श्राद्ध-तर्पण विषय में अनेक शंकाओं का समाधान : पण्डित भीमसेन शर्मा

श्राद्ध-तर्पण विषय में अनेक शंकाओं का समाधान

अब इस पूर्वोक्त विचार पर पौराणिक लोग कहते हैं कि- जैसा श्राद्ध और तर्पण तुमने पूर्व कहा, वैसा वेद और मनु आदि धर्मशास्त्रों के अनुकूल हो सकता है क्या ? मन्त्रभाग संहिता, ब्राह्मण, उपनिषद्, गृह्यसूत्र, स्मृति, इतिहास- महाभारतादि और पुराण आदि श्रेष्ठ लोगों के माने हुए सम्पूर्ण पुस्तकों में मरे पितृ लोगों को श्रद्धा से पिण्डादि देना श्राद्ध है, ऐसा वर्णन किया गया है। और वैसे ही अनादिकाल की परम्परा से सब लोग श्राद्ध करते आते हैं। वेदों में भी पितरों के आह्वान और पिण्ड रखने का मन्त्र- “आयन्तु नः पितरः सोम्यासोऽग्निष्वात्ताः पथिभिर्देवयानैः। पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः है। इत्यादि मन्त्रों में श्राद्ध का वर्णन किया है। शतपथ ब्राह्मण में भी लिखा है कि- ‘नीवि को छोड़ छह बार नमस्कार करे।’३ और ‘कुशों पर पिण्ड धरके, हाथ झार दे वा धो डाले।’४ इत्यादि प्रकार मनुस्मृति में भी श्राद्ध का पूरा विधान दिखाया है। गयाश्राद्ध से पितृजनों की मुक्ति हो जाती है, इसको सब शास्त्रकार मानते हैं। और नैत्यिक वा गयाश्राद्धादि करके पितरों को तारने के लिये ही पुत्रों की आवश्यकता है, सो कहा भी है कि- ‘पुत्रहीन अर्थात् निर्वंशी की अच्छी गति नहीं होती।’५ इस प्रकार मरे हुए पितरों का श्राद्ध सर्वसम्मत है, तो जो कोई लोग उस पर विश्वास नहीं करते वे नास्तिक हैं। और अथर्ववेद में स्पष्ट ही मरे हुए पितरों का तर्पण लिखा है कि- ‘जो मरे, जीते, प्रकट हुए और यज्ञ सम्बन्धी पितर हैं, उन सबके लिये सहतयुक्त जल की धारा प्राप्त हो।’६ इत्यादि प्रकार मरे हुए पितरों का तर्पण-श्राद्ध वेदादि शास्त्रों में लिखे अनुसार सबको माननीय सिद्ध होता है।

ऐसे उक्त प्रश्न का अब समाधान- उत्तर दिया जाता है, ध्यान पूर्वक सब महाशयों को देखना चाहिये- इसमें कुछ भी सन्देह नहीं कि जो वेद से भिन्न ब्राह्मणादि ऋषिप्रणीत पुस्तकों में भी जिस किसी प्रकार मरे हुए पितरों का श्राद्ध मिलता है। इतने मात्र से वह कर्त्तव्य हो नहीं सकता, क्योंकि वह इस समय साध्यकोटि के अन्तर्गत है। अर्थात् आर्ष पुस्तकों में भी स्वार्थी लोगों ने जब अनेक स्वार्थ-लीला की बातें मिला दीं, जिनको सभी विचारशील विवेकी लोग ऊटपटांग वा असम्भव समझते हैं। जिन बातों को लड़के भी अच्छा नहीं समझते, जो सभ्यता से सर्वथा विरुद्ध हैं। तो वैसे ही अनेक शास्त्रीय प्रमाण और युक्तियों से विरुद्ध होने के कारण मरे हुओं का श्राद्ध भी आर्ष पुस्तकों में मिला दिया, ऐसा अनुमान होता है। और अनेक स्थलों में मरों का श्राद्ध नहीं है, वहां भी बुद्धि के भ्रान्त होने से वैसा ही दीखता है, उसका कारण अज्ञान है। मरे हुए पितरों का यदि अनादिकाल से श्राद्ध चला है, तो सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए ब्रह्मा आदि ने किन मरे पितरों का श्राद्ध किया ? और जब मरीच्यादि ऋषियों से अग्निष्वात्तादि पितृगणों की उत्पत्ति दिखायी है, तो मरीचि आदि ने भी तर्पण श्राद्ध नहीं किये क्या ? और यदि किये तो क्या पितरों के स्थान में अपने पुत्रों का तर्पण श्राद्ध किया, ऐसा तुम लोग मानते हो ? क्योंकि जिनको तुम लोग अनादि पितृगण मानते हो, वे मरीच्यादि ऋषियों से उत्पन्न हुए हैं, उससे पहले वे थे ही नहीं। इससे मरों का श्राद्ध अनादिकाल से चला, यह ठीक नहीं। यदि कोई कहे कि निर्मूल वृक्ष खड़ा नहीं हो सकता, इस न्याय से निर्मूल श्राद्ध कैसे चल गया, तो इसका   समाधान सुनो- जब पूर्वोक्त प्रकार से ज्ञानी पुरुषों का अन्नादि उत्तम सामग्री से सत्कार रूप श्राद्ध करना, हम लोग सनातन सिद्ध करते हैं, तब निर्मूल श्राद्ध नहीं हुआ। क्योंकि ब्रह्मा और मरीचि आदि भी ऐसा श्राद्ध कर सकते थे अर्थात् उस समय भी ब्रह्मादि से भिन्न अन्य ज्ञानी लोग विद्यमान रहे। इससे हमारे मत में नित्य परम्परा से श्राद्ध करना बन सकता है। और मरे हुओं के श्राद्ध में जीवितों का श्राद्ध मूल है, इससे निर्मूल नहीं कह सकते। दोनों पक्षों में श्राद्ध तो कर्त्तव्य ही है अर्थात् उसके कर्त्तव्य होने में कुछ भी विवाद नहीं, किन्तु प्रकार में और फल में विवाद है कि श्राद्ध किस प्रकार और किसलिये करना चाहिये। पौराणिक लोग कि जिनका पक्ष है कि मरों का श्राद्ध कर्त्तव्य है। वे भी प्रत्यक्ष में जीवित लोगों का ही सत्कार रूप श्राद्ध करते हैं। अर्थात् मरे हुए पितृ जन कहीं आकर भोजन करते हों, ऐसा कोई नहीं मान सकता। केवल हठपूर्वक कहते रहना ही विवाद का स्थान है। और फल में विवाद यह है कि श्राद्ध करने वाला फलभागी होता है, किन्तु मरे पितरों को फल नहीं पहुंचता, यह सिद्धान्त पक्ष है। और अन्य लोग कहते हैं कि नहीं मृत पितरों को श्राद्ध का फल पहुंचता है। सो यह पक्ष इसलिये भी ठीक नहीं, सब शास्त्रकार पुकार-पुकार कहते हैं कि जो जैसा कर्म करता है, उसको अगले जन्म में वैसा फल अवश्य मिलता है। यदि किसी के पिता ने अधिकांश अधर्म किया और शास्त्र की मर्यादा वा न्यायानुकूल उसको नरक रूप दुःख भोग मिलना चाहिये। परन्तु उसका पुत्र श्राद्ध करके अच्छा फल पहुंचा रहा है, तो क्या होना चाहिये ? यदि पूर्व कर्मानुसार उसको दुःख मिले, तो श्राद्ध फल पहुंचना नहीं बनेगा और श्राद्ध का फल पहुंचकर सुख मिला, तो बुरे कर्मों का नियत फल कहने वाले शास्त्र व्यर्थ हुए। और जिसके पूर्व से ही अच्छे कर्म हैं, उससे बुरे कर्मों वाले का भेद ही क्या रहा ? दोनों ही सुखभागी हुए तो अच्छे कर्म वा धर्म का उद्योग करना निष्फल हुआ अर्थात् इन दो बातों में एक ही सिद्ध हो सकती है कि चाहे परलोक सहायार्थ धर्म की आवश्यकता ठहरा लो और चाहे श्राद्ध को परलोक सहायक मान लो। इस दशा में जिन लोगों ने पुत्र उत्पन्न किये और श्राद्धादि करने की उनको ठीक-ठीक शिक्षा भी कर दी तो वे भले ही मरण पर्यन्त पाप किया करो, पुत्र लोग गयादि श्राद्ध करके जन्मान्तर में तो तार ही देंगे, फिर ऐसी दशा में धर्म करने का उपदेश करने वाले सब धर्मशास्त्र मिथ्या होंगे। और धर्मशास्त्रकार इससे विरुद्ध स्पष्ट पुकार-पुकार कर कहते हैं कि- ‘परलोक अर्थात् जन्मान्तर में सहायता करने के लिये पिता-माता और स्त्री-पुत्रादि नहीं ठहर सकते अर्थात् तेरे सहायक जो माता-पिता, स्त्री-पुत्रादि यहां प्रत्यक्ष में हैं, वे वहां साथ नहीं जायेंगे, जैसे यहां तेरे सुख-दुःख में साथी हो जाते हैं, वैसे वहां न पहुंचेंगे, और वहां कुछ सहायता नहीं पहुंचा सकेंगे अर्थात् जैसे यहां तुझ पर किसी बुराई का फल विपत्ति आ पड़े तो यथाशक्ति ये सब सहायता करते वा कर सकते हैं, वैसे यहां के किये अधर्म की विपत्तिरूप दुःख की प्राप्ति में ये लोग कुछ भी सहायता न कर सकेंगे। इन लोगों के भरोसे तू कदापि पाप न कर कि ये किसी प्रकार श्राद्धादि द्वारा मुझे कुछ सुख पहुंचावें। किन्तु एक धर्म ही तेरी सहायता करेगा, जिसका तुमने यहां उपार्जन किया होगा।’१ इस कारण पिता-मातादि को भी सुख पहुंचाने के लिये तू अधर्म न करके अपना परमार्थ सुधारने के लिये यहां धर्म का उपार्जन कर। इस पूर्वोक्त कथन से स्पष्ट सिद्ध होता है कि मानवधर्मशास्त्र के सिद्धान्त से भी श्राद्ध का फल मरे हुए पितृ लोगों को नहीं पहुंचता।

हम इस अंश का विचार पूर्वक अनुसन्धान करते हैं कि मृतकों के श्राद्ध की परिपाटी क्यों चली तो अनुमान होता है कि पहले जब कोई मरता था, तब उसके सम्बन्धी लोग अब के तुल्य शोकसमुद्र में डूबते थे, ऐसी दशा देखकर उनके उपदेशक गुरु लोग उपदेश द्वारा अपने शिष्यों का शोक दूर करने के लिये स्वयं आते वा शिष्यों के बुलाने पर आकर उनके शोक की निवृत्ति का उपाय करते थे और उस समय शिष्य लोग उनका सत्कार विशेषकर इस कारण करते थे कि शोक-निवृत्ति होने से उनका अन्तःकरण उन्हीं के द्वारा प्रसन्न होता था। यह परम्परा कुछ काल तो ठीक-ठीक चली, पीछे अविद्या में फँसे लोगों ने आप ही कल्पना कर ली होगी कि इन ब्राह्मणों का सत्कार करने से मृतक लोगों की तृप्ति होती है। तब से लेकर मरे हुओं का श्राद्ध प्रवृत्त हुआ, ऐसा अनुमान हो सकता है। अथवा ज्ञानी लोगों का सत्कार, सेवन भी पुण्य कर्म है, वह पुण्य यदि शोक समय में किया जाय, तो शोक की निवृत्ति होना सम्भव है, इस कारण शोक समय में पुण्य करना चाहिये, अथवा किसी के मरने पश्चात् शेष रहे मरे के सम्बन्धी भाई आदि शोक से व्याकुल होने के कारण किसी प्रकार धनादि पदार्थों से विरक्त होते हैं, उस समय भोजनादि का दान उनसे सुगमता के साथ किया जाता वा हो सकता है। क्योंकि शोक और उत्सव से भिन्न समय में कोई उदार ही पुरुष धन का व्यय कर सकता है, किन्तु कृपण वा साधारण मनुष्य का साहस नहीं पड़ सकता कि वह प्रत्येक समय धन का व्यय कर सके। इस प्रकार अनेक दीर्घदर्शी विचारशील पूर्वज लोगों ने मरने पश्चात् और पुत्रादि की उत्पत्तिरूप उत्सव समय में दान पुण्य और ज्ञानियों के सत्कार करने का उपदेश किया कि जिससे कृपण लोग भी लोकलज्जा वा दबाव आदि से ही कुछ धर्म अवश्य कर सकेंगे। इसी अंश को कुछ काल पीछे मूर्खों ने मरों की तृप्ति पर लगा दिया कि मरने पश्चात् किये हुए दान-पुण्य और सज्जनों के सत्कार का फल मरे हुओं को पहुंचता है और उनको फल पहुंचाने के लिये ही मरणानन्तर किया जाता है, ऐसी कल्पना करके कुछ काल पीछे पिण्डादि बनाकर कुशों पर रखने की कल्पना भी कर ली गयी। और उस अपने अनुभव वा अनुमानरूप पिण्डादि रखने की परिपाटी को अनेक सद्ग्रन्थों में भी मिलाया कि जिससे आगे बराबर चली जावे। ऐसा अनुमान से प्रतीत होता है। इस प्रकार इस अन्यथा चले मृतकश्राद्ध का मूल सत्य सनातन श्राद्ध है, इससे निर्मूल नहीं और न मृतकश्राद्ध अनादिकाल से प्रवृत्त सनातन है, यह सिद्ध हुआ।

और एक यह भी अनुमान होता है कि कदाचित् विद्या का पढ़ना और ब्रह्मचर्य आश्रम का सेवन जब किन्हीं कारणों से छूटा वा आलस्यादि अवगुण अधिक बढ़े, तो अनेक उदरम्भर, स्वार्थी, धर्मध्वजी नाममात्र के ब्रह्मणों ने विचारा हो कि अब हम लोग श्राद्ध के योग्य (जैसे कि मनु आदि शास्त्रों में लिखे हैं) नहीं रहे, तो हमको श्राद्ध में कोई न बुलावेगा। और श्राद्ध भी कोई न करेगा तो यह युक्ति अच्छी है कि मरों का नाम लगा देने से लोग अवश्य श्राद्ध करेंगे। और श्राद्ध होंगे, तो हमको भोजन भी कराया ही जावेगा। कोई भी मनुष्य अपने नाम से भोजन वा दान-दक्षिणा नहीं मांग सकता, मांगे तो संकोच होता है, परन्तु अन्य के लिये वैसा संकोच नहीं होता, इस कारण मृत पितरों को फल पहुंचने के लिये भोजन, दान-पुण्य आदि का उपदेश चलाया हो, यह सम्भव है। यदि ऐसा हो तो चलाने वाले विशेष कर अधर्मी हुए और पहले विचारानुसार चला तो अज्ञान मूल कारण हुआ।

यदि बहुत काल से वा ऋषि और आर्यराजाओं के समय से ही कदाचित् मृतकों का श्राद्ध चला आया हो और बहुत काल से प्रवृत्त होने के कारण यदि प्रामाणिक ठहर जावे तो क्या चोरी बहुत काल से नहीं चली आती है ? क्या चोरी आदि अधर्म बीच से चले गये ? और क्या बहुत काल से चोरी भी चली आती है तो अच्छे लोग भी चोरी करें ? इसका अभिप्राय यह नहीं कि श्राद्ध भी चोरी के तुल्य नीच कर्म है, किन्तु तात्पर्य यह है कि मृतकों के उद्देश से श्राद्ध करना श्राद्ध के मुख्य अभिप्राय पर नहीं पहुंचाता, इसी से श्राद्ध विषयक वेदादिशास्त्रों की आज्ञा का पालन हुआ भी नहीं कहा जा सकता, तथा कुछ व्यर्थ भी करने पड़ता है। और (आयन्तु नः०) इत्यादि मन्त्रों का अर्थ ज्ञानी लोगों के पितृ मानने में ही निर्दोष और ठीक बनता है। किन्तु मरों के पितृ मानने में नहीं। ‘सोम नाम शान्ति वा सहनशीलता रखने के योग्य तथा आहवनीयादि अग्नि के ग्रहण करने हारे अर्थात् ब्रह्मचर्यादि आश्रमों का धर्मपूर्वक वेदोक्त रीति से सेवन करने वाले हमारे रक्षक पितर लोग श्रेष्ठ पुरुषों की चाल के साथ आवें।’ इस अर्थ से मरे पितरों के आह्वान का कुछ भी संकेत नहीं, और न कोई ऐसा विशेषण है कि जिससे मरे पितृ लोग ही समझे जावें। उक्त सोम्यास आदि विशेषण मरों में कदापि घट भी नहीं सकते। कदाचित् अग्निष्वात्त पद का कोई यह अर्थ करे कि अग्नि में जलाये वा भस्म किये गये। और कोई लोग यह भी कह सकते हैं कि अग्निष्वात्त शब्द का अर्थ तुम्हारा ही ठीक रहे वा अन्य हो तो भी पितरों के श्राद्ध प्रकारणस्थ वेदमन्त्रों में- “ये अग्निदग्धा अनग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते” इत्यादि मन्त्र भी आते हैं, जिनका बहुत स्पष्ट होने से अर्थ बदला भी नहीं जा सकता, क्योंकि “दह भस्मीकरणे” धातु का रूप ही दग्ध होता है अर्थात् ‘जो पितर अग्नि से जले वा अग्नि से न जले हों, ऐसे पितरों को हविष्य खाने के अर्थ मैं बुलाता हूं।’ अब इसका भी उत्तर विचारने योग्य है कि अग्नि से पितरों का जलना कैसे हो सकता है ? पितर नाम यदि शरीर का रखो, तो यह बात घट सकती है कि अग्नि से जले पितर, परन्तु जो शरीर अग्नि से जला दिया गया, वह उसी समय भस्म हो गया, अब उसको श्राद्ध में बुलाना वा उसके लिये श्राद्ध का फल पहुंचाना, दोनों बातें असम्भव हैं। यदि पितर नाम जीवात्मा का मानो, जिसका बुलाना बन सकता है परन्तु वह अग्नि से नहीं जलाया गया, क्योंकि शरीर के जलाने से पहले ही वह निकल गया और उसके निकल जाने से ही शरीर जलाया गया। तो उन जीवात्माओं के साथ अग्निदग्ध विशेषण लग ही नहीं सकता। यदि कहो कि चेतन शरीर का नाम पितर है, तो चेतन शरीर भी जलाया नहीं गया। इस प्रकार किसी रीति से मृतकों के श्राद्ध पक्ष का अर्थ नहीं बनता और इसी प्रकार जीवात्मा को किसी का पिता वा पुत्र भी नहीं कह सकते, क्योंकि श्वेताश्वतरोपनिषद् में स्पष्ट निषेध भी किया है कि- ‘आत्मा कोई किसी का पिता-पुत्रादि नहीं, किन्तु जब तक शरीर के साथ संयोग रहा, तब तक पिता-पुत्रादि नाम से माना गया।’१ इससे जीवात्माओं को पीछे किसी के पितर कह भी नहीं सकते। तथा इसी प्रकार “मृताः” यह भी पितरों का विशेषण नहीं बनता, क्योंकि मरण नाम प्राणवियोग का है, वह शरीर से हुआ अर्थात् शरीर से प्राण निकल गये तो मरे पितर शरीरों को कह सकते हैं, सो शरीर शीघ्र ही जलने आदि द्वारा मिट्टी में मिल जाते हैं। फिर उनका भी बुलाना नहीं हो सकता। अब यदि कोई कहे कि अच्छा हमारे पक्ष में अग्निदग्ध आदि पदों का अर्थ नहीं बनता, तो तुम क्या अर्थ करते और अपने पक्ष में कैसे घटाते हो ? इसका उत्तर यह है कि ‘अग्नि द्वारा भूंजे वा पकाये गये वा स्वयं कालपक्व सामयिक फलादि दोनों प्रकार के पदार्थ ज्ञाननिष्ठ पितृ लोगों के भोजनार्थ उपस्थित करने चाहियें।’ अर्थात् अग्निदग्ध आदि पद भोग्य वस्तुओं के विशेषण हैं। यदि वहां पितृ शब्द भी हो तो वेद का यौगिकार्थ होने से रक्षक पदार्थों का विशेषण माना जावेगा। इत्यादि प्रकार सब अर्थ ठीक है, केवल बुद्धि पर थोड़ा बल देना चाहिये। इस सब कथन से सिद्ध हुआ कि (आयन्तु नः०) इस मन्त्र में पितृ शब्द से जीवते हुए ज्ञानी पितरों का ग्रहण है। द्वितीय पिण्ड धरने का मन्त्र कहा, सो भी ठीक नहीं क्योंकि उसमें पिण्ड वा धरने का कुछ भी संकेत नहीं है। और शतपथ ब्राह्मण का प्रमाण दिया उसमें भी मरों का नाम न होने से वैसा अर्थ नहीं आता और कदाचित् मृतकों के श्राद्ध करने का उपदेश शतपथादि में किसी अभिप्राय से निकल आवे, तो भी सिद्धान्त पक्ष में कोई दोष नहीं आता। क्योंकि जब वेद का सिद्धान्त नहीं तो वेद से विरुद्ध और प्रमादादि दोषयुक्त लेख उनमें भी हो सकता है। और मनुस्मृति के तृतीयादि अध्यायों में अनेक श्लोक मरों का श्राद्ध बताने के लिये हैं, यह बात हमको भी स्वीकार है, परन्तु उन श्लोकों के वहां लिखे होने मात्र से वैसा श्राद्ध कर्त्तव्य सिद्ध नहीं होता। ऐसा हो तब तो चोरी वा परस्त्रीगमन भी अनेक स्थलों में किसी विशेष प्रयोजन से वा निषेध के लिये लिखा है, तो क्या चोरी आदि कर्त्तव्य होगा ? प्रयोजन यह है कि लिख देने मात्र से किसी कार्य का कर्त्तव्य वा अकर्त्तव्य होना सिद्ध नहीं हो सकता, किन्तु जिसको विधान की रीति से अर्थवाद सहित लिखा हो, वही कर्त्तव्य है। तो भी इस का विशेष निश्चय तृतीयाध्याय के प्रक्षिप्त समीक्षा प्रसग् में आगे करेंगे।

और गयाश्राद्ध तो दूसरों के पदार्थ हरने वाले वहां के धूर्त्त लोगों ने अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिये कल्पित किया है, ऐसा अनुमान होता है। यदि कोई विद्वान् इसको ध्यान देकर विचारे तो सिद्ध हो जायेगा कि गयाश्राद्ध के होने से पौराणिक मत में श्राद्ध नित्यकर्म नहीं ठहर सकता, क्योंकि गयाश्राद्ध किये पश्चात् पितरों की मुक्ति हो जाती है वा ऐसी दशा में वे पहुंच जाते हैं कि पुत्रों के लिये श्राद्धफल के भोग की इच्छा शेष नहीं रह जाती, तो गयाश्राद्ध करने पीछे किसी को श्राद्ध न करना चाहिये और सभी लोग पिता के मरने पश्चात् एक दो वर्ष में गयाश्राद्ध कर देंगे, पीछे श्राद्ध करना निष्फल वा निष्प्रयोजन है, क्योंकि भरे को भरना व्यर्थ है, इस प्रकार “सब को नित्य श्राद्ध करना चाहिये” इत्यादि प्रकार की धर्मशास्त्र की आज्ञा भी नहीं बन सकती, क्योंकि श्राद्ध सदा नहीं हो सकता। और यह दोष जीवितों का श्राद्ध मानने वालों के पक्ष में नहीं आ सकता। क्योंकि वे अपने कल्याण के लिये नित्य श्राद्ध करें जैसे कि अग्निहोत्रादि करते वा करने चाहियें, वैसे श्राद्ध भी नित्य कर्त्तव्य बन जाता है। और गयाश्राद्ध से यदि पितरों का मोक्ष हो जाता है, तो ‘परमेश्वर के ज्ञान से भिन्न मोक्ष का अन्य मार्ग नहीं’१ इस वेद के मन्त्र से विरुद्ध है, अर्थात् ज्ञान के बिना मोक्ष होना असम्भव है। और इन लोगों का यह भी कहना ठीक नहीं कि मृतकश्राद्ध करने के लिये सब शास्त्रों का सिद्धान्त है। किन्तु मतवाद से भरे हुए पुराणों का यह मत है।

तथा पुत्र के बिना गति नहीं होती, यह भी एकदेशी वाक्य है, अर्थात् सर्वसम्मत नहीं है। क्योंकि जब स्पष्ट लिखा है कि- ‘ब्रह्मचर्य आश्रम से, घर से वा वन से जब पूर्ण पक्का वैराग्य हो जावे, तभी मनुष्य विरक्त बने।’१ इत्यादि ब्राह्मण और उपनिषद् के वचनों की आज्ञानुसार ब्रह्मचर्याश्रम से संन्यास ग्रहण परमार्थसिद्धि वा मोक्ष होने के लिये है, वह संन्यास मिथ्याभाव को प्राप्त होगा। क्योंकि ब्रह्मचर्याश्रम से ही जिसने संन्यास धारण किया, वह सन्तानों को उत्पन्न नहीं करेगा। और संन्यास आश्रम का प्रयोजन यही है कि जिससे परमार्थ में अच्छी गति हो। यदि बिना पुत्र के संन्यास धारण करने पर भी सुगति न हुई तो “ब्रह्मचर्याश्रम से ही विरक्त हो जावे” इत्यादि प्रकार के शास्त्र के वचन व्यर्थ हुए। और मनु जी ने भी बिना पुत्रों के सुगति होना स्पष्ट ही कहा है कि- ‘जिन्होंने कुल सन्तति अर्थात् पुत्रादि उत्पन्न नहीं किये, ऐसे सहस्रों क्वारे तपस्वी ब्राह्मण प्रकाशमय परमेश्वर को प्राप्त हुए- मुक्त हो गये।’१ इसी प्रकार जन्म से लेकर ब्रह्मचारी, सन्तति रहित भीष्म जी आदि महात्मा लोगों की सुगति होना इतिहासादि में प्रसिद्ध ही है। इस कारण बिना पुत्र के गति नहीं होती, इस वाक्य का अन्य ही प्रयोजन है, किन्तु जन्मान्तर में सुख देने से अभिप्राय नहीं कि पुत्रों वाले ही जन्मान्तर में सुख भोगें और निर्वंशी दुःख में ही पड़ें।

अब एक विचार यह भी है कि हम लोगों के जो पितादि मर गये हैं, उनके यदि योगाभ्यास और ईश्वर की उपासनादि शुभकर्म संचित हैं, कि जिनको उन्होंने अपने वर्तमान समय में संचित किया तो उन शुभकर्मों के फल से पितरों की सुगति अवश्य हो जायेगी, सो यह बात भगवद्गीता के छठे और दूसरे अध्याय में भी कही है कि- ‘हे अर्जुन ! अच्छे धर्मयुक्त कर्म करने वाला कोई पुरुष दुर्गति को प्राप्त नहीं होता। और थोड़ा भी धर्म का संचय किया हुआ बड़े प्रबल दुःख से बचा देता है।’२ इससे सिद्ध हुआ कि इस जन्म में परिश्रम से उपार्जन किया धर्म ही जन्मान्तर में सुख देता है। इस प्रकार धर्मात्मा होंगे तो हमारे पितादि अपने कर्मों से ही तर जायेंगे, उनके लिये श्राद्ध का फल पहुंचने की कल्पना करना व्यर्थ है। कदाचित् कोई मनुष्य धर्म करता हुआ भी दुर्गति को प्राप्त हो तो जिसको अपने ही कर्मों से सुख न मिला, तो वह पुत्रादि के किये श्राद्ध से सुख पा सकता है ? और जैसे धर्मात्मा दुर्गति को प्राप्त हो तो पापी भी सुगति को प्राप्त हो सकता है। यद्यपि यह असम्भव है कि धार्मिक दुःखी और अधर्मी सुखी रहें, तथापि इसका अभिप्राय यह ठीक होगा, कि जिसके पूर्व संचित पाप अधिक हैं, और वर्तमान का धर्म-सेवन उन पापों से अधिक प्रबल नहीं होता, तब तक धर्म करने पर भी वह दुःख भोगेगा और जिसका पूर्व संचित धर्म अधिक है, वह वर्तमान में पाप करने पर भी तब तक सुख भोगेगा कि जब तक पूर्व धर्म को दबाने वाला प्रबल पाप न बढ़ जावे। इस प्रकार धर्म का फल दुःख और अधर्म का सुख कदापि नहीं ठहर सकता। और कदाचित् कहीं ऐसा ही निश्चित जान पड़े कि उल्टा फल होता है, तो धर्म-अधर्म का लक्षण समझने की भूल माननी पड़ेगी अर्थात् जिसका परिणाम सुख हो वह धर्म और जिसका परिणाम वा फल दुःख हो, वही अधर्म है। क्योंकि अनेक लोग धर्माभास को भी धर्म मानकर उसके दुःख फल को धर्म का परिणाम ठहराने लगते हैं, यह उन लोगों का दोष है। इस प्रकार मरों को फल पहुंचाने के लिये श्राद्ध करना निष्फल है, क्योंकि जैसे नियतविपाक संचित धर्म का फल अवश्य मिलता है, उससे जैसे मरे हुए धर्मात्मा पिता के लिये श्राद्ध करना निष्फल हुआ वैसे निश्चित फल वाले अधर्म का भी दुःख फल अवश्य प्राप्त होगा, इससे वैसे ही अधर्मी पिता के लिये भी श्राद्ध करना निष्फल आता है। इससे मरों के निमित्त श्राद्ध न करना चाहिये, किन्तु जीवित ज्ञाननिष्ठ पितरों का श्राद्ध करना चाहिये।

निर्वंशी पुरुष की सुगति नहीं होती, इसका तात्पर्य यह है कि संसारी अर्थात् गृहाश्रम सेवने वाले मनुष्य को पुत्रादि उत्पन्न अवश्य करने चाहियें, यह आज्ञा भी शास्त्रों में है, इस आज्ञा के मुख्य कर दो ही प्रयोजन हैं। एक स्वार्थ और द्वितीय परमार्थ। उनमें स्वार्थ तो लोक में भी प्रसिद्ध है, जैसे- संसारी मनुष्य कहते हैं कि कोई सुपूत उत्पन्न हो तो बुढ़ापे में कमाई खवावेगा। अर्थात् भोजन-वस्त्रादि से हमको तृप्त करेगा। और कुपूत लोगों से पितादि की रक्षा होना तो दूर रही, किन्तु पितादि के नाम को कलटित करते और ताड़नादि द्वारा भी दुःख पहुंचाते हैं। इसी विचारानुसार पञ्चतन्त्रादि नीतिशास्त्रों में लिखा है कि- ‘पुत्र उत्पन्न नहीं हुए वा होकर मर गये अथवा मूर्ख हुए इन तीनों दशा में से पहली दो दशा अच्छी हैं, अर्थात् मूर्ख पुत्र की अपेक्षा उसका न होना वा होकर मर जाना अच्छा, क्योंकि उन दो का तो स्मरण आने पर दुःख होता, परन्तु मूर्ख पग-पग में दुःख देता है। सौ मूर्खों की अपेक्षा एक गुणी पुत्र अच्छा है। जैसे एक ही सुगन्धित पुष्पयुक्त वृक्ष से सब वाटिका शोभित वा सुगन्धित हो जाती है, वैसे एक भी पुत्र से कुल की शोभा वा सुख मिलता है।’१ इत्यादि नीति के वाक्यों का यही अभिप्राय है, कि जो कुल का दीपक एक ही सुपुत्र सब कुल को सुखी कर देता है, और उसी पुत्र के कारण उस कुल की विख्याति वा प्रतिष्ठा जगत् भर में हो जाती है, ऐसे पुत्र को उत्पन्न करने के लिये सब गृहस्थों को यत्न करना चाहिये। जैसा सुख सुपूती कुल वा पितादि को मिलता है, वैसा पुत्रहीन को कदापि नहीं मिल सकता। इसी से महाभारत उद्योगपर्व में कहा है कि- ‘पुत्र का आज्ञाकारी होना भी संसारी मनुष्य को एक बड़ा सुख है।’१ और वृद्धावस्था में प्रायः मनुष्यों की शक्ति भी कम हो जाती है, और शक्ति के जीर्ण हो जाने से ही वृद्ध कहाता है, उस समय अशक्त वृद्ध पुरुष अपने हाथ-पग आदि से अपने शरीर का भी सब काम नहीं चला सकते, तो धनादि का उपार्जन करना वा भोजनादि बनाना तो अति कठिन है। ऐसे अत्यन्त सामर्थ्यहीन होने के समय में पहले का संचित धनादि पदार्थ भी यदि निकट में नहीं है, तो अच्छे पुत्र अपने परिश्रम से धनादि का उपार्जन कर और भोजनादि देकर सब प्रकार की सेवा से पितादि की रक्षा करें, और जिन वृद्धों के समीप पहला संचित धनादि है, उनको भी भृत्यों से वैसा सुख नहीं मिल सकता कि जैसा घृणादि त्याग कर अपना पुत्र सुख दे सकता है। और लोक में जिनके पुत्र नहीं उनको मरते समय वृद्धावस्था में प्रायः अच्छी रीति से सुख नहीं मिलता। और जो कुछ धनादि ऐश्वर्य मनुष्य अपने जन्म भर में जोड़ता है, उसकी आगे रक्षा करने और कुल की परम्परा चलाने के लिये भी पुत्रों की आवश्यकता है, क्योंकि अन्य के धन से अन्य पुरुष उसके अभीष्ट ही कार्य नहीं करता, किन्तु सुपुत्र पिता के उपार्जन किये धन से पिता के अभीष्ट कार्यों को ही प्रायः सिद्ध करता है। अर्थात् कहीं-कहीं पिता के शत्रु से पुत्र बदला भी ले लेता है। इत्यादि प्रकार से पुत्र की उत्पत्ति मुख्य कर सज्जन पुरुष संसारी स्वार्थ अर्थात् अपने लिये धन प्रतिष्ठा वा सुख होने के लिये वा उन माता-पितादि का नाम चलने के लिये मानते हैं।

और परार्थ यह है कि- परमेश्वर ने धर्म की रक्षा और व्यवस्था करने वा मर्यादा और नियमों का पालन करने के लिये मनुष्य को बनाया है। इसीलिये नीतिकार ने कहा है कि- ‘भोजन करना, सोना, भय और मैथुन ये सब कर्म पशु और मनुष्यों में तुल्य हैं। परन्तु मनुष्यों में एक धर्म अधिक है, इससे जो मनुष्य   धर्म नहीं करता वह पशु के समान है।’२ इससे धर्माचरण करने वाले मनुष्य को चाहिये कि युवावस्था में ही मरण से पूर्व अपना प्रतिनिधि पुत्र को उत्पन्न कर देवे। परमेश्वर की सृष्टि में जैसे स्वयं धर्म का सेवन करता था वा करता है अर्थात् अपने घर से जिस-जिस का जैसा-जैसा उपकार करना प्रारम्भ किया हो वा जो-जो धर्मसम्बन्धी दानादि कर्म कुल की परम्परा से नियत चले आते हों, उन कर्मों का पिता ने भी जैसा सेवन किया हो वैसा ही करने के लिये पुत्र को शिक्षा करे, जिससे वृद्ध पिता के मर जाने पर भी उपकार सम्बन्धी कार्य वैसा ही निर्विघ्न चलता जावे।

‘गृहस्थ पुरुष मैथुन मात्र करता रहे और पुत्र न हों तो शोचनीय दशा है’१ इत्यादि प्रकार नीति के उपदेश से सूचित होता है, कि स्त्री सम्बन्ध रूप गृहाश्रम का पुत्रोत्पत्ति फल है, यदि गृहस्थ केवल मैथुन करे, किन्तु पुत्रोत्पत्ति की रीति न करे, तो उसका विवाह करना निरर्थक है और परमेश्वर ने जगत् की स्थिति से    धर्म बढ़ाने के लिये संसार को रचा है, यदि पुत्रों की उत्पत्ति का उपाय न किया जाय तो वृद्धों के मरते जाने और नवीन सन्तानों के उत्पन्न न होने से कभी सबका अभाव होना प्राप्त है, और ऐसा होना परमेश्वर की इच्छा से विरुद्ध है। इससे परमेश्वर का अभिप्राय है कि सन्तानोत्पत्ति मनुष्य को करनी चाहिये। जो ऐसा नहीं करता वह परमात्मा की आज्ञा को तोड़ने वाला है। ऐसा मानकर उसकी सुगति न हो, यह कह सकते हैं। इससे बिना पुत्र के गति नहीं, यह सामान्य प्रकार से सिद्ध हो गया। परन्तु कहीं विशेष दशा में जो ब्रह्मचर्याश्रम से ही बाल ब्रह्मचारी विरक्त हो जाते हैं, और वे गृहाश्रम भी नहीं करते। वे पुत्रों को उत्पन्न करके उतना उपकार नहीं कर सकते कि जितना जन्मभर ब्रह्मचर्याश्रम के साथ रहने वाले कर सकते हैं। इस कारण वे कुमारब्रह्मचारी निर्वंशी के दोष से दूषित नहीं होते। और वृद्धावस्था में गृहस्थ के तुल्य क्षीण न होने से शिथिल भी नहीं होते कि जिनको पुत्रों के बिना दुःख भोगने पड़ें। और युवावस्था में वे विरक्त धर्मोपदेशादि द्वारा बहुतों का बड़ा-बड़ा उपकार करते हैं। उनको प्रत्युपकाररूप सेवा करने वाले शिक्षित शिष्य वृद्धावस्था में मन, वाणी और शरीर से निरन्तर सेवा करके सन्तुष्ट करते हैं। इस प्रकार विद्या और धर्म के सम्बन्धी उनके अनेक शिष्य पुत्रवत् ही होते हैं।

अब श्राद्ध में पिण्डदान क्यों चला ? इस पर थोड़ा सा विचार लिखा जाता है- ‘चार पिण्ड प्रातःकाल और चार सायंकाल नियम पूर्वक खावें तो इसे शिशुचान्द्रायण कहेंगे।’१ इत्यादि मनुस्मृति के श्लोकों में ही पिण्ड शब्द ग्रास का पर्यायवाची माना गया है। पिण्ड शब्द के यथासम्भव अन्य भी अर्थ हो सकते हैं। तो भी श्राद्ध में ग्रास का पर्यायवाची लेना उपयोगी है। और चान्द्रायणादि व्रतों में ग्रास का लक्षण लड्डू के आकार का है। इसी प्रकार लड्डू आदि के समान बने हुए सब पेड़ा आदि मिठाई पिण्ड कहाते हैं। खीर आदि सर्वोत्तम स्वादिष्ट वस्तुओं से बनाये पिण्ड ज्ञानी पितृजनों के भोजन योग्य वस्तुओं में सर्वोत्तम होने से उपयोगी होते थे, ऐसा अनुमान होता है। पीछे जब मरों के लिये श्राद्ध करना किन्हीं लोगों न चलाया, तबसे पिण्डों की भी दुर्दशा होने लगी कि जो इस समय अधपिसे भूसी सहित केवल कच्चे जौ के ही प्रायः जैसे-तैसे दिये जाते हैं। कि जैसा घोड़ा, बैल आदि पशुओं को दाना देते हैं, क्या यह पिण्डों की थोड़ी दुर्दशा है ? ‘पितृ लोगों को पिण्ड देने चाहियें’२ इत्यादि प्रकार पुराने पुस्तकों के श्राद्ध प्रकरण में जहां-जहां लिखा है, उसका आशय यह है कि लड्डू पेड़ादि गोलरूप मिठाई भोजन समय में पितृ लोगों को देना चाहिये। इससे पीछे अविद्या के प्रभाव से मुख्य अभिप्राय न जानकर मरों के लिये पिण्ड देने चाहियें, ऐसी कल्पना किन्हीं लोगों ने की हो, ऐसा अनुमान होता है। सो यह मरों के लिये पिण्ड देने की कल्पना करना ठीक नहीं।

अथर्ववेद में भी तर्पण का विधान नहीं है। अर्थात् जो कोई लोग उस (ये जीवा०) मन्त्र से मृत पद को देखकर मरों का तर्पण निकालते हैं, उनको “जीवाः” पद को देखकर जीवितों का भी तर्पण निकालना चाहिये। यदि कोई कहे कि जीवा पद मृत शब्द का विशेषण है, तो उसके मत में समुच्चय अर्थ के लिये पढ़ा ‘चकार’ निरर्थक हो जायेगा अर्थात् समुच्चयार्थ पढ़े ‘चकार’ से स्पष्ट प्रतीत होता है कि मृता और जीवा भिन्न-भिन्न पद हैं। और सर्वनामवाची यत् शब्द के चार प्रयोग मन्त्र के पूर्वार्द्ध में ही पढ़े हैं। उनसे भी सबका पृथक् होना सूचित होता है। कथनमात्र कोई करे, किन्तु उक्त अथर्ववेद के मन्त्र का अर्थ मरे हुए पितरों के तर्पण पक्ष में यथावत् कोई नहीं घटा सकता। इस कारण इस मन्त्र से मरों के तर्पण का नाम भी नहीं निकलता, किन्तु संसार का उपकार करने वाली एक प्रकार की विद्या इससे निकलती है, उसका संक्षेप से व्याख्यान निम्न लिखित प्रकार जानो-

पदार्थ ये जीवाः= जो किसी प्रकार कष्ट के साथ अन्न-जलादि को पाकर प्राण का धारण करते और ये मृताः= जो अन्न-जलादि के न मिलने से मरते- प्राण छोड़ते वा छोड़ने को उद्यत होते हैं ये जाताः= जो शीघ्र प्रकट हुए थोड़ी अवस्था के पशु-पक्षी आदि के बच्चे वा अंकुररूप वृक्षादि = और ये यज्ञियाः= यज्ञकर्म में उपयुक्त होने वाले ओषधि, वनस्पति वा अन्नादि हैं तेभ्यः= उनके अच्छे प्रकार होने के लिये घृतस्य= जल की व्युन्दती= शीतलता गुण पहुंचाने वाली   मधुधारा= खारीपन आदि दोष रहित जिसकी मीठे स्वादिष्ट गुणकारी जलयुक्त   धारा हो ऐसी कुल्या= कृत्रिम बनावटी नदी-नहर एतु= प्राप्त हो, जिससे जगत् में सब चराचर प्राणियों की रक्षा हो।

भावार्थ जिस-जिस मरु आदि देश में जल नहीं मिलता वा बड़े कष्ट से मिलता है, उन-उन प्रदेशों में सुगमता से सर्वदोष रहित मीठा जल प्राप्त होने के लिये देशहितैषी धनाढ्य वा प्रजापालन में तत्पर राजपुरुषों को नवीन नदी-नहर निकालनी चाहिये, क्योंकि जल से ही सब चराचर की उत्पत्ति होना और स्थिति रहना सम्भव है। इसलिये सबसे ऊपर यह धर्मानुकूल कर्म है। इस प्रकार बड़े उपकारी धर्मसम्बन्धी कृत्य का इस मन्त्र में परमेश्वर ने उपदेश किया है। उसको छोड़कर अयुक्त निर्मूल अर्थ को प्रसिद्ध करने की चेष्टा करने वालों से विद्वान् लोग क्या कहेंगे ?

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