धर्म की आवश्यकता क्यों? – शिवदेव आर्य

धर्म की आवश्यकता क्यों?
– शिवदेव आर्य
गुरुकुल पौन्धा, देहरादून
मो.-8810005096

जीवन की सफलता सत्यता में है। सत्यता का नाम धर्म है। जीवन की सफलता के लिए अत्यन्त सावधान होकर प्रत्येक कर्म करना पड़ता है, यथा – मैं क्या देखूॅं, क्या न देखूॅं, क्या सुनॅूं, क्या न सुनूॅं, क्या जानॅंू, क्या न जानूॅं, क्या करुॅं अथवा क्या न करूॅं। क्योंकि मनुष्य एक चिन्तनशील प्राणी है, जब मनुष्य किसी भी पदार्थ को देखता है तब उसके मन में उस पदार्थ के प्रति भाव ;विचारद्ध उत्पन्न होते हें। क्योंकि यही मनुष्य होने का लक्षण है, इसीलिए निरुक्तकार यास्क ने मनुष्य का निर्वचन करते हुए लिखा है कि ‘मनुष्यः कस्मात् मत्वा कर्माणि सीव्यति’ (३/८/२) अर्थात् मनुष्य तभी मनुष्य है जब वह किसी भी कर्म को चिन्तन तथा मनन पूर्वक करता है। यही मनन की प्रवृत्ति मनुष्यता की परिचायक है अन्यथा मनुष्य भी उस पशु के समान ही है जो केवल देखता है और बिना चिन्तन मनन के विषय में प्रवृत्त हो जाता है।
मनुष्य जब किसी पदार्थ को देखकर कार्य की ओर अग्रसर होता है तब चिन्तन उसको घेर लेता है, ऐसे समय में धर्म बताता है कि आपको किस दिशा में कार्य करना है, यही धर्म की आवश्यकता है। यदि धर्म जीवन में होगा तब जाकर श्रेष्ठ कर्म को कर सकेंगे अथवा पदार्थ का यथायोग्य व्यवहार (कर्म) कर सकेंगे।
काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, मद और मोह ये मानव जीवन में मनःस्थिति को दूषित करने वाले हैं। ये षड्रिपु मनुष्य की उन्नति के सर्वाधिक बाधक होते हैं इनका नाश मनुष्य धर्मरूपी अस्त्र से कर सकता है। इन विध्वंसमूलक प्रवृत्तियों को जीतना ही जितेन्द्रियता तथा शूरवीरता कहलाता है। यदि व्यक्ति के अन्दर धर्म नहीं है तो वह इनके वशीभूत होकर स्वयं तथा सामाजिक पतन का कारण बन जाता है।
इन पतनोन्मुखी प्रवृत्तियों को रोकने के लिए परमावश्यक होता है कि व्यक्ति विवेकशील हो और विवेकशील होने के लिए आवश्यक है अच्छे सद् चरित्रवान् मित्रों का संग करें तथा अच्छे ग्रन्थों का स्वाध्याय करें।
आज हमारी युवा पीढ़ी धर्म के अभाव में पतन की ओर अग्रसरित होती चली जा रही है, ऐसे में लोगों की चिन्तन क्षमता समाप्त हो गयी है। नित्य नये-नये मानवीय ह्रासता के कृत्य दिखायी देते हैं, ऐसा क्यों है? क्या हमने कभी विचार व चिन्तन किया है? आज हमारी सोचने की क्षमता इतनी कम क्यों हो गयी है, क्योंकि हम धर्म को समझ ही नहीं पा रहे हैं। हम धर्म को एकमात्र कर्मकाण्ड का रूप स्वीकार करते हैं। आज हमें धर्म को स्वयं के अन्दर धारण करना होगा। धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध इन दश प्रमुख कर्तव्यों को स्वयं के लिए धारण करने का नाम धर्म बताया है।
धर्म की परिभाषा करने वाले विभिन्न आचार्यों के अपने-अपने मत हैं। संसार में मतवालों ने अपने-अपने धर्म के नाम पर विभिन्न चिह्न बना लिए हैं, जैसे- कोई केश बढ़ा रहा है, कोई लम्बी दाढ़ी बढ़ाये हुए है, कोई केश व दाढ़ी दोनों ही बढ़ाये हुए है, कोई पॉंच शिखाएं रखे हुए है, कोई मूछ कटाकर दाढ़ी बढ़ा रहा है, कोई चन्दन का तिलक लगाए हुए है, कोई माथे पर अनेक रेखाओं को अंकित किये हुए है और न जाने धर्म के नाम पर क्या-क्या करते हैं। किन्तु ये सभी धर्म से सम्बन्ध नहीं रखते हैं क्योंकि कहा भी है – ‘न लिंग धर्मकारणम्’ अर्थात् धर्म का कारण कोई चिह्न विशेष नहीं होता है।
यदि हम धर्म को जानना चाहते हैं तो हमें धर्मशास्त्र की इस पंक्ति को समझना होगा-
‘धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः’
जो व्यक्ति धर्म को जानना चाहता है, उसे वेद को प्रमुखता के साथ जानना होगा। धर्म धारण करने का नाम है इसी लिए कहते हैं ‘धारणाद् धर्म इत्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः’। जो किसी भी कार्य को करने में सत्य-असत्य का निर्णय कराये, चिन्तन व मनन कराये उसे धर्म कहते हैं। हम धर्म को धारण करते हैं तथा उसको व्यवहार रूप में प्रस्तुत करते हैं।
धर्म ज्ञान के लिए वेद ज्ञान की अत्यन्त आवश्यकता है, क्योंकि वेद ज्ञान ईश्वरीय ज्ञान है और ईश्वर सर्वज्ञ होने से उसके ज्ञान में भ्रान्ति अथवा अधूरापन का लेशमात्र भी निशान नहीं है। वेदज्ञान सृष्टि के आदि का है तथा सभी का मूल है, अतः हम मूल को छोड़ पत्तों अथवा टहनियों को समझने में अपना समय व्यर्थ न करें।
इसीलिए धर्म का ज्ञान और उस पर आचरण मनुष्य के लिए परमावश्यक है, यह हमारी उन्नति व सुख का आधार है। मनुष्य के परम लक्ष्य पुरुषार्थ चतुष्ट्य की सिद्धि में परमसहायक है।
वेद मनुष्य को आदेश देता है ‘मा मृत्योरुदगा वशम्’। मनुष्य को प्रतिक्षण सर्तक रहकर अपने चारों ओर फैले मृत्यु के भयंकर पाशों से बचने का प्रयास करना चाहिए।
उपनिषद् का ऋषि प्रार्थना करता है-‘मृत्योर्माऽमृतं गमय’ हे प्रभो ! मुझे इन मृत्युपाशों से बचाकर अमरता का पथिक बनाइए। इसी रहस्य को स्पष्ट करने के लिए ही धर्मशास्त्रकार घोषणा करता है-धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः। अर्थात् जो व्यक्ति धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है और जो धर्म को नष्ट करता है, धर्म उसको नष्ट कर देता है। जीवन में हताशा और किंकर्त्तव्यमूढ़ता धार्मिक पक्ष के निर्बल होने पर ही आती है। जीवन में अधर्म की वृद्धि ही व्यक्ति को निराश तथा दुर्बल बना देती है अतः धर्म की वृद्धि करके व्यक्ति को सबल व सशक्त रहना चाहिये जिससे अधर्म के कारण क्षीणता न आ सके। धर्म से परस्पर प्रीति व सहानुभूति के भावों की वृद्धि होती है।
आचार्य चाणक्य ने लिखा है-‘‘सुखस्य मूलं धर्मः धर्मस्य मूलमिन्द्रियजयः।’’ अर्थात् सुख का मूल धर्म है और धर्म का मूल -इन्द्रियों को संयम में रखना है। संसार में प्रत्येक मनुष्य की इच्छा होती है कि मैं सुखी रहूँ और सुख की प्राप्ति धर्म के बिना नहीं हो सकती। अतः धर्म का आचरण अवश्य ही करना चाहिये। बिना धर्म को अपनाये कोई भी मनुष्य सुखी नहीं हो सकता।
संसार की कोई भी वस्तु सुख का हेतु हो सकती है परन्तु मरणोत्तर किसी के साथ नहीं जा सकती। शास्त्रकार कहते हैं-‘धर्म एकोऽनुगच्छति’ आर्थात् एक धर्म ही मरणोत्तर मनुष्य के साथ जाता है। संस्कृत के नीतिकार कहते है-
धनानि भूमौ, पशवश्च गोष्ठे, नारी गृहे बान्धवाः श्मशाने।
देहश्चितायां परलोकमार्गे, धर्मानुगो गच्छति जीव एक: ।।
अर्थात् समस्त भौतिक धन भूमि में ही गड़ा रह जाता है अथवा आजकल बैंकों में या तिजोरियों में ही धरा रह जाता है और गाय आदि पशु गोशाला में ही बंधे रह जाते हैं । पत्नी घर के द्वार तक ही साथ जाती है और परिवार के भाई-बन्धु व मित्रजन श्मशान तक ही साथ देते हैं एक मनुष्य का शुभाशुभ कर्म ;धर्मद्ध ही परलोक में मनुष्य का साथ देता है अर्थात् धर्म के अनुसार ही मनुष्य को परलोक में अच्छी-बुरी योनियों में जाना पड़ता है।
हमे धर्म को यथार्थ में जानकर व्यवहार रूप में स्वयं के लिए धारण करने की आवश्यकता है। धर्म ही एकमात्र हमारा अस्त्र तथा शस्त्र है, जिसका प्रयोग कर हम इह लोक से पारलौकिक यात्रा को पूर्ण करें। आओं! हम सब मिलकर धर्म को धारण करें।

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