आर्य समाज और डॉ. अम्बेडकर ,प्राक्कथन: राजेन्द्र ’जिज्ञासु

मेरी उत्कट इच्छा थी कि ”आर्यसमाज और डॉ0 अम्बेडकर“ विषय पर कुछ लिखा जाए। मैं स्वयं तो इस विषय पर कुछ लिखूँगा ही, परन्तु मैं यह चाहता था कि प्रिय भाई कुशलदेवजी इस विषय पर अवश्य एक खोजपूर्ण पुस्तक लिखें। हर्ष का विषय है कि उन्होंने अपने व्यस्त जीवन से कुछ क्षण निकालकर यह पठनीय व संग्रह करने योग्य पुस्तक लिख दी है। आर्यसमाज के एक कर्मठ व प्रबुद्ध विद्वान् डॉ0 रामकृष्ण आर्य इसे आर्य परिवार प्रकाशन समिति, कोटा के माध्यम से प्रकाशित-प्रसारित करने का यश लूट चुके हैं, और संप्रति श्री प्रभाकरदेव जी आर्य इस कीर्ति को लूट रहे हैं।

राष्ट्रीय एकता की कड़ियों को सुदृढ़ करने के लिए इस कृति का प्रकाशन अत्यन्त प्रशंसनीय है। इससे घृणा-द्वेष की दीवारें टूटेंगी और भ्रम भंजन भी होगा। इसकी एक-एक पंक्ति देश-जाति के सेवकों को पढ़नी चाहिए। डॉ0 कुशलदेवजी ने जो कुछ भी लिखा है, देश व समाज के हित के लिए लिखा है। एक पीड़ा लेकर लिखा है। आर्यसमाज गुण-कर्म-स्वभावानुसार समाज के निर्माण व जन्म की जाति-पाँति के दुर्ग को ध्वस्त करने में 75 प्रतिशत विफल रहा है, यह डॉ0 कुशलदेवजी की अन्तःवेदना को ही प्रकट करता है। मैं इस पीड़ा में उनका भागीदार हूँ। मैंने भी जीवन के मूल्यवान् 50 वर्ष इस जातीय राजरोग के निवारण में लगाये हैं।

मैंने डॉ0 कुशलदेवजी की एक-एक पंक्ति पढ़ी है। जात-पात तोड़क मण्डल के संस्थापक जीवन के अन्तिम श्वास तक आर्यसमाजी रहे। श्री सन्तरामजी आर्यसमाज के सर्वश्रेष्ठ मासिक ’आर्य मुसाफिर‘ के यशस्वी सम्पादक रहे। डॉ0 अम्बेडकर को जात-पात तोड़क सम्मेलन का अध्यक्ष बनाने में असर्मथता का कारण ’वेद निन्दा‘ के प्रचार में भागीदारी से बचना था। अन्यथा विरोध करने वाले तीनों व्यक्ति जाति-पाति के विरोधी थे। देवता स्वरूप भाई परमानन्दजी ने तो अपनी सन्तानों के विवाह जात-पाँत तोड़कर ही किये।

यह भी निवेदन कर दूँ कि डॉ0 गोकुलचन्द नारंग, भाईजी के भक्त, शिष्य, मित्र व सहयोगी थे।

पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय कोल्हापुर के राजाराम स्कूल के प्रधानाध्यापक रहे। तब उस स्वल्प काल में आपने निकट से डॉ0 अम्बेडकर व उनकी गतिविधियों को देखा।

महाराष्ट्र में जन-जागृति, शिक्षा-प्रसार व अस्पृश्यता निवारण के आन्दोलन में प्रि0 श्री डॉ0 बालकृष्णजी का भी अद्भुत योगदान रहा। उस आर्य मनीषी को श्री शाहू महाराज ने ही कोल्हापुर बुलाया था। डॉ0 बालकृष्णजी के व्यक्तित्व व सेवाओं की डॉ0 अम्बेडकर पर छाप पड़ी, इसको भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

पंजाब में तो बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में ही दलित वर्ग में अनेक संस्कार वैदिक रीति से हुए। महाराष्ट्र में यह युग बाद में आया।

देश प्रेमियों का कत्र्तव्य है कि इस पुस्तक का अधिक-से-अधिक प्रचार प्रसार करें। अन्त में एक बात कहना चाहूँगा कि डॉ0 अम्बेडकर ने वेद व वैदिक मान्यताओं के विरूद्ध जो कुछ भी कहा था, लिखा है, वह रूढ़िवादियों के घृणित व्यवहार की प्रतिक्रिया मात्र था, अन्यथा उनका वेद से कोई विरोध नहीं था। ’धम्मपद‘ में भी तो कोई एक भी शब्द वेद की निन्दा में नहीं मिलता।

 

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