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भगवान मनु ओर दलित समाज

मित्रो ओम |
मै जो लेख लिख रहा हु उससे सम्बंधित अनेक लेख आर्य विद्वान अपने ब्लोगों पर डाल चुके है| कई तरह की पुस्तके भी लिखी जा सकती है | जिसमे सबसे महत्वपूर्ण योगदान सुरेन्द्र कुमार जी का है| जिन्होंने मह्रिषी मनु के कथन को स्पष्ट करने का ओर मनु स्म्रति को शुद्ध करने का प्रसंसिय कार्य किया है| इस सम्बन्ध में आपने जितने भी लेख जैसे मनु और शुद्र,मनु और महिलायें आदि विभिन्न blogger द्वारा लिखे पढ़े होंगे |वे सब इन्ही की किताबो ओर शोधो से लिए गये है |हमारा भी ये लेख इन्ही की किताब से प्रेरित है|
मह्रिषी मनु को कई प्राचीन विद्वान ओर ब्राह्मणकार कहते है की मनु के उपदेश औषधि के सामान है लेकिन आज का दलित समाज ही मनु का कट्टरता से विरोध करता है | ओर बुद्ध मत को श्रेष्ट बताते हुए मनु को गालिया देता है ओर उनकी मनुस्म्र्ती को भी जलाते है | इसके निम्न कारण है :-
(१) मनु द्वारा वर्णव्यवस्था को बताना ..
(२) मनु पर जाति व्यवस्था को बनाने का आरोप
(३) मनु द्वारा स्त्री के शोषण का आरोप .
उपरोक्त आरोपों पर विचार करने से पहले हम बतायेंगे की मनु को हिन्दू विद्वानों ने ही नही बल्कि बुद्ध विद्वानों ने भी माना है | बौद्ध महाकवि अश्वघोस जो की कनिष्क के काल में था अपने ग्रन्थ वज्रकोपनिषद में मनु के कथन ही उद्दृत करता है| इसी तरह बुद्ध ने भी धम्म पद में मनु के कथन ज्यो के त्यों लिखे है..इनमे बस भाषा का भेद है मनुस्म्र्ती संस्कृत में है ओर धम्मपद पाली में ..देखिये मनुस्म्रती के श्लोक्स धम्मपद में :

अभिवादन शीलस्य नित्यं वृध्दोपसेविन:|

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्||मनुस्मृति अध्याय२ श्लोक १२१||
अभिवादन सीलस्य निञ्च वुड्दा पचभिनम्|
खतारी धम्मावड््गत्ति आनुपवणपीसुलम्||धम्मपद अध्याय ८:१०९||
न तेन वृध्दो भवति,येनास्य पलितं शिर: |
यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवा स्थविंर विदु:||मनुस्मृति अध्याय२:१५६||
न तेन चेरो सीहोती चेत्तस्य पालितं सिरो|
परिपक्को वचो तस्यं पम्मिजितीति बुध्दवति||धम्मपद ९:१२०||

iइन निम्न श्लोको को आप देख सकते है ,और धम्मपद के भी निम्न वाक्य देख सकते है जो काफी समानता दर्शाते है ..इससे पता चलता है की बुद्ध ओर अन्य बौद्ध विद्वान मनुस्म्रती से प्रभावित थे|
मनु द्वारा धर्म के १० लक्षणों में से एक अंहिसा को जैन ओर बुद्धो ने अपने मत का आधार बनाया था ..
अब मनु पर लगाये आरोपों की  संछेप में यहाँ विवेचना करते है :-
(१) मनु द्वारा वर्णव्यवस्था चलाना :
मह्रिषी मनु वर्णव्यवस्था के समर्थक थे लेकिन वे जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था के नहीं बल्कि कर्म आधरित वर्ण व्यवस्था के समर्थक थे जो की मनुस्म्र्ती के निम्न श्लोक्स से पता चलता है :-
शूद्रो ब्राह्मणात् एति,ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्|

क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च||
(मनुस्मृति १०:६५)
गुण,कर्म योग्यता के आधार पर ब्राह्मण,शूद्र,बन जाता है| ओर शूद्र ब्राह्मण|
इसी प्रकार क्षत्रिए ओर वैश्यो मे भी वर्ण परिवरितन समझने चाहिअ|

ओर महात्मा बुद्ध भी कर्माधारित वर्ण व्यवस्था को समर्थन करते थे ..वर्ण व्यवस्था का विरोध उन्होंने भी नही किया था|इस बारे में अलग से ब्लॉग पर एक नया लेख आगे लिखा जायेगा |
(२) मनु पर जातिवाद लाने का आरोप :-
ये सत्य है की मनु ने जाति शब्द का प्रयोग किया लेकिन ये इन लोगो का गलत आरोप है की मनु ने जाति व्यवस्था की नीव डाली ..मनु ने जाति शब्द का अर्थ जन्म के लिए किया है न की ठाकुर ,ब्राह्मण ,भंगी आदि जाति के लिए ..देखिये मनुस्म्रती से :-
 जाति अन्धवधिरौ(१:२०१)=जन्म से अंधे बहरे|

जाति स्मरति पौर्विकीम्(४:१४८)=पूर्व जन्म को स्मरण करता है|
द्विजाति:(१०.४)=द्विज ,क्युकि उसका दूसरा जन्म होता है|
एक जाति:(१०.४) शुद्र क्युकि विद्याधरित दूसरा जन्म नही होता है|

अत स्पष्ट है मनु जातिवाद के जनक नही थे …
(३) मनु पर नारी विरोधी का आरोप :-
मनुस्मृति में निम्न श्लोक आता है :-
पुत्रेण दुहिता समा(मनु•९.१३०)
पुत्र पुत्री समान है|वह आत्मारूप है,अत: पैतृक संपति की अधिकारणी है|
इससे पता चलता है कि मह्रिषी मनु पुत्र ओर पुत्री को समान मानते है |
मनु के कथन को निरुक्त कार यास्क मुनि उदृत कर कहते है :-
अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मत:|
मिथुनानां विसर्गादौ मनु: स्वायम्भुवोsब्रवीत्(निरूक्त३:१.४)
सृष्टि के आरंभ मे स्वायम्भुव मनु का यह विधान है कि दायभाग = पैतृक भाग मे पुत्र पुत्री का समान अधिकार है|
अत स्पष्ट है कि मनु पुत्री को पेतर्क सम्पति में पुत्र के सामान अधिकार देने का समर्थन करते थे ..
मनु से भारत ही नही विदेश में भी कई प्रभावित थे चम्पा दीप (दक्षिण वियतनाम ) के एक शीला लेख में निम्न मनु स्मरति का श्लोक मिला है :-
वित्तं बन्धुर्वय: कर्म विद्या भवति पञ्चमी|
एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यत्तरम्||[२/१३६|
इसी तरह वर्मा,कम्बोडिया ,फिलिपीन दीप आदि जगह मनु और उनकी स्मृति की प्रतिष्टा देखी जा सकती है|
लेकिन भारत में ही एक वर्ग विशेष उनका विरोधी है जिसका कारण है मनुस्म्रती में प्रक्षेप अर्थात कुछ लोभी लोगो द्वारा अपने स्वार्थ वश जोड़े गये श्लोक जिनके आधार पर अपने वर्ग को लाभ पंहुचाया जा सके ओर दुसरे वर्ग का शोषण कर सके ..
मनुस्मर्ती में कैसे और कोन कोनसे प्रक्षेप है इसे जानने के लिए निम्न लिंक पर जा कर विशुद्ध मनुस्मर्ती डाउनलोड कर पढ़े :
वही इस चीज़ को अपने वोट बैंक के लिए कुछ दलित नेता भी बढ़ावा देते है ताकि ब्राह्मण विरोध को आधार बना कर अपना वोट पक्का कर सके इसके लिए वै आर्ष ग्रंथो को भी निशाना बनाते है | एक दलित साहित्यकार स्वप्निल कुमार जी अपनी एक पुस्तक में लिखते है की मनु शोषितों ओर किसानो का नेता था|(भारत के मूल निवाशी और आर्य आक्रमण पेज न ६१) इनके इस कथन पर हसी आती है कि कभी मनु को मुल्निवाशी नेता तो कभी विदेशी आर्य ये लोग अपनी सुविधा अनुसार बनाते रहते है |
मनुस्म्रति से सम्बंदित इसी तरह के आरोपों के निराकरण के लिए निम्न पुस्तक मनु का विरोध क्यूँ अवश्य पढ़े जो की इसी ब्लॉग के ऊपर होम के पास दिए गये लिंक में है …
अंत में यही कहना चाहूँगा की प्रक्षेपो के आधार पर मनु को गाली न देवे इसमें महाराज मनु का कोई दोष नही है ..सबसे अच्छा होगा की मनुस्मर्ती से प्रक्षेप को हटा मूल मनु स्मृति का अनुशरण किया जाये जैसे की सुरेन्द्र कुमार जी की विशुद्ध मनुस्मृति ….
संधर्भित पुस्तके एवम ग्रन्थ :-(१) मनु का विरोध क्यूँ ?- सुरेन्द्र कुमार 
(२) विशुद्ध मनुस्मृति -डा सुरेन्द्र कुमार 
(३) निरुक्त -यास्क मुनि 
(४) वृहत भारत का इतिहास भाग ३-आचार्य रामदेव 
                                              (५) बोलो किधर जाओगे -आचार्य अग्निव्रत नेष्ठिक जी  

भावनाओं का स्वरूप : शिवदेव आर्य

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भावनाएं बड़ी विशाल होती हैं। भावनाओं के आधार पर ही हम प्राणी परस्पर व्यवहार करते हैं। जो भावनाओं के महत्व को समझ गया वह समझो इस बन्धरूपी संसार से मुक्त हो गया। इसलिए हम समझने का प्रयास करेंगे कि भावनाओं में आखिर क्या शक्ति है, जो इस संसार में हमें किसी का प्रिय बना देती हैं, किसी का अप्रिय, किसी का मित्र, किसी का दुश्मन आदि-आदि। संसार में ऐसा भी देखा गया है कि कोई किसी की भावनाओं में इतना ज्यादा आकृष्ट हो जाता है कि वह अपने बारे में सोचता तक नहीं।

यह एक वैज्ञानिक सत्य है कि जैसा भाव हमारे मन में सामने वाले के प्रति होता है वैसा ही सामने वाले के मन में भी होता है। यदि हम किसी के प्रति दुष्टता का विचार अपने मन में लायेंगे तो वैसा ही विचार वह भी हमारे लिए अपने मन मे लायेगा। इसलिए दुसरों के प्रति हितकर भावों को जागृत करें। इस प्रसंग में एक आख्यान स्मरण हो उठता है-कहते है कि एकबार राजा भोज की सभा में एक व्यापारी ने प्रवेश किया। राजा ने उसे देखते ही उनके मन में आया  कि इसका सब कुछ छीन लिया जाना चाहिये।

व्यापारी के जाने के बाद राजा ने सोचा-मैं प्रजा को हमेशा न्याय देता हूॅं। आज मेरे मन में यह कालुष्य  क्यों आ गया कि व्यापारी की सम्पत्ति छीन ली जाय? उसने अपने मन्त्री को पास आहुत कर पूछा कि ये विचार मेरे मन में ये  कैसे आ गये? मन्त्री ने कहा कि- इसका सही उत्तर मैं कुछ समय के पश्चात् दूॅंगा।

मन्त्री विलक्षण बुध्दि का था। वह इधर-उधर के सोच-विचार में समय न खोकर सीधा व्यापारी से मैत्री गाॅंठने के लिए पहुॅंच गया । व्यापारी से मित्रता करके पूछा कि तुम इतने चिन्तित क्यों हो? तुम तो भारी मुनाफे वाले चन्दन के व्यापारी हो।

व्यापारी बोला-धारा नगरी सहित अनेक नगरों में चन्दन की गाडि़याॅं भरे फिर रहा हॅूॅं, पर चन्दन नहीं बिक रहा। बहुत सारा धन इसमें फॅंसा पड़ा है। अब नुकसान से बच पाने का कोई उपाय नहीं है। व्यापारी की बातें सुनकर मन्त्री ने पूछा-क्या कोई रास्ता नहीं बचा? व्यापारी हॅंसकर बोला-अगर राजा भोज की मृत्यु हो जाये तो उनके दाह-संस्कार के लिये सारा चन्दन बिक सकता है।

मन्त्री को राजा का उत्तर देने की सामग्री मिल चुकी थी। अगले ही दिन मन्त्री ने व्यापारी से कहा-तुम प्रतिदिन राजा का भोजन पकाने के लिए एक मन चन्दन दे दिया करो और नगद पैसे भी उसी समय ले लिया करो। व्यापारी मन्त्री के आदेश को सुन कर बड़ा प्रसन्न हुआ। वह मन-ही-मन राजा को शतायु ;लम्बी आयुद्ध होने की कामना करने लगा।

एक दिन राजा की सभा चल रही थी। व्यापारी दोबारा राजा को वहाॅं दिखायी  दे गया  तो राजा सोचने लगा कि कितना आकर्षक व्यक्ति है, बहुत परिश्रमी है।  इसे कुछ उपहार देना चाहिए।

राजा ने पुनः मन्त्री को बुलाकर कहा कि हे मन्त्रीवर! यह व्यापारी प्रथम बार आया था, उस दिन मैंने   सवाल किया था, उसका उत्तर तुमने अभी तक नहीं दिया। आज इसे देखकर मेरे मन की भावनाएॅं परिवर्तित हो गई हैं, जिससे मेरे मन में अनेको प्रश्न उत्पन्न हो रहे हैं। इसे दूसरी बार देखा तो मेरे मन में इतना परिवर्तन कैसे हो गया?

मन्त्री ने उत्तर देते हुए कहा – महाराज! दोनो ही प्रश्नों के उत्तर आज ही दे रहा हूॅं। यह पहले आया था तब आपकी मृत्यु के विषय में सोच रहा था। अब यह आपके जीवन की कामना करता है, इसीलिए आपके मनमें इसके प्रति दो प्रकार की भावनाओं को उदय हुआ है। इससे सिध्द होता है कि हम जैसी भावना किसी के प्रति रखेंगे वैसी ही भावना वह व्यक्ति हमारे प्रति रखेगा।

-गुरुकुल-पौन्धा, देहरादून

 

बुद्ध मत मे नारिया

download (2)अम्बेडकर वादी कहते है की नारियो का सम्मान सिर्फ बुद्ध मत ही करता है जबकि हिन्दू वैदिक मत मे नारियो पर अत्याचार होते थे …ओर सती प्रथा ओर बाल विवाह आदि अन्य कुप्रथाए हिन्दुओ द्वारा चलयी गयी….लेकिन कई वैदिक विद्वानों ,आर्य विद्वानों द्वारा इसका संतुष्ट जनक जवाब दिया जाता रहा है ,,,

जैसे सीता जी की अग्नि परीक्षा पर ,सती प्रथा पर(*इस पेज पर भी एक पोस्ट इसी से सम्बंधित है )
लेकिन दुर्भावना से ग्रसित लोग आछेप करते रहते है ।
ओर वो भी कुछ प्रक्षेप को उठा कर ये लोग आक्षेप करते है ,,जैसे की मनुस्म्रती पर भी …जबकि मनुस्म्रति मे लिखा है :- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:।

अर्थात जहा नारियो की पूजा (सम्मान) होता है..वहा देवता निवास करते है..जहा नारियो का सम्मान नही होता वह सभी कर्म विफल होते है…लेकिन फिर भी ये लोग प्रक्षेप उठा कर यहाँ भी आरोप लगा देते है ..
इसी तरह ऋषि यागव्ल्क्य पर भी आरोप लगाते है । कि एक प्रश्न पूछने पर ॠषि ने गार्गी को मारने की धमकी दी..
खैर अब यहाँ इनके लगाये आरोपों की समीक्षा न कर,,,इनके प्रिय बुद्ध के विचार भी बता देना चाहता हु कि नारियो के बारे मे महात्मा बुद्ध के क्या विचार थे :-
 विनय पीतका के कुल्लावग्गा खंड के अनुसार गौतमबुद्ध ने कहा था की “नारी अशुध, भ्रष्ट और कामुक होती हैं.” ये बात
भी   साफ – साफ लिखी गई है की वो “शिक्षा ग्रहण” नही कर सकती..

अब बताये क्या बुद्ध मत नारियो के बारे मे जहर नही उगलता है।
(१) वेदों की कई मन्त्र द्रष्टा ऋषिय मे से ३० महिलाये है ..
 
(२) बुद्ध मत मे २८ बुद्ध है लेकिन एक भी बुद्ध स्त्री या शुद्र नही है,,जबकि पौराणिको मे देवताओ के साथ 
 साथ देविया भी है ,,
 
उपरोक्त सभी बातो से स्पष्ट है कि बुद्ध मत नारी जाती का सम्मान नही करता है ,,बस दिखावा करता है …  

दान का स्वरूप : शिवदेव आर्य गुरुकुल पौंधा, देहरादून (उ.ख.)

 

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मारी वैदिक संस्कृति में त्याग, सेवा, सहायता, दान तथा परोपकार को सर्वोपरि धर्म के रूप में निरुपित किया गया है, क्योकि वेद में कहा गया है – शतहस्त समाहर सहस्त्र हस्त सं किर अर्थात् सैकड़ों हाथों से धन अर्जित करो और हजारों हाथों से दान करो। गृहस्थों, शासकों तथा सम्पूर्ण प्राणी मात्र को वैदिक वाङ्मय में दान करने का विधान किया गया है।  दक्षिणावन्तो अमृतं भजन्ते, ‘न स सखा यो न ददाति सख्ये, पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि, शुध्द: पूता भवत यज्ञियासः५  इत्यादि अनेक मन्त्रों में दान की महिमा का विस्तृत वर्णन किया गया है। दान लेना ब्राह्मणों का शास्त्रसम्मत अधिकार है परन्तु वहीं यह भी निरुपित किया गया है कि दान सुपात्र को दिया जाए, जिससे कोई दुरुपयोग न हो सके।

 

प्रतिग्रहीता की पात्रता पर विशेष बल देते हुए याज्ञवल्क्य जी कहते है कि-सभी वर्णों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है, ब्राह्मणों में भी वेद का अध्ययन करने वाले श्रेष्ठ हैं, उनमें भी श्रेष्ठ क्रियानिष्ठ है और उनसे भी श्रेष्ठ आध्यात्मवेत्ता ब्राह्मण है। न केवल विद्या से और न केवल तप से पात्रता आती है अपितु जिसमें अनुष्ठान, विद्या और तप हो वही दान ग्रहण करने का सत्पात्र होती है।

 

न विद्यया केवला तपसा वापि पात्रता।

 

                                                 यत्र वृत्तमिमे चोभे तध्दि पात्रं प्रकीर्तितम्।। ६

 

दान के सम्पूर्ण फल की प्रप्ति सत्पात्र को दान देने से ही प्राप्त होती है। अतः आत्मकल्याण की इच्छा रखने वाले को चाहिए कि वह अपात्र को दान कदापि न दे, क्योंकि-

 

गोभूतिहिरण्यादि पात्रे दातव्यमर्चितम्।

 

नापात्रे विदुषा किंचिदात्मनः श्रेय इच्छता।।७

 

जिस समय जिस व्यक्ति को जिस वस्तु की आवश्यकता है, उस समय उसे वही वस्तु देनी चाहिए। यदि जो मनुष्य इस प्रकार दान देते है तो उनको वेद कहता है कि एतस्य वाऽक्षरस्य शासने ददतो मनुष्याः प्रशंसन्ति ऐसे दान देने वाले मनुष्य इस परमपिता परमेश्वर के शासन में सदैव प्रशंसा को प्राप्त होते है। गीता में श्रीकृष्ण जी महाराज कहते है कि –

 

यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।

 

                                                यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणम्।।९ 

 

यज्ञ, दान तथा तप इन तीन सत्कर्मों को कदापि नहीं छोड़ना चाहिए। यज्ञ, दान, तप मनुष्यों को पवित्र व पावन बनाने वाले हैं। श्रध्दा  एवं सामथ्र्य से दान के सत्य स्वरूप को जानकर किया गया दान लोक-परलोक दोनों में ही कल्याण करने वाला होता है।

 

जब यदि मन में धन संग्रह की प्रवृत्ति जागृत हो गई तो समझो वो अपने मुख्य उद्देश्य को छोड़कर अन्यत्र किसी अन्य लक्ष्य की ओर आकृष्ट हो गया है।

 

इसीलिए कहा गया है कि-

 

वृत्तिसप्रोचमन्विच्छेन्नेहेत धनविस्तरम्।

 

                                                धनलोभे प्रसक्तस्तु ब्राह्मण्यादेव हीयते।।१॰

 

ब्राह्मण को भी अपनी आवश्यकता पूर्ति लायक धन ही दान स्वरूप लेना चाहिए। धन-संग्रह का लोभ नहीं करना चाहिए। अब यह जानने की आवश्यकता है कि दान में कौन-सी वस्तु देनी चाहिए। जब हम वैदिक वाङ्मय में निहारते है तो हमें ज्ञात होता है कि – जिस व्यक्ति को जिस समय, जिस वस्तु की आवश्कता हो, उसे उस समय उसी वस्तु का दान देना चाहिए। दान की यदि कोई सच्ची पात्रता है तो वो है जिसे यथोचित समय पर यथोचित पदार्थ मिले, जैसे कोई भूखा हो तो उसे भोजनादि से तृप्त करना चाहिए, प्यासे को पानी पिलाना चाहिए, वस्त्रहीन को वस्त्र देने चाहिए, रोगी को ओषधी देनी चाहिए, विद्याभ्यासी को विद्या का दान कराना चाहिए इत्यादि परन्तु लिप्सता नहीं होनी चाहिए। इसी प्रसंग में एक दृष्टांट उद्धृत कर रहा हूॅं- एक दिन एक व्यक्ति महात्मा गाॅंधी के पास अपना दुखडा लेकर पहुॅंचा। उसने गाॅंधी जी से कहा-बापू! यह दुनिया बड़ी बेईमान है।  आप तो यह अच्छी तरह जानते हैं कि मैंने पचास हजार रूपये दान देकर धर्मशाला बनवायी थी पर अब उन लोगों ने मुझे ही उसकी प्रबन्धसमिति से हटा दिया है। धर्मशाला नहीं थी तो कोई नहीं था, पर अब उस पर अधिकार जताने वाले पचासों लोग खड़े हो गये हैं। उस व्यक्ति की बात सुनकर बापू थोड़ा मुस्कराये और बोले-भाई, तुम्हें यह निराशा इसलिये हुई  कि तुम दान का सही अर्थ नहीं समझ सके। वास्तव में किसी चीज को देकर कुछ प्राप्त करने की आकांक्षा दान नहीं है। यह तो व्यापार है। तुमने धर्मशाला के लिये दान तो दिया, लेकिन फिर तुम व्यापारी की तरह उससे प्रतिदिन लाभ की उम्मीद करने लगे। वह व्यक्ति चुपचाप बिना कुछ बोले वहाॅं से चलता बना। उसे दान और व्यापार का अन्तर समझ में आ गया।

 

अब हमें यह जानना चाहिए कि दान कैसे करना चाहिए इसके लिए तैत्तिरीयोपनिषद् में अवलोकन करते हैं कि श्रध्दया देयम्। अश्रध्दया देयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्।’११ जो कुछ भी दान में दिया जाये श्रध्दापूर्वक दिया जाना चाहिए । क्योंकि बिना श्रध्दा के किये हुए दान असत् माना गया है-

 

  अश्रध्दया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।

 

                                                  असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।१२

 

श्रध्दा पूर्वक देना चाहिये क्योंकि सारा धन तो उस परमपिता परमेश्वर का ही है। इसलिए उनकी सेवा में धन लगाना मेरा कर्तव्य है। जो कुछ मैं दान कर रहा हूॅं वह थोड़ा है, इस संकोच से दान देना चाहिये। अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार देना चाहिये। भय के कारण भी दान देना चाहिए परन्तु जो कुछ भी दिया जाय विवेकपूर्वक निष्काम भाव से कर्तव्य समझ कर देना चाहिए। ‘दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे’१३  इस प्रकार दिया गया दान परमपिता परमेश्वर को प्राप्त करने में अर्थात् मोक्ष प्राप्त करने में सहायक बन जाता है।

 

कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि यज्ञ, दान आदि पुण्ययुक्त कर्मों को करने से हम दरिद्र हो जाते है, हमारा धन, वैभव समाप्त हो जाता है तो मैं उन लोगों से कहना चाहॅंुगा कि दान करने से धन एवं विद्या की निरन्तर वृध्दि होती है, क्योकि शास्त्रों में कहा गया है कि

 

मूर्खो हि न ददात्यर्थानिह दारिद्र्य शंकया।

 

प्राज्ञस्तु विसृजत्यर्थानमुत्र तस्य ननु शंकया।।१४

 

अर्थात् दान देने से धन समाप्त हो जाऐगा या दरिद्रता आयेगी यह तो मूर्खों की सोच होती है। मूर्ख लोग दरिद्रता की आशंका में वशीभूत होकर दान न देकर पुण्य से वंचित रहते है और सदैव दुखों को भोगते रहते हैं।

 

अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा।

 

                                                अनुग्रहश्च दानं च शीलमेतत् प्रशस्यते।।

 

दरिद्रता को दूर करने का अमोघ शस्त्र है दान। दरिद्रता आदि दुःखों से दूर रहने का यहीं एकमात्र साधन है। दानशील पुरुष या स्त्री किसी भूखे, प्यासे, तिरस्कृतों का पालन-पोषण करके उन्हे तृप्त करते है तो वो सदा प्रसन्नता को प्राप्त करते है। वे सदा ही अपने जीवन में आनन्दित रहते है।

 

 दानं भोगो नाशस्तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।

 

                                    यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति।।१५

 

धन की तीन गतियाॅं होती है – दान, भोग और नाश। जो व्यक्ति धन का दान व भोग नहीं करता उसकी तीसरी गति अर्थात् नाश होती है।

 

हमारे शास्त्रों में धन की सबसे अच्छी गति दान है। दान देने से हमारा धन पात्र के पास पहुॅंच गया और उसकी जरुरी आवश्यकता पूर्ण हो गई। इसीलिए यह श्रेष्ठ गति है। अगर हम दान न देकर उसका भोग करेंगे तो आवश्यक-अनावश्यक कर्मों में व्यय होगा। यदि खर्च ही नहीं करेंगे तो तीसरी गति अर्थात् नाश को प्राप्त होगा। जैसे-जूए में हार जाना, चोरी हो जाना आदि। अतः सर्वोत्तम गति दान ही सिध्द होती है। क्योंकि दान के   माध्यम से अत्यन्त आवश्यकता वाले के उद्देश्य की पूर्ति होती है।

 

इसप्रकार दान देना हमारा कर्तव्य कर्म है-यह समझकर देना चाहिए। जहाॅं जब एवं जिस वस्तु की आवश्यकता हो तब दिया जाय एवं देश, काल तथा परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए सुपात्र को ही दिया जाये।

 

 

 

सन्दर्भ सूची:-

 

१. ऋग्वेद-३.२४.५।

 

२. ऋग्वेद-१.१२५.६।

 

३. ऋग्वेद-१॰.११७.४।

 

४. ऋग्वेद-५.५१.१५।

 

५. ऋग्वेद-१॰.१८.२।

 

६. याज्ञ.स्मृ.आ.२॰॰।

 

७. याज्ञ.स्मृ.आ.२॰१।

 

८. वेद।

 

९. गीता-१८.५।

 

१॰. कूर्मपुराण।

 

११. तैत्तिरीयोपनिषद्-१.११।

 

१२. गीता-१७.२८।

 

१३. गीता-१७.२॰।

 

१४. स्कन्दपुराण-२.६३।

 

१५. पंचतन्त्र।

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जन्म जात वर्ण व्यवस्था को पोषित करते श्री कृष्ण के छ्दम शिष्य – ऋश्व आर्य

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जन्म जात वर्ण व्यवस्था को पोषित करते श्री कृष्ण के छ्दम शिष्य – ऋश्व आर्य

आजकल वैश्वीकरण हो रहा है पारम्परिक शिक्षा के तरीके बदल चुके हैं और अभी वर्तमान में प्रचिलत तरीकों में भी तीव्रता से परिवर्तन देखने को मिल रहा है। वैश्वीकरण ने और पारम्परिक सामूहिक पारिवारिक वास की परंपरा भी समाप्त कर दी है। आजकल एकल परिवार की प्रथा चल रही है। व्यक्ति अपनी जीविका की तलाश में विदेशों तक जाने में नहीं हिचकिचाता। ऐसे समय में जब शैक्षिक उन्नति हो रही है जीवन जीने के तरीके बदल चुके हैं जाति प्रथा नामक दानव को समाप्त करने के लिए इतने अभियान चलाये गए और चलाये जा रहे हैं फिर भी कुछ लोगों को इस बुराई को अपनाये रखना और उसके समर्थन में social media पर वर्तमान समय में व्यर्थ का प्रलाप करना उनकी संकुचित मानसिकता को प्रदर्शित करता है.
गलत बात का लगातार समर्थन करना ऐतिहासिक प्रमाणों को झुठलाना, वेदों के आदेश को न मानना इनको हठधर्मी ही सिद्ध करता है। सभी जीव मात्र का पिता पालनहार परम पिता परमेश्वर है। परमपिता परमेश्वर प्रत्येक मनुष्य को समान अधिकार प्रदान करता है। ईश्वर ने सभी मनुष्यों को सामान अधिकार दिया है। समानता और सद्भाव से व्यवहार करने का आदेश दिया है।
श्री कृष्ण को ईश्वर का अवतार मानने वाले ये प्रपंची श्री कृष्ण के गीता ज्ञान के श्लोकों जिनमे सभी जीवों से समभाव का सन्देश दिया है जीवन में उतारने से कतराते हैं। जाती वाद के नाम पर दुष्प्रचार करने वालो आप श्री कृष्ण के परम भक्त होने का दम्भ भरते हो ! अरे राह से भटके हुए भाइयों जरा कृष्ण के गीता ज्ञान को पड़ तो लेते कि श्री कृष्ण ने ईश्वर भक्त के क्या लक्षण बताये हैं। क्या आप जैसे व्यक्ति जो मानंव मात्र को जन्म जात जाती प्रथा के आधार पर बांटकर अनेक प्रकार के अत्याचार करते हो , कहीं से भी श्री कृष्ण के शिष्य होने के अधिकारी हो ?
इश्वर भक्त के लक्ष्ण बताते हुए योगेश्वर श्री कृष्ण कहते हैं की ” विद्या विनय सम्पन्ने ब्रहामने गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिन: (गीता 5/18) प्रभु को सर्वत्र विद्यमान जानने वालाल मनुस्य्स विद्या विनय से युक्त ब्राहमण गौ हाथी कुत्ते और चंडाल आदि में सम रूप से अवस्थित प्रभु का प्रत्यक्ष अनुभव करता है और इन सबको सामान दृष्टी से देखता अर्थात व्यवहार करता है। जब मनुष्य हर व्यक्ती के अन्दर प्रभु का प्रतिरूप देखता है तो उसका उन प्राणियों के प्रति द्वेष की भावना जाती रहती है और वह समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ ब्राहमण से लेकर न्रिक्रिष्ठ चंडाल में तथा पशुओं में श्रेष्ठ गाय से लेकर पशुओं में निकृष्ट कुत्ते तक को समभाव से देखता है।
योगेश्वर श्री कृष्ण समस्त प्राणियों में सम दृष्टी रखने का एवं सभी के सुख दुःख को अपना सुख दुःख समझकर समद्रिष्टी रखने का उपदेश देते हुए कहते हैं कि

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति यो अर्जुन ।
सुखं वास यदि वा दुखम स योगी परमो मतः ।
हे अर्जुन जो अपने आपको उपमान रखकर अर्थात जैसा दुःख मुझे होता है ऐसा ही होता है यह समझकर समभाव से सबकी सेवा करता है उसे परम योगी माना जाता है। शंकर ने अपने गीता भाष्य में इस श्लोक की व्याख्या करते हुए लिखा है की जो मनुष्य यह समझ जाता है की जैसे मुझे अनुकूलता में सुख और प्रतिकूलता में दुःख का अनुभव होता है वैसे ही दूसरों को भी अनुकूलता में सुख और प्रतिकूलता में दुःख होता है वह कभी किसी के प्रतिकूल आचरण नहीं करता है।
जयदयाल इसी का भाष्य करते हुए तत्वाविवेचनी में लिखते हैं की सर्वत्र आत्मदर्शी हो जाने के कारण समस्त विराट विश्व उसका स्वरुप बन जाता है। जगत में उसके लिए दूसरा कुछ रहता ही नहीं। इसलिए जैसे मनुष्य अपने आपको कभी किसी प्रकार ज़रा भी दुःख पहुंचाना नहीं चाहता तथा स्वाभाविक ही निरंतर सुख पाने के लिए ही अथक चेष्टा करता रहता है ऐसा करके न वह कभी अपने पर अपनेको कृपा करने वाला मानकर बदले में कृतज्ञता चाहता है न कोई अहसान करता है और न अपने को कर्त्तव्य परायण समझकर अभिमान ही करता है वह अपने सुख की चेष्टा इसीलिये करता है की उससे वैसा किये बिना रहा ही नहीं जाता यह उसका सहज स्वभाव होता है ठीक वैसे ही वह योगी समस्त विश्व को कभी किसी प्रकार किंचित भी दुःख न पहुंचाकर सदा उसके लिए सहज स्वभाव ही चेष्टा करता है।

काश इस मूढ़ प्राणियों ने श्री कृष्ण के छदम शिष्य होने के दम्भ न भरकर ईश्वर प्राप्ति भक्ति में सार्थक प्रयत्न किया होता तो ब्रह्म की निकटता में मन की यह मलीनता दूर हो गयी होती और श्री कृष्ण की तरह ये भी समस्त जीवों में ईश्वर का वास अनुभव कर सकते और सम भावना का व्यवहार करने में समर्थ होते।

लड़के लड़कियों की सम्मिलित शिक्षा

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लड़के लड़कियों की सम्मिलित शिक्षा

                                  वैदिक आदर्श यह है की लड़के और लड़कियों की शिक्षा एक जगह न होकर पृथक पृथक होनी चाइये इसी में समाज का और देश का हित है और तब ही उत्तम सदाचारी नागरिक पैदा किये जा सकते है परन्तु पश्चिमी सभ्यता के दीवाने लड़के और लड़कियों की एक साथ शिक्षा को उच्च संस्कृति का चिन्ह समझते हुए उसे उन्नत और उपयोगी समझते है और पुराने सिद्धांतों को गली सडी और बेहूदा पागलो की बातें कह कर उनकी मखौल उड़ाते है | इस बात की पुष्टि में यह लोग यूरोप और अमेरिका की दलीले पेश करते है परन्तु उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि उन देशो कि अवस्थाये और आदर्श इस देश की अवस्थाओ और आदर्शो से सर्वथा भिन्न है और भिन्न-भिन्न अवस्थाओ उअर परिस्तिथियों और आदर्शो में समान व्यवस्थाए व्यावहारिक और उपयोगी हो यह संभव नहीं हो सकता | समाज का जो आदर्श पश्चिम में है उससे स्वयं वे देश भी अब ऊब गए है और उसे सुधारने के यत्न और सुख शांति की खोज करने लगे है | परन्तु हमारे ये दीवाने अभी तक इन परिवर्तनों को देखते और सुनते हुए पश्चिमो आदर्शो के भयंकर परिणामों और समाज की दूषित अवस्था को देखते हुए भी उन्ही का दम भरते और उन्ही की नक़ल करने में गौरव अनुभव करते है | दुःख तो उस समय होता है कि जब पौर्वात्य संस्कृति का पक्षपाती आर्य समाज भी इस रोग में ग्रसित होता चला जा रहा है और ऋषि दयानंद कि शिक्षा और वैदिक सिद्धांतों कि अवहेलना करता हुआ अपने गौरव को धक्का पहुँचा रहा है | हम इन लड़कियों के अभिभावकों से प्रार्थना करते है कि वे दूरदर्शिता और विवेक से काम ले और अपनी पुत्रियों को उस स्कूल से बुला ले अन्यथा वे शिर पकड़ कर रोयेंगे और अपने दुश्मन स्वयं बनेगे |

सम्मिलित शिक्षा के सम्बन्ध में हम एक प्रसिद्ध शिक्षा विशेषज्ञ के विचार पाठकों कि जानकारी के लिए यहाँ उद्भूत करते है | हमे आशा है कि पाठक इन्हें उपयोगी पायेंगे |

“ अनुभव बतलाता है कि यूरोप और अमेरिका कि नक़ल हमारे देश के लड़के और लड़किया को सम्मिलित शिक्षा के लिए कभी उपयोगी नहीं हो सकती | भारत में जहाँ जहाँ सम्मिलित कॉलेज है वहाँ वहाँ के परिणाम खराब निकल चुके है | दक्षिण के एक खास नगर में किसी विशेष कॉलेज के एक साथ पढ़ने वालो के कुत्सित फलो को हम सुना करते थे, बम्बई के मेडिकल कॉलेज में जहाँ पारसी लड़किया और हिंदू लड़के पढते है वहाँ पारसी लड़किया हिंदू लड़कों से शादी करने पर तय्यार सुनी जाती है | पारसी लोग ऐसी बात से बहोत घबराते है | वास्तव में इसका इलाज घबराना नहीं वरन यह है कि सम्मिलित शिक्षा न हो |

यूरोप और अमेरिका में जहाँ यह त्रुटि व्यापक थी वहाँ ईश्वर कि कृपा से अब जर्मनी के LAHELAND  नामक नगर में एक आदर्श शिक्षणालय अर्थात “ जर्मन कन्या गुरुकुल “ खुला है जिसमे केवल लड़किया ही पढ़ती है और पढाने वाली भी स्त्रिया ही है | सब प्रबंध स्त्रियों के हाथ में है | यूरोप और अमेरिका भर में इसकी चर्चा है |

मूर्तिपूजा-अवैदिक

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ओउम्

प्राक्कथन

यद्यपि प्रस्तुत पुस्तक छोटी है परन्तु लेखक ने इस विषय वस्तु से सम्बंधित अनुच्छेदों के संकलन में संभवतः सभी यूरोपीय आधिकारिक सूत्रों से विचार-विमर्श किया है और आशा है कि ध्यान आकर्षण करने वाले ये सभी अनुच्छेद पाठकगणों के विश्वास प्राप्त करेंगे।

प्रसिद्धआर्य समाज विद्वानों द्वारा पुनरावलोकन

(१) इस छोटी पुस्तिका में स्वामी मंगलानंद पूरी ने यूरोपीय और भारतीय संस्कृत विद्वानों और कुछ इतिहासकारों के भी विचारों का संकलन करके यह सिद्ध किया है कि मूर्तिपूजा वेद सम्मत नहीं है। जिन लोगों की ऐसी धारणा है कि मूर्तिपूजा वेद सम्मत है उनके लिए ये पुस्तिका विशेष लाभकारी है। वैदिक विचारधारा से अनभिज्ञ जनसामान्य में ये पुस्तिका निशुल्क वितरित की जानी चाहिए।

घासीदास, एम.ए. एल.एल.बी.

अधिष्ठातागुरुकुल ब्रिन्दाबन एवं अध्यक्ष आर्य प्रतिनिधि सभा उ.प्र.(मेरठ)

(२) स्वामी मंगलानंद पूरी द्वारा मूर्तिपूजा-अवैदिक पुस्तिका: लेखक ने शब्दों के  पक्के और विश्व के प्रसिद्ध यूरोपीय और एशियाई सूत्रों के अच्छे-खासे लेखोंका संकलन करके यह स्थापित किया है कि वेदों में मूर्तिपूजा का कोई समर्थन नहीं है और सफलतापूर्वक यह सिद्ध किया है कि मूर्तिपूजा का मूल इसाई मत में है ।

यह पुस्तिका निर्देशात्मक और रुचिपूर्ण है साथ ही दिए गए उद्धरण प्रेरणादायक और लाभकारी हैं। कम मूल्य में पुस्तिका उपलब्ध करा कर लेखक ने निश्चय ही असाधारण काम किया है।

बाबूश्याम सुन्दरलाल बी.ए. एल.एल.बी.

अधिवक्ता, अध्यक्ष आर्य समाज मैनपुरी

(३) लेखक धन्यवाद के अधिकारी हैं जिन्होंने इतनी अच्छी पुस्तिका बनाई जो सभाओं और समाजों द्वारा महाविद्यालयऔर विद्यालय के उच्च कक्षाओं के छात्रों को वितरित की जानी चाहिए। शुल्क यद्यपि कम है पर महत्व की दृष्टी से यह पुस्तिका अनमोल है और महाविद्यालय के नवजवान छात्रों की अध्यात्मिक उन्नति केलिए विशेष रूप से लाभदायक है जिससे उन्हें परमात्मा के निराकार स्वरुप की उपासना की शिक्षा मिलेगी ।

श्रीमान राव (मास्टर) आत्मा राम जी अमृतसरी

आर्य समाज के श्रेष्ठ नेताओ में से एक

 

                                                                                                                                    ओउम्

मूर्तिपूजा-अवैदिक

यूरोपीय व्याख्यानों में

आज के समय में एक हिन्दू सामान्यतःमूर्तिपूजक होता है परन्तु आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती ने पूरेविश्व को बताया कि ना तो पुरातन कालीन हिन्दू (आर्य) मूर्तिपूजक थे ना ही वेदादि सत्यशास्त्रों और आर्ष ग्रंथों में मूर्तिपूजा का लेशमात्र भी संकेत  हैं।

स्वामी जी की सत्यता इसी से प्रमाणित होती है कि अन्य पक्षपात रहित वेद विद्वान भी इसी निर्णय पर पहुंचे और मूर्तिपूजाका पुरजोर विरोध किया।अतः हम यहाँ यूरोपीय एवं अन्य संस्कृत विद्वानों को उद्धृत कर रहें हैं। हम पाठक को अपने विवेक के सहारे निर्णय पर पहुचने की स्वच्छंदता प्रदान करते हुए अनुरोध करेंगे कि यहाँ संकलित सभी मतों को यथोचित महत्व प्रदान करते हुए इनका लाभ एवं मार्गदर्शन लें  |

प्रथम अध्याय

यूरोपीय जन मूर्ति पूजा विषय पर

(१)  सरमोंलर विलियम्स (sir Monler Williams) लिखतें हैं :- “मनु स्मृति* के संकलन काल में मूर्तिपूजा के अस्तित्व के विषय में घोर संशय है”( इंडियन विजडम पृष्ट २२६)

(२)  जे.आई. वीलर(J.I. Wheeler) कहतें हैं :- “ऐसा प्रतीत होत्ता है जैसे कोई मंदिर नहीं थे और वे(आर्य या पुरातन कालीन हिन्दू)खुले वातावरण में या हर मकान के एक विशेष गृह में हवन किया करते थे” (वीलर्स हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया इंट्रोडक्शन पृष्ट ११)

(३)  प्रोफेसर डब्लू.डी. ब्राउन कहतें हैं :- “विचारवान छात्रों के लिए कई प्रबल प्रमाण यह सिद्ध करतें हैं कि पूर्व में हिन्दू मूर्तिपूजक ना थे और ना ही अशिक्षित, निर्दयी और असभ्य थे”

(४)  श्रीमान मिल कहतें हैं :- “मूर्तिपूजापूर्ण रूप से आगे विकसित हुई है। श्रेष्ठ निराकार मान्यताओं से समक्रमण ना स्थापित कर पाने वाली बुद्धि की यह उपज है। पतन अपनी व्याख्या स्वयं करता है। कपट ढोंग आदि मतान्धता और एकेश्वरवाद के पतन के प्रमुख कारण हुए। यह ढोंग स्वतंत्र देवीदेवताओं की विविधता नहीं थी वरन विशेष आयोजनों के मुख्य देव और आहावन था।“ (मिल्स ब्रिटिश इंडिया पृष्ट ११७ मई१९१८को वैदिक पत्रिका में प्रकाशित)

(५)  मक्स्मुलर लिखते हैं :- “कभी कभी यह भी कहा जाता है की वैदिक धर्म का लोप हो चुका है क्यूंकि तांत्रिकों एवं पुराणिकों द्वारा प्रतिपादित ब्राह्मणिक धर्मशिव, ब्रह्मा और विष्णु के विभिन्न रूपों के डरावने मूर्तियों की पूजा करते हैं” | (ओरिजिन एंड ग्रोथ ऑफ़ रिलीजन्स पृष्ट १५४)

(६)  मक्स्मुलर आगे लिखते हैं :- “यदि हम वसिष्ठ या विश्वामित्र या अन्य किसी आर्य कवि से पूछ पातेकि क्या वे सूर्य, जो आग का गोला है,वह हाथ पैर ह्रदय स्नायु आदि युक्त देहधारी है? तो निसंदेह वे हमारे प्रश्न पर ठहाके लगाते हुए कहते की हमने उनकी भाषाएँ जान कर भी उनके मंतव्यों को नहीं जाना।“(ओरिजिन एंड ग्रोथ ऑफ़ रिलीजन्स पृष्ट २७५)

(दूसरा अध्याय जो मक्स्मुलर के विचारों पर था वह अनुवादक को प्रयास करने पर भी प्राप्त नहीं हुआ अतः अनुवादक ने उनके कुछ प्राप्त अंशों को प्रथम अध्याय में ही जोड़ दिया है।)

द्वितीय अध्याय

मूर्तिपूजा पर आर.सि. दत्त

प्रसिद्ध भारतीय विद्वान रोमेशचन्द्रदत्त जो किसी भी रूप से आर्य समाजी भी नहीं हैं लखते हैं:

(१)ऋग्वेद में मूर्ति का कोई संकेत ही नहीं हैं, ना ही किसी पूजागृह और ना ही मंदिरों में।

(सिविलाइज़ेशन ऑफ़ अन्सिएंट इंडिया कितब१ पृष्ट ६६)

(२)और रेखागणित के व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा का महत्व उस समय ख़तम हो गया जब पुराणिक काल में चित्र आदि जड़ पूजा प्रचलित हुई और भक्तों के घर से समिधाग्नि शांत हो गयी और लोगों ने वेदी बनाने की विद्या भुला दी।

(सिविलाइज़ेशन ऑफ़ अन्सिएंट इंडिया किताब १ पृष्ट २६९ २७४)

(३) आगे वह लिखतें हैं :

“… और कोई मूर्तिपूजा का ज्ञान ना था”

(क)बौद्ध मत में मूर्तिपूजा इसाई कालके सदियों बाद आई इसलिए मूर्तिपूजा बौद्धों द्वारा शुरू हुई ऐसी शंका करना असंभव तो नहीं हैं।

(ख)ऐसा अनुमान है मनु स्मृति के संकलन काल में बौद्धों द्वारा पूजा का प्रचालन बढ़नेपर पुर्वग्रहियों द्वारा विरोध हुआ।

(ग)मूर्तियों की पूजा का विधान हिन्दुवों में बौद्ध आन्दोलन तक ना था और बौद्ध मत के प्रचार के साथ यह विकसित हुई।

(घ)मनु …क्रोधपूर्वक मूर्तिपूजकों को शराब और मांस बेचने वालो की श्रेणी में रखते हैं।

(सिविलाइज़ेशन ऑफ़ अन्सिएँट इंडिया कितब२ पृष्ट १८९-१९५ )

(४)पुरातन काल में अग्न्याधानकी एक छोटी सि विधि सभी गृहस्तों के जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग था, जब हर किसी द्वारा अपने हवनकुंड में ही ईश्वारुपसना की जाती थी और मंदिरों-मूर्तियों से सभी अनभिज्ञ थे।

(हिज सिविलाइज़ेशन किताब १ पृष्ट१८४)

(५)तीर्थों के विषय में आर.सि.दत्त लिखते हैं :

तीर्थभ्रमण, जो पुरातन काल में नगण्य या अनजाने थे, का मूर्खतापूर्ण तरीके से आयोजन होने लगा। नये-नये भगवान, नयी-नयी मूर्तियाँ-चित्र एवं मंदिरों भारत की भूमि एवं भोले-भालेश्रद्धालुओंके ह्रदय में जन्म लिया।“

(सिविलाइज़ेशनकिताब २ पृष्ट१९५)

(६)आगे श्री दत्त लिखते हैं :

“६२० ईस्वी में चीनीयात्री होव्न सॉंग के आगमन काल में जगन्नाथपुरी के विशाल मंदिर का लेश भीना था।“

(सिविलाइज़ेशन किताब २ पृष्ट १५१)

 

तृतीय अध्याय 

मूर्तिपूजा पर एल्फिन्स्तों

(१) श्री एम.एल्फिन्स्तों लिखतें हैं :

“दृश्यपदार्थ और चित्रों की पूजा का कोई विधान नहीं दिखाई पड़ता”

(एल्फिन्स्तों हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया पृष्ट ४०)

(२)आगे श्री एल्फिन्स्तों लिखते हैं :

“…. औरसाथ ही, उन्होंने ना तो मंदिर ही खड़े किये ना ही सच्चेईश्वर के प्रतिक की पूजा करते थे”

(एल्फिन्स्तों हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया पृष्ट ९३-९४)

(३)आगे जोड़ते हुए लिखतें हैं :

“श्रीमान कॉलेब्रोक स्वयं को पांच  प्रकार के पवित्र कर्मों(पञ्चमहायज्ञ) तक ही सिमित रखतें हैं जो मनु के काल से चली आ रही हैं परन्तु वर्तमान समय में एक विशेष प्रकार की पूजा का विधान है जो पहले भारतीय समाज में ना था, परन्तु अब ये विधान एक प्रधान कर्म हो चला हैं।

ये विधान हैं मूर्तियों की पूजा का, जिनके सामने अनेक प्रकार के नमन और स्तुतियों का रोज़ का विधान हैं।”

(एल्फिन्स्तों हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया पृष्ट ११०)

 

 

चतुर्थ अध्याय 

मूर्तिपूजा पर विल्सन

(१)प्रोफेसर एस.एस.विल्सन लिखतें हैं :

“वेदों में मंदिरों का कहीं संकेत नहीं है ना ही किसी सामूहिक भवन का वर्णन ही मिलता हैं, साफ़ है कि पूजा पूर्णतः घरेलु थीं”

(विल्सन्स ऋग्वेद इंट्रोडक्शन किताब १ पृष्ट XV)

(२)पुनः लिखतें हैं :

“अब तक हमारी जितनी जानकारी हैं, शिव,महादेव,काली,दुर्गा,राम और कृष्ण के नाम वेदों में नहीं मिलते, एक रूद्र नाम आता है जिसे बाद में शिव ही मान लिया गया।“

(आइबीडपृष्टxxvi)

(३)आगे लिखते हैं :

“ औरआज जिस रूप में भारतवर्ष में पूजा होती हैं, अर्थात लिंग की पूजा, उसका नाम मात्र भी संकेत , कम से कम पिछली १० शताब्दियों में नहीं मिलता। ना ही कोई संकेत ब्रह्मा, विष्णु और महेश, त्रिमूर्ति का ही प्राप्त होता है।“                       आइबीड XXVII

(४)आगे श्रीमान लिखतें हैं :

“और फिर भी मनु ना किसी अवतार,ना राम और ना ही कृष्ण कोइंगितकरतेंहैं। अतः यही माननीय हैं कि वे रामायण और महाभारत काल के बाद विकसित हुई पूजा पद्दति के पूर्व कालीन हैं।“

(५)श्री मिल्स एच.एच.विल्सन के विचारों को इस प्रकार उद्धृत करते हैं:

“…. परन्तु वे(ब्राह्मण) पगान पादरियों की तरह या यहूदियों की तरह कभी भी सार्वजानिक पूजा का आयोजन, व्यक्ति विशेष के लिए पूजन, मंदिरों में पूजन यामूर्तियों का पूजन नहीं करते थे।

जोब्राह्मणमूर्तियों की पूजा करता उसेपतित और धार्मिकआयोजनों में ना बुलाया जाता”

(मनुII१५२,१८०)-(मिल्सहिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया कितब२पृष्ट १९२)

(७)  श्रीएच.एच.विल्सन पुनः बताते हैं-

“परन्तु पूजनीय महापुरुषों की पूजा उससमाज का हिस्सा नहीं हैं और ना ही देवताओंका अवतरण जैसा की अन्य ग्रंथों में निर्देशित हैं जो अबतक मैंने देखीं हैं यद्यपि कुछ भाष्यकारों द्वारा इसपर संकेत किया गया है।“

“यह भी सत्य है कि वैदिक पूजा के अधिकतर भाग निजी हैं, जिनमे स्तुति आदि अनुष्ठान,एक अदृश्य व्यापक अप्रमाणिक सत्ता को संबोधित करते हुए,स्वयं की उन्नति लिए संपन्न किये जाते हैं,किसी मंदिर में नहीं।“

“एकशब्द में, वैदिक मत मूर्तिपूजक नहीं हैं।“

(एच.एच.विल्सन विष्णुपुराण प्रकथन पृष्ट १११)

(८)  पुनः लिखतें हैं-

“कर्ता और क्रिया में भेद मूर्तिपूजा से ही विकसित हुई है।प्रतिमा ने मुख्य प्रति की जगह लेली, और ना ही वेदों में परिपूर्ण हो रहे रहस्यवाद और वाक्यरचना[**] की कोई व्यवस्था की गयी।“

(मिल्स हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया कितब१ पृष्ट ३९२)

(९)इसके अलावा वे लिखतें हैं :

“…. परन्तु पद्धति नयी है, जगन्नाथ स्वयं नवीन है और वैष्णवों के पुराणों में इनका कोई स्थान नहीं। यह असम्भाव्य है कि वर्त्तमान स्थल का महिमामंडन अधिक से अधिक एक शताब्दी से पूर्व हुआ हो।“

(मिल्स हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया पृष्ट४१६)

 

पंचम अध्याय 

मोहम्मदनविद्वानों के विचार मूर्तिपूजा विषय पर

अब हम मध्यकालीन भारत के दो सर्वाधिक पढ़े-लिखेमुसलमान सज्जनों केविचारों की ओर नज़र डालेंगे जो यह कहतेंहैंकिहिंदुत्व का मुर्तिपूजन से कोई नाता नहीं हैं।

(१) मौलाना अबुल फज़ल, अकबर के दरबार के प्रधानमंत्री लिखतें हैं :

“वे(हिन्दू) सभीएकेश्वरवाद में विश्वास रखतें हैं औरयद्यपि वे मूर्तियों को विशेष सम्मान से रखतें हैं फिर भी वे किसी प्रकार मूर्तिपूजक नहीं हैं जैसा की अज्ञानी जन समझतें हैं।“

(आयींने अकबरी,एफ़ गोडविनभाष्यकिताब६ पृष्ट २९४)

(२)मौलाना अलबेरुनी, अरबी और संस्कृत के विद्वान जो महमूद ग़ज़नी के साथ भारत आये थे लिखते हैं:

“… परन्तु हम ये घोषणा करते हैं कि मूर्तियाँ केवलअनपढ़लोगों द्वारा स्थापित की जातीं हैं।

स्वच्छंद विचारों के मार्ग पर चलने वाले यादर्शन शास्त्र पढने वाले जो सत्य का सार प्राप्त करना चाहतें हैं वे इश्वारुपसना को छोड़ अन्य सभी विचारों से मुक्त हैंऔर प्रतिक रूप में स्थापित की गयी चित्र आदि वस्तुवों की पूजा की कल्पना भी नहीं करते।“

(अल्बेरुनिस इंडिया डॉ. ई.सि.सोचोऊ भाष्य कितब१ अध्याय XI पृष्ट ११२-११३)

(२) अतः मौलाना अलबेरुनी आगे जोड़ते हैं :

“इन सभी मूढ़ प्रलापों को दर्शाने का  हमारा उद्देश्य पाठक को मूर्ति का विवरण देना है, अगर कोई कहीं मूर्ति देख ले  औरउसकी व्याख्या करे तो जैसा हमने पहले कहा कि मूर्तियाँ नासमझ अनपढ़निम्न दर्जे के लोगों द्वारा स्थापित की गयींऔर हिन्दुवों ने कभी इश्वर के मूर्तियों की स्थापना नहीं की।”

(ईबिड पृष्ट ११२)

षष्ट अध्याय

मूर्तिपूजा का मूलइसाई मत

हमारेमुसलमानऔरइसाई भाइयों की धारणा है कि मूर्तिपूजा का मूल हिन्दू मान्यताओं में हैं, निश्चित रूप से वे गलत हैं। पहले दर्शाये गए विचार अपनी व्याख्या खुद ही करतें हैं। स्वामी राम तीर्थ, जो यूरोप वासी तो नहीं थे परन्तु कई यूरोपीय और अमरीकियों के मार्गदर्शी हुए, पूछते हैं :

“…. भारत में मूर्तिपूजा कौन लाया?आज ये इसाई आपसे कहेंगे कि आप मूर्तिपूजक हो परन्तुभारतकी कविताओं, व्यक्रण, गणित, शिल्पकला, गायन और अन्य वृहद् वैदिक साहित्य में लेश मात्र भी मूर्तिपूजा के संकेत नहीं मिलते। यह मूर्तिपूजा आई कहाँ से? भारतीय धर्म के किसी भी रूप का ये हिस्सा नहीं है। मूर्तिपूजा भारत में ईसाईयों द्वारा आई। इतिहास का यह पृष्ट अब तक लोगों के नेत्रों से दूर रहा हैं परन्तु मेरा अनुसन्धान अबछपकरतैयार होगा।

“मैंने आतंरिक एवं बहारी दोनों साक्ष्यों द्वारा ये सिद्ध किया है कि ईसा के चौंथी और पाँचवी शताब्दीबाद भी कुछ रोमन कैथोलिकइसाई भारत में बसते हैं। दक्षिण भारत में वे संत थॉमस इसाई कहे जाते हैं। इन्होने ही मूर्तिपूजा की शुरुवात की। फिर आतंरिक साक्ष्य से, मैंने सिद्ध किया है कि मूर्तिपूजा के प्रबल समर्थक रामानुजकेनिर्देशकों में से एक ये संत थॉमस इसाई थे। जैसाहमें ज्ञात है, इन्होने पहले जिस मूर्ति को शीश नवाया वह पूर्वमुखी नहीं हैं।

“मेरे सौभाग्यावानो, यह दर्शाता है किमूर्तिपूजा का मूल उस मत में है जिसे आप इसाई मत कहतें हैं। येमिशनरी जोआज मूर्तिपूजा का खंडन करते हैं, एक ओर मुर्तिपूजा को निक्रिस्ट मानते हैं और दूसरी ओर मूर्तियों का व्यापार कर पैसे कमातें हैं। इस तरह तुम (मिशनरी) लोगोंका धर्मान्तरण करना चाहते हो। क्या यह मूर्तियाँ जिन्हें तुम बनाकर बेचते हो वो तुम्हारे गोसपेल से ज्यादा शक्तिशाली हैं? अब ये तुम ही निर्णय करो।“

(इन वुड्स ऑफ़ गॉड-रेलिज़ेशनकिताब ३ पृष्ट ३११-३१२)

इतने संस्कृत और यूरोपीय विद्वानों के साक्ष्य प्रस्तुत करने के बाद लिखने को कुछ और अधिक नहीं रह गया है। अब पाठक स्वयं ये निर्णय करे कि वेदों में मूर्तिपूजा की खोज कहाँ तक सफल होगी।

छोटे शब्दों में :

(क) …..ओल्ड टेस्टामेंट का इश्वर आदम और हव्वा से बातें करता है औरअब्राहम की रसोई से खाना खाता है औरमोसेस से वार्ता करने बादलों से प्रकट हो जाता है।

(ख) …ईसाईयों का इश्वर कुवांरी कन्याओं को गर्भवतीबना सकता है और इस तरह विश्वमें अपने “मात्र पुत्र” का जन्मदाता है।

(ग)  ….. कुरान का अल्लाह आदम, नोआह और अब्राहम के समक्ष प्रकट होने को हमेशा तैयार बैठा रहता है।

(घ)  …… परन्तु वैदिक इश्वर एक ऐसा है जो देहधारी नहीं है और किसी सीमा से बाधित नहीं है और निश्चित रूप से सभी देश, काल और वस्तु में वसता है।

हे सनातनी हिन्दू सज्जनों, आपने ऊपर दिए गए साक्ष्यों को पढ़ा और जाना कि सिर्फ दयानंद ही नहीं हैं जो मूर्तिपूजा त्यागने को कहतें हैं वरन वे सभी, जिन्होंने वेदों और अन्य प्राचीन शास्त्रों का अध्ययन किया है, यही मानते हैं। अतः आप सभी सत्य को स्वीकार करें, जैसा की आप जानते हैं:

“सत्यमेवजयते”

इति

 

लिव इन रिलेशनशिप

live in relationship

लिव इन रिलेशनशिप

लेखक – इंद्रजीत ‘देव’

मार्च २०१० में भारतीय उच्चतम न्यायलय ने एक महत्व पूर्ण निर्णय  दिया है । बिना विवाह किये भी कोई भी युवक व युवती अथवा पुरुष व स्त्री इकट्ठे रह  सकते हैं । यदि कृष्ण व राधा बिना परस्पर  विवाह किये एकत्र रह सकते थे तो आज के युवक युवती / पुरुष स्त्री ऐसा क्यूँ नहीं कर सकते ? . “यह निर्णय महत्वपूर्ण ही नहीं , भयंकर हानिकारक भी है । इसका परिणाम यह निकलेगा कि आपकी गली में कोई पुरुष व स्त्री बिना विवाह किये आकर रहने लगेंगे, तो आप व आपकी गली में रहने वाले अन्य लोगों को उनका वहाँ रहना अत्यंत बुरा, समाज व परिवार को दूषित करने वाला प्रतीत होगा, परन्तु आप  उनका  कुछ भी न बिगाड़ सकेंगे । यदि आप कुछ पड़ौसियों को साथ लेकर उनके  पास जाकर गली छोड़कर चले जाने  को कहेंगे, तो  वे उपरोक्त निर्णय दिखाएंगे । व आप असफल होकर घर वापस लौट आयेंगे । यदी आपके द्वारा पुलिस में उनकी शिकायत की जायेगी तो पुलिस स्वयं आकर समाज, धर्म व कानून के विरुद्ध ऐसा कार्य करने के अपराध में उनसे पूछताछ करेगी, तो उसे भी वे उच्चतम न्यायालय का पूर्वोक्त निर्णय दिखाएंगे तथा पुलिस भी उनके विरुद्ध केस बनाये बिना वापस लौटने के सिवाय अन्य कुछ नहीं कर पायेगी ।

में भी यह घटना पूर्वोक्त रूप में कुछ स्थानों पर कुछ लोगों को सुनायी है तो लगभग सभी श्रोताओं ने यही  कहा है कि न्यायालय को भ्रष्ट करने व परिवारों की एकता को भंग करने के द्वार खोल दिए हैं, परन्तु मेरे विचार में न्यायालय का इस निर्णय में कोई दोष नहीं है क्यूंकि न्यायपालिका का काम निर्णय देना है तथा वह निर्णय देती है | विधायिका  द्वारा बनाये हुए अधिनियमों के आधार पर । विधायिका द्वारा बनाये गए अधिनियमों में लिखे एक एक शब्द के गहन , पूर्ण व सत्य अर्थों पर विचार करके ही न्यायादिश निर्णय दे सकते हैं ।

उनके निजी विचार कुछ भी क्यूँ न हो, वे अधिनियम के बंधन में अक्षरसः बंधे होते हैं | इस सम्बन्ध में मैं प्रमाण प्रस्तुत करता हूँ । इंग्लैण्ड में एक समय में ऐसा कानून बनाया गया था | कि लण्डन की सडकों पर कोई घोडा-गाड़ी नहीं लायी जायेगी और यदी कोई ऐसा करेगा तो उसे दण्डित किया जायेगा ।  कुछ दिनों तक इस अधिनियम का पालन होता रहा परन्तु एक दिन लोगों ने देखा कि एक गाड़ी लंदन में चल रही थी । चालक को वहाँ की पुलिस ने न्यायायलय में प्रस्तुत किया, परन्तु न्यायाधीश उसे कुछ भी दंड न दे पाये,  क्यूंकि चालक ने यह सिद्ध कर दिया कि वह जो गाड़ी लेकर लन्दन में घूम रहा था, वह घोडा-गाड़ी थी ही नहीं। अपितु घोड़ी-गाड़ी थी | इसी प्रकार एक दूसरे घटना भी लिखता हूँ तब एक न्यायालय  में चल रहे मुकदमे में फांसी पर लटका देने का दण्ड एक अपराधी को न्यायाधीश ने लिखा- “He should be hanged” | उस अपराधी को उसके वकील ने  कहा कि तुम चिंतामत करो | में  तुम्हे मरने नहीं दूंगा । कुछ लोगों का विचार है कि वह वकील जवाहर लाल नेहरु के पिता मोती लाल नेहरु थे ।  वस्तुत: वही वकील थे या कोई अन्य मुझे पूर्ण ज्ञान नहीं है अस्तु । जब अपराधी को फांसी का फंदा डालकर लटकाया गया तो, अपराधी को तुरंत छुड़वा लिया क्यूंकि न्यायाधीश ने अपने आदेश में यह नहीं लिखा कि इसको तब तक लटकाये ही रखना है जब तक इसके प्राण न निकल जाएँ । पास खड़े उच्च अधिकारी व कर्मचारियों को उस वकील ने फांसी पर लटकाने से पूर्व ही उक्त आदेश का अर्थ समझा व मनवा लिया था कि इसमें तो इतना ही लिखा है कि इस अपराधी को लटकाया जाये । इसमें यह कहाँ लिखा है कि इसको मरने तक लटकाये रखना है । अधिवक्ता ने अपराधी को छुड़ा लिया, बचा लिया ।  यह उसके द्वारा शब्दार्थ की  गहराई तक जाने का परिणाम था । कुछ लोग कहते हैं कि इस घटना के पश्चात् ही तत्कालीन शासन ने ऐसी  व्यवस्था की न्यायाधीष ऐसे अपराधियों के मामले में निर्णय देते हुए लिखने लगे “He should be hanged till death”  अर्थात इसे तब तक लटकाये रखा जाये तब तक इसकी मृत्यु न हो जाये ।

सन २०१० में पूर्वोक्त मामले में न्यायाधीशों का कोई दोष नहीं है । इस कथन को पाठकों में से वे पाठक मेरी बात अच्छी पाठक समझेंगे जिनको न्यायालयों की न्यायविधि का ज्ञान है । दोष वस्तुतः उनका है जिन्होंने पुराणों में कृष्ण जी व राधा के सम्बन्धों को अश्लील चित्रित किया था । इसके अतिरिक्त उनका भी दोष है, जिन्होंने इनके सम्बन्धों को अश्लील रूप में प्रस्तुत करने वालों के हाथ न कटवाए, न पुराण जलवाये । पुराणों की हिन्दू समाज में मान्यता व प्रतिष्ठा है । न्यायालय ने सामाजिक व धार्मिक दृष्टि से पापी व दोषी युवक व उस युवती के वकील ने वे प्रसंग प्रस्तुत किये जिनसे कृष्ण जी व राधा के शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करने का वर्णन है । ( “ब्रह्मवैवर्त पुराण , श्री कृष्ण जन्म खंड अध्याय ४६ व १५ ) इसमें न्यायाधीशों का द्वेष क्या है ?

सरकार की और से प्रस्तुत हुए अधिवक्ता में पूर्वोक्त प्रमाणों को झुठला नहीं सके । पूरा हिन्दू समाज पुराणों को सत्य व ऐतिहासिक ग्रन्थ मनाता है | आर्य समाज बहुत ही पहले ही पुराणों को झुठला चुका  है व “ महर्षि दयानंद सरस्वती ने श्री कृष्ण जी के सम्बन्ध् में स्पष्ट लिखा है ” देखो श्री कृष्ण जी का इतिहास महाभारत में अति उत्तम है। उनका गुण कर्म स्वाभाव व चरित्र आप्त पुरुषों के सदृश्य है जिसमें कोई अधर्म का आचरण श्री कृष्ण जी ने जन्म से मरण पर्यन्त बुरा काम कुछ भी किया हो ऐसा नहीं लिखा।“ ( सत्यार्थ प्रकाश एकादशसमुल्लास )

महाखेद  की बात है कि इस अनिष्टकारी निर्णय के आने के बाद तीन वर्षों में भी पुरे देश में कोई हलचल नहीं हुयी । जगद्गुरु बने बैठे शंकराचार्यों में से एक ने भी इस निर्णय व इसमें राधा व कृष्ण जी के चरित्र को गलत रूप में न्यायालय द्वारा प्रमाण मानने से भविष्य में क्या दुष्परिणाम होंगे इसकी कोई कल्पना व इसे रोकने हेतु कोई कार्यक्रम व इच्छा नहीं है | इसके अतिरिक्त कोई संत, कोई महंत, कोई ठगंत कोई बापू कोई गुरु कोई बाबा कोई सन्यासी कोई मौलवी किसी धार्मिक सामाजिक व राजनैतिक संस्था का कोई पदाधिकारी आज तक इस विषय में कुछ नहीं बोला । इससे सिद्ध है कि उनकी दृष्टी में यह निर्णय एक युवक व एक युवती तक ही सीमित रहेगा । मेरे विचार में यह एक दूरगामी अनिष्टकारी निर्णय है तथा इसके विरोध में केवल हिंदुओं को ही नहीं सिखो मुसलमानो जैनियों व बौद्धों वनवासियों नास्तिकों व कम्युनिष्टों को भी एकत्र होकर आवाज उठानी चाहिए थी व सभी राजनैतिक, सामाजिक , धार्मिक व सांप्रदायिक मतभेद भुलाकर इस विषय पर एकजुट होना चाहिए था । खेद है  हमारे देश में राजनैतिक सुख व भोग हेतु परस्पर विरोधी या भिन्न भिन्न विचारों वाली २५ -२६ पार्टियाँ एकत्रित होकर कथित न्यूनतम कार्यक्रम बना लेती हैं | परन्तु सामाजिक धार्मिक संस्थाएं राजनैतिक दल व समाज हित को लेकर एक मुद्दे पर भी एकत्रित नहीं होते । मुझे इस विषय में यह निवेदन करना है :

बागवानों ने अगर अगर अपनी रविश नहीं बदली,

तो पत्ता पत्ता इस चमन का बागी हो जायेगा |

१६ दिसम्बर को बलात्कार की दिल्ली में हुयी घटना के बाद में देश में प्रजा ने जो चेतना व विरोध भाव प्रगट किया उससे सरकार हिल गयी । इससे सिध्द है कि राजनेता केवल जनता के दवाब के आगे ही झुकते हैं । पूर्वोक्त विषय में निष्क्रिय समाज व राष्ट्र की  चिन्ता कौन करेगा । आज हर कोई परेशान है | रही सही कमी प्रस्तुत निर्णय के बाद होगी ।  न धर्म गुरुओं को न समाज शास्त्रियों को न धार्मिक संस्थाओं को परेशान हो रहे इस समाज व राष्ट्र की कोई चिता है | अब ऐसा कानून कोई है ही नहीं जिसके अधीन ऐसे चलने वाले स्त्री पुरुष को अपराधी मानकर दण्ड दिया जा सके | तो न्यायालय उन्हें दण्ड दे ही क्यूँ सकता है ? उच्चतम नयायालय का निर्णय आने के बाद किसी राजनैतिक दल की नींद नहीं खुली व इस निर्णय के पश्चात live in relationship के नाम पर बिना विवाह किये रहने वालों की  संख्या बड़ने लगी है अब उनको उच्चतम न्यायालय का निर्णय विशेष उत्साह प्रदान कर रहा है | व उनका मनोबल बड़ रहा है इस स्तिथी में एक स्पष्ट कानून बनाने की स्पष्ट आवश्यकता है | जिसके अधीन ऐसे सम्बंधों को अवैध व कठोर दंडनीय माना  जाये । राधा और कृष्ण जी का कथित प्रश्न इसमें बाधा  नहीं बनता ।

सामजिक धार्मिक राजनैतिक संस्थाओं समाज शास्त्रियों  जागो तथा इस सरकार पर तुरंत दवाब डालो कि वह वांछनीय कानून बनाये।  सुख सुविधा व धन ऐश्वर्य में डूबे राजनैतिक नेताओं निद्रा से जागो तथा देश के परम्परागत वैवाहिक आदर्श की रक्षार्थ तुरुन्त वांछनीय कानून बनाओ अन्यथा आने वाला इतिहास तुम्हें क्षमा नहीं करेगा ।

दे रही हों आंधियाँ जब द्वार पर दस्तक तुम्हारे,

तुम नहीं जगे तो ये सारा जमाना क्या कहेगा ?

बहारों को खड़ा नीलाम देखा पतझड़ कर रहा है

तुम नहीं उठे तो ये आशियाना क्या कहेगा ?