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क्या हम अपने ही देश में रहते हैं?

 क्या हम अपने ही देश में रहते हैं?

– एम. वी. आर. शास्त्री

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में जो हुआ, वही सब कुछ हैदराबाद विश्वविद्यालय में घटित हुआ था। वहाँ देशद्रोह की घटना को दलित उत्पीड़न बना दिया गया। दिल्ली में उसका वास्तविक रूप सामने आ गया। हैदराबाद विश्वविद्यालय की घटना की वास्तविकता। पढ़िये ‘आन्ध्रभूमि’ के समपादक की लेखनी से।             – समपादक

 

भावनाओं की तीव्रता ने सच्चाई को छुपा दिया

पाकिस्तान के समर्थन को प्राप्त उग्रवादियों द्वारा मुंबई में किये गए बम विस्फोट में तीन सौ बेकसूर लोगों की जानें चली गयीं। याकूब मेनन इन षड्यंत्रों का सूत्रधार रहा, जिसे  दो दशकों के बाद पिछले साल फाँसी की सजा दी गई। भारत के नागरिकों ने इस बात को लेकर खुशी प्रकट की कि देर से ही क्यों न सही, इंसाफ हुआ, लेकिन भारत में रहने वाले पाकिस्तान के समर्थकों, उन बुद्धिजीवियों, जिनके दिमाग में घुन लग गया और कुटिल राजनीतिज्ञों ने याकूब को फाँसी की सजा देने पर अपनी प्रतिक्रिया जोर-शोर से व्यक्त की है।

इस अवसर पर हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में याकूब मेमन के समर्थकों ने जो हंगामा किया, उसे देख कर देशभर के लोग अवाक रह गये। विडंबना की बात यह है कि तीन सो लोगों की जानें लेने का जिममेदार खूँखार आतंकवादी याकूब को फाँसी की सजा देने के फैसले का विरोध करते हुए एक ख्यातिप्राप्त विश्वविद्यालय के परिसर में छाती पीट-पीट कर रोना और दिवंगत याकूब की आत्मा को शांति दिलाने की कामना करते हुए प्रार्थनाओं का आयोजन होना- हमें यह सोचने को मजबूर करने लगे हैं कि हम क्या अपने ही देश में रहते हैं? जुलूस निकाले गए। कई लोगों के हाथों में प्लेकार्ड पर लिखे गए इस नारे को देख कर लोग चकित रह गए कि ‘‘एक याकूब को फाँसी की सजा देने पर हर घर में एक-एक याकूब का जन्म होगा।’’

इसी विश्वविद्यालय के एक छात्र ने उस विश्वविद्यालय में होने वाली घटनाओं का जोरदार खण्डन किया, लेकिन उसने याकूब मेमन के समर्थकों के कार्य-कलापों को रोकने का प्रयत्न नहीं किया। किसी पर हमला नहीं किया। किसी के नाम को लेकर उसने किसी की निंदा नहीं की, लेकिन अपने ‘फेसबुक’ की ‘दीवार’ पर अपनी भाषा में उसने तो यह लिख दिया कि याकूब मेनन के समर्थकों ने विश्वविद्यालय में जो कुछ किया, वह गलत है। उसके विचारों में आपत्तिजनक कोई बात थी ही नहीं। एक देशद्रोही आतंकवादी का खुलेआम समर्थन करते हुए एक ‘अमरवीर’ के रूप में उसकी प्रशंसा करने का अधिकार जब दूसरों को मिला है, तो इस घटना की निन्दा करने की आजादी उस छात्र को क्यों नहीं मिलनी चाहिए?

लेकिन याकृब मेमन के समर्थकों ने ऐसा नहीं सोचा। ‘क्या तुम हम पर उँगली उठाने लायक बन गए हो’ कहकर आधी रात के समय में, लगभग तीस लोगों ने छात्रावास में घुसकर कमरे में उस पर हमला किया। उस छात्र को कितनी बुरी तरह से पीटा गया, इसका अब विशेष महत्त्व नहीं है।उस छात्र का विरोध करने वाले छात्र-नेताओं ने भी इसे स्वीकार किया कि वे लोग उस छात्र को बाहर के गेट तक खींच कर ले गए और सिक्योरिटी के कमरे में उस छात्र से अपने किये हुए पर क्षमा याचना करते हुए लेख लिखवाया। ‘फेसबुक’ में उस छात्र ने जो लिखा, उसे उसी छात्र से निकलवा दिया गया।

तो क्या यह अत्याचार नहीं है? यदि केन्द्रीय विश्वविद्यालय भारत की अपेक्षा पाकिस्तान के हैदराबाद में हुआ होता… यदि एक पाकिस्तानी को फाँसी की सजा दिये जाने की घटना का एक हिन्दुस्तानी छात्र ने समर्थन किया होता, तब हम स्थिति को समझ सकते हैं कि जोश में आकर छात्रों ने उसे क्यों पीटा। प्रश्न यह उठता है कि भारत के एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अपनी राष्ट्रीय भावनाओं को प्रकटकर जिस भारतीय छात्र ने राष्ट्रविरोधी प्रवृत्तियों को खण्डन किया तो क्या उसे कोई सुरक्षा नहीं मिलनी चाहिए? मानव-अधिकार और कानून द्वारा प्रदत्त अधिकार इस देश में केवल राष्ट्र-विरोधी ताकतों को ही क्यों मिलते हैं, राष्ट्र के समर्थकों को क्यों नहीं?

जिस छात्र पर हमला हुआ, वह तेलंगाना के एक पिछड़े वर्ग के एक सामान्य परिवार का सदस्य है। हमारे बुद्धिजीवियों द्वारा आठों पहर जिस ‘‘सामाजिक न्याय’’ की चर्चा की जाती है, उसी न्याय की मुखापेक्षिता को लेकर जीवन बिताने वाला एक सामान्य परिवार का सदस्य है। विश्वविद्यालय से उसे सामाजिक न्याय दिलाने की माँग उसकी माँ ने की है। अत्याचारी ताकतों ने उसकी माँ को रोक लिया। अंतिम विकल्प के रूप में उसने अदालत के दरवाजे खटखटाए। अदालत ने विश्वविद्यालय से इस घटना के बारे में विवरण देने को कहा। विश्वविद्यालय ने पाँच छात्रों को निलंबित कर दिया। इस निर्णय का खंडन करते हुए छात्र आंदोलन करने लगे। दुर्भाग्यवश एक छात्र ने आत्महत्या कर ली।

इस घटना के बाद देश भर के लोगों का ध्यान इस विश्वविद्यालय की तरफ गया। इन बातों की चर्चा सभी करने लगे कि क्या हुआ और उस छात्र ने क्यों खुदकुशी कर ली? तरह-तरह के विचार सामने आने लगे। यह कह कर हम किसी की बात को टाल नहीं सकते कि यह तर्कसंगत या सत्य-सममत नहीं है। किसी वर्ग की भावनाओं को नीचा दिखाने की आवश्यकता भी नहीं है। जो वाद-विवाद हो रहा है, उसकी चर्चा करना भी अपेक्षित नहीं है।

दिवंगत छात्र रोहित के माँ-बाप ने स्वयं कहा कि हम ‘‘वड्डेरा’’ जाति के हैं। ‘वड्डेरा’ जाति ‘ओ.बी.सी’ में आती है। उस छात्र का पिता भी यही कहने लगा कि हम वड्डेरा जाति के हैं। यदि यह सच है तो रोहित दलित वर्ग का नहीं था। समाचार साधनों द्वारा जो प्रचार हो रहा है कि रोहित अनुसूचित जाति का है, वह गलत है।

यदि रोहित दलित वर्ग का नहीं था, तो केन्द्रीय विश्वविद्यालय में दलितों पर अत्याचार होने के संर्दभो में जो आन्दोलन चल रहा है, उसे भी सरासर झूठ कहना नितांत उचित होगा। यह सत्य है कि देश में दलित समाज में शोषण, अपमान और उपेक्षा के कारण असंतोष रहा, वही इस विश्वविद्यालय के दलितछात्रों और अध्यापकों में भी मौजूद है। यह निर्विवाद है कि समाज के समष्टि के कल्याण की कामना रखने वालों का यह प्रथम कर्त्तव्य होना चाहिए कि दलित वर्ग के लोगों के मानसिक तनाव को दूर करने के लिए उनकी समस्याओं का अध्ययन करें और उन्हें दूर कर उनके प्रति सहानुभूति प्रकट कर उनके विकास में सहयोग दें। दलित वर्ग के लोगों में असहिष्णुता और असंतुष्टि के कई कारण हैं। विश्वविद्यालय के प्रशासकों की नीति और उनके निर्णय भी इसके कारण हो सकते हैं। दलित वर्ग के शोध-छात्रों को निलंबित करने के बारे में भी सोच-विचार करना आवश्यक है। इनकी जाँच करनी होगी। दोषियों को, चाहे कोई भी क्यों न हो, सजा देनी चाहिए । कई वर्षों से इस विश्वविद्यालय में जो अशांतिपूर्ण वातावरण मौजूद है उसमें बदलाव लाने की आवश्यकता है।

यह निर्विवाद है विश्वविद्यालय को मंच बनाकर जो राजनीतिक चालबाजी नेता लोग दिखाने लगे, उसे देखकर आम आदमी एक ही बात सोच रहा है कि याकूब मेनन के समर्थकों ने जो हंगामा किया, वही इन सारी घटनाओं के मूल में हैं, इसके बारे में कोई नहीं बोलता है। विश्वविद्यालय की पवित्रता को भंग करनेवाले लोगों को सजा देना आवश्यक है या नहीं? दुनिया भर में इस्लामी आतंकवाद का प्रकोप बढ़ रहा है। आई.एस.एस.  के समर्थक हैदराबाद और देश के कई प्रांतों में पकड़े जा रहे हैं। पठानकोट पर पाकिस्तान ने परोक्ष रूप से हमला किया। इस नेपथ्य में विश्वविद्यालयों में आतंकवादियों के समर्थन में जुलूस निकाल कर उनकी गतिविधियों को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों को राष्ट्र-विरोधी मुद्दे के रूप में स्वीकार करना आवश्यक है या नहीं?

यदि विश्वविद्यालय के प्रशासकों के गलत निर्णयों के कारण छात्रों को नुकसान होता है, तो विश्वविद्यालय की एक समस्या के रूप में इसपर प्रशासन के साथ छात्र-चर्चा कर न्याय की माँग कर सकते हैं। जिन अधिकारियों के निर्णयों के कारण उन्हें नुकसान हुआ, उन अधिकारियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने की माँग करते हुए छात्र आन्दोलन चला सकते हैं। इस मामले में केन्द्रीय मंत्रियों को खींचने की क्या आवश्यकता है? वे क्या कर सकते हैं? यदि एक छात्र-संघ केन्द्रीय मंत्री दत्तात्रेयजी को याकूब मेनन के समर्थकों के कुकृत्यों का विवरण देकर न्याय की माँग करता है तो संबंधित मंत्रालय को उस पत्र को भेजकर आवश्यक जाँच करवाने का अनुरोध वे करें, तो इसमें क्या गलती है? स्थानीय नेता के रूप में राष्ट्रविरोधी ताकतों के विरुद्ध कार्यवाही करने की माँग करना क्या उनका कर्त्तव्य नहीं है? एक राष्ट्र-विरोधी घटना से दलित छात्रों और दलित अध्यापकों का क्या सबन्ध है? क्या तीन सौ लोगों की जान लेने वाले आतंकवादी याकूब मेनन को श्रद्धांजलि देने के लिये समारोहों का आयोजन करना और उसकी मृत्यु पर चिंता प्रकट करना देश-द्रोह नहीं है? सह-केन्द्रीय मंत्री द्वारा माँग किये जाने पर सबन्धित विश्वविद्यालय को इस सबन्ध में जाँच करने और उचित कार्यवाही लेने का आदेश देना, क्या केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री का कर्त्तव्य नहीं होता? इस विषय की महत्ता को दृष्टि में रख कर कुछ महीने की कालावधि के बाद स्थिति की समीक्षा करना न्याय संगत नहीं है? इसका मतलब यह कैसे होता है कि मंत्री महोदय ने विश्वविद्यालय पर इस मामले को लेकर कार्यवाही करने का अनुचित दबाव डाला? किसी व्यक्ति के विरुद्ध कोई निर्णय लेने के पक्ष में मंत्री ने सुझाव दिया, इसका क्या सबूत है? यदि ऐसा नहीं तो केन्द्रीय मंत्रियों को दोषी ठहराना क्या उचित है? इस मामले को दलितों के विरुद्ध किये गए कारनामे के रूप में चित्रित किया गयाहै ।यदि मंत्री महोदय ने कहा कि यह दलितों और दलितेतरों की बीच के संघर्ष का मामला नहीं, तो इसमें क्या गलती है?

जिस छात्र ने खुदकुशी की, उसने स्वयं लिखा कि मेरी मृत्यु का कोई जिमेदार नहीं है और इस घटना का लेकर किसी को परेशान करने की जरूरत नहीं है। यह समझ में नहीं आता कि केन्द्रीय मंत्री रोहित की मृत्यु के जिमेदार कैसे होते हैं? एफ.आई.आर. में मंत्रियों के नाम लिखने की माँग करना कहाँ तक न्यायसंगत है?

जिस छात्र ने आत्महत्या कर ली, वह कायर नहीं था। वह साहसी युवक था, जिसने यह घोषणा की कि ‘‘मैं केसरिया रंग के ध्वज को फाड़ दूँगा और ए.बी.वी.पी., आर.एस.एस. और हिन्दूवाद से मुझे सखत नफरत है।’’ स्वामी विवेकानंद को मिथ्या बुद्धिजीवी मानने वाले ये छात्र क्या बुद्धिमान हैं? क्यों ऐसा छात्र विश्वविद्यालय के निर्णयों से डरेगा और खुदकुशी कर लेगा? ऐसा मानना युक्तियुक्त नहीं होगा कि यह छात्र आंदोलन को बीच में ही छोड़कर अपने जीवन का अंत कर लेगा? क्या स्मृति ईरानी जी या दत्तात्रेय जी ने अदृश्य रूप में उसके गले में फंदा डाल दिया? यह संभव नहीं। तो रोहित की मृत्यु का कोई अन्य प्रबल कारण हो सकता है। वह क्या है?

अंबेडकर छात्रसंघ और एस.एफ.आई. हर मुददे  को अपने पक्ष में मोड़ने की क्षमता रखते हैं। इसी कारण से रोहित ने अपने अंतिम बयान में इसका जिमेदार कोई नहीं लिख कर उन्हें दूर रखा ।यदि छात्रसंघ दो केन्द्रीय मंत्रियों के नाम एफ.आई.आर. में लिखने की माँग करता, तो रोहित के अंतिम बयान के अनुसार छात्र-संघ की इस धारणा में भूमिका की माँग आवश्यक नहीं है? (द हिन्दू पत्रिका से उद्धृत) क्या माननीय स्मृति ईरानी जी गगन बिहारी बनकर आई और ‘सिम’ निकाल लिया? आत्महत्या से जुड़ी कई शंकाओं की जाँच करवाने के आवश्यकता नहीं है? क्या छात्र-संघों की माँग की अनुरूप जाँच के पूर्व ही उन लोगों को सजा देना आवश्यक नहीं है?

दिल्ली की राजनीति में कई मुद्दों को लेकर स्मृति ईरानी से केजरीवाल के कई मतभेद हो सकते हैं। केन्द्रीय विश्वविद्यालय में हुई घटना को एक मौ के के रूप में पाकर केजरीवाल ने स्मृति ईरानी और मोदी सरकार पर आरोप लगाए। अंशकालिक राजनीतिज्ञ राहुल गाँधी जी नेशनल हेराल्ड के मामले में कारावास की सजा भुगतने के पूर्व मोदी सरकार पर आरोप लगाकर उसे गद्दी से हटाकर सरकार में आने का प्रयत्न करने लगे है। बिहार राज्य के चुनावों के पूर्व भाजपा के प्रति असहिष्णु रहने वाले राजनीतिक दल अब कुछ राज्यों में आने वाले चुनावों में भाजपा को परास्त करने इस मौके का फायदा उठाने लगे। एक छात्र की मौत से ये सभी फायदा उठाने का प्रयत्न करने लगे। मोदी सरकार को सत्ता से हटाने की ताक में लगे रहे राजनीतिक दल एक विश्वविद्यालय में दलित छात्रों और छात्र-संघों को अपनी क्रीड़ा में मोहरे बनाकर चाल चलने लगे हैं। क्या छात्रों के निलंबन को रद्द करने और केन्द्रीय मंत्रियों को इस्तीफा देने की माँग, जाँच के बिना न्यायसंगत है? क्या विश्वविद्यालय के छात्र इसका निर्णय कर सकते हैं कि केन्द्रीय सरकार में मंत्री कौन होगा?

पता नहीं, केन्द्रीय विश्वविद्यालय का मामला किस हद तक जाएगा और इसका अंत क्या होगा। एक केन्द्रीय मंत्री द्वारा दूसरे केन्द्रीय मंत्री को, राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों को रोकने और अपेक्षित जाँच करवाने की माँग करते हुए लेख लिखना अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लोगों पर अत्याचार विरोधी कानून के अन्तर्गत विचाराधीन होगा? एक पाकिस्तानी आतंकवादी की प्रशंसा करना कानूनी होगा? राष्ट्र-विरोधी ताकतों के विरुद्ध आवाज उठाना क्या बहुत बड़ी गलती होगी? इस प्रकार की विचार धारा हमें कहाँ ले जा रही है? इस नेपथ्य में यह प्रश्न उठ रहा है कि – क्या हम अपने ही देश में रहते हैं?

– समपादक ‘आन्ध्रभूमि’, हैदराबाद, तेलंगाना