भी जातीयता के घेरो से बाहर नहीं निकले प्रतीत होते हैं क्योंकि महर्षि द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों पर चलता हुआ शायद ही कोई दिखाई दे।आर्यसमाज ने दलित व पिछड़े समाज से जो व्यक्ति विद्वान् या पुरोहित के रूप में बनाए थे, उन्हें स्वयं के विवाह के लिए और उनकी सन्तानों के विवाह के लिए भी समस्याओं का सामना करना पडा़ क्योंकि आर्य या तथाकथित आर्य तो अपने जन्मना जातीय कुलों में ही विवाहादि करते हैं। पौराणिक लोगों से तो कभी भी यह अपेक्षा नहीं थी कि वे निम्नवर्ण से उच्च वर्ण में किसी को प्रोन्नत होता हुआ देख सकेंगे। आर्यों ने भी कभी वर्णों के उच्चीकरण में कोई सहायक भूमिका नहीं निभाई। यदि वर्णों का निर्धारण समावर्त्तन संस्कार के समय ही किया जाना होता है और महर्षि ने स्वयं ऐसा विधान भी किया है, जैसे कि उपराक्त रूप से वर्णित किया गया है तो आर्य समाज के संगठन के गुरुकुलों में तो कम से कम महर्षि के निर्देशों के अनुरूप शिक्षापूर्ण करनेवाले विद्यार्थियों को क्रमशः ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण का घोषित किया जाना चाहिए। मनुस्मृति का विधान हजारों वर्ष से चला आ रहा है जिसे महिमा मण्डित करने में और जिसका औचित्य सिद्ध करने में हमारे आर्यसमाज के विद्वानों ने भी हजारों पृष्ठ का लेकर दिए परन्तु व्यवहार के धरातल पर वे एक भी ऐसा उदाहरण प्रस्तुत नहीं कर सकते हैं जिसे आधुनिक समय में किसी को गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर शास्त्रों में वर्णित विधि के अनुसार ब्राहमण, क्षत्रिय या वैश्य घोषित किया गया हो। ऐसे में गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर हमारे द्वारा मानी जा रही यह व्यवस्था हाथी के दिखावटी दांतों के सदृश ही मानी जायेगी क्योंकि खाने के दांत भिन्नहैं। महर्षि स्वयं वर्णव्यवस्था के वर्तमान स्वरूप से दुःखी थे। उन्होंने जन्म मूलक वर्ण व्यवस्था पर कुल्हाड़ा चलाया। बाद में जब उन्होंने अनुभव किया कि जन्म हो कर्म से, यह वर्णव्यवस्था समाज के लिए घोर हानिकारक है तो उन्होंने साफ कह दिया -‘‘यह

वर्णव्यवस्था तो आर्यों के लिए मरणव्यवस्था बन गई है। देखें इस डाकिन से कब पीछा छूटता है।’’ (अन्तर्राष्टीय आर्य समाज स्मारिका, पृष्ठं ६४) महर्षि के उक्त कथन के परिप्रेक्ष्य में यह विचार करना आवश्यक है कि क्या मनुस्मृति पर आधारित वर्णव्यवस्था आज के समय में व्यावहारिक है?

मनुस्मृति पर आधारित वर्णव्यवस्था की व्यावहारिक प्रासंगिकता

१. गुण कर्मों से किसी का वर्ण निश्चित करना अति दुष्कर कार्य है क्योंकि किसी मनुष्य के गुण तो उसे एक वर्ण का बताते हैं परन्तु कर्म दूसरे अन्य वर्ण के होते हैं। आधुनिक समय में यह भी होता है कि एक व्यक्ति कृषि कार्य करता है और विद्यालय में या निजी स्तर पर घर पर ही बालक-बालिकाओं को शिक्षित करने का व्यवसाय भी करता है। एक व्यक्ति सैनिक है और सेना में पुरोहित का भी कार्य करता है।भारत के कई सेना के जनरल, नौ-सेना के एडमिरल और वायु सेना के अध्यक्ष ऐसे हुए हैं जिन्होंने ब्राहमणों के घर जन्म लिया, जीवन भर सेना में कार्यरत रहने के बाद भी वे क्षत्रिय नहीं हुए और ब्राहमण ही कहलाए। यही स्थिति अन्य सैनिकों की भी रहती है। जीवनभर कृषि कार्य करने वाले ब्राहमण-जन्मना कभी वैश्य नहीं हो पाए। ऐसी दशा में वर्ण कैसे निश्चित होगा? फिर इस बात का भी कोई भरोसा नहीं है कि वर्तमान गुण, कर्म या व्यवसाय आजीवन वैसे ही बने रहेंगे, इनमें कोई परिवर्तन नहीं होगा। यदि ये बदल गए तो वर्ण भी परिवर्तित करना पड़ेगा। साथ ही दो या दो से अधिक भिन्न-भिन्न व्यवसाय करने वालों का वर्ण कैसे निर्धारित किया जायेगा?

२. संसार में २२० से अधिक देश हैं जिनमें से भारत, नेपाल, बंगलादेश, पाकिस्तान आदि में जहां हिन्दू निवास करते हैं जाति व्यवस्था है, अन्य देशों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, फिर भी वहां बुद्धिजीवियों का कार्य, देश की रक्षा का कार्य, वाणिज्य व कृषि और सेवाकार्य सुचारू ढंग से चलता है। वहाँ पर कोई जातीय वैमनस्य या उसका कोई कारण भी नहीं है।केवल भारत में ही मनुष्यों को विभाजित करने वाले इस विधान का क्या औचित्य है ?

३. भारत में प्रजातंत्र है और इस प्रजातंत्रीय व्यवस्था में मनुष्यों के जीवन को जीने के लिए अधिकार और

कर्तव्य संविधान में दिए गए हैं। संविधान मनुष्यों को समान अधिकार देता है। ऐसे में भी गुण, कर्म और

स्वभाव के आधार पर उन्हें विभाजित करना विधि अनुकूल नहीं है। हिन्दुओं में दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों की जनसंख्यां प्रतिशत से अधिक है, ऐसे में आर्यसमाज द्वारा मनुस्मृति की इस व्यवस्था को मानने के कारण अधिकांश हिन्दू आर्य समाज के अन्य गुणों को जानते और मानते हुए भी इसकी ओर आकर्षित नहीं होते , इसके विपरीत इसकी निन्दा करने पर उतारू हो जाते हैं।

महर्षि को यदि और अधिक जीवनकाल मिला होता और वे अपने उक्त निष्कर्ष पर पुनः मनन करते तो क्या फिर भी मनुस्मृति आधारित वर्णव्यवस्था लागू करने का परामर्श देते, यह विचारणीय है।समस्त आर्यजनों से

निवेदन है कि कृपया महर्षि के जीवन के उक्त निष्कर्ष और लेख में प्रस्तुत बिन्दुओं के आधार पर विचार करें

कि क्या मनुस्मृति में वर्णित वर्ण व्यवस्था व्यावहारिक है?

देहरादून (उ.ख.)

वर्ण-चेतना

 

वर्ण-चेतना

डॉ. अमिता आर्या…..

वर्ण व्यवस्था के प्रति हमारी वर्तमान समझ और- इसके केन्द्रीय उद्देश्यों में अब बहुत बड़ा अन्तर पैदा हो चुका है। यद्यपि इस व्यवस्था को हम अभी भी बहुत सहजता से जी रहे हैं, बल्कि सारा विश्व जी रहा है। फिर भी अधिकांश लोग इसका विरोध करते हैं। दुर्भाग्य से वर्ण व्यवस्था के सही स्वरूप की जानकारी का अभाव इसका कारण है। हमें वर्णों के प्रति अपनी समझ अर्थात्चेतना को परिष्कृत करना होगा । इसके बाह्य और आभ्यन्तर दोनों स्वरूपों को समझने के पश्चात् ही हमें इस महान् व्यवस्था की पूर्णता का भान होगा और इसे लागू करने की आवश्यकता अनुभव होगी।वस्तुतः हमारी समस्या ये है कि इस शब्द को सुनते ही हम अपने वर्तमान समाज, जिसमें विभिन्न वर्ण सदैव विद्यमान रहते हैं, उसे छोड़कर किसी दूसरे ही लोक में पहुच जाते हैं। ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के नाम पर हमारे मस्तिष्क में कुछ पूर्व निर्धारित ऐतिहासिक व पौराणिक

आकृतिया जीवन्त होने लगती हैं, माथे पर शिकन पड़ने लगती है। अतः स्पष्ट है कि समस्या तो है, लेकिन वो हमारी समझ में है, वर्ण व्यवस्था में नहीं। शास्त्रों में कहा है- ‘वर्णो वृणोतेः भाव यह है कि जिसके जैसे गुण कर्म हों, वैसा ही उसको अधिकार देना चाहिए। हम अपने समाज के किसी भी क्षेत्र से जुड़े प्रतिष्ठान को देखें। क्या उनमें कार्यरत सभी व्यक्ति समान अधिकार और वेतन के भोगी हैं ? क्या उनमें पद विभाजन नहीं है ? अधिकारों का बंटवारा नहीं है ? शासन, प्रशासन, सेना, आन्तरिक सुरक्षा बल, चिकित्सकीय संस्थान,

आर्थिक संस्थान, न्यायिक संस्थान इत्यादि में कार्यरत सभी कार्यकर्ताओं को एक से अधिकार प्राप्त हैं ? सर्वथा नहीं हैं। लेकिन इस भेद-विधान को देखकर किसी के मन में प्रश्न नहीं उठता, किसी के माथे की त्यौरियां नहीं चढ़तीं और हम इसे नितान्त सहज मानकर व्यवहार करते हैं। ये वर्ण-व्यवस्था है और इसपर आश्चर्य करने की आवश्यकता भी नहीं है।

वर्तमान जाति-व्यवस्था का विरोध तो ठीक है परन्तु वर्ण एक भिन्न संस्थान है। यह किसी को बिना मूल्य के कदापि नहीं मिलता। इसे अर्जित करना पड़ता है। जैसे डॉक्टर के घर उत्पन्न हुआ व्यक्ति व्यवसायगत विशेषज्ञता हासिल किये बिना डॉक्टर नहीं बन सकता। वैसे ही ब्राहमण का पुत्र बिना विद्वत्ता अर्जित किए ब्राहमण नहीं कहला सकता। वर्णव्यवस्था की दौड़ शून्य बिन्दु से आरम्भ होती है। अगर इससे आगे जाना है तो दौड़ना पड़ेगा। बैठे-बैठे तो केवल शूद्रत्व उपलब्ध है। इसकी और भी बड़ी विशेषता यह है कि ये दौड़ प्रतियोगिता नहीं है। दौड़ पूरी करने वाला हर प्रतिभागी उच्चवर्ण का अधिकारी है। जितना दौड़ेंगे, जब भी दौडेंगे उतना उसी समय प्राप्त होता जायेगा। इसलिए इस व्यवस्था में किसी के अधिकार को छीनने जैसी तो अवधारणा ही नहीं है। परन्तु दुर्भाग्य से कालान्तर में वर्ण व्यक्ति की अर्जित विशेषताओं का परिचायक नहीं रहा। परिणामस्वरूप एक न्यायपूर्ण व्यवस्था अन्यायपूर्ण होती चली गई। इसकी अत्यन्त प्रगतिशीलता भयानक जड़ता में परिवर्तित हो गई और फिर हमने उसे त्यागना ही उचित समझा। हम वर्ण वाचक शब्दों का प्रयोग चाहे न करें, फिर भी ये वर्ण गुण-कर्म के अनुसार समाज में सदैव विद्यमान रहते ही हैं। किन्तु एक संगठित संस्था के रूप में मान्यता प्राप्त न होने से ऐसे वर्ण विभाजन का कोई लाभ नहीं है। अपितु सबसे बड़ी हानि यह है कि अपने-अपने स्तर के अनुकूल मर्यादाओं और नियमों का पालन करने के लिए स्मृतिआदि शास्त्रों में जो अनुशासन बनाया गया था वो वर्ण-व्यवस्था की अनुपस्थिति में अप्रासंगिक हो गया है। अलग-अलग समूहों के लिए- उल्लिखित अलग अलग शास्त्रीय नियम यथासामर्थ्य उनके स्तर को बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं। ये नियम उच्च अधिकारों के साथ-साथ वर्णों को उच्च कर्त्तव्यों से बांधते हैं। अधिकारों को कर्त्तव्यों पर

अधिमान देने की स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति से हम सभी परिचित हैं। इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए

कोई अंकुश तो होना ही चाहिए। केवल नैतिक उपदेशों से काम नहीं चलेगा। ‘दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वाः’   ये एक सार्वकालिक सत्य है। लेकिन सूक्ष्म व्यक्तिगत कर्त्तव्यों की अवहेलना को रोकने के लिए अगर राज्य दण्ड-व्यवस्था को हाथ में ले तो कुछ अव्यावहारिक ही लगता है। मूल कर्त्तव्यों की अवहेलना को संविधान में

दण्डनीय अपराधों से पृथक रखना इसी असहजता को दर्शाता है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि राज्य अपने

नागरिकों को कर्त्तव्य परायण बनाना चाहता है। परन्तु उसके लिए बाध्यता का प्रावधान नहीं कर पा रहा। ऐसे

में समस्या यह है कि इससे कर्त्तव्यों की प्रेरणा प्रभावशाली नहीं बन पाएगी। प्राचीन वर्ण-व्यवस्था में इसका

समाधान उपलब्ध है। इसके लिए हमें सोवियत संघ से सीखने की आवश्यकता नहीं थी। वर्ण क्रम से निर्धारित

आचार संहिता वे मौलिक कर्त्तव्य हैं जिनके पालनार्थ नागरिकों को बाध्य करने के लिए एक व्यावहारिक

दण्ड-व्यवस्था विद्यमान है क्योंकि इनके उल्लंघन पर दण्ड देने का दायित्व मुख्यतया राज्य का नहीं अपितु

समाज का है। इसका दण्ड देने का अपना प्रकार है। ये आपको जेल में तो नहीं डालेगी परन्तु निश्चितकालिक

बहिष्कार और अधिकारों की कटौती आदि से नियन्त्रित अवश्य करेगी, जिसमें एक बार अपराध करने के बाद

सुधरना मना नहीं है। यहा जितनी शीघ्र अपराधी अपने शुद्ध आचरण से समाज के विश्वास को जीत लेगा उतनी ही शीघ्रता से वो अपने खोए अधिकारों को फिर से प्राप्त कर लेगा। यह एक उत्तम दण्ड-व्यवस्था है, जहा प्रताड़ना तो है परन्तु अपराधी का समय दिशाहीन कैद में व्यर्थ नष्ट नहीं होता। यह एक ऐसा कारागार है जिसकी चाबी जेलर के नहीं बल्कि अपराधी के हाथ में है। वो जब चाहे स्वयं को परिष्कृत कर प्रतिबन्धों

से मुक्त हो समाज की मुख्यधारा में सम्मिलित हो सकता है। ये काल्पनिक बातें नहीं हैं, यथार्थ हैं। नियमों का उल्लंघन हो जाने पर अलग-अलग वर्णों द्वारा करने योग्य प्रायश्चित्तीय विधानों का विशाल जखीरा

सामाजिक आत्मानुशासन प्रणाली की व्यापक विद्यमानता का प्रमाण है। ऐसी सुलझी हुई दण्ड-व्यवस्था समाज

और व्यक्ति दोनों के लिए हितकर है। इस प्रकार से समूह के प्रति व्यक्ति के कर्त्तव्यों को सुनिश्चित करने का सर्वोत्तम उपाय है वर्ण-व्यवस्था। बस आवश्यकता इस बात की है कि हम इस व्यवस्था को इसके मूलरूप में स्वीकार करें, विकृत रूप में नहीं। वह मूलरूप जिस में वर्णों की दीक्षा पात्रता के आधार पर दी जाए, जन्म के आधार पर नहीं। जहा एक वर्ण दूसरे वर्ण का शोषक न हो।जहा सामाजिक भ्रातृभाव और संवेदना किसी भी प्रकार से बाधित न हो। ऐसा तभी सम्भव है जब हम ये समझ पाएं कि कोई भी व्यवस्था इंसानियत से बड़ी नहीं होती। व्यवस्थाएं मानव धर्म को निभाने का संसाधन हैं। हाथ के लिए हथियार बनते हैं, हथियारों के लिए हाथ नहीं। इसी प्रकार वर्ण-व्यवस्था समाज में समभाव बनाए रखने के लिए बनी है। उसकी एकता को भंग करने के लिए नहीं, ना ही मानव-मानव में भेद उत्पन्न करने के लिए। महर्षि दयानन्दजी ने इसी बात को ध्यान में रखते हुए ऋगवेदादिभाष्यभूमिका में वर्णाश्रम विषय की शुरुआत जिस संवेदनशीलता के साथ की है वो दुर्लभ है- ‘प्रथम मनुष्य जाति सबकी एक है, सो भी वेदों से सिद्ध है। ….. मनुष्य जाति के ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये वर्ण कहाते हैं। वेद रीति से इनके दो भेद हैं– एक आर्य और दूसरा दस्यु। …. वे चार भेद गुण कर्मों से किए गये हैं।

अपने बाह्य स्वरूप में विभेदनकारी दिखते हुए भी अन्ततोगत्वा यह एक समावेशी व्यवस्था है। यहा शूद्र को मुख्य समाज से काटकर अलग नहीं फेंका गया है अपितु उसे भी चारों वर्णों में से एक के रूप में चिन्हीत

किया गया है। इस प्रकार से वो उसी समाज का एक भाग है जिसका अंग बाकी तीनों वर्ण हैं। ये सभी वर्ण

अन्तः सम्बन्धित व एक दूसरे पर आश्रित हैं। सभी को सभी की आवश्यकता है। यजुर्वेद के पुरुष सूक्त में इन

चारों वर्णों को एक ही अवयव संस्थान के अभिन्न अंगों के रूप में स्वीकार किया गया है। इसलिए इनमें

छुआ-छूत और ऊँच-नीच जैसी तुच्छ भावना के लिए स्थान नहीं है। वर्ण व्यवस्था के इस विशुद्ध स्वरूप से

असहमत नहीं हुआ जा सकता। इस विषय में तो सम्यक् जानकारी का अभाव ही प्रतिरोध को उत्पन्न कर सकता है। कालान्तर में प्रविष्ट हुई विकृतियों को यदि इस व्यवस्था से अलग कर दिया जाये तो यह व्यवस्था सर्वथा निरापद है। इस व्यवस्था के पुनः प्रचलन का सबसे बड़ा लाभ यही होगा कि समाज के भय से स्ववर्णानुकूल आचरण के लिए बाध्य हुआ व्यक्ति क्षुद्रताओं को पीछे छोड़कर अपने और राष्ट के कल्याण के लिए प्रस्तुत रहेगा। इससे राज्य पर पड़ने वाला अनुशासनात्मक व्यवस्था सम्बन्धी बोझ हल्का होगा। अच्छे नागरिक प्रशासन के कार्य को सुगम बनाते हैं और निरंकुश नागरिक प्रशासन का सिरदर्द बनते हैं। वर्णों की यह ठोस सामाजिक व्यवस्था राज्य को अच्छे नागरिक प्रदान करती है।

प्राचीनकाल में वर्ण का निर्धारण जन्म के आधार पर नहीं बल्कि व्यक्ति की पात्रता के आधार पर करने की प्रथा थी। इसके निर्धारण का क्या प्रकार था ये भी जानना आवश्यक है। वस्तुतः मानव समाज में चार

समस्याएँ सदा विद्यमान रहती हैं- अज्ञान, अन्याय, अभाव और आलस्य। शिक्षा समाप्ति तक गुरु ये पहचान जाता था कि उसका कौन सा शिष्य किस समस्या का समाधान बन सकता है। इसलिए जो अज्ञान को मिटा सके वो ब्राहमण, जो अन्याय को समाप्त कर सके वो क्षत्रिय, जो अभाव की पूर्ति करने में समर्थ हो वह वैश्य और जो इन सब में कुशल न होकर शारीरिक सक्रीयता में बढ़कर होता है वह शूद्र। इस प्रकार से वर्णों की दीक्षा दी जाती थी। यह तो हुई वर्णव्यवस्था की बाह्य जानकारी। अब हमें इसके आन्तरिक पहलू को भी समझना चाहिए। अपनी-अपनी पात्रता के अनुसार वर्णों की दीक्षा ग्रहण करने के साथ ही व्यक्ति की पुरुषार्थ चतुष्टय की यात्रा प्रारम्भ हो जाती है। वस्तुतः पुरुष अपने अर्थ को अथवा अपनी सार्थकता को जिसमें ढूंढता है वही उसका पुरुषार्थ है। व्यावसायिक स्तर पर हम जिस भी वर्ण से सम्बन्ध रखते हों लेकिन अपनी चेतना में किस वर्ण को साकार कर रहे हैं ये इसका दूसरा पक्ष है। जो मात्र देह की चेतना में जीता है वह शूद्र है।

कामनाओं का उपभोग ही संसार का परमतत्व है, इससे परे कुछ है ही नहीं जो ये मान कर जीते हैं वो काम के पुरुषार्थ को चुनते हैं। अतः शिक्षित होते हुए भी वे चेतना के स्तर पर शूद्रत्व में ही वास कर रहे हैं। जो अकुशल श्रमिक है वो तो व्यवसाय के स्तर पर शूद्र है, परन्तु शिक्षित व्यक्ति यदि काम को अपना पुरुषार्थ चुनेगा तो चेतना में शूद्र बनता जाएगा। इसी प्रकार अर्थोपलब्धि जिसका पुरुषार्थ बन जाता है, वह वैश्य कहाता है। क्षत्रिय का पुरुषार्थ धर्म है। वह संकल्पवान् है। धर्म के लिए वह मर मिटेगा। जहा अन्याय का प्रसंग आयेगा वहां सर्वस्व स्वाहा कर देगा। ब्राहमण धर्म, अर्थ और काम तीनों से ऊँपर उठकर मोक्ष को अपना पुरुषार्थ मानता है। यहा धर्म से ऊँपर उठने का अर्थ धर्म की अवमानना नहीं है, इसका आशय है कि अब वह स्वभावतः ही धर्म में वास कर रहा है। काम, अर्थ और धर्म इन तीनों से आगे की यात्रा है मोक्ष। मोक्ष में संस्कारों के साथ प्रवेश नहीं कर सकते। जो संस्कार सहायक थे उनकी सीढ़ी से भी मुक्त होना होता है। बुद्धि भी हमें आबद्ध कर ही रही थी चाहे धर्म से ही सही, अतः उसका परित्याग भी आवश्यक है। तभी मोक्ष घटित होगा। हम किसी भी वर्ण के किसी भी आश्रम से सम्बन्ध रखते हों फिर भी मानव जीवन का चरम गन्तव्य मोक्ष ही है। इस विषय में वेदादिशास्त्रों में अनेक प्रमाण हैं। उन्हीं के सार को वानप्रस्थ और संन्यास के प्रसंग में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने इस प्रकार कहा है- the stature of man is not be reduced to the requirements of the society. Man is much more than the custodian of its culture or protector of his country or producer of its wealth. इससे भी आगे उसकी नियति है। हमारी

सामाजिक दक्षता हमारी आध्यात्मिक नियति का गन्तव्य नहीं है। इस बात को ध्यान में रखते हुए शूद्रत्व की

चेतना से ऊँपर उठते हुए ब्राहमण की चेतना तक पहुचने का प्रयास करना चाहिए। सारे वर्ण अपने-अपने काम

करते हुए भी ब्राहमण की चेतना में जीने का अभ्यास कर सकते हैं। कर्म यदि यज्ञमय हो जाए तो शूद्र का कर्म भी ब्राहमण के कर्म के समान पावन बन जाता है। वहीं ब्राहमण का कर्म निम्न चेतना के साथ किया जाए तो वह कर्म पावन होते हुए भी शूद्र के समान हो जाता है। ब्राहमण और क्षत्रिय जब अपनी सेवा को अर्थ की लिप्सा से बेचते हैं तो वैश्य चेतना से युक्त हो जाते हैं। जबकि सामाजिक हित की भावना से व्यापार करता हुआ वैश्य उत्कृष्ट वर्ण की चेतना को प्राप्त कर लेता है। महर्षि मनु ने भी शूद्रादि की उत्कृष्ट वर्ण प्राप्ति का उल्लेख कर वर्णव्यवस्था के अन्दर निहित उन्नति की सम्भावनाओं पर बल दिया है। वर्ण चेतना का उत्तरोत्तर विकास ही वो सोपान है जिसके माध्यम से एक शूद्र भी ब्राहमणत्व को धारण कर सकता है।

वस्तुतः यह एक ऐसी व्यवस्था है जो अपार सम्भावनाओं को अपार अवसर उपलब्ध कराती है, एक ऐसा यन्त्र है जो अंकुश से आजादी, सामूहिक परार्थ से व्यक्तिगत स्वार्थ, अनेकता से एकता, त्याग से प्राप्ति सुख के रस को निचोड़ लाता है। हमें समझना चाहिए कि एक ऐसी संस्था जो विभिन्न विरोधाभासी तत्वों को परस्पर

गूंथकर शान्तिमय सहअस्तित्व प्रदान कर सकती है क्या वो व्यवस्था अनेक समानताओं से युक्त एक मानव जाति को सद्भावनामय परिवेश प्रदान करने का सामर्थ्य नहीं रखती होगी ? क्या हो गया है हमारे विश्वास को ? एक सुपरीक्षित प्राचीन व्यवस्था के प्रति इतने आश्वस्त तो हो ही सकते हैं हम।

– श्रीमद्दयानन्द कन्या गुरुकुल महाविद्यालय,

चोटीपुरा, अमरोहा (उ. प्र.)

 

वैदिक आश्रम एवं वर्ण व्यवस्था

वैदिक आश्रम एवं वर्ण व्यवस्था

आचार्य योगेन्द्र याज्ञिक….

आश्रम शब्द आड़  उपसर्ग पूर्वक श्रमु तपसि- खोदे च धातु से घज प्रत्यय होकर निष्पन्न होता है मानव का वह जीवन क्रम जिसमें ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, धर्म तथा मुक्ति आदि के लिए मर्यादा पूर्वक निरन्तर श्रम किया जाए वह आश्रम कहलाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो ‘‘आश्राम्यन्ति अस्मिन् इति आश्रमः’’ ऐसा जीवन जिसमें व्यक्ति खूब श्रम करता है। आश्रम को आश्रम इसलिए कहते हैं कि आश्रम्यन्त्येषु श्रेयोर्थिनः पुरुषा इत्याश्रमाः अर्थात् इनमें श्रेयस् के इच्छुक पुरुष खूब श्रम करते हैं। महर्षि दयानन्द आश्रम के विषय में आर्योद्देश्य रत्नमाला में कहते हैं- जिसमें अत्यन्त परिश्रम करके उत्तम गुणों का ग्रहण और श्रेष्ठ काम किये उनको आश्रम कहते हैं।

आश्रमों की संख्या१. महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में लिखा- आश्रमा अपि चत्वारः सन्ति,

ब्रहमचर्य-गृहस्थ-वानप्रस्थ-सन्यासभेदात् आश्रम चार हैं ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास। मनु ने भी मनुस्मृति में कहा चत्वारश्चाश्रमाःपृथक् लोक में चार पृथक-पृथक आश्रम हैं। जाबोलोपनिषद् में भी कहा है ब्रहमचर्य समाप्य गृही भवेत्  गृही भूत्वा वनी भवेत् बनी भूत्वा प्रव्रजेत् अर्थात् ब्रह्मचर्य को पूर्ण करके गृहस्थी बने फिर वनी होवे उसके पश्चात् परिव्रजाक बने। अन्य आपस्तम्ब, गौतमधर्मसूत्र वशिष्ठधर्मसूत्रादि में भी आश्रमों की संख्या चार ही मानी गई हैं।

आश्रमों का उद्देश्यमहर्षि दयानन्द जी ऋगवेदादि-भाष्यभूमिका में कहते हैं- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन

चारों पदार्थों की प्राप्ति के लिए इन चार आश्रमों का सेवन करना सब मनुष्यों को उचित हैं। १. ब्रहमचर्याश्रम-

आश्रमों की दृष्टि से यह प्रथम है। ब्रहमचर्याश्रम के सम्बन्ध में ऋषि लिखते हैं – ‘‘विद्या पढ़ने सुशिक्षा लेने और बलवान् होने आदि के लिए ब्रहमचर्य (आश्रम है)”। ब्रहमचर्याश्रम में सद्विद्यादि शुभ गुणों का ग्रहण

करना, जितेन्द्रियता से आत्मशक्ति का विकास करना, शारीरिक बल वृद्धि के साथ-साथ विद्या पढना तथा सुशिक्षा ग्रहण करना। यह आश्रम समस्त आश्रमों की नीव हैं। इसकी सुदृढ़ता पर ही जीवन रूपी भवन की

भित्ति सुदृढ़ होती है।

ब्रहमचारी शब्द ब्रहम तथा चारी इन दो पढ़ो से मिलकर बना है। ब्रहम पढ़ बृहवृहि वृद्धो धातु से निष्पन्न होता हैं जिसका अर्थ बड़ा या महान् है। शरीर में वीर्य, ज्ञान में वेद तथा तत्वों में परमेश्वर सबसे बडा है। चारी शब्द चर गतिभक्षणयोः धातु से णिनी प्रत्यय लगने से बनता है। गति के तीन अर्थ है ज्ञान, ब्रहम की प्राप्ति में प्रयत्नशील व्यक्ति। इस ब्रहमचारी शब्द की बहुत से विद्वानों ने अलग-अलग व्युत्पति की हैं यथा ब्रहमचर्यं चरतीति ब्रहमचारी आदि, परन्तु महर्षि दयानन्द कहते हैं- ब्रह्माणि वेदे चरितु शीलं यस्य स ब्रहमचारी।

ब्रहमचर्याश्रम वह अवस्था है जिसमें मनुष्य ज्ञान, बल, भक्ति, यश, तप, स्वाध्याय, को जोड़ने का काम करता है।

. गृहस्थाश्रम- आश्रमों की दृष्टि से ये दूसरे स्थान पर है इसके विषय में दयानन्द जी कहते हैं- सब प्रकार के

उत्तम व्यवहार सिद्ध करने के अर्थ गृहस्थ। सारे शास्त्रकारों ने ग्रहस्थाश्रम की प्रशंसा की है। गौतम धर्म सूत्र ने तो कहा है- गृहस्थ सब आश्रमो का मूल है। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा- ‘‘ इसलिए जितना कुछ व्यवहार संसार में है उसका आधार गृहस्थाश्रम है। जो यह गृहस्थाश्रम न होता तो सन्तानोत्पत्ति के न होने से ब्रहमचर्य, वानप्रस्थ, और सन्यासाश्रम कहां से हो सकते? जो कोई गृहस्थाश्रम की निंदा करता है वही

निन्दनीय है और जो प्रशंसा करता है वही प्रशंसनीय है।’’ परन्तु शास्त्रों ने, ऋषियों ने उसी गृहस्थाश्रमी की

प्रशंसा की है, जो नियमित ब्रहमचर्य के पालनपूर्वक विद्याध्ययन के उपरान्त गुण, कर्म, स्वभाव मिलाकर

विवाह करके किया जाता है पर आज गुण कर्म स्वभाव तो नही मिलाते बल्कि तो बाल, माल, खाल मिलाते हैं। इसलिए स्वर्गाश्रम गृहस्थाश्रम दुःखों का आश्रम बनता चला जा रहा है। सन्तान उत्पत्ति करना विद्यादि

सद्व्यवहारों को सिद्ध करना धन का संचय करना गृहस्थ के करणीय कर्म हैं।

. वानप्रस्थ- वानप्रस्थ उसे कहते हैं-

गृहस्थस्तु यदापश्येद् वलिपलितमात्मनः।

अपत्यस्यैव चापत्यं तदारण्यं समाश्रयेत्।।

(मनु. ६.२)

अर्थात् गृहस्थ जब देखे कि शिर के बाल श्वेत हो गये हैं तथा मुख पर झुर्रियां आ गई एवं पुत्र का भी पुत्र हो गया तब गृहस्थ के कार्यों से उपरत होकर आत्मोन्नति के लिए घर छोड़कर वन को प्रस्थान करे। सामान्यतया मानव जीवन सौ वर्ष का माना गया है आश्रम क्रम से उसके चार विभाग किये गये जो २५-२५ वर्ष के होते हैं।

इस क्रम से वानप्रस्थं ५० वर्ष की अवस्था के उपरान्त ही है। ऋषि दयानन्द लिखते हैं- विचार, ध्यान, विज्ञान, तपश्चर्या करने के लिए वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहिए। वानप्रस्थ के लिए गिरिशयाय’’ शब्द का प्रयोग किया जाता हैं इसकी व्याख्या करते हुए, ऋषि दयानन्द कहते हैं- यो गिरिषु पर्वतेषु श्रितः सन् शते तस्मै

वानप्रस्थाय अर्थात् जो वन के समीप वास वाला।

आज समाज में वानप्रस्थ की परम्परा समाप्त

होने के कारण वृद्धत्व की समस्या बनी हुई है क्योंकि एक छत के नीचे दो बाप नहीं रह सकते। इस समस्या

का एक मात्र समाधान वानप्रस्थ ही है इसीलिए पहले नियम था आठ वर्ष वाले घर में नही रहें। आठ वर्ष वाले

गुरुकुल पढ़ने जाये और साठ वर्ष पढ़ाने लगें क्योंकि इनका ज्ञान अनुभवात्मक हो चुका होता है। इस वानप्रस्थाश्रम को समाज में स्थान देने का हमें प्रयत्न करना चाहिए।

  1. संन्यास-

सन्यास शब्द सम्+न्यास से बना है यहां सम् का अर्थ सम्यक्तया और न्यास का अर्थ त्याग अथवा स्थिर

होना। ऋषि दयानन्द कहते हैं- सम्यत्र्नित्यमास्ते यस्मिन् यद्वा सम्यत्र्न्यस्यन्ति दुखानि कर्माणि येन स

सन्यासः। सम्यत्र्न्यस्यन्ति अधर्माचरणानि येन वा सम्यत्र् नित्यं सत्कर्मस्वास्त उपविशति स्थिरीभवति येन स सन्यासः अर्थात् अधर्माचरण, दुष्टकर्मो का त्याग तथा ब्रहम एवं सत्कर्मों में स्थिर होने का नाम सन्यास है। प्राणी मात्र के उपकार के लिए वेदादि सत्यशास्त्रों का प्रचार करना, धर्म व्यवहार का ग्रहण करना, दुष्ट व्यवहार का त्याग और सबके संदेह का निवारण करना ही सन्यास के मुख्य कर्त्तव्य हैं। मैत्रेम्युपनिषद में कहा है कि आत्मा, परमात्मा के मिलन का नाम सन्यास है। संस्कारविधि में ऋषि दयानन्द कहते हैं- सन्यास संस्कार उसको कहते हैं कि जो मोहादि आवरण पक्षपात छोड के विरक्त होकर सब पृथिवी में परोपकारर्थ विचरे ज्ञान और वैराग्य के बिना लिया गया सन्यास दुख का कारण बनता है। सत्यार्थ प्रकाश में दयानन्द जी कहते है-जैसे शरीर में शिर की आवश्यकता है वैसे ही आश्रमों मे सन्यास आश्रम की आवश्यकता है क्योंकि इसके बिना विद्या, धर्म कभी नहीं बढ़ सकता और दूसरे आश्रमों को विद्या ग्रहण, गृहकृत्य और तपश्चर्यादि का सम्बन्ध होने से अवकाश बहुत कम मिलता है पक्षपात छोड़कर वर्तना दूसरे आश्रमों को दुस्कर है। सन्यास आश्रम में व्यक्ति लोकैषणा, पुत्रैषणा, वित्तैषणा का त्यागकरके निःस्वार्थ भाव से समाज के उपकार का कार्य करता है। इस प्रकार चारों आश्रमों का पालन करके जीवन को मंगलमय बनायें और मोक्ष की प्राप्ति करें।

– आर्ष गुरुकुल महाविद्यालय,

नर्मदापुरम्, होशंगाबाद (म.प्र.)