मनुप्रतिपादित वर्णाश्रम व्यवस्था

मनुप्रतिपादित वर्णाश्रम व्यवस्था

कु. प्रीति….

प्रत्येक समाज को सुचारू एवं सुव्यवस्थित रूप से चलाने के लिए आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, चारित्रिक एवं नैतिक व्यवस्था की आवश्यकता होती है। उपुर्यक्त व्यस्थाएँ एक स्वस्थ समाज की आधारशिला हैं ‘यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्का उद्घोष करने वाला यह आर्यावर्त्त सम्पूर्ण विश्व का आद्यगुरु रहा है।

भारतीय समाज में सामाजिक व्यवस्था का प्रथम प्रतिपादन वैदिककाल से ही दृष्टिगोचर होता है। वैदिककाल में ही षोडशसंस्कार, पुरुषार्थ, चतुष्टय, वर्णाश्रम व्यवस्था, मोक्ष अथवा निःश्रेयस् की अद्वितीय अवधारणा का निदर्शन होता है।

वैदिककाल में वर्णाश्रम व्यवस्था का जो रूप हमारे समक्ष उपस्थित होता है, वह आधुनिक समाज में अपने मूल रूप से पूर्णतः च्युत हो चुका है। वर्णाश्रम व्यवस्था से अभिप्राय चार वर्ण तथा चार आश्रमों से था। समाज की यह व्यवस्था किसी जाति, वर्ण या लिन्ग पर आधरित न होकर कर्म पर आधारित थी।

मनुस्मृति में अनेक स्थलों पर स्पष्ट संकेत प्राप्त होते हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि मनु वर्णव्यवस्था का निर्धारण मूलतः कर्म से मानते हैं, जन्मना नहीं। यदि जन्म से ही श्रेष्ठत्व स्वीकार कर लिया जाए तो

मनुस्मृति की सम्पूर्ण कर्मव्यवस्था ही व्यर्थ हो जाएगी क्योंकि श्रेष्ठत्व-अश्रेष्ठत्व तो जन्म से ही निर्धरित हो चुका होगा फिर कर्मव्यवस्था का क्या महत्व? अतः मनु ने कर्म के आधार पर वर्णव्यवस्था मानी है। वे स्पष्ट घोषणा करते हैं कि श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ कर्मों के आधर पर शूद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण शूद्र हो जाता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य का भी वर्ण परिवर्तन समझना चाहिए।

प्राचीनकाल में कर्मानुसार वर्णव्यवस्था प्रचलित थी इसमें अन्य प्रमाण भी मिलते हैं। आपस्तम्ब धर्मसूत्र में इसी मान्यता को स्पष्ट किया गया है-

र्ध्मचर्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ।। अर्ध्मचर्यया पूर्वो वर्णो जघन्यं

जघन्यं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ।।

धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जावे कि जिस-जिसके योग्य होवे। वैसे अधर्माचरण से पूर्व अर्थात् उत्तम वर्णवाला मनुष्य अपने से नीचे-नीचे वाले वर्ण को प्राप्त होता है और उसी वर्ण में गिना जावे।ऐतरेयब्राह्मण में कवष ऐलूष नामक व्यक्ति की घटना वर्णपरिवर्तन का ज्वलन्त प्रमाण है। जन्मना निम्नजाति का व्यक्ति ऋषित्व के कारण ऋषियों में परिगणित होकर उच्च वर्णस्थ कहलाया।

छान्दोग्योपनिषद् में सत्यकाम जाबाल का वर्णन है जो अज्ञात कुल के हेाते हुए भी गुण कर्म से ब्राह्मण बन गए। चाण्डाल कुल में मातन्ग ऋषि, क्षत्रियराजा विश्वामित्रा, दस्यु वाल्मीकि आदि के उदाहरण भी गुण कर्म से वर्ण परिवर्तन को सिद्ध करते हैं।

वर्ण शब्द का अर्थ और व्युत्पत्ति भी यह सिद्ध करते हैं कि मनु की व्यवस्था जन्मना न होकर कर्मणा है।

निरुक्त में वर्ण शब्द की व्युत्पत्ति दी है- वर्णो वृणोतेः।अर्थात् कर्मानुसार जिसका वरण किया जाए वह वर्ण है। इस विषय पर प्रकाश डालते हुए महर्षि दयानन्द ने भी स्पष्ट किया है-

वर्णो वृणोतेरिति निरूक्तप्रामाण्याद्वरणीया वरीतुमर्हाः। गुणकर्माणि च दृष्ट्वा यथा योग्यं व्रियन्ते ये ते वर्णाः।।

वर्णों के नामों की व्याकरणानुसारी व्याख्या भी कर्मानुसार वर्णव्यवस्था को ही सिद्ध करती है। ब्रह्मणा वेदेन परमेश्वरस्य उपासनेन च सह वर्तमानो विद्यादि उत्तमगुणयुक्तः पुरुषः अर्थात् वेदाध्ययन और ईशोपासना में तल्लीन रहते हुए विद्यादि उत्तम गुणों को धारण करनेवाला व्यक्ति ब्राह्मण कहलाता है।मनु ने भी इन्ही कर्मों को ब्राह्मण के प्रमुख कर्मों के रूप में वर्णित किया है।

क्षदति रक्षति जनान् क्षत्राः अथवा क्षण्यते हिंस्यते नश्यते पदार्थो येन स क्षतस्ततः त्रायते रक्षतीति क्षत्राः अर्थात्

जनता की आक्रमण, चोट, हानि आदि से रक्षा करने वाला क्षत्रिय कहलाता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में भी कहा गया है कि क्षत्रिय क्षत्र का ही रूप है, जो प्रजा का रक्षक होता है। मनु ने भी क्षत्रिय का मुख्य कर्म प्रजा की रक्षा करना बताया है।

यो यत्रा-तत्र, व्यहारिविद्यासु प्रविशति सः वैश्यः, व्यवहारविद्याकुशलः जनो वा अर्थात् जो विविध् व्यावहारिक व्यापारों में प्रविष्ट रहता है अथवा विविध् विद्याओं में कुशल होता है वह वैश्य होता है। मनु ने भी वैश्यों के कर्म का निर्धरण इसी प्रकार किया है।

शूद्रः शोचनीयः, शोच्यां दशामापन्नो वा, सेवायां साधुरविद्यादिगुणसहितो मनुष्यो वा अर्थात् अज्ञान और अविद्या से जिसकी निम्न जीवन स्थिति रह जाती है, जो केवल सेवाआदि कार्य ही कर सकता है, ऐसा

मनुष्य शूद्र होता है। मनु को भी यही अभिमत है और ये भी स्पष्ट ही है कि वे शूद्र को जन्मना नहीं मानते

तथा न ही घृणास्पद मानते हैं।

महर्षि मनु ने वर्णों के धर्मो व कर्त्तव्यों के साथ-साथ आश्रमों के धर्मों व कर्त्तव्यों का भी विस्तृत वर्णन किया है। क्योंकि भारतीय दार्शनिक चिन्तन परम्परा चाहें वह किसी भी सम्प्रदाय से जुड़ी हो प्रायः सबका अन्तिम लक्ष्य मानव के कल्याण व मोक्ष प्राप्ति से ही था। अतएव समाज चार आश्रमों में विभक्त था।

ब्रह्मचर्य आश्रम में व्यक्ति गुरु का अन्तेवासी बनकर गुरु की सेवाशुश्रूषा करते हुए वेद-वेदान्गो का सम्यग् अध्ययन करता था। प्रायः वर्ष पर्यन्त गुरु के अन्तेवासित्व में रहकर गुरुकी आज्ञा लेकर अग्रिम आश्रम में प्रवेश करता था। ब्रह्मचर्य के काल के विषय में महर्षि मनु का मत है कि प्रत्येक वेद के सान्गोपान्ग पढ़ने में १२ – १२ तक अथवा जब तक विद्या पूर्ण न हो तब तक ब्रह्मचारी रहें।

ब्रह्मचर्य आश्रम में दीक्षित होकर व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था। गृहस्थ आश्रम को महर्षि

मनु ने समुद्रवत् बताया है। क्योंकि उत्पत्ति और जीवनयापन की दृष्टि से ये तीनों आश्रम गृहस्थाश्रम पर ही

आश्रित हैं।

गृहस्थाश्रम में सभी सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए जितेन्द्रिय जितात्मा होकर व्यक्ति वानप्रस्थ में प्रवेश करता था। महर्षि मनु का भी कथन है-

एवं गृहाश्रमे स्थित्वा विध्वित्स्नातको द्विजः।

वने वसेन्तु नियतो यथावद्विजितेन्द्रियः।।{

इस आश्रम में व्यक्ति समाज, परिवार आदि के बन्धन से मुक्त होकर अरण्य में जाकर एकाकी जीवन व्यतीत करता था तथा भोजन में कन्दमूल का ही आहार ग्रहण करता था।जैसा कि नाम से ही विदित होता है कि इस आश्रम में व्यक्ति वन में ही निवास करता था और तप के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होता था।

वानप्रस्थ के पश्चात् सन्यासाश्रम का विधान महर्षि मनु ने किया है। संन्यासियों का मुख्य कर्म है कि अपनी आत्मिक उन्नति के साथ-साथ गृहस्थादि आश्रमों को सब प्रकार के व्यवहारो का यथार्थ ज्ञान कराके, अधर्मव्यवहारों से पृथक् करके सत्य धर्मयुक्त व्यवहारों में प्रवृत्त कराए तथा मोक्ष को प्राप्त करें।

इस प्रकार हम देखते हैं कि महर्षि मनु ने वर्णाश्रम व्यवस्था का एक उच्च आदर्श हमारे समक्ष उपस्थापित किया है जो कि कालक्रम से परिवर्तित होता हुआ अपने मूलस्वरूप को छोड़कर विकृत हो गया है। आज समाज में वर्णव्यवस्था का जो रूप हमें दिखाई देता है वह कर्माश्रित न होकर जन्म मात्रा से निर्धरित किया जाता है। आश्रम व्यवस्था तो प्रायः हमारे लिए इतिहास का विषय बन गई है। भौतिक समाज में आश्रम

व्यवस्था की कल्पना भी दुरूह हो गई है। यदि हमें आधुनीक समाज को सुव्यवस्थित एवं सुचारू रूप से चलाना है तो हम अपनी पुरातन संस्कृति से अधिक दिनों तक पृथक् नहीं रह सकते। वैश्वीकरण भले ही अन्य

देशों के लिए एक नूतन विषय हो परन्तु ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ को प्राण माननेवाले इस देश के लिए वह नवीन नहीं है। अतः हमें आधुनिक समय में भी अपने ऋषि-मुनियों द्वारा प्रदत्त वर्णाश्रमधर्म आदि चिन्तन सरणियों का अनुवर्तन निश्चयेन करना होगा अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब यह विषय केवल लेखमात्रा तक ही सीमित रहकर भविष्य में ऐतिहासिक विषय बन जाएगा।

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