उपनिषदों में संन्यासयोग

उपनिषदों में संन्यासयोग

डॉ. सुमनशर्मा…..

उपनिषद् ऋषियों की महामेधा से प्रसूत ज्ञान की वह दिव्यराशि है, जो काल से अनवच्छिन्न है। उपनिषद् शब्द ‘उप’ व ‘नि’ उपसर्ग पूर्वक ‘सद्’ धातु में ‘क्विप्’ प्रत्यय लगाकर निष्पन्न हुआ है। ‘सद्’ धातु विशरण, गति व अवसादन तीनों अर्थों में प्रयुक्त होती है। कठोपनिषद् भाष्यानुसार विशरण अर्थात् विनाश करना। ये अविद्यादि संसार बीज का विनाश करती है, इसलिए उपनिषदें कही जाती हैं। उपनिषदों की विषय-वस्तु मुख्य रूप से तो आध्यात्मिक एवं दार्शनिक है, किन्तु इसमें नीति, व्यवहार और सांसारिक कर्त्तव्यों की उपेक्षा नहीं की गई है। उपनिषदों में प्राप्त समस्त योग ज्ञान पर विचार करने का उपक्रम किया जाए तो अत्यन्त विस्तृत होने के कारण अपने लक्ष्य से भटकने का भय है। अतः हंस की रीति से संक्षिप्तीकरण के द्वारा संन्यासयोग

विषय का प्रस्तुतीकरण ही समीचीन है।

संन्यास शब्द की व्युत्पत्ति एवं स्वरूप

संन्यास शब्द का मुख्यार्थ त्याग करना है। आयु के अन्तिम चरण में गृह, पुत्रादि का परित्याग करके सीमित परिवेश से निकलकर असीमित व्यकितत्व को स्वीकार करने वाला पुरुष लोक में संन्यासी कहलाता है। काषायवस्त्र, दण्ड, कमण्डलुआदि का धारण तथा जटी तथा मुण्डी हो जाना तो केवल संन्यास के सूचक चिन्ह मात्र है। यह संन्यास और संन्यासी न रूढ़िलभ्यार्थ है, किन्तु मोक्ष शास्त्रों में परिनिर्दष्ट और परिकल्पित जिस संन्यास को मोक्ष द्वार के रूप में स्वीकृत किया गया है, उस संन्यास के अर्थ को समझने के लिए उसमें व्युत्पत्ति लभ्यार्थ का ज्ञान होना आवश्यक है।

‘संन्यास’ शब्द के साथ जब ‘योग’ शब्द का संयोग हो जाता है तो ‘संन्यासयोग’ का अर्थ और जटिल एवं व्यापक हो जाता है। संन्यास दो प्रकार का होता है- आश्रम संन्यास और भावना संन्यास। संन्यासयोग का सम्बन्ध् दूसरे अर्थ से है। सर्वकर्म परित्याग, सर्भ, वैभव, परावैराग्य और पूर्ण गुण वैतृष्ण्य इसके अनिवार्य तत्त्व है। यही मोक्ष का द्वार है। यही अर्थ उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय है।

असु क्षेपणे

‘सम्’ और ‘नि’ उपसर्गपूर्वक ‘असु क्षेपणे’ धातु से निर्मित ‘आस्’ में जोड़कर संन्यास शब्द बनता है जिसका अर्थ है सम्यग्रूपेण, निश्शेषरूपेण च सर्वकर्मणां क्षेपणं परित्यागः अर्थात् अच्छी प्रकार निरशेष रूप से समस्त कर्मों का क्षेपण अर्थात् परित्याग करना संन्यास है। लोक में प्रायः यही अर्थ गृहीत किया गया है। यह अर्थ निःसन्देह रमणीय है किन्तु संन्यास योग से जो व्यापक अर्थ ध्वनित हो रहा है उसका प्रकाशन केवल एक धातु से सम्भव नहीं है। इसके लिए ‘अस् भूवि’ तथा ‘आस् उपवेशने’ का अर्थ ही ग्रहण करना होगा।

अस् भूवि

‘अस्’ धातु ‘होना’ अर्थ में प्रयुक्त होती है। ‘सम्’ और ‘नि’ उपसर्गपूर्वक ‘अस् भूवि’ धातु से भी संन्यास शब्द की व्युत्पत्ति होती है, जिसका अर्थ है सम्यक रूप से निश्शेष अर्थात् सर्व हो जाना, सबकुछ हो जाना। सबकुछ

तो परमेश्वर ही हो सकता है। परमेश्वर की प्राप्ति अथवा परमेश्वर हो जाना ही संन्यास का लक्ष्य है। ‘सर्व’ और ‘शर्व’ परमेश्वर के वाचक है। जीव भाव का परित्याग करके ब्रह्मभाव अथवा सर्वभाव को प्राप्त करना ही जीव लक्ष्य है। यह लक्ष्य संन्यास से ही प्राप्त होता है। यह अर्थ ‘अस् भूवि’ धातु से ही ध्वनित हो सकता है। इस अर्थ को छोड़कर संन्यास शब्द का अर्थपूर्ण नहीं हो सकता।

आस् उपवेशने

उपर्युक्त दो धातुओं के अतिरिक्त ‘आस् उपवेशने’ धातु से भी संन्यास शब्द की निष्पत्ति होती है। उपवेशन का अर्थ है निकट बैठना। संन्यास का अर्थ हुआ सम्यक रूप से और सम्पूर्ण रूप से परमेश्वर के निकट बैठना, उसकी शरण में जाना, सर्वतोभाव से निज को परमेश्वर के चरणों में समर्पित कर देना।यही अर्थ ‘आस् उपवेशने’ धातु से अभिव्यक्त होता है। इस धातुलभ्य अर्थ के बिना भी संन्यास का अर्थपूर्ण नहीं होता।

स्वामी दयानन्द के अनुसार ब्रह्म और उसकी आज्ञा में उपविष्ट अर्थात् स्थित और जिससे दुष्ट

कर्मों का त्याग किया जाए वह संन्यास कहा गया है।

उपर्युक्त अर्थों का परिशीलन करके यह ध्यातव्य है कि संन्यासाश्रम और संन्यासयोग में पर्याप्त अन्तर है। संन्यासाश्रम उक्त संन्यासयोग का साधन या पूर्वभूमि तो हो सकता है, स्वरूप नहीं हो सकता। संन्यासयोग एक भावना है जो निरन्तर कर्मलिप्त रहकर भी कर्मों से विरक्त होने की एक आध्यात्मिक प्रक्रीया है। यह निज सदन में बैठकर भी सम्पन्न हो सकती है और निर्जन अरण्य में भी। यदि भावना का सम्बन्ध न हो तो निजसदन और निर्जन अरण्य तुल्यरूप से व्यर्थ है। लक्ष्य तो मोक्ष प्राप्त है। चाहे वह सदन से प्राप्त हो या अरण्य में। कहा गया है कि जो पुरुष मैं और मेरा और ममत्वाभिमान से शून्य होकर विषय भोगों से लिप्त हो चुका है, वह अपने घर में रहता हुआ भी कर्मों से बद्ध नहीं होता-

ममताभिमान शून्यो विषयेषु पराघ्मुख पुरुषः।

तिष्ठन्नपि निज सदने न बध्यते कर्मभिः क्वापि।।

संन्यास और त्रिविध् एषणाएँ

संन्यासमार्ग पर आरूढ़ होने के अभिलाषी पुरुष को बाल्य और पाण्डित्य दोनों का सम्यक रूप से सम्पादन करके त्रिविधि एषणाओं से नितान्त मुक्ति प्राप्त करना अनिवार्य होता है। बाल्य एवं पाण्डित्य दोनों ही एषणामुक्ति के प्रधान साधन हैं। बाल्य का अर्थ है बलबत्ता और पाण्डित्यार्थ है नित्यानित्य वस्तु विवेक। संन्यास के लिए शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक बल की आवश्यकता पग-पग पर होती है। संन्यासमार्ग पर आरूढ़ होनेवाले संन्यासी के हृदय में पृथ्वी की सहिष्णुता, हिमालय की उन्नतता तथा समुद्र की गम्भीरता होनी चाहिए। ऐसा होना ही पुत्रौषणा, वित्तैषणा तथा लोकैषणा रूप महान् सत्रुओं का घर्षण कर सकता है। अन्यथा ये तीनों बीच में ही रोक कर संन्यास के पथिक को मार्गभ्रष्ट कर सकती है। बृहदारण्यकोपनिषद् में ‘बाल्य’ शब्द से अभिहित किया गया है। इन त्रिविधि एषणाओं में मानसिक दुर्बलता सदा ही काम करती है। एषणा तो एक ही है। जो पुत्रौषणा है वही वित्तैषणा है और वित्तैषणा ही लोकैषणा है। पुत्राप्राप्ति हेतु ही मनुष्य अनेक विवाह करता है। फिर भी उसे पुत्राप्राप्त नहीं होता तो स्वयं को हृतभाग्य समझता है।

कर्म के साधनभूत गौ, गृह, रत्नादि को प्राप्त करने की इच्छा वित्तैषणा कहलाती है।पुरुष सोचता है कि चित्त का संग्रह करके विवाह करूंगा उससे पुत्र होगा, पुत्र से पितृलोभ की प्राप्ति होगी अथवा वित्त के द्वारा यज्ञादि का सम्पादन करके देवलोक को प्राप्त करूंगा। इस प्रकार लौकिकवित्त और दैववित्त से पितृलोक और देवलोक को जीतने की इच्छा वित्तैषणा कहलाती है। धैर्यवान् और विद्यावान् पुरुष ही बड़े प्रयत्न से इससे बच पाते है। तृतीय एषणा लोकैषणा है। यश की लिप्सा लोकैषणा कहलाती है।वस्तुतः यह पुत्रौषणा एवं वित्तैषणा से भिन्न

नहीं हैं। पुरुष का स्वभाव है कि वह सदैव यही चाहता है कि उसका कोई अपमान न करे, बुराई न करे, उसके

पुत्र-वित्त आदि का नाश न करे। इसी की प्राप्ति हेतु वह पुत्र एवं वित्त का संग्रह करता है। त्रिविध् एषणाओं

से मुक्त होकर ही सर्वसमर्थ संन्यासीयोगी कहलाता है। याज्ञवल्क्योपनिषद्द्भमें कहा गया है कि संन्यासी को वित्तैषणा से इतना दूर रहना चाहिए कि अपने वस्त्रों से भी मोह न हो,यदि वस्त्राछिन्न हो जाएं तो दिशाओं को ही वस्त्र समझे। लोकैषणाओं से इस प्रकार दूर भागे कि किसी से नमस्कार की इच्छा भी न करे। ऐसे संन्यासी को ही लोग प्रणाम करते है वही प्रणाम के योग्य भी होता है।

निष्कर्षतः संन्यासयोग सभी प्रकार के योगों से भिन्न है। अन्य योग जहाँ किसी-न-किसी क्रीया में प्रवृत्त करते है, वहाँ संन्यासयोग निवृत्ति को ही प्रमुखता देता है।सभी प्रकार की अनियमितताओं से निकलकर संन्यासयोग के साधक को स्वातंत्रय की अनुभूति होती है। यहाँ तक कि संध्यावदन, अग्निहोत्रादि नित्यकर्मों की अनिवार्यता भी इससे समाप्त हो जाती है। यद्यपि संन्यासयोग में भावनाओं का बन्धन रहता है, किन्तु वह बन्धन मुख्य बन्धनो को काटने वाला है। भौतिक नियमों के बन्धन को श्लथ करके संन्यासीयोगी निज-निर्मित मानसिक भावनाओं से ही स्वयं को बांधता है- नमे, नायम्, त्वमेव सर्वम्, सर्व नश्वरम् आदि की भावना इसमें प्रधान होती है।

संस्कृत-विभाग,

दिल्ली विश्वविद्यालय,

दिल्ली-०७

 

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