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आर्य समाज और डॉ0 अम्बेडकर: कुशलदेव शास्त्री

आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वमी का जन्म सन् 1824 में और बलिदान 1883 में हुआ। आर्यसमाज की स्थापना के 16 वर्ष बाद और स्वामी दयानन्द के देहावसान के लगभग 8 वर्ष बाद 14 अप्रैल, 1891 को भारतरत्न डॉ0 भीमराव अम्बेडकर का महू (मध्यप्रदेश) में जन्म हुआ। यह तो स्पष्ट ही है कि माननीय डॉ0 अम्बेडकर के काल में स्वामी दयानन्द शरीररूप में विद्यमान नहीं थे, पर आर्यसामाजिक आन्दोलन के रूप में उनका यशः शरीर तो जरूर विद्यमान था। डॉ0 भीमराव अम्बेडकरजी की ग्रन्थ सम्पदा इस बात की साक्षी है कि वे स्वामी दयानन्द द्वारा स्थापित आर्यसमाज तथा उनके अनुयायियों की गतिविधियों से अच्छी तरह परिचित थे। प्रस्तुत काल में आर्यसमाज का आन्दोलन अपने पूरे यौवन पर था, जिसका प्रभाव डॉ0 अम्बेडकर और उनके युग पर निश्चित रूप से पड़ा है। इस लेखक का उद्देश्य डॉ0 अम्बेडकर और आर्यसमाज के इतरेतराश्रय सम्बन्ध को यथोपलब्ध जानकारी के आधार पर प्रस्तुत करना है।

 

जैसे स्वामी दयानन्द गुजराती होते हुए भी मूलतः औदीच्य तिवारी ब्राह्मण माने जाते थे। वैसे ही डॉ0 अम्बेडकर भी मध्यप्रदेश में जन्म लेने के बावजूद मूलतः तथाकथित शूद्र (महार) कुलोत्पन्न महाराष्ट्रीय के रूप में सुप्रसिद्ध थे। कालान्तर में दोनों भी राष्ट्रीय ही नहीं, अपितु अन्तर्राष्ट्रीय महापुरुष के रूप में भी सुप्रसिद्ध हुए। जिस समय महाराष्ट्र में (तत्कालीन मुम्बई राज्य में) ’रानाडे-फुले युग‘ का अस्त हो रहा था, उसी समय वहाँ श्री सयाजीराव गायकवाड़, राजर्षि शाहू महाराज तथा डॉ0 अम्बेडकर के युग का उदय हो रहा था। यह दूसरी पीढ़ी भी अपनी पूर्ववर्ती दयानन्द-रानाडे-फुले आदि महापुरुषों की कार्यप्रणाली से प्रभावित और प्रेरित रही है। श्री सयाजीराव गायकवाड़ और राजर्षि शाहू महाराज स्वामी दयानन्द और उनके द्वारा स्थापित ’आर्यसमाज‘ से अधिक प्रभावित थे, तो डॉ0 अम्बेडकर महात्मा फुले और उनके द्वारा स्थापित ’सत्यशोधक समाज‘ से। श्री सयाजीराव गायकवाड़ और राजर्षि शाहू महाराज आर्यसमाजी होते हुए भी सत्यशोधक समाज के भी सहयोगी और प्रशंसक रहे, तथा डॉ0 अम्बेडकर महात्मा फुले के शिष्य होते हुए भी स्वामी दयानन्द और उनके आर्यसमाजी आन्दोलन के प्रशंसक होने के साथ-साथ समालोचक भी हैं, पर उन्हें आर्यनरेश द्वय श्री गायकवाड़ और राजर्षि शाहू की तरह आर्यसमाज आन्दोलन के सहयोगियों में नहीं खड़ा किया जा सकता। हाँ ! आर्यसमाजी आन्दोलन के डॉ0 अम्बेडकर हमेशा से ही हितैषी रहे हैं।

 

 

 

उनके लिए स्वामी दयानन्द की तुलना में महात्मा फुले अधिक आराध्य रहे। डॉ0 अम्बेडकर ने गौतम बुद्ध, सन्त कबीर और महात्मा फुले की महापुरुष त्रयी को अपना गुरु माना है। संस्कृत व राष्ट्रभाषा हिन्दी की तरह प्रान्तीय स्तर पर मराठी में काम-काज न कर पाने के कारण महाराष्ट्र में आर्यसमाज का आन्दोलन उतना प्रभावी ढंग से न चल सका, जितना कि उत्तर भारत में। राजर्षि शाहू महाराज के अनुसार ’ब्राह्मण नौकरशाही‘ के कारण महाराष्ट्र में आर्यसमाज का आन्दोलन प्रभावी नहीं हो सका।

द्वे-वचसि: कुशलदेव शास्त्री

मेरी शिक्षा-दीक्षा आर्यसमाजी शिक्षण संस्था गुरुकुल झज्जर (हरियाणा) और गुरुकुल ज्वालापुर (हरिद्वार) में हुई। गुरुकुलीय विद्यार्थी जीवन में एक-दो जातियों के नाम तो सुने थे, पर जातिगत भेद-भाव और उच्च-नीचता का थोड़ा भी अहसास नहीं हुआ था। स्वयं मुझे मेरी तथा अन्य छात्रों की जातियों के बारे में भी कुछ अता-पता नहीं था, अतः अस्पृश्यता का कोई सवाल ही नहीं उठता था। हम सभी छात्र एक ही परिवार के स्नेहित सदस्यों की तरह अपना-अपना जीवन यापन करते थे। पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय ने ठीक ही कहा है कि ’गुरुकुल के प्रवेश-पत्रों में जाति-बिरादरी का खाना नहीं था।‘ (भारतीय उत्थान और पतन की कहानी-पृष्ठ 119)

 

गुरुकुल की चारदीवारी से बाहर आने के बाद जातियों का पहले परिचय हुआ, फिर धीरे-धीरे जातिगत भेद-भाव की कटुताओं का परिचय होने लगा। हमारा घर आर्यसमाजी और वह भी क्रियात्मक जीवन में अन्तर्जातीय विवाह का समर्थक होने से सामाजिक सौहार्द का पक्षधर रहा। गाँव में पिताजी ’एक गाँव-एक पनघट‘ तथा ’मन्दिर-प्रवेश‘ जैसे उपक्रमों द्वारा सतत समता-बन्धुता का वातावरण बनाने के लिए आजीवन प्रयत्नशील रहे। इस कारण गुरुकुल और घर दोनों से ही मानवतावादी संस्कार प्राप्त हुए।

गुरुकुल के विषय में अपनी टिप्पणी अंकित करते हुए श्री पं0 उदयवीरजी ’विराज‘ (जन्म-1921) लिखते हैं-”मेरे विचार से गुरुकुल शिक्षा पद्धति आदर्श शिक्षा पद्धति है। जब कहीं दलितोद्धार नहीं था, तब गुरुकुल में दलितोद्धार था, जब कहीं समाजवाद नहीं था, तब गुरुकुल में समाजवाद था। जब कहीं हिन्दी में पढ़ाई नहीं होती थी, तब गुरुकुल में सब विषय हिन्दी में पढ़ाये जाते थे। महात्मा मुन्शीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) ने युवकों को ब्रह्मचर्य की दीक्षा देकर उन्हें आदर्श नागरिक, आदर्श मनुष्य बनाना चाहा था।“ (निजामशाही पर पहली चोट-पृष्ठ 41) डॉ0 अम्बेडकरजी ने तो स्वामी श्रद्धानन्दजी को ”दलितोद्धार के क्षेत्र का चैम्पियन ही कहा है।“

उपन्यास सम्राट् प्रेमचन्द (1880-1936) माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी के समाज-सुधार विषय रचनात्मक कार्यों से सुपरिचित थे, अतः उन्होंने अपने द्वारा सम्पादित ’हंस‘ मासिक के अगस्त-1933 के मुखपृष्ठ पर डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर का चित्र छापा था। अप्रैल-1936 में लाहौर आर्यसमाज की जुबली के अवसर पर ”आर्य भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष के नाते प्रसंगवशात् प्रेमचन्दजी ने आर्यसमाज पर टिप्पणी करते हुए कहा था -“

     ”मैं तो आर्यसमाज को जितनी धार्मिक संस्था मानता हूँ, उतनी ही तहजीबी (सांस्कृतिक) संस्था भी समझता हूँ। उसके तहजीबी कारनामे उसके धार्मिक कारनामों से ज्यादा प्रसिद्ध और रोशन हैं। दलितों के उद्धार में सबसे पहले आर्यसमाज ने कदम उठाया। लड़कियों की शिक्षा की जरूरत को सबसे पहले उसने समझा। वर्ण-व्यवस्था को जन्मगत न मानकर कर्मगत सिद्ध करने का सेहरा उसके सिर पर है। जातिगत भेदभाव और खान-पान में छूत-छात और चैके-चूल्हे की बाधाओं को मिटाने का गौरव उसी को प्राप्त है। उसके उपदेशकों ने वेदों और वेदांगों के गहन विषय को जन-साधारण की सम्पत्ति बना दिया, जिन पर विद्वानों और आचार्यों के कई-कई लीवरवाले ताले लगे हुए थे। “

निस्सन्देह आर्यसमाज और डॉ0 अम्बेडकर आदि की प्रेरणा से प्रचलित आन्दोलन मूलतः समाज-सुधार के चक्र को गतिशील बनाने वाले आन्दोलन रहे हैं। आज भी समाज में जहाँ-कहीं भी जातिगत भेदभाव के आधार पर नफरत की काली घटाएँ फैलती हैं, उन्हें छिन्न-भिन्न करने के लिए डॉ0 अम्बेडकर और ऋषि दयानन्द के अनुयायियों को अग्रिम पंक्ति में नजर आना चाहिए और वैसे वे इस दिशा में आगे बढ़ते हुए नजर आते भी हैं। पर यहाँ कार्य करते समय हमारी भाषा और क्रिया ऐसी संयमित हो कि उसमें अनुदारता और उग्रता न झलके। हमें सतर्कता बरतना इसलिए भी जरूरी है कि कहीं बिहार प्रान्त की तरह अन्यत्र भी वर्ण द्वेष, वर्ग द्वेष में परिवर्तित न हो। पूरी सावधानी के साथ हमारी यह कोशिश होनी चाहिए कि सामाजिक विषमता सामाजिक घृणा में बदलने की अपेक्षा समता-बन्धुता में रूपान्तिरत हो जाए। इन्सान और इन्सान के बीच में जातिगत-भेदभाव के कारण जो खाई दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, उसे पाटना ही हम सबका प्रयोजन होना चाहिए। इस लेख का भी यही मुख्य प्रयोजन है। इस विषय पर सर्वप्रथम आलेख ’आर्य लेखक परिषद‘ के उदयपुर (राजस्थान) अधिवेशन में पढ़ा गया था। यह उसी का सवंर्धित रूप है, जो श्री घूडमल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास के संस्थापक, यशस्वी प्रकाशक श्री प्रभाकरदेव जी आर्य के पुनीत प्रयास से हिण्डौन सिटी (राजस्थान) की ओर से प्रकाशित हो रहा है। आर्यसमाज के ख्याति प्राप्त शोध लेखक और इतिहासज्ञ प्रा0 राजेन्द्रजी ’जिज्ञासु‘ ने पुस्तक का प्राक्कथन लिखकर पुस्तक का गौरव बढ़ा दिया है, तदर्थ बहुत-बहुत धन्यवाद।

आर्य समाज और डॉ. अम्बेडकर ,प्राक्कथन: राजेन्द्र ’जिज्ञासु

मेरी उत्कट इच्छा थी कि ”आर्यसमाज और डॉ0 अम्बेडकर“ विषय पर कुछ लिखा जाए। मैं स्वयं तो इस विषय पर कुछ लिखूँगा ही, परन्तु मैं यह चाहता था कि प्रिय भाई कुशलदेवजी इस विषय पर अवश्य एक खोजपूर्ण पुस्तक लिखें। हर्ष का विषय है कि उन्होंने अपने व्यस्त जीवन से कुछ क्षण निकालकर यह पठनीय व संग्रह करने योग्य पुस्तक लिख दी है। आर्यसमाज के एक कर्मठ व प्रबुद्ध विद्वान् डॉ0 रामकृष्ण आर्य इसे आर्य परिवार प्रकाशन समिति, कोटा के माध्यम से प्रकाशित-प्रसारित करने का यश लूट चुके हैं, और संप्रति श्री प्रभाकरदेव जी आर्य इस कीर्ति को लूट रहे हैं।

राष्ट्रीय एकता की कड़ियों को सुदृढ़ करने के लिए इस कृति का प्रकाशन अत्यन्त प्रशंसनीय है। इससे घृणा-द्वेष की दीवारें टूटेंगी और भ्रम भंजन भी होगा। इसकी एक-एक पंक्ति देश-जाति के सेवकों को पढ़नी चाहिए। डॉ0 कुशलदेवजी ने जो कुछ भी लिखा है, देश व समाज के हित के लिए लिखा है। एक पीड़ा लेकर लिखा है। आर्यसमाज गुण-कर्म-स्वभावानुसार समाज के निर्माण व जन्म की जाति-पाँति के दुर्ग को ध्वस्त करने में 75 प्रतिशत विफल रहा है, यह डॉ0 कुशलदेवजी की अन्तःवेदना को ही प्रकट करता है। मैं इस पीड़ा में उनका भागीदार हूँ। मैंने भी जीवन के मूल्यवान् 50 वर्ष इस जातीय राजरोग के निवारण में लगाये हैं।

मैंने डॉ0 कुशलदेवजी की एक-एक पंक्ति पढ़ी है। जात-पात तोड़क मण्डल के संस्थापक जीवन के अन्तिम श्वास तक आर्यसमाजी रहे। श्री सन्तरामजी आर्यसमाज के सर्वश्रेष्ठ मासिक ’आर्य मुसाफिर‘ के यशस्वी सम्पादक रहे। डॉ0 अम्बेडकर को जात-पात तोड़क सम्मेलन का अध्यक्ष बनाने में असर्मथता का कारण ’वेद निन्दा‘ के प्रचार में भागीदारी से बचना था। अन्यथा विरोध करने वाले तीनों व्यक्ति जाति-पाति के विरोधी थे। देवता स्वरूप भाई परमानन्दजी ने तो अपनी सन्तानों के विवाह जात-पाँत तोड़कर ही किये।

यह भी निवेदन कर दूँ कि डॉ0 गोकुलचन्द नारंग, भाईजी के भक्त, शिष्य, मित्र व सहयोगी थे।

पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय कोल्हापुर के राजाराम स्कूल के प्रधानाध्यापक रहे। तब उस स्वल्प काल में आपने निकट से डॉ0 अम्बेडकर व उनकी गतिविधियों को देखा।

महाराष्ट्र में जन-जागृति, शिक्षा-प्रसार व अस्पृश्यता निवारण के आन्दोलन में प्रि0 श्री डॉ0 बालकृष्णजी का भी अद्भुत योगदान रहा। उस आर्य मनीषी को श्री शाहू महाराज ने ही कोल्हापुर बुलाया था। डॉ0 बालकृष्णजी के व्यक्तित्व व सेवाओं की डॉ0 अम्बेडकर पर छाप पड़ी, इसको भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

पंजाब में तो बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में ही दलित वर्ग में अनेक संस्कार वैदिक रीति से हुए। महाराष्ट्र में यह युग बाद में आया।

देश प्रेमियों का कत्र्तव्य है कि इस पुस्तक का अधिक-से-अधिक प्रचार प्रसार करें। अन्त में एक बात कहना चाहूँगा कि डॉ0 अम्बेडकर ने वेद व वैदिक मान्यताओं के विरूद्ध जो कुछ भी कहा था, लिखा है, वह रूढ़िवादियों के घृणित व्यवहार की प्रतिक्रिया मात्र था, अन्यथा उनका वेद से कोई विरोध नहीं था। ’धम्मपद‘ में भी तो कोई एक भी शब्द वेद की निन्दा में नहीं मिलता।

 

चतुर्थाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब चौथे अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा की जाती है। २७,२८ सत्ताईस और अट्ठाईस दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। और छब्बीसवां श्लोक पच्चीसवें श्लोक में दी आज्ञा की पूर्त्ति करने वाला है। और विधिवाक्य का शेषविधि करके ही माना जाता है। इससे छब्बीसवां श्लोक भी विधिवाक्य ही है। उस छब्बीसवें पद्य में पशुशब्द करके गौ आदि से होने वाले मुख्य घृतादि से होम करे, यह विधान किया गया है। यदि कोई कहे कि पशु के मांस से होम करने की कल्पना निकालेंगे तो पशु से उत्पन्न हुआ वस्तु वा उसका विकार अर्थ लेना दोनों पक्ष में तुल्य है। वहां पशु से हुआ मांस और यहां पशु के ही शरीर से निकला घृतादि है। तो इसमें कोई विशेष हेतु नहीं है कि जो पशु से होने वाला मांस ही पशुशब्द से लिया जावे और दुग्ध घृतादि न लिया जावे। और पशु के प्राण निकालनेरूप हिंसा किये बिना मांस उत्पन्न नहीं हो सकता और हिंसा करने में पाप अवश्य है। क्योंकि यदि गौ आदि पशु बना रहे तो उससे होने वाले घृतादि से फिर भी यज्ञ कर सकते हैं और यदि मारकर उसके मांस का होम कर दिया जायेगा तो पशु उसी समय समाप्त हो जायेगा फिर आगे होने वाली दुग्धादि के लाभ की भी हानि ही होगी। और मांस के जलाने से दुर्गन्धि अवश्य निकलेगी और घृतादि के होम से सुगन्धि होगी। इस कारण छब्बीसवें श्लोक में पशु शब्द से उसका घृतादि पदार्थ लेना चाहिये। यदि कोई ऐसा लाक्षणिक अर्थ न करे तो ‘पशु से होम करना चाहिये’१ यह वाक्य ही नहीं बनेगा। क्योंकि जीते हुए समूचे पशु का होम अग्नि में कोई नहीं कर सकता। और जैसे दुग्ध-घृतादि का नाम पशु नहीं वैसे मांस का नाम भी पशु नहीं है। इससे पशु शब्द करके दुग्ध-घृतादि ही लेना चाहिये और मांसादि लेने में पूर्वोक्त अनेक दोष हैं।

सत्ताईसवें और अट्ठाईसवें श्लोक में अर्थवाद है, सो वह अर्थवाद शास्त्र की मर्यादा के अनुकूल ठीक नहीं है। जब वेद में स्पष्ट लिखा है कि ‘यज्ञ करने वाले पुरुष के पशुओं की रक्षा कर’२ अर्थात् यज्ञ करने वालों के पशुओं को कभी न मारना चाहिये, किन्तु उन पशुओं की ठीक-ठीक रक्षा से घृतादि निकाल कर यज्ञादि का प्रचार बढ़ाना चाहिये, जो यज्ञ करने वालों के गौ आदि पशु नष्ट हो जायेंगे तो दूध-घृत आदि के न होने से यज्ञ की ही हानि होगी। ऐसा स्पष्ट प्रमाण मिलने पर जो मांसादि से होम करना चाहते हैं वे वेदविरोधी हैं। और इसी के अनुसार उक्त दोनों २७,२८ श्लोक भी वेदविरुद्ध हैं। इससे विचारशीलों को नहीं मानने चाहियें। अट्ठाईसवें श्लोक पर रामचन्द्र का भाष्य उपलब्ध नहीं है इस कारण से भी इसके प्रक्षिप्त होने का अनुमान किया जाता है। अर्थात् जिस पुस्तक के आधार पर रामचन्द्र ने भाष्य रचा उस पुस्तक में यह श्लोक नहीं था।

आगे छियासीवें श्लोक से लेकर एकानवें पर्यन्त प्रक्षिप्त हैं। ये भी छह श्लोक असम्भव अर्थवादरूप हैं। यद्यपि पिच्यासीवें श्लोक में जो अर्थवाद है उसमें भी किसी प्रकार अत्युक्ति प्रतीत होती है तथापि उसका भयानक होना अनुमान कर सकते हैं। इन छह श्लोकों में शास्त्रविरुद्ध चलने वाले नास्तिक राजा वा क्षत्रिय भिन्न नीच वर्णसटरादि राजा से विद्वान् को दान न लेना चाहिये। उस दान का लेना पिच्यासीवें श्लोक के कहे अनुसार दूषित है, यही कहना ठीक है। और क्षत्रिय भिन्न वा अधर्मी से दान लेने वाला क्रम से इक्कीस नरकों को प्राप्त हो, यह सर्वथा असम्भव है। ग्यारहवें अध्याय के प्रायश्चित्त प्रसग् में चार महापातक और कई उपपातक भी गिनाये गये हैं, उनमें ब्रह्महत्यादि महापातकों का ही नरक प्राप्ति फल कहा है। जैसे- ‘महापातकी लोग अनेक दुःसह दुःखों से युक्त नरकरूप स्थानों को अनेकों वर्ष तक पाकर संसारी कुत्ते आदि की योनि को प्राप्त होते हैं।’१ और सब पापों में महापातक ही बड़े पाप हैं, मुख्यकर उन्हीं का दुःखरूप नरकप्राप्ति फल होना चाहिये। यदि दुष्ट दान लेने का नरक फल हो तो महापातकों का उससे बहुत बड़ा दुःख फल क्या होगा ? अर्थात् कुछ नहीं। जब राजा छोटे-छोटे अपराधों पर प्राणदण्ड [फांसी] वा जन्मभर बन्धन [उम्रकैद] कर देवे तो बड़े अपराधों के लिये और बड़े दण्ड कहां से आवें ? इसी कारण निन्दित दान लेने का नरकप्राप्ति फल कहना असग्त है। और निन्दित प्रतिग्रह उपपातकों में भी नहीं गिनाया गया, किन्तु ‘निन्दित लोगों से धनादि का दान लेना, निषिद्ध वस्तुओं का बेचना, शूद्र की सेवा करना और मिथ्या बोलना ये अपात्रीकरण अर्थात् मनुष्य को नीच बनाने वाले काम हैं।’२ इस का दण्ड, फल वा प्रायश्चित्त भी वहां स्वयमेव दिखाया है कि- ‘ऐसे कामों का प्रायश्चित्त वा दण्डरूप दुःख फल भोगकर चान्द्रायण व्रत करे।३ इस प्रकार जब ग्यारहवें अध्याय में निन्दितों से दान लेने का फल चान्द्रायण प्रायश्चित्त कहा फिर यहां चौथे अध्याय में इसी का फल इक्कीस नरकों की प्राप्ति कहना परस्पर विरुद्ध है। ग्यारहवें अध्याय का कथन ठीक प्रतीत होता है और यहां चौथे अध्याय के उक्त छह श्लोक प्रक्षिप्त हैं, यह निस्सन्देह विचार है। नरक- सम्बन्धी विचार कर्मफल विचार प्रकरण में होगा।

आगे एक सौ दश, एक सौ ग्यारह (११०,१११) और एक सौ चौदह (११४) ये तीन श्लोक प्रक्षिप्त हैं। एकोद्दिष्ट श्राद्ध का निमन्त्रण मानकर वेदपाठ करना क्यों निषिद्ध है ? क्या उदरम्भर बनकर पेट भरने के ही विचार में लगा रहे ? और पढ़ना-लिखना छोड़ देवे ? वेद पढ़ने वाले विद्यार्थियों का जब कोई निमन्त्रण करता है, तब भोजन बनाने में जो समय लगता वह भी पढ़ने के लिये मिल जायेगा, इस कारण उस समय तो पहले से भी अधिक पढ़ना हो सकता है। परन्तु श्राद्ध भोजन किये पश्चात् थोड़े काल तक दो-चार घड़ी नहीं पढ़ना क्योंकि शरीर के भारी होने से तथा अजीर्ण के भय से कि अजीर्ण न हो जावे। सो ऐसा निषेध पूर्व श्लोक से ही कर दिया है। और सूतकशब्द का सन्तानोत्पत्ति कालरूप योगरूढार्थ स्वीकार किया जाता है, तो राजा के पुत्रोत्सव में प्रसन्नता के साथ वेद का पाठ अवश्य करना चाहिये। और प्रायः लोग ऐसा करते भी हैं कि मन की प्रसन्नता विशेष होने से राजा का उत्सव मानें। और यदि सूतकशब्द से राजादि के मरने पश्चात् शोक काल लेवो तो उस समय वेद नहीं पढ़ना चाहिये, क्योंकि प्रजा के मनुष्यों को भी राजा का शोक माननीय है। परन्तु इसके लिये यहां अनध्यायप्रसग् में कुछ कहना आवश्यक नहीं क्योंकि पञ्चमाध्याय की सूतकशुद्धि में इसका विचार होगा। राहु एक ग्रह वा लोक है उसके घर में स्त्री-पुत्रादि वा उसी का मरण वा जन्म दोनों ही असम्भव हैं, ऐसा मानने से राहु का सूतक ही नहीं हो सकता, किन्तु सूर्यचन्द्रमा के ऊपर लोकान्तर की छायारूप ग्रहण, पढ़ने का विघ्नकारी नहीं हो सकता, ऐसा मानकर ग्रहण समय में पढ़ने का निषेध करना व्यर्थ है। तथा अगला अर्थवाद भी व्यर्थ है। प्रतिदिन खाये हुए वा एकोद्दिष्ट श्राद्ध में खाये हुए अन्न का गन्ध और लेप शरीर में अवश्य रहेगा किन्तु दो-एक दिन वा मास-दोमास में नष्ट नहीं हो सकता जैसे गगदि नदियों का जल समुद्र में मिल जाने से उसका अभाव नहीं होता, वैसे खाया-पिया आहाररस रुधिरादि धातुओं के रूप से शरीर में व्याप्त हो जायेगा। फिर क्या एकानुदिष्ट श्राद्ध में खाने वाले को जन्मभर के लिये वेद का पढ़ना छोड़ देना चाहिये ? अर्थात् यह सम्भव नहीं, इसलिये यह प्रक्षिप्त है। और अमावास्या में पढ़ाने से गुरु को पठन क्रिया मारती है इत्यादि अर्थवाद भी ठीक वा युक्त नहीं, क्योंकि प्रत्यक्ष से ही यह विरुद्ध है। अमावास्या में पढ़ाने से अध्यापक प्रत्यक्ष में मरे नहीं दीखते। यदि कोई कहे कि फिर अमावास्यादि में पठन का निषेध क्यों किया ? तो इसका उत्तर हम पूर्व अनध्याय विचार में लिख चुके हैं।

आगे एक सौ छब्बीसवां श्लोक भी प्रक्षिप्त है। क्योंकि पशु वा मेंढक आदि के बीच से निकल जाने में पढ़ने-पढ़ाने वालों की कुछ हानि कोई विद्वान् नहीं मान सकता। ऐसे वाक्यों से धर्मशास्त्र की तुच्छता भी आती है। वेद का पढ़ना ऐसा बड़ा काम है कि उसके चलने में तुच्छ वा क्षुद्र मेंढक आदि जीव विघ्नकारी हों, यह असम्भव है। और विघ्नकारक हेतु जिस कार्य में विघ्न करता है उससे प्रबल होता है तभी विघ्न हो सकता वा कर सकता है कि जैसे कुपथ्य अधिक बढ़ जावे तो रोग दबा लेता और ओषधि का बल बढ़ने से रोग दब जाता है।

आगे एक सौ पैंसठवां और एक सौ छियासठवां श्लोक प्रक्षिप्त हैं। यहां पहले श्लोक में घुर्राने का सौ वर्ष तक अन्धकाररूप नरक में गिरना फल कहा है। और ग्यारहवें अध्याय में घुर्राने का दण्ड वा प्रायश्चित्त एक कृच्छ्रव्रत कहा है, इससे ये दोनों बातें विरुद्ध हैं, किन्तु दोनों सत्य नहीं हो सकते। घुर्रानेरूप पाप का फल वा दण्ड एक कृच्छ्रव्रत करना भी अधिक है, किन्तु सौ वर्ष नरक में गिरना रूप फल तो सर्वथा असम्भव ही है। कोई भी विद्वान् ऐसे छोटे अपराध के ऐसे बड़े फल को न्याययुक्त कभी न मानेगा। इस चौथे अध्याय में ब्राह्मण को ताड़ना देने का फल इक्कीस जन्मों तक पापयोनियों में गिरना लिखा है। तथा ग्यारहवें अध्याय में दण्डवत् प्रणाम करके प्रसन्न करे यह प्रायश्चित्त कहा है, सो इसमें भी परस्पर विरोध है। यहां भी पूर्व के तुल्य अति छोटे अपराध का ऐसा बड़ा दुःख फल मिलना असम्भव और अन्याय है। एक सौ अड़सठवां श्लोक भी प्रक्षिप्त है। ग्यारहवें अध्याय में लकड़ी आदि के मारने से ब्राह्मण के शरीर में रुधिर निकल आनेरूप अपराध पर कृच्छ्र और अतिकृच्छ्ररूप प्रायश्चित्त लिखे हैं, इतना ही इस अपराध का दण्ड मिलना उचित वा न्याययुक्त है। और यहां चौथे अध्याय में दिखाया पाप फल असम्भव और न्यायविरुद्ध है। इस प्रकार यहां तीन श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं।

आगे एक सौ इक्यासीवें (१८१) श्लोक के उत्तरार्द्ध से लेकर एक सौ चौरासीवें के पूर्वार्द्ध पर्यन्त तीन श्लोक प्रक्षिप्त हैं। ऋत्विग्, पुरोहित, गुरु, आचार्य आदि मान्यपुरुषों के साथ विवाद नहीं करना चाहिये, यह सब शिष्ट लोग मानते हैं। इसमें अर्थवादरूप कारण वाद की कुछ भी अपेक्षा नहीं है, क्योंकि विवाद होने से उन सज्जनों की मानहानि होना दोष है, यह कारण भी स्पष्ट है। तथा सब  विधियों में अर्थवाद का होना भी आवश्यक नहीं। तथा पूर्व कहा अर्थवाद असम्भव है कि जो ब्रह्मलोक का स्वामी आचार्य हो। जिस ब्रह्म का वह लोक है, वही उसका स्वामी होगा। यदि आचार्य स्वामी हो तो ब्रह्म का लोक नहीं कह सकते। जिसका वह वस्तु होता है, वही उसका स्वामी भी माना जाता है, यह सबके अनुकूल सिद्ध है। ऐसे ही पिता आदि के स्वामी बनाने के अर्थवाद को भी गड़बड़ जानो। इसलिये ये तीन श्लोक बुद्धिमानों को प्रक्षिप्त मानने योग्य हैं।

आगे एक सौ नवासीवां श्लोक प्रक्षिप्त है। इससे पूर्व अठासीवें श्लोक में मूर्ख को दान देने के निषेध का अर्थवाद कहा है वह सम्भव भी है और यह कथन प्रत्यक्ष से ही विरुद्ध है कि अविद्वान् लोग दान लेने से मर जावें वा उनके नेत्रादि फूट जावें। आजकल अधिकांश मूर्ख लोग ही दान लेते और उन्हीं को दिया जाता है। परन्तु उनका मरण आदि होते नहीं दीख पड़ता, किन्तु पराया धन बिना परिश्रम का खा-खाकर सहस्रों लोग अच्छे मोटे हो रहे हैं। घोड़े का दान लेने वाले के नेत्र फूट जावें, यह भी कहीं नहीं दीख पड़ता।

आगे दो सौ सत्रहवें से लेकर दो सौ इक्कीसवें पर्यन्त (२१७-२२१) चार श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इनमें भी असम्भव वा परस्पर विरुद्ध अर्थवाद ही कहा गया है, किन्तु ये विधिवाक्य नहीं हैं। अधर्मी, अन्यायी वा क्षत्रिय से भिन्न राजा का अन्न विद्वानों को नहीं खाना चाहिये, इस पूर्व किये निषेध की अर्थापत्ति यह है कि     धर्मात्मा राजाओं का अन्न अवश्य खाना चाहिये और ऐसा ही पूर्वज ऋषि लोगों ने भी किया है और इतिहासादि ग्रन्थों से भी सिद्ध है। और अधर्मी अन्यायी राजा का धान्य विद्वान् को लेना पूर्व ही निषेध कर चुके हैं। तथा अन्य शूद्रादि जिन-जिन का अन्न निषिद्ध है, उनका भी अधर्मी हों तो अन्न त्याज्य है। धर्मात्माओं का तो सदा ही अन्न ग्रहण करना चाहिये। असम्भव घृणित तुच्छता दिखाने वाला और प्रत्यक्ष प्रमाण से विरुद्ध यह अर्थवाद है, ऐसा मानकर प्रक्षिप्त कोटि में उक्त श्लोक छोड़ देने चाहियें। तथा जिन-जिन के अन्न का लेना निषिद्ध है, उसका अर्थवाद सामान्य कर दो सौ बाईसवें (२२२) श्लोक में दिखा दिया है, वही ठीक है, किन्तु यह ठीक नहीं है।

आगे दो सौ अड़तालीसवां और दो सौ उञ्चासवां ये दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। पहले में अर्थवाद मिथ्या और असम्भव है। इस विषय में विशेष अर्थवाद का कुछ भी प्रयोजन नहीं है। जिसमें किसी प्रकार का दोष वा विरोध न हो तथा बिना मांगे स्वयं प्राप्त हो जावे ऐसी भिक्षा वा दान का सामान्य कर ग्रहण करना चाहिये, यह विधान किया है। इसी कारण बिना मांगे प्राप्त हुई खट्वा आदि के त्याग न करने का कथन द्वितीय पद्य में पुनरुक्त है। मछली और मांस तो कैसा ही हो न लेना चाहिये, क्योंकि उसका मूल हिंसा वा हत्या करना अधर्म है। यदि खट्वादि का विशेष कर विधान मानो तो सामान्य कथन विरुद्ध है, क्योंकि यहां उत्सर्गापवाद की रीति नहीं घटित होती। सो परस्पर विरुद्ध होने से “शय्याम्०” यह श्लोक प्रक्षिप्त है। इस उक्त प्रकार से इस चौथे अध्याय में के दो सौ साठ (२६०) श्लोकों में से पच्चीस (२५) श्लोक प्रक्षिप्त हैं और शेष दो सौ पैंतीस (२३५) श्लोक शुद्ध हैं। बुद्धिमान् लोगों को विचार पूर्वक अनुसन्धान करना चाहिये।

मूर्त्तिपूजा का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब पूजा वा उपासना विषय में मूर्त्तिपूजा का विचार किया जाता है। इस मानव धर्मशास्त्र में सावित्री मन्त्र१ के जप की सब प्रकार प्रधानता२ दिखायी है। इस मन्त्र में सब जगत् का रचने वाला परमेश्वर ही उपासना के योग्य बतलाया गया है। किन्तु कोई पत्थर आदि की मूर्त्ति उपासना के योग्य नहीं ठहराई गई। इसी प्रकार की उपासना वेद और योगशास्त्र के अनुकूल है। वेद में लिखा है कि- ‘तू एक असहाय अनुपम आदि विशेषण युक्त है, ऐसी हम उपासना करते हैं।’३ तथा योगशास्त्र में लिखा है कि- ‘ओटार वा ओटारयुक्त गायत्री का वाणी वा मन से जप करना तथा उसके वाच्यार्थ परमात्मा का अपने चित्त में बार-बार विचार और ध्यान तथा उसके गुणों का चिन्तन करना उपासना है।’४ मानव धर्मशास्त्र के अन्य स्थलों में भी जहां-जहां उपासना का प्रकरण है, वहां-वहां वेदमन्त्रों के साथ ही प्रतीत होता है। ऐसा मानकर ही अग्निहोत्र में भी उपस्थानसंज्ञक वेदमन्त्रों से मुख्यकर परमात्मा की ही स्तुति की है। जिस कर्म में वा जिस कर्म से देव नाम परमेश्वर की पूजा होती है, वह अग्निहोत्र कर्म देवयज्ञ कहाता है। अर्थात् उपासना प्रसग् में देव शब्द परमेश्वर का वाचक है, यही सिद्धान्त जानो। बारहवें अध्याय में मनु ने भी कहा है कि- ‘सर्वव्याप्त परमेश्वर का ही नाम देव है, अर्थात् जितने देव के अवान्तर भेद आते हैं, वे सब आत्मा के नाम हैं और उसी एक में सब संसार ठहरा हुआ है।’४ इससे जहां-जहां देवता पद से उपासना कही जाती है, वहां-वहां आत्मा की ही उपासना जाननी चाहिये। इसी कारण “देवताभ्यर्चनम्” इत्यादि वाक्यों से परमात्मा की ही उपासना वेदमन्त्रों द्वारा सिद्ध होती है। प्रातःकाल की उपासना में और भी कहा है कि- ५. ब्राह्मे मुहूर्त्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत्। कायक्लेशांश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च।। ‘प्रातः कुछ        अन्धेरे ही उठकर वेद के तत्त्वार्थ [कि मुख्यकर वेद में जिसका व्याख्यान है उस] परमात्मा का चिन्तन करे।’५ यहां वेद शब्द के साथ रहने से पौराणिक पाषाणादि मूर्त्तियों का चिन्तन नहीं आ सकता। तथा प्रामाणिक सज्जन विद्वानों के माने हुए व्याकरण-कोषादि ग्रन्थों में पाषाणादि मूर्त्तियों का वाचक देवशब्द कहीं नहीं मिलता। इस कारण भी पत्थर आदि की जड़ मूर्त्तियों का पूजन मानव धर्मशास्त्र के अनुकूल विहित नहीं है। और न कहीं इस ग्रन्थ में पत्थर आदि जड़ से बनीं प्रतिमाओं की परमात्मा बुद्धि से पूजा करनी चाहिये, ऐसी आज्ञा है। और देव शब्द से परमेश्वर का ही पूजन माना गया है- ‘सर्वान्तर्यामी सर्वव्याप्त एक देव- परमेश्वर सब प्राणियों में गुप्त हो रहा है।’१ इत्यादि उपनिषद् के वाक्यों से भी सिद्ध है कि जो उपासना प्रसग् में देव शब्द परमात्मा का ही वाचक है। इससे मानव धर्मशास्त्र में भी नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव, निराकार, निर्विकार और सच्चित्, आनन्दस्वरूप परमात्मा की ही उपासना का विधान किया गया है, किन्तु मूर्त्ति आदि की पूजा का नहीं, यही सिद्धान्त है।

दानधर्म का विवेचन : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब दानधर्म का संक्षेप से विवेचन किया जाता है। यद्यपि इस दानधर्म विषय में विशेषता से इसलिये कुछ वक्तव्य नहीं है कि इस चतुर्थ अध्याय में सब विषय स्पष्ट कर कहा है। और भाष्य में और भी स्पष्ट हो जायेगा। तो भी संक्षेप से दान का सिद्धान्त कहा जाता है। इस चौथे अध्याय में छियासीवें श्लोक से लेकर अध्याय की समाप्ति पर्यन्त दान का ही विवेचन किया है। दानधर्म में पांच अवयवों की मुख्यकर परीक्षा करनी चाहिये। दान देने तथा लेने वाला, जिस वस्तु का दान दिया जाय और वह तीसरा, चौथा दान का समय और पांचवें दान का देश कि किस प्रान्त में दान करना उपयोगी वा अनुपयोगी है। कैसे दाता को दान देना चाहिये, किसको दान देने का अधिकार है, और दान लेने वाला कैसा हो इत्यादि प्रकार से दाता को उचित-अनुचित का विचार कर दान करना चाहिये। वही सम्यक् उत्तम दान है। गुणों के तीन भेद होने से दान भी तीन प्रकार का है सो भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में कहा है कि- ‘वेदादि शास्त्रों में दान देना लिखा है इस कारण शास्त्र की आज्ञानुसार दान देना चाहिये, किन्तु यह न विचारा जाये कि इससे मुझको फल मिलेगा वा नहीं किन्तु निष्कारण अपना कर्त्तव्य समझकर जो दान ऐसे पुरुष को दिया जाता है जिससे अपना कुछ भी कार्य सिद्ध नहीं होता। तथा जिस दान में देने योग्य देश-काल और सुपात्र का विचार कर लिया जावे, वह दान सात्त्विक अर्थात् सत्त्व गुण सम्बन्धी होने से सर्वोत्तम है।’१ ‘और जो प्रत्युपकार होने के लिये कि जिसको हम दान देते हैं उससे हमारा अमुक काम निकलेगा वा मुझको इस दान से अमुक फल मिलेगा इसलिये दान देना चाहिये। इस प्रकार किसी प्रकार के दबाव, परवशता वा लोकलज्जादि के कारण अपने पर भार समझकर दिया जाता है, वह दान रजोगुण सम्बन्धी मध्यम समझा जाता है।’२ ‘तथा जो देश-काल का विचार न करके वा विरुद्ध देश-काल में (कि जहां दान करने से उलटा फल होना सम्भव है) कुपात्रों को दान दिया जाता है कि जिसमें दान लेने वाले का अनादर वा अपमान भी हो वह तमोगुण सम्बन्धी सबसे नीच है।’३ इस उक्त रीति से तीन प्रकार का दान है। उसमें सत्त्वगुण सम्बन्धी सबसे श्रेष्ठ दान है। उसी का आचरण वा सेवन सज्जनों को करना चाहिये, यही सिद्धान्त है। ‘न करने से कुछ करना भी अच्छा है’१ इस जनश्रुति- कहावत के अनुसार जो लोग किसी प्रकार कुछ भी दान नहीं देते उनकी अपेक्षा मध्यम, निकृष्ट दानों के सेवन करने अर्थात् मध्यम वा निकृष्ट प्रकार से दान देने वाले भी उत्तम ही हैं। तो भी धर्मशास्त्र में सत्त्वगुण सम्बन्धी दान का विधान किया है, किन्तु रजोगुण, तमोगुण सम्बन्धी का नहीं, यही सिद्धान्त है। यद्यपि यह पूर्वोक्त सिद्धान्त ठीक है तो भी जहां दान लेने वाला अधिकता से अधर्मी है कि वह दाता के दिये वस्तु को लेकर उसी के आश्रय से अधर्म करता है तो वहां धर्मानुकूल संचित किये    धन का दान भी अनर्थकारी अर्थात् पुण्य के बदले पाप कराने वाला होता है। सो मनुस्मृति के इसी अध्याय में कहा है कि- ‘बैडालव्रतिक अर्थात् मूषक को पकड़ने के लिये बिलाई कीसी दृष्टि रखने वाला कि अवसर पाकर झट दूसरे के माल को मार लेवे इत्यादि दुर्गुणयुक्त तीनों प्रकार के मनुष्यों को धर्मानुकूल उपार्जन किये धन का भी दान दाता के लिये पाप का हेतु होता है। और जन्मान्तर में दान का लेने वाला भी पापभागी होता है।’२ ‘जैसे पत्थर की नौका पर चढ़के जल में तरने वाला पत्थर के साथ ही डूब जाता है, वैसे ही उस दान के सहित दुष्ट को दान देने वाला और दान लेने वाला दोनों दुःखसागर में डूबते हैं।’३ इस उक्त लेख से सिद्ध हुआ कि रजोगुण, तमोगुण सम्बन्धी दान भी अधर्मी को नहीं देना चाहिये।

इस दानधर्म के प्रसग् में दाता प्रशस्त कोटि में और दान लेने वाला निकृष्ट कोटिस्थ समझा जाता है। इसी कारण जो पुरुष जिस दाता से दान लेता है, वह उसके सामने लज्जित, शटित वा दबा हुआ रहता है। यदि दान लेना नीच काम न होता तो लज्जा वा शटा भी न होती। इसीलिये इस मानव धर्मशास्त्र में कहा है कि- ‘दान लेना अच्छा नहीं’४ तथा ‘दान लेने में समर्थ अर्थात् विद्वान् वा धर्मात्मा दान लेने का अधिकारी होकर भी दान लेने का प्रसग् न आने देवे क्योंकि दान लेने से विद्वान् का विद्या सम्बन्धी तेज घट जाता है।’५ ऐसा विचार कर विद्वान् ब्राह्मण को भी दान लेने की इच्छा न रखनी चाहिये। दान लेने की रुचि वा इच्छा रखने वाला विद्वान् ठीक धर्मात्मा कभी नहीं रह सकता, इसीलिये इसका निषेध है। परन्तु दाता को सदा ही दान देने की रुचि रखनी चाहिए अर्थात् दाता का यही मुख्य धर्म है कि वह सुपात्रों को दान देने की सदा इच्छा बढ़ाता रहे और दान लेने वाले सदा बचते रहें। ऐसा होने पर ही धर्मशास्त्रों की ठीक व्यवस्था हो सकती है। जिस देश और काल में धर्मशास्त्रों के अनुकूल दानधर्म की सम्यक् प्रवृत्ति होती है, वह देश उन्नति को प्राप्त हुआ, ऐसा कहा जाता है। और जिस देश में ऐसा नहीं होता, वहां अवनति ही बनी रहती है। सो कहा भी है कि- ‘जहां अपूज्य वा अयोग्यों की पूजा वा सत्कार होता, और योग्य विद्वानों का सत्कार नहीं होता उस देश की दुर्दशा ही होती है।’१ इसलिये सबको सब समय में शास्त्र के अनुकूल ही दान- धर्म का सेवन करना चाहिये।

इस दानधर्म विषय में तात्पर्य यह है कि जिस कर्म में व्यय किये बिना अपने सुख और विद्यादि का प्रचार न होने से अन्य सर्वसाधारण मनुष्यों की हानि होती है, उस-उस विद्या वा धर्मादि का प्रचार कराने वाले कर्म में व्यय करना मुख्यकर दान ही है। वैसे उक्त कामों में व्यय न करके जिस काम में व्यय करना निष्फल है अथवा जहां विरुद्ध फल देने वाला है, वहां का व्यय करना हानि वा देश का अवनतिकारक होता है। और जो जगत् के उपकारक विद्वान् लोग हैं उनके निर्वाहार्थ भी धनादि वस्तु देने चाहिएं, जिससे उन लोगों का समय अपने निर्वाह की चिन्ता में न जावे किन्तु वे लोग दिनरात जगत् के उपकार की चिन्ता में ही लगे रहें। और जो अनाथ वा अशक्त मनुष्य हैं उनका अन्नादि दान से भरण-पोषण करना दानधर्म ही है। जिस वस्तु के बिना जिस काल में धर्म की हानि प्रतीत होती है उस वस्तु का उस समय देना ही बड़ा कल्याणकारी है। तथा विद्यादान सब दानों में उत्तम है। अन्य दानधर्म यथाकाल वा यथायोग्य उत्तम, मध्यम समझे जाते हैं।

यदि किसी प्रकार विद्वान् धर्मात्मा लोगों का दान लिये बिना कार्य नहीं चलता वा लेना अवश्य पड़ता है तो जिनके यहां अधर्म वा अनेकों को पीड़ा पहुँचाकर धन आता हो वा जो अत्यन्त नीच प्रकृति वाले लोग हों उनसे दान न लेवें क्योंकि ऐसों से लेना पाप है। परन्तु दुष्ट, नीचप्रकृति, अधर्मी और कुटिलों से भी धन लेकर अपने उपयोग में न लगावे और सर्वसाधारण के उपयोगी यज्ञादि काम में लगा देवे तो दान लेने वाले को पाप नहीं किन्तु पुण्य ही है।

और कर्मकाण्ड कराने अर्थात् विवाह-यज्ञोपवीतादि संस्कार कराने वाले को जो दक्षिणा दी जाती है, वह दान के अन्तर्गत नहीं गिनी जायेगी क्योंकि वह परिश्रम का बदला [मेहनताना] है, उसका लेने वाला भी वैसा निकृष्ट नहीं समझा जाता किन्तु दान वही है जिससे अपना कुछ भी उपकार न हुआ हो, उसको धर्मबुद्धि से दिया जावे। धर्म के सब अंशों में दानधर्म प्रधान अवयव है। श्रीमानों को तो प्रतिदिन निस्सन्देह दानधर्म का सेवन करना चाहिये क्योंकि वे लोग शरीर से धर्म का सेवन नहीं कर सकते अर्थात् धनी लोग प्रायः सुकुमार होते और धन के लेन-देन आदि व्यापार में उनका चित्त बंधा रहता है। ऐसा मानकर ही महाभारत के उद्योगपर्व में कहा है कि- ‘दो पुरुषों को गले में पत्थर की शिला बांधकर जल में डुबा देना चाहिये, एक तो धनी होकर जो दान नहीं करता, द्वितीय दरिद्र होकर जो शरीर से तप नहीं करता।’१ जन्मान्तर में दानधर्म का जो फल है वह तो है ही किन्तु प्रत्यक्ष दशा में भी दान का बड़ा फल है। प्रायः जो दानधर्म का सेवन करने वाला है, उस पुरुष के जगत् में शत्रु नहीं होते, किन्तु मित्र सदा बढ़ते हैं। और दान करते हुए मनुष्य का सदा उत्साह बढ़ता, चित्त प्रसन्न वा सन्तुष्ट होता है, और चित्त के प्रसन्न होने से सब दुःखों का विनाश और सब सुखों की प्राप्ति होती है। इससे धर्मशास्त्र के अनुकूल सबको दान का सेवन करना चाहिये। भाष्य में विशेष व्याख्यान होगा, वहीं देखना चाहिये। तथा वहीं दान के अनधिकारी भी गिनाये जायेंगे।

पठन-पाठन में अनध्याय पर विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब पठनपाठनविषयक विचार किया जाता है। इस मानवधर्मशास्त्र के चौथे अध्याय में पिच्यानवे (९५वें) श्लोक से लेकर एक सौ सत्ताईसवें (१२७वें) श्लोक पर्यन्त तेंतीस श्लोकों में अनध्याय का विचार किया गया है। यद्यपि संसार के सब कर्मों के किसी-किसी समय पर जिस किसी प्रकार अनध्याय होने चाहियें। अर्थात् मनुष्यों के चलाये सभी कर्म किसी-किसी उत्सवादि समय विशेष में अवश्य रुक जाते हैं। उस समय वा उन दिनों में कर्मचारी लोग छुट्टी पर समझे जाते हैं। और अनेक अवसरों में वे कर्म परतन्त्रता से मनुष्यों को अवश्य छोड़ने पड़ते हैं। जैसे ईश्वरीय सृष्टि में सूर्य के उदय, अस्त नियमपूर्वक सदा चले जाते, उनका निरोध कभी नहीं दीखता, क्योंकि उन सूर्यादि का नियामक सर्वज्ञ परमेश्वर है। अर्थात् सर्वज्ञ के चलाये नियम में अनध्याय वा निरोध कभी नहीं दीखता। वैसे मनुष्य के चलाये नियमों में नहीं हो सकता, क्योंकि वे अल्पज्ञ हैं। मनुष्य बीच-बीच में थकने, रोगी होने वा उदासीन होने से काम छोड़ देते हैं, उस समय स्वयमेव कार्यों का अनध्याय हो जाता है। जैसे ‘दुर्गन्धरूप प्रान्त में चित्त के व्याकुल होने से मनुष्य को शुभकर्म का आरम्भ नहीं करना चाहिये’, यह        धर्मशास्त्रों में आज्ञा दी गयी है। और अनध्याय करने वा होने का यही प्रयोजन है कि जो उस निकृष्ट देश वा काल वा अवस्था में किया हुआ कर्म अच्छा वा विशेष फल देने वाला नहीं होता, इसलिये वैसे अवसर में निषेध किया गया है। तो भी सब कर्मों के रोकने वा अनध्याय का यहां विचार नहीं किया जाता, किन्तु पठनपाठन विषयक अनध्याय का विवेक करना प्रारम्भ किया है। अन्य विषयों का भी यथावसर विचार वा व्याख्यान होगा।

अधिकांश में तो समय विशेष (कि अमुक-अमुक समय में वेद को न पढ़ना चाहिये) में अनध्याय दिखाये हैं। सो कहीं जैसे उष्णता की अधिकता से ठीक-ठीक पढ़ना नहीं होता, किसी प्रकार उस समय के विशेष परिश्रम से उन्मादादि रोगों का होना भी सम्भव है। तथा अन्य भी चित्त को व्याकुल करने और एकाग्रता को बिगाड़ने वाले विघ्न आ जाने पर वेद नहीं पढ़ना चाहिये। क्योंकि उस समय का पढ़ना सुफल नहीं होता। तथा अनेक प्रदेशों में वेद का पढ़ना निषिद्ध है। जैसे जहां मनुष्यों का अधिक संघट्ट हो, ग्राम, नगर, बाजार आदि वा जहां अधिक दुर्गन्ध हो, ऐसे प्रान्त आदि में वेद नहीं पढ़ना चाहिये। किन्हीं अवस्थाओं में वेद का पढ़ना निषिद्ध है। जैसे- झूठे, सोता हुआ अर्थात् लेटकर वा अशुद्ध, वा मैथुन किये पश्चात् बिना स्नान किये वा बिना वस्त्र बदले वेद को न पढ़े। इत्यादि अवस्थाओं में पढ़ने वाला अच्छे फल को नहीं पाता। इसलिये उस देश, काल और अवस्था में अनध्याय करना चाहिये। देशादि के अनुकूल होने पर भी पर्व अर्थात् अमावास्या, चतुर्दशी और पौर्णमासी तथा अष्टमी को सदा वेद का अनध्याय करे, क्योंकि सदैव काम वा पठन आदि का परिश्रम करते-करते बुद्धि थक जाती है, उसको अवकाश देकर शान्ति करने के लिये अनध्याय मानने चाहियें। इसी अभिप्राय से सब कार्यालयों में विद्वानों ने नित्य, नैमित्तिक अवकाश- छुट्टी देने का नियम चलाया है, कि जिस कारण बुद्धि वा शरीर के स्वस्थ हो जाने से फिर भी ठीक-ठीक काम चलते हैं, क्योंकि प्रतिदिन सब कार्यों में ठीक-ठीक मन नहीं लगता है, इसलिये पर्वों में सदा ही अनध्याय रखने चाहियें। और पर्वों में अनध्याय करने का यह भी प्रयोजन है कि उन दिनों में वेदोक्त रीति से मासेष्टि वा पक्षेष्टि आदि यज्ञों का नैमित्तिक विशेष विधान भी गृह्यसूत्रादिकों में दीखता है। तथा प्रायः ऐसे ही पर्व दिनों में पितृयज्ञ अर्थात् तर्पण-श्राद्ध का विशेष विधान है, अर्थात् उन पर्व दिनों में विशेष देवयज्ञ वा पितृयज्ञ करने के लिये भी पढ़ने-पढ़ाने वालों को अनध्याय रखना चाहिये। और जब विशेष यज्ञादि किये जावेंगे तो आप ही अवकाश न मिलने से नैमित्तिक कार्य में उस वेद के पढ़ने का अनध्याय ही रखना पड़ेगा, इस प्रकार सब अनध्याय प्रयोजन सहित हैं। और मुख्य कर तो वेद ईश्वरीय विद्या है, उसको बड़ी सावधानी और पवित्रतादि के साथ पढ़ना चाहिये, जिससे ठीक तात्पर्य समझ में आवे। और जिस-जिस देश वा काल वा दशा में चित्त के सावधान न रहने से उलटा समझनादि विपरीत वा दुःख होना सम्भव है, तब-तब अनध्याय कहा गया।

कोई लोग प्रतिपदा को अनध्याय मानते वा करते हैं, सो मानवधर्मशास्त्र से विरुद्ध है। क्योंकि उस समय अनध्याय रखना इससे व्यर्थ है कि चतुर्दशी, अमावस्या वा पूर्णमासी को अनध्याय हो चुका। ऐसे ही त्रयोदशी आदि में भी अनध्याय व्यर्थ है, और धर्मशास्त्र से विरुद्ध भी है। इस अनध्याय के प्रसग् में इस ग्रन्थ में जो कोई असम्भव वा विरुद्ध श्लोक होंगे, उनका विचार चतुर्थाध्याय के प्रक्षिप्त प्रकरण में वा भाष्य में देखना चाहिये। यहां इतने ही पर समाप्त करते हैं।

तृतीय अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब तृतीयाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा की जाती है। इस तृतीयाध्याय में कोई-कोई श्लोक प्रक्षिप्त जैसे अनेक साधारण लोगों को जान पड़ेंगे और वास्तव में वे प्रक्षिप्त नहीं हैं, तो उनका समाधान यहां नहीं किया जाता, किन्तु आगे भाष्य में उनके अर्थ का निर्णय होगा, यहां तो केवल जो प्रक्षिप्त हैं, उन्हीं का निश्चय किया जाता है। एक सौ सत्ताईसवां (१२७वां) श्लोक प्रक्षिप्त जान पड़ता है। क्योंकि जब जीवित पितरों का ही श्राद्ध करना वेदोक्त सिद्ध हो चुका तो फिर श्राद्ध का नाम प्रेतकर्म नहीं हो सकता। और छब्बीसवें श्लोक का अट्ठाईसवें श्लोक के साथ सम्बन्ध भी ठीक मिल जाता है, इस कारण से भी सत्ताईसवें का प्रक्षिप्त होना अनुमान से सिद्ध है। तथा प्रेत के लिये कोई कर्म उपयोगी नहीं हो सकता, क्योंकि मरा हुआ शरीर तो जलाने आदि द्वारा पृथिवी में मिल जाता है तथा केवल जीवात्मा कोई सुख-दुःख का भोग नहीं कर सकता, तो प्रेत के लिये किसी प्रकार की क्रिया करना निष्फल है।

एक सौ उनहत्तरवें (१६९) श्लोक से लेकर एक सौ बयासीवें (१८२) श्लोक तक प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं। परन्तु १७१,१७३,१७४ इन तीन श्लोकों को छोड़कर। यद्यपि उक्त प्रक्षिप्त श्लोकों में निन्दारूप अर्थवाद कहा गया है, तो भी अर्थवाद सम्भव, सम्बद्ध और न्याययुक्त ही होना चाहिये। और यहां असम्भव, असम्बद्ध और अन्याययुक्त अर्थवाद प्रतीत होता है। जैसे सोमविक्रयी पुरुष को दिया अन्न विष्ठा हो जाता है। इस कथन से क्या प्राप्त हुआ कि जो विद्वान् को दिया गया, वह अन्न अर्थापत्ति से विष्ठाभाव को न प्राप्त होवे। लेकिन ऐसा तो नहीं देखा जाता, किन्तु अच्छे या बुरे किसी भी व्यक्ति के द्वारा खाया गया अन्न विष्ठा हो ही जाता है। तथा अन्न ही रस आदि के द्वारा रुधिर और मांसादि भाव को प्राप्त होता है। इसी से यह पूर्वोक्त कथन असम्भव वा असम्बद्ध है। और परिवेत्ता कि जिसने बड़े भाई के बैठे रहते विवाह किया, वह दोषी होना चाहिये। उसके साथ में बड़ा भाई और छोटे भाई की स्त्री क्यों अपराधी समझे गये ? उन्होंने क्या अपराध किया था ? अर्थात् कुछ नहीं तो उन दोनों का अपराधी बनाना अन्याय वा अधर्म अवश्य है।

जैसे किसी की चोरी करने वाला चोर और जिसकी चोरी उसने की हो, उन दोनों को अन्यायी राजा के यहां दण्ड के योग्य मानकर दण्ड दिया जावे, तो यह साक्षात् अन्याय है। और धर्मशास्त्र के वचन पक्षपात रहित होने चाहियें, परन्तु वैसे नहीं दीखते, इस कारण उक्त श्लोक प्रक्षिप्त अवश्य हैं, कि जिनमें पक्षपातादि,   धर्म से विरुद्ध वर्णन है।

आगे एक सौ सत्तासीवें (१८७) श्लोक से लेकर दो सौ अस्सीवें (२८०) श्लोक पर्यन्त प्रक्षिप्त हैं। परन्तु १९२, २०६ से लेकर २०९ तक, २१३,२२६,२२८, २३१ से लेकर २३३ तक, २४३, २५१ से लेके २५३ तक और २५९ श्लोकों को छोड़कर शेष १८७ से २८० तक प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं। इन प्रक्षिप्त श्लोकों में अनेक वचन असम्भव हैं। कोई-कोई परस्पर विरुद्ध हैं। और श्राद्ध-तर्पण के विषय में जो पूर्व मैंने वेद का सिद्धान्त ठीक-ठीक दिखाया है, उससे तो सभी प्रक्षिप्त श्लोक विरुद्ध हैं। इसी कारण ऐसे श्लोक विचारशील विद्वानों को अप्रामाणिक पक्ष में छोड़ देने चाहियें, क्योंकि ऐसे वचनों से धर्मशास्त्र में कलट लगता है। जैसे मरीच्यादि ऋषियों से पितृगणों की उत्पत्ति दिखायी है, सो जो ऋषियों से उनकी उत्पत्ति मानी जावे, तो पितृगण अनादि वा सनातन नहीं हो सकते, और ऐसा होने पर मरीच्यादि ऋषियों को तर्पण-श्राद्ध नहीं करना चाहिये, और करें तो पुत्रों का श्राद्ध-तर्पण हुआ, किन्तु पितरों का नहीं। आगे लिखा है कि- ‘ब्राह्मणों को अत्यन्त उष्ण भोजन कराया जावे और वे मौन होकर भोजन करें।’१ सो यह कथन चिकित्साशास्त्र से विरुद्ध है, क्योंकि वैसा भोजन करने से मूत्रकृच्छ्र वा प्रमेहादि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। इसलिये वैसा भोजन किसी को भी न करना वा कराना चाहिये। आगे लिखा है कि- ‘जो शिर बांधकर भोजन करता, जो दक्षिण को मुख करके तथा जो जूता पहन कर खाता है, उस अन्न को राक्षस खा जाते हैं।’२ यदि यह बात सत्य हो तो भोजन करने वाले ब्राह्मणों की कितने ही अन्न से तृप्ति न होनी चाहिये, क्योंकि वे ब्राह्मण (जो प्रत्यक्ष में खा रहे हैं) तो खाते ही नहीं, किन्तु उनके मुख से राक्षस खा जाते हैं। सो सम्भव नहीं। भोजन करने वाले प्रत्यक्ष में तृप्त हुए दीख पड़ते हैं। इस कारण उक्त कथन ठीक नहीं है। आगे लिखा है कि- ‘निषिद्ध वा मूर्खादि नाममात्र का ब्राह्मण वा शूद्रादि भोजन करते हुए ब्राह्मणों को न देखे और देख लेवे तो श्राद्ध करना निष्फल है।’३ इत्यादि कथन ठीक नहीं, क्योंकि कहारादि सेवक वहां अवश्य रहते वा रहने चाहियें और वे न रहें तो सेवा ही कौन करे ? तथा कहीं यजमान भोजन कराने वाला ही मूर्ख हो तो वह भी देखेगा। तथा मक्खी-मच्छरादि भी उनको अवश्य देखेंगे। तो ऐसी अनेक दशा हो सकती हैं, कि जिनसे श्राद्ध का फल हो सकना बहुत कठिन है। और जब अनेक जीव-जन्तुओं के मांस से पितरों की अनन्त वा अक्षय तृप्ति दिखायी है, तो फिर मासिक, पाक्षिक, वार्षिक वा नित्य श्राद्ध करना निष्फल है, एक ही बार में अनन्त तृप्ति क्यों नहीं कर दी जाती, जो बार-बार न करना पड़े ? अर्थात् यह बात असम्भव है कि एक दिन का खाया महीने भर वा वर्षभर तक न पचे। इसलिये अन्य भी ऐसे आशय के श्लोक प्रक्षिप्त ही मानने चाहियें। पृथक्-पृथक् विशेष विचार आगे भाष्य में किया जायेगा। इस उक्त प्रकार से इस तृतीयाध्याय के सब दो सौ छियासी (२८६) श्लोकों में से नब्बे (९०) श्लोक प्रक्षिप्त और शेष एक सौ छियानवे (१९६) श्लोक सब विचारशील महाशयों को ठीक समझने चाहियें।

पिण्डदान और अन्य के किये कर्म का फल अन्य को पहुँचता है वा नहीं इत्यादि विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

पिण्डदान और अन्य के किये कर्म का फल अन्य को पहुँचता है वा नहीं इत्यादि विचार

इससे पूर्व जो श्राद्ध के विषय में कह चुके हैं, उससे यह सिद्ध हो गया कि मानवधर्मशास्त्र का सिद्धान्त जीते हुए ज्ञानी पुरुषों का श्रद्धापूर्वक भोजनादि से सत्काररूप श्राद्ध करना है। और मरों के श्राद्ध की कल्पना करना धर्मशास्त्र के सिद्धान्त से विरुद्ध है, इसके प्रमाण भी पूर्व दिये हैं। इस विषय में कई लोग कहते हैं कि श्राद्धरूप मृतकों को पिण्डदान देने से ही दायभाग ठीक बनता है। क्योंकि धर्मशास्त्र के अनुसार जो जिस मृतक पितादि को पिण्ड देने का अधिकारी नियत किया गया हो वा जिसका दिया पिण्ड मृतक को पहुंच सकता है, वही उस मृतक के धनादि का भागी हो सकता है, इसका विवेचन आगे दायभाग के प्रकरण में किया जायेगा।

कई लोग इस श्राद्ध विषय में यह भी कहते हैं कि जगत् में अन्य के किये कर्म के फल को अन्य भोगता है, तो पुत्र के किये श्राद्ध का फल पिता को क्यों नहीं प्राप्त होता ? यदि कहो कि नहीं भोगता तो यह प्रत्यक्ष से ही विरुद्ध है। जैसे पिता के उपार्जन किये धन से पुत्र सुख का अनुभव करता, पिता के बनाये घर में पुत्र रहता और पिता की लगायी वाटिका आदि से पुत्र सुख पाता है। तथा एक कमाता और अनेक पोषण योग्य स्त्री-पुत्रादि सुख भोगते हैं। इस प्रकार के सहस्रों उदाहरण मिलेंगे जिनमें अन्य के किये कर्म का अन्य फल भोगता है।

अब इसका कुछ समाधान दिखाते हैं। अन्य के किये कर्म का फल अन्य भोगता है, यह कहना नहीं बन सकता। जैसे जो पुरुष कुपथ्य भोजन करता है, उसी के पेट में पीड़ा होती है, अन्य के में नहीं। जो खाता है, उसी की भूख मिटती है, अन्य की नहीं इत्यादि। तथा जैसे पाचक वा स्त्री भोजन बनाती और भात आदि फल स्वामी भोगता है, यहां प्रत्यक्ष में यद्यपि अन्य के किये कर्म का अन्य को फल पहुंचता जान पड़ता है, तथापि उस पुरुष के सामयिक वा पूर्व के कर्म भी ऐसे हैं, जिनके अनुसार उसको पाचक वा स्त्री का भोजन मिले, यह भी उसी के कर्म का फल हुआ। और भार्या-पुत्रादि का भोजन कर्म यदि स्वामी की प्रसन्नता के लिये है, तो उसकी तृप्ति सन्तुष्टि में उनको फल प्राप्ति कही जा सकती है। इस कारण यहां भी कर्त्ता ही फल भोगता है। सो यह महाभारत में भी कहा गया है- ‘एक ही मनुष्य पाप करता है और वही फल भोगता है अर्थात् सब अपने-अपने किये शुभ-अशुभ कर्म के उत्तरदाता हैं, कोई किसी के करने भोगने में साथी नहीं हो सकता, तात्पर्य यह है कि स्त्री-पुत्रादि के पालन-पोषण के लिये जो पुरुष अधर्म, अन्याय, छल, कपटादि द्वारा भोजन वस्त्रादि वा धन को उत्पन्न करता है, वही कर्त्ता अपराधी वा पापी है, और स्त्री-पुत्रादि भोगने वाले छूट जाते हैं।’१ तथा यही तात्पर्य मनुस्मृति के चतुर्थाध्याय में भी कहा है- ‘एकाकी मनुष्य उत्पन्न होता वा एकाकी ही मरता है। तथा एकाकी ही पाप-पुण्य का फल भोगता है अर्थात् कोई किसी का साथी वा सहायक नहीं हो सकता कि भुगवा लेवे।’२ इस प्रकार के अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध है कि इस जन्म में संचित किये पाप वा पुण्य का कर्त्ता ही जन्मान्तर में सुख वा दुःख को प्राप्त होता है। किसी प्रकार दोनों के वर्तमान समय में प्रत्यक्ष दशा में एक के किये कर्म का फल दूसरा भोगे वा सञ्चयकर्त्ता के न रहने पर उसके संचित भोग-साधनों की विद्यमानता में उसके निकटवर्त्ती पुत्रादि सुख-दुःख भोगें। परन्तु इतने से पुत्र के किये श्राद्ध का फल पिता नहीं पा सकता, क्योंकि उक्त दृष्टान्त इस कथन से ठीक सम्बन्ध नहीं रखते, किन्तु यदि ऐसा कोई दृष्टान्त मिले कि जो पुरुष मर गये, उनको किसी ने अब तक सुख-दुःखादि यहां के किये कर्म से पहुंचाया हो और इसका कोई प्रत्यक्ष दृष्टान्त मिल सके, तो इस प्रसग् में लग सकता है। अर्थात् इस कथन का यहां तात्पर्य यह है कि जहां-जहां अन्य के किये कर्म का फल अन्य भोगता है, ऐसा व्यवहार किसी प्रकार कर सकते हैं, वहां-वहां सुख-दुःख का साधन बाग वा    धनादि भोगने वाले के प्रत्यक्ष ही होता है। और जहां सुख वा दुःख का साधन प्रत्यक्ष नहीं है, वहां फल का होना भी असम्भव है। जैसे बिना जल के प्राप्त हुए जल से दूर होने वाली प्यास निवृत्त नहीं होती, अथवा बिना रोग हुए रोग से होने वाला दुःख भी नहीं हो सकता। इसी प्रकार पुत्र का किया सुख का साधन यहां है, उससे होने वाले सुखरूप फल को मरे हुए परोक्ष पितृ लोग प्राप्त हों, यह असम्भव है। क्योंकि जहां दीपक होगा, वहीं प्रकाश होगा। और पिता जो धनादि पदार्थ छोड़ जाता है, वे पदार्थ सुख वा दुःख भोगने वाले के पास रहते हैं, इस कारण पिता के किये का फल पीछे पुत्र भोग सकता है, और पुत्र का किया जन्मान्तर में पिता को नहीं पहुंच सकता, क्योंकि वे सब पदार्थ यहां हैं। जैसे अन्य के भोजन कर लेने से अन्य की क्षुधा निवृत्त नहीं होती, वैसे यहां किन्हीं ब्राह्मणों के खवा देने से मरे पितरों की क्षुधा नहीं दूर हो सकती। यदि कोई कहे कि किये हुए कर्म से धर्म-अधर्म का संचय होता है, और वह जन्मान्तर में भी जीवात्मा के साथ जाकर फल देता है, वहां साधन कोई नहीं जाते, धनादि सब यहीं पड़े रहते हैं, और संचित धर्म-अधर्म का जीवात्मा के साथ जाना जन्मान्तर में न माना जावे, तो नास्तिकपन आता है। सो जैसे जन्मान्तर में कर्त्ता को धर्म-अधर्म का फल पहुंचता है, वैसे ही पुत्रादि के किये का पिता को पहुंचना चाहिये। इसका उत्तर यह है कि संचितकर्म वासनारूप होता है, वह कर्त्ता के अन्तःकरण से सम्बन्ध रखता हुआ वहीं वासनारूप से ठहरता है, और उसी कर्त्ता को वर्तमान जन्म वा जन्मान्तर में फल देता है। जैसे अन्य के किये का अन्य को स्मरण नहीं आता। जैसे किसी ने अज्ञान से किसी उपकारी मित्र वा पुत्रादि का वध किया हो, उसको जब-जब स्मारक निमित्त के मिल जाने से स्मरण आ जाता है, तब-तब मानस दुःखरूप अग्नि भीतर ही भीतर शरीर को जलाता है। तथा अन्य कोई घातक अन्य के किये काम से दुःखित हो, यह किसी प्रकार सम्भव नहीं। इस प्रकार इस उक्त कथन से सिद्ध हो गया कि अपने किये कर्म का आप ही जन्मान्तर में फल भोगता है। वर्तमानदशा में तो अन्य के किये कर्म के फल को अन्य भी कोई पाता है।

अब इसी उक्त कथन से सिद्ध हो गया कि यहां किये पिण्डदानादि का फल जन्मान्तर में पितर नहीं पाते। यदि पावें तो सब सुखी ही रहें, दुःखी कोई न हो। क्योंकि संसार में जितने मनुष्य उत्पन्न हुए हैं, उन सबके श्राद्ध-तर्पण करने वाले तो होंगे ही। तो सबको भूख-प्यास निवृत्तिरूप फल पहुंचना चाहिये, पर ऐसा नहीं दीखता। इस पौराणिकपक्ष में अनेक विकल्प वा शटाएं उत्पन्न होती हैं, कि- जो मनुष्य मरते हैं, वे क्या पृथिवी पर मनुष्यादि योनि में नहीं आते ? यदि उनको मनुष्यादि योनि इस पृथिवी पर नहीं मिलती, तो कहां जाते हैं ? और जो पृथिवी पर आकर मनुष्यादि योनि को प्राप्त होते हैं, तो श्राद्ध में बुलाते समय कैसे आते हैं ? अर्थात् उस-उस योनिस्थ शरीरों सहित श्राद्ध में आवें, तो सबको क्यों नहीं दीख पड़ते ? तथा लोक में ऐसा कहीं नहीं दीखता कि कोई किसी के यहां पूर्वजन्म के सम्बन्ध से श्राद्ध में मन्त्रद्वारा बुलाने पर जाता हो। और शरीर छोड़कर जीवमात्र श्राद्ध में जावे तो उतने काल तक उनके शरीर मरे पड़े रहें, यह भी नहीं दीखता अर्थात् यह सब प्रत्यक्ष प्रमाण से ही विरुद्ध है। और जो मरे हुए प्राणी पृथिवी पर जन्म नहीं लेते, तो मरकर कहां जाते हैं ? यदि पितृलोक में जाते हैं, तो वह पितृलोक कहां है ? क्या वह पितरों का ही लोक वा स्थान है ? तो पुत्र मर कर कहां जाते हैं ? यदि पुत्र भी वहां जाते हैं, तो पुत्रलोक वा भ्रातृलोक क्यों नहीं माना जाता ? तथा मरकर यदि सभी प्राणी अन्य लोकों में उत्पन्न होते हैं, तो पृथिवी पर नये-नये जीवात्मा कहां से आकर जन्म लेते हैं ? यदि घट आदि अनित्य वस्तुओं के तुल्य जीवात्मा नहीं बनते वा बनाये जाते तो असंख्य मानने पर भी फिर लौटकर न आने से अभाव हो जाना सम्भव है। अर्थात् कोई वस्तु कितना भी अधिक असंख्य क्यों न हो, उसमें से व्यय मात्र होता रहे और नवीन संचित न किया जाय, तो कभी न कभी सबका निपट जाना सम्भव है। और जीवात्माओं की नवीन उत्पत्ति मानी जावे तो पहला जन्म निष्कारण क्यों हुआ ? (अर्थात् ऐसा मानने वाले के मत में कृतहानि और अकृताभ्यागम दोष भी अवश्य आवेगा, क्योंकि जन्म होते समय जो जीवात्मा की उत्पत्ति शरीर के तुल्य मानी जावे तो मरते समय शरीर के तुल्य नाश होना भी सम्भव है। इस दशा में जब कोई मनुष्य ऐसे शुभकर्म करता-करता मर गया, कि जिनको मरते समय पूरा किया और फलभोग का समय आते ही मर गया जैसे भोजन बनाकर ठीक कर चुका खाने से पहले मर गया वा बड़े परिश्रम से वाटिका तैयार की और फल लगने का समय आया तभी वह मर गया इत्यादि। ऐसी दशा में आगे जन्म होने वाला नहीं, जिसमें अन्त तक किये पाप वा पुण्य का फलभोग मिलेगा फिर अच्छे कर्म करने की प्रशंसा और बुरे काम की निन्दा दोनों नहीं बन सकती। यह कृतहानि दोष है। और जो नया जीवात्मा शरीर के साथ उत्पन्न हुआ, उसको विशेष सुख वा दुःख क्यों मिला ? क्योंकि उसने तो पहले अच्छा वा बुरा कोई कर्म किया ही नहीं। यह अन्याय वा विरुद्ध है कि जिसने अच्छा वा बुरा कर्म नहीं किया, उसको सुख वा दुःख विशेष मिल जाना। यही अकृताभ्यागम दोष है कि नहीं किये की प्राप्ति और किये का फल न मिलना कृतहानि दोष है।) और ऐसा होने पर धर्मशास्त्रों के वचन भी खण्डित होंगे ‘सत्त्वगुणी लोग देवता होते, रजोगुणी मनुष्य और तमोगुणी पशु आदि कीटपतगदि योनियों में जन्म लेते हैं, इस प्रकार तीन प्रकार की गति है।’१ इस कथन से ठीक सिद्ध है कि मरते समय जीवात्मा रहता है, किन्तु शरीर के तुल्य नष्ट नहीं हो जाता, और वही कर्मानुकूल जन्मान्तर धारण करता है, इससे नवीन भी उत्पन्न नहीं होते। यदि इसको ठीक मानें तो वह खण्डित है, और उसके मानने पर इस पक्ष का खण्डन होता है। इससे सिद्ध हो गया कि प्रायः रजोगुणी सर्वसाधारण मनुष्य पृथिवी पर बार-बार मनुष्ययोनि को पाते हैं। इसी प्रमाण के अनुकूल जिनके पितर मनुष्ययोनि में आ गये, वे लोग जब श्राद्ध-तर्पण करते हैं, तब उस श्राद्ध-तर्पण के फल से जन्मान्तर में अन्य शरीर धारण करने वाले पितरों की भूख-प्यास क्यों नहीं निवृत्त हो जाती ? यदि होती है तो सभी मनुष्यों के पूर्वजन्म में कोई न कोई पुत्रादि रहते ही हैं, और प्रायः मरों का श्राद्ध किया ही जाता है, तो उनको श्राद्ध के प्रायः दिनों में सभी को भूख-प्यास न लगनी चाहिये, पर ऐसा नहीं दीखता। इस प्रकार के सहस्रों प्रश्न मरों को श्राद्ध देनेरूप पौराणिक पक्ष में हो सकते हैं, जिनका समाधान असम्भव है। और हमारे पक्ष में तो उनका समाधान ही है, क्योंकि ऐसे प्रश्न ही नहीं उठते। और जीवित चेतन पितरों का श्राद्ध करने वालों के मत में ज्ञाननिष्ठ सत्त्वगुणी पुरुषों को जो लोक- नाम स्थान है, वही पितृलोक जानो। जिस प्रदेश वा देश में मानस कर्म में प्रधान विचारशील ज्ञानी लोग निवास करते हैं, वह पितृलोक है वा उन पितरों के समुदाय-मेल का नाम पितृलोक है। जिनके लिये मरने के पश्चात् शास्त्रों में पितृलोक में जाना सुनते हैं, वे पुरुष शरीर छोड़ने के पश्चात् वैसे पूर्वोक्त पितृजनों के समुदाय वा प्रदेश में अर्थात् पितरों के घरों में जाकर जन्म लेते हैं। भगवद्गीता में भी लिखा है कि- ‘अधूरे योगी लोग मरणान्तर योगी लोगों के कुल में ही जन्म लेते हैं।’१ परन्तु यह दुर्लभ अर्थात् ऐसा जन्म होना सर्वोत्तम है, कि जिसमें फिर भी योगाभ्यास करके शीघ्र अपने इष्ट कल्याण को प्राप्त हो सकते हैं, कि जिसके लिये पूर्वजन्म में मरणपर्यन्त यत्न करते रहे और अन्त में यह आशा रह गयी कि यह मेरा काम पूरा सिद्ध न होने पाया, काल आ गया, तथा वाणी सम्बन्धी पुण्य जिन्होंने मुख्य कर किया है, उनके समुदाय वा कुलों में वे लोग उत्पन्न होते हैं, जिनके लिये मरणान्तर शास्त्रों में देवलोक का जाना लिखा है। इसी प्रकार सर्वत्र व्यवस्था लगानी चाहिये। यहां संक्षेप से श्राद्ध-तर्पण का विवेचन किया गया। अब तृतीयाध्यायस्थ श्लोकों में से प्रक्षिप्त का विचार किया जायेगा।

श्राद्ध-तर्पण विषय में अनेक शंकाओं का समाधान : पण्डित भीमसेन शर्मा

श्राद्ध-तर्पण विषय में अनेक शंकाओं का समाधान

अब इस पूर्वोक्त विचार पर पौराणिक लोग कहते हैं कि- जैसा श्राद्ध और तर्पण तुमने पूर्व कहा, वैसा वेद और मनु आदि धर्मशास्त्रों के अनुकूल हो सकता है क्या ? मन्त्रभाग संहिता, ब्राह्मण, उपनिषद्, गृह्यसूत्र, स्मृति, इतिहास- महाभारतादि और पुराण आदि श्रेष्ठ लोगों के माने हुए सम्पूर्ण पुस्तकों में मरे पितृ लोगों को श्रद्धा से पिण्डादि देना श्राद्ध है, ऐसा वर्णन किया गया है। और वैसे ही अनादिकाल की परम्परा से सब लोग श्राद्ध करते आते हैं। वेदों में भी पितरों के आह्वान और पिण्ड रखने का मन्त्र- “आयन्तु नः पितरः सोम्यासोऽग्निष्वात्ताः पथिभिर्देवयानैः। पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः है। इत्यादि मन्त्रों में श्राद्ध का वर्णन किया है। शतपथ ब्राह्मण में भी लिखा है कि- ‘नीवि को छोड़ छह बार नमस्कार करे।’३ और ‘कुशों पर पिण्ड धरके, हाथ झार दे वा धो डाले।’४ इत्यादि प्रकार मनुस्मृति में भी श्राद्ध का पूरा विधान दिखाया है। गयाश्राद्ध से पितृजनों की मुक्ति हो जाती है, इसको सब शास्त्रकार मानते हैं। और नैत्यिक वा गयाश्राद्धादि करके पितरों को तारने के लिये ही पुत्रों की आवश्यकता है, सो कहा भी है कि- ‘पुत्रहीन अर्थात् निर्वंशी की अच्छी गति नहीं होती।’५ इस प्रकार मरे हुए पितरों का श्राद्ध सर्वसम्मत है, तो जो कोई लोग उस पर विश्वास नहीं करते वे नास्तिक हैं। और अथर्ववेद में स्पष्ट ही मरे हुए पितरों का तर्पण लिखा है कि- ‘जो मरे, जीते, प्रकट हुए और यज्ञ सम्बन्धी पितर हैं, उन सबके लिये सहतयुक्त जल की धारा प्राप्त हो।’६ इत्यादि प्रकार मरे हुए पितरों का तर्पण-श्राद्ध वेदादि शास्त्रों में लिखे अनुसार सबको माननीय सिद्ध होता है।

ऐसे उक्त प्रश्न का अब समाधान- उत्तर दिया जाता है, ध्यान पूर्वक सब महाशयों को देखना चाहिये- इसमें कुछ भी सन्देह नहीं कि जो वेद से भिन्न ब्राह्मणादि ऋषिप्रणीत पुस्तकों में भी जिस किसी प्रकार मरे हुए पितरों का श्राद्ध मिलता है। इतने मात्र से वह कर्त्तव्य हो नहीं सकता, क्योंकि वह इस समय साध्यकोटि के अन्तर्गत है। अर्थात् आर्ष पुस्तकों में भी स्वार्थी लोगों ने जब अनेक स्वार्थ-लीला की बातें मिला दीं, जिनको सभी विचारशील विवेकी लोग ऊटपटांग वा असम्भव समझते हैं। जिन बातों को लड़के भी अच्छा नहीं समझते, जो सभ्यता से सर्वथा विरुद्ध हैं। तो वैसे ही अनेक शास्त्रीय प्रमाण और युक्तियों से विरुद्ध होने के कारण मरे हुओं का श्राद्ध भी आर्ष पुस्तकों में मिला दिया, ऐसा अनुमान होता है। और अनेक स्थलों में मरों का श्राद्ध नहीं है, वहां भी बुद्धि के भ्रान्त होने से वैसा ही दीखता है, उसका कारण अज्ञान है। मरे हुए पितरों का यदि अनादिकाल से श्राद्ध चला है, तो सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए ब्रह्मा आदि ने किन मरे पितरों का श्राद्ध किया ? और जब मरीच्यादि ऋषियों से अग्निष्वात्तादि पितृगणों की उत्पत्ति दिखायी है, तो मरीचि आदि ने भी तर्पण श्राद्ध नहीं किये क्या ? और यदि किये तो क्या पितरों के स्थान में अपने पुत्रों का तर्पण श्राद्ध किया, ऐसा तुम लोग मानते हो ? क्योंकि जिनको तुम लोग अनादि पितृगण मानते हो, वे मरीच्यादि ऋषियों से उत्पन्न हुए हैं, उससे पहले वे थे ही नहीं। इससे मरों का श्राद्ध अनादिकाल से चला, यह ठीक नहीं। यदि कोई कहे कि निर्मूल वृक्ष खड़ा नहीं हो सकता, इस न्याय से निर्मूल श्राद्ध कैसे चल गया, तो इसका   समाधान सुनो- जब पूर्वोक्त प्रकार से ज्ञानी पुरुषों का अन्नादि उत्तम सामग्री से सत्कार रूप श्राद्ध करना, हम लोग सनातन सिद्ध करते हैं, तब निर्मूल श्राद्ध नहीं हुआ। क्योंकि ब्रह्मा और मरीचि आदि भी ऐसा श्राद्ध कर सकते थे अर्थात् उस समय भी ब्रह्मादि से भिन्न अन्य ज्ञानी लोग विद्यमान रहे। इससे हमारे मत में नित्य परम्परा से श्राद्ध करना बन सकता है। और मरे हुओं के श्राद्ध में जीवितों का श्राद्ध मूल है, इससे निर्मूल नहीं कह सकते। दोनों पक्षों में श्राद्ध तो कर्त्तव्य ही है अर्थात् उसके कर्त्तव्य होने में कुछ भी विवाद नहीं, किन्तु प्रकार में और फल में विवाद है कि श्राद्ध किस प्रकार और किसलिये करना चाहिये। पौराणिक लोग कि जिनका पक्ष है कि मरों का श्राद्ध कर्त्तव्य है। वे भी प्रत्यक्ष में जीवित लोगों का ही सत्कार रूप श्राद्ध करते हैं। अर्थात् मरे हुए पितृ जन कहीं आकर भोजन करते हों, ऐसा कोई नहीं मान सकता। केवल हठपूर्वक कहते रहना ही विवाद का स्थान है। और फल में विवाद यह है कि श्राद्ध करने वाला फलभागी होता है, किन्तु मरे पितरों को फल नहीं पहुंचता, यह सिद्धान्त पक्ष है। और अन्य लोग कहते हैं कि नहीं मृत पितरों को श्राद्ध का फल पहुंचता है। सो यह पक्ष इसलिये भी ठीक नहीं, सब शास्त्रकार पुकार-पुकार कहते हैं कि जो जैसा कर्म करता है, उसको अगले जन्म में वैसा फल अवश्य मिलता है। यदि किसी के पिता ने अधिकांश अधर्म किया और शास्त्र की मर्यादा वा न्यायानुकूल उसको नरक रूप दुःख भोग मिलना चाहिये। परन्तु उसका पुत्र श्राद्ध करके अच्छा फल पहुंचा रहा है, तो क्या होना चाहिये ? यदि पूर्व कर्मानुसार उसको दुःख मिले, तो श्राद्ध फल पहुंचना नहीं बनेगा और श्राद्ध का फल पहुंचकर सुख मिला, तो बुरे कर्मों का नियत फल कहने वाले शास्त्र व्यर्थ हुए। और जिसके पूर्व से ही अच्छे कर्म हैं, उससे बुरे कर्मों वाले का भेद ही क्या रहा ? दोनों ही सुखभागी हुए तो अच्छे कर्म वा धर्म का उद्योग करना निष्फल हुआ अर्थात् इन दो बातों में एक ही सिद्ध हो सकती है कि चाहे परलोक सहायार्थ धर्म की आवश्यकता ठहरा लो और चाहे श्राद्ध को परलोक सहायक मान लो। इस दशा में जिन लोगों ने पुत्र उत्पन्न किये और श्राद्धादि करने की उनको ठीक-ठीक शिक्षा भी कर दी तो वे भले ही मरण पर्यन्त पाप किया करो, पुत्र लोग गयादि श्राद्ध करके जन्मान्तर में तो तार ही देंगे, फिर ऐसी दशा में धर्म करने का उपदेश करने वाले सब धर्मशास्त्र मिथ्या होंगे। और धर्मशास्त्रकार इससे विरुद्ध स्पष्ट पुकार-पुकार कर कहते हैं कि- ‘परलोक अर्थात् जन्मान्तर में सहायता करने के लिये पिता-माता और स्त्री-पुत्रादि नहीं ठहर सकते अर्थात् तेरे सहायक जो माता-पिता, स्त्री-पुत्रादि यहां प्रत्यक्ष में हैं, वे वहां साथ नहीं जायेंगे, जैसे यहां तेरे सुख-दुःख में साथी हो जाते हैं, वैसे वहां न पहुंचेंगे, और वहां कुछ सहायता नहीं पहुंचा सकेंगे अर्थात् जैसे यहां तुझ पर किसी बुराई का फल विपत्ति आ पड़े तो यथाशक्ति ये सब सहायता करते वा कर सकते हैं, वैसे यहां के किये अधर्म की विपत्तिरूप दुःख की प्राप्ति में ये लोग कुछ भी सहायता न कर सकेंगे। इन लोगों के भरोसे तू कदापि पाप न कर कि ये किसी प्रकार श्राद्धादि द्वारा मुझे कुछ सुख पहुंचावें। किन्तु एक धर्म ही तेरी सहायता करेगा, जिसका तुमने यहां उपार्जन किया होगा।’१ इस कारण पिता-मातादि को भी सुख पहुंचाने के लिये तू अधर्म न करके अपना परमार्थ सुधारने के लिये यहां धर्म का उपार्जन कर। इस पूर्वोक्त कथन से स्पष्ट सिद्ध होता है कि मानवधर्मशास्त्र के सिद्धान्त से भी श्राद्ध का फल मरे हुए पितृ लोगों को नहीं पहुंचता।

हम इस अंश का विचार पूर्वक अनुसन्धान करते हैं कि मृतकों के श्राद्ध की परिपाटी क्यों चली तो अनुमान होता है कि पहले जब कोई मरता था, तब उसके सम्बन्धी लोग अब के तुल्य शोकसमुद्र में डूबते थे, ऐसी दशा देखकर उनके उपदेशक गुरु लोग उपदेश द्वारा अपने शिष्यों का शोक दूर करने के लिये स्वयं आते वा शिष्यों के बुलाने पर आकर उनके शोक की निवृत्ति का उपाय करते थे और उस समय शिष्य लोग उनका सत्कार विशेषकर इस कारण करते थे कि शोक-निवृत्ति होने से उनका अन्तःकरण उन्हीं के द्वारा प्रसन्न होता था। यह परम्परा कुछ काल तो ठीक-ठीक चली, पीछे अविद्या में फँसे लोगों ने आप ही कल्पना कर ली होगी कि इन ब्राह्मणों का सत्कार करने से मृतक लोगों की तृप्ति होती है। तब से लेकर मरे हुओं का श्राद्ध प्रवृत्त हुआ, ऐसा अनुमान हो सकता है। अथवा ज्ञानी लोगों का सत्कार, सेवन भी पुण्य कर्म है, वह पुण्य यदि शोक समय में किया जाय, तो शोक की निवृत्ति होना सम्भव है, इस कारण शोक समय में पुण्य करना चाहिये, अथवा किसी के मरने पश्चात् शेष रहे मरे के सम्बन्धी भाई आदि शोक से व्याकुल होने के कारण किसी प्रकार धनादि पदार्थों से विरक्त होते हैं, उस समय भोजनादि का दान उनसे सुगमता के साथ किया जाता वा हो सकता है। क्योंकि शोक और उत्सव से भिन्न समय में कोई उदार ही पुरुष धन का व्यय कर सकता है, किन्तु कृपण वा साधारण मनुष्य का साहस नहीं पड़ सकता कि वह प्रत्येक समय धन का व्यय कर सके। इस प्रकार अनेक दीर्घदर्शी विचारशील पूर्वज लोगों ने मरने पश्चात् और पुत्रादि की उत्पत्तिरूप उत्सव समय में दान पुण्य और ज्ञानियों के सत्कार करने का उपदेश किया कि जिससे कृपण लोग भी लोकलज्जा वा दबाव आदि से ही कुछ धर्म अवश्य कर सकेंगे। इसी अंश को कुछ काल पीछे मूर्खों ने मरों की तृप्ति पर लगा दिया कि मरने पश्चात् किये हुए दान-पुण्य और सज्जनों के सत्कार का फल मरे हुओं को पहुंचता है और उनको फल पहुंचाने के लिये ही मरणानन्तर किया जाता है, ऐसी कल्पना करके कुछ काल पीछे पिण्डादि बनाकर कुशों पर रखने की कल्पना भी कर ली गयी। और उस अपने अनुभव वा अनुमानरूप पिण्डादि रखने की परिपाटी को अनेक सद्ग्रन्थों में भी मिलाया कि जिससे आगे बराबर चली जावे। ऐसा अनुमान से प्रतीत होता है। इस प्रकार इस अन्यथा चले मृतकश्राद्ध का मूल सत्य सनातन श्राद्ध है, इससे निर्मूल नहीं और न मृतकश्राद्ध अनादिकाल से प्रवृत्त सनातन है, यह सिद्ध हुआ।

और एक यह भी अनुमान होता है कि कदाचित् विद्या का पढ़ना और ब्रह्मचर्य आश्रम का सेवन जब किन्हीं कारणों से छूटा वा आलस्यादि अवगुण अधिक बढ़े, तो अनेक उदरम्भर, स्वार्थी, धर्मध्वजी नाममात्र के ब्रह्मणों ने विचारा हो कि अब हम लोग श्राद्ध के योग्य (जैसे कि मनु आदि शास्त्रों में लिखे हैं) नहीं रहे, तो हमको श्राद्ध में कोई न बुलावेगा। और श्राद्ध भी कोई न करेगा तो यह युक्ति अच्छी है कि मरों का नाम लगा देने से लोग अवश्य श्राद्ध करेंगे। और श्राद्ध होंगे, तो हमको भोजन भी कराया ही जावेगा। कोई भी मनुष्य अपने नाम से भोजन वा दान-दक्षिणा नहीं मांग सकता, मांगे तो संकोच होता है, परन्तु अन्य के लिये वैसा संकोच नहीं होता, इस कारण मृत पितरों को फल पहुंचने के लिये भोजन, दान-पुण्य आदि का उपदेश चलाया हो, यह सम्भव है। यदि ऐसा हो तो चलाने वाले विशेष कर अधर्मी हुए और पहले विचारानुसार चला तो अज्ञान मूल कारण हुआ।

यदि बहुत काल से वा ऋषि और आर्यराजाओं के समय से ही कदाचित् मृतकों का श्राद्ध चला आया हो और बहुत काल से प्रवृत्त होने के कारण यदि प्रामाणिक ठहर जावे तो क्या चोरी बहुत काल से नहीं चली आती है ? क्या चोरी आदि अधर्म बीच से चले गये ? और क्या बहुत काल से चोरी भी चली आती है तो अच्छे लोग भी चोरी करें ? इसका अभिप्राय यह नहीं कि श्राद्ध भी चोरी के तुल्य नीच कर्म है, किन्तु तात्पर्य यह है कि मृतकों के उद्देश से श्राद्ध करना श्राद्ध के मुख्य अभिप्राय पर नहीं पहुंचाता, इसी से श्राद्ध विषयक वेदादिशास्त्रों की आज्ञा का पालन हुआ भी नहीं कहा जा सकता, तथा कुछ व्यर्थ भी करने पड़ता है। और (आयन्तु नः०) इत्यादि मन्त्रों का अर्थ ज्ञानी लोगों के पितृ मानने में ही निर्दोष और ठीक बनता है। किन्तु मरों के पितृ मानने में नहीं। ‘सोम नाम शान्ति वा सहनशीलता रखने के योग्य तथा आहवनीयादि अग्नि के ग्रहण करने हारे अर्थात् ब्रह्मचर्यादि आश्रमों का धर्मपूर्वक वेदोक्त रीति से सेवन करने वाले हमारे रक्षक पितर लोग श्रेष्ठ पुरुषों की चाल के साथ आवें।’ इस अर्थ से मरे पितरों के आह्वान का कुछ भी संकेत नहीं, और न कोई ऐसा विशेषण है कि जिससे मरे पितृ लोग ही समझे जावें। उक्त सोम्यास आदि विशेषण मरों में कदापि घट भी नहीं सकते। कदाचित् अग्निष्वात्त पद का कोई यह अर्थ करे कि अग्नि में जलाये वा भस्म किये गये। और कोई लोग यह भी कह सकते हैं कि अग्निष्वात्त शब्द का अर्थ तुम्हारा ही ठीक रहे वा अन्य हो तो भी पितरों के श्राद्ध प्रकारणस्थ वेदमन्त्रों में- “ये अग्निदग्धा अनग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते” इत्यादि मन्त्र भी आते हैं, जिनका बहुत स्पष्ट होने से अर्थ बदला भी नहीं जा सकता, क्योंकि “दह भस्मीकरणे” धातु का रूप ही दग्ध होता है अर्थात् ‘जो पितर अग्नि से जले वा अग्नि से न जले हों, ऐसे पितरों को हविष्य खाने के अर्थ मैं बुलाता हूं।’ अब इसका भी उत्तर विचारने योग्य है कि अग्नि से पितरों का जलना कैसे हो सकता है ? पितर नाम यदि शरीर का रखो, तो यह बात घट सकती है कि अग्नि से जले पितर, परन्तु जो शरीर अग्नि से जला दिया गया, वह उसी समय भस्म हो गया, अब उसको श्राद्ध में बुलाना वा उसके लिये श्राद्ध का फल पहुंचाना, दोनों बातें असम्भव हैं। यदि पितर नाम जीवात्मा का मानो, जिसका बुलाना बन सकता है परन्तु वह अग्नि से नहीं जलाया गया, क्योंकि शरीर के जलाने से पहले ही वह निकल गया और उसके निकल जाने से ही शरीर जलाया गया। तो उन जीवात्माओं के साथ अग्निदग्ध विशेषण लग ही नहीं सकता। यदि कहो कि चेतन शरीर का नाम पितर है, तो चेतन शरीर भी जलाया नहीं गया। इस प्रकार किसी रीति से मृतकों के श्राद्ध पक्ष का अर्थ नहीं बनता और इसी प्रकार जीवात्मा को किसी का पिता वा पुत्र भी नहीं कह सकते, क्योंकि श्वेताश्वतरोपनिषद् में स्पष्ट निषेध भी किया है कि- ‘आत्मा कोई किसी का पिता-पुत्रादि नहीं, किन्तु जब तक शरीर के साथ संयोग रहा, तब तक पिता-पुत्रादि नाम से माना गया।’१ इससे जीवात्माओं को पीछे किसी के पितर कह भी नहीं सकते। तथा इसी प्रकार “मृताः” यह भी पितरों का विशेषण नहीं बनता, क्योंकि मरण नाम प्राणवियोग का है, वह शरीर से हुआ अर्थात् शरीर से प्राण निकल गये तो मरे पितर शरीरों को कह सकते हैं, सो शरीर शीघ्र ही जलने आदि द्वारा मिट्टी में मिल जाते हैं। फिर उनका भी बुलाना नहीं हो सकता। अब यदि कोई कहे कि अच्छा हमारे पक्ष में अग्निदग्ध आदि पदों का अर्थ नहीं बनता, तो तुम क्या अर्थ करते और अपने पक्ष में कैसे घटाते हो ? इसका उत्तर यह है कि ‘अग्नि द्वारा भूंजे वा पकाये गये वा स्वयं कालपक्व सामयिक फलादि दोनों प्रकार के पदार्थ ज्ञाननिष्ठ पितृ लोगों के भोजनार्थ उपस्थित करने चाहियें।’ अर्थात् अग्निदग्ध आदि पद भोग्य वस्तुओं के विशेषण हैं। यदि वहां पितृ शब्द भी हो तो वेद का यौगिकार्थ होने से रक्षक पदार्थों का विशेषण माना जावेगा। इत्यादि प्रकार सब अर्थ ठीक है, केवल बुद्धि पर थोड़ा बल देना चाहिये। इस सब कथन से सिद्ध हुआ कि (आयन्तु नः०) इस मन्त्र में पितृ शब्द से जीवते हुए ज्ञानी पितरों का ग्रहण है। द्वितीय पिण्ड धरने का मन्त्र कहा, सो भी ठीक नहीं क्योंकि उसमें पिण्ड वा धरने का कुछ भी संकेत नहीं है। और शतपथ ब्राह्मण का प्रमाण दिया उसमें भी मरों का नाम न होने से वैसा अर्थ नहीं आता और कदाचित् मृतकों के श्राद्ध करने का उपदेश शतपथादि में किसी अभिप्राय से निकल आवे, तो भी सिद्धान्त पक्ष में कोई दोष नहीं आता। क्योंकि जब वेद का सिद्धान्त नहीं तो वेद से विरुद्ध और प्रमादादि दोषयुक्त लेख उनमें भी हो सकता है। और मनुस्मृति के तृतीयादि अध्यायों में अनेक श्लोक मरों का श्राद्ध बताने के लिये हैं, यह बात हमको भी स्वीकार है, परन्तु उन श्लोकों के वहां लिखे होने मात्र से वैसा श्राद्ध कर्त्तव्य सिद्ध नहीं होता। ऐसा हो तब तो चोरी वा परस्त्रीगमन भी अनेक स्थलों में किसी विशेष प्रयोजन से वा निषेध के लिये लिखा है, तो क्या चोरी आदि कर्त्तव्य होगा ? प्रयोजन यह है कि लिख देने मात्र से किसी कार्य का कर्त्तव्य वा अकर्त्तव्य होना सिद्ध नहीं हो सकता, किन्तु जिसको विधान की रीति से अर्थवाद सहित लिखा हो, वही कर्त्तव्य है। तो भी इस का विशेष निश्चय तृतीयाध्याय के प्रक्षिप्त समीक्षा प्रसग् में आगे करेंगे।

और गयाश्राद्ध तो दूसरों के पदार्थ हरने वाले वहां के धूर्त्त लोगों ने अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिये कल्पित किया है, ऐसा अनुमान होता है। यदि कोई विद्वान् इसको ध्यान देकर विचारे तो सिद्ध हो जायेगा कि गयाश्राद्ध के होने से पौराणिक मत में श्राद्ध नित्यकर्म नहीं ठहर सकता, क्योंकि गयाश्राद्ध किये पश्चात् पितरों की मुक्ति हो जाती है वा ऐसी दशा में वे पहुंच जाते हैं कि पुत्रों के लिये श्राद्धफल के भोग की इच्छा शेष नहीं रह जाती, तो गयाश्राद्ध करने पीछे किसी को श्राद्ध न करना चाहिये और सभी लोग पिता के मरने पश्चात् एक दो वर्ष में गयाश्राद्ध कर देंगे, पीछे श्राद्ध करना निष्फल वा निष्प्रयोजन है, क्योंकि भरे को भरना व्यर्थ है, इस प्रकार “सब को नित्य श्राद्ध करना चाहिये” इत्यादि प्रकार की धर्मशास्त्र की आज्ञा भी नहीं बन सकती, क्योंकि श्राद्ध सदा नहीं हो सकता। और यह दोष जीवितों का श्राद्ध मानने वालों के पक्ष में नहीं आ सकता। क्योंकि वे अपने कल्याण के लिये नित्य श्राद्ध करें जैसे कि अग्निहोत्रादि करते वा करने चाहियें, वैसे श्राद्ध भी नित्य कर्त्तव्य बन जाता है। और गयाश्राद्ध से यदि पितरों का मोक्ष हो जाता है, तो ‘परमेश्वर के ज्ञान से भिन्न मोक्ष का अन्य मार्ग नहीं’१ इस वेद के मन्त्र से विरुद्ध है, अर्थात् ज्ञान के बिना मोक्ष होना असम्भव है। और इन लोगों का यह भी कहना ठीक नहीं कि मृतकश्राद्ध करने के लिये सब शास्त्रों का सिद्धान्त है। किन्तु मतवाद से भरे हुए पुराणों का यह मत है।

तथा पुत्र के बिना गति नहीं होती, यह भी एकदेशी वाक्य है, अर्थात् सर्वसम्मत नहीं है। क्योंकि जब स्पष्ट लिखा है कि- ‘ब्रह्मचर्य आश्रम से, घर से वा वन से जब पूर्ण पक्का वैराग्य हो जावे, तभी मनुष्य विरक्त बने।’१ इत्यादि ब्राह्मण और उपनिषद् के वचनों की आज्ञानुसार ब्रह्मचर्याश्रम से संन्यास ग्रहण परमार्थसिद्धि वा मोक्ष होने के लिये है, वह संन्यास मिथ्याभाव को प्राप्त होगा। क्योंकि ब्रह्मचर्याश्रम से ही जिसने संन्यास धारण किया, वह सन्तानों को उत्पन्न नहीं करेगा। और संन्यास आश्रम का प्रयोजन यही है कि जिससे परमार्थ में अच्छी गति हो। यदि बिना पुत्र के संन्यास धारण करने पर भी सुगति न हुई तो “ब्रह्मचर्याश्रम से ही विरक्त हो जावे” इत्यादि प्रकार के शास्त्र के वचन व्यर्थ हुए। और मनु जी ने भी बिना पुत्रों के सुगति होना स्पष्ट ही कहा है कि- ‘जिन्होंने कुल सन्तति अर्थात् पुत्रादि उत्पन्न नहीं किये, ऐसे सहस्रों क्वारे तपस्वी ब्राह्मण प्रकाशमय परमेश्वर को प्राप्त हुए- मुक्त हो गये।’१ इसी प्रकार जन्म से लेकर ब्रह्मचारी, सन्तति रहित भीष्म जी आदि महात्मा लोगों की सुगति होना इतिहासादि में प्रसिद्ध ही है। इस कारण बिना पुत्र के गति नहीं होती, इस वाक्य का अन्य ही प्रयोजन है, किन्तु जन्मान्तर में सुख देने से अभिप्राय नहीं कि पुत्रों वाले ही जन्मान्तर में सुख भोगें और निर्वंशी दुःख में ही पड़ें।

अब एक विचार यह भी है कि हम लोगों के जो पितादि मर गये हैं, उनके यदि योगाभ्यास और ईश्वर की उपासनादि शुभकर्म संचित हैं, कि जिनको उन्होंने अपने वर्तमान समय में संचित किया तो उन शुभकर्मों के फल से पितरों की सुगति अवश्य हो जायेगी, सो यह बात भगवद्गीता के छठे और दूसरे अध्याय में भी कही है कि- ‘हे अर्जुन ! अच्छे धर्मयुक्त कर्म करने वाला कोई पुरुष दुर्गति को प्राप्त नहीं होता। और थोड़ा भी धर्म का संचय किया हुआ बड़े प्रबल दुःख से बचा देता है।’२ इससे सिद्ध हुआ कि इस जन्म में परिश्रम से उपार्जन किया धर्म ही जन्मान्तर में सुख देता है। इस प्रकार धर्मात्मा होंगे तो हमारे पितादि अपने कर्मों से ही तर जायेंगे, उनके लिये श्राद्ध का फल पहुंचने की कल्पना करना व्यर्थ है। कदाचित् कोई मनुष्य धर्म करता हुआ भी दुर्गति को प्राप्त हो तो जिसको अपने ही कर्मों से सुख न मिला, तो वह पुत्रादि के किये श्राद्ध से सुख पा सकता है ? और जैसे धर्मात्मा दुर्गति को प्राप्त हो तो पापी भी सुगति को प्राप्त हो सकता है। यद्यपि यह असम्भव है कि धार्मिक दुःखी और अधर्मी सुखी रहें, तथापि इसका अभिप्राय यह ठीक होगा, कि जिसके पूर्व संचित पाप अधिक हैं, और वर्तमान का धर्म-सेवन उन पापों से अधिक प्रबल नहीं होता, तब तक धर्म करने पर भी वह दुःख भोगेगा और जिसका पूर्व संचित धर्म अधिक है, वह वर्तमान में पाप करने पर भी तब तक सुख भोगेगा कि जब तक पूर्व धर्म को दबाने वाला प्रबल पाप न बढ़ जावे। इस प्रकार धर्म का फल दुःख और अधर्म का सुख कदापि नहीं ठहर सकता। और कदाचित् कहीं ऐसा ही निश्चित जान पड़े कि उल्टा फल होता है, तो धर्म-अधर्म का लक्षण समझने की भूल माननी पड़ेगी अर्थात् जिसका परिणाम सुख हो वह धर्म और जिसका परिणाम वा फल दुःख हो, वही अधर्म है। क्योंकि अनेक लोग धर्माभास को भी धर्म मानकर उसके दुःख फल को धर्म का परिणाम ठहराने लगते हैं, यह उन लोगों का दोष है। इस प्रकार मरों को फल पहुंचाने के लिये श्राद्ध करना निष्फल है, क्योंकि जैसे नियतविपाक संचित धर्म का फल अवश्य मिलता है, उससे जैसे मरे हुए धर्मात्मा पिता के लिये श्राद्ध करना निष्फल हुआ वैसे निश्चित फल वाले अधर्म का भी दुःख फल अवश्य प्राप्त होगा, इससे वैसे ही अधर्मी पिता के लिये भी श्राद्ध करना निष्फल आता है। इससे मरों के निमित्त श्राद्ध न करना चाहिये, किन्तु जीवित ज्ञाननिष्ठ पितरों का श्राद्ध करना चाहिये।

निर्वंशी पुरुष की सुगति नहीं होती, इसका तात्पर्य यह है कि संसारी अर्थात् गृहाश्रम सेवने वाले मनुष्य को पुत्रादि उत्पन्न अवश्य करने चाहियें, यह आज्ञा भी शास्त्रों में है, इस आज्ञा के मुख्य कर दो ही प्रयोजन हैं। एक स्वार्थ और द्वितीय परमार्थ। उनमें स्वार्थ तो लोक में भी प्रसिद्ध है, जैसे- संसारी मनुष्य कहते हैं कि कोई सुपूत उत्पन्न हो तो बुढ़ापे में कमाई खवावेगा। अर्थात् भोजन-वस्त्रादि से हमको तृप्त करेगा। और कुपूत लोगों से पितादि की रक्षा होना तो दूर रही, किन्तु पितादि के नाम को कलटित करते और ताड़नादि द्वारा भी दुःख पहुंचाते हैं। इसी विचारानुसार पञ्चतन्त्रादि नीतिशास्त्रों में लिखा है कि- ‘पुत्र उत्पन्न नहीं हुए वा होकर मर गये अथवा मूर्ख हुए इन तीनों दशा में से पहली दो दशा अच्छी हैं, अर्थात् मूर्ख पुत्र की अपेक्षा उसका न होना वा होकर मर जाना अच्छा, क्योंकि उन दो का तो स्मरण आने पर दुःख होता, परन्तु मूर्ख पग-पग में दुःख देता है। सौ मूर्खों की अपेक्षा एक गुणी पुत्र अच्छा है। जैसे एक ही सुगन्धित पुष्पयुक्त वृक्ष से सब वाटिका शोभित वा सुगन्धित हो जाती है, वैसे एक भी पुत्र से कुल की शोभा वा सुख मिलता है।’१ इत्यादि नीति के वाक्यों का यही अभिप्राय है, कि जो कुल का दीपक एक ही सुपुत्र सब कुल को सुखी कर देता है, और उसी पुत्र के कारण उस कुल की विख्याति वा प्रतिष्ठा जगत् भर में हो जाती है, ऐसे पुत्र को उत्पन्न करने के लिये सब गृहस्थों को यत्न करना चाहिये। जैसा सुख सुपूती कुल वा पितादि को मिलता है, वैसा पुत्रहीन को कदापि नहीं मिल सकता। इसी से महाभारत उद्योगपर्व में कहा है कि- ‘पुत्र का आज्ञाकारी होना भी संसारी मनुष्य को एक बड़ा सुख है।’१ और वृद्धावस्था में प्रायः मनुष्यों की शक्ति भी कम हो जाती है, और शक्ति के जीर्ण हो जाने से ही वृद्ध कहाता है, उस समय अशक्त वृद्ध पुरुष अपने हाथ-पग आदि से अपने शरीर का भी सब काम नहीं चला सकते, तो धनादि का उपार्जन करना वा भोजनादि बनाना तो अति कठिन है। ऐसे अत्यन्त सामर्थ्यहीन होने के समय में पहले का संचित धनादि पदार्थ भी यदि निकट में नहीं है, तो अच्छे पुत्र अपने परिश्रम से धनादि का उपार्जन कर और भोजनादि देकर सब प्रकार की सेवा से पितादि की रक्षा करें, और जिन वृद्धों के समीप पहला संचित धनादि है, उनको भी भृत्यों से वैसा सुख नहीं मिल सकता कि जैसा घृणादि त्याग कर अपना पुत्र सुख दे सकता है। और लोक में जिनके पुत्र नहीं उनको मरते समय वृद्धावस्था में प्रायः अच्छी रीति से सुख नहीं मिलता। और जो कुछ धनादि ऐश्वर्य मनुष्य अपने जन्म भर में जोड़ता है, उसकी आगे रक्षा करने और कुल की परम्परा चलाने के लिये भी पुत्रों की आवश्यकता है, क्योंकि अन्य के धन से अन्य पुरुष उसके अभीष्ट ही कार्य नहीं करता, किन्तु सुपुत्र पिता के उपार्जन किये धन से पिता के अभीष्ट कार्यों को ही प्रायः सिद्ध करता है। अर्थात् कहीं-कहीं पिता के शत्रु से पुत्र बदला भी ले लेता है। इत्यादि प्रकार से पुत्र की उत्पत्ति मुख्य कर सज्जन पुरुष संसारी स्वार्थ अर्थात् अपने लिये धन प्रतिष्ठा वा सुख होने के लिये वा उन माता-पितादि का नाम चलने के लिये मानते हैं।

और परार्थ यह है कि- परमेश्वर ने धर्म की रक्षा और व्यवस्था करने वा मर्यादा और नियमों का पालन करने के लिये मनुष्य को बनाया है। इसीलिये नीतिकार ने कहा है कि- ‘भोजन करना, सोना, भय और मैथुन ये सब कर्म पशु और मनुष्यों में तुल्य हैं। परन्तु मनुष्यों में एक धर्म अधिक है, इससे जो मनुष्य   धर्म नहीं करता वह पशु के समान है।’२ इससे धर्माचरण करने वाले मनुष्य को चाहिये कि युवावस्था में ही मरण से पूर्व अपना प्रतिनिधि पुत्र को उत्पन्न कर देवे। परमेश्वर की सृष्टि में जैसे स्वयं धर्म का सेवन करता था वा करता है अर्थात् अपने घर से जिस-जिस का जैसा-जैसा उपकार करना प्रारम्भ किया हो वा जो-जो धर्मसम्बन्धी दानादि कर्म कुल की परम्परा से नियत चले आते हों, उन कर्मों का पिता ने भी जैसा सेवन किया हो वैसा ही करने के लिये पुत्र को शिक्षा करे, जिससे वृद्ध पिता के मर जाने पर भी उपकार सम्बन्धी कार्य वैसा ही निर्विघ्न चलता जावे।

‘गृहस्थ पुरुष मैथुन मात्र करता रहे और पुत्र न हों तो शोचनीय दशा है’१ इत्यादि प्रकार नीति के उपदेश से सूचित होता है, कि स्त्री सम्बन्ध रूप गृहाश्रम का पुत्रोत्पत्ति फल है, यदि गृहस्थ केवल मैथुन करे, किन्तु पुत्रोत्पत्ति की रीति न करे, तो उसका विवाह करना निरर्थक है और परमेश्वर ने जगत् की स्थिति से    धर्म बढ़ाने के लिये संसार को रचा है, यदि पुत्रों की उत्पत्ति का उपाय न किया जाय तो वृद्धों के मरते जाने और नवीन सन्तानों के उत्पन्न न होने से कभी सबका अभाव होना प्राप्त है, और ऐसा होना परमेश्वर की इच्छा से विरुद्ध है। इससे परमेश्वर का अभिप्राय है कि सन्तानोत्पत्ति मनुष्य को करनी चाहिये। जो ऐसा नहीं करता वह परमात्मा की आज्ञा को तोड़ने वाला है। ऐसा मानकर उसकी सुगति न हो, यह कह सकते हैं। इससे बिना पुत्र के गति नहीं, यह सामान्य प्रकार से सिद्ध हो गया। परन्तु कहीं विशेष दशा में जो ब्रह्मचर्याश्रम से ही बाल ब्रह्मचारी विरक्त हो जाते हैं, और वे गृहाश्रम भी नहीं करते। वे पुत्रों को उत्पन्न करके उतना उपकार नहीं कर सकते कि जितना जन्मभर ब्रह्मचर्याश्रम के साथ रहने वाले कर सकते हैं। इस कारण वे कुमारब्रह्मचारी निर्वंशी के दोष से दूषित नहीं होते। और वृद्धावस्था में गृहस्थ के तुल्य क्षीण न होने से शिथिल भी नहीं होते कि जिनको पुत्रों के बिना दुःख भोगने पड़ें। और युवावस्था में वे विरक्त धर्मोपदेशादि द्वारा बहुतों का बड़ा-बड़ा उपकार करते हैं। उनको प्रत्युपकाररूप सेवा करने वाले शिक्षित शिष्य वृद्धावस्था में मन, वाणी और शरीर से निरन्तर सेवा करके सन्तुष्ट करते हैं। इस प्रकार विद्या और धर्म के सम्बन्धी उनके अनेक शिष्य पुत्रवत् ही होते हैं।

अब श्राद्ध में पिण्डदान क्यों चला ? इस पर थोड़ा सा विचार लिखा जाता है- ‘चार पिण्ड प्रातःकाल और चार सायंकाल नियम पूर्वक खावें तो इसे शिशुचान्द्रायण कहेंगे।’१ इत्यादि मनुस्मृति के श्लोकों में ही पिण्ड शब्द ग्रास का पर्यायवाची माना गया है। पिण्ड शब्द के यथासम्भव अन्य भी अर्थ हो सकते हैं। तो भी श्राद्ध में ग्रास का पर्यायवाची लेना उपयोगी है। और चान्द्रायणादि व्रतों में ग्रास का लक्षण लड्डू के आकार का है। इसी प्रकार लड्डू आदि के समान बने हुए सब पेड़ा आदि मिठाई पिण्ड कहाते हैं। खीर आदि सर्वोत्तम स्वादिष्ट वस्तुओं से बनाये पिण्ड ज्ञानी पितृजनों के भोजन योग्य वस्तुओं में सर्वोत्तम होने से उपयोगी होते थे, ऐसा अनुमान होता है। पीछे जब मरों के लिये श्राद्ध करना किन्हीं लोगों न चलाया, तबसे पिण्डों की भी दुर्दशा होने लगी कि जो इस समय अधपिसे भूसी सहित केवल कच्चे जौ के ही प्रायः जैसे-तैसे दिये जाते हैं। कि जैसा घोड़ा, बैल आदि पशुओं को दाना देते हैं, क्या यह पिण्डों की थोड़ी दुर्दशा है ? ‘पितृ लोगों को पिण्ड देने चाहियें’२ इत्यादि प्रकार पुराने पुस्तकों के श्राद्ध प्रकरण में जहां-जहां लिखा है, उसका आशय यह है कि लड्डू पेड़ादि गोलरूप मिठाई भोजन समय में पितृ लोगों को देना चाहिये। इससे पीछे अविद्या के प्रभाव से मुख्य अभिप्राय न जानकर मरों के लिये पिण्ड देने चाहियें, ऐसी कल्पना किन्हीं लोगों ने की हो, ऐसा अनुमान होता है। सो यह मरों के लिये पिण्ड देने की कल्पना करना ठीक नहीं।

अथर्ववेद में भी तर्पण का विधान नहीं है। अर्थात् जो कोई लोग उस (ये जीवा०) मन्त्र से मृत पद को देखकर मरों का तर्पण निकालते हैं, उनको “जीवाः” पद को देखकर जीवितों का भी तर्पण निकालना चाहिये। यदि कोई कहे कि जीवा पद मृत शब्द का विशेषण है, तो उसके मत में समुच्चय अर्थ के लिये पढ़ा ‘चकार’ निरर्थक हो जायेगा अर्थात् समुच्चयार्थ पढ़े ‘चकार’ से स्पष्ट प्रतीत होता है कि मृता और जीवा भिन्न-भिन्न पद हैं। और सर्वनामवाची यत् शब्द के चार प्रयोग मन्त्र के पूर्वार्द्ध में ही पढ़े हैं। उनसे भी सबका पृथक् होना सूचित होता है। कथनमात्र कोई करे, किन्तु उक्त अथर्ववेद के मन्त्र का अर्थ मरे हुए पितरों के तर्पण पक्ष में यथावत् कोई नहीं घटा सकता। इस कारण इस मन्त्र से मरों के तर्पण का नाम भी नहीं निकलता, किन्तु संसार का उपकार करने वाली एक प्रकार की विद्या इससे निकलती है, उसका संक्षेप से व्याख्यान निम्न लिखित प्रकार जानो-

पदार्थ ये जीवाः= जो किसी प्रकार कष्ट के साथ अन्न-जलादि को पाकर प्राण का धारण करते और ये मृताः= जो अन्न-जलादि के न मिलने से मरते- प्राण छोड़ते वा छोड़ने को उद्यत होते हैं ये जाताः= जो शीघ्र प्रकट हुए थोड़ी अवस्था के पशु-पक्षी आदि के बच्चे वा अंकुररूप वृक्षादि = और ये यज्ञियाः= यज्ञकर्म में उपयुक्त होने वाले ओषधि, वनस्पति वा अन्नादि हैं तेभ्यः= उनके अच्छे प्रकार होने के लिये घृतस्य= जल की व्युन्दती= शीतलता गुण पहुंचाने वाली   मधुधारा= खारीपन आदि दोष रहित जिसकी मीठे स्वादिष्ट गुणकारी जलयुक्त   धारा हो ऐसी कुल्या= कृत्रिम बनावटी नदी-नहर एतु= प्राप्त हो, जिससे जगत् में सब चराचर प्राणियों की रक्षा हो।

भावार्थ जिस-जिस मरु आदि देश में जल नहीं मिलता वा बड़े कष्ट से मिलता है, उन-उन प्रदेशों में सुगमता से सर्वदोष रहित मीठा जल प्राप्त होने के लिये देशहितैषी धनाढ्य वा प्रजापालन में तत्पर राजपुरुषों को नवीन नदी-नहर निकालनी चाहिये, क्योंकि जल से ही सब चराचर की उत्पत्ति होना और स्थिति रहना सम्भव है। इसलिये सबसे ऊपर यह धर्मानुकूल कर्म है। इस प्रकार बड़े उपकारी धर्मसम्बन्धी कृत्य का इस मन्त्र में परमेश्वर ने उपदेश किया है। उसको छोड़कर अयुक्त निर्मूल अर्थ को प्रसिद्ध करने की चेष्टा करने वालों से विद्वान् लोग क्या कहेंगे ?