वैदिक आश्रम एवं वर्ण व्यवस्था

वैदिक आश्रम एवं वर्ण व्यवस्था

आचार्य योगेन्द्र याज्ञिक….

आश्रम शब्द आड़  उपसर्ग पूर्वक श्रमु तपसि- खोदे च धातु से घज प्रत्यय होकर निष्पन्न होता है मानव का वह जीवन क्रम जिसमें ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, धर्म तथा मुक्ति आदि के लिए मर्यादा पूर्वक निरन्तर श्रम किया जाए वह आश्रम कहलाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो ‘‘आश्राम्यन्ति अस्मिन् इति आश्रमः’’ ऐसा जीवन जिसमें व्यक्ति खूब श्रम करता है। आश्रम को आश्रम इसलिए कहते हैं कि आश्रम्यन्त्येषु श्रेयोर्थिनः पुरुषा इत्याश्रमाः अर्थात् इनमें श्रेयस् के इच्छुक पुरुष खूब श्रम करते हैं। महर्षि दयानन्द आश्रम के विषय में आर्योद्देश्य रत्नमाला में कहते हैं- जिसमें अत्यन्त परिश्रम करके उत्तम गुणों का ग्रहण और श्रेष्ठ काम किये उनको आश्रम कहते हैं।

आश्रमों की संख्या१. महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में लिखा- आश्रमा अपि चत्वारः सन्ति,

ब्रहमचर्य-गृहस्थ-वानप्रस्थ-सन्यासभेदात् आश्रम चार हैं ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास। मनु ने भी मनुस्मृति में कहा चत्वारश्चाश्रमाःपृथक् लोक में चार पृथक-पृथक आश्रम हैं। जाबोलोपनिषद् में भी कहा है ब्रहमचर्य समाप्य गृही भवेत्  गृही भूत्वा वनी भवेत् बनी भूत्वा प्रव्रजेत् अर्थात् ब्रह्मचर्य को पूर्ण करके गृहस्थी बने फिर वनी होवे उसके पश्चात् परिव्रजाक बने। अन्य आपस्तम्ब, गौतमधर्मसूत्र वशिष्ठधर्मसूत्रादि में भी आश्रमों की संख्या चार ही मानी गई हैं।

आश्रमों का उद्देश्यमहर्षि दयानन्द जी ऋगवेदादि-भाष्यभूमिका में कहते हैं- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन

चारों पदार्थों की प्राप्ति के लिए इन चार आश्रमों का सेवन करना सब मनुष्यों को उचित हैं। १. ब्रहमचर्याश्रम-

आश्रमों की दृष्टि से यह प्रथम है। ब्रहमचर्याश्रम के सम्बन्ध में ऋषि लिखते हैं – ‘‘विद्या पढ़ने सुशिक्षा लेने और बलवान् होने आदि के लिए ब्रहमचर्य (आश्रम है)”। ब्रहमचर्याश्रम में सद्विद्यादि शुभ गुणों का ग्रहण

करना, जितेन्द्रियता से आत्मशक्ति का विकास करना, शारीरिक बल वृद्धि के साथ-साथ विद्या पढना तथा सुशिक्षा ग्रहण करना। यह आश्रम समस्त आश्रमों की नीव हैं। इसकी सुदृढ़ता पर ही जीवन रूपी भवन की

भित्ति सुदृढ़ होती है।

ब्रहमचारी शब्द ब्रहम तथा चारी इन दो पढ़ो से मिलकर बना है। ब्रहम पढ़ बृहवृहि वृद्धो धातु से निष्पन्न होता हैं जिसका अर्थ बड़ा या महान् है। शरीर में वीर्य, ज्ञान में वेद तथा तत्वों में परमेश्वर सबसे बडा है। चारी शब्द चर गतिभक्षणयोः धातु से णिनी प्रत्यय लगने से बनता है। गति के तीन अर्थ है ज्ञान, ब्रहम की प्राप्ति में प्रयत्नशील व्यक्ति। इस ब्रहमचारी शब्द की बहुत से विद्वानों ने अलग-अलग व्युत्पति की हैं यथा ब्रहमचर्यं चरतीति ब्रहमचारी आदि, परन्तु महर्षि दयानन्द कहते हैं- ब्रह्माणि वेदे चरितु शीलं यस्य स ब्रहमचारी।

ब्रहमचर्याश्रम वह अवस्था है जिसमें मनुष्य ज्ञान, बल, भक्ति, यश, तप, स्वाध्याय, को जोड़ने का काम करता है।

. गृहस्थाश्रम- आश्रमों की दृष्टि से ये दूसरे स्थान पर है इसके विषय में दयानन्द जी कहते हैं- सब प्रकार के

उत्तम व्यवहार सिद्ध करने के अर्थ गृहस्थ। सारे शास्त्रकारों ने ग्रहस्थाश्रम की प्रशंसा की है। गौतम धर्म सूत्र ने तो कहा है- गृहस्थ सब आश्रमो का मूल है। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा- ‘‘ इसलिए जितना कुछ व्यवहार संसार में है उसका आधार गृहस्थाश्रम है। जो यह गृहस्थाश्रम न होता तो सन्तानोत्पत्ति के न होने से ब्रहमचर्य, वानप्रस्थ, और सन्यासाश्रम कहां से हो सकते? जो कोई गृहस्थाश्रम की निंदा करता है वही

निन्दनीय है और जो प्रशंसा करता है वही प्रशंसनीय है।’’ परन्तु शास्त्रों ने, ऋषियों ने उसी गृहस्थाश्रमी की

प्रशंसा की है, जो नियमित ब्रहमचर्य के पालनपूर्वक विद्याध्ययन के उपरान्त गुण, कर्म, स्वभाव मिलाकर

विवाह करके किया जाता है पर आज गुण कर्म स्वभाव तो नही मिलाते बल्कि तो बाल, माल, खाल मिलाते हैं। इसलिए स्वर्गाश्रम गृहस्थाश्रम दुःखों का आश्रम बनता चला जा रहा है। सन्तान उत्पत्ति करना विद्यादि

सद्व्यवहारों को सिद्ध करना धन का संचय करना गृहस्थ के करणीय कर्म हैं।

. वानप्रस्थ- वानप्रस्थ उसे कहते हैं-

गृहस्थस्तु यदापश्येद् वलिपलितमात्मनः।

अपत्यस्यैव चापत्यं तदारण्यं समाश्रयेत्।।

(मनु. ६.२)

अर्थात् गृहस्थ जब देखे कि शिर के बाल श्वेत हो गये हैं तथा मुख पर झुर्रियां आ गई एवं पुत्र का भी पुत्र हो गया तब गृहस्थ के कार्यों से उपरत होकर आत्मोन्नति के लिए घर छोड़कर वन को प्रस्थान करे। सामान्यतया मानव जीवन सौ वर्ष का माना गया है आश्रम क्रम से उसके चार विभाग किये गये जो २५-२५ वर्ष के होते हैं।

इस क्रम से वानप्रस्थं ५० वर्ष की अवस्था के उपरान्त ही है। ऋषि दयानन्द लिखते हैं- विचार, ध्यान, विज्ञान, तपश्चर्या करने के लिए वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहिए। वानप्रस्थ के लिए गिरिशयाय’’ शब्द का प्रयोग किया जाता हैं इसकी व्याख्या करते हुए, ऋषि दयानन्द कहते हैं- यो गिरिषु पर्वतेषु श्रितः सन् शते तस्मै

वानप्रस्थाय अर्थात् जो वन के समीप वास वाला।

आज समाज में वानप्रस्थ की परम्परा समाप्त

होने के कारण वृद्धत्व की समस्या बनी हुई है क्योंकि एक छत के नीचे दो बाप नहीं रह सकते। इस समस्या

का एक मात्र समाधान वानप्रस्थ ही है इसीलिए पहले नियम था आठ वर्ष वाले घर में नही रहें। आठ वर्ष वाले

गुरुकुल पढ़ने जाये और साठ वर्ष पढ़ाने लगें क्योंकि इनका ज्ञान अनुभवात्मक हो चुका होता है। इस वानप्रस्थाश्रम को समाज में स्थान देने का हमें प्रयत्न करना चाहिए।

  1. संन्यास-

सन्यास शब्द सम्+न्यास से बना है यहां सम् का अर्थ सम्यक्तया और न्यास का अर्थ त्याग अथवा स्थिर

होना। ऋषि दयानन्द कहते हैं- सम्यत्र्नित्यमास्ते यस्मिन् यद्वा सम्यत्र्न्यस्यन्ति दुखानि कर्माणि येन स

सन्यासः। सम्यत्र्न्यस्यन्ति अधर्माचरणानि येन वा सम्यत्र् नित्यं सत्कर्मस्वास्त उपविशति स्थिरीभवति येन स सन्यासः अर्थात् अधर्माचरण, दुष्टकर्मो का त्याग तथा ब्रहम एवं सत्कर्मों में स्थिर होने का नाम सन्यास है। प्राणी मात्र के उपकार के लिए वेदादि सत्यशास्त्रों का प्रचार करना, धर्म व्यवहार का ग्रहण करना, दुष्ट व्यवहार का त्याग और सबके संदेह का निवारण करना ही सन्यास के मुख्य कर्त्तव्य हैं। मैत्रेम्युपनिषद में कहा है कि आत्मा, परमात्मा के मिलन का नाम सन्यास है। संस्कारविधि में ऋषि दयानन्द कहते हैं- सन्यास संस्कार उसको कहते हैं कि जो मोहादि आवरण पक्षपात छोड के विरक्त होकर सब पृथिवी में परोपकारर्थ विचरे ज्ञान और वैराग्य के बिना लिया गया सन्यास दुख का कारण बनता है। सत्यार्थ प्रकाश में दयानन्द जी कहते है-जैसे शरीर में शिर की आवश्यकता है वैसे ही आश्रमों मे सन्यास आश्रम की आवश्यकता है क्योंकि इसके बिना विद्या, धर्म कभी नहीं बढ़ सकता और दूसरे आश्रमों को विद्या ग्रहण, गृहकृत्य और तपश्चर्यादि का सम्बन्ध होने से अवकाश बहुत कम मिलता है पक्षपात छोड़कर वर्तना दूसरे आश्रमों को दुस्कर है। सन्यास आश्रम में व्यक्ति लोकैषणा, पुत्रैषणा, वित्तैषणा का त्यागकरके निःस्वार्थ भाव से समाज के उपकार का कार्य करता है। इस प्रकार चारों आश्रमों का पालन करके जीवन को मंगलमय बनायें और मोक्ष की प्राप्ति करें।

– आर्ष गुरुकुल महाविद्यालय,

नर्मदापुरम्, होशंगाबाद (म.प्र.)

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