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द्वे-वचसि: कुशलदेव शास्त्री

मेरी शिक्षा-दीक्षा आर्यसमाजी शिक्षण संस्था गुरुकुल झज्जर (हरियाणा) और गुरुकुल ज्वालापुर (हरिद्वार) में हुई। गुरुकुलीय विद्यार्थी जीवन में एक-दो जातियों के नाम तो सुने थे, पर जातिगत भेद-भाव और उच्च-नीचता का थोड़ा भी अहसास नहीं हुआ था। स्वयं मुझे मेरी तथा अन्य छात्रों की जातियों के बारे में भी कुछ अता-पता नहीं था, अतः अस्पृश्यता का कोई सवाल ही नहीं उठता था। हम सभी छात्र एक ही परिवार के स्नेहित सदस्यों की तरह अपना-अपना जीवन यापन करते थे। पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय ने ठीक ही कहा है कि ’गुरुकुल के प्रवेश-पत्रों में जाति-बिरादरी का खाना नहीं था।‘ (भारतीय उत्थान और पतन की कहानी-पृष्ठ 119)

 

गुरुकुल की चारदीवारी से बाहर आने के बाद जातियों का पहले परिचय हुआ, फिर धीरे-धीरे जातिगत भेद-भाव की कटुताओं का परिचय होने लगा। हमारा घर आर्यसमाजी और वह भी क्रियात्मक जीवन में अन्तर्जातीय विवाह का समर्थक होने से सामाजिक सौहार्द का पक्षधर रहा। गाँव में पिताजी ’एक गाँव-एक पनघट‘ तथा ’मन्दिर-प्रवेश‘ जैसे उपक्रमों द्वारा सतत समता-बन्धुता का वातावरण बनाने के लिए आजीवन प्रयत्नशील रहे। इस कारण गुरुकुल और घर दोनों से ही मानवतावादी संस्कार प्राप्त हुए।

गुरुकुल के विषय में अपनी टिप्पणी अंकित करते हुए श्री पं0 उदयवीरजी ’विराज‘ (जन्म-1921) लिखते हैं-”मेरे विचार से गुरुकुल शिक्षा पद्धति आदर्श शिक्षा पद्धति है। जब कहीं दलितोद्धार नहीं था, तब गुरुकुल में दलितोद्धार था, जब कहीं समाजवाद नहीं था, तब गुरुकुल में समाजवाद था। जब कहीं हिन्दी में पढ़ाई नहीं होती थी, तब गुरुकुल में सब विषय हिन्दी में पढ़ाये जाते थे। महात्मा मुन्शीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) ने युवकों को ब्रह्मचर्य की दीक्षा देकर उन्हें आदर्श नागरिक, आदर्श मनुष्य बनाना चाहा था।“ (निजामशाही पर पहली चोट-पृष्ठ 41) डॉ0 अम्बेडकरजी ने तो स्वामी श्रद्धानन्दजी को ”दलितोद्धार के क्षेत्र का चैम्पियन ही कहा है।“

उपन्यास सम्राट् प्रेमचन्द (1880-1936) माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी के समाज-सुधार विषय रचनात्मक कार्यों से सुपरिचित थे, अतः उन्होंने अपने द्वारा सम्पादित ’हंस‘ मासिक के अगस्त-1933 के मुखपृष्ठ पर डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर का चित्र छापा था। अप्रैल-1936 में लाहौर आर्यसमाज की जुबली के अवसर पर ”आर्य भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष के नाते प्रसंगवशात् प्रेमचन्दजी ने आर्यसमाज पर टिप्पणी करते हुए कहा था -“

     ”मैं तो आर्यसमाज को जितनी धार्मिक संस्था मानता हूँ, उतनी ही तहजीबी (सांस्कृतिक) संस्था भी समझता हूँ। उसके तहजीबी कारनामे उसके धार्मिक कारनामों से ज्यादा प्रसिद्ध और रोशन हैं। दलितों के उद्धार में सबसे पहले आर्यसमाज ने कदम उठाया। लड़कियों की शिक्षा की जरूरत को सबसे पहले उसने समझा। वर्ण-व्यवस्था को जन्मगत न मानकर कर्मगत सिद्ध करने का सेहरा उसके सिर पर है। जातिगत भेदभाव और खान-पान में छूत-छात और चैके-चूल्हे की बाधाओं को मिटाने का गौरव उसी को प्राप्त है। उसके उपदेशकों ने वेदों और वेदांगों के गहन विषय को जन-साधारण की सम्पत्ति बना दिया, जिन पर विद्वानों और आचार्यों के कई-कई लीवरवाले ताले लगे हुए थे। “

निस्सन्देह आर्यसमाज और डॉ0 अम्बेडकर आदि की प्रेरणा से प्रचलित आन्दोलन मूलतः समाज-सुधार के चक्र को गतिशील बनाने वाले आन्दोलन रहे हैं। आज भी समाज में जहाँ-कहीं भी जातिगत भेदभाव के आधार पर नफरत की काली घटाएँ फैलती हैं, उन्हें छिन्न-भिन्न करने के लिए डॉ0 अम्बेडकर और ऋषि दयानन्द के अनुयायियों को अग्रिम पंक्ति में नजर आना चाहिए और वैसे वे इस दिशा में आगे बढ़ते हुए नजर आते भी हैं। पर यहाँ कार्य करते समय हमारी भाषा और क्रिया ऐसी संयमित हो कि उसमें अनुदारता और उग्रता न झलके। हमें सतर्कता बरतना इसलिए भी जरूरी है कि कहीं बिहार प्रान्त की तरह अन्यत्र भी वर्ण द्वेष, वर्ग द्वेष में परिवर्तित न हो। पूरी सावधानी के साथ हमारी यह कोशिश होनी चाहिए कि सामाजिक विषमता सामाजिक घृणा में बदलने की अपेक्षा समता-बन्धुता में रूपान्तिरत हो जाए। इन्सान और इन्सान के बीच में जातिगत-भेदभाव के कारण जो खाई दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, उसे पाटना ही हम सबका प्रयोजन होना चाहिए। इस लेख का भी यही मुख्य प्रयोजन है। इस विषय पर सर्वप्रथम आलेख ’आर्य लेखक परिषद‘ के उदयपुर (राजस्थान) अधिवेशन में पढ़ा गया था। यह उसी का सवंर्धित रूप है, जो श्री घूडमल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास के संस्थापक, यशस्वी प्रकाशक श्री प्रभाकरदेव जी आर्य के पुनीत प्रयास से हिण्डौन सिटी (राजस्थान) की ओर से प्रकाशित हो रहा है। आर्यसमाज के ख्याति प्राप्त शोध लेखक और इतिहासज्ञ प्रा0 राजेन्द्रजी ’जिज्ञासु‘ ने पुस्तक का प्राक्कथन लिखकर पुस्तक का गौरव बढ़ा दिया है, तदर्थ बहुत-बहुत धन्यवाद।