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मनु का विरोध क्यों? डॉ. सुरेन्द्र कुमार

ओ३म्

मनु का विरोध क्यों?

लेखक

डॉ. सुरेन्द्र कुमार

‘मनुस्मृति-भाष्यकार एवं प्रक्षेपानुसन्धानकर्ता’

आचार्य (संस्कृत, व्याकरण, साहित्य दर्शन)

एम.ए. (संस्कृत, हिन्दी), पी-एच.डी.

 

आजकल हवा में एक शब्द उछाल दिया गया है-‘मनुवाद’, किन्तु इसमा अर्थ नहीं बताया गया है| इसका प्रयोग भी उतना ही अस्पष्ट और लचीला है, जितना राजनीतिक शब्दों का| मनुस्मृति के निष्कर्ष के अनुसार मनुवाद का सही अर्थ है-‘गुण-कर्म-योग्यता के श्रेष्ठ मूल्यों के महत्त्व पर आधारित विचारधारा’, और तब, ‘अगुण-अकर्म-अयोग्यता के अश्रेष्ठ मूल्यों पर आधारित विचारधारा’ को कहा जायेगा-गैर मनुवाद|

अंग्रेज-आलोचकों से लेकर आजतक के मनुविरोधी भारतीय लेखकों ने मनु और मनुस्मृति का जो चित्र प्रस्तुत किया है, वह एकांगी, विकृत, भयावह और पूर्वाग्रहयुक्त हैं | उन्होंने सुन्दर पक्ष की सर्वथा उपेक्षा करके असुन्दर पक्ष को ही उजागर किया है| इससे न केवल मनु की छवि को आघात पहूंचता है, अपितु भारतीय धर्म, संस्कृति-सभ्यता, साहित्य, इतिहास, विशेषतः धर्मशास्त्रों का विकृत चित्र प्रस्तुत होता है, उससे देश-विदेश में उनके प्रति भ्रान्त धारणाएं बनती हैं| धर्मशास्त्रों का वृथा अपमान होता है| हमारे गौरव का हस होता हैं|

इस लेख के उद्देश्य हैं-मनु और मनुस्मृति की वास्तविकता का ज्ञान कराना, सही मूल्यांकन करना, इस सम्बन्धी भ्रान्तियों को दूर करना और सत्य को सत्य स्वीकार करने के लिए सहमत करना| इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जन्मना जाति-व्यवस्था से हमारे समाज और राष्ट्र का हस एवं पतन हुआ है, और भविष्य के लिए भी यह घातक है| किन्तु, इस एक परवर्ती त्रुटि के कारण समस्त गौरवमय अतीत को कलंकित करना और उसे नष्ट-भ्रष्ट करने का कथन करना भी अज्ञता, अदूरदर्शिता, दुर्भावना और दुर्लक्ष्यपूर्ण है| यह आर्य (हिन्दू) धर्म, संस्कृति-सभ्यता और अस्तित्व की जडों में कुठाराघात के समान है|

 

संसार की सभी व्यवस्थाएं शतप्रतिशत खरी और सर्वमान्य नहीं होती| परवर्ती जातिव्यवस्था की तरह आज की व्यवस्था भी पूर्ण नहीं है| यदि कोई त्रुटि आ जाये तो उसका परिमार्जन किया जा सकता हैं| हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने इसके लिए एक उदार मूलमन्त्र बहुत पहले से दे रखा है-

‘‘यानि अस्माकं सुचरितानि, तानि त्वया उपास्यानि, नो इतराणि|’’

(तैतिरीय उप.१.११.२)

अर्थात्-हमारे जो उत्तम आचरण हैं, उन्हीं का अनुसरण करना, अन्य का नहीं |

इसका पालन करके हम अनुत्तम का परित्याग कर उत्तम को बनाये रख सकते हैं| उत्तम ही सत्य है, शिव है| उसका परित्याग करना मूर्खता हैं| आशा है, पाठक इसे पढकर मनु-सम्बन्धी भ्रान्तियों से बच सकेंगे, और मनुस्मृति के मौलिक मन्तव्यों से अवगत हो सकेंगे तथा उसे ग्रहण करने के लिए उद्यत होंगे |

निवेदक: डॉ. सुरेन्द्रकुमार

 

 

मनु का विरोध क्यों?

अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेजी-शासन के हितों से जुडे और ईसाईयत में दीक्षित कुछ पाश्‍चात्य लेखकों ने पहले-पहल, भारतीयों के मन में प्रत्येक उस वस्तु और व्यक्ति के प्रति योजनाबद्ध रुप से विरोधी संस्कार भरने का और उनकी आस्था भंग करने का षड्यन्त्र किया, जिनका परम्परागत रुप से भारत की अस्मिता, गरिमा और महिमा से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा था | इस प्रकार नींव पडी भारतीयता-विरोध परम्परा की| अंग्रेजी शासन के प्रभाव, ‘फूट डालो और राज करो’ की कूट राजनीति और मैकाले द्वारा प्रवर्तित कूट शिक्षानीति के सहारे वे कुछ भारतीयों को अपने रंग में रंगने में सफल हो गये | उन्होंने इस परम्परा को निभाया और आगे बढाया| इसी परम्परा में उभरे कुछ वे लोग और वर्ग जिन्होंने सर्वप्रथम समाजव्यवस्थापक, आदि विधिनिर्माता महर्षि मनु और उनके आदि विधानशास्त्र मनुस्मृति को अपनी निंदात्मक आलोचनाओं का केन्द्र बनाया| आज स्थिति यह है कि अंग्रेजी परम्परा में लिखी आलोचनाओं और सुनी-सुनायी बातों के आधार पर मनु एवं मनुस्मृति का विरोध करना कुछ सामाजिक वर्गों का एक लक्ष्म बन बया है, तो अंग्रेजीदां लोगों की परिपाटी और कुछ राजनीतिक दलों का चुनाव जीतने का मुद्दा | हमारे राजनीतिक लोगों की बात सबसे निराली है|  अभी पिछले वर्षो में कुछ लोग पार्टी विभाजन होते ही एक ही रात में ‘मनुपुत्र’ से ‘गैरमनुपुत्र’ बन गये और सार्वजनिक मंचों से लगे मनु, मनुस्मृति और मनुपुत्रों को कोसने | एक राजनीतिक दल ने सत्ता प्राप्त करने के लिए ‘मनुवाद’ जैसे नये मुद्दे का आविष्कार कर डाला | कुछ वर्ष पूर्व जयपुर स्थित उच्च न्यायालय के परिसर में जब आदि विधिप्रणेता होने के कारण मनु की प्रतिमा स्थापित की गयी, तो कुछ लोगों को उस जड प्रतिमा को ही विवाद का विषय बना डाला, जो आज एक प्रकरण के रुप में उसी न्यायालय में विचाराधीन है| जबकि वास्तविकता यह थी कि प्रतिमा-विरोध को कुछ लोग अपनी राजनीतिक पहचान बनाने का सुअवसर समझकर उसका अधिकाधिक लाभ उठाने की ताक में थे|

आश्‍चर्य तो तब होता है जब हम ऐसे लोगों को मनुस्मृति का विरोध करते हुए पाते हैं, जिन्होंने मनुस्मृति के पढने की बात तो दूर, उसकी आकृति तक देखी नहीं होती | एक दिन मुझे एक उच्चतर डिग्रीधारी ऐसे व्यक्ति मिले जो तुलसीदास की चौपाई ‘‘ढोल, गंवार, शूद्र पशु नारी, ये सब ताडन के अधिकारी’’ को मनु का श्‍लोक कहकर मनु की आलोचना करने लगे | इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि मनु का विरोध करनेवालों में मनु और मनुस्मृति के विषय में सामान्य ज्ञान का कितना अभाव हैं |

सामान्य व्यक्तियों की बात छोड दीजिये, डॉ. अम्बेडकर जैसा व्यापक अध्येता भी मनु-विरोध के प्रवाह में इतना बहक गया है कि उन्हें प्रत्येक शूद्र-विरोध मनुविहित नजर आता हैं|  शंकराचार्य द्वारा लिखित शूद्रविरोधी वचनों को भी उन्होंने मनुस्मृति-प्रोक्त कहकर मनु के खाते में जोड दिया हैं |  साधारण लेखकों में मनु के नाम पर जो अराजकता पायी जाती हैं, उसका विवरण लम्बा है| ये सब बातें इंगित करती हैं कि मनुस्मृति को गम्भीरता से पढा नहीं जाता |

ऐसा देखरे में आया है कि मनु एवं मनुस्मृति का विरोध करनेवालों में प्रमुखतः तीन प्रकार के व्यक्ति हैं | एक तो वे, जिन्होंने मनु को पूर्वाग्रहग्रस्त अंग्रेजी अलोचनाओं और उस परम्परा के माध्यम से पढा है, और जो प्राचीन भारतीय साहित्य में कालक्रम से हुए परिवर्तनों-प्रक्षेपों से परिचित नहीं हैं| दूसरे वे, जिन्होंने मनुस्मृति के मौलिक और प्रक्षिप्त, दोनों पक्षों को चिन्तन-मनन पूर्वक नहीं पढा हैं| तीसरे वे, जिन्होंने किन्हीं भ्रान्तियों, पूर्वाग्रहों और निंहित स्वार्थो के कारण मनु के विरोध को अपना लक्ष्य बना लिया हैं | किन्तु वास्तविकता यह है कि महर्षि मनु का व्यक्तित्व और कृतित्व निंदा और विरोध करने का पात्र नहीं हैं| वे भारत और भारतीयता के लिए गर्व और गौरव के विषय हैं |

भारत में मनु की प्रतिष्ठा

महर्षि मनु ही पहले वह व्यक्ति हैं, जिन्होंने संसार को एक व्यवस्थित,नियमबध्द,नैतिक एवं आदर्श मानवीय जीवन जीने की पध्दति सिखायी है| वे मानवों के आदि पुरुष हैं, आदि धर्मशास्त्रकार, आदि विधिप्रणेता, आदि विधिदाता (लॉ गिवर), आदि समाज और राजनीति व्यवस्थापक, आदि राजर्षि हैं | मनु ही वह प्रथम धर्मगुरु हैं, जिन्होंने यज्ञपरम्परा का प्रवर्तन किया | उनके द्वारा रचित धर्मशास्त्र, जिसको कि आज मनुस्मृति के नाम से जाना जाता है, सबसे प्राचीन स्मृतिग्रन्थ है| अपने साहित्य और इतिहास को उठाकर देख लीजिए, वैदिक साहित्य से लेकर आधुनिक काल तक एक सुदीर्घ परम्परा उन शास्त्रकारों, साहित्यकारों,लेखकों,कवियों और राजाओं की मिलती हैं, जिन्होंने मुक्तकण्ठ से मनु की प्रशंसा की है | वैदिक संहिताओं एवं ब्राह्मणग्रन्थों में मनु के वचनों को ‘‘औषध के समान हितकारी और गुणकारी’’ कहा है| महर्षि वाल्मीकि रामायण में मनु को एक प्रामाणिक धर्मशास्त्रज्ञ के रुप में उध्दृत करते हैं और हिन्दुओं में भगवान् के रुप में पूज्य राम अपने आचरण को शास्त्रसम्मत सिध्द करने के लिए उसके समर्थन में मनु के श्‍लोकों को उध्दृत करते हैं| महाभारत में अनेक स्थलों पर मनु का सर्वोच्च धर्मशास्त्र और न्यायशास्त्री के रुप में उल्लेख करते हुए उनके धर्मशास्त्र को परीक्षासिध्द घोषित किया हैं| अनेक पुराणों में मनु को आदि राजर्षि, शास्त्रकार आदि विशेषणों से विभूषित करके उन्हें लोक हितकारी व्यक्तित्व के रुप में वर्णित किया हैं | निरुक्त में आचार्य यास्क ने मनु के मत को उध्दृत करके ‘पुत्र-पुत्री के समान दायभाग’ के विषय में प्रामाणिक माना है| कौटिल्य अर्थशास्त्र में चाणक्य ने मनु के मत को प्रमाण रुप में उध्दृत किया हैं | स्मृतिकार बृहस्पति मनु की स्मृति को सबसे प्रामाणिक स्मृति मानकर उसके विरुध्द स्मृतियों को अमान्य घोषित करते हैं | बौध्द कवि अश्‍वघोष ने अपनी कृति ‘वज्रकोपनिषद्’ में मनु के वचनों को प्रमाणरुप में उध्दृत किया है| याज्ञवल्क्यस्मृति, मनुस्मृति पर ही आधारित हैं|  सभी धर्मसूत्रों और स्मृतियों में मनु के वचनों को समर्थन में प्रस्तुत किया है| वलभी के राजा धारसेन के ५७१ ईस्वी के शिलालेख में मनुधर्म को प्रामाणिक घोषित किया हैं| बादशाह शाहजहां के लेखक पुत्र दाराशिकोह ने मनु को वह प्रथम मानव कहा है, जिसे यहूदी, ईसाई,मुसलमान आदम कहकर पुकारते हैं| गुरु गोविन्दसिंह ने ‘दशम ग्रन्थ’ में मनु का मुक्तकण्ठ से गुणगान किया हैं|

आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द ने वेदों के बाद मनुस्मृति को ही धर्म में प्रमाण माना है| श्री. अरविन्द ने मनु को अर्धदेव के रुप में सम्मान दिया है| श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर, डॉ.राधाकृष्णन, जवाहरलाल नेहरु आदि राष्ट्रनेताओं ने मनु को आदि ‘लॉ गिवर’ के रुप में उल्लिखित किया है| अनेक कानूनविदों जस्टिस डी.एन.मुल्ला, एन.राघवाचार्य आदि ने स्वरचित हिन्दु लॉ सम्बन्धी ग्रन्थों में मनु के विधानों को ‘अथारिटी’ घोषित किया हैं| मनु की इन्हीं विशेषताओं के आधार पर, लोकसभा में भारत का संविधान प्रस्तुत करते समय जनता और पं.नेहरु ने तथा जयपुर में डॉ.अम्बेडकर की प्रतिभा का अनावरण करते समय तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन ने डॉ. अम्बेडकर को ‘आधुनिक मनु’ की संज्ञा से गौरवान्वित किया था|

विदेशों में महर्षि मनु की प्रतिष्ठा

मनु की प्रतिष्ठा, गरिमा और महिमा का प्रभाव एवं प्रसार विदेशों में भी भारत से कम नहीं रहा हैं| ब्रिटेन, अमेरिका, जर्मन से प्रकाशित ‘इन्साइक्लोपीडिया’ में मनु को मानवजाति का आदि पुरुष, आदि धर्मशास्त्रकार, आदि विधिप्रणेता, आदि न्यायशास्त्री और आदि समाजव्यवस्थापक वर्णित किया हैं| मनु के मन्तव्यों का समर्थन करते हुए अपनी पुस्तकों में मैक्समूलर, ए.ए.मैकडानल,ए.बी.कीथ,पी. थामस,लुईसरेनो आदि पाश्‍चात्य लेखकों ने मनुस्मृति को धर्मशास्त्र के साथ-साथ एक ‘लॉ बुक’ भी माना है और उसके विधानों को सार्वभौम, सार्वजनिक तथा सबके लिए कल्याणकारी बताया है| भारतीय सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन जज सर विलियम जोन्स ने तो भारतीय विवादों के निर्णय में मनुस्मृति की अपरिहार्यता को देखकर संस्कृत सीखी और मनुस्मृति को पढकर उसका सम्पादन भी किया| जर्मन के प्रसिध्द दार्शनिक फ्रीडरिच नीत्से ने तो यहां तक कहा कि ‘‘मनुस्मृति बाइबल से उत्तम ग्रन्थ है’’ बल्कि ‘‘उससे बाइबल की तुलना करना ही पाप है|’’ अमेरिका से प्रकाशित ‘इन्साइक्लोपीडिया आफ दि सोशल साइंसिज’, ‘कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इंडिया’, कीथरचित ‘हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर’, भारतरत्न पी.बी. काणे रचित ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ डॉ. सत्यकेतु रचित ‘दक्षिण-पूर्वी और दक्षिण एशिया में भारतीय संस्कृति’ आदि पुस्तकों में विदेशों में मनुस्मृति के प्रभाव और प्रसार का जो विवरण दिया गया है, उसे पढकर प्रत्येक भारतीय अपने अतीत पर गर्व कर सकता हैं|

बालिद्वीप, बर्मा, फिलीपीन, थाइलैंड, चम्पा(दक्षिणी वियतनाम),कम्बोडिया, इन्डोनेशिया,मलेशिया,श्रीलंका,नेपाल आदि देशों से प्राप्त शिलालेखों और उनके प्राचीन इतिहास से ज्ञात होता है कि वहां प्रमुखतः मनु के धर्मशास्त्र पर आधारित-कर्मानुसारी वर्णव्यवस्था रही हैं| मनु के विधानों को सर्वोच्य महत्त्व दिया जाता था और उन्हीं के अनुसार न्याय होता था| शिलालेखों में मनुस्मृति के अनेक श्‍लोक उत्कीर्ण पाये गये हैं| राजा लोग स्वयं को मनु का अनुयायी अथवा मनुमार्गगामी कहने में गर्व अनुभव करते थे और मनु की उपाधि धारण करके स्वयं को गौरवान्वित मानते थे| चम्पा (दक्षिणी वियतनाम) में प्राप्त एक अभिलेख के अनुसार राजा जयइन्द्रवर्मदेव मनुमार्ग का अनुसरण करनेवाला था| कम्बोडिया के राजा उदयवीर वर्मा के ‘सदोक काकथोम’ से प्राप्त अभिलेख में ‘मानवनीतिसार’ ग्रन्थ का उल्लेख है, जो मनुस्मृति पर आधारीत था | ‘प्रसत कोमपन’ से प्राप्त राजा यशोवर्मा के अभिलेख में मनुस्मृति का २.१३६ श्‍लोक उध्दृत मिलता है| राजा जयवर्मा के अभिलेख में मनुसंहिता के विशेषज्ञ एक मन्त्री का उल्लेख है| बालिद्वीप में आज भी मनु-व्यवस्था है| उक्त देशों की आचारसंहिताएं/संविधान मनुस्मृति पर ही आधारित थे और बहुत कुछ अब भी है| फिलीपीन के निवासी मानते हैं कि उनकी आचार संहिता के निर्माण के निर्माण में मनु और लाओत्से की स्मृति का प्रमुख योगदान है, इस कारण वहां की विधानसभा के द्वारपर इन दोनों की मूर्तियां स्थापित की गयीं|

हम मनु का कितना ही विरोध कर लें और चाहे कितनी ही निन्दा करलें, मनु का हम से जो सम्बन्ध बन चुका है, वह जब तक इतिहास और यह समाज रहेगा, तब तक मिट नहीं सकता |  आदिवंश प्रवर्तक होने के कारण मनु को न कभी त्यागा जा सकता है, न भुलाया जा सकता हैं|

भारतीय साहित्य और समाज मनु को अपना आदि-पुरुष मानता हैं| सभी मनुष्य मनु की सन्तान हैं| इसी कारण आदमी के वाचक जितने भी नाम हैं, वे ‘मनु’ शब्द से बने हैं, जैसे-मनुष्य,मनुज,मानव,मानुष आदि| इसीलिए निरुक्तकार ने इनकी व्युत्पत्ति करते हुए कहा हैं-

‘‘मनोः अपत्यम्, मनुष्यः’’ (३.४)

अर्थात्–‘मनु की सन्तान होने से हमें मनुष्य कहा जाता है|’ ब्राह्मणग्रन्थों में भी ‘‘मानव्यः प्रजाः’’ कहकर इसी तथ्य को प्रस्तुत किया गया है| यूरोपीय विद्वानों ने भाषा विज्ञान के आधार पर राह सिध्द कर दिया है कि कभी युरोप, ईरान और भारतीय उपमहाद्वीप निवासी एक ही परिवार के सदस्य थे| इन सबकी भाषाओं में मनुष्यवाचक जो शब्द प्रचलित हैं, वे मनुमूलक शुरों के अपभ्रंश हैं | जैसे, ग्रीक और लैटिन में माइनोस, जर्मनी में मन्न,स्पेनिश में मन्नाःअंग्रेजी तथा उसकी बोलियों में मैन,मेनिस,मनुस,मनेस,मनीस आदिः ईरानी-फारसी में नूह (मनुस् के स् को ह होकर और म का लोप होकर) कहा जाता हैं| इन देशों के ऐतिहासिक उल्लेखों से इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है| ईरानवासी आज भी स्वयं को आर्यवंशी मानते हैं और अपना मूल उद्रम आर्यो के ‘सप्तसिन्धु’ देश से मानते हैं| कम्बोडिया के निवासी स्वयं को मनु की सन्तान कहते हैं| थाईलैंड के निवासी स्वयं को सूर्यवंशी राम के वंशज मानते हैं| राम और कृष्ण दोनों हो मनु की वंशपरम्परा में आते हैं | इस विवरण को पढकर हम कह सकते हैं कि अतीत मएक धर्मशास्त्रकार और विधिदाता (लॉ गिवर) के रुप में महर्षि मनु को जो प्रतिष्ठा और महत्त्व मिला है, वह किसी अन्य को नहीं मिला|

मनु और मनुस्मृति पर आक्षेप

आइये, अब मनु और मनुस्मृति पर लगाये जानेवाले आक्षेपों पर विचार करें| मुख्यरुप से उन्हें तीन वर्गों में बांटा जा सकता है-

(क)   मनु ने जन्म पर आधारित जाति-पांति व्यवस्था का निर्माण किया|

(ख)  उस व्यवस्था में मनु ने शूद्रों अर्थात् दलितों के लिए पक्षपातपूर्ण एवं

अमानवीय विधान किये हैं, जबकि सवर्णों, विशेषतः ब्राह्मणों को

विशेषाधिकार प्रदान किये हैं| इस प्रकार मनु शूद्रविरोधी थे|

(ग)   मनु स्त्रीविरोधी थे| उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार नहीं दिये| मनु ने स्त्रियों की निन्दा की हैं |

इन तीनों आक्षेपों के समाधान के लिए बाह्य प्रमाणों और मतों की अपेक्षा अन्तःसाक्ष्य अधिक प्रामाणिक रहेंगे, अतः यहां मनुस्मृति के अन्तःसाक्ष्यों के आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत किये जाते हैं-

 

(क)   मनु की वर्णव्यवस्था का वास्तविक स्वरुप

 

१.    मनु की वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित और वेदमूलक-मनुस्मृति में वर्णित गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित वेदमूलक हैं| यह मूलतः तीन वेदों (ऋग् १०.९०.११-१२;यजु. ३१.१०-११;अथर्व. १९.६.५-६) में पायी जाती हैं| मनु वेदों को धर्म में परम प्रमाण मानते हैं, अतः उन्होंने वर्णव्यवस्था को धर्ममूलक व्यवस्था मानकर उसे वेदों से ग्रहण करके अपने शासन में क्रियान्वित किया तथा धर्मशास्त्र के द्वारा प्रचारित एवं प्रसारित किया|

 

२.    वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था में अन्तर और परस्परविरोध-मनु की वैदिक वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित हैं,जन्म पर आधारित नहीं| यह समझ लेना आवश्यक है कि वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्पर विरोधी व्यवस्थाएं हैं| एक की उपस्थिति में दूसरी नहीं टिक सकती| इनके अन्तर्निहित अर्थभेद को समझकर इनके मौलिक अन्तर को आसानी से समझा जा सकता हैं| वर्णव्यवस्था में वर्ण प्रमुख हैं और जातिव्यवस्था में जाति अर्थात् ‘जन्म’ प्रमुख हैं| जिन्होंने इनका समानार्थ में प्रयोग किया है उन्होंने स्वयं को और पाठकों को भ्रान्त कर दिया| ‘वर्ण’ शब्द ‘वृत्र्-वरणे’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है-‘जिसको वरण किया जाये’ वह समुदाय| निरुक्त में आचार्य यास्क ने इसके अर्थ को इस प्रकार स्पष्ट किया हैं-

‘‘वर्णः वृणोतेः’’ (२.१४) = वरण करने से ‘वर्ण’ कहलाता है|

जबकि जाति का अर्थ है-जन्म | इस अर्थ में जाति शब्द का प्रयोग मनुस्मृति में हुआ हैं-

‘‘जाति-अन्धबधिरौ’’ (१.२०१) = जन्म से अन्धे-बहरे |

‘‘जातिं स्मरति पौर्विकीम्’’ (४.१४८) = पूर्वजन्म को स्मरण करता है|

‘‘द्विजातिः’’ (१०.४) = द्विज,क्योंकि उसके दो जन्म होते हैं|

‘‘एकजातिः’’ (१०.४) = शूद्र,क्योंकि उसका विद्याजन्म नहीं होता|

एक जन्म ही होता हैं |

वैदिक वर्णव्यवस्था में समाज को ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र,इन चार समुदायों में व्यवस्थित किया गया हैं| जब तक गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर व्यक्ति इन समुदायों का वरण करते रहे, तब तक वह वर्णव्यवस्था कहलायी | जब जन्म से ब्राह्मण, शूद्र आदि माने जान लगे तो वह जातिव्यवस्था बन गयी | वर्ण शब्द का धातु-प्रत्यमूलक अर्थ ही यह संकेत देता है कि जब यह व्यवस्था बनी तब यह गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार वरण की जाती थी, जन्म से नहीं थी|

 

३.    वर्णों में जातियों का उल्लेख नहीं-मनु की कर्मणा वर्णव्यवस्था का साधक एक बहुत बडा प्रमाण यह है कि मनु ने केवल चार वर्णों का उल्लेख किया है, किन्हीं जातियों अथवा गोत्रों का परिगणन नहीं किया है| इससे दो तथ्य स्पष्ट होते हैं | एक-मनु के समय जन्मना कोई जाति नहीं थी | दो-जन्म अथवा गोत्र का वर्णव्यवस्था में कोई महत्त्व नहीं था और न उसके आधार पर वर्ण की प्राप्ति होती थी | यदि मनु के समय जातियां होतीं और जन्म के आधार पर वर्ण का निर्धारण होता तो वे उन जातियों का परिगणन अवश्य करते और बतलाते कि अमुक जातियां या गोत्र ब्राह्मण हैं और अमुक शूद्र| मनु, जन्माधारित महत्ताभाव को कितना उपेक्षणीय समझते हैं, इसका ज्ञान उस श्‍लोक से होता है जहां भोजनार्थ कुल-गोत्र का कथन करनेवाले को उन्होंने ‘वान्ताशी = वमन करके खानेवाला’ जैसे निन्दित विशेषण से अभिहित किया है (३.१०९) | और आदरन्चडप्पन के मानदण्डों में कुल-गोत्र जाति का उल्लेख ही नहीं है, केवल गुण-कर्मो का हैं|

 

४.    मनु को जातिव्यवस्थापक मानने से मनुस्मृति-रचना व्यर्थ-यदि हम मनु को जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक मान लेते हैं तो इससे मनुस्मृतिरचना का उद्देश्य ही व्यर्थ हो जायेगा, क्योंकि मनुस्मृति में पृथक्-पृथक् वर्णों के लिए पृथक् कर्मों का विधान किया गया हैं| यदि कोई व्यक्ति जन्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र कहलाने लगता है, तो वह विहित कर्म करे या न करे, वह उसी वर्ण में रहेगा | उसके लिए कर्मों का विधान निरर्थक हैं| मनु ने जो पृथक् कर्मों का निर्धारण किया है, वही यह सिध्द करता है कि वे कर्म के अनुसार वर्णव्यवस्था को मानते हैं, जन्म से नहीं |

 

५.    वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन का विधान-वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था में एक बहुत बडा अन्तर यह है कि वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन हो सकता है और व्यक्ति को वर्णपरिवर्तन की स्वतन्त्रता होती है, जबकि जातिव्यवस्था में जहां जन्म हो गया, जीवनपर्यन्त वही जाति रहती है| मनु की व्यवस्था वर्णव्यवस्था थी, जिसमें व्यक्ति को वर्ण परिवर्तन की स्वतन्त्रता थी | इस विषय मेंमनुस्मृति का एक महत्त्वपूर्ण श्‍लोक प्रमाणरुप में उध्दृत किया जाता है जो सभी सन्देहों को दूर कर देता है-

 

शूद्रो ब्राह्मणताम् एति, ब्राह्मणश्‍चैति शूद्रताम् |

क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च ॥

(अ.१०, श्‍लोक ६५)

अर्थात् –‘गुण,कर्म,योग्यता के आधार पर ब्राह्मण,शूद्र बन जाता है और शूद्र ब्राह्मण| इसी प्रकार क्षत्रियों और वैश्यों में भी वर्णपरिवर्तन हो जाता हैं |’

 

६.    निर्धारित कर्मों के त्याग से वर्णपरिवर्तन-मनुस्मृति में दर्जनों ऐसे श्‍लोक हैं, जिनमें निर्धारित कर्मों के त्याग से और निकृष्ट कर्मों के कारण द्विजों को शूद्र कोटि में परिगणित करने का विधान किया है (द्रष्टव्य २| ३७,४०,१०३,१६८;४ | २४५ आदि श्‍लोक)| और शूद्रों को श्रेष्ठ कर्मों से उच्चवर्ण की प्राप्ति का विधान है (९.३३५)|

 

७.    महाभारत काल तक वर्णव्यवस्था का प्रचलन-उ़क्त प्रमाणों और यु़िक्तयों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मनु द्वारा विहित वर्णव्यवस्था में सभी व्यक्तियों को गुण-कर्मानुसार वर्ण में दीक्षित होने के समान अवसर प्राप्त थे | ऋग्वेद से लेकर महाभारत (गीता) पर्यन्त यह कर्माधारित वर्णव्यवस्था चलती रही है | गीता में स्पष्ट शुरों में कहा गया है-

 

‘‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुण-कर्म-विभागशः’’ (४ | १३)

 

अर्थात्-गुण-कर्म-विभाग के अनुसार चातुर्वर्ण्यव्यवस्था का निर्माण किया गया है| जन्म के अनुसार नहीं|

 

८.    वर्ण परिवर्तन के ऐतिहासिक उदाहरण-भारतीय इतिहास में, सैंकडों ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं, जो कर्म पर आधारित वर्णव्यवस्था की पुष्टि करते हैं, जो यह सिध्द करते हैं कि किसी भी वर्ण को जन्म के आग्रह से नहीं जोडा गया | जैसे-(१) दासी का पुत्र ‘कवष ऐलूष’ और ‘शूद्रापुत्र’ ‘वत्स’ मन्त्रद्रष्टा होने के कारण दोनों ऋग्वेद के ऋषि कहलाये | (२) क्षत्रिय कुल में उत्पन्न राजा विश्‍वामित्र ब्रह्मर्षि बने | (३) अज्ञात कुल के सत्यकाम जाबाल ब्रह्मवादी ऋषि बने| (४) चंडाल के घर में उत्पन्न ‘मातंग’ एक ऋषि कहलाये | (५) (कुछ कथाओं के अनुसार) निम्न कुल में उत्पन्न वाल्मीकि, महर्षि वाल्मीकि की पदवी को प्राप्त कर गये | (६) दासीपुत्र विदुर राजा धृतराष्ट के महामन्त्री बने और महात्मा कहलाये | (७) दशरथ पुत्र श्री राम और यदु कुल में उत्पन्न श्रीकृष्ण ‘भगवान’ माने गये | वे ब्राह्मणों के भी पूज्य बने, जबकि उनका कुल क्षत्रिय था | इसके विपरीत कर्मों के ही कारण, (८) पुलस्त्य ऋषि का वंशज लंकाधिपति रावण ‘राक्षस’ कहलाया| (९) राम के पूर्वज रघु का ‘प्रवृध्द’ नामक पुत्र नीच कर्मों के कारण क्षत्रियों से बहिष्कृत होकर ‘राक्षस’ बना | (१०) राजा त्रिशंकु चंडालभाव को प्राप्त हुआ | (११) विश्‍वामित्र के कई पुत्र शूद्र कहलाये |

 

९.    जातियों के वर्णपरिवर्तन-व्यक्तिगत उदाहरणों के अतिरिक्त, इतिहास में पूरी जातियों का अथवा जाति के पर्याप्त भाग का वर्णपरिवर्तन भी मिलता है| महाभारत और मनुस्मृति में कुछ पाठभेद के साथ पाये जानेवाले श्‍लोकों से ज्ञात होता हैं कि निम्न जातियॉं पहले क्षत्रिय थीं किन्तु अपने क्षत्रिय कर्तव्यों के त्याग के कारण और ब्राह्मणों द्वारा बताये प्रायश्‍चित्त न करने के कारण वे शूद्रकोटि में परिगणित हो गयीं-

 

शनकैस्तु क्रियालोपादिमा क्षत्रियजातयः |

वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ॥

पौण्ड्रकाश्‍चौड्रद्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः |

पारदाः पहृवाश्‍चीनाः किराताः दरदाः खशाः ॥ (१०.४३-४४)

 

अर्थात्-अपने निर्धारित कर्तव्यों का त्याग कर देने के कारण और फिर ब्राह्मणों द्वारा बताये प्रायश्‍चित्तों को न करने के कारण धीरे-धीरे ये क्षत्रिय जातियां शूद्र कहलायीं-पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड, कम्बोज,यवन,शक,पारद,पहृव,चीन,किरात, दरद,खश॥ महाभारत अनु.३५.१७-१८ में इनके अतिरिक्त मे कल,लाट,कान्वशिरा, शौण्डिक,दार्व,चौर,शबर,बर्बर जातियों का भी उल्लेख हैं|

बाद तक भी वर्णेंपरिवर्तन के उदाहरण इतिहास में मिलते हैं| जे.विलसन और एच.एल.रोज के अनुसार राजपूताना,सिन्ध और गुजरात के पोखरना या पुष्करण ब्राह्मण, और उत्तर प्रदेश में उन्नाव जिला के आमताडा के पाठक और महावर राजपूत वर्णपरिवर्तन से निम्न जाति से ऊंची जाति के बने (देखिए हिन्दी विश्‍वकोश भाग४)|

१०.   चारों वर्णों में पाये जानेवाले समान गोत्रों का रहस्य-ब्राह्मणों, क्षत्रिय जातियों, वैश्य और दलित जातियों में समान रुप से पाये जाने वाले गोत्र, ऐतिहासिक वंश परम्परा के पुष्ट प्रमाण हैं, जो यह सिध्द करते हैं कि वे सभी एक ही मूल परिवारों के वंशज हैं | पहले वर्णव्यवस्था में जिसने गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर जिस वर्ण का चयन किया, वे उस वर्ण के कहलाने लगे | बाद में विभिन्न कारणों के आधार पर उनका ऊंचा-नीचा वर्णपरिवर्तन होता रहा| किसी क्षेत्र में वही ब्राह्मण वर्ण में रह गया तो कहीं क्षत्रिय, तो कहीं शूद्र कहलाया| कालक्रमानुसार जन्म के आधार, पर उनकी जाति रुढ हो गयी|

११.   वर्णव्यवस्था के आधारभूत तत्त्व-मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था के आधारभूत तत्त्व हैं-गुण,कर्म-योग्यता | मनु व्य़िक्त अथवा वर्ण को महत्त्व और आदर-सम्मान नहीं देते अपितु उक्त गुणों को देते हैं | जहॉं इनका आधिक्य है, उस व्यक्ति और वर्ण का महत्त्व, आदर-सम्मान अधिक है, न्यून होने पर न्यून हैं| आज तक संसार की कोई भी सभ्य व्यवस्था इन तत्त्वों को न नकार पायी है और न नकारेगी| इनको नकारने का अर्थ है-अन्याय, असन्तोष,आक्रोश,अव्यवस्था और अराजकता| मुहावरों की भाषा में इसी स्थिती को कहते हैं ‘घोडे-गधे को एक समझना’ या ‘सभी को एक लाठी से हांकना|’ इसका परिणाम होता है, कोई भी समाज या राष्ट्र न विकास कर सकता है, न उन्नति; न समृध्द हो सकता है, न सम्पन्न; न सुखी हो सकता है, न संतुष्ट; न शान्त रह सकता है, न अनुशासित; न व्यवस्थित रह सकता है, न अखण्डित | ऐसी व्यवस्था अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकती| वर्तमान में निश्‍चित सर्वसमानता का दावा करने वाली साम्यवादी व्यवस्था भी इन तत्त्वों से स्वयं को पृथक् नहीं रख सकी| उसमें भी गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार पद और सामाजिक स्तर हैं| उन्हीं के अनुरुप वेतन, सुविधा और सम्मान में अन्तर हैं|

हमारी आजकल की प्रशासनिक और व्यावसायिक व्यवस्था की तुलना करके देखिए, मनु की बात आसानी से समझ आ जायेगी और ज्ञात होगा कि मनु की और आज की इन व्यवस्थाओं में मूलभूत समानता है| सरकार की प्रशासन व्यवस्था में चार वर्ग हैं- १. प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी, २. द्वितीय श्रेणी राजपत्रित अधिकारी, ३-४ तृतीय एवं चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी | इनमें प्रथम दो वर्ग अधिकारी हैं, दूसरे कर्मचारी | यह विभाजन गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर है और इसी आधार पर इनका महत्त्व, सम्मान एवं अधिकार हैं | इन पदों के लिए योग्यताओं का प्रमाणीकरण पहले भी शिक्षासंस्थान (गुरुकुल,आश्रम,आचार्य) करते थे और आज भी शिक्षासंस्थान (विद्यालय,विश्‍वविद्यालय आदि) ही करते हैं | शिक्षा का कोई प्रमाणपत्र नहीं होने से, अल्पशिक्षित या अशिक्षित व्यक्ति सेवा और शारीरिक श्रम के कार्य ही करता है और वह अन्तिम कर्मचारी श्रेणी में आता है| पहले भी जो गुरु के पास जाकर विद्या प्राप्त नहीं करता था, वह इसी स्तर के कार्य करता था और उसकी संज्ञा ‘शूद्र’ थी | शूद्र के अर्थ हैं-‘निम्न स्थितिवाला’ ‘आदेशवाहक’ आदि | नौकर, चाकर, सेवक, प्रेष्य, सर्वेंट, अर्दली, निम्न श्रेणी कर्मचारी, आदि संज्ञाओं में कितनी अर्थसमानता है आप स्वयं देख लीजिये | व्यवसायों के निर्धारण में भी बहुत अन्तर नहीं हैं | शिक्षासंस्थानों से डाक्टर, वकील, अध्यापक, आदि की डिग्री प्राप्त करके ही व्यवसाय की अनुमति है, उसके बिना नहीं | सबके नियम-कर्तव्य निर्धारित हैं| उनकी पालना न करनेवाले को व्यवसाय और पद से हटा दिया जाता हैं |

१२.   शूद्रों को वर्ण परिवर्तन के व्यावहारिक अवसर-जो लोग अपने आपको ‘शूद्र’ समझते हैं और अभी तक किसी कारण से स्वयं को ‘शूद्रकोटि’ में मानकर मानवीय अधिकारों से वंचित रखा हुआ है, मनु को धर्मगुरु माननेवाला और मनु के सिध्दान्तों तथा व्यवस्थाओं पर चलनेवाला ‘आर्यसमाज’ योग्यतानुसार किसी भी वर्ण में दीक्षित होने का उनका आव्हान करता है और उन्हें व्यावहारिक अवसर देता हैं| जब आज का संविधान नहीं बना था, उससे बहुत पहले महर्षि दयानन्द ने मनुस्मृति के आदेशों के परिप्रेक्ष्य में छूत-अछूत, ऊंच-नीच, जाति-पांति, नारी-शुद्रों को न पढाना, बाल-विवाह, अनमेल-विवाह, बहु-विवाह, सती प्रथा, शोषण आदि को सामाजिक बुराइयॉं घोषित करके उनके विरुध्द संघर्ष किया था | नारियों के लिए गुरुकुल और विद्यालय खोले | अपनी शिक्षा संस्थाओं में शूद्रों को प्रवेश दिया, परिणामास्वरुप वहॉं शिक्षित सैंकडों-दलित संस्कृत एवं वेद-शास्त्रों के विद्वान् स्नातक बन चुके हैं| दलित जाति के लोग क्यों भूलते हैं कि उनकी ‘अस्पृश्य’ बन गये थे, किन्तु उन्होंने संघर्ष को नहीं छोडा| इन घटनाओं से अनभिंज्ञ दलित-लेखक आर्यसमाज को भी रंगीन चश्मे से देखते हैं| क्या उनकी यह अकृतज्ञता नहीं है?

१३.   व्यवस्था का सही मूल्यांकन-मनुका समय अति प्राचीन है| यद्यपि उन्होंने मनुस्मृति में जो आदर्श जीवनमुल्य, मर्यादाएं और धर्म का स्वरुप प्रस्तुत किया है, वह सार्वभौम एवं सार्वकालिक है, किन्तु जो देश-काल-परिस्थितियों पर आधारित व्यवस्थाएं हैं, वे तदनुसार परिवर्तनीय हैं | मनु ने अपने समय जिस सामाजिक व्यवस्था को ग्रहण किया वह उस समय की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था थी| यही कारण है वह व्यवस्था अत्यन्त व्यापक प्रभाववाली रही और हजारों वर्षों तक वह प्रचलित होती आयी है| इस कालचक्र में कुछ व्यवस्थाएं अपने मूल स्वरुप को खोकर विकृत हो गयीं | समयानुसार अनेक सामाजिक व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन हुआ| किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि प्राचीनता हमारे लिए पूर्णतः अग्राह्य और अपमान की वस्तु बन गयी| यदि हमारी यही सोच उभरती है तो प्राचीन गौरव से जुडी प्रत्येक वस्तु जैसे-महापुरुष, वीर पुरुष, कवि, लेखक, नगर, तीर्थ, भवन, साहित्य, इतिहास सभी कुछ निन्दा की चपेट में आ जायेगा| किसी भी व्यवस्था, वस्तु, व्यक्ति का मूल्यांकन तत्कालीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही किया जाना चाहिए, वही सही मूल्यांकन माना जा सकता है|

महर्षि मनु और डॉ.अम्बेडकर

१४.   भारतीय लेखकों में मनु के विरोध की परम्परा के प्रमुख संवाहक और प्रेरणास्त्रोत डॉ. भीमराव अम्बेडकर थे| यद्यपि जन्मना जाति-पांति, ऊंच-नीच, छूत-अछूत जैसी कुप्रथाओं के कारण अपने जीवन में उन्होंने जिन उपेक्षाओं, असमानताओं, यातनाओं और अन्यायों को भोगा था, उस स्थिति में कोई भी स्वाभिमानी शिक्षित वही करता, जो उन्होंने किया; किन्तु मनु और मनुस्मृति को गम्भीरता एवं पूर्णता से समझे बिना, पूर्वाग्रहों के कारण, उन्होंने मनु के विषय में जो व्यवहार किया, वह भी सर्वथा अनुचित एवं अन्यायपूर्ण था | एक कानूनविद् होने के नाते उन पर इस अनौचित्य की जिम्मेदारी अधिक आती है| उन्होंने संविधान में प्रावधान किया है कि ‘अनुचित निर्णय से निरपराध को दण्ड नहीं मिलना चाहिए, चाहे अपराधी मुक्त हो जाये|’ किन्तु उन्होंने अपने जीवन में इसका पालन नही किया| परवर्ती समाज द्वारा बनायी गयी जन्माधारित सामाजिक व्यवस्थाओं को मनु पर थोंपकर अनावश्यक रुप से उन्हें दोषी घोषित करते रहे और उनके विरुध्द निंदा अभियान चलाते रहे, आर्य (हिन्दु) समाज में प्रतिष्ठित एक महर्षि के लिए बेहद कटु वचनों का प्रयोग करते रहे| हालांकि तत्कालीन बहुत से व्यक्ती उनका ध्यान बार-बार इस तथ्य की ओर आकर्षित करते रहे कि मनु के विषय में अभी उनकी कुछ भ्रान्तियॉं और पूर्वाग्रह हैं, वे उन्हें दूर कर लें, किन्तु वे पूर्वाग्रहों पर अडे रहे| उसके कई कारण थे| जो कुछ तब वे मनु के विषय में लिख चुके थे, शायद उसको छोडना नहीं चाहते थे, और उन्हीं के शब्दों में ‘‘उन पर मनु का भूत सवार था और उनमें इतनी शक्ति नहीं थी कि वे उसे उतार सकें|’’ सत्य है, उस भूत को वे जीवन-पर्यन्त नहीं उतार सके और जीवन के उपरान्त उसे अपने अनुगामियों पर छोड गये| लेकिन क्या ‘भूत सवार होना’ सामान्य स्थिति, संतुलित विचार, विवेकपूर्ण सही समीक्षा का परिचायक माना जा सकता है?

यह भी उनके जीवन की वास्तविकता है कि डॉ.अम्बेडकर संस्कृत के ज्ञाता नहीं थे| जैसा कि उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है, उन्होंने मनुसम्बन्धी समस्त अध्ययन-विश्‍लेषण अंग्रेजी भाषा में लिखी आलोचनाओं के माध्यम से ग्रहण किया है, अतः वे मौलिक-प्रक्षिप्त आदि पहलुओं, श्‍लोकों के प्रसंगों आदि पर विचार नहीं कर सके| जो अंग्रेजी समालोचनाओं में पढा, वही धारणाएं बन गयीं| डॉ.अम्बेडकर के समय तक मनुस्मृति के प्रक्षेपों पर कोई शोधकार्य भी नहीं हुआ था, अतः उन्हें मौलिक और प्रक्षिप्त श्‍लोकों में भेद करने का कोई स्त्रोत नहीं मिला | यदि उक्त कारण न होते तो शायद वे मनु और मनुस्मृति का इतना अविचारित विरोध नहीं करते|

१५.   डॉ. अम्बेडकर के, मनु की वैदिक वर्णव्यवस्था विषयक, आधारभूत मन्तव्यों को यहां प्रस्तुत करके उन पर चर्चा करना इसलिए आवश्यक प्रतीत होता है कि उससे उनकी समीक्षा के साथ-साथ इस लेख को एक नया प्रमाण मिलेगा | वे लिखते हैं-

ह्न   ‘‘एक बात मैं आप लोगों को बताना चाहता हूँ कि मनु ने जाति के विधान का निर्माण नहीं किया और न वह ऐसा कर सकता था| जातिप्रथा मनु से पूर्व विद्यमान थी|’’ (भारत में जातिप्रथा पृ० २९)

ह्न   ‘‘यह निर्विवाद है कि वेदों में चातुर्वर्ण्य के सिध्दान्त की रचना की है, जिसे पुरुषसूक्त के नाम से जाना जाता हैं |’’ (हिन्दुत्व का दर्शन पृ० १२२)

ह्न   ‘‘कदाचित् मनु जाति के निर्माण के लिए जिम्मेदार न हो परन्तु मनु ने वर्ण की पवित्रता का उपदेश किया है| वर्ण जाति की जननी है और इस अर्थ में, मनु जाति व्यवस्था का लेखक न भी हो, परंतु उसका पूर्वज होने का उस पर निश्‍चित ही आरोप लगाया जा सकता है|’’ (हिन्दुत्व का दर्शन पृ० ४२)

ह्न   ‘‘मैं मानता हूँ कि स्वामी दयानन्द व कुछ अन्य लोगों ने वर्ण के वैदिक सिध्दान्त की जो व्याख्या की है, वह बुध्दिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है| मैं यह व्याख्या नहीं मानता कि जन्म किसी व्यक्ति का समाज में स्थान निश्‍चित करने का निर्धारक तत्व हो| वह केवल योग्यता को मान्यता देती है|’’ (जातिप्रथा उन्मूलन, पृ० ११९)

ह्न   ‘‘वेद में वर्ण की धारणा का सारांश यह है कि व्यक्ति वह पेशा अपनाए, जो उसकी स्वाभाविक योग्यता के लिए उपयुक्त हो|’’ (वही पृ० ११९)

ह्न   ‘‘जाति का आधारभूत सिध्दान्त वर्ण के आधारभूत सिध्दान्त से मूल रुप से भिन्न है, न केवल मूलरुप से भिन्न है, बल्कि मूल रुप से परस्पर विरोधी है| पहला सिध्दान्त (वर्ण) गुण पर आधारित है|’’ (वही पृ० ८१)

१६.   प्रस्तुत उध्दरणों में डॉ.अम्बेडकर स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है कि वर्णव्यवस्था की रचना वेदों से हुई| मनु इसके निर्माता नहीं, केवल पोषक हैं| वेदों की वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित है, जो बुध्दिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है| वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्पर विरोधी हैं| मनु जाति व्यवस्था के निर्माता भी नहीं हैं| इस प्रकार मनु वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था के निर्माता के आरोप से मुक्त हो जाते हैं| वर्णव्यवस्था के पोषक होने के कारण उन पर यह भी आरोप नहीं बनता कि उन्होंने जन्मना जातिवाद का पोषण किया | यदि वर्णव्यवस्था बुध्दिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है, तो व्यवस्था का पोषण करके उन्होंने उत्तम कार्य ही किया है, अपराध नहीं किया| मनु वैदिक धर्मावलम्बी होने से वेदों को परम प्रमाण मानते हैं| अपने धर्मग्रन्थों के आदेशों का पालन करते हुए उन्होंने उसकी अच्छी व्यवस्थाओं का प्रचार-प्रसार किया तो यह कोई दोष नहीं| सभी धर्मावलम्बी ऐसा करते हैं| बौध्द बनने के बाद डॉ.अम्बेडकर ने भी बौध्द विचारों का प्रचार-प्रसार किया है| यदि उनका यह कार्य उचित है, तो मनु का भी उचित है| इतनी स्वीकारोक्तियॉं होने के उपरान्त भी, आश्‍चर्य है कि डॉ.अम्बेडकर मनु को स्थान-स्थान पर जातिवाद का जिम्मेदार ठहरा कर उनकी निन्दा करते हैं| परवर्ती सामाजिक व्यवस्थाओं को मनु पर थोंपकर उन्हें कटु वचन कहना कहॉं का न्याय हैं?

संविधान में चवालीस वर्षों में अस्सी के लगभग संशोधन किये जा चुके हैं, जिनमें कुछ संविधान की मूल भावना के प्रतिकुल हैं, जैसे-अंग्रेजी की अवधि बढाना,मुसलमानों में गुजाराभत्ता की शर्त हटाना आदि, क्या इन परवर्ती संशोधनों का, और भावी संशोधनों का जिम्मेदार डॉ.अम्बेडकर को ठहराया जा सकता है? यदि नहीं, तो हजारों वर्ष परवर्ती विकृत व्यवस्थाओं के लिए मनु को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता हैं?

१७.   डॉ.अम्बेडकर का मानना है कि वर्णव्यवस्था जातिव्यवस्था की जननी है, क्योंकि वर्णव्यवस्था का मनु ने पोषण किया था, इसलिए मनु दोष के पात्र हैं| कितना अटपटा और लचीला तर्क है यह! ठीक जातिवाद जैसा| जैसे-किसी ने श्राध्द नहीं किया तो वह पिछली छह पीढियों के पूर्वजों सहित नरक में जायेगा, क्योंकि वे उसके जनक और पोषक हैं| किसी ने श्राध्द किया तो उसकी पिछली छह-पीढियॉं तर जायेंगी, क्योंकि वे उसकी ‘जनक’ हैं| ऐसे ही, जातिव्यवस्था दोषपूर्ण है, अतः उसकी पूर्वव्यवस्था और उनके पोषक मनु भी दोषी हैं| आश्‍चर्य तो यह है कि कानूनवेत्ता एक कानूनदाता के लिए ऐसे आरोपों का प्रयोग कर रहा हैं| संविधान में तो डॉ.अम्बेडकर ने ऐसा कानून नहीं बनाया कि किसी अपराधी को दण्ड देने के साथ-साथ उसके माता-पिता, दादा आदि को भी अपराधी घोषित कर दिया जाये, इसलिए कि वे उसके जनक हैं | विगत को अपराधी घोषित करके उन्हें दण्डित और नष्ट-भ्रष्ट करने के इस सिध्दान्त को यदि कुछ राष्ट्रीय मामलों के लिए भी संविधान में भी लागू कर देते तो इससे उन राष्ट्रवादियों को सन्तोष होता, जिनकी यह विचारधारा रही है कि देश स्वतंत्र होने के बाद उन लोगों को अपराधी घोषित करके दण्डित किया जाना चाहिए, जिन्होंने विगत में राष्ट्रदोह और स्वतन्त्रता द्रोह किया था, जिन्होंने विदेशी शासकों का सहयोग किया, गुप्तचरी की, देशभक्तों को फांसी दिलवायी | वे लोग मुरब्बे, पद पैसे पाकर तब भी सम्पन्न-सुखी थे, आज भी हैं और स्वतन्त्रतासेनानी दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं| शायद ही ऐसी छूट किसी व्यवस्था-परिवर्तन ने दी हो| यदि वैसा होता तो गद्दारों को सबक मिलता और भावी राष्ट्रीय एकता-अखण्डता और स्वतन्त्रता के हित में होता|

१८.   वर्ण को जाति का जनक मानकर मनु को इस तरह दोषी ठहराया जा रहा हैं, जैसे मनु पहले ही जानते थे कि भविष्य में वर्ण से जाति का जन्म होगा, और इस आशा में वे जान बुझकर वर्ण का पोषण कर रहे थे| डॉ.अम्बेडकर ने वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था का पोषण किया है| क्या वे जानते थे कि इससे भविष्य में कौन सी व्यवस्था का जन्म होगा? बिल्कुल नहीं| इसी प्रकार मनु को भी नहीं पता था कि वर्णव्यवस्था का भविष्य में क्या रुप होगा|

१९.   डॉ.अम्बेडकर वर्तमान जाति-पांति रहित संविधान के निर्माता एवं पोषक हैं| दुर्भाग्य से, सैकडों वर्षों के बाद यदि यह जातिवादी रुप ले जाये तो क्या डॉ. अम्बेडकर उस के जनक होने के जिम्मेदार बनेंगे? सभी कहेंगे-नहीं, वे तो जातिवाद के विरोधी हैं, उन्हें जनक क्यों कहा जाये| इसी प्रकार जातिव्यवस्था, वर्णव्यवस्था की विरोधी व्यवस्था है| मनु को अपनी वर्णव्यवस्था की विरोधी जातिव्यवस्था का जनक कैसे कहा जा सकता है? इस प्रकार उन पर जातिव्यवस्था का जनक होने का आरोप सरासर गलत हैं| सच यह है कि बाद के समाज ने मनु की वर्णव्यवस्था को विकृत कर दिया और उसे जातिव्यवस्था में बदल दिया, अतः वही समाज इसका जनक भी है, दोषी भी|

२०.   जो यह कहा गया है कि ‘अकेला मनु न तो जातिव्यवस्था को बना सकता था और न लागू कर सकता था|’ यह तो स्वयं ही डॉ.अम्बेडकर ने मान लिया कि इन दोनों बातों के लिए मनु जिम्मेदार नहीं है| इसका अर्थ यह निकला कि पहले से ही समाज में वर्णव्यवस्था प्रचलित थी और समाज ने उसे स्वयं स्वीकृत किया हुआ था| वह लोगों के दिल-दिमाग में रची-बसी व्यवस्था थी, लोगों द्वारा उत्तम मानी हुई व्यवस्था थी और सर्वस्वीकृत थी| मनु द्वारा थोपी नहीं गयी थी| समाज द्वारा स्वीकृत व्यवस्था थी, उसमें मनु का क्या दोष? आपने जनता द्वारा स्वीकृत वर्तमान व्यवस्था का पोषण किया हैं, मनु ने समाज द्वारा स्वीकृत अपने समय की वर्ण व्यवस्था का पोषण किया था | इसमें दोष या दोषी होने का अवसर ही कहॉं हैं?

२१.   संसार की सभी व्यवस्थाएं शतप्रतिशत मान्य और खरी नहीं होती| अतः कुछ कमियों के आधार पर परवर्ती जातिव्यवस्था (हिन्दु व्यवस्था) की निन्दा और अपमान करना कदापि उचित नहीं माना जा सकता | आज की संवैधानिक व्यवस्था, जिसका न्याय, समानता आदि का दावा है, क्या सम्पूर्ण हैं? अभी ही वह न जाने कितने विवादों से घिरी हैं| सामायिक आवश्यकता के आधार पर आरक्षण का प्रावधान किया गया है, फिर भी आज उस पर उग्र विवाद है| आज के सैकडों वर्ष पश्‍चात् जब ये परिस्थितियॉं विस्मृत हो जायेंगी, तब जो इस व्यवस्था का इतिहास लिखा जायेगा, शायद वह आरक्षित जातियों के लिए भी वैसा ही लिखा जायेगा, जो ब्राह्मणों के सन्दर्भ में आज प्राचीन धर्मशास्त्रों का लिखा जा रहा हैं |

वर्तमान संवैधानिक व्यवस्थाओं में, उच्चतम अधिकारी से लेकर निम्नतम कर्मचारी तक के लिए परीक्षाओं-उपाधियों के अनुसार नियुक्ति का प्रावधान हैं| कुछ स्थान मनोनयन से भरे जाते हैं| थोडे से वर्षों में ही स्थिति यहां तक पहुँच गयी है कि प्रशासनिक पदों के मनोनयन में, सत्ता में बैठे नेताओं, अधिकारियों के सम्बन्धी या सिफारिशी ही अधिकांशतः लिये जाते हैं, योग्यता का पैमाना भुला दिया गया है| साक्षात्कार योग्यता की जांच के लिए आयोजित होते हैं, किन्तु वहॉं भी हजारों नौकरियॉं सिफारिश और पैसें के आधार पर दी जा रही हैं| न्यायालयों द्वारा रद्द अनेक चयनसूचियां इसकी सत्यापित प्रमाण हैं| राजनीतिक क्षेत्र के पदों के मनोनयन में योग्यता नाम की कोई वस्तु दिखायी नहीं पडती | वहॉं अपने-परायें का नग्न रुप हैं| कल्पना कीजिए, जिसकी कि संभावनाएं प्रबल दिखायी पड रही हैं, सैंकडो वर्ष बाद ये व्यवस्थाएं और अधिक विकृत होकर यदि जन्माधारित रुप ले गयीं तो क्या उसकी जिम्मेदारी डॉ.अम्बेडकर और उनकी संविधान-सभा की मानी जायेगी? क्या उन द्वारा प्रदत्त व्यवस्था उस भावी विकृत व्यवस्था की जननी मानी जानी चाहिए? यदि नहीं, तो मनु को भी जाति- व्यवस्था का जनक और जिम्मेदार नहीं कहा जा सकता|

२२.   इनसे भी अधिक अविचारित और खतरनाक बात जो डॉ.अम्बेडकर ने कही है, वह है-‘‘यदि आप जातिप्रथा में दरार डालना चाहते हैं तो इसके लिए आपको हर हालत में वेदों और शास्त्रों में डायनामाइट लगाना होगा|’’ (जातिप्रथा उन्मूलन पृ.९९)| एक ओर वे मानते हैं कि वेदों में जातिव्यवस्था न होकर वर्ण व्यवस्था हैं और वर्ण व्यवस्था गुण-कर्म पर आधारित होने से बुध्दिमत्तापूर्ण है, घृणास्पद नहीं, फिर भी वेदों में डायनामाइट लगाने की अनुचित और उत्तेजक बात कहते हैं | कितना परस्पर विरोधी वक्तव्य है उनका! वेद,धर्मशास्त्र,रामायण,महाभारत,पुराण, गीता सभी को नष्ट-भ्रष्ट करने और उनसे नाता तोडने की बात कही है उन्होंने! धर्मजिज्ञासा, साहित्य, संस्कृति, सभ्यता, आचार-व्यवहार, जीवनमूल्य सभी के आश्रय और प्रेरणा स्त्रोत होते हैं धर्मशास्त्र | उनको नष्ट करने का अभिप्राय है आर्य (हिन्दु) संस्कृति-सभ्यता, धर्म, सब कुछ को नष्ट करना | क्या डॉ.अम्बेडकर यही चाहते थे? यदि डॉ.अम्बेडकर हिन्दू धर्म में रहकर पीडित थे और उन्हें वह छोडना था, तो वे उसे छोडकर केवल ‘मनुष्य’ के नाते भी रह सकते थे, किन्तु धर्म के आश्रय के बिना वे नहीं रह सके | उन्होंने बौध्द धर्म का आश्रय लिया और बौध्द धर्मशास्त्रों को प्रमाण माना जबकि हिन्दुओं को वे धर्म और धर्मशास्त्रों का त्याग करने को कहते हैं| यहां मैं महात्मा गांधी द्वारा उस समय दिये गये उत्तर को उध्दृत करना चाहूंगा-‘जैसे कोई कुरान को अस्वीकार कर मुसलमान नहीं हो सकता, बाइबल को अस्वीकार कर ईसाई नहीं हो सकता, वैसे ही वेदों-शास्त्रों को अस्वीकार कर कोई हिन्दू कैसे हो सकता है?’ डॉ.अम्बेडकर की यह सोच ठीक वैसी ही है जैसे किसी के हाथ-पैर में फोडा हो जाये तो उसका आप्रेशन कर उसको निकाल देने के बजाय उस आदमी को जान से ही मार दिया जाये |

२३.   वेदों में जाति व्यवस्था का नामोनिशान तक नहीं है| फिर भी डॉ.अम्बेडकर ने वेदों की अकारण आलोचना की, उनको नष्ट करने की बात कही, उनके महत्त्व को अंगीकार नहीं किया| बौध्द होकर भी उन्होंने ऐसा ही किया है| उन्होंने बौध्द-शास्त्रों की और अपने गुरु की अवज्ञा की है, क्योंकि बौध्द शास्त्रों में महात्मा बुध्द ने वेदों और वेदज्ञों की प्रशंसा करते हुए धर्म में वेदों के महत्त्व को प्रतिपादित किया है| कुछ प्रमाण देखिए-

(अ)   ‘‘विद्वा च वेदेहि समेच्च धम्मम् |

न उच्चावचं गच्छति भूरिपत्र्वो |’’ (सुत्तनिपात २९२)

 

अर्थात्-महात्मा बुध्द कहते हैं-‘जो विद्वान् वेदों से धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है, वह कभी विचलित नहीं होता|’

(आ)  ‘‘विद्वा च सो वेदगू नरो इध, भवाभवे संगं इमं विसज्जा |

सो वीतवण्हो अनिघो निरासो, अतारि सो जाति जरांति ब्रूमीति ॥

(सुत्तनिपात १०६०)

अर्थात्-‘वेद को जाननेवाला विद्वान् इस संसार में जन्म और मृत्यु की आसक्ति का त्याग करके और इच्छा, तृष्णा तथा पाप से रहित होकर जन्म-मृत्यु से छूट जाता है|’ अन्य श्‍लोक द्रष्टव्य हैं-३२२,४५८,५०३,८४६,१०५९आदि|

२४.   डॉ.अम्बेडकर की मनु-विरोध परम्परा में डॉ.भदन्त आनन्द कौसल्यायन द्वारा ‘राष्ट्रीय कर्तव्य’ के नाम से किया गया मनुस्मृति-‘विरोध’ केवल विरोध के लिए ही है, जो अत्यन्त सतही है| उसमें न तर्क है, न सम्यक् विश्‍लेषण | अपव्याख्या और अपप्रस्तुति का आश्रय लेकर अच्छे को भी बुरा सिध्द करने का प्रयास है| उन्हें जहां इस बात पर आक्रोश है कि मनु ने नारियों की निन्दा की है, तो इस बात पर भी दुःख है कि उन्हें ‘‘पूजार्ह = सम्मानयोग्य’’ क्यों कहा गया! इसी को कहते है ‘चित भी मेरी पट भी मेरी|’ उनकी स्थिति विरोधाभासी है | महात्मा गांधी के प्रशंसक हैं, किन्तु उनके निष्कर्षों को नहीं मानते | बौध्द हैं, किन्तु बौध्द साहित्य में वर्णित वेद-वेदज्ञ आदि के महत्व को स्वीकार नहीं करते| स्वयं को गर्व से अवैदिक=अहिन्दू घोषित करते रहे, किन्तु हिन्दुओं के शास्त्रों के तथाकथित उध्दार में और हिन्दुओं में पूज्य महापुरुषों मनु, राम आदि की निन्दा-आलोचना में लगे रहे|

२५.   मनुस्मृति-विरोधी सभी लेखकों में कुछ एकांगी और पूर्वाग्रहयुक्त बातें समानरुप से पायी जाती हैं |  उन्होंने कर्मणा वर्णव्यवस्था को सिध्द करनेवाले आपत्तिरहित श्‍लोकों, जिनमें स्त्री-शूद्रों के लिए हितकर और सद्भावपूर्ण बाते हैं, जिन्हें कि पूर्वापर प्रसंग से सम्बध्द होने के कारण मौलिक माना जाता है, को उध्दृत ही नहीं किया| केवळ आपत्तिपूर्ण श्‍लोकों, जिन्हें कि प्रक्षिप्त माना जाता है, को उध्दृत करके निन्दा-आलोचना की है| उन्होंने इस शंका का समाधान नहीं किया है कि एक ही पुस्तक में, एक ही प्रसंग में स्पष्टतः परस्पर विरोधी कथन क्यों पाये जाते हैं? और आपने दो कथनों में से केवल आपत्तिपूर्ण कथन को ही क्यों ग्रहण किया? दूसरों की उपेक्षा क्यों की? यदि वे लेखक इस प्रश्‍न पर चर्चा करते तो उनकी आपत्तियों का उत्तर उन्हें स्वयं मिल जाता | न आक्रोश में आने का अवसर आता, न विरोध का, अपितु बहुत-सी भ्रान्तियों से बच जाते|

(ख)  मनुस्मृति में शूद्रों की स्थिति

आइये, अब विचार करते हैं मनुस्मृति के सबसे अधिक चर्चित और विवादास्पद शूद्र सम्बन्धी विषय पर| मनुस्मृति के अन्तःसाक्ष्यों पर दृष्टिपात करने पर हमें कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं आधारभूत तथ्य उपलब्ध होते हैं जो शूद्रों के विषय में मनु की भावनाओं का संकेत देते हैं| वे इस प्रकार हैं-

१.    दलितों-पिछडों को शूद्र नहीं कहा-आजकल की दलित, पिछडी और जनजाति कही जानेवाली जातियों को मनुस्मृति में कहीं ‘शूद्र’ नहीं कहा गया हैं| मनु की वर्णव्यवस्था है, अतः सभी व्यक्तियों के वर्णों का निश्‍चय गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर किया गया है, जाति के आधार पर नहीं | यही कारण है कि शूद्र वर्ण में किसी जाति की गणना करके यह नहीं कहा है कि अमुक-अमुक जातियॉं ‘शूद्र’ हैं| परवर्ती समाज और व्यवस्थाकारों ने समय-समय पर शूद्र संज्ञा देकर कुछ वर्णों को शूद्रवर्ग में सम्मिलित कर दिया| कुछ लोग भ्रान्तिवश इसकी जिम्मेदारी मनु पर थोंप रहे हैं| विकृत व्यवस्थाओं का दोषी तो है परवर्ती समाज, किन्तु उसका दण्ड मनु को दिया जा रहा है| न्याय की मांग करनेवाले दलित प्रतिनिधियों का यह कैसा न्याय है?

२.    मनुकृत शूद्रों की परिभाषा वर्तमान शूद्रों पर लागू नहीं होती| मनु द्वारा दी गयी शूद्र की परिभाषा भी आज की दलित और पिछडी जातियों पर लागू नहीं होती| मनुकृत शूद्र की परिभाषा है–जिनका ब्रह्मजन्म = विद्याजन्म रुप दूसरा जन्म होता है, वे ‘द्विजाति’ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हैं | जिसका ब्रह्मजन्म नहीं होता वह ‘एकजाति’ रहनेवाला शूद्र है| अर्थात् जो बालक निर्धारित समय पर गुरु के पास जाकर संस्कारपूर्वक वेदाध्ययन वेदाध्ययन, विद्याध्ययन और अपने वर्ण की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करता है, वह उसका ‘विद्याजन्म’ नामक दूसरा जन्म है, जिसे शास्त्रों में ‘ब्रह्मजन्म’ कहा गया है| जो जानबूझकर, मन्दबुध्दि होने के कारण अथवा अयोग्य होने के कारण ‘विद्याध्ययन’ और उच्च तीन द्विज वर्णों में से किसी भी वर्ण की शिक्षा-दीक्षा नहीं प्राप्त करता, वह अशिक्षित व्यक्ति ‘एकजाति=एक जन्मवाला’ अर्थात शूद्र कहलाता हैं| इसके अतिरिक्त उच्च वर्णों में दीक्षित होकर जो निर्धारित कर्मों को नहीं करता, वह भी शूद्र हो जाता है (मनु० २.१२६,१६९,१७०,१७२; १०.४ आदि) इस विषयक एक-दो प्रमाण द्रष्टव्य हैं-

(अ)   ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः, त्रयो वर्णाः द्विजातयः |

चतुर्थः एकजातिस्तु, शूद्रः नास्ति तु पंचमः ॥ (मनु० १०.४)

 

अर्थात्-ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,इन तीन वर्णों को द्विजाति कहते हैं, क्योंकि इनका दूसरा विद्याजन्म होता है| चौथा वर्ण एकजाति=केवल माता-पिता से ही जन्म प्राप्त करनेवाला और विद्याजन्म न प्राप्त करनेवाला, शूद्र है | इन चारों वर्णों के अतिरिक्त कोई वर्ण नहीं है|

(आ)  शूद्रेण हि सपस्तावद् यावद् वेदे न जायते | (२.१७२)

अर्थात्-जब तक व्यक्ति का ब्रह्मजन्म = वेदाध्ययन रुप जन्म नहीं होता, तब तक वह शूद्र के समान ही होता है|

(इ)   न वेत्ति अभिवादस्य.. .. यथा शूद्रस्तथैव सः | (२.१२६)

अर्थात्-जो अभिवादन विधि का ज्ञान नहीं रखता, वह शूद्र ही है|

(ई)   ‘‘प्रत्यवायेन शूद्रताम्’’ (४.२४५)

अर्थात्-ब्राह्मण, हीन लोगों के संग और आचरण से शूद्र हो जाता है|

बाद तक भी शूद्र की यही परिभाषा रही है-

(उ)   जन्मना जायते शूद्रः, संस्काराद् द्विज उच्यते | (स्कन्दपुराण)

अर्थात्-प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है, उपनयन संस्कार में दीक्षित होकर ही द्विज बनता हैं|

मनु की यह व्यवस्था अब भी बालिद्वीप में प्रचलित हैं| वहॉं ‘द्विजाति’ और ‘एकजाति’ संज्ञाओं का ही प्रयोग होता है| शूद्र को अस्पृश्य नहीं माना जाता|

३.    शूद्र अस्पृश्य नहीं-अनेक श्‍लोकों से ज्ञात होता है कि शूद्रों के एति मनुं की मानवीय सद्भावना थी और वे उन्हें अस्पृश्य, निन्दित अथवा घृणित नहीं मानते थे | मनु ने शूद्रों के लिए उत्तम, उत्कृष्ट, शुचि जैसे विशेषणों का प्रयोग किया है, ऐसा विशेष्य व्यक्ति कभी अस्पृश्य या घृणित नहीं माना जा सकता (९.३३५) | शूद्रों को द्विजाति वर्णों के घरों में पाचन, सेवा आदि श्रमकार्य करने का निर्देश दिया है (१.९१;९.३३४-३३५)| किसी द्विज के यहां यदि कोई शूद्र अतिथिरुप में आ जाये तो उसे भोजन कराने का आदेश है (३.११२)| व्दिजों को आदेश है कि अपने भृत्यों को, जो कि शूद्र होते थे, पहले भोजन कराने के बाद, भोजन करें (३.११६)| क्या आज के वर्णरहित सभ्य समाज में भृत्यों को पहले भोजन कराया जाता है? और उनका इतना ध्यान रखा जाता है? कितना मानवीय, सम्मान और कृपापूर्ण दृष्टिकोण था मनु का|

वैदिक वर्णव्यवस्था में परमात्मापुरुष अथवा ब्रह्मा के मुख,बाहु,जंघा, पैर से क्रमशः ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,शूद्र की आलंकारिक उत्पत्ति बतलायी है(१.३१)| इससे तीन निष्कर्ष निकलते हैं| एक, चारों वर्णों के व्यक्ति परमात्मा की एक जैसी सन्तानें हैं| दूसरा, एक जैसी सन्तानों में कोई अस्पृश्य और घृणित नहीं होता| तीसरा, एक ही शरीर का अंग ‘पैर’ अस्पृश्य या घृणित नहीं होता है| ऐसे श्‍लोकों के रहते कोई तटस्थ व्यक्ति क्या यह कह सकता है कि मनु शूद्रों को अस्पृश्य और घृणित मानते थे?

४.    शूद्र को सम्मान व्यवस्था में छूट-मनु ने सम्मान के विषय में शूद्रों को विशेष छूट दी हैं| मनुविहित सम्मान-व्यवस्था में प्रथम तीन वर्णों में अधिक गुणों के आधार पर अधिक सम्मान देने का कथन है जिनमें विद्यावान् सबसे अधिक सम्मान्य है (२.१११,११२,१३०)| किन्तु शूद्र के प्रति अधिक सद्भाव प्रदर्शित करते हुए उन्होंने विशेष विधान किया है कि द्विज वर्ण के व्यक्ति वृध्द शूद्र को पहले सम्मान दें, जबकि शूद्र अशिक्षित होता है| यह सम्मान पहले तीन वर्णों में किसी को नहीं दिया गया हैं-

‘‘मानार्हः शूद्रो ऽपि दशमीं गतः’’ (२.१३७)

अर्थात्-वृध्द शूद्र को सभी द्विज पहले सम्मान दें| शेष तीन वर्णों में अधिक गुणी पहले सम्मान का पात्र है|

५.    शूद्र को धर्मपालन की स्वतन्त्रता-‘‘न धर्मात् प्रतिषेधनम्’’ (१०.१२६) अर्थात्-‘शूद्रों को धार्मिक कार्य करने का निषेध नहीं है’ यह कहकर मनु ने शूद्र को धर्मपालन की स्वतन्त्रता दी है| इस तथ्य का ज्ञान उस श्‍लोक से भी होता है जिसमें मनु ने कहा है कि ‘शूद्र से भी उत्तम धर्म को ग्रहण कर लेना चाहिए’ (२.२१३) | वेदों में शूद्रों को स्पष्टतः यज्ञ आदि करने और वेदशास्त्र पढने का अधिकार दिया हैं–

(अ)   यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः |

ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय ॥ २६.२)

 

अर्थात्-मैंने इस कल्याणकारिणी वेद वाणी का उपदेश सभी मनुष्यों-ब्राह्मण,क्षत्रिय,शूद्र,वैश्य,स्वाश्रित स्त्री-भृत्य आदि और अतिशूद्र आदि के लिए किया है|

(आ)  यज्ञियासः पश्‍चजनाः मम होत्रं जुषध्वम् | (ऋग्० १०.५३.४)

पश्‍चजनाः = चत्वारो वर्णाः, निषादः पश्‍चमः | (निरुक्त ३.८)

 

अर्थात्-‘यज्ञ करने के पात्र पांच प्रकार के मनुष्य अग्निहोत्र किया करें|’ चार वर्ण और पांचवां निषाद, ये पश्‍चजन कहलाते हैं|

मनु की प्रतिज्ञा है कि उनकी मनुस्मृति वेदानुकूल है, अतः वेदाधारित होने के कारण मनु की भी वही मान्यताएं हैं| यही कारण है कि उपनयन प्रसंग में कहीं भी शूद्र के उपनयन का निषेध नहीं किया है, क्योंकि शूद्र तो तब कहाता है, जब कोई उपनयन नहीं कराता |

६.    दण्डव्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड-पाठकवृन्द! आइये, अब मनुविहित दण्डव्यवस्था पर दृष्टिपात करते हैं| यह कहना नितान्त अनुचित है कि मनु ने शूद्रों के लिए कठोर दण्डों का विधान किया है और ब्राह्मणों को विशेषाधिकार एवं विशेष सुविधाएं प्रदान की हैं| मनु की दण्डव्यवस्था के मानदण्ड हैं-गुण-दोष, और आधारभूत तत्व हैं-बौध्दिक स्तर, सामाजिक स्तर, पद, अपराध का प्रभाव | मनु की दण्डव्यवस्था है, जो मनोवैज्ञानिक है| यदि मनु वर्णों में गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर उच्च वर्णों को अधिक सम्मान और सामाजिक स्तर प्रदान करते हैं तो अपराध करने पर उतना ही अधिक दण्ड भी देते हैं| इस प्रकार मनु की यथायोग्य दण्ड व्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड है, और ब्राह्मण को सबसे अधिक; राजा को यथायोग्य दण्ड व्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड है, और ब्राह्मण को सबसे अधिक; राजा को उससे भी अधिक| मनु की यह सर्वसामान्य दण्डव्यवस्था है, जो सभी दण्डस्थानों पर लागू होती हैं-

अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्

षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च ॥

ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्|

द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविध्दि सः ॥

 

अर्थात्-किसी चोरी आदि के अपराध में शूद्र को आठ गुणा दण्ड दिया जाता है तो वैश्य को सोलहगुणा, क्षत्रिय को बत्तीसगुणा, ब्राह्मण को चौंसठगुणा, अपितु उसे सौगुणा अथवा एक सौ अठ्ठाईसगुणा दण्ड करना चाहिए क्योकिं उत्तरोत्तर वर्ण के व्यक्ति अपराध के गुण-दोषों और उनके परिणामों, प्रभावों आदि को भलीभांति समझनेवाले हैं|

इसके साथ ही मनु ने राजा को आदेश दिया है कि उक्त दण्ड से किसी को छूट नहीं दी जानी हैं, चाहे वह आचार्य, पुरोहित और राजा के पिता-माता ही क्यों न हों| राजा दण्ड दिये बिना मित्र को भी न छोडे और कोई समृध्द व्यक्ति शारीरिक अपराधदण्ड के बदले में विशाल धनराशि देकर छूटना चाहे तो उसे भी न छोडे (८.३३५, ३४७)

देखिए, मनु की दण्डव्यवस्था कितनी मनोवैज्ञानिक, न्यायपूर्ण, व्यावहारिक और श्रेष्ठप्रभावी है| इसकी तुलना आज की दण्डव्यवस्था से करके देखिए, दोनों का अन्तर स्पष्ट हो जायेगा | आज की दण्डव्यवस्था का नारा हैं-‘कानून की दृष्टि में सब समान हैं|’ पहला विरोध यही हुआ कि पदस्तर और सामाजिक स्तर के अनुसार सम्मान व्यवस्था तो पृथक्-पृथक् हैं और दण्ड एक जैसा| दूसरा, यथायोग्य दण्ड नहीं| इसे यों समझिए कि खेत चर जाने पर मेमने को भी एक डण्डा लगेगा, भैंसे, हाथी को भी| इसका प्रभाव क्या होगा? बेचारा मेमना डण्डे के प्रहार से मिमियाने लगेगा, भैंसे में कुछ हलचल होगी, हाथी को अनुभूति ही नहीं होगी| क्या यह वास्तव में समान दण्ड हुआ? समान दण्ड तो वह हैं, जो लोकव्यवहार में प्रचलित हैं | भैंसे को लाठी से, हाथी को अंकुश से और शेर को हण्टर से वश में किया जाता हैं| दूसरा उदाहरण लीजिए-एक अत्यन्त गरीब एक हजार के दण्ड को कर्ज लेकर चुका पायेगा, मध्यमवर्गीय थोडा कष्ट अनुभव करके और समृध्द-सम्पन्न जूती की नोक पर रख कर देगा | इसी अमनोवैज्ञानिक दण्डव्यवस्था का परिणाम है कि दण्ड की पतली रस्सी में आज गरीब तो फंस जाते हैं, धन-पद-सत्ता-सम्पन्न शक्तिशाली लोग उस रस्सी को तुडा कर निकल भागते हैं| आंकडे इकठ्ठे करके देख लीजिए, स्वतन्त्रता के बाद कितने गरीबों को सजा हुई है, और कितने धन-पद-सत्ता-सम्पन्न लोगों को| आर्थिक अपराधों में समृध्द लोग अर्थदण्ड भरते रहते हैं, अपराध करते रहते हैं | मनु की यथायोग्य दण्ड-व्यवस्था में ऐसा असन्तुलन नहीं है|

मनु की दण्डव्यवस्था अपराध की प्रकृति पर निर्भर है| वे गम्भीर अपराध में यदि कठोर दण्ड का विधान करते हैं तो चारों वर्णों को ही, और यदि सामान्य अपराध में सामान्य दण्ड का विधान करते हैं, तो वह भी चारों वर्णों के लिए सामान्य होता हैं| शूद्रों के लिए जो कठोर दण्डों का विधान मिलता है वह प्रक्षिप्त श्‍लोकों में है| उक्त दण्डनीति के विरुध्द जो श्‍लोक मिलते हैं, वे मनुरचित नहीं हैं|

७.    शूद्र दास नहीं है-शूद्र से दासता कराने अथवा जीविका न देने का कथन मनु के निर्देशों के विरुध्द है| मनु ने सेवकों, भृत्यों का वेतन, स्थान और पद के अनुसार नियत करने का आदेश राजा को दिया है और यह सुनिश्‍चित किया है कि उनका वेतन अनावश्यक रुप से न काटा जाये (७.१२५-१२६-;८.२१६) |

८.    शूद्र सवर्ण हैं-वर्तमान मनुस्मृति को उठाकर देख लीजिए, उनकी ऐसी कितनी ही व्यवस्थाएं हैं, जिन्हें परवर्ती समाज ने अपने ढंग से बदल लिया है| मनु ने शूद्र सहित चारों वर्णों को सवर्ण माना है, चारों से भिन्न को असवर्ण (१०.४,४५), किन्तु परवर्ती समाज शूद्र को असवर्ण कहने लग गया| मनु ने शिल्प, कारीगरी आदि के कार्य करनेवालें लोगों को वैश्य वर्ण के अन्तर्गत माना है (३.६४;९.३२९;१०.९९;१०.१२०), किन्तु परवर्ती समाज ने उन्हें भी शूद्रकोटि में ला खडा कर दिया| दूसरी ओर, मनु ने कृषि, पशुपालन को वैश्यों का कार्य माना है (१.९०), किन्तु सदियों से ब्राह्मण और क्षत्रिय भी कृषि-पशुपालन कर रहा हैं, उन्हें वैश्य घोषित नहीं किया| इनको मनु की व्यवस्था कैसे माना जा सकता हैं?

इस प्रकार मनु की व्यवस्थाएं न्यायपूर्ण हैं| उन्होंने न शूद्र और न किसी अन्य वर्ण के साथ अन्याय या पक्षपात किया है|

 

(ग)   मनुस्मृति में नारियों की स्थिति

मनुस्मृति के अन्तःसाक्ष्य कहते हैं कि मनु की जो स्त्री-विरोधी छवि प्रस्तुत की जा रही है, वह निराधार एवं तथ्यों के विपरीत है| मनु ने मनुस्मृति में स्त्रियों से सम्बन्धित जो व्यवस्थाएं दी हैं वे उनके सम्मान, सुरक्षा, समानता, सद्भाव और न्याय की भावना से प्रेरित हैं| कुछ प्रमाण प्रस्तुत हैं-

१.    नारियों को सर्वोच्य महत्त्व-महर्षि मनु संसार के वह प्रथम महापुरुष हैं, जिन्होंने नारी के विषय में सर्वप्रथम ऐसा सर्वोच्च आदर्श उद्घोष दिया है, जो नारी की गरिमा, महिमा और सम्मान को असाधारण ऊंचाई प्रदान करता है-

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः|

यत्रैताः तु न पूज्यन्ते सर्वाः तत्राफलाः क्रियाः॥ (३.५६)

 

इसमा सही अर्थ है-‘जिस परिवार में नारियों का आदर-सम्मान होता है, वहां देवता=दिव्य गुण,कर्म,स्वभाव,सन्तान,दिव्य लाभ आदि प्राप्त होते हैं और जहां इनका आदर-सम्मान नहीं होता, वहां उनकी सब क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं|’

स्त्रियों के प्रति प्रयुक्त सम्मानजनक एवं सुन्दर विशेषणों से बढकर, नारियों के प्रति मनु की भावना का बोध करानेवाले प्रमाण और कोई नहीं हो सकते| वे कहते हैं कि नारियां घर का भाग्योदय करनेवाली, आदर के योग्य, घर की ज्योति, गृहशोभा, गृहलक्ष्मी, गृहसंचालिका एवं गृहस्वामिनी, घर का स्वर्ग, संसारयात्रा की आधार हैं (९.११,२६,२८;५.१५०)| कल्याण चाहनेवाले परिवारजनों को स्त्रियों का आदर-सत्कार करना चाहिये, अनादर से शोकग्रस्त रहनेवाली स्त्रियों के कारण घर और कुल नष्ट हो जाते हैं| स्त्री की प्रसन्नता में ही कुल की वास्तविक प्रसन्नता है (३.५५-६२)| इसलिए वे गृहस्थों को उपदेश देते हैं कि परस्पर संतुष्ट रहें एक दूसरे के विपरीत आचरण न करें और ऐसा कोई कार्य न करें जिससे एक-दुसरे से वियुक्त होने की स्थिति आ जाये (९.१०१-१०२)| मनु की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए एक श्‍लोक ही पर्याप्त है-

 

प्रजनार्थं महाभागाः पूजार्हाः गृहदीप्तयः|

स्त्रियः श्रियश्‍च गेहेषु न विशेषो ऽस्ति कश्‍चन ॥ १.२६)

 

अर्थात्-सन्तान उत्पत्ति के लिए घर का भाग्योदय करनेवाली, आदर-सम्मान के योग्य, गृहज्योति होती हैं स्त्रियां| शोभा-लक्ष्मी और स्त्री में कोई अन्तर नहीं है, वे घर की प्रत्यक्ष शोभा हैं|

२.    पुत्र-पुत्री एक समान-मनुमत से अनभिज्ञ पाठकों को यह जानकर सुखद आश्‍चर्य होगा कि मनु ही सबसे पहले वह संविधान निर्माता हैं| जिन्होंने पु-पुत्री की समानता को घोषित करके उसे वैधानिक रुप दिया है-

‘‘पुत्रेण दुहिता समा’’ (मनु० ९.१३०)

अर्थात्-पुत्री पुत्र के समान होती है| वह आत्मारुप है, अतः वह पैतृकसम्पत्ति की अधिकारिणी है|

३.    पुत्र-पुत्री को पैतृक सम्पत्ति में समान अधिकार-मनु ने पैतृक सम्पत्ति में पुत्र-पुत्री को समान अधिकारी माना है| उनका यह मत मनुस्मृति के ९.१३०, १९२ में वर्णित है| इसे निरुक्त में इस प्रकार उध्दृत किया गया हैं-

अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः |

मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत्॥ (३.१.४)

अर्थात्-सृष्टि के प्रारम्भ में स्वायम्भुव मनु ने यह विधान किया है कि दायभाग = पैतृक सम्पत्ति में पुत्र-पुत्री का समान अधिकार होता है| मातृधन में केवल कन्याओं का अधिकार विहित करके मनु ने परिवार में कन्याओं के महत्त्व में अभिवृध्दि की है (९.१३१)|

४.    स्त्रियों के धन की सुरक्षा के विशेष निर्देश-स्त्रियों को अबला समझकर कोई भी, चाहे वह बन्धु-बान्धव ही क्यों न हों, यदि स्त्रियों के धन पर कब्जा कर लें, तो उन्हें चोर सदृश दण्ड से दण्डित करने का आदेश मनु ने दिया है (९.२१२;३.५२;८.२;८.२९)|

५.    नारियों के प्रति किये अपराधों में कठोर दण्ड-स्त्रियों की सुरक्षा के दृष्टिगत नारियों की हत्या और उनका अपहरण करनेवालों के लिए मृत्युदण्ड का विधान करके तथा बलात्कारियों के लिए यातनापूर्ण दण्ड देने के बाद देश निकाला का आदेश देकर मनु ने नारियों की सुरक्षा को सुनिश्‍चित बनाने का यत्न किया है(८.३२३;९.२३२;८.३५२)| नारियों के जीवन में आनेवाली प्रत्येक छोटी-बडी कठिनाई का ध्यान रखते हुए मनु ने उनके निराकरण हेतु स्पष्ट निर्देश दिये हैं| पुरुषों को निर्देश है कि वे माता, पत्नी और पुत्री के साथ झगडा न करें (४.१८०), इन पर मिथ्या दोषारोपण करनेवालों, इनको निर्दोष होते हुए त्यागनेवालों, पत्नी के प्रति वैवाहिक दायित्व न निभानेवालों के लिए दण्ड का विधान है(८.२७५,३८९;९.४)|

६.    वैवाहिक स्वतन्त्रता एवं अधिकार-विवाह के विषय में मनु के आदर्श विचार हैं| मनु ने कन्याओं को योग्य पति का स्वयं वरण करने का निर्देश देकर स्वयम्वर विवाह का अधिकार एवं उसकी स्वतन्त्रता दी हैं (९०९०-९१)| विधवा को पुनर्विवाह का भी अधिकार दिया है, साथ ही सन्तानप्राप्ति के लिए नियोग की भी छूट है (९.१७६,९.५६-६३)| उन्होंने विवाह को कन्याओं के आदर-स्नेह का प्रतीक बताया है, अतःविवाह में किसी भी प्रकार के लेन-देन को अनुचित बताते हुए बल देकर उसका निषेध किया है(३.५१-५४)| स्त्रियों के सुखी-जीवन की कामना से उनका सुझाव है कि जीवनपर्यन्त अविवाहित रहना श्रेयस्कर है, किन्तु गुणहीन,दुष्ट पुरुष से विवाह नहीं करना चाहिए(९.८९)|

७.    सहभागिता तथा धर्मानुष्ठान में अपरिहार्यता-विश्‍व के सभी धर्मों में से केवल वैदिक धर्म में और सभी देशों में से भारतवर्ष में स्त्रियों को पुरुष के कार्यों में जो सहभागिता प्राप्त है वह अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती| यहां का कोई भी धार्मिक, सामाजिक या पारिवारिक आयोजन-अनुष्ठान स्त्री को साथ लिए बिना सम्पन्न नहीं होता| यही मनु की मान्यता है| इसलिए धर्मानुष्ठान के प्रबन्ध का दायित्व स्त्री को सौंपा है और उसकी सहभागिता से ही प्रत्येक अनुष्ठान करने का निर्देश दिया है(९.११,२८,९६)| वैदिक काल में स्त्रियों को वेदाध्ययन, यज्ञोपवीत, यज्ञ आदि के सभी अधिकार प्राप्त थे| वे ब्रह्मा के पद को सुशोभित करती थीं| उच्च शिक्षा प्राप्त करके मन्त्रद्रष्टी् ऋषिकाएं बनती थी | वेदों को धर्म में परम प्रमाण माननेवाले ऋषि मनु वेदानुसार स्त्रियों के सभी धार्मिक अधिकारों तथा उच्च शिक्षा के समर्थक हैं| तभी उन्होंने स्त्रियों के अनुष्ठान मन्त्रपूर्वक करने और धर्मकार्यों का अनुष्ठान स्त्रियों के अधीन घोषित किया है(२.४;३.२८)|

८.    स्त्रियों को प्राथमिकता-‘लेडीज फस्ट’ की सभ्यता के प्रशंसकों को यह पढकर और अधिक प्रसन्नता होनी चाहिए कि मनु ने सभी को यह निर्देश दिया है कि ‘स्त्रियों के लिए पहले रास्ता छोड दें| नवविवाहिताओं,कुमारियों,रोगिणी, गर्भिणी,वृध्दा आदि स्त्रियों को पहले भोजन करा के फिर पति-पत,नी को साथ भोजन करने का कथन है(२.१३८;३.११४,११६)| मनु के ये सब विधान स्त्रियों के प्रति सम्मान और स्नेह के द्योतक हैं|’

९)    स्त्रियों की अमर्यादित स्वतन्त्रता के पक्षघर नहीं-यहां प्रसंगवश यह स्पष्ट कर देना उपयोगी रहेगा कि मनु गुणों के प्रशंसक हैं और अवगुणों के निन्दक| गुणियों को सम्मानदाता हैं, अवगुणियों को दण्डदाता| यदि उन्होंने गुणवती स्त्रियों को पर्याप्त सम्मान दिया है, तो अवगुणवती स्त्रियों की निन्दा की है और दण्ड का विधान किया है| मनु की एक विशेषता और है, वह यह कि वे नारी की असुरक्षित तथा अमर्यादित स्वतन्त्रता के पक्षधर नहीं हैं और न उन बातों का समर्थन करते हैं जो परिणाम में अहितकर हैं| इसीलिए उन्होंने स्त्रियों को चेतावनी देते हुए सचेत किया है कि वे स्वयं को पिता, पति, पुत्र आदि की सुरक्षा से अलग न करें, क्योंकि एकाकी रहने से दो कुलों की निन्दा होने की आशंका रहती है(५.१४९;९.५-६)| इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मनु स्त्रियों की स्वतन्त्रता के विरोधी हैं| इसका निहितार्थ यह है कि नारी की सर्वप्रथमं सामाजिक आवश्यकता है-सुरक्षा की| वह सुरक्षा उसे, चाहे शासन-कानून प्रदान करे अथवा कोई पुरुष या स्वयं का सामर्थ्य| भोगवादी आपराधिक प्रवृत्तियां उसके स्वयं के सामर्थ्य को सफल नहीं होने देती| उदाहरणों से पता चलता है कि शस्त्रधारिणी डाकू स्त्रियों तक को भी पुरुष-सुरक्षा की आवश्यकता रही है| मनु के उक्त कथन को आज की राजनीतिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में देखना सही नहीं है| आज देश में एक शासन है और कानून उसका रक्षक है| फिर भी हजारों नारियां अपराधों की शिकार होकर जीवन की बर्बादी की राह पर चलने को विवश हैं| प्रतिदिन बलात्कार, नारी-हत्या जैसे जधन्य अपराधों की हजारों घटनाएं होती रहती हैं| जब राजतन्त्र में उथल-पुथल होती रहती है, कानून शिथिल पड जाते हैं, जब क्या परिणाम होगा, उस स्थितिमें मनु के वचनों के महत्त्व को आंककर देखना चाहिये| तब यह मानना पडेगा कि वे शतप्रतिशत सही हैं|

उपर्युक्त विश्‍लेषण से हमें यह स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति की व्यवस्थाएं स्त्री-शूद्रविरोधी नहीं हैं, वे न्यायपूर्ण और पक्षपातरहित हैं| मनु ने कुछ भी ऐसा नहीं कहा जो निन्दा अथवा आपत्ति के योग्य हो|

मनुस्मृति में प्रक्षेप

अब प्रश्‍न उठता है, कि ठीक है, मनुस्मृति में उत्तम विधानों के श्‍लोक हैं, किन्तु मनु-विरोधी लेखकों द्वारा प्रस्तुत श्‍लोक भी तो मनुस्मृति के ही हैं, जो सर्वथा आपत्ति योग्य हैं| इस प्रकार बडी उलझनभरी स्थिती ज्ञात होती हैं मनुस्मृति की| उसमें एक ही साथ न्यायपूर्ण श्रेष्ठ विधान भी हैं और अन्यायपूर्ण निन्द्य विधान भी! लेकिन क्या मौलिक रुप से यह स्थिति संभव मानी जा सकती है? जब एक प्रबुध्द सामान्य लेखक की रचना में भी इस प्रकार के परस्पर विरोध नहीं मिलते तो एक धर्मवेत्ता, विधिवेत्ता ऋषि के धर्म और विधिशास्त्र में ऐसे विरोध कैसे हो गये? इसका सीधा-स्पष्ट और निर्विवाद उत्तर है कि जो न्यायपूर्ण,श्रेष्ठ और गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित विधान हैं, वे मनु के मौलिक श्‍लोक हैं, जो इनके विरुध्द अन्याय और पक्षपातपूर्ण हैं, वे प्रक्षिप्त हैं अर्थात् समय-समय पर बाद के लोगों ने रचकर मनुस्मृति में मिला दिये हैं| इस उत्तर की पुष्टि मनुस्मृति पर आधारित मादडण्डों से ही हो जातीं है| मौलिक श्‍लोक पूर्वापर प्रसंगों से, विषयों से जुडे हुए हैं और गुण-कर्म-योग्यता के सिध्दान्त पर आधारित गम्भीर शैली में हैं, जबकि प्रक्षिप्त श्‍लोक प्रसंग और विषयविरुध्द तथा भिन्न शैली के हैं| इन आधारों के अनुसार अब हम कह सकते हैं कि इस लेख में उध्दृत श्‍लोक मौलिक हैं और इनकी भावना के विपरीत श्‍लोक प्रक्षिप्त हैं, जिन्हें कि मनु-विरोधी लेखकों ने विरोध का आधार बनाया हैं| संक्षेप में, प्रस्तुत विषय के मौलिक और प्रक्षिप्त श्‍लोक इस प्रकार हैं-

१.    मनु की व्यवस्था ‘वैदिक वर्णव्यवस्था’ है (डॉ.अम्बेडकर ने भी इसे स्वीकार किया हैं), अतः गुण-कर्म-योग्यता के सिध्दान्त पर आधारित जो श्‍लोक हैं, वे मौलिक हैं| इनके विरुध्द जन्मना जातिविधायक और जन्म के आधार पर पक्षपात का विधान करनेवाले श्‍लोक प्रक्षिप्त हैं|

मनु के समय जातियॉं नहीं बनी थीं| यही कारण है कि मनु ने वर्णों में जातियों की गणना नहीं दर्शायी हैं| इस शैली और सिध्दांन्त के आधार पर वर्णसंस्कारों से सम्बन्धित श्‍लोक भी प्रक्षिप्त हैं|

२.    इस लेख में उध्दृत मनु की यथायोग्य दण्डव्यवस्था, जो कि उनका ‘जनरल कानून’ है, मौलिक है; इसके विरुध्द पक्षपातपूर्ण कठोर दण्डव्यवस्था विधायक श्‍लोक प्रक्षिप्त हैं|

३.    इस लेख में उध्दृत शूद्र की परिभाषा, शूद्रों के प्रति सद्भाव, शूद्रों के धर्मपालन, वर्णपरिवर्तन आदि के विधायक श्‍लोक मौलिक हैं; उनके विपरीत जन्मना शूद्रनिर्धारक, स्पृश्यापृश्य, ऊंच-नीच, अधिकारों के शोषण आदि के विधायक श्‍लोक प्रक्षिप्त हैं|

४.    इस लेख में उध्दृत नारियों के सम्मान, स्वतन्त्रता, समानता, शिक्षा विधायक श्‍लोक मौलिक हैं, इसके विपरीत प्रक्षिप्त हैं|

इन श्‍लोकों की मौलिकता और प्रक्षिप्तता को यदि पाठक, और अधिक गम्भीरता तथा विस्तार से जानना चाहें, तो वे ‘आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, ४५५-खारी बावली, दिल्ली’ से प्रकाशित मनुस्मृति (सम्पूर्ण) का अध्ययन कर सकते हैं| इसमें कृतित्व पर आधारित सर्वसामान्य मानदण्डों के आधार पर मौलिक और प्रक्षिप्त श्‍लोकों को पृथक् दर्शा कर उन पर युक्ति-प्रमाण सहित समीक्षा दी गयी है| मनुस्मृति की मौलिक विषयवस्तु की जानकारी देने, प्रक्षिप्त श्‍लोकों को कारणपूर्वक समझाने और मनुस्मृति सम्बन्धी भ्रान्तियों के निराकरण के दृष्टिकोण से यह संस्करण पर्याप्त उपयोगी सिध्द होगा| प्रक्षिप्तों पर यह नवीनतम शोधकार्य हैं|

यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि प्रक्षिप्त श्‍लोक अब विवाद नहीं रह गये हैं, अपितु एक निर्णय के रुप में मान्य हो गये हैं कि अधिकांश प्राचीन संस्कृत साहित्य में समय-समय पर प्रक्षेप होते रहे हैं| महाभारत के उल्लेख के अनुसार, दस हजार श्‍लोकों का काव्य बढते-बढते एक लाख श्‍लोकों का संग्रह बन गया| एक हजार वर्ष पुरानी हस्तलिखित रामायण से जो नेपाल के अभिलेखागार में सुरक्षित है, आज की रामायण में सैंकडों श्‍लोक अधिक पाये जाते हैं| यही स्थिति मनुस्मृति की है, अपितु इसमें अधिक परिवर्तन-परिवर्धन-प्रक्षेप हुए हैं| कारण, इसका मनुष्य के दैनिक आचार-व्यवहार से अधिक सम्बन्ध था, अतः स्वार्थवश उतनी ही अधिक छेडछाड की गयी| मनुस्मृति में हुए प्रक्षेपों के विषय में सभी वर्गों के विद्वान् एकमत हैं| इसकी टीकाएं इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं| बाद-बाद की टीका में अधिक श्‍लोक पाये जाते हैं| मेधातिथि (९ वीं शताब्दी) की तुलना में कुल्लूकभट्ट (१२ वीं शताब्दी) की टीका में एक सौ सत्तर श्‍लोक अधिक हैं| वे तब तक धुल-मिल नहीं पाये थे, अतः बृहत् कोष्ठक में दिये गये हैं| अन्य टीकाओं में भी श्‍लोक संख्या में अन्तर हैं|

अंग्रेज शोधकर्ता वूलर, जे, जौली, कीथ, मैकडानल और इन्साइक्लोपीडिया (अमेरिका) के लेखक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि मनुस्मृति में प्रक्षेप होते रहे हैं|

आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द ने प्रक्षेप रहित मनुस्मृति को प्रमाण माना है| उन्होंने कुछ प्रक्षिप्त श्‍लोकों को छांटा हैं और छांटने की प्रेरणा दी हैं|

महात्मा गांधी ने अपनी ‘वर्ण व्यवस्था’ नामक पुस्तक में स्वीकार किया है कि मनुस्मृति में पायी जानेवाली आपत्तिजनक बातें बाद में की गयी मिलावटें हैं| डॉ.राधाकृष्णन, रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि राष्ट्रनेता एवं विद्वान भी यही मानते हैं|

अतः आवश्यकता इस बात की है कि मनु एवं मनुस्मृति को मौलिक रुप में समझा जाये और प्रक्षिप्त श्‍लोकों के आधार पर किये जाने विरोध का परित्याग किया जाये | मनु एवं मनुस्मृति गर्व करने योग्य हैं, निन्दा करने योग्य नहीं| भ्रान्तिवश हमें अपनी अमूल्य एवं महत्वपूर्ण धरोहर को निहित स्वार्थमयी राजनीति में घसीटकर उसका तिरस्कार नहीं करना चाहिये|

 

 

क्या हम अपने ही देश में रहते हैं?

 क्या हम अपने ही देश में रहते हैं?

– एम. वी. आर. शास्त्री

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में जो हुआ, वही सब कुछ हैदराबाद विश्वविद्यालय में घटित हुआ था। वहाँ देशद्रोह की घटना को दलित उत्पीड़न बना दिया गया। दिल्ली में उसका वास्तविक रूप सामने आ गया। हैदराबाद विश्वविद्यालय की घटना की वास्तविकता। पढ़िये ‘आन्ध्रभूमि’ के समपादक की लेखनी से।             – समपादक

 

भावनाओं की तीव्रता ने सच्चाई को छुपा दिया

पाकिस्तान के समर्थन को प्राप्त उग्रवादियों द्वारा मुंबई में किये गए बम विस्फोट में तीन सौ बेकसूर लोगों की जानें चली गयीं। याकूब मेनन इन षड्यंत्रों का सूत्रधार रहा, जिसे  दो दशकों के बाद पिछले साल फाँसी की सजा दी गई। भारत के नागरिकों ने इस बात को लेकर खुशी प्रकट की कि देर से ही क्यों न सही, इंसाफ हुआ, लेकिन भारत में रहने वाले पाकिस्तान के समर्थकों, उन बुद्धिजीवियों, जिनके दिमाग में घुन लग गया और कुटिल राजनीतिज्ञों ने याकूब को फाँसी की सजा देने पर अपनी प्रतिक्रिया जोर-शोर से व्यक्त की है।

इस अवसर पर हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में याकूब मेमन के समर्थकों ने जो हंगामा किया, उसे देख कर देशभर के लोग अवाक रह गये। विडंबना की बात यह है कि तीन सो लोगों की जानें लेने का जिममेदार खूँखार आतंकवादी याकूब को फाँसी की सजा देने के फैसले का विरोध करते हुए एक ख्यातिप्राप्त विश्वविद्यालय के परिसर में छाती पीट-पीट कर रोना और दिवंगत याकूब की आत्मा को शांति दिलाने की कामना करते हुए प्रार्थनाओं का आयोजन होना- हमें यह सोचने को मजबूर करने लगे हैं कि हम क्या अपने ही देश में रहते हैं? जुलूस निकाले गए। कई लोगों के हाथों में प्लेकार्ड पर लिखे गए इस नारे को देख कर लोग चकित रह गए कि ‘‘एक याकूब को फाँसी की सजा देने पर हर घर में एक-एक याकूब का जन्म होगा।’’

इसी विश्वविद्यालय के एक छात्र ने उस विश्वविद्यालय में होने वाली घटनाओं का जोरदार खण्डन किया, लेकिन उसने याकूब मेमन के समर्थकों के कार्य-कलापों को रोकने का प्रयत्न नहीं किया। किसी पर हमला नहीं किया। किसी के नाम को लेकर उसने किसी की निंदा नहीं की, लेकिन अपने ‘फेसबुक’ की ‘दीवार’ पर अपनी भाषा में उसने तो यह लिख दिया कि याकूब मेनन के समर्थकों ने विश्वविद्यालय में जो कुछ किया, वह गलत है। उसके विचारों में आपत्तिजनक कोई बात थी ही नहीं। एक देशद्रोही आतंकवादी का खुलेआम समर्थन करते हुए एक ‘अमरवीर’ के रूप में उसकी प्रशंसा करने का अधिकार जब दूसरों को मिला है, तो इस घटना की निन्दा करने की आजादी उस छात्र को क्यों नहीं मिलनी चाहिए?

लेकिन याकृब मेमन के समर्थकों ने ऐसा नहीं सोचा। ‘क्या तुम हम पर उँगली उठाने लायक बन गए हो’ कहकर आधी रात के समय में, लगभग तीस लोगों ने छात्रावास में घुसकर कमरे में उस पर हमला किया। उस छात्र को कितनी बुरी तरह से पीटा गया, इसका अब विशेष महत्त्व नहीं है।उस छात्र का विरोध करने वाले छात्र-नेताओं ने भी इसे स्वीकार किया कि वे लोग उस छात्र को बाहर के गेट तक खींच कर ले गए और सिक्योरिटी के कमरे में उस छात्र से अपने किये हुए पर क्षमा याचना करते हुए लेख लिखवाया। ‘फेसबुक’ में उस छात्र ने जो लिखा, उसे उसी छात्र से निकलवा दिया गया।

तो क्या यह अत्याचार नहीं है? यदि केन्द्रीय विश्वविद्यालय भारत की अपेक्षा पाकिस्तान के हैदराबाद में हुआ होता… यदि एक पाकिस्तानी को फाँसी की सजा दिये जाने की घटना का एक हिन्दुस्तानी छात्र ने समर्थन किया होता, तब हम स्थिति को समझ सकते हैं कि जोश में आकर छात्रों ने उसे क्यों पीटा। प्रश्न यह उठता है कि भारत के एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अपनी राष्ट्रीय भावनाओं को प्रकटकर जिस भारतीय छात्र ने राष्ट्रविरोधी प्रवृत्तियों को खण्डन किया तो क्या उसे कोई सुरक्षा नहीं मिलनी चाहिए? मानव-अधिकार और कानून द्वारा प्रदत्त अधिकार इस देश में केवल राष्ट्र-विरोधी ताकतों को ही क्यों मिलते हैं, राष्ट्र के समर्थकों को क्यों नहीं?

जिस छात्र पर हमला हुआ, वह तेलंगाना के एक पिछड़े वर्ग के एक सामान्य परिवार का सदस्य है। हमारे बुद्धिजीवियों द्वारा आठों पहर जिस ‘‘सामाजिक न्याय’’ की चर्चा की जाती है, उसी न्याय की मुखापेक्षिता को लेकर जीवन बिताने वाला एक सामान्य परिवार का सदस्य है। विश्वविद्यालय से उसे सामाजिक न्याय दिलाने की माँग उसकी माँ ने की है। अत्याचारी ताकतों ने उसकी माँ को रोक लिया। अंतिम विकल्प के रूप में उसने अदालत के दरवाजे खटखटाए। अदालत ने विश्वविद्यालय से इस घटना के बारे में विवरण देने को कहा। विश्वविद्यालय ने पाँच छात्रों को निलंबित कर दिया। इस निर्णय का खंडन करते हुए छात्र आंदोलन करने लगे। दुर्भाग्यवश एक छात्र ने आत्महत्या कर ली।

इस घटना के बाद देश भर के लोगों का ध्यान इस विश्वविद्यालय की तरफ गया। इन बातों की चर्चा सभी करने लगे कि क्या हुआ और उस छात्र ने क्यों खुदकुशी कर ली? तरह-तरह के विचार सामने आने लगे। यह कह कर हम किसी की बात को टाल नहीं सकते कि यह तर्कसंगत या सत्य-सममत नहीं है। किसी वर्ग की भावनाओं को नीचा दिखाने की आवश्यकता भी नहीं है। जो वाद-विवाद हो रहा है, उसकी चर्चा करना भी अपेक्षित नहीं है।

दिवंगत छात्र रोहित के माँ-बाप ने स्वयं कहा कि हम ‘‘वड्डेरा’’ जाति के हैं। ‘वड्डेरा’ जाति ‘ओ.बी.सी’ में आती है। उस छात्र का पिता भी यही कहने लगा कि हम वड्डेरा जाति के हैं। यदि यह सच है तो रोहित दलित वर्ग का नहीं था। समाचार साधनों द्वारा जो प्रचार हो रहा है कि रोहित अनुसूचित जाति का है, वह गलत है।

यदि रोहित दलित वर्ग का नहीं था, तो केन्द्रीय विश्वविद्यालय में दलितों पर अत्याचार होने के संर्दभो में जो आन्दोलन चल रहा है, उसे भी सरासर झूठ कहना नितांत उचित होगा। यह सत्य है कि देश में दलित समाज में शोषण, अपमान और उपेक्षा के कारण असंतोष रहा, वही इस विश्वविद्यालय के दलितछात्रों और अध्यापकों में भी मौजूद है। यह निर्विवाद है कि समाज के समष्टि के कल्याण की कामना रखने वालों का यह प्रथम कर्त्तव्य होना चाहिए कि दलित वर्ग के लोगों के मानसिक तनाव को दूर करने के लिए उनकी समस्याओं का अध्ययन करें और उन्हें दूर कर उनके प्रति सहानुभूति प्रकट कर उनके विकास में सहयोग दें। दलित वर्ग के लोगों में असहिष्णुता और असंतुष्टि के कई कारण हैं। विश्वविद्यालय के प्रशासकों की नीति और उनके निर्णय भी इसके कारण हो सकते हैं। दलित वर्ग के शोध-छात्रों को निलंबित करने के बारे में भी सोच-विचार करना आवश्यक है। इनकी जाँच करनी होगी। दोषियों को, चाहे कोई भी क्यों न हो, सजा देनी चाहिए । कई वर्षों से इस विश्वविद्यालय में जो अशांतिपूर्ण वातावरण मौजूद है उसमें बदलाव लाने की आवश्यकता है।

यह निर्विवाद है विश्वविद्यालय को मंच बनाकर जो राजनीतिक चालबाजी नेता लोग दिखाने लगे, उसे देखकर आम आदमी एक ही बात सोच रहा है कि याकूब मेनन के समर्थकों ने जो हंगामा किया, वही इन सारी घटनाओं के मूल में हैं, इसके बारे में कोई नहीं बोलता है। विश्वविद्यालय की पवित्रता को भंग करनेवाले लोगों को सजा देना आवश्यक है या नहीं? दुनिया भर में इस्लामी आतंकवाद का प्रकोप बढ़ रहा है। आई.एस.एस.  के समर्थक हैदराबाद और देश के कई प्रांतों में पकड़े जा रहे हैं। पठानकोट पर पाकिस्तान ने परोक्ष रूप से हमला किया। इस नेपथ्य में विश्वविद्यालयों में आतंकवादियों के समर्थन में जुलूस निकाल कर उनकी गतिविधियों को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों को राष्ट्र-विरोधी मुद्दे के रूप में स्वीकार करना आवश्यक है या नहीं?

यदि विश्वविद्यालय के प्रशासकों के गलत निर्णयों के कारण छात्रों को नुकसान होता है, तो विश्वविद्यालय की एक समस्या के रूप में इसपर प्रशासन के साथ छात्र-चर्चा कर न्याय की माँग कर सकते हैं। जिन अधिकारियों के निर्णयों के कारण उन्हें नुकसान हुआ, उन अधिकारियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने की माँग करते हुए छात्र आन्दोलन चला सकते हैं। इस मामले में केन्द्रीय मंत्रियों को खींचने की क्या आवश्यकता है? वे क्या कर सकते हैं? यदि एक छात्र-संघ केन्द्रीय मंत्री दत्तात्रेयजी को याकूब मेनन के समर्थकों के कुकृत्यों का विवरण देकर न्याय की माँग करता है तो संबंधित मंत्रालय को उस पत्र को भेजकर आवश्यक जाँच करवाने का अनुरोध वे करें, तो इसमें क्या गलती है? स्थानीय नेता के रूप में राष्ट्रविरोधी ताकतों के विरुद्ध कार्यवाही करने की माँग करना क्या उनका कर्त्तव्य नहीं है? एक राष्ट्र-विरोधी घटना से दलित छात्रों और दलित अध्यापकों का क्या सबन्ध है? क्या तीन सौ लोगों की जान लेने वाले आतंकवादी याकूब मेनन को श्रद्धांजलि देने के लिये समारोहों का आयोजन करना और उसकी मृत्यु पर चिंता प्रकट करना देश-द्रोह नहीं है? सह-केन्द्रीय मंत्री द्वारा माँग किये जाने पर सबन्धित विश्वविद्यालय को इस सबन्ध में जाँच करने और उचित कार्यवाही लेने का आदेश देना, क्या केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री का कर्त्तव्य नहीं होता? इस विषय की महत्ता को दृष्टि में रख कर कुछ महीने की कालावधि के बाद स्थिति की समीक्षा करना न्याय संगत नहीं है? इसका मतलब यह कैसे होता है कि मंत्री महोदय ने विश्वविद्यालय पर इस मामले को लेकर कार्यवाही करने का अनुचित दबाव डाला? किसी व्यक्ति के विरुद्ध कोई निर्णय लेने के पक्ष में मंत्री ने सुझाव दिया, इसका क्या सबूत है? यदि ऐसा नहीं तो केन्द्रीय मंत्रियों को दोषी ठहराना क्या उचित है? इस मामले को दलितों के विरुद्ध किये गए कारनामे के रूप में चित्रित किया गयाहै ।यदि मंत्री महोदय ने कहा कि यह दलितों और दलितेतरों की बीच के संघर्ष का मामला नहीं, तो इसमें क्या गलती है?

जिस छात्र ने खुदकुशी की, उसने स्वयं लिखा कि मेरी मृत्यु का कोई जिमेदार नहीं है और इस घटना का लेकर किसी को परेशान करने की जरूरत नहीं है। यह समझ में नहीं आता कि केन्द्रीय मंत्री रोहित की मृत्यु के जिमेदार कैसे होते हैं? एफ.आई.आर. में मंत्रियों के नाम लिखने की माँग करना कहाँ तक न्यायसंगत है?

जिस छात्र ने आत्महत्या कर ली, वह कायर नहीं था। वह साहसी युवक था, जिसने यह घोषणा की कि ‘‘मैं केसरिया रंग के ध्वज को फाड़ दूँगा और ए.बी.वी.पी., आर.एस.एस. और हिन्दूवाद से मुझे सखत नफरत है।’’ स्वामी विवेकानंद को मिथ्या बुद्धिजीवी मानने वाले ये छात्र क्या बुद्धिमान हैं? क्यों ऐसा छात्र विश्वविद्यालय के निर्णयों से डरेगा और खुदकुशी कर लेगा? ऐसा मानना युक्तियुक्त नहीं होगा कि यह छात्र आंदोलन को बीच में ही छोड़कर अपने जीवन का अंत कर लेगा? क्या स्मृति ईरानी जी या दत्तात्रेय जी ने अदृश्य रूप में उसके गले में फंदा डाल दिया? यह संभव नहीं। तो रोहित की मृत्यु का कोई अन्य प्रबल कारण हो सकता है। वह क्या है?

अंबेडकर छात्रसंघ और एस.एफ.आई. हर मुददे  को अपने पक्ष में मोड़ने की क्षमता रखते हैं। इसी कारण से रोहित ने अपने अंतिम बयान में इसका जिमेदार कोई नहीं लिख कर उन्हें दूर रखा ।यदि छात्रसंघ दो केन्द्रीय मंत्रियों के नाम एफ.आई.आर. में लिखने की माँग करता, तो रोहित के अंतिम बयान के अनुसार छात्र-संघ की इस धारणा में भूमिका की माँग आवश्यक नहीं है? (द हिन्दू पत्रिका से उद्धृत) क्या माननीय स्मृति ईरानी जी गगन बिहारी बनकर आई और ‘सिम’ निकाल लिया? आत्महत्या से जुड़ी कई शंकाओं की जाँच करवाने के आवश्यकता नहीं है? क्या छात्र-संघों की माँग की अनुरूप जाँच के पूर्व ही उन लोगों को सजा देना आवश्यक नहीं है?

दिल्ली की राजनीति में कई मुद्दों को लेकर स्मृति ईरानी से केजरीवाल के कई मतभेद हो सकते हैं। केन्द्रीय विश्वविद्यालय में हुई घटना को एक मौ के के रूप में पाकर केजरीवाल ने स्मृति ईरानी और मोदी सरकार पर आरोप लगाए। अंशकालिक राजनीतिज्ञ राहुल गाँधी जी नेशनल हेराल्ड के मामले में कारावास की सजा भुगतने के पूर्व मोदी सरकार पर आरोप लगाकर उसे गद्दी से हटाकर सरकार में आने का प्रयत्न करने लगे है। बिहार राज्य के चुनावों के पूर्व भाजपा के प्रति असहिष्णु रहने वाले राजनीतिक दल अब कुछ राज्यों में आने वाले चुनावों में भाजपा को परास्त करने इस मौके का फायदा उठाने लगे। एक छात्र की मौत से ये सभी फायदा उठाने का प्रयत्न करने लगे। मोदी सरकार को सत्ता से हटाने की ताक में लगे रहे राजनीतिक दल एक विश्वविद्यालय में दलित छात्रों और छात्र-संघों को अपनी क्रीड़ा में मोहरे बनाकर चाल चलने लगे हैं। क्या छात्रों के निलंबन को रद्द करने और केन्द्रीय मंत्रियों को इस्तीफा देने की माँग, जाँच के बिना न्यायसंगत है? क्या विश्वविद्यालय के छात्र इसका निर्णय कर सकते हैं कि केन्द्रीय सरकार में मंत्री कौन होगा?

पता नहीं, केन्द्रीय विश्वविद्यालय का मामला किस हद तक जाएगा और इसका अंत क्या होगा। एक केन्द्रीय मंत्री द्वारा दूसरे केन्द्रीय मंत्री को, राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों को रोकने और अपेक्षित जाँच करवाने की माँग करते हुए लेख लिखना अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लोगों पर अत्याचार विरोधी कानून के अन्तर्गत विचाराधीन होगा? एक पाकिस्तानी आतंकवादी की प्रशंसा करना कानूनी होगा? राष्ट्र-विरोधी ताकतों के विरुद्ध आवाज उठाना क्या बहुत बड़ी गलती होगी? इस प्रकार की विचार धारा हमें कहाँ ले जा रही है? इस नेपथ्य में यह प्रश्न उठ रहा है कि – क्या हम अपने ही देश में रहते हैं?

– समपादक ‘आन्ध्रभूमि’, हैदराबाद, तेलंगाना

यह देशद्रोह है

यह देशद्रोह है

‘पाकिस्तान जिन्दाबाद, भारत के सौ टुकड़े करेंगे, किस में रहोगे? कितने अफजल मारोगे ? घर-घर से अफजल निकलेगा। भारत की बरबादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी। कश्मीर की आजादी लेकर रहेंगे, केरल की आजादी लेकर रहेंगे, बंगाल की आजादी लेकर रहेंगे! अफजल, हम शर्मिन्दा हैं तेरे कातिल जिन्दा हैं।’ ये शबद पाकिस्तान के किसी नगर से सुनाई पड़ते तो भी हमें उत्तेजित करने के लिये पर्याप्त होते। पाकिस्तान को कोसते, शत्रु को दण्ड देने की घोषणा करते, परन्तु ये शबद 9 फरवरी 2016 को जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में गूँजे। विश्वविद्यालय के छात्रों ने ये नारे लगाये। एक बार नहीं, अनेक बार, इसी बात को दूरदर्शन पर कहा गया। अफजल गुरु की सजा को न्यायिक हत्या बताया गया। सर्वोच्च न्यायालय तथा संविधान की निन्दा की गई। कोई देश अपने नागरिकों द्वारा इस प्रकार के कार्य करने की कल्पना कर सकता है? यह है भारत की सहिष्णुता। इस सबको देख कर लगता है कि इन लोगों को इस देश में रहना बड़ा दुःखद लग रहा है।

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली, प्रारमभ से ही अराष्ट्रीय गतिविधियों का गढ़ रहा है। उसके अन्दर देशद्रोह से लेकर नंगेपन तक सब प्रगतिशीलता और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अन्दर आ जाता है। इस विश्वविद्यालय की नींव भारत विरोध पर रखी गई है। जब यह विश्वविद्यालय बना, तब सब विभाग खुले, परन्तु संस्कृत विभाग नहीं खोला गया। भाजपा के शिक्षा मन्त्री मुरली-मनोहर जोशी ने जब इस विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग खोला, तो यहाँ के लोगों ने हड़ताल, धरने कर आन्दोलन चलाया और उसको रोकने का प्रयास किया, परन्तु केन्द्र सरकार ने विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग खोल दिया।

पिछले दिनों गोमांस के भोज का भी इस विश्वविद्यालय में आयोजन किया गया था, जिसे विद्यार्थी परिषद् और हिन्दू संगठनों के विरोध के चलते नहीं होने दिया गया। जितने देश व समाज विरोधी कार्य इस विश्वविद्यालय में होते हैं, वे सब प्रगति और स्वतन्त्रता के नाम पर किये जाते हैं। अभी तक इन गतिविधियों को प्रकाश में नहीं लाया गया, इसी कारण इस पर कार्यवाही नहीं हो पाई । सरकार भी इनकी समर्थक थी। विश्वविद्यालय के अधिकारी, असामाजिक और अराष्ट्रीय विचारों को प्रश्रय देनेवाले रहे हैं। आज भी विश्वविद्यालय के अध्यापकों की ओर से जो वक्तव्य प्रसारित हुआ, यह उसी परमपरा का उदाहरण है। संदीप पात्रा ने जी न्यूज पर कहा था कि वहाँ इन अराष्ट्रीय और असामाजिक गतिविधियों का विरोध करने पर ऐसे छात्रों और अध्यापकों को दण्डित किया जाता था, उनको अपमानित करके विश्वविद्यालय से निकाल दिया जाता था।

आज जी न्यूज ने जब इस घटना को देश के सामने उजागर किया तो सारे देश में आक्रोश फैल गया। कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो अपने ही देश में अपने लोगों द्वारा शत्रुता से भी अधिक घृणित व्यवहार करे और अपने कार्य को अपना अधिकार बताये? जो लोग इस देश के पैसे से पढ़ रहे हैं, वे इस देश से द्रोह करने को अपनी अभिव्यक्ति का अधिकार बता रहे हैं। किसी भी देश का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है? यदि चीन में इस प्रकार की घटना घटी होती तो यह ख्येनआङ्मन चौक बन गया होता। इस घटना का दूसरा पक्ष इससे भी निन्दनीय है- सामयवादी, कांग्रेस और दूसरे राजनैतिक दल निर्लज्जता पूर्वक इन छात्रों का समर्थन कर रहे हैं। ऐसा करने वाले लोग बाहर के थे, ऐसा बहाना बना रहे हैं। इस घटना को एक सामान्य घटना कह कर अनदेखी करना चाहते हैं, तो ये लोग अभिव्यक्ति के नाम पर इसको ठीक सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं।

छात्रों द्वारा किया गया यह कार्य देशद्रोह के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जो इनके समर्थक हैं, वे भी सब देशद्रोही हैं। जो किसी भी प्रकार से देशद्रोह का समर्थन करता है, वह भी निश्चित रूप से देशद्रोही है। इस घटना का देश के सामने आना इसलिये संभव हो सका, क्योंकि वह सब कैमरों में कैद है। जब न्यायालय में छात्राध्यक्ष से उसके कृत्य के बारे में स्पष्टीकरण माँगा गया तो वह कहने लगा कि मैंने ऐसा कुछ नहीं किया, बाहर के लोगों ने किया होगा। जब उसे कैमरे में नारे लगाते हुए दिखाया गया तो उसका उत्तर था कि विद्यार्थी परिषद् के लोगों ने विरोध करके वातावरण को बिगाड़ा है। क्या तर्क है! चोर को चोरी करते रोकना वातावरण बिगाड़ना होता है। इस घटना को कैमरे में देखकर भी बेशर्म नेता कह रहे हैं कि अभी पता नहीं है कि किसने ये नारे लगाये हैं, तब तक कार्यवाही करना उचित नहीं। राजनेता आज भी कह रहे हैं कि परिसर में पुलिस को नहीं जाना चाहिये। वहाँ पाकिस्तान समर्थक रह सकते हैं या पाकिस्तानी जासूस रह सकते हैं और इस देश की रक्षा में लगी पुलिस विश्वविद्यालय परिसर में नहीं जा सकती। क्या देशभक्ति है इन लोगों की!

इस अवसर पर हम एक बात भूल रहे हैं। यह घटना पहली नहीं, यह कार्य शृंखलाबद्ध रूप से किया जा रहा है। यही कार्य हैदराबाद विश्वविद्यालय में इसी प्रकार हुआ था, परन्तु उसकी कैमरा प्रति नहीं थी, इस कारण उस घटना को दलितवर्ग से जोड़कर शोर मचाया गया। वहाँ भी यही सबकुछ हुआ था, जो दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हो रहा है। हैदराबाद विश्वविद्यालय में इसी प्रकार तीन सौ से अधिक लोगों ने इकट्ठे होकर  याकूब मेमन की फाँसी की सजा का विरोध किया था। वहाँ छाती पीटकर रोया गया। याकूब मेमन की आत्मा की शान्ति की प्रार्थना की गई। वहाँ पर भी एक याकूब की जगह घर-घर याकूब पैदा होने की बात की गई थी। जब विद्यार्थी परिषद् के एक छात्र ने इन कार्यक्रमों का विरोध किया, उसने फेसबुक पर इस कार्य की निन्दा की, इसे गलत बताया, तब याकूब समर्थकों ने तीस से अधिक संखया में इकट्ठे होकर आधी रात को उस युवक के कमरे पर जाकर उसे पीटा और इतना पीटा कि अधमरा कर दिया। उस छात्र को दरवाजे पर लाकर उससे बलपूर्वक क्षमा याचना लिखवाई और जो उसने लिखा था, उसी से उस लेख को हटवाया गया। क्या यह सहिष्णुता है? क्या यह अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है? क्या यह सामाजिक न्याय है? आप गलत भी करें तो वह अभिव्यक्ति की आजादी है और दूसरा विरोध करे तो आप उसे जान से मार देंगे? विश्वविद्यालय की इस घटना से दुःखी होकर छात्र की माँ ने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया तो हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्रों ने हड़ताल कर दी, इसी बीच रोहित ने आत्महत्या कर ली। बस, राजनेताओें और देशद्रोही लोगों ने उसे मोदी सरकार के विरुद्ध दलितों पर अत्याचार का मुद्दा बना दिया। राहुल गाँधी और केजरीवाल जैसे लोग सहानुभूति दिखाने दौड़े चले गये, आज तक चीख-चिल्ला रहे हैं। वास्तविक घटना पर ध्यान नहीं देना चाहते और कोई राहुल-केजरीवाल विश्वविद्यालय में छात्रों को समझाने नहीं गया। उनके कार्यों की किसी ने निन्दा नहीं की।

दिल्ली की घटना हैदराबाद की घटना की अगली कड़ी है। वहाँ की घटनाओं को रोकने के लिये ही छात्र ने केन्द्र सरकार को लिखा था। केन्द्र सरकार का कार्य नितान्त उचित व देश और समाज के हित में था, परन्तु भारत तो जयचन्दों का देश है। आज कांग्रेस और पूरा विपक्ष केवल एक कार्य में लगा है। वह हर कार्य को, घटना को मोदी-विरोध के रूप में काम में लाना चाहता है। दिल्ली में ही दूसरी घटना घटी। अफजल गुरु और मेमन के चित्र के पत्रक छाप कर उनकी फाँसी की निन्दा की गई। इस कार्य को बुद्धिजीवियों के प्रमुख स्थान प्रेस क्लब ऑफ इण्डिया में किया गया । इस सममेलन के आयोजन में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक भी समिलित हैं। क्या सरकारी स्थानों पर देशद्रोह के कार्यों को सार्वजनिक रूप से किसी देश में करने की कोई कल्पना कर सकता है?

यहाँ ऐसा क्यों हो सकता है? क्योंकि हमारी सरकार में शत्रु देश के समर्थक लोग रहते रहे हैं। नेहरू से सोनिया तक की सरकारों का इस देश की संस्कृति का विरोध और नाश करना ही उद्देश्य रहा, इस कारण इस देश की जनता में देश और संस्कृति के प्रति गौरव का भाव जन्म नहीं ले सका। हमारी नई पीढ़ी में हमारी बातों को पुराना, पिछड़ा और दकियानूसी मानने की परमपरा बन गई है। यहाँ की संस्कृति, भाषा और सभयता को नष्ट करने के लिये विदेशी आचार-विचार को आदर्श बनाकर प्रस्तुत किया गया, जिसका जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय उदाहरण है। इसी कारण देश में देश-विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा मिला। राजनीति में सत्ता के लालच में तुष्टीकरण का उपयोग इतना हुआ कि देश-विरोधी कार्यों को अनदेखा किया गया। आज की घटना उसी का परिणाम है। आज जो कुछ हुआ और उसकी प्रतिक्रिया में जो हो रहा है, वह केवल जागरूकता के कारण हो रहा है। विश्वविद्यालय में छात्र परिषद के द्वारा विरोध किया जाना तथा जी न्यूज द्वारा इसको दृढ़ता पूर्वक उजागर करना, जिसके चलते समाज में चेतना आ गई और देशद्रोहियों पर न्यायालय की कार्यवाही संभव  हो पाई । देशद्रोह में लिप्त लोग कोई बलवान नहीं हैं। वे तो कार्यवाही प्रारमभ होते ही छिपने के लिये भाग गये, अभी तक तो केवल एक ही पकड़ में आया है, जैसे ही दस-बीस पर न्यायालय की कार्यवाही होगी, ये सब छिपते दिखाई देंगे।

जनता में कोई पाकिस्तान जिन्दाबाद कहे, अफजल गुरु जिन्दाबाद कहे, इनके चित्र लगाये, इनका गुणगान करे, वह देशद्रोही है। कोई पाकिस्तान जिन्दाबाद कहता है या खालिस्तान जिन्दाबाद का नारा लगाता है, भिण्डराँवाले का चित्र लगाता है, भिण्डराँवाला जिन्दाबाद का नारा लगाता है, ये सब देशद्रोही हैं। इनकी सहायता करने वाले, इनका समर्थन करने वाले, सभी देशद्रोही हैं- चाहे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी हो या आप पार्टी के अरविन्द केजरीवाल हो, अथवा कयूनिस्ट नेता सीताराम येचूरी व डी. राजा। देशद्रोह का अपराध किसी भी परिस्थिति में क्षमय नहीं है। इनको योग्य दण्ड दिया गया तो आगे इस प्रकार की गतिविधियों पर अंकुश लग सकता है। सरकार के साथ-साथ समाज को भी आज की तरह जागरूक होना चाहिए। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली के वे छात्र जिन्होंने देशद्रोहियों का विरोध किया तथा जी न्यूज बधाई के पात्र हैं।

शास्त्र देशद्रोहियों को कठोर दण्ड देने का आदेश देता है-

यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति पापहाः।

प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत् साधुपश्यति।।

– धर्मवीर

घर के अन्दर बैठे आतंकियों का क्या होगा? -शिवदेव आर्य

भारतवर्ष का अपना निराला ही रूप दिखायी देता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि – यह एक मतनिरपेक्ष देश है, जिसको लोग धर्मनिरपेक्ष भी कह देते हैं। जहाॅं धर्मनिरपेक्षता की आड़ में लोकतान्त्रिक व्यवस्था को बिगाड़ने का हर सम्भव प्रयास किया जाता है।
ऐसा ही कुछ 9 फरवरी 2016 को हुआ, शायद आपको यह सारा वृत्त ज्ञात होगा कि इस दिन क्या कुछ हुआ-9 फरवरी को जे.एन.यू. में वामपन्थी और दलित संगठनों से जुड़े छात्रों ने संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु की बरसी मनाई, इसमें कश्मीर के छात्र शामिल थे। इसके लिए कैंपस में एक सांस्कृतिक संध्या का आयोजन भी किया गया था। इस दौरान देश विरोधी नारे भी लगाए गये।
यह सब जानकर प्रत्येक भारतीय को बहुत दुःख हुआ होगा कि – 9 फरवरी को ही हनुमनथप्पा जो जे.एन.यू. के समीपस्थ ही सेना के अस्पताल में देश के लिए अपनी आखरी सांस ले रहे थे। जहाॅं समुचा देश एकजुट होकर उसके जीवन के लिए प्रार्थना व हवन कर रहा था, वहीं देश को एक नई दिशा व दशा देने वाला तथाकथित वर्ग ऐसे सिपाही के बलिदान को कुछ नहीं समझ रहा था अपितु वह तो आतंकी गतिविधियों को बढावा देने वाले को श्र(ांजलि दे रहा था। संसद पर अफजल गुरु ने जो हमला किया यदि वह हमला जे.एन.यू. में हुआ होता तब शायद वहाॅं के लोगों की आॅंखे खुली होती। जहाॅं संसार भर में इस कृत्य की निन्दा हुयी, वहीं संसद हमले के समय संसद में फसे हुए कुछ तथाकथित सांसद भी इस राष्ट्रदोही कृत्य का अनौपचारी समर्थन कर रहे हैं।
हम सभी जानते हैं कि देश में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश की छवि धूमिल करने की पूरी कोशिश की जा रही है। अभी हाल की ही घटना है कि भारतीय क्रिकेटर विराट कोहली के समर्थक को लाहौर में अपनी छत पर भारतीय ध्वज फहराने पर 24 घण्टे के अन्दर-ही-अन्दर 10 साल की सजा दे दी जाती है।
आज-कल हम कश्मीर के विभिन्न भागों में तिरंगा जलाने और पाकिस्तानी तथा आई एस के झण्डे फहराने की घटनाएॅं लगभग प्रत्येक दिन सुन व देख रहे हैं, ऐसे में सरकार के शान्त रहने से दिल्ली में इनके इतने हौसले बढ़ गए कि उन्होंने अफजल गुरु की फांसी के विरोध में कार्यक्रम आयोजित कर दिया और यूनिवर्सिटी को पता तक न चला, ये बेहद आश्चर्य को दर्शाता है। यह सचमुच बहुत की शर्मसार कृत्य है। क्या यह देशद्रोह नहीं है? इससे बढ़कर और आतंकी होने की कसौटी क्या हो सकती है? अफजल गुरु जैसे आतंकवादियों से सहानुभूति रखना देशद्रोह नहीं तो और क्या है? यह कोई छोटी घटना नहीं है, अपितु इसे एक योजनाबद्ध तरीके से कार्यरूप दिया गया है। क्योंकि बाहरी आतंकी शक्ति तो अपने आप ही कमजोर होती जा रही है। इसीलिए घर के अन्दर बैठे लोगों को ही आतंकी बनाने की जोर-शोर से तैयारी चल रही है।
इन विरोधी छात्रों का अतंकवादी संगठन खुले-आम समर्थन कर रहे हैं। जे.एन.यू. में राष्ट्रविरोधी नारेबाजी को आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के प्रमुख हाफिज सईद का खुला समर्थन प्राप्त हो रहा है। सईद ने कथित तौर पर ट्वीट कर पाकिस्तानियों से जे.एन.यू. छात्रों के प्रदर्शन का समर्थन करने की अपील की थी।
सरकार को ऐसे कृत्य के लिए कड़ी से कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए कि कल को कोई और ऐसा करने की भूल मन में भी न सोच सके।
दिल्ली तो क्या देश के किसी भी कोने में देशद्रोहियों के समर्थन में किसी को आवाज ऊॅंची करने की हिम्मत नहीं होनी चाहिए। शाहरुख खान, आमिर खान और करण जौहर जैसे कई काफिरों से पूछना चाहता हूॅं, जिन्होनें असहिष्णुता को लेकर देश की छवि खराब की और उन तथाकथित कलमबेंचू साहित्यकारों से जिन्होंने राष्ट्रिय पुरस्कार व सम्मान लौटाए, वे बताएॅं कि एक यूनिवर्सिटी में आतंकवादियों का समर्थन करने के लिए कार्यक्रम आयोजित करना कहाॅं तक सही है? अब इन लोगों की आत्मा क्यों नहीं रो रही है।? अब सबकी बोलती क्यों बन्द है? अब ये चांडाल चैकडी ‘गो इण्डिया गो बैक, भारत की बरबादी तक जंग रहेगी जारी, कश्मीर की आजादी तक जंग रहेगी जारी, अफजल हम शर्मिन्दा हैं तेरे कातिल जिन्दा हैं, तुम कितने अफजल मारोगे, हर घर में अफजल निकलेगा, अफजल तेरे खून से इन्कलाब आयेगा’ के नारों के विषय में क्या कहेंगे?
यह भारत ही है जहाॅं इतना सब कुछ होने पर भी अभी तक कार्यवाही के नाम पर केवल गिरफ्तारी ही की गयी है। दिल्ली में इतना कुछ हो गया पर अब तक सब कुछ सहन किया जा रहा है। परन्तु यदि अलगाबवादी कश्मीरियों या मुसलमानों के मामले पर कोई प्रदर्शन होता तो हमारे यहाॅं इसे असहिष्णुता का नाम दिया जाता। यह भारत ही है, जहाॅं सब कुछ चलता है क्योंकि हम सहिष्णु हैं। हम उन लोगों में से नहीं है जो भूल जायें कि अफजल गुरु ने भारतीय संसद पर हमला किया और फिर 11 साल तक केस चला तब जाकर 2013 में उसे फांसी की सजा दी गई, इस हमले को विफल करने वाले अपने उन 11 जवानों के बलिदान को कैसे भूला सकते हैं।
समय है कि इन दिनों देशद्रोहियों के खिलाफ तुरन्त एक्शन लिया जाना चाहिए। सवाल यूनिवर्सिटी प्रशासन की चुप्पी का नहीं है अपितु सरकार कब बड़ा कदम उठायेगी यह है। इस मामले में दिल्ली वालों को एकजुट होकर देशद्रोहियों को सबक सिखाने के लिए नई क्रान्ति लानी होगी। यही समय की मांग है।
लोकतन्त्र में सरकार को, व्यवस्था को, प्रधानमन्त्री को, मन्त्रियों को, राजनीतिक पार्टियों आदि को बुरा-भला कहने की बात तो समझी जा सकती है, उस का समर्थन भी किया जा सकता है किन्तु अपनी ही जन्म-भूमि का अहित करने की सोच रखने वाले कुछ भी हो सकते हैं किन्तु मनुष्य तो निश्चित ही नहीं हो सकते। जो अभिव्यक्ति को ही स्वतन्त्रता के नाम पर देशद्रोह का समर्थन करते हैं, उनकी मानसिकता की जाॅंच कराना हम सबका मौलिक कर्तव्य होना चाहिए।
राष्ट्र महान् है तथा राष्ट्र सर्वोपरि है, राष्ट्रद्रोही तत्वों का निर्मूल करना राजा का परम कर्तव्य है। यही राजा का राजधर्म है –
देशद्रोही अथवा शत्रुपथ से मिले हुए के लिए दण्ड का विधान हुए चाणक्य नीति में इस प्रकार प्राप्त होता है कि –
‘दुष्याः तेषुधर्मरूचिपां सुदण्डम् प्रयुजीत’ (5/4)
अर्थात् देशद्रोह करने वाले का सर्वनाश कर देना चाहिए। यही इन कुकृत्य करने वालों के साथ करना चाहिए।
ऋग्वेद स्पष्ट शब्दों में आदेश देता है –
‘अमित्रहा वृत्रहा दस्युहा च विश्वा वसून्या भरा त्वं न’( ऋग्वेद-18/83/3)
अर्थात् जो समाज में दस्यु कर्म, सुख-शान्ति में बाधा डालने वाले हैं, उनको नष्ट कर देना चाहिए।
ऐसे विकराल काल में राजा को कठोर निर्यण लेना चाहिए, जिसके लिए ऋग्वेद के 10 वें मण्डल में आदेश दिया गया है-
ये नः………उग्रं चेत्तारमधिराजमक्रन्। (10/128/9)
देशद्रोही को कठोर से कठोर दण्ड के लिए यजुर्वेद के 39 वें अध्याय में कहा है कि –
उग्रं लोहितेन मित्रं सौव्रत्येन रुदं्र दौर्व्रत्येनेन्द्रं प्रक्रीडेन मरुतो बलेन साध्यान् प्रमुदा। भवस्य कण्ठय रुद्रस्यान्तः पाश्वर्यं महादेवस्य यकृच्छर्वस्य वनिष्ठुः पशुपतेः पुरीतत्।। (यजुवेद.-39/9)
ऐसे दुष्ट पापचारियों तथा देशद्रोहियों के लिए मनु महाराज का विधान है कि -‘दण्ड शास्ति प्रजा सर्वा दण्ड एवाभि रक्षति’ (मनु.-9/7)
अर्थात् दण्ड ही प्रजा को व्यवस्थित रखता है और दण्ड ही सभी की रक्षा करता है। अतः प्रशासन को इन कुकृत्यों के खिलाफ देशद्रोह का अभियोग चलाना चाहिए और कठोरतम दण्ड देना चाहिए।
यदि प्रशासन इस कार्य को करने में असमर्थ हो तो प्रत्येक भारतीय को अपनी भारतीयता को दिखाते हुए रतन टाटा के समान देश की प्रत्येक गतिविधियों से इन जेएनयू में पल रहे आतंकवादी कम्यूनिटों का बहिष्कार करना चाहिए।
आज प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यकता है कि वह हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि की क्षुद्र मानसिकता से ऊपर उठकर अपने को भारतीय बनाने का यत्न करना चाहिए। यही ऐसी समस्या का हल है अन्यथा आज एक ऐसी घटना हुयी कल को सर्वत्र यही दृश्य दिखायी देंगे।
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‘सत्याचरण से अमृतमय मोक्ष की प्राप्ति मनुष्य जीवन का लक्ष्य’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म

हमारी जीवात्माओं को मनुष्य जीवन ईश्वर की देन है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान होने के साथ सर्वज्ञ भी है। उससे दान में मिली मानव जीवन रूपी सर्वोत्तम वस्तु का सदुपयोग कर हम उसकी कृपा व सहाय को प्राप्त कर सकते हैं और इसके विपरीत मानव शरीर का सदुपयोग न करने के कारण हमें नियन्ता ईश्वर के दण्ड का भागी होना पड़ सकता है। इस शिक्षा को एक उदाहरण से इस प्रकार समझ सकते हैं कि हमने किसी भूखे व्यक्ति को देखा। उसके पास भूख दूर करने के साधन नहीं है। उसके प्रति हमारे अन्दर दया उत्पन्न हुई। हमने उसे कुछ धन दिया जिससे वह भोजन कर सके। यदि वह भोजन कर अच्छे काम करेगा तो हमें स्वाभाविक रूप से प्रसन्नता होगी और यदि वह उस धन से भोजन न कर उस धन से अन्य किसी निकृष्ट पदार्थ मदिरापान का सेवन व अभक्ष्य पदार्थ को खाता है तो हमें अपने कृत्य पर पछतावा होगा। हम इसके बाद उसकी सहायत नहीं करेंगे। ईश्वर ने भी जीवात्मा पर दया करके उसे दुर्लभ व सर्वोत्तम मानव शरीर दिया है। अतः हमें इसका सदुपयोग कर ईश्वर की अधिक से अधिक सहायता व कृपा को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हम ईश्वर की सुख, सम्पत्ति, आत्मोन्नति, अच्छा स्वास्थ्य, अच्छे ज्ञानी व महात्मा स्वभाव वाले विद्वानों व मित्रों की संगति आदि भावी कृपाओं से वंचित हो जायेंगे।

 

बृहदारण्यक उपनिषद के ऋषि ने जीवन निर्माण के स्वर्णिम सूत्र असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योर्तिगमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय।। दिये हैं। यह सूत्र उस प्रत्येक व्यक्ति के लिए उपयोगी व लाभदायक हैं जो जीवन को इसके वास्तविक लक्ष्य पर ले जाना वा पहुंचाना चाहते हैं। इसके लिए इसमें पहली शिक्षा यह दी गई है कि असतो मा सद्गमय अर्थात् मनुष्य जीवन को जीवात्मा में विद्यमान असत् को हटाकर सत्य मार्ग पर चलाना है। ऐसा इसलिये कहा गया है कि असत मार्ग अवनति वा दुःख की ओर ले जाता है और सत मार्ग उन्नति व सुख की ओर ले जाता है। संसार में कोई भी मनुष्य वा प्राणी दुःख नहीं चाहता। सभी कामना करते हैं कि मेरे सारे दुःख दूर हो जाये और सभी सुखों की उपलब्धि व प्राप्ति मुझे हो। इसका उपाय ही उपनिषद के ऋषि ने असतो मा सद्गमय कहकर बताया है। महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज का चैथा नियम इसके समान ही बनाया है। नियम है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। इसका प्रयोजन भी वही है जो कि असतो मा सद्गमय का है। इस नियम को विचार कर हमें लगता है कि इसे देश व विश्व का ध्येय वाक्य बना देना चाहिये। शिक्षा व विद्यालयों में हर स्तर पर इसका विवेचन व प्रचार हो और यह हमारे जीवन के लिए एक कसौटी का कार्य करे। हमें प्रतिदन विचार करना चाहिये कि हमारे जीवन में इस आदर्श का कितना भाग विद्यमान है। महर्षि दयानन्द सहित हमारे सभी ऋषि-मुनि व महापुरुष इसी मार्ग पर चले थे। उन्होंने इस वैदिक ज्ञानयुक्त मान्यता का अपने जीवनों में पूरा-पूरा पालन किया था और इसी से वह सब महान बने थे। आज मनुष्य जाति का जो पतन देखने को मिलता है उसमें कहीं न कहीं इस नियम की उपेक्षा ही दृष्टिगोचर होती दिखाई देती है। इस नियम के पालन न करने से ही प्राचीन काल में यज्ञों में पशुओं की हिंसा होती थी, इसी के कारण देश को मूर्तिपूजा, अवतारवाद की कल्पना, फलित ज्योतिष, वेदाध्ययन में प्रमाद, सामाजिक असमानता व विषमता, छोटे-बडे की भावना, बाल विवाह, मांसाहार, मदिरापान, धूम्रपान, असद् व्यवहार वा भ्रष्टाचार के रोग लगे। सन् 1863 से सन् 1883 तक महर्षि दयानन्द ने धार्मिक व सामाजिक इन अज्ञान, अविवेकपूर्ण व मिथ्या अन्धविश्वासों का खण्डन किया और सद्ज्ञान का प्रसार करने के लिए ईश्वर प्रदत्त सत्यज्ञान युक्त वेदों की मान्यताओं का देश व भूमण्डल में प्रचार किया। इसे जितने अंशों में देश समाज व विश्व ने अपनाया है उसी अनुपात में आज हम देश व समाज की उन्नति देख रहे हैं। उद्देश्य से अभी हम बहुत पीछे हैं। लगता है कि देश अब रूक गया है। लोग परा व आध्यात्म विद्या की उपेक्षा कर रहे हैं और केवल अपरा विद्या वा भौतिक ज्ञान में ही डूबकी लगा रहे हैं। अतः आध्यात्मिक विद्या की उन्नति द्वारा मनुष्य जीवन से असद् व्यवहार को हटाकर सद्व्यवहार को स्थापित करना ही ईश्वर को प्रसन्न करना व उससे सभी सात्विक सर्वोत्तम सम्पत्तियों को प्राप्त करने का मार्ग विदित होता है।

 

उपनिषद के ऋषि ने इसके बाद तमसो मा ज्योतिर्गमय कह कर यह भी सुस्पष्ट कर दिया कि जीवन में तम, अज्ञान व मिथ्याचरण नाम मात्र का भी नहीं होना चाहिये। यदि जीवन में तम रूपी अज्ञान व अन्धकार होगा तो वह सद्गमय के हमारे ध्येय में बाधक होगा। इसलिये तम के अज्ञान व अन्धकार को ज्ञान की ज्योति से दूर करने की शिक्षा उन्होंने दी है। यह तम व अज्ञान ऐसा है कि कई बार यह बडे-बड़े ज्ञानियों को भी लग जाता है। यह तम मनुष्यों में राग, द्वेष, काम, क्रोध व अहंकार आदि मिथ्या बातों के स्वभाव में आ जाने पर प्रविष्ट हो जाता है जिन पर विजय पाना कठिन होता है। आज देखा जाये तो साधारण मनुष्य से लेकर विद्वान तक प्रायः सभी इन तमों से ग्रसित हैं। इसके लिये वेदादि सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय व प्रातः सायं ईश्वरोपासना, योगाभ्यास, यज्ञाग्निहोत्रादि अनुष्ठान सहित सत्पुरुषों की संगति आवश्यक होती है। सन्ध्या में चिन्तन करते हुए भी यह देखना उचित होता है कि मेरे अन्तःकरण में ये मानसिक रोग व विकार हैं अथवा नहीं। यदि हों तो उन्हें विचार कर दूर करने का दृण संकल्प लेना चाहिये और प्रातः सायं उसकी विद्यमानता पर विचार कर उसको जीवन से दूर करने का प्रयत्न करना चाहिये। तम रहित ज्योतिर्मय जीवन ही सदगमय का प्रतीक सात्विक व पारमार्थिक जीवन होता है। सत्य का धारण और तम रूपी असत्य का निरन्तर त्याग ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है और इसको करके ही हम मनुष्य कहलाते हैं। हमें मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, योगेश्वर श्री कृष्ण और वेदभक्त महर्षि दयानन्द में सदाचार का धारण ही उनकी दिव्यता का कारण अनुभव होता है। उन्हीं का अनुकरण हमें भी करके उनके समान बनना है। यही इन महापुरुषों को मानने व उनके गुण-कीर्तन करने का प्रयोजन हेै।

 

सूत्र की तीसरी व अन्तिम शिक्षा है कि मृत्योर्मा अमृतं गमय अर्थात् मैं मृत्यु पर विजय प्राप्त करूं और अमृत अर्थात् जन्म-मरण से अवकाश प्राप्त कर मोक्ष की प्राप्ति करूं। यह अमृत वा मोक्ष ही मनुष्य जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य सम्पत्ति है। यही वास्तविक व सर्वोत्तम स्वर्ग, विष्णुलोक व 24×7 वा निरन्तर ईश्वर की उपलब्धता की स्थिति है जिसमें जीवात्मा ईश्वर में निहित अमृतमय आनन्द का भोग करते हुए ईश्वर के साथ ईश्वर प्रदत्त अनेक शक्तियों से विद्यमान रहता है। इसके विपरीत विद्वानो,ं धार्मिक गुरुओं वा प्रचारकों द्वारा स्वर्ग आदि की जो कल्पनायें की जाति है वह यथार्थ नहीं है। उपनिषद की इसी शिक्षा के समान यजुर्वेद के अध्याय 30 का तीसरा मन्त्र ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रन्तन्न आसुव।। भी है। इसका हम प्रतिदिन अर्थ सहित पाठ करते ही हैं जिसमें कहा गया है कि हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्त्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे समस्त दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको प्राप्त कीजिए।इस मन्त्र के अर्थ में जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको प्राप्त कीजिए।, इसमें   सभी प्रकार के सात्विक सांसारिक सुखों के साधनों व सम्पत्तियों सहित अमृतमय मोक्ष सुख भी सम्मिलित हैं।

 

हम आशा करते हैं कि पाठक इस लेख पर विचार कर उपनिषद वाक्य में वर्णित वैदिक शिक्षा को अपने जीवन में अपनायेंगे और महर्षि दयानन्द द्वारा जनसाधारण की भाषा में लिखित सत्यार्थ प्रकाश आदि अन्यान्य ग्रन्थों का अध्ययन वा स्वाध्याय कर अपने जीवन को मनुष्य जीवन के ध्येय सर्वोत्तम सुख मोक्ष की ओर अग्रसर करेंगे।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘महर्षि दयानन्द ने वेदों का प्रचार और खण्डन-मण्डन क्यों किया?’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महर्षि दयानन्द ने अपने वैदिक एवं यौगिक ज्ञान व तदनुरूप कार्यों से विश्व के धार्मिक व सामाजिक जगत में अपना सर्वोपरि स्थान बनाया है। उन्होंने सप्रमाण यह सिद्ध किया है कि ज्ञानविज्ञान का स्रोत ईश्वर वेद हैं। आर्यसमाज के दस नियमों में से उन्होंने पहला ही नियम बनाया कि सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है। यहां प्रयुक्त विद्या शब्द में ज्ञान विज्ञान दोनों सम्मिलित हैं। जिस मनुष्य को ईश्वर व वेदों का पूर्ण, स्पष्ट व निर्भ्रांत ज्ञान नहीं है वह अध्यात्म में पूर्णता=ईश्वर साक्षात्कार को प्राप्त नहीं कर सकता। ईश्वर का सत्य वा यथार्थ ज्ञान भी मुख्यतः वेदों व तदाधारित वैदिक साहित्य से ही होता है। वेद ही आध्यात्मिक व सामाजिक ज्ञान की प्रमाणिकता की प्रमुख कसौटी है। यही कारण है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक वेदों के आश्रय से ही कर्तव्य व अन्य शास्त्रों की रचना हमारे निर्भ्रांत ज्ञानी ऋषियों ने की और उन्हीं का प्रचार प्राचीन काल में समूचे विश्व में रहा है। वैदिक विचारधारा ने ही भारत को अतीत में अगणित ऋषियों सहित महाराजा हरिश्चन्द्र, अयोध्या के राजा राम और महाभारत के योगेश्वर श्री कृष्ण सदृश महात्मा व महापुरुष दिये थे। वैदिक धर्म व संस्कृति रूपी ज्ञान की निर्मल व पवित्र धारा वेदों के आविर्भाव से ही सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुई जो कि वैदिक काल गणना के अनुसार लगभग 1.96 अरब वर्षों वा महाभारत काल तक चली और आज भी यह विचारधारा सर्वाधिक प्रभावशाली होने के कारण गौरव के साथ देश में विद्यमान है।

 

विगत पांच हजार वर्षों में भारत में धार्मिक, सामाजिक व राजनैतिक दृष्टि से अनेक उतार चढ़ाव आये हैं। महाभारत के महाविनाशकारी युद्ध के कारण देश भर में राजनैतिक, सामाजिक व शैक्षिक व्यवस्था ढीली वा भंग हो गई थी। इस कारण दिन प्रतिदिन ज्ञान व विज्ञान घटने लगा व आलस्य व प्रमाद वृद्धि को प्राप्त होता गया। इस कारण समाज में अन्धविश्वासों की सृष्टि हुई। यज्ञ व अग्निहोत्र जिसको ‘‘अध्वर इस कारण कहते हैं कि यह पूर्ण अंहिसक होता है, इसमें अज्ञानता व स्वार्थवश पशुओं की हत्याकर इनके मांस से आहुतियां दी जाने लगी। अश्वमेध यज्ञ जो राष्ट्र रक्षा के पर्याय कार्यों का यज्ञ होता था, उसमें घोड़े की हत्या कर उसके मांस से आहुतियां दी जाने लगी थी। इसी प्रकार अजामेध व गोमेध का भी हश्र हुआ। आश्चर्य होता है कि उस समय क्या भारत भूमि के एक भी ऐसा विद्वान नहीं रहा था जो इन दुष्कार्यों का विरोध करता? यह अत्याचार व अनाचार बढ़ता गया। अन्य अन्धविश्वास भी उत्पन्न होने लगे। क्योंकि यह सब हमारे वेद के यथार्थ अर्थों व अभिप्रायों को भूले हुए पण्डितों द्वारा किये जाते थे। इस कारण किसी मनुष्य में इसका विरोध करने का साहस नहीं होता था। गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर वैदिक काल में स्थापित और सुचारू रूप से कार्यरत वर्णव्यवस्था का स्थान जन्मना जाति व्यवस्था ने ले लिया जिससे दलित जातियों पर अत्याचार होने लगे। वैदिक काल में सभी स्त्रियों व शूद्रों को अन्यान्य विषयों के अध्ययन सहित वेदों के अध्ययन का भी अधिकार प्राप्त था जिसे मध्यकाल के पण्डितों ने समाप्त कर दिया। महर्षि दयानन्द (1825-1883) के समय में ऐसा भी एक समय आया कि जब वेदों के यथार्थ ज्ञान को जानने व समझने वाला एक भी विद्वान भारत में नहीं रहा। सारा समाज व देश अज्ञान व अन्धकार में डूब गया। इससे वैदिक धर्मी व अन्य मनुष्य जाति की हानि व पतन तो होना ही था, जो भरपूर हुआ, और इस कारण हम पहले यवनों के और बाद में अंग्रेजों के गुलाम बन गये। महर्षि दयानन्द के समय में ऐसी स्थिति आ गई थी कि गुलामी से निकलने का कोई रास्ता किसी देशवासी व महापुरुष को नजर नहीं आता था। अनेक अग्रणीय पुरूष तो अंग्रेजों कि मत व उनकी गुलामी के प्रशंसक भी देश में हुए हैं। ऐसे संक्रमण काल में यदि किसी ने देश समाज के धार्मिक सामाजिक रोगों का उपाय ढूंढा उससे समाज को रोग मुक्त करने का प्राणपण से प्रयास किया तो उस महान पुरूष का नाम है स्वामी दयानन्द सरस्वती।

 

स्वामी दयानन्द ने देश भर में भ्रमण कर विद्वानों की खोज की और उनसे जो ज्ञान प्राप्त हो सकता था, प्राप्त करते रहे। उन्होंने अनेक योगियों से योग की अनेक क्रियाओं व रहस्यों को जाना व उनका अभ्यास किया। इस क्रम में वह एक सफल योगी बन गये और योग के चरम लक्ष्य ईश्वर साक्षात्कार को भी प्राप्त किया। अभी उनकी विद्या की तृप्ति होनी शेष थी। सौभाग्य से उन्हें मथुरा में एक प्रज्ञाचक्षु दण्डी गुरु स्वामी विरजानन्द जी पता मिला। वह सन् 1860 में वहां पहुंचे और उनसे 3 वर्षों तक संस्कृत के आर्ष व्याकरण सहित वैदिक साहित्य का अध्ययन किया। उन्होंने अपने इन गुरुजी से सत्य व असत्य के ज्ञान की कसौटी प्राप्त की। इसी कसौटी से उन्होंने वैदिक शास्त्रों व अन्य मतों के ग्रन्थों के सत्यासत्य की भी परीक्षा व अनुसंधान किया। गुरु विरजानन्द जी के सान्निध्य में तीन वर्ष रहकर अध्ययन पूरा हुआ और गुरु दक्षिणा का समय आया। स्वामीजी ने अपने गुरु विरजानन्द जी को उनके प्रिय लौंग दक्षिणा में दिये। गुरुजी ने उनकी दक्षिणा को ससम्मान स्वीकार किया परन्तु अपने मन की पीड़ा को भी उन्होंने स्वामी दयानन्द जी पर प्रकट किया। उन्होंने देश की दयनीय अवस्था का वर्णन करने के साथ देश में फैले अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, रूढि़वाद, सामाजिक असमानता व विषमता, फलित ज्योतिष व अवतारवाद आदि की चर्चा की और बताया कि वह नेत्रहीन होने के कारण वेद प्रचार द्वारा धार्मिक सुधार, समाज सुधार व देशोन्नति के कार्य नहीं कर सके। उन्होंने स्वामी दयानन्द को इन कार्यों को करने की प्रेरणा करते हुए अपनी इच्छा व्यक्त की। यह इच्छा प्रेरणा भी थी और देशोन्नति के लिए एक पवित्र आदेश भी था। स्वामी दयानन्द ने गुरुजी के इस प्रस्ताव पर कुछ क्षण मौन रहकर विचार किया और गुरुजी को उनकी आज्ञानुसार कार्य करने का आश्वासन दिया। गुरुजी जी प्रसन्नता से भरकर साश्रु हो गये और उन्होंने अपने शिष्य को सफल मनोरथ होने का आशीर्वाद दिया। यही स्वामी दयानन्द जी के वेद प्रचार, धर्म सुधार प्रचार, समाज सुधार, देशोन्नति सहित असत्य पाखण्ड के खण्डन तथा सत्य के मण्डन की भूमिका है।

 

स्वामीजी ने अपने गुरु से विदा ली और असत्य व पाखण्डों का खण्डन और वैदिक सत्य मान्यताओं का मण्डन आरम्भ कर दिया। देश की सर्वाधिक हानि अवतारवाद की कल्पना, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, यज्ञ व अग्निहोत्र में विकार, ईश्वरोपासना का सत्यस्वरुप भूलने, सामाजिक असमानता व विषमता सहित स्त्रियों व शूद्रों के वेदाधिकार छीन लेने से हुई थी। कार्यक्षेत्र में उतर कर उन्होंने इन प्रचलित सभी मान्यताओं को धर्म के आदि स्रोत व परम प्रमाण ग्रन्थों वेद के विरुद्ध घोषित किया और विरोधियों को वेदों से सिद्ध करने की चुनौती दी। उन्होंने ने इन सभी विषयों के ज्ञान-विज्ञान युक्त वैदिक समाधान भी प्रस्तुत किये। काशी में 16 नवम्बर सन् 1869 को  मूर्तिपूजा पर काशी व देश के शीर्ष 30 पण्डितों के साथ काशी नरेश की मध्यस्था में उन्होंने शास्त्रार्थ किया और विजयी हुए। अनेक पौराणिक विषयों व मिथ्या विश्वासों पर देश के अनेक स्थानों पर आपने शास्त्रार्थ कर वैदिक मत व मान्यताओं को सत्य व प्रमाणित सिद्ध किया। ईसाई मत व इस्लाम के विद्वानों से भी आपके शास्त्रार्थ व चर्चायें हुईं जिसमें आपने वैदिक मत को युक्ति व तर्क के आधार पर सत्य सिद्ध किया। सभी मतों के विद्वानों ने आपकी विद्वता का लोहा माना परन्तु अपने अज्ञान व स्वार्थों के कारण वह वैदिक मत को स्वीकार नहीं कर सके जिसके प्रमुख कारणों में से एक उनकी आजीविका थी। आज भी न्यूनाधिक यही स्थिति है।

 

वेद सभी सत्य विद्याओं से युक्त धार्मिक ग्रन्थ है जो धर्म की दृष्टि से परम प्रमाण है। आज भी वेद पूरी तरह से प्रासंगिक एवं मनुष्य जाति के सभी प्रकार के भेदभाव मिटाकर उन्हें संगठित कर सबकी समान उन्नति करने में सक्षम व समर्थ हैं। वेदों की इसी विशेषता के कारण महर्षि दयानन्द ने वेदों को अपनाया था और मानवमात्र के हित व कल्याण की दृष्टि से उनका प्रचार किया और वैदिक मान्यताओं के विपरीत मत-मतान्तरों की अज्ञान व पाखण्ड मूलक बातों का खण्डन किया। खण्डन का कार्य कुछ ऐसा था जैसा कि दूषित स्थान पर झाडूं लगाकर उसे स्वच्छ बनाना अथवा किसी शल्य चिकित्सक द्वारा किसी रोगी के किसी वृहत शारीरिक विकार की शल्य क्रिया कर उसे स्वस्थ करना। इस कार्य में स्वामी जी का न तो अपना कोई निजी प्रयोजन था और न वेदों की भारतीय विचारधारा के प्रति पक्षपात। उन्होंने भारत में उपलब्ध सभी मतों के ग्रन्थों व उनकी मान्यताओं को अपनी ज्ञान की तराजू पर तोल कर सत्य सिद्ध होने पर ही अपनाया था। सत्य व असत्य के मन्थन से उन्हें जो अमृत प्राप्त हुआ था, उसे उन्होंने स्वयं इकिनक प्रयोग में न लेकर समस्त विश्व को उसका सहभागी बनाया था। अज्ञान व स्वार्थों में फंसा विश्व उनकी मानवहितकारी भावनाओं को समझ नहीं सका और उन्हें अनेकानेक प्रकार से पीडि़त करता रहा जिसकी अन्तिम परिणति विष देकर उनके प्राणहरण करके की गई। महर्षि दयानन्द ने जो कार्य किया उससे सारा संसार लाभान्वित हुआ है। बहुत से लोग जान कर भी उससे लाभ नहीं उठाना चाहते और अपने स्वार्थों में लगे हुए हैं।

 

आज यह भी देखा जाता है कि लोग धर्म विषयक सत्य वा असत्य को जानना ही नहीं चाहते। इसका एक कारण विज्ञान द्वारा सुख सुविधाओं में वृद्धि की चकाचैंध है जिससे आकृष्ट व विमोहित होकर सब उसमें फंस गये हैं और मतों के मताचार्य हैं जो सत्य का अनुसंधान व प्रचार नहीं करते। इन कार्यों ने मनुष्य का विवेक नष्ट कर दिया है। किसी को इस बात को जानने की चिन्ता ही नहीं है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य लक्ष्य क्या है? इन प्रश्नों का युक्ति तर्क प्रमाण सहित उत्तर वेदों वैदिक साहित्य में ही मिलता है। महर्षि दयानन्द का यह संसार के लोगों के लिए अनुपम उपहार है। जिस व जिन मनुष्यों को अपना भविष्य सुधारना व संवारना हो, वह वैदिक धर्म के सुख व शान्ति प्रदान करने वाले वटवृक्ष की शीतल छांव में आ सकता है। निष्पक्ष दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि महर्षि दयानन्द ने वेद प्रचार, पाखण्ड खण्डन व सत्य के मण्डन का जो कार्य किया है वह मानव जाति के कल्याण की दृष्टि से अपूर्व था। इसके लिए वह इतिहास में चिरकाल तक अमर रहेंगे। असत्य का खण्डन व सत्य का मण्डन मानव जाति की उन्नति के अनिवार्य होने के कारण मानव धर्म है। महर्षि दयानन्द ने इस कर्तव्य को ही अपने जीवन का उद्देश्य बनाया और संसार का अपूर्व उपकार किया। महर्षि दयानन्द को उनके कल्याणकारी कार्यों के लिए हमारा नमन।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः  196  चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

गृहस्थाश्रम की सफलता के उपाय प्रो. रामसिंह एम.ए.

 

वैदिक आश्रम मर्यादा में गृहस्थाश्रम दूसरा आश्रम है। इसे यदि चारों आश्रमों का आधार कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी। इस आश्रम की सफलता के लिए आवश्यक है कि आश्रम में प्रवेश के इच्छुक यथावत् ब्रह्मचर्य में आचार्यानुकूल वर्त कर, धर्म से चारों वेद या तीन या फिर दो अथवा एक वेद को सांगोपांग पढ़कर अखण्डित-ब्रह्मचर्य से युक्त पुरुष वा स्त्री गुरु की यथावत् आज्ञा लेकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपने वर्णानुकूल सुन्दर-लक्षणायुक्त कन्या से विवाह करें।

उत्तम कुल के लड़के और लड़कियों का आपस में विवाह होना चाहिए। जो कुल सत्क्रिया से हीन और सत्पुरुषों से रहित हों तथा जिनमें बवासीर, क्षय, दमा, मिरगी, श्वेतकुष्ठ और गलित कुष्ठाादि भयानक रोग हों, उनकी कन्या या वर के साथ विवाह होना अनुचित है, क्योंकि इस प्रकार के विवाहों से ये सब दुर्गुण और रोग अन्य कुलों में भी प्रविष्ट हो जाते हैं।

कन्या पिता के गोत्र की नहीं होनी चाहिए तथा माता के कुल की छः पीढ़ियों मेंाी न हो। साथ ही कन्या का विवाह दूर देश में होने से हितकारी होता है, निकट रहने में नहीं। दूरस्थों के विवाह में अनेक लाभ हैं तथा निकट विवाह होने में अनेक हानियों की सभावना रहती है।

जब स्त्री-पुरुष विवाह करना चाहें, तब विद्या, विनय, शील, रूप, आयु, बल, कुल, शरीर का परिमाण आदि यथायोग्य होना चाहिये। जब तक उपर्युक्त गुणों में मेल नहीं होता, तब तक गृहस्थाश्रम में कुछ भी सुख नहीं मिलता।

बाल्यावस्था में तो विवाह करने से सुख होता ही नहीं। जिस देश में ब्रह्मचर्य-विद्या-ग्रहण रहित बाल्यावस्था हो और जहाँ अयोग्यों का विवाह होता है, वह देश दुःख में डूब जाता है तथा जिस-जिस देश में विवाह की श्रेष्ठ विधि और ब्रह्मचर्य-विद्यायास अधिक होता है, वह देश सुखी और समृद्ध होता है। सोलहवें वर्ष से लेकरचौबीसवें वर्ष तक कन्या और पच्चीसवें वर्ष से लेक रअड़तालीसवें वर्ष तक पुरुष का विवाह-समय उत्तम है। इसमें जो सोलह और पच्चीस वर्ष में विवाह करें तो निकृष्ट, अठारह वर्ष की स्त्री, तीस, पैंतीस व चालीस वर्ष के पुरुष का विवाह मध्यम तथा चौबीस वर्ष की स्त्री और अड़तालीस वर्ष के पुरुष का विवाह होना उत्तम है।

ब्रह्मचर्य विद्या के ग्रहणपूर्वक, विवाह के सुधार ही से, सब बातों का सुधार और बिगाड़ने से बिगाड़ हो जाता है।

चाहे लड़का-लड़की मरण पर्यन्त कुँवारे रहें, परन्तु असदृश अर्थात् परस्पर विरुद्ध गुण-कर्म-स्वभाव वालों का विवाह काी न होना चाहिए।

परस्पर-सहमति

विवाह लड़के-लड़की की प्रसन्नता के बिना न होना चाहिये, क्योंकि एक दूसरे की प्रसन्नता से विवाह होने में विरोध बहुत कम और सन्तान उत्तम होती है। अप्रसन्नता के विवाह में नित्य क्लेश ही रहता है। विवाह में मुय प्रयोजन वर और कन्या का है, माता-पिता का नहीं, क्योंकि जो उनमें परस्पर प्रसन्नता रहे तो उन्हीं को सुख और विरोध में उन्हीं को दुःख होता है, इसलिये जैसी स्वयंवर की रीति आर्यावर्त्त में परपरा से चली आती थी, वही उत्तम है।

जब तक सब ऋषि-मुनि, राजा-महाराजा और अन्य आर्य लोग ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ कर ही स्वयंवर विवाह करते थे, तब तक इस देश की सदा उन्नति होती रही। जब से यह ब्रह्मचर्य से रहित विद्या की पढ़ाई और बाल्यावस्था में पराधीन अर्थात् माता-पिता के आधीन विवाह होने लगे, तब से क्रमशः आर्यावर्त्त देश की हानि होती चली आयी। इससे इस दुष्ट काम को छोड़ कर सज्जन लोग पूर्वोक्त प्रकार से स्वयंवर विवाह किया करें। विवाह वर्णानुक्रम से करें।

कईलोग आपत्ति करते हैं कि विवाह-बंधन में केवल दुःख भोगना पड़ता है, इसलिए यह क्यों न हो कि जिसके साथ जिसकी प्रीति हो, तब तक मिले रहें, प्रीति छूट जाने पर एक-दूसरे को छोड़ देवें। परन्तु इस प्रकार करने को हम पशु-पक्षी का व्यवहार मानते हैं, मनुष्यों का नहीं। जो मनुष्यों में विवाह का नियम न रहे, तो गृहस्थाश्रम के अच्छे-अच्छे व्यवहार नष्ट-भ्रष्ट हो जायें। कोई किसी की सेवा भी न करे और महा व्यभिचार बढ़ कर सब रोगी, निर्बल और अल्पायु हो शीघ्र ही मर जायें । भय-लज्जा भी न रहे। वृद्धावस्था में कोई सेवा न करे। कोई किसी के पदार्थों का स्वामी या दायभागी भी न हो सके  और न ही किसी का किसी पदार्थ पर दीर्घकाल पर्यन्त रहे। इन दोषों के निवारणार्थ विवाह ही होना सर्वथा योग्य है।

यह भी स्मरण रहे कि एक समय में एक ही विवाह उचित है, परन्तु समयान्तर में अनेक विवाह भी हो सक ते हैं। जिस स्त्री या पुरुष का मात्र पाणिग्रहण संस्कार हुआ हो और संयोग न हुआ हो-अर्थात् अक्षतयोनि स्त्री और अक्षतवीर्य पुरुष हो, उनका ऐसी ही अन्य स्त्री वा पुरुष के साथ पुनर्विवाह होना चाहिए।

विवाह-प्रयोजन

स्त्री और पुरुष की सृष्टि का यही प्रयोजन है कि वे धर्म से अर्थात् वेदोक्त रीति से सन्तानोत्पत्ति करें। ईश्वर के सृष्टि क्रमानुकूल स्त्री-पुरुष का स्वाभाविक व्यवहार रुक ही नहीं सकता, सिवाय वैराग्यवान् पूर्ण विद्वान् योगियों के। संसार में व्यभिचार और कुकर्म को रोकने का श्रेष्ठ उपाय ही है कि जो जितेन्द्रिय रह सकेंगे, वे विवाह न करें तो भी ठीक, परन्तु जो ऐसे नहीं हैं, उनका वेदोक्त रीति से विवाह अवश्य होना चाहिये। आपात्काल में नियोग भी आवश्यक है। इसी प्रकार से व्यभिचार न्यून तथा प्रेम से उत्तम सन्तान और स्वस्थ मनुष्यों की वृद्धि सभव है।

विवाह के प्रकार

विवाह आठ प्रकार के होते हैं- एक ब्राह्म, दूसरा दैव, तीसरा आर्ष, चौथा प्राजापत्य, पाँचवाँ आसुर, छठा गान्धर्व, सातवाँ राक्षस एवं आठवाँ पैशाच।

इन विवाहों की यह व्यवस्था है कि वर कन्या दोनों यथावत् ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्वान्, धार्मिक और सुशील हों, उनका परस्पर प्रसन्नता से विवाह होना ‘ब्र्राह्म’ कहलाता है। विस्तृत यज्ञ करने में ऋत्विक् कर्म करते हुए जामाता को अलंकार युक्त कन्या का देना ‘‘दैव’’, वर से कुछ लेकर विवाह होना ‘‘आर्ष’’, दोनों का विवाह धर्म की वृद्धि के अर्थ होना ‘‘प्राजापत्य’’, वर और कन्या को कुछ दे के विवाह होना ‘‘आसुर’’, अनियम- असमय किसी कारण से वर कन्या का इच्छापूर्वक परस्पर संयोग होना ‘‘गान्धर्व’’, लड़ाई करके बलात्कार अर्थात् छीन-झपट वा कपट से कन्या का ग्रहण करना ‘‘राक्षस’’, शयन व मद्यादि पी हुई पागल कन्या से बलात्कार संभोग करना ‘‘पैशाच’’ विवाह कहलाता है। इन सब विवाहों में ब्राह्म विवाह सर्वोत्कृष्ट, दैव और प्राजापत्य मध्यम, आर्ष आसुर और गान्धर्व निकृष्ट, राक्षस अधम और पैशाच महाभ्रष्ट है, इसलिए यही निश्चय रखना चाहिए कि कन्या और वर का विवाह के पूर्व एकान्त में मेल न हो, क्योंकि युवावस्था में स्त्री-पुरुष का एकान्तवास दूषणकारक है।

विवाह से पूर्व

जब कन्या या वर के विवाह का समय हो तो उनके अध्यापक अथवा माता-पिता उनके गुण, कर्म और स्वभाव की भली-भाँति परीक्षा कर लें। जब दोनों का निश्चय विवाह करने का हो जाय, तो यदि अध्यापकों के समक्ष विवाह करना चाहें तो वहाँ, नहीं तो कन्या के माता-पिता के घर में विवाह होना योग्य है। कन्या और वर के खान-पान का उत्तम प्रबन्ध वैवाहिक-विधि से पूर्व होना चाहिये, जिससे उनका ब्रह्मचर्यव्रत और विद्याध्ययनरूप तपश्चर्या से दुर्बल शरीर चन्द्रमा की कला के समान बढ़कर थोड़े ही दिनों में पुष्ट हो जाये।

पश्चात् उपयुक्त समय वेदी और मण्डप रचकरअनेक सुगन्धादि द्रव्य और घृतादि का होम करके वैदिक-विधि के अनुसार विद्वान् पुरुष और स्त्रियों के सामने पाणिग्रहणपूर्वक विवाह-विधि पूरी करें।

विवाह के पश्चात्

स्त्री और पुरुष अपने-अपने कर्त्तव्य को पूरी तरह समझें और जहाँ तक बन पड़े, वहाँ तक ब्रह्मचर्य के वीर्य को व्यर्थ न जाने दें, क्योंकि उस वीर्य वा रज से जो शरीर उत्पन्न होता है, वह अपूर्व उत्तम सन्तान होती है।

पुरुष वीर्य की स्थिति और स्त्री गर्भ की रक्षा और भोजन-छादन इस प्रकार करे, जिससे गर्भस्थ बालक का शरीर अत्युत्तम रूप, लावण्य, पुष्टि, बल, पराक्रमयुक्त होकर दसवें महीने में जन्म होवे। विशेष उसकी रक्षा चौथे महीने से और अतिविशेष आठवें महीने से करना योग्य है। कभी गर्भवती स्त्री रेचक, रुक्ष, मादक द्रव्य, बुद्धि और बलनाशक पदार्थों का सेवन न करे, किन्तु घी, दूध, उत्तम चावल, गेहूँ, मूँग,उर्द आदि खान-पान देश-कालादि के अनुसार करे। चौथे महीने में पुंसवन संस्कार और आठवें में सीमन्तोन्नयन विधि के अनुकूल करे।

सन्तान-पालन

बालक के जन्म के समय बालक और उसकी माता की सावधानी से रक्षा करनी चाहिये। शुण्ठीपाक और सौभाग्यशुण्ठीपाक प्रथम से ही तैयार रहना चाहिए। बालक और उसकी माता को सुगन्धियुक्त उष्ण जल से स्नान कराना भी उचित है। नाड़ी-छेदन यथा-विधि कराये। प्रसूति-गृह में सुगन्धादि युक्त घृत का होम करे। तत्पश्चात् बालक के कान में ‘वेदोऽसि’ – तेरा नाम वेद है सुनाकर, पिता मधु और घृत से बालक की जीभ पर ‘ओ3म्’ लिखे और शलाका से उसे चटा दे।

पश्चात् बालक और उसकी माता को दूसरे शुद्ध स्थान पर बदल दें और वहाँ नित्य सायं-प्रातः सुगन्धित घी का हवन करें। बालक छह दिन तक माता का दूध पिये। छठे दिन स्त्री बाहर निकले। सन्तान के दूधादि के लिए यथावत् प्रबन्ध करें। समर्थ हो तो कोई धाय रख ली जाये। बालक के पालन-पोषण में कोई अनुचित व्यवहार न हो।

पश्चात् नामकरणादि संस्कार ‘‘संस्कार-विधि’’ की रीति से यथाकाल करता जाये।

पुरुष के कर्त्तव्य

इस प्रकार स्त्री और पुरुष विधिपूर्वक गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए संसार में सुखपूर्वक रहें। पुरुष का कर्त्तव्य है कि सभी प्रकार से स्त्री को प्रसन्न रखे। जिस कुल में भार्या से भर्ता और पति से पत्नी अच्छे प्रकार प्रसन्न रहती है, उसी कुल में सौभाग्य और ऐश्वर्य निवास करते हैं। जिस घर में स्त्रियों का सत्कार होता है, उसमें पुरुष विद्यायुक्त होकर देव संज्ञा को प्राप्त होते हैं और आनन्द करते हैं। जहाँ स्त्रियों का सत्कार नहीं होता, वहाँ सारी क्रियायें निष्फल हो जाती हैं।

स्त्री के कर्त्तव्य

स्त्री को भी योग्य है कि अति प्रसन्नता से घर के कामों में चतुराई युक्त सब पदार्थों के उत्तम संस्कार तथा घर की शुद्धि रखे और व्यय करने में भी संकोच से काम ले, अधिक उदारता न दिखाये, अर्थात् यथायोग्य खर्च करे। पाकादि भी इस भाँति बनावे कि औषधरूप होकर शरीर और आत्मा में रोग न आने दे। आय-व्यय का ध्यान भी यथावत् रखे। घर के नौकर-चाकरों से यथायोग्य काम ले और घर के कार्यों में पूरी सावधानी बरते।

गृहस्थ के कर्त्तव्य

इस भाँति गृहस्थाश्रम में स्त्री-पुरुष परस्पर प्रेमपूर्वक रहें। बुद्धि-धनादि की वृद्धि करने वाले शास्त्रों को नित्य सुनें और सुनावें।

यथाविधि दिन और रात्रि की सन्धि में परमेश्वर का ध्यान और अग्निहोत्र अवश्य करना चाहिए।

पितृयज्ञ भी गृहस्थ का कर्त्तव्य कर्म है। श्रद्धा और भक्ति भाव से विद्यमान माता-पिता आदि पितरों की सेवा करना ही पितृयज्ञ और श्राद्धतर्पण है। परम विद्वानों, आचार्यादि की सर्वप्रकार से सेवा करना ही ऋषि तर्पण है।

वास्तव में माता-पिता, स्त्री, भगिनी, सबन्धी आदि तथा कुल के अन्य कोई भद्र पुरुष वा वृद्ध हों, उन सबको अत्यन्त श्रद्धा से उत्तम अन्न, वस्त्र, सुन्दर यानादि देखकर अच्छी प्रकार तृप्त करना, जिससे उनकी आत्मा तृप्त और शरीर स्वस्थ रहे-यही श्राद्ध और तर्पण है।

चौथा ‘वैश्वदेव’ यज्ञ है। जब भोजन सिद्ध हो जाये, तब उसमें से खट्टा, लवणान्न और क्षार युक्त को छोड़कर घृत-मिष्ट युक्त अन्न लेकर मन्त्रों से आहुति दे दें तथा कुछ भाग पत्ते या थाली में भी मन्त्रों से आहुति देते समय रखता जाय। यदि कोई अतिथि हो तो उसको दे दें, नहीं तो अग्नि में ही छोड़ देवें। इसी प्रकार किसी दुःखी प्राणी अथवा कुत्ते, कव्वे आदि के लिये भी छः भाग अलग रख दें- पश्चात् उनको दे दिये जायें।

अतिथि यज्ञ भी आवश्यक है। यदि अकस्मात् कोई धार्मिक , सत्योपदेशक, सबके उपकारार्थ सर्वत्र घूमने वाला पूर्ण विद्वान्, परमयोगी, संन्यासी गृहस्थ के यहाँ आ जाये तो उसका यथाविधि सत्कार करना, खान-पानादि से सेवा-शुश्रूषा करना परम कर्त्तव्य है। समयानुसार गृहस्थ और राजादि भी अतिथिवत् सत्कार करने योग्य हैं, परन्तु पाखण्डी, वेदनिन्दक, वेदविरुद्ध आचरण करने वालों का वाणी मात्र से भी सत्कार न करें-क्योंकि इनका सत्कार करने से ये वृद्धि को पाते हैं- संसार को अधर्मयुक्त करते हैं और अपने सेवकों को भी अविद्या रूपी महासागर में डुबो देते हैं।

इन पाँचों महायज्ञों का अत्युत्तम फल होता है। धर्म की वृद्धि होकर संसार में सुख का संचार होता है।

गृहस्थ को अपनी दिनचर्या का भी विशेष ध्यान रखना आवश्यक है। रात्रि के चौथे प्रहर अथवा चार घड़ी रात से उठे। आवश्यक कार्य से निवृत्त हो, धर्म और अर्थ, शरीर के रोगों का निदान और परमात्मा का ध्यान करे। अधर्म का आचरण कभी न करे।

अधर्मात्मा मनुष्य मिथ्याभाषण, कपट, पाखण्ड और विश्वासघातादि कर्मों से पराये धन और पदाथरें को लेकर बढता है, धनादि ऐश्वर्य, यान, स्थान, मान-आदि प्रतिष्ठा कोाी प्राप्त कर लेता है, परन्तु शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, जैसे जड़ से कटा हुआ वृक्ष। इसलिये गृहस्थों को उचित है कि पक्षपात रहित होकर सत्य का सदैव ग्रहण करें, असत्य का परित्याग करें। न्याय रूप वेदोक्त धार्मिक मार्ग ग्रहण करें तथा अन्यों को भी इसी प्रकार की शिक्षा दिया करें।

धर्म से धन को कमायें और ऐसे धन को सद् पात्र में ही व्यय करें, अपात्र में धन का दुरुपयोग न करें। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य, सत्यभाषण आदि तपरहित हैं, अशिक्षित हैं और दूसरों के धन पर ही अपना दाँत लगाये रखते हैं, उसी पर पलते हैं, ये तीनों प्रकार के अपात्र ही हैं। वे स्वयं भी डूबते हैं और अपने दाताओं को भी साथ डुबा लेते हैं।

इस प्रकार गृहस्थ इस लोक और परलोक का सदा ध्यान रखें। धर्म का सञ्चय धीरे-धीरे करता जाये, क्योंकि धर्म ही के सहारे से दुस्तर दुःख सागर को जीव तर सकता है।

गृहस्थ जीवन में- विवाह होने के पश्चात् स्त्री के साथ पुरुष और पुरुष के साथ स्त्री बिक चुके होते हैं। जो उनके पारस्परिक हाव-भाव, नख-शिखाग्र-पर्यन्त जो कुछ भी हैं- वह एक दूसरे के आधीन हो जाते हैं, अतः स्त्री वा  पुरुष एक दूसरे की प्रसन्नता बिना कोई व्यवहार न करें। इनमें बड़े अप्रियकारक काम व्यभिचार, वेश्या-परपुरुषगमनादि हैं। इनको छोड़के अपने पति के साथ स्त्री और स्त्री के साथ पति सदा प्रसन्न रहें।

वर्णाश्रम-व्यवस्था

जिस प्रकार गृहस्थ अपने विवाह वर्णानुक्रम से करते हैं, वैसे ही वर्ण-व्यवस्था भी गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार होनी चाहिये। जो उत्तम विद्या स्वभाव वाला है, वही ब्राह्मण के योग्य और मूर्ख शूद्र के योग्य होता है और ऐसा ही आगे भी होगा।

जो नीच भी उत्तम वर्ण-कर्म-स्वभाव वाला होवे तो उसकोाी उत्तम वर्ण में और जो उत्तम वर्णस्थ हो के नीचे काम करे, तो उसको नीच वर्ण में अवश्य गिनना चाहिये।

यजुर्वेद के इकत्तीसवें अध्याय के ग्यारहवें मन्त्र-‘‘ब्राह्मणोऽस्यमुखमासीद्’’का अर्थ भी यही है कि जो पूर्ण व्यापक परमात्मा की सृष्टि में मुख के सदृश सब में मुय-उत्तम हो, वह ब्राह्मण; बाहुबल-वीर्य जिसमें अधिक हो, वह क्षत्रिय; कटि के अधोभाग और जानु के उपरिस्थ भाग का ऊरु नाम है, जो सब पदार्थों और सब देशों में ऊरु के बल से जावे-आवे, प्रवेश करे, वह वैश्य और जो पग के अर्थात् नीचे अङ्ग के सदृश मूर्खत्वादि गुण वाला हो वह शूद्र है। यही बात मनु ने भी कही है कि शूद्र कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के समान गुण कर्म स्वभाव वाला हो तो वह शूद्र-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हो जाये और वैसे ही जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो और उसके गुण कर्म और स्वभाव शूद्र के सदृश हों तो वह शूद्र हो जाये। इसी प्रकार क्षत्रिय या वैश्य कुलोत्पन्न भी ब्राह्मण या शूद्र के समान होने से ब्राह्मण और शूद्र भी हो जाता है। चारों वर्णों में जिस-जिस वर्ण के सदृश जो-जो पुरुष वा स्त्री हो, वह-वह उसी वर्ण में गिनी जावे। इस विषय में अनेक प्रमाण हैं।

वर्ण-धर्म

चारों वर्णों के कर्त्तव्य, कर्म और गुण भी पृथक्-पृथक् हैं।

पढ़ना-पढ़ाना, यज्ञ करना-कराना, दान देना और लेना- ये छः कर्म ब्राह्मण के हैं। वास्तव में ‘‘प्रतिग्रह’’ लेना नीच कर्म है। ‘शम, दम, तप, शौच, क्षान्ति, आर्जव, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिक्य’- छः पहिले और नौ पिछले मिलाकर- यह पन्द्रह कर्म और गुण ब्राह्मण वर्णस्थ मनुष्यों में अवश्य होने चाहियें।

इसी प्रकार ग्यारह क्षत्रिय वर्ण के कर्म और गुण हैं- अर्थात् प्रजा-रक्षण, दान, इज्या- अग्निहोत्रादि यज्ञ करना-कराना, अध्ययन, विषयों में न फँसना, शौर्य, धृति (धैर्य), दाक्ष्य- राजा प्रजा सबन्धी व्यवहार और शास्त्रों में चतुराई, युद्ध से न डरना, न भागना, दान, ईश्वरभाव-पक्षपातरहित होकर सबके साथ यथायोग्य वर्तना, प्रतिज्ञा पूरी करना-ये क्षत्रियों के धर्म हैं।

वैश्यों के गुण-कर्माी इसी प्रकार गिनाये गये हैं- अर्थात् पशु-रक्षा, दान, इज्या (अग्निहोत्रादि), अध्ययन, वणिक्पथ (सब प्रकार के व्यापार करना), कुसीद (याज-सौ वर्ष में भी दूने से अधिक न लेना), कृषि (खेती) करना- यह सब वैश्य-कर्म समझे गये हैं।

शूद्र को सेवा का अधिकार है। वह भी इसलिये कि वह विद्या रहित है, मूर्ख है। जो विज्ञान-सबन्धी कुछ भी काम नहीं कर सकता और केवल शरीर से ही कार्य कर सकता है, वही उससे लेना उचित है। वर्णों को अपने-अपने अधिकार में प्रवृत्त करना राजा आदि सयजनों का काम है।

गृहस्थ का महत्त्व

इस प्रकार गृहस्थाश्रम (विवाह करके गृहस्थ बनना) बहुत महत्त्वपूर्ण आश्रम है। कुछ लोग पूछा करते हैं-यह आश्रम सब से छोटा है-अथवा बड़ा? हम तो यही कहते हैं कि अपने-अपने कर्त्तव्य कर्मों में सब बड़े हैं, परन्तु जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमते रहते हैं, जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं होते, वैसे गृहस्थ ही के आश्रय से सब आश्रम स्थिर रहते हैं। बिना इसके किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता। ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास तीनों आश्रमों को दान अन्नादि देकर गृहस्थ ही धारण करता है, इससे गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है, अर्थात् सब व्यवहारों में धुरन्धर कहलाता है। जो मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता है, वह प्रयत्न से गृहाश्रम को धारण करे।

जितना कुछ व्यवहार संसार में है, उसका आधार गृहस्थाश्रम है। जो यह गृहस्थाश्रम न होता तो सन्तानोत्पत्ति न होती- फिर ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम कहाँ से हो सकते?

जो गृहस्थाश्रम की निन्दा करता है, वही निन्दनीय है- जो प्रशंसा करता है, वही प्रशंसनीय है।

परन्तु स्मरण रहे यह पुण्य गृहस्थाश्रम दुर्बलेन्द्रिय अर्थात् भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने योग्य नहीं है, और गृहस्थाश्रम में सुखाी तभी होता है, जब स्त्री और पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न,विद्वान्, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता हों। इसलिये गृहस्थाश्रम के सुख का मुय कारण ब्रह्मचर्य और पूर्वोक्त स्वयंवर विवाह है। समावर्तन, विवाह और गृहस्थाश्रम के विषय में यह संक्षिप्त शिक्षा लिखी गयी है।

पं. दीनदयाल जी को कहना पड़ाः- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

पं. दीनदयाल जी को कहना पड़ाः-

पं. दीनदयाल उपाध्याय एक त्यागी, तपस्वी व सरल नेता थे। उन जैसा राजनेता अब किसी दल में नहीं दिखता। वह जनसंघ के मन्त्री के रूप में जगन्नाथपुरी गये। वहाँ के मन्दिर में दर्शन करने पहुँचे तो पुजारियों ने चप्पे-चप्पे पर यहाँ पैसे चढ़ाओ, यहाँ भेंट धरो, इसका यह फल और बड़ा पुण्य मिलेगा आदि कहना शुरू किया। जब दीनदयाल जी से बाहर आने पर पत्रकारों ने मन्दिर की इस यात्रा व भव्यता के बारे में प्रश्न पूछे तो आपका उत्तर था, ‘‘जब मैं मन्दिर में प्रविष्ट हुआ तब पक्का सनातन धर्मी था, अब बाहर निकलने पर मैं कट्टर आर्यसमाजी हूँ।’’ उनका यह वक्तव्य तब पत्रों में छपा था, जिसे उनके नाम लेवा अब छिपा चुके हैं, पचा चुके हैं। हिन्दू समाज के महारोगों की औषधि केवल दीनदयाल जी की यह स्वस्थ सोच है। दुर्भाग्य से हिन्दू अपने रोगों को रोग ही नहीं मानता।

असहिष्णुता का मानवीय रोगःराजेन्द्र जिज्ञासु

इन दिनों भारत में असहिष्णुता के मानवीय महारोग पर बड़ा विवाद हो रहा है। अनादि ईश्वर के अनादि ज्ञान वेद के एक प्रसिद्ध मन्त्र में ईश्वर से बल, तेज, ओज, मन्यु व सहनशीलता आदि सद्गुणों की प्रार्थना की गई है। यह मन्त्र महर्षि दयानन्द ने आर्याभिविनय आदि पुस्तकों में दिया है। इससे स्पष्ट है कि असहनशीलता का महारोग मानव जाति के लिए घातक है। हिन्दू हो, मुसलमान हो या ईसाई, सबको इस मानवीय महारोग के कारण को जानकर इसका निवारण करना चाहिये।

हजरत मुहमद को तीन खलीफा हत्यारों ने मार डाला। मारने वाले काफिर नहीं थे। नमाजी मुसलमानों ने उनकी जान ले ली। क्या यह असहनशीलता नहीं थी? इस इतिहास से मुसलमानों ने क्या सीखा? वीर रामचन्द्र व वीर मेघराज की हत्या करने वाले हिन्दू ही थे। उनका दोष दलितोद्धार था। पं. लेखराम जी का वध करने वाले इस कुकृत्य पर आज भी इतराते हैं। क्या यह असहिष्णुता को बढ़ावा देने वाला कु कृत्य नहीं था? महात्मा गाँधी ने महाशय राजपाल द्वारा प्रकाशित रंगीला रसूल पर विपरीत टिप्पणी करके असहिष्णुता को उत्तेजित किया या नहीं? काशी के राजा काशी शास्त्रार्थ के अध्यक्ष थे, परन्तु सभा विसर्जित राजा ने नहीं की। सभा विसर्जित करने वालों की कृपा से हुल्लड़ मचा। इस असहिष्णुता पर किसने पश्चात्ताप किया? चलो! जनूनी राजनेताओं को इतनी समझ तो आ गई कि असहिष्णुता एक महामारी है। गुरु अर्जुनदेव जी से वीर हकीकतराय व स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज तक सब असहिष्णुता के शिकार हुए।

‘वेद आर्यसमाज और गणतन्त्र प्रणाली’ -मनमोहन कुमार आर्य

 

भारत का इतिहास उतना ही पुराना है जितना की इस सृष्टि के बनने के बाद प्राणी जगत व मानव उत्पत्ति के बाद का सृष्टि का इतिहास। सभी मनुष्यों को नियम में रखने व सभी श्रेष्ठ आचरण करने वाले मनुष्यों को अच्छा भयमुक्त व सद्ज्ञानपूर्ण वैदिक परम्पराओं के अनुरुप वातावरण देने के लिए एक आदर्श राजव्यवव्स्था की आवश्यकता एवं उपयोगिता स्वयंसिद्ध है। वैदिक मान्यताओं के अनुसार इस सृष्टि में मानव उत्पत्ति का इतिहास 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 115 वर्ष पूर्व आरम्भ होकर वर्तमान समय तक चला आया है। 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों की दासता से स्वतन्त्र होने से पूर्व भी इस देश में अगणित राजा हुए जिन्होंने देश पर राज किया और राज्य के संचालन के लिए उनके अपने संविधान, नियम व सिद्धान्त भी रहे हैं। वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि महाभारत काल व उसके बाद के भारत के आर्य राजाओं के संविधान वेद सम्मत नियमों व प्रक्षेप रहित मनुस्मृति के विधान हुआ करते थे। अभाग्योदय से प्राचीन भारत में वर्तमान समय से लगभग 5,200 वर्ष पूर्व महाभारत का विनाशकारी युद्ध हुआ जिसमें लाखों की संख्या में लोग मारे गये। इस युद्ध के परिणामस्वरुप देश की शैक्षिक, सामाजिक व प्रशासनिक व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा जिससे ज्ञान व विज्ञान का ह्रास होकर समाज में अन्धविश्वास, सामाजिक विषमता व लोगों का चारित्रिक पतन आदि देखने को मिलता है। इन कारणों से देश पहले मुगलों वा यवनों का और उसके बाद अंग्रेजों का दास बन गया। मुगलों व अंग्रेजों की दासता के समय में भी अनेक आर्य वा हिन्दू राजाओं ने विदेशी विधर्मी शासकों का पुरजोर विरोध किया। महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह जी आदि हमारे ऐसे ही पूर्वजों में थे जिन्होंने देश की स्वतन्त्रता व सुशासन के लिए अपना उल्लेखनीय योगदान किया।

 

वेद व वैदिक ज्ञान सत्य व न्याय पर आधारित राज्य का समर्थक व पोषक है। वेदों ने मनुष्यों को यह बताया है कि इस जगत में ईश्वर, जीव व प्रकृति यह तीन मुख्य व प्रमुख तत्व हैं। ईश्वर व जीव चेतन तत्व वा पदार्थ हैं तथा प्रकृति इनके विपरीत जड़ है। ईश्वर निराकार, सर्वव्यापक व सर्वज्ञ है तथा जीव अल्पज्ञ, एकदेशी व ससीम है। ईश्वर सृष्टि का निमित्त कारण तथा प्रकृति उपादान कारण है। जीव संख्या में अनन्त हैं व ईश्वर केवल एकमात्र व केवल एक सत्ता है। इन्हीं जीवों के पूर्वजन्म के कर्मों के फल रूपी सुख व दुःख के भोग के लिए ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया है जिससे कि ईश्वर की सामथ्र्य का उपयोग हो सके और जीवों को मानव आदि शरीरों की प्राप्ति के साथ कर्मानुसार सुख व दुःख मिल सके। मनुष्य जीवन का उद्देश्य पूर्व जन्मों के अवशिष्ट कर्मों के फलों का भोग करते हुए ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना व सभी वेद विहित कर्मों को करना जिससे दुःखों की पूर्णतया निवृति होकर मोक्ष की प्राप्ति हो सके। मनुष्य वा उसकी जीवात्मा को मोक्ष वैदिक ज्ञान की प्राप्ति कर उसके अनुसार निष्काम व फलों की इच्छा से रहित सभी प्राणियों के हितकारी कर्मों के आचरण सहित ईश्वर की उपासना से समाधि को सिद्ध करने अर्थात् ईश्वर का साक्षात्कार करने पर प्राप्त होता है। समाज में अपराध से मुक्त वातावरण हो, लोगों को उन्नति के अवसर मिलें, नागरिक सुखी व समृद्ध हों तथा राज्य विदेशी शत्रुओं से सुरक्षित रहे, ऐसे अनेक प्रयाजनों की व्यवस्था के लिए राज्य की स्थापना की जाती है। इस दृष्टि से रामराज्य अब तक हुए सभी राजाओं व राज्यों में श्रेष्ठ राज्य था। सज्जन पुरुष तो अनुशासन में रहते ही हैं परन्तु दुष्टों व अपराध प्रवृत्ति के स्त्री व पुरुषों को अनुशासन में रखने के लिए कठोर दण्ड का प्राविधान आवश्यक है। न केवल दण्ड का प्राविधान ही अपितु ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये कि जिसमें कोई अपराधी बिना दण्ड के बच न सके। सभी अपराधियों को उनके अपराध के अनुरुप कठोर दण्ड देकर ही समाज को अपराधमुक्त किया जा सकता है। दण्ड व्यवस्था के पूर्ण प्रभावशाली होने के साथ देश के सभी स्त्री-पुरुषों व उनके बच्चों के लिए एक समान, सबके लिए अनिवार्य, निःशुल्क व आदर्श वैदिक शिक्षा प्रणाली होनी चाहिये जिससे सभी बच्चों व नागरिकों को अच्छे संस्कार मिले। आजकल की हमारे देश की व्यवस्था में यह उत्तम बातें नहीं हैं। अतः यह कहना व मानना पड़ता है कि व्यवस्था में अनेक खामियां है जिनके सुधार की आवश्यकता है।

 

वेद क्या हैं, यह भी जानना आवश्यक है। वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न मनुष्यों में चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को ईश्वर द्वारा इन ऋषियों की आत्मा में प्रेरणा द्वारा स्थापित किया गया था। इस ज्ञान से ही संसार की प्रथम पीढ़ी के मनुष्यों का तिब्बत में जीवन निर्माण हुआ और नई पीढि़यों ने जन्म लेकर न केवल जनसंख्या की वृद्धि की अपितु जनसंख्या वृद्धि व कुछ लोगों के यायावरी स्वभाव के कारण यह सारा संसार वेदानुयायी आर्यों द्वारा बसाया गया। महाभारत काल तक वैदिक नियमों व इनके अनुसार बनाये गये ऋषियों के विधानों के आधार पर आर्य राजाओं ने संसार पर शासन किया। रामायण, महाभारत एवं महर्षि दयानन्द के ग्रन्थ आदि इसके प्रमाण हैं। महर्षि दयानन्द ने चारों वेदों का गम्भीर अध्ययन करके इसको पूर्णतया सत्य व निभ्र्रान्त पाया था और इसकी प्रमाणिकता को तर्क व युक्तियों से सिद्ध किया। उन्होंने ऋग्वेद का आंशिक एवं यजुर्वेद का संस्कृत व हिन्दी भाषा में भाष्य भी किया है। वेदों में देश के संचालन के लिए साम्प्रदायिक व मजहबी बातों से रहित शुद्ध सत्य व न्याय पर आधारित विधान दिये गये है जो भारत सहित संसार के सभी देशों के लिए माननीय हैं। वेदों से दूर जाने के कारण ही अतीत में भारत की दुर्दशा हुई और आज संसार में सर्वत्र जो अशान्ति, भय, हिंसा व अन्याय का वातावरण है उसका प्रमुख कारण भी संसार का वेदों से दूर जाना है।

 

महर्षि दयानन्द ने 10 अप्रैल, 1875 को वेदों के प्रचार व प्रसार हेतु मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की थी। अज्ञान, अन्धविश्वास, पक्षपात-अन्याय-अत्याचार-शोषण-असमानता आदि को दूर कर संसार में वेदानुरुप ईश्वर की सच्ची पूजा, पर्यावरण की शुद्धि सहित सभी नागरिकों को सद्ज्ञान व श्रेष्ठ संस्कारों से संयुक्त करना उनका मुख्य उद्देश्य था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने व उनके आर्यसमाज के अनुयायियों ने जो पुरुषार्थ किया है, वह इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। उनके विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों का सारे संसार पर प्रभाव पड़ा परन्तु बहुत सी बातें लोगों की अल्पज्ञता, अज्ञानता, स्वहित आदि अनेक कारणों से आज भी बनी हुई हैं। इसके लिए आर्यसमाज को अपने गुरुकुलों में वेदों के आधुनिक विद्वान तैयार करने चाहिये जो न केवल संसार की सभी समस्याओं के व्यवहारिक वैदिक समाधान दे सकें अपितु विश्व में वेदों का अपूर्व रीति से प्रभावशाली प्रचार भी करें जिससे कि एक ईश्वर, एक विचारधारा, एक सिद्धान्त व मान्यता, अन्याय-शोषण-हिंसा रहित समाज का निर्माण किया जा सके। यही आर्यसमाज का उद्देश्य, परम्परा,  कार्य व प्रचार की दिशा है।

 

हमारे देश में गणतन्त्र प्रणाली है जो कि अन्य प्रचलित प्रणालियों से श्रेष्ठ है। अनेक प्रावधान ऐसे भी हैं जिनका दुरुपयोग किया जाता है जिससे समाज में सामाजिक व आर्थिक असमानता अत्यधिक बढ़ गई है। इस देश में ऐसे भी लोग हैं जिनको रात दिन काम करने के बाद भी न भर पेट भोजन मिलता है, अच्छे वस्त्रों, निजी घर, उच्च शिक्षा की तो बात ही क्या है? गणतन्त्र प्रणाली में सबको एक समान, निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा का प्रबन्ध होना चाहिये। ब्रह्मचर्य व संयम पूर्ण जीवन की प्रतिष्ठा होनी चाहिये। मांसाहार, धूम्रपान, मदिरापान व नशा आदि पूर्ण प्रतिबन्धित होने चाहिये। गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध ही न हो अपितु गोसंवर्धन के लिए अनुसंधान केन्द्रों सहित गोपालन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये जिससे देश में दुग्ध व दुग्ध उत्पाद प्रचुरता से सर्वसुलभ हो सकें। गाय सहित सभी पशुओं के मांसाहारार्थ वध पर पूर्ण प्रतिबन्ध ही न हो अपितु ऐसा करने वालों को दण्डित भी किया जाना चाहिये। पशुओं की हत्या हिंसात्मक कार्य है और यह अमानवीय व्यवहार है। हम समझते हैं धर्म सदगुणों को धारण करने व उनके अनुसार व्यवहार करने को कहते हैं, अतः कोई भी धर्म अकारण व भोजनार्थ पशु की हत्या की अनुमति नहीं दे सकता। सारे देश में सरकार की ओर वेदों की अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था भी होनी चहिये। स्त्रि़यों का आदर व सम्मान होना चाहिये और सभी स्त्री-पुरुष नागरिकों को वैदिक संस्कृति के अनुसार आचरण-व्यवहार करने सहित आदर्श वेशभूषा को धारण करना चाहिये। जन्मना जातिवाद प्रतिबन्धित हो व पूर्णतया समाप्त हों। दलितों व पिछड़ों को शिक्षा में विशेष सुविधायें मिलनी चाहिये जिसका आधार उनकी सामाजिक व आर्थिक स्थिति होनी चाहिये। समाज में कोई दलित व पिछड़ा हो ही न अपितु सभी सामाजिक व आर्थिक दृष्टि उन्नत हो और सभी में परस्पर प्रेम व भातृभाव विकसित अवस्था में होना चाहिये। असत्य आचरण, अपरिग्रह व सच्चरित्रता को सामाजिक जीवन में अधिक महत्व दिया जाना चाहिये और इसके विपरीत की उपेक्षा होनी चाहिये। समाज में आध्यात्मिकता का विकास व विस्तार और साम्प्रदायिक विचारधारा पर अंकुश व प्रतिबन्ध होना चाहिये। जब यह व ऐसे सभी लक्ष्य प्राप्त हो जायेंगे तभी हमारी गणतन्त्र प्रणाली सफल मानी जा सकती है। क्या हम गणतन्त्र प्रणाली के आदर्श इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए काम कर रहें हैं, इस पर हमें आज के दिन विचार करना चाहिये। इन सभी प्रश्नों पर विचार करना व इनका हल ढूढंना ही गणतन्त्र दिवस को मनाना हमें प्रतीत होता है। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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