गृहस्थाश्रम की सफलता के उपाय प्रो. रामसिंह एम.ए.

 

वैदिक आश्रम मर्यादा में गृहस्थाश्रम दूसरा आश्रम है। इसे यदि चारों आश्रमों का आधार कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी। इस आश्रम की सफलता के लिए आवश्यक है कि आश्रम में प्रवेश के इच्छुक यथावत् ब्रह्मचर्य में आचार्यानुकूल वर्त कर, धर्म से चारों वेद या तीन या फिर दो अथवा एक वेद को सांगोपांग पढ़कर अखण्डित-ब्रह्मचर्य से युक्त पुरुष वा स्त्री गुरु की यथावत् आज्ञा लेकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपने वर्णानुकूल सुन्दर-लक्षणायुक्त कन्या से विवाह करें।

उत्तम कुल के लड़के और लड़कियों का आपस में विवाह होना चाहिए। जो कुल सत्क्रिया से हीन और सत्पुरुषों से रहित हों तथा जिनमें बवासीर, क्षय, दमा, मिरगी, श्वेतकुष्ठ और गलित कुष्ठाादि भयानक रोग हों, उनकी कन्या या वर के साथ विवाह होना अनुचित है, क्योंकि इस प्रकार के विवाहों से ये सब दुर्गुण और रोग अन्य कुलों में भी प्रविष्ट हो जाते हैं।

कन्या पिता के गोत्र की नहीं होनी चाहिए तथा माता के कुल की छः पीढ़ियों मेंाी न हो। साथ ही कन्या का विवाह दूर देश में होने से हितकारी होता है, निकट रहने में नहीं। दूरस्थों के विवाह में अनेक लाभ हैं तथा निकट विवाह होने में अनेक हानियों की सभावना रहती है।

जब स्त्री-पुरुष विवाह करना चाहें, तब विद्या, विनय, शील, रूप, आयु, बल, कुल, शरीर का परिमाण आदि यथायोग्य होना चाहिये। जब तक उपर्युक्त गुणों में मेल नहीं होता, तब तक गृहस्थाश्रम में कुछ भी सुख नहीं मिलता।

बाल्यावस्था में तो विवाह करने से सुख होता ही नहीं। जिस देश में ब्रह्मचर्य-विद्या-ग्रहण रहित बाल्यावस्था हो और जहाँ अयोग्यों का विवाह होता है, वह देश दुःख में डूब जाता है तथा जिस-जिस देश में विवाह की श्रेष्ठ विधि और ब्रह्मचर्य-विद्यायास अधिक होता है, वह देश सुखी और समृद्ध होता है। सोलहवें वर्ष से लेकरचौबीसवें वर्ष तक कन्या और पच्चीसवें वर्ष से लेक रअड़तालीसवें वर्ष तक पुरुष का विवाह-समय उत्तम है। इसमें जो सोलह और पच्चीस वर्ष में विवाह करें तो निकृष्ट, अठारह वर्ष की स्त्री, तीस, पैंतीस व चालीस वर्ष के पुरुष का विवाह मध्यम तथा चौबीस वर्ष की स्त्री और अड़तालीस वर्ष के पुरुष का विवाह होना उत्तम है।

ब्रह्मचर्य विद्या के ग्रहणपूर्वक, विवाह के सुधार ही से, सब बातों का सुधार और बिगाड़ने से बिगाड़ हो जाता है।

चाहे लड़का-लड़की मरण पर्यन्त कुँवारे रहें, परन्तु असदृश अर्थात् परस्पर विरुद्ध गुण-कर्म-स्वभाव वालों का विवाह काी न होना चाहिए।

परस्पर-सहमति

विवाह लड़के-लड़की की प्रसन्नता के बिना न होना चाहिये, क्योंकि एक दूसरे की प्रसन्नता से विवाह होने में विरोध बहुत कम और सन्तान उत्तम होती है। अप्रसन्नता के विवाह में नित्य क्लेश ही रहता है। विवाह में मुय प्रयोजन वर और कन्या का है, माता-पिता का नहीं, क्योंकि जो उनमें परस्पर प्रसन्नता रहे तो उन्हीं को सुख और विरोध में उन्हीं को दुःख होता है, इसलिये जैसी स्वयंवर की रीति आर्यावर्त्त में परपरा से चली आती थी, वही उत्तम है।

जब तक सब ऋषि-मुनि, राजा-महाराजा और अन्य आर्य लोग ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ कर ही स्वयंवर विवाह करते थे, तब तक इस देश की सदा उन्नति होती रही। जब से यह ब्रह्मचर्य से रहित विद्या की पढ़ाई और बाल्यावस्था में पराधीन अर्थात् माता-पिता के आधीन विवाह होने लगे, तब से क्रमशः आर्यावर्त्त देश की हानि होती चली आयी। इससे इस दुष्ट काम को छोड़ कर सज्जन लोग पूर्वोक्त प्रकार से स्वयंवर विवाह किया करें। विवाह वर्णानुक्रम से करें।

कईलोग आपत्ति करते हैं कि विवाह-बंधन में केवल दुःख भोगना पड़ता है, इसलिए यह क्यों न हो कि जिसके साथ जिसकी प्रीति हो, तब तक मिले रहें, प्रीति छूट जाने पर एक-दूसरे को छोड़ देवें। परन्तु इस प्रकार करने को हम पशु-पक्षी का व्यवहार मानते हैं, मनुष्यों का नहीं। जो मनुष्यों में विवाह का नियम न रहे, तो गृहस्थाश्रम के अच्छे-अच्छे व्यवहार नष्ट-भ्रष्ट हो जायें। कोई किसी की सेवा भी न करे और महा व्यभिचार बढ़ कर सब रोगी, निर्बल और अल्पायु हो शीघ्र ही मर जायें । भय-लज्जा भी न रहे। वृद्धावस्था में कोई सेवा न करे। कोई किसी के पदार्थों का स्वामी या दायभागी भी न हो सके  और न ही किसी का किसी पदार्थ पर दीर्घकाल पर्यन्त रहे। इन दोषों के निवारणार्थ विवाह ही होना सर्वथा योग्य है।

यह भी स्मरण रहे कि एक समय में एक ही विवाह उचित है, परन्तु समयान्तर में अनेक विवाह भी हो सक ते हैं। जिस स्त्री या पुरुष का मात्र पाणिग्रहण संस्कार हुआ हो और संयोग न हुआ हो-अर्थात् अक्षतयोनि स्त्री और अक्षतवीर्य पुरुष हो, उनका ऐसी ही अन्य स्त्री वा पुरुष के साथ पुनर्विवाह होना चाहिए।

विवाह-प्रयोजन

स्त्री और पुरुष की सृष्टि का यही प्रयोजन है कि वे धर्म से अर्थात् वेदोक्त रीति से सन्तानोत्पत्ति करें। ईश्वर के सृष्टि क्रमानुकूल स्त्री-पुरुष का स्वाभाविक व्यवहार रुक ही नहीं सकता, सिवाय वैराग्यवान् पूर्ण विद्वान् योगियों के। संसार में व्यभिचार और कुकर्म को रोकने का श्रेष्ठ उपाय ही है कि जो जितेन्द्रिय रह सकेंगे, वे विवाह न करें तो भी ठीक, परन्तु जो ऐसे नहीं हैं, उनका वेदोक्त रीति से विवाह अवश्य होना चाहिये। आपात्काल में नियोग भी आवश्यक है। इसी प्रकार से व्यभिचार न्यून तथा प्रेम से उत्तम सन्तान और स्वस्थ मनुष्यों की वृद्धि सभव है।

विवाह के प्रकार

विवाह आठ प्रकार के होते हैं- एक ब्राह्म, दूसरा दैव, तीसरा आर्ष, चौथा प्राजापत्य, पाँचवाँ आसुर, छठा गान्धर्व, सातवाँ राक्षस एवं आठवाँ पैशाच।

इन विवाहों की यह व्यवस्था है कि वर कन्या दोनों यथावत् ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्वान्, धार्मिक और सुशील हों, उनका परस्पर प्रसन्नता से विवाह होना ‘ब्र्राह्म’ कहलाता है। विस्तृत यज्ञ करने में ऋत्विक् कर्म करते हुए जामाता को अलंकार युक्त कन्या का देना ‘‘दैव’’, वर से कुछ लेकर विवाह होना ‘‘आर्ष’’, दोनों का विवाह धर्म की वृद्धि के अर्थ होना ‘‘प्राजापत्य’’, वर और कन्या को कुछ दे के विवाह होना ‘‘आसुर’’, अनियम- असमय किसी कारण से वर कन्या का इच्छापूर्वक परस्पर संयोग होना ‘‘गान्धर्व’’, लड़ाई करके बलात्कार अर्थात् छीन-झपट वा कपट से कन्या का ग्रहण करना ‘‘राक्षस’’, शयन व मद्यादि पी हुई पागल कन्या से बलात्कार संभोग करना ‘‘पैशाच’’ विवाह कहलाता है। इन सब विवाहों में ब्राह्म विवाह सर्वोत्कृष्ट, दैव और प्राजापत्य मध्यम, आर्ष आसुर और गान्धर्व निकृष्ट, राक्षस अधम और पैशाच महाभ्रष्ट है, इसलिए यही निश्चय रखना चाहिए कि कन्या और वर का विवाह के पूर्व एकान्त में मेल न हो, क्योंकि युवावस्था में स्त्री-पुरुष का एकान्तवास दूषणकारक है।

विवाह से पूर्व

जब कन्या या वर के विवाह का समय हो तो उनके अध्यापक अथवा माता-पिता उनके गुण, कर्म और स्वभाव की भली-भाँति परीक्षा कर लें। जब दोनों का निश्चय विवाह करने का हो जाय, तो यदि अध्यापकों के समक्ष विवाह करना चाहें तो वहाँ, नहीं तो कन्या के माता-पिता के घर में विवाह होना योग्य है। कन्या और वर के खान-पान का उत्तम प्रबन्ध वैवाहिक-विधि से पूर्व होना चाहिये, जिससे उनका ब्रह्मचर्यव्रत और विद्याध्ययनरूप तपश्चर्या से दुर्बल शरीर चन्द्रमा की कला के समान बढ़कर थोड़े ही दिनों में पुष्ट हो जाये।

पश्चात् उपयुक्त समय वेदी और मण्डप रचकरअनेक सुगन्धादि द्रव्य और घृतादि का होम करके वैदिक-विधि के अनुसार विद्वान् पुरुष और स्त्रियों के सामने पाणिग्रहणपूर्वक विवाह-विधि पूरी करें।

विवाह के पश्चात्

स्त्री और पुरुष अपने-अपने कर्त्तव्य को पूरी तरह समझें और जहाँ तक बन पड़े, वहाँ तक ब्रह्मचर्य के वीर्य को व्यर्थ न जाने दें, क्योंकि उस वीर्य वा रज से जो शरीर उत्पन्न होता है, वह अपूर्व उत्तम सन्तान होती है।

पुरुष वीर्य की स्थिति और स्त्री गर्भ की रक्षा और भोजन-छादन इस प्रकार करे, जिससे गर्भस्थ बालक का शरीर अत्युत्तम रूप, लावण्य, पुष्टि, बल, पराक्रमयुक्त होकर दसवें महीने में जन्म होवे। विशेष उसकी रक्षा चौथे महीने से और अतिविशेष आठवें महीने से करना योग्य है। कभी गर्भवती स्त्री रेचक, रुक्ष, मादक द्रव्य, बुद्धि और बलनाशक पदार्थों का सेवन न करे, किन्तु घी, दूध, उत्तम चावल, गेहूँ, मूँग,उर्द आदि खान-पान देश-कालादि के अनुसार करे। चौथे महीने में पुंसवन संस्कार और आठवें में सीमन्तोन्नयन विधि के अनुकूल करे।

सन्तान-पालन

बालक के जन्म के समय बालक और उसकी माता की सावधानी से रक्षा करनी चाहिये। शुण्ठीपाक और सौभाग्यशुण्ठीपाक प्रथम से ही तैयार रहना चाहिए। बालक और उसकी माता को सुगन्धियुक्त उष्ण जल से स्नान कराना भी उचित है। नाड़ी-छेदन यथा-विधि कराये। प्रसूति-गृह में सुगन्धादि युक्त घृत का होम करे। तत्पश्चात् बालक के कान में ‘वेदोऽसि’ – तेरा नाम वेद है सुनाकर, पिता मधु और घृत से बालक की जीभ पर ‘ओ3म्’ लिखे और शलाका से उसे चटा दे।

पश्चात् बालक और उसकी माता को दूसरे शुद्ध स्थान पर बदल दें और वहाँ नित्य सायं-प्रातः सुगन्धित घी का हवन करें। बालक छह दिन तक माता का दूध पिये। छठे दिन स्त्री बाहर निकले। सन्तान के दूधादि के लिए यथावत् प्रबन्ध करें। समर्थ हो तो कोई धाय रख ली जाये। बालक के पालन-पोषण में कोई अनुचित व्यवहार न हो।

पश्चात् नामकरणादि संस्कार ‘‘संस्कार-विधि’’ की रीति से यथाकाल करता जाये।

पुरुष के कर्त्तव्य

इस प्रकार स्त्री और पुरुष विधिपूर्वक गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए संसार में सुखपूर्वक रहें। पुरुष का कर्त्तव्य है कि सभी प्रकार से स्त्री को प्रसन्न रखे। जिस कुल में भार्या से भर्ता और पति से पत्नी अच्छे प्रकार प्रसन्न रहती है, उसी कुल में सौभाग्य और ऐश्वर्य निवास करते हैं। जिस घर में स्त्रियों का सत्कार होता है, उसमें पुरुष विद्यायुक्त होकर देव संज्ञा को प्राप्त होते हैं और आनन्द करते हैं। जहाँ स्त्रियों का सत्कार नहीं होता, वहाँ सारी क्रियायें निष्फल हो जाती हैं।

स्त्री के कर्त्तव्य

स्त्री को भी योग्य है कि अति प्रसन्नता से घर के कामों में चतुराई युक्त सब पदार्थों के उत्तम संस्कार तथा घर की शुद्धि रखे और व्यय करने में भी संकोच से काम ले, अधिक उदारता न दिखाये, अर्थात् यथायोग्य खर्च करे। पाकादि भी इस भाँति बनावे कि औषधरूप होकर शरीर और आत्मा में रोग न आने दे। आय-व्यय का ध्यान भी यथावत् रखे। घर के नौकर-चाकरों से यथायोग्य काम ले और घर के कार्यों में पूरी सावधानी बरते।

गृहस्थ के कर्त्तव्य

इस भाँति गृहस्थाश्रम में स्त्री-पुरुष परस्पर प्रेमपूर्वक रहें। बुद्धि-धनादि की वृद्धि करने वाले शास्त्रों को नित्य सुनें और सुनावें।

यथाविधि दिन और रात्रि की सन्धि में परमेश्वर का ध्यान और अग्निहोत्र अवश्य करना चाहिए।

पितृयज्ञ भी गृहस्थ का कर्त्तव्य कर्म है। श्रद्धा और भक्ति भाव से विद्यमान माता-पिता आदि पितरों की सेवा करना ही पितृयज्ञ और श्राद्धतर्पण है। परम विद्वानों, आचार्यादि की सर्वप्रकार से सेवा करना ही ऋषि तर्पण है।

वास्तव में माता-पिता, स्त्री, भगिनी, सबन्धी आदि तथा कुल के अन्य कोई भद्र पुरुष वा वृद्ध हों, उन सबको अत्यन्त श्रद्धा से उत्तम अन्न, वस्त्र, सुन्दर यानादि देखकर अच्छी प्रकार तृप्त करना, जिससे उनकी आत्मा तृप्त और शरीर स्वस्थ रहे-यही श्राद्ध और तर्पण है।

चौथा ‘वैश्वदेव’ यज्ञ है। जब भोजन सिद्ध हो जाये, तब उसमें से खट्टा, लवणान्न और क्षार युक्त को छोड़कर घृत-मिष्ट युक्त अन्न लेकर मन्त्रों से आहुति दे दें तथा कुछ भाग पत्ते या थाली में भी मन्त्रों से आहुति देते समय रखता जाय। यदि कोई अतिथि हो तो उसको दे दें, नहीं तो अग्नि में ही छोड़ देवें। इसी प्रकार किसी दुःखी प्राणी अथवा कुत्ते, कव्वे आदि के लिये भी छः भाग अलग रख दें- पश्चात् उनको दे दिये जायें।

अतिथि यज्ञ भी आवश्यक है। यदि अकस्मात् कोई धार्मिक , सत्योपदेशक, सबके उपकारार्थ सर्वत्र घूमने वाला पूर्ण विद्वान्, परमयोगी, संन्यासी गृहस्थ के यहाँ आ जाये तो उसका यथाविधि सत्कार करना, खान-पानादि से सेवा-शुश्रूषा करना परम कर्त्तव्य है। समयानुसार गृहस्थ और राजादि भी अतिथिवत् सत्कार करने योग्य हैं, परन्तु पाखण्डी, वेदनिन्दक, वेदविरुद्ध आचरण करने वालों का वाणी मात्र से भी सत्कार न करें-क्योंकि इनका सत्कार करने से ये वृद्धि को पाते हैं- संसार को अधर्मयुक्त करते हैं और अपने सेवकों को भी अविद्या रूपी महासागर में डुबो देते हैं।

इन पाँचों महायज्ञों का अत्युत्तम फल होता है। धर्म की वृद्धि होकर संसार में सुख का संचार होता है।

गृहस्थ को अपनी दिनचर्या का भी विशेष ध्यान रखना आवश्यक है। रात्रि के चौथे प्रहर अथवा चार घड़ी रात से उठे। आवश्यक कार्य से निवृत्त हो, धर्म और अर्थ, शरीर के रोगों का निदान और परमात्मा का ध्यान करे। अधर्म का आचरण कभी न करे।

अधर्मात्मा मनुष्य मिथ्याभाषण, कपट, पाखण्ड और विश्वासघातादि कर्मों से पराये धन और पदाथरें को लेकर बढता है, धनादि ऐश्वर्य, यान, स्थान, मान-आदि प्रतिष्ठा कोाी प्राप्त कर लेता है, परन्तु शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, जैसे जड़ से कटा हुआ वृक्ष। इसलिये गृहस्थों को उचित है कि पक्षपात रहित होकर सत्य का सदैव ग्रहण करें, असत्य का परित्याग करें। न्याय रूप वेदोक्त धार्मिक मार्ग ग्रहण करें तथा अन्यों को भी इसी प्रकार की शिक्षा दिया करें।

धर्म से धन को कमायें और ऐसे धन को सद् पात्र में ही व्यय करें, अपात्र में धन का दुरुपयोग न करें। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य, सत्यभाषण आदि तपरहित हैं, अशिक्षित हैं और दूसरों के धन पर ही अपना दाँत लगाये रखते हैं, उसी पर पलते हैं, ये तीनों प्रकार के अपात्र ही हैं। वे स्वयं भी डूबते हैं और अपने दाताओं को भी साथ डुबा लेते हैं।

इस प्रकार गृहस्थ इस लोक और परलोक का सदा ध्यान रखें। धर्म का सञ्चय धीरे-धीरे करता जाये, क्योंकि धर्म ही के सहारे से दुस्तर दुःख सागर को जीव तर सकता है।

गृहस्थ जीवन में- विवाह होने के पश्चात् स्त्री के साथ पुरुष और पुरुष के साथ स्त्री बिक चुके होते हैं। जो उनके पारस्परिक हाव-भाव, नख-शिखाग्र-पर्यन्त जो कुछ भी हैं- वह एक दूसरे के आधीन हो जाते हैं, अतः स्त्री वा  पुरुष एक दूसरे की प्रसन्नता बिना कोई व्यवहार न करें। इनमें बड़े अप्रियकारक काम व्यभिचार, वेश्या-परपुरुषगमनादि हैं। इनको छोड़के अपने पति के साथ स्त्री और स्त्री के साथ पति सदा प्रसन्न रहें।

वर्णाश्रम-व्यवस्था

जिस प्रकार गृहस्थ अपने विवाह वर्णानुक्रम से करते हैं, वैसे ही वर्ण-व्यवस्था भी गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार होनी चाहिये। जो उत्तम विद्या स्वभाव वाला है, वही ब्राह्मण के योग्य और मूर्ख शूद्र के योग्य होता है और ऐसा ही आगे भी होगा।

जो नीच भी उत्तम वर्ण-कर्म-स्वभाव वाला होवे तो उसकोाी उत्तम वर्ण में और जो उत्तम वर्णस्थ हो के नीचे काम करे, तो उसको नीच वर्ण में अवश्य गिनना चाहिये।

यजुर्वेद के इकत्तीसवें अध्याय के ग्यारहवें मन्त्र-‘‘ब्राह्मणोऽस्यमुखमासीद्’’का अर्थ भी यही है कि जो पूर्ण व्यापक परमात्मा की सृष्टि में मुख के सदृश सब में मुय-उत्तम हो, वह ब्राह्मण; बाहुबल-वीर्य जिसमें अधिक हो, वह क्षत्रिय; कटि के अधोभाग और जानु के उपरिस्थ भाग का ऊरु नाम है, जो सब पदार्थों और सब देशों में ऊरु के बल से जावे-आवे, प्रवेश करे, वह वैश्य और जो पग के अर्थात् नीचे अङ्ग के सदृश मूर्खत्वादि गुण वाला हो वह शूद्र है। यही बात मनु ने भी कही है कि शूद्र कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के समान गुण कर्म स्वभाव वाला हो तो वह शूद्र-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हो जाये और वैसे ही जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो और उसके गुण कर्म और स्वभाव शूद्र के सदृश हों तो वह शूद्र हो जाये। इसी प्रकार क्षत्रिय या वैश्य कुलोत्पन्न भी ब्राह्मण या शूद्र के समान होने से ब्राह्मण और शूद्र भी हो जाता है। चारों वर्णों में जिस-जिस वर्ण के सदृश जो-जो पुरुष वा स्त्री हो, वह-वह उसी वर्ण में गिनी जावे। इस विषय में अनेक प्रमाण हैं।

वर्ण-धर्म

चारों वर्णों के कर्त्तव्य, कर्म और गुण भी पृथक्-पृथक् हैं।

पढ़ना-पढ़ाना, यज्ञ करना-कराना, दान देना और लेना- ये छः कर्म ब्राह्मण के हैं। वास्तव में ‘‘प्रतिग्रह’’ लेना नीच कर्म है। ‘शम, दम, तप, शौच, क्षान्ति, आर्जव, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिक्य’- छः पहिले और नौ पिछले मिलाकर- यह पन्द्रह कर्म और गुण ब्राह्मण वर्णस्थ मनुष्यों में अवश्य होने चाहियें।

इसी प्रकार ग्यारह क्षत्रिय वर्ण के कर्म और गुण हैं- अर्थात् प्रजा-रक्षण, दान, इज्या- अग्निहोत्रादि यज्ञ करना-कराना, अध्ययन, विषयों में न फँसना, शौर्य, धृति (धैर्य), दाक्ष्य- राजा प्रजा सबन्धी व्यवहार और शास्त्रों में चतुराई, युद्ध से न डरना, न भागना, दान, ईश्वरभाव-पक्षपातरहित होकर सबके साथ यथायोग्य वर्तना, प्रतिज्ञा पूरी करना-ये क्षत्रियों के धर्म हैं।

वैश्यों के गुण-कर्माी इसी प्रकार गिनाये गये हैं- अर्थात् पशु-रक्षा, दान, इज्या (अग्निहोत्रादि), अध्ययन, वणिक्पथ (सब प्रकार के व्यापार करना), कुसीद (याज-सौ वर्ष में भी दूने से अधिक न लेना), कृषि (खेती) करना- यह सब वैश्य-कर्म समझे गये हैं।

शूद्र को सेवा का अधिकार है। वह भी इसलिये कि वह विद्या रहित है, मूर्ख है। जो विज्ञान-सबन्धी कुछ भी काम नहीं कर सकता और केवल शरीर से ही कार्य कर सकता है, वही उससे लेना उचित है। वर्णों को अपने-अपने अधिकार में प्रवृत्त करना राजा आदि सयजनों का काम है।

गृहस्थ का महत्त्व

इस प्रकार गृहस्थाश्रम (विवाह करके गृहस्थ बनना) बहुत महत्त्वपूर्ण आश्रम है। कुछ लोग पूछा करते हैं-यह आश्रम सब से छोटा है-अथवा बड़ा? हम तो यही कहते हैं कि अपने-अपने कर्त्तव्य कर्मों में सब बड़े हैं, परन्तु जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमते रहते हैं, जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं होते, वैसे गृहस्थ ही के आश्रय से सब आश्रम स्थिर रहते हैं। बिना इसके किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता। ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास तीनों आश्रमों को दान अन्नादि देकर गृहस्थ ही धारण करता है, इससे गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है, अर्थात् सब व्यवहारों में धुरन्धर कहलाता है। जो मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता है, वह प्रयत्न से गृहाश्रम को धारण करे।

जितना कुछ व्यवहार संसार में है, उसका आधार गृहस्थाश्रम है। जो यह गृहस्थाश्रम न होता तो सन्तानोत्पत्ति न होती- फिर ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम कहाँ से हो सकते?

जो गृहस्थाश्रम की निन्दा करता है, वही निन्दनीय है- जो प्रशंसा करता है, वही प्रशंसनीय है।

परन्तु स्मरण रहे यह पुण्य गृहस्थाश्रम दुर्बलेन्द्रिय अर्थात् भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने योग्य नहीं है, और गृहस्थाश्रम में सुखाी तभी होता है, जब स्त्री और पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न,विद्वान्, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता हों। इसलिये गृहस्थाश्रम के सुख का मुय कारण ब्रह्मचर्य और पूर्वोक्त स्वयंवर विवाह है। समावर्तन, विवाह और गृहस्थाश्रम के विषय में यह संक्षिप्त शिक्षा लिखी गयी है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *