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मनु की वर्णव्यवस्था में सबको वर्णपरिवर्तन का अधिकार: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(अ) शूद्रों को उच्चवर्ण की प्राप्ति के अवसर

मनु की कर्म पर आधारित वैदिक वर्णव्यवस्था की यही सबसे बड़ी विशेषता है कि वे प्रत्येक वर्ण को जीवन भर वर्ण-परिवर्तन का अवसर देते हैं। जन्मना जातिवाद के समान जीवन भर एक ही जाति नहीं रहती। शूद्र कभी भी उच्चवर्ण की योग्यता प्राप्त कर उच्चवर्ण में स्थान पा सकता है। देखिये, मनु का कितना स्पष्ट मत है जिसको पढ़कर तनिक भी संदेह नहीं रहता-

(क) शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।

       क्षतियात् जातमेवं तु विद्यात् वैश्यात् तथैव च॥ (10.65)

    अर्थ-‘शूद्र वर्ण का व्यक्ति ब्राह्मण वर्ण के गुण, कर्म, योग्यता को अर्जित कर ब्राह्मण बन सकता है और ब्राह्मण, गुण, कर्म, योग्यता से हीन होने पर शूद्र हो जाता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य वर्ण में उत्पन्न सन्तानों का भी वर्णपरिवर्तन हो जाता है।’

(ख) शूद्र द्वारा उत्तम वर्ण की प्राप्ति का निर्देश तथा उत्तम वर्णों की प्राप्ति के उपायों का वर्णन मनु ने इस श्लोक में भी किया है-

       शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुः     मदुवागनहंकृतः।

       ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते॥     (9.335)

    अर्थ-‘सदा शुद्ध-पवित्र रहने वाला, अपने से उत्तम जनों या वर्णों की संगति में रहने वाला, मृदुभाषी, अहंकाररहित, ब्राह्मण आदि तीनों वर्णों के सेवा कार्य में संलग्न रहने वाला शूद्र अपने से उत्तम वर्ण को प्राप्त कर लेता है।’ अर्थात् वह वर्णपरिवर्तन की योग्यता अर्जित करके उत्तम वर्ण को प्राप्त करके द्विजाति वर्ण का हो जाता है।

(शूद्रों द्वारा वर्णपरिवर्तन के ऐतिहासिक उदाहरण ‘वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन’ शीर्षक में पृ0 104-108 पर द्रष्टव्य हैं)

डॉ अम्बेडकर का मनु-समर्थक मत-डॉ. सुरेन्द्र कुमार

अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्

षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च॥ (8.337)

ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्।

द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविद्धि सः॥ (8.338)

पिताऽऽचार्यः सुहृन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः।

नाऽदण्डयो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति॥ (8.335)

कार्षापणंावेद्दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः।

तत्र राजा भवेद् दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा॥ (8.336)

उपर्युक्त चारों श्लोक डॉ0 अम्बेडकर र ने अपने ग्रन्थों में अनेक बार प्रमाण रूप में उद्धृत किये हैं और इनका अर्थ भी लगभग ठीक दिया है (द्रष्टव्य-डॉ0 अम्बेडकर र वाङ्मय, खण्ड 7, पृ0 250)

इसका अर्थ यह हुआ कि डॉ0 साहब इनको सही मानते हैं। यथायोग्य दण्डव्यवस्था में किसी को आपत्ति भी क्या हो सकती है? डॉ0 अम्बेडकर र को आपत्ति उन श्लोकों पर है जो पक्षपातपूर्ण दण्ड- व्यवस्था का विधान करते हैं। अब प्रश्न यह है कि इन यथायोग्य दण्डविधानों के होते हुए और उनको प्रमाणरूप में उद्धृत करने पर भी, इनके विरुद्ध श्लोकों को प्रमाण मानकर मनु का विरोध क्यों किया जा रहा है? तर्कसंगत सिद्धान्तों का विरोध करने का क्या औचित्य है? क्या यह डॉ0 अम्बेडकर र का परस्परविरोध नहीं है?

    प्रश्न-मनु की न्याय और दण्डव्यवस्था से क्या आज की न्यायपद्धति और दण्डव्यवस्था अच्छी नहीं है? आज कानून की दृष्टि में सब बराबर हैं, यह कितना न्यायपूर्ण विधान है। मनु ने सबके लिए समान दण्ड क्यों नहीं रखा?

    उत्तर-महर्षि मनु की न्याय और दण्ड-व्यवस्था आज की दण्ड और न्याय-व्यवस्था से उत्तम, यथायोग्य, और मनोवैज्ञानिक है, इसमें कोई संदेह नहीं है।

मनु की दण्डव्यवस्था कितनी मनोवैज्ञानिक, न्यायपूर्ण, व्यावहारिक और श्रेष्ठप्रभावी है, इसकी तुलना आज की दण्डव्यवस्था से करके देखिए, दोनों का अन्तर स्पष्ट हो जायेगा। आज की दण्डव्यवस्था का सिद्धान्त है-‘कानून की दृष्टि में सब समान हैं।’ पहला परस्परविरोध यही हुआ कि पदस्तर और सामाजिक स्तर के अनुसार सुविधा एवं समान-व्यवस्था तो पृथक्-पृथक् हैं और दण्ड एक जैसा। इसे न्याय नहीं कहा जा सकता। उच्च पद और उच्च स्तर पर बैठा व्यक्ति अधिक बौद्धिक विवेक रखता है अधिक सामाजिक सुविधाओं और समान का उपभोग करता है। उसके द्वारा किये गये अपराध का दुष्प्रभाव भी उतना ही तीव्र एवं व्यापक होता है। इस आधार पर यथायोग्य दण्डव्यवस्था यह कहती है कि उसे दण्ड भी अधिक मिलना चाहिए। अधिक सुविधा और समान है तो दण्ड कम क्यों? एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी और एक प्रथम श्रेणी अधिकारी या शासक समानप्राप्ति में बराबर नहीं तो दण्डप्राप्ति में बराबर कैसे माने जा सकते हैं?

दूसरा परस्परविरोध यह है कि ‘समान दण्ड का सिद्धान्त’ क्षमता (धन, बल, पद, प्रभाव) की दृष्टि से यथायोग्य दण्ड नहीं है। इसे भी न्याय नहीं माना जा सकता। इसे यों समझिए कि खेत चर जाने पर मेमने को भी एक डण्डा लगेगा, भैंसे, हाथी और शेर को भी। इसका प्रभाव क्या होगा? बेचारा मेमना डण्डे के प्रहार से मिमियाने लगेगा, भैंसे में कुछ हलचल होगी, हाथी और शेर उलटा मारने दौडेंगे। क्या यह वास्तव में समान दण्ड हुआ? नहीं!! समान दण्ड तो वह है, जो लोकव्यवहार में प्रचलित है। मेमने को डंडे से, भैंसे को लाठी से, हाथी को अंकुश से और शेर को हण्टर से वश में किया जाता है। दूसरा उदाहरण लीजिए-एक अत्यन्त गरीब एक हजार के दण्ड को कर्ज लेकर चुका पायेगा, मध्यवर्गीय थोड़ा कष्ट अनुभव करके चुकायेगा और समृद्ध-सपन्न जूती की नोंक पर रख देगा। यह समान दण्ड नहीं है। इसी अमनोवैज्ञानिक दण्डव्यवस्था का परिणाम है कि दण्ड की पतली रस्सी में आज गरीब तो फंसे रहते हैं, किन्तु धन-पद-सत्ता-सपन्न शक्तिशाली लोग उस रस्सी को तोड़ कर निकल भागते हैं। आंकड़े इकट्ठे करके देख लीजिए, स्वतंत्रता के बाद कितने गरीबों को सजा हुई है, और कितने धन-पद-सत्ता-सपन्न लोगों को! आर्थिक अपराधों में समृद्ध लोग अर्थदण्ड भरते रहते हैं और अपराध करते रहते हैं। मनु की यथायोग्य दण्ड-व्यवस्था में ऐसा असन्तुलन और दोष नहीं है।

मनु की दण्डव्यवस्था अपराध की प्रकृति, अपराधी का पद और अपराध के प्रभाव पर निर्भर है। वे गभीर अपराध में यदि कठोर दण्ड का विधान करते हैं तो चारों वर्णों को ही करते हैं और यदि सामान्य अपराध में सामान्य दण्ड का विधान करते हैं, तो वह भी चारों वर्णों के लिए सामान्य होता है। शूद्रों के लिए जो पक्षपातपूर्ण कठोर दण्डों का विधान मिलता है वह केवल प्रक्षिप्त श्लोकों में है। वे श्लोक मनुरचित नहीं है, बाद के लोगों द्वारा मिलाये गये हैं।

मनु की दण्डव्यवस्था और शूद्र: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

पाठकवृन्द! आइये, सबसे अधिक चर्चित मनुविहित दण्डव्यवस्था पर दृष्टिपात करते हैं। यह कहना नितान्त अनुचित है कि मनु ने शूद्रों के लिए कठोर दण्डों का विधान किया है और ब्राह्मणों को विशेषाधिकार एवं विशेष सुविधाएं प्रदान की हैं। मनु की दण्डव्यवस्था के मानदण्ड हैं-गुण और दोष; और आधारभूत तत्व हैं-बौद्धिक स्तर, सामाजिक स्तर या पद और उस अपराध का प्रभाव। मनु की दण्डव्यवस्था यथायोग्य दण्डव्यवस्था है, जो मनोवैज्ञानिक है। यदि मनु गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर उच्च वर्णों को अधिक समान और सामाजिक स्तर प्रदान करते हैं तो अपराध करने पर उतना ही अधिक दण्डाी देते हैं।

(अ) शूद्रों को सबसे कम दण्ड का विधान

    मनु की यथायोग्य दण्डव्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड है, और ब्राह्मणों को सबसे अधिक; राजा को उससे भी अधिक। मनु की यह सर्वसामान्य दण्डव्यवस्था है, जो सैद्धान्तिक रूप में सभी दण्डनीय अवसरों पर लागू होती है-

अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्

षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च॥ (8.337)

ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्।

द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविद्धि सः॥ (8.338)

    अर्थात्-किसी चोरी आदि के अपराध में शूद्र को आठ गुणा दण्ड दिया जाता है तो वैश्य को सोलहगुणा, क्षत्रिय को बत्तीसगुणा, ब्राह्मण को चौंसठगुणा, अपितु उसे सौगुणा अथवा एक सौ अट्ठाईसगुणा दण्ड देना चाहिए, क्योंकि उत्तरोत्तर वर्ण के व्यक्ति अपराध के गुण-दोषों और उनके परिणामों, प्रभावों आदि को भली-भांति समझने वाले हैं।

(आ) उच्च वर्णों को अधिक दण्ड

    मनु की व्यवस्था में जो जितना बड़ा है उसको उतना अधिक दण्ड विहित है-

पिताऽऽचार्यः सुहृन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः।

नाऽदण्डयो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति॥ (8.335)

कार्षापणंावेद्दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः।

तत्र राजा भवेद् दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा॥ (8.336)

    अर्थ-‘जो भी अपने निर्धारित धर्म=कर्त्तव्य और विधान का पालन नहीं करता, वह अवश्य दण्डनीय है, चाहे वह पिता, माता, गुरु, मित्र, पत्नी, पुत्र या पुरोहित ही क्यों न हो। जिस अपराध में सामान्य जन को एक पैसा दण्ड दिया जाये वहां राजा को एक हजार गुणा दण्ड देना चाहिए।’ यहां गुरु और पुरोहित को भी अवश्य दण्ड का विधान है। अतः ब्राह्मण को दण्डरहित छोड़ने का जहां भी कथन है, वह इस मनुव्यवस्था के विरुद्ध होने से प्रक्षिप्त है।

(इ) धन के लोभ में किसी को दण्ड दिये बिना न छोड़े

इसके साथ ही मनु ने राजा को आदेश दिया है कि उक्त दण्ड से किसी को छूट नहीं दी जानी चाहिए, चाहे वह आचार्य, पुरोहित और राजा के पिता-माता ही क्यों न हों। राजा दण्ड दिये बिना मित्र को भी न छोड़े और कोई समृद्ध व्यक्ति शारीरिक अपराधदण्ड के बदले में विशाल धनराशि देकर छूटना चाहे तो उसे भी न छोड़े।

न मित्रकारणाद् राजा विपुलाद् वा धनागमात्।  

समुत्सृजेत् साहसिकान् सर्वभूतभयावहान्॥ (8.347)

    अर्थ-राजा, प्रजाओं में भय उत्पन्न करने वाले अपराधियों को, अपराध के बदले दण्ड रूप में धन की प्राप्ति के लालच में या मित्र होने के कारण भी न छोड़े, अर्थात् उन्हें अवश्य दण्डित करे।

यह कहना नितान्त असत्य है कि मनु ने उच्चवर्णों को दण्ड में छूट दी है और शूद्र के लिए अधिक दण्ड विहित किया है। यहां किसी को भी दण्ड से छूट नहीं है तथा ब्राह्मणों और राजा को शूद्र से बहुत अधिक दण्ड देने का विधान है। मनु की यह दण्डनीति पूर्वा पर प्रसंग से सबद्ध है और कारण-कथनपूर्वक वर्णित है, जो न्याययुक्त और तर्कसंगत है। इससे यह प्रकट होता है कि ये मौलिक श्लोक हैं और इनके विरुद्ध ब्राह्मण को दण्डनिषेध करने वाले श्लोक प्रक्षिप्त हैं, क्योंकि वे पक्षपात और अन्यायपूर्ण हैं।

मनु की वर्णव्यवस्था में शूद्रों का सामाजिक सम्मान : डॉ. सुरेन्द्र कुमार

मनु की वर्णव्यवस्था में शूद्रों का सामाजिक सम्मान

(अ) समान-व्यवस्था के आधार

    वैदिक या मनु की समान-व्यवस्था में गुणों का ही महत्त्व था। जन्म को बड़प्पन अथवा समान का मानदण्ड कहीं नहीं माना गया है। महर्षि मनु लिखते हैं-

(क) वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी।

       एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद् यदुत्तरम्॥    (2.136)

    अर्थ-धन, बन्धुपन, आयु, श्रेष्ठ कर्म, विद्वत्ता ये पांच समान के मानदण्ड हैं। इनमें बाद-बाद वाला मानदण्ड अधिक महत्त्वपूर्ण है। अर्थात् सर्वाधिक मान्य विद्वान् है, उसके बाद क्रमशः श्रेष्ठ कर्म करने वाला, आयु में बड़ा, बन्धु-बान्धव, धनवान् हैं। यह सामूहिक समान की मर्यादा है। यदि एक वर्ण वाले एकत्र हों तो वहां समान-व्यवस्था इस प्रकार होगी –

(ख)    विप्राणां ज्ञानतो ज्यैष्ठ्यं क्षत्रियाणां तु वीर्यतः।

       वैश्यानां धान्यधनतः  शूद्राणामेव जन्मतः॥ (2.155)

    अर्थ-ब्राह्मणों में अधिक ज्ञान से, क्षत्रियों में अधिक बल से, वैश्यों में अधिक धन-धान्य से, शूद्रों में अधिक आयु से बड़प्पन और समान होता है।

(आ) शूद्रों को समान-व्यवस्था में छूट-

    मनु का शूद्रों के प्रति सद्भावपूर्ण एवं मानवीय दृष्टिकोण देखिए कि द्विजवर्णों में अधिक गुणों के आधार पर समान का विधान होते हुए भी उन्होंने शूद्र को विशेष छूट दी है कि यदि शूद्र नबे वर्ष से अधिक आयु का हो तो उसे पहले समान दें-

  पञ्चानां त्रिषु वर्णेषु भूयांसि गुणवन्ति च।    

  यत्र स्युः सोऽत्र मानार्हः, शूद्रोऽपि दशमीं गतः॥ (2.137)

    अर्थ-तीन द्विज-वर्णों में समान गुण वाले अनेक हों तो जिसमें श्लोक 2.136 में उक्त पांच गुणों में से अधिक गुण हों, वह पहले समाननीय है किन्तु शूद्र यदि नबे वर्ष से अधिक आयु का हो तो वह भी पहले समाननीय है।

देखिए, मनु के मन में शूद्र के प्रति कितनी उदारता एवं आदरभाव है कि वे अल्पगुणों वाला होते हुए भी शूद्र को ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों द्वारा पहले समान दिलवा रहे हैं! क्या ऐसा उदार मनु शूद्रों के प्रति कठोर और अन्यायपूर्ण विधान कर सकता है? कदापि नहीं। यह एक ही तर्क यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि वर्तमान मनुस्मृति में जो शूद्र-विरोधी कठोर श्लोक मिलते हैं, स्पष्टतः वे किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रक्षिप्त हैं। ऐसे उदार हृदय और मानवीय भाव रखने वाले महर्षि मनु का विरोध क्या उचित है?

(इ) शूद्रों का अद्भुत मानवीय समान

शूद्रों के प्रति मनु का कितना अद्भुत मानवीय भाव था इसकी जानकारी हमें मनु के निन आदेश में मिलती है। मनु कहते हैं कि अपने भृत्यों (शूद्रों) को पहले भोजन कराने के बाद ही द्विज दपती भोजन करें-

भुक्तवत्सु-अथ विप्रेषु स्वेषु भृत्येषु चैव हि।    

भुंजीयातां ततः पश्चात्-अवशिष्टं तु दपती॥ (3.116)

    अर्थ-द्विजों के भोजन कर लेने के बाद और अपने भृत्यों के (जो कि शूद्र होते थे) पहले भोजन कर लेने के बाद ही शेष बचे भोजन को द्विज दपती खाया करें।

क्या आज के वर्णरहित विश्व के किसीाी सयमानी समाज में मनु जैसा उच्च मानवीय दृष्टिकोण है? क्या आज के किसी समाज में मनु जैसा उदार-अद्भुत आदेश है? ऐसे अनुपम आदेशों के होते हुएाी मनु पर शूद्र विरोध का आरोप लगाना निरी कृतघ्नता नहीं तो और क्या है? मनुस्मृति में डाले गये, शूद्र विरोधी सभी श्लोकों को प्रक्षिप्त सिद्ध करने के लिए, क्या यह अकेला ही श्लोक पर्याप्त नहीं है? मनु द्वारा शूद्रों का अद्भुत समान विहित करने के बादाी मनु का विरोध क्यों?

शूद्रों के धर्माधिकार में मनुकालीन इतिहास और समाज -व्यवस्था के प्रमाण: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

जैसा कि प्रथम अध्याय में प्रमाण-सहित दर्शाया गया है कि मनु की वर्णव्यवस्था का प्रसार आदिकालीन विश्व में व्यापक स्तर पर था। मनु ने अपना प्रमुख राज्य अपने बड़े पुत्र प्रियव्रत को सौंपा था। उसने उसको अपने सात पुत्रों में सात विभाग करके बांट दिया। मनुकालीन उन सात द्वीपों अर्थात् देशों में मनु द्वारा निर्धारित समाज-व्यवस्था व्यवहार में थी। प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में जो मनुकालीन इतिहास दिया है और सांस्कृतिक विवरण दिया है उसके अनुसार सभी छह देशों में चारों वर्णों को यज्ञानुष्ठान और धर्मपालन का अधिकार था तथा चारों वर्ण यज्ञ करते थे। प्रमाण सहित उसका वर्णन प्रस्तुत है। पौराणिक जन इस विवरण को ध्यान से पढ़ें क्योंकि वही शूद्रों को यज्ञ आदि का निषेध करते हैं। ये पुराणों के ही प्रमाण हैं-

(क) कुशद्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चानुक्रमोदिताः॥

तत्र ते तु कुशद्वीपे……..यजन्तः क्षपयन्ति॥

(विष्णु पुराण 2.4.36, 39)

    अर्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कुशद्वीप में रहते हुए यजन करते हैं और इस प्रकार अपनी दुर्भावनाओं को नष्ट करते हैं।

भागवतपुराण में वर्णन है कि चारों वर्णों के लोग परस्पर कहते रहते थे – ‘‘यज्ञेन पुरुषं यज’’ (5.20.17)= उस परम पुरुष का यज्ञ से यजन करो। वहां चारों वर्णों में यज्ञ बहुप्रचलित था। चारों वर्ण यज्ञप्रेमी थे।

(ख) शाकद्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

    शाकद्वीपे तु तैर्विष्णुः यथोक्तैरिज्यते सयक्॥ 64, 70॥

(विष्णुपुराण 2.4.64,70)

    अर्थ-शाकद्वीप में चारों वर्णों के लोग सर्वव्यापक ईश्वर का यज्ञ के द्वाराालीभांति पूजन करते हैं।

भागवतपुराण में कहा है कि शाकद्वीप के चारों वर्णों के लोग ‘‘भगवन्तम्………….परमसमाधिना यजन्ते’’ (5.20.22)= परमात्मा की उत्तम समाधि द्वारा उपासना करते हैं।

(ग) प्लक्षद्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

धर्माः पञ्चस्वथैतेषु वर्णाश्रमविभागजाः॥ 15॥

इज्यते तत्र भगवान् तैर्वणैरार्यकादिभिः॥ 19॥

(विष्णुपुराण 2.4.7, 15, 19)

    अर्थ-प्लक्ष द्वीप में वर्ण और आश्रमों के लिए विहित धर्मों का पालन किया जाता है। आर्यक (ब्राह्मण) आदि चारों वर्णों द्वारा यज्ञ करके भगवान् की उपासना की जाती है।

भागवतपुराणकार इससेाी आगे बढ़कर स्पष्ट कथन करता है कि ‘‘त्रय्या विद्यया भगवन्तं त्रयीमयं सूर्यमात्मानं यजन्ते’’ (5.20.4) = ‘प्लक्षद्वीप में चारों वर्ण उस सूर्य संज्ञक परमात्मा का जो स्वयं वेदरूप है, तीनों वेदों के मन्त्रों से उसका यजन करते हैं।’

यहां शूद्रों द्वारा मन्त्रोच्चारण तथा वेदों से यज्ञानुष्ठान का विधान अतिस्पष्ट है। पौराणिक इस पुराण के वचन को पढ़कर सदा के लिए याद रखें।

(घ) क्रौञ्च द्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

  ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चानुक्रमोदिताः॥ 53॥

  यागैः रुद्रस्वरूपश्च इज्यते यज्ञसन्निधौ॥ 56॥ (2.4.53, 56)

    अर्थ-क्रौञ्च द्वीप में चार वर्ण हैं। वे रुद्रस्वरूप परमात्मा का अनेक यज्ञों के अनुष्ठानपूर्वक, यज्ञ के माध्यम से यजन करते हैं।

(ङ) जबू द्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

  ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः मध्ये शूद्राश्च भागशः॥ 9॥

  पुरुषैर्यज्ञपुरुषो जबू द्वीपे सदेज्यते॥ 21॥ (2.3.9, 21)

    अर्थ-जबू द्वीप (भारत सहित एशिया) में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र साथ-साथ निवास करते हैं। उन चारों वर्णों के पुरुषों द्वारा परमात्मा का सदा यज्ञ के द्वारा यजन किया जाता है।

(च) शाल्मलिद्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चैव यजन्ति ते॥ 30॥

वायुभूतं मखश्रेष्ठैः यज्विनो यज्ञसंस्थितम्॥ 31॥

(विष्णुपुराण 2.4.30, 31)

    अर्थ-शाल्मलि द्वीप में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी यज्ञशील हैं। वे चारों वर्ण यज्ञ-रूप वायु संज्ञक परमेश्वर की बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा उपासना करते हैं।

यहां अतिस्पष्ट शदों में शूद्रों द्वारा बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करना लिखा है। भागवतपुराण तो इस द्वीप की यज्ञ परपरा का अनुष्ठान स्पष्टतः वेदों द्वारा किया जाना लिखता है। पुराणकार इस वचन के द्वारा निर्विवाद रूप से शूद्रों का वेदाधिकार मानता है –

‘‘तद् वर्षपुरुषाः…भगवन्तं वेदमयं सोममात्मानं वेदेन यजन्ते।’’

(5.20.11)

    अर्थ-‘शाल्मलि द्वीप के चारों वर्णों के लोग वेदों में वर्णित, आत्मा में व्याप्त, सोमस्वरूप भगवान् की उपासना वेदमन्त्रों से यज्ञानुष्ठान सपन्न करके करते हैं।’ यहां भी शूद्रों के वेदपाठ और वेद से यज्ञानुष्ठान का स्पष्ट वर्णन है।

यह मनुस्वायभुव और उसके पौत्रों के काल का इतिहास है। उस काल में शूद्र यज्ञ भी करते थे और वेदमन्त्रों का वाचन करते थे, यह उद्घाटन भागवतपुराणकार कर रहा है। यह इतिहास-प्रमाण यह स्पष्ट करता है कि जिस मनु के शासन में शूद्र यज्ञ और वेदाध्ययन करते थे, वही मनु अपनी स्मृति में उनका निषेध नहीं कर सकता। इससे यह भी संकेत मिलता है कि वर्तमान मनुस्मृति में जहां कहीं शूद्रों के लिए वेद या यज्ञ आदि का निषेध मिलता है, उनका मनु की शासनकालीन व्यवस्था से तालमेल नहीं है, अतः वे सभी श्लोक बाद के लोगों ने रचकर मनुस्मृति में मिलाये हैं।

शूद्रों के धर्माधिकारों की अनवरत प्राचीन परंपरा : डॉ. सुरेन्द्र कुमार

पूर्व प्रदर्शित वेदोक्त मान्यता की परपरा वेदों से लेकर पुराणकाल तक निरन्तर मिलती है, जिसमें शूद्रों के लिए सुस्पष्ट रूप से धर्मानुष्ठानों का विधान और वर्णन है। मनु इसी वैदिक कालावधि के राजर्षि हैं, अतः उनके द्वारा शूद्रों के यज्ञ आदि का निषेध संभव नहीं माना जा सकता। धर्मानुष्ठान में भेदभाव का कथन पुराणों और पुराणाधारित साहित्य की देन है। फिर भी पुराणों में भेदभाव रहित प्राचीन धर्मानुष्ठान-परपरा का उल्लेख प्राचीन अंशों में कहीं-कहीं सुरक्षित है। यह इस तथ्य का संकेत है कि पुराणपूर्व काल में धर्मानुष्ठान के विषय में कोई भेदभाव नहीं था और इसका भी कि सभी पुराण शूद्रों के लिए वेद, यज्ञ आदि धार्मिक अधिकारों का निषेध नहीं मानते। यहां उस परपरा का दिग्दर्शन संक्षेप में कराया जा रहा है जिससे कोई पौराणिक भी यह आग्रह न करे कि शूद्रों के लिए धर्माधिकार के निषेध की परपरा प्राचीन और पुराणसमत है-

(क)    शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ में सोमपान के प्रसंग में शूद्र के लिए भी विधान है-

‘‘चत्वारो वै वर्णाः ब्राह्मणो राजन्यो वैश्यः शूद्रः, न ह एतेषां एकश्चन भवति यः सोमं वमति। स यद् ह एतेषां एकश्चित् स्यात् ह एव प्रायश्चित्तिः।’’ (5.5.4.9)

    अर्थ-वर्ण चार हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इनमें कोई भी यज्ञ में सोम का त्याग नहीं करेगा। यदि एक भी कोई करेगा तो उसको प्रायश्चित्त करना पड़ेगा।

(ख) ऐतरेय ब्राह्मण में ऐतिहासिक उल्लेख आता है कि कवष ऐलूष नामक व्यक्ति एक शूद्रा का पुत्र था। वह वेदाध्ययन करके ऋषि बना। आज भी ऋग्वेद के 10.30-34 सूक्तों पर मन्त्रद्रष्टा के रूप में कवष ऐलूष का नाम मिलता है (2.29)।

(ग) वाल्मीकीय रामायण में वर्णन है कि दशरथ ने जब अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया था तो उसमें शूद्रों को भी बुलाया था। उस समय में वे यज्ञ में उपस्थित होते थे और अन्य वर्णों के साथ पंक्ति में बैठकर भोजन करते थे (बालकाण्ड 13.14, 20, 21)

इसी प्रकार पांडवों के अश्वमेघ यज्ञ में भी शूद्र जन आमन्त्रित किये गये थे। वहां भी यज्ञ-भोजन की भागीदारी में कोई भेदभाव नहीं था। (महाभारत, अश्वमेध पर्व 88.23; 89.26)

(घ) महाभारतकार कहता है कि कर्मभ्रष्ट होकर निन वर्ण को ग्रहण करने वालों के लिए यज्ञ, धर्मपालन, वेदाध्ययन का निषेध नहीं है –

धर्मो यज्ञक्रिया तेषां नित्यं न प्रतिषिध्यते।

इत्येते चतुरो वर्णांः येषां ब्राह्मी सरस्वती॥

(शान्तिपर्व 188.15)

    अर्थ-वर्णान्तर प्राप्त जनों के लिए यज्ञक्रिया और धर्मानुष्ठान का निषेध कदापि नहीं है। वेदवाणीाी चारों वर्ण वालों के लिए है।

(ङ) महाभारत में तो इससे भी आगे बढ़कर दस्युओं के लिए भी इन कर्मों का विधान किया है-

भूमिपानां च शुश्रूषा कर्त्तव्या सर्वदस्युभिः।

वेदधर्मक्रियाश्चैव तेषां धर्मो विधीयते।।

(शान्तिपर्व 65.18)

    अर्थ-दस्युओं को राजाओं की सेवा पक्ष में युद्ध करके करनी चाहिए। वेदाध्ययन, यज्ञ आदि धर्मानुष्ठानों का पालन करना उनका भी विहित धर्म है।

(च) महाभारत में ही एक अन्य स्थान पर यज्ञ में चारों वर्णों की भागीदारी को स्वीकार किया गया है-

       ‘‘चत्वारो वर्णाः यज्ञमिमं वहन्ति’’ (वनपर्व 134.11)

    अर्थात्-इस यज्ञ का सपादन चारों वर्ण कर रहे हैं।

(छ) भविष्यपुराण शूद्रों को मन्त्र-अध्यापन का आदेश देता है-

‘‘ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राः, तेषां मन्त्राः प्रदेयाः।’’

(उ0 पर्व 13.62)

(ज) वेदोक्त प्राचीन परपरा के आधार पर ही ऋषि दयानन्द ने शूद्रों-स्त्रियों को यज्ञ, वेद आदि के अधिकारों की घोषणा करके इनका अधिकार प्रदान किया। उन्होंने तो दस्यु को भी वेद पढ़ने का निर्देश दिया है (ऋग्वेदभाष्य, 7.79.1, भावार्थ में)।

इस प्रकार शूद्रों द्वारा धर्मानुष्ठान तथा वेदाध्ययन की परपरा आरभिक वैदिक काल से चलती आ रही है। उस काल में शूद्रों पर धार्मिक प्रतिबन्ध का विचार ही नहीं था। अतः उस कालावधि के धर्मप्रवक्ता मनु के वचनों में शूद्रों के धर्माधिकार के निषेध का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। वस्तुस्थिति यह है कि नितान्त नवीन संकीर्ण धारणा प्रक्षेप के रूप में मनु पर थोप दी गयी है।

आन्तरिक प्रमाणों में धर्म और शिक्षा का विधान: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(क) विवाह में यज्ञ और मन्त्रोच्चारण-मनुस्मृति में चार वर्णों के लिए आठ विवाहों का वर्णन किया है जिनमें आर्यों के लिए चार विवाह श्रेष्ठ बताये हैं-ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापत्य

(3.20-42)। ये चारों विवाह यज्ञीय विधि से वेदमन्त्रों के उच्चारणपूर्वक सपन्न होते हैं (‘‘मङ्गलार्थं स्वस्त्ययनं यज्ञश्चासां प्रजापतेः। प्रयुज्यते विवाहेषु’’ (5.152)=यज्ञानुष्ठान और स्वस्तिवाचक मन्त्रों का पाठ विवाह में किया जाता है)। इस प्रकार शूद्र का विवाह भी यज्ञानुष्ठान और वेदमन्त्रोच्चारणपूर्वक सपन्न करना मनु मतानुसार अनिवार्य है। स्पष्ट है कि इस मौलिक विधि में शूद्रों के लिए धार्मिक अनुष्ठानों का विधान है। मनुस्मृति में इस मौलिक विधान और मूल-भावना के विरुद्ध जो श्लोक वर्णित मिलते हैं, वे परस्पर विरुद्ध होने प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं, जो कि बाद के लोगों ने मिलाये हैं।

(ख) मनु ने मनुस्मृति में शूद्रों को धर्म का अधिकार देते हुए कहा है-

               ‘‘न धर्मात् प्रतिषेधनम्’’ (10.126)

    अर्थात्-‘शूद्रों को धार्मिक कार्य करने का निषेध नहीं है’ यह कहकर मनु ने शूद्र को धर्मपालन की स्वतन्त्रता दी है।

(ग) शूद्राी गुरु हो सकता है-इस तथ्य का ज्ञान इस श्लोक से होता है जिसमें मनु ने कहा है कि ‘शूद्र से भी उत्तम धर्म को ग्रहण कर लेना चाहिए।’ देखिए, कितना स्पष्ट प्रमाण है-

             ‘‘आददीत-अन्त्यादपि परं धर्मम्॥’’  (2.238)

यदि अन्त्य अर्थात् शूद्र को धर्मपालन का अधिकार नहीं होता तो उससे धर्म-ग्रहण करने का उल्लेख मनु क्यों करते? और कैसे उससे धर्म सीखा जा सकता था? इससे पाठक एक और अनुमान लगा सकते हैं कि आर्यों की वर्णव्यवस्था इतनी उदारतापूर्ण और ज्ञानपिपासु थी कि नवीन व उत्तम शिक्षा प्राप्त करते समय उनके समक्ष छोटा-बड़ा, ऊंच-नीच आदि कुछ भी आड़े नहीं आता था।

(ग) ब्राह्मणेतर भी गुरु होता है

    यद्यपि व्यावसायिक दृष्टि से अध्यापन कार्य ब्राह्मणों का कर्त्तव्य है किन्तु एकाधिकार नहीं। अन्य वर्णों के प्रशिक्षण के लिए या विशेष विद्या की प्राप्ति के लिए ब्राह्मणेतर भी गुरु हो सकता है। मनु कहते हैं-

       अब्राह्मणादध्ययनम्, आपत्काले विधीयते॥       (2.241)

    अर्थात्-‘ब्राह्मणेतर वर्णस्थ गुरु भी हो सकता है किन्तु उससे आपत्काल अर्थात् ब्राह्मण द्वारा न पढ़ाने पर अथवा गुरु के अभाव में शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए।’ अध्यापन-कार्य ब्राह्मणों की आजीविका होने के कारण यह कथन है, सैद्धान्तिक दृष्टि से नहीं।

निष्कर्ष यह है कि शिक्षा तथा धर्मानुष्ठान का विधान शूद्रों के लिए भी है। किन्तु उनको वैधानिक शिक्षण तथा धर्मानुष्ठान का अधिकार इस कारण नहीं है क्योंकि वह विधिवत् शिक्षण एवं धर्मानुष्ठान का प्रशिक्षण नहीं लेता है। इसीलिए वह शूद्र कहाता है। इसे हम आज के डॉक्टरों के उदाहरण से समझ सकते हैं। सब डॉक्टर चिकित्सा तो कर सकते हैं किन्तु सब चिकित्सा प्रमाण पत्र देने के वैधानिक अधिकारी नहीं होते। शिक्षा आज भी सभी प्राप्त कर सकते हैं किन्तु सरकार केवल उन्हें ही नौकरी देती है जो विधिवत् शिक्षित-प्रशिक्षित होते हैं। यही नियम अन्य व्यवसायों पर लागू है। यही प्राचीन काल में शूद्र होने वालों पर लागू था।

कुरान समीक्षा : खुदा के प्रगट होने पर पहाड़ चूर-चूर हो गया

खुदा के प्रगट होने पर पहाड़ चूर-चूर हो गया

क्या खुदा इतना भारी था कि उसके बोझ के मारे पहाड़ भी चूर-चूर हो गया था? या खुदा इतना पापी था कि उसके आते ही तबाही पैदा हो गई थी? खुदा के आने पर खुशहाली क्यों नहीं पैदा होती खुलासा करें?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

व लम्मा जा- अ मूसा लिमी……….।।

(कुरान मजीद पारा ८ सूरा आराफ रूकू १७ आयत १४३)

फिर जब उसका पालनकर्ता पहाड़ पर जाहिर हुआ तो उसको चकनाचूर कर दिया और हजरत मूसा मूर्छा खाकर गिर पड़े।

समीक्षा

खुदा के जाने पर पहाड़ पर हरियाली और सुन्दर दृश्य पैदा हो जाने चाहिये थे, रोशनी होनी चाहिये थी। भले आदमी जब आते हैं तो खुशियां चारों ओर पैदा हो जाती हैं। बदमाश जब आते हैं तो बुरे लक्षण पैदा होते हैं।

खुदा क्या कोई राक्षस था जो उसके आने पर तबाही पैदा गई? या खुदा बेहद भारी था जो पहाड़ उसके बोझ से टूट कर चकनाचूर हो गया?

खण्डन क्यों, खण्डन कैसे? ऋषि के शबदों में

खण्डन क्यों, खण्डन कैसे? ऋषि के शबदों में

-राम निवास गुणग्राहक

किसी भी पदार्थ के सच्चे स्वरूप को जानने-समझने के लिए धरती तल के प्रत्येक बुद्धिमान् विवेकशील व्यक्ति व समाज की जो भी सर्वमान्य कसौटी होगी, उसमें खण्डन एक अनिवार्य घटक अवश्य होगा। खण्डन का सहारा लिये बिना संसार के इतिहास के किसी काल-खण्ड में कोई भी मान्य महानुभाव किसी भी सत्य को स्थापित करने में सफल हुआ होता, तो खण्डन की अनिवार्यता कभी की समाप्त हो चुकी होती। माना, अगर कोई व्यक्ति अज्ञानतावश, हठ वा दुराग्रह पूर्वक गाय को हाथी या घोड़ा कहने, मानने और मनवाने का प्रयास करने लगे तो गाय और घोड़े के अन्तर को, उनके सच्चे स्वरूप को जानने वाले बुद्धिमान् पुरुष गाय को गाय और घोड़े को घोड़ा सिद्ध करने के लिए खण्डन का सहारा लिये बिना काम चला लेंगे? यह कहना कि यह घोड़ा नहीं है, स्पष्ट खण्डन है और यह कहना कि यह गाय है, ये मण्डन है। किसी भूल, भ्रान्ति व हठवादिता को दूर करके सत्य की स्थापना का पहला कदम खण्डन के रूप में ही उठाना पड़ेगा। खण्डन से डरने, चिढने वा दूर भागने वाले व्यक्ति वा समाज सामाजिक अन्धविश्वासों व अन्धपरमपराओं के सुरक्षित गढ़ बनकर रह जाते हैं। खण्डन से डरने व चिढ़ने वाले व्यक्ति बुद्धि व हृदय दोनों की दृष्टि से कमजोर (दुर्बल) होते हैं। ऐसे लोग अपने आस-पास के परिवेश में चली आ रही परमपराओं व मान्यताओं से हटकर कुछ भी सोचने-विचारने व करने-कराने को तैयार ही नहीं होते। ये अपने पाखण्डपूर्ण परिवेश बदलने में तो संकोच नहीं करते, चाहे गायत्री परिवार वालों की गप्पबाजी हो या साईं का षड़यन्त्र, आसाराम की अमानवीय-अनैतिकताएँ हों या भविष्य में खड़े हो जाने वाले किसी नये कथित अवतारी के अवाञ्छित-असंगत उपदेश, खण्डन से डरने व चिढने वालों को ये सब तो सहज स्वीकार्य हैं, लेकिन सत्य-धर्म व ज्ञान की एक छोटी-सी किरण देखकर भी इनके हृदय में कौरवी-क्रोध की आग भड़क उठती है। रोगी बालक कड़वी दवा खाने या इंजैक्शन लगवाने से डरे वा बचना चाहे तो क्या उसके हितैषी परिजन या चिकित्सक अपना काम छोड़ देंगे? यदि नहीं, तो कुछ मत-वाले मतवादियों के चिढ़ने-क्रोध करने पर सत्य को निखारने में अत्यन्त उपयोगी घटक खण्डन की भी अनदेखी करना समभव नहीं।

महर्षि दयानन्द खण्डन की उपयोगिता बताते हुए लिखते हैं-‘विद्वानों का यही काम है कि सत्य-असत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण, असत्य का त्याग करके परम आनन्दित होते हैं।’ महर्षि की अटल मान्यता है-‘सत्योपदेश के बिना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है।’ इसलिए सत्य का सच्चा स्वरूप जनता के सामने रखना और उसका अधिकाधिक प्रचार करना वे मानव का सर्वोपरि कर्त्तव्य मानते थे। इसी कर्त्तव्य के पालनार्थ धार्मिक जगत् में व्याप्त अन्धविश्वासों को दूर करके सत्य-धर्म और ईश्वर के सच्चे स्वरूप को विश्वसनीय बनाकर प्रचारित करने के लिए ही ऋषिवर ने खण्डन का उपयोग किया था। वे लिखते हैं-‘यह लेख (खण्डन) केवल सत्य की वृद्धि और असत्य के ह्रास होने के लिए है न कि किसी को दुःख देने वा हानि करने अथवा मिथ्या दोष लगाने के अर्थ है।’ वे आगे लिखते हैं-‘सब मनुष्यों को उचित है कि सबके मत-विषयक पुस्तकों को देख-समझकर कुछ समति वा असमति देवें, नहीं तो सुना करें।’ खण्डन का उद्देश्य ‘सत्य की वृद्धि और असत्य का ह्रास’ ही होना चाहिए। किसी को दुःख पहुँचाने, हानि करने या किसी पर झूँठे दोष लगाने के लिए नहीं। महर्षि तो सब मनुष्यों को प्रेरणा करते हैं कि उन सब मतों, जिन्हें आज भूलवश हम धर्म कहते हैं-की पुस्तकों को देखें, समझें और उन पर अपने विचार प्रकट करें। जो ऐसा न कर सकें, तो ऐसी चर्चा या विचारों को सुनें। निश्चित रूप से ऐसी घोषणा सत्य-धर्म व न्याय के ठोस धरातल पर खड़ा ऋषि दयानन्द ही कर सकता है। ऋषि दयानन्द खण्डन करने वालों के लिए भी एक उपयोगी शिक्षा देते हुए लिखते हैं-‘प्रथम अपने दोष देख-निकालकर पश्चात् दूसरों के दोषों में दृष्टि देके निकालें।’ अपने दोष निकाले बिना दूसरों के दोष दूर करने की योजना या अभिमान कभी किसी के सफल नहीं हो सकते। आज आर्यसमाज के विद्वानों, कर्णधारों को ऋषि के इन शबदों पर सच्चे हृदय से विचार और व्यवहार करना चाहिए। मैं मेरे असत्य पर, दोषों पर पर्दा डालने का प्रयास करुँ, दूसरों के दोष-असत्य दूर करने में शक्ति लगाऊँ, यह खोखलापन खतरे से खाली नहीं है। हमें हृदय-पटल पर स्वर्ण-अक्षरों में ऋषि के शबद अंकित करने होंगे-‘सत्य के जय और असत्य के क्षय के अर्थ मित्रता से वाद वा लेख करना हमारी मनुष्य जाति का मुखय काम है। यदि ऐसा न हो तो मनुष्यों की उन्नति कभी न हो।’ मुझे लगता है कि ऋषि के इन शबदों पर लेखक के लिखने से कहीं अधिक पाठकों के विचारने व चिन्तन करने की आवश्यकता है। मैं तो महर्षि के ‘खण्डन क्यों?’ पर एक-दो वाक्य देकर आगे बढ़ना चाहता हूँ। खण्डन का औचित्य बताते हुए ऋषि लिखते हैं-‘न कोई किसी पर झूँठ चला सके और न सत्य को रोक सके और सत्यासत्य विषय प्रकाशित किये पर भी जिसकी इच्छा हो वह न माने वा माने, किसी पर बलात्कार नहीं किया जाता।’

खण्डन कैसे?-महर्षि दयानन्द की विलक्षण विशेषता ये थी कि वे लेखन से लेकर परस्पर के शास्त्रार्थ, संवाद तक में हार-जीत जैसी मानव-सुलभ भावनाओं से नितान्त निर्लिप्त रहकर केवल सत्य-असत्य के निर्णयार्थ तथा सत्य की स्थापना के लिए ही प्रवृत्त होते थे। चाहे चाँदापुर मेले के अवसर पर उनके सामने मिलकर मुस्लिम-ईसाइयों को हराने का प्रस्ताव हो, या काशी-शास्त्रार्थ में विरोधियों द्वारा छल-प्रपञ्च हो-हल्ला पूर्वक उन्हें पराजित् घोषित करने के बाद भी अपनी स्वाभाविक शान्ति व सहृदयता को बनाये रखा। उनकी लेखनी वा वाणी से कभी हल्के या कठोर शबदों का प्रयोग हुआ हो अथवा कभी किसी की व्यक्तिगत आलोचना या आस्था पर कटुप्रहार का कोई प्रसंग कहीं नहीं मिलता। सीधे शबदों में कहें तो उन्होंने विशुद्ध रूप से असत्य का ही खण्डन किया और असत्य के खण्डन में वे कितने आक्रामक और असहनशील हो सकते हैं, इसके वे स्वयं ही अपने उदाहरण थे। उनके पास एक माँ का वात्सल्यपूर्ण हृदय था और पिता का विवेकपूर्ण मस्तिष्क। संसार के पूर्ण उपकार को जीवन का लक्ष्य बनाने और उसी के लिए प्रतिपल जीने वाले निर्लिप्त ऋषि के हृदय में किसी के प्रति राग-द्वेष की कल्पना नहीं की जा सकती। उनका स्वयं का जीवन पूर्णतः निर्दोष होने के साथ-साथ सत्य के प्रति पूर्ण समर्पित था। सद्भावों से समुज्जवल, सद्गुणों से समुन्नत, सदाचार से सुशोभित और सत्य के लिए समर्पित हुए बिना अगर कोई भी पुरुष खण्डन में प्रवृत्त होता है तो उसके सुपरिणामों की सभावनाओं में आशंकाओं का ग्रहण लग ही जाता है। सत्य का मण्डन और असत्य का खण्डन कोई मानवीय क्षमताओं से समपन्न होने वाला कार्य नहीं लगता, इसके लिए मन-मस्तिष्क में दैवीय तत्त्वों की प्रधानता होनी चाहिए। जिन महामानवों के मन-मस्तिष्क दैवीय गुणों को जितनी मात्रा में पा-पचा लेते हैं, वे सत्य के मण्डन व असत्य के खण्डन में उतने ही दूरगामी सुपरिणाम पैदा कर सकते हैं।

‘खण्डन कैसे’ को महर्षि के शबदों में ही समझने का प्रयास करें तो उनके पूर्वोक्त वचनों में भी इसकी पर्याप्त झलक मिल जाती है। जैसे-‘सत्य के जय और असत्य के क्षय के अर्थ मित्रता से वाद वा लेख करना।’ खण्डन में ‘सत्य का जय व असत्य का क्षय’ ही मुखय ध्येय होना चाहिए, न कि स्वमत का पक्ष-पोषण। दूसरी बात- यह कार्य मित्रतापूर्वक सर्वहित की दृष्टि से होना ही उत्तम है। ऋषि लिखते हैं-‘यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वज्जन ईर्ष्या-द्वेष छोड़, सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना चाहें तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है।’ ईर्ष्या-द्वेष व जय-पराजय की भावना से ग्रस्त विद्वान् न तो सत्य-असत्य का निर्णय ही कर सकते हैं और न उनके अन्दर सत्य को ग्रहण करने व असत्य को त्यागने का सामर्थ्य आ पाता है। ईर्ष्या-द्वेष से ग्रस्त मत-वाले, पक्षपात आदि में प्रवृत्त-पुरुष खण्डन-मण्डन जैसे सत्य शोधक अनुष्ठान के लिए सर्वथा अयोग्य हैं, अपात्र हैं। महर्षि स्वयं इस दृष्टि से कितने उदारमना व गुणग्राहक थे, यह उन्हीं के शबदों में समझिये-‘जैसा मैं पुराण, जैनियों के ग्रन्थ, बाइबिल और कुरान को प्रथम ही बुरी दृष्टि से न देखकर उनमें से गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग तथा अन्य मनुष्य जाति की उन्नति के लिए प्रयत्न करता हूँ, वैसा सबको करना योग्य है।’ महर्षि की सद्भावना और गुणग्राहकता देखिये कि वे जिन पुराण-कुरान आदि का खण्डन करने लगे हैं, उनको भी प्रथम ही बुरी दृष्टि से न देखकर उनसे भी गुणों का ग्रहण करते हैं। हमारे यहाँ प्रसिद्ध है-‘शत्रोरपि गुणा वाचा दोषा वाचा गुरोरपि’-अर्थात् सद्गुण शत्रु में हों व दोष गुरु में भी हों तो उन्हें प्रकट करने में संकोच न करो। मेरे ऋषि की दृष्टि में तो कोई शत्रु था ही नहीं, उनका कोई शत्रु था तो असत्य था। जैसे ऋषि दयानन्द पुराण-कुरान आदि से भी गुण-ग्रहण की बात कहते हैं, वैसी भावना रखने वाला विद्वान् वैसी ही गुणग्राहक दृष्टि लेकर खण्डन-मण्डन में प्रवृत्त हो तो निश्चित रूप से सत्य का प्रचार-प्रसार असाध्य नहीं रहेगा।

महर्षि के कुछ मूल्यवान् वचन देकर लेख पूर्ण करेंगे। ‘अपने वा पराये दोषों को दोष और गुणों को गुण जानकर गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग करें, हठियों का हठ-दुराग्रह न्यून करें करावें।’….‘इस अनिश्चित क्षणभंगुर जीवन में पराई हानि करके लाभ से स्वयं रिक्त रहना और अन्य को रखना मनुष्यपन से बहिः है।’ ‘सब मत मतान्तरों की गुप्त वा प्रकट बुरी बातों का प्रकाश कर विद्वान्-अविद्वान् सब साधारण मनुष्यों के सामने रखा है, जिससे सबसे सबका विचार होकर परस्पर प्रेमी होके सब सत्य मतस्थ होवें।’

‘‘जो-जो आर्यावर्त्त वा अन्य देशों में अधर्म-युक्त चाल-चलन है, उसका स्वीकार और जो धर्मयुक्त बातें हैं, उनका त्याग नहीं करता, न कराना चाहता हूँ क्योंकि ऐसा करना मनुष्य-धर्म से बहिः है।’’ विवेकी पाठक! इन ऋषि वचनों के मर्म-धर्म को आत्मसात करें-करावें, इसी भावना से यह लेख लिखा है। शुभमस्तु!!

कुरान समीक्षा : खुदा घेर लिया जावेगा

खुदा घेर लिया जावेगा

क्या खुदा को भी घेरा जा सकता है? यदि हां तो उसकी लम्बाई चौड़ाई व मोटाई कितनी है? बताया जावे कि वह कितने बड़े मकान में समा सकता है।

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

व-त-रल्-मलाई-क-त हाफ्फी………।।

(कुरान मजीद पारा २३ सूरा जुमर रूकू ८ आयत ७५)

और (ऐ पैगम्बर! उस दिन) तू देखेगा कि फरिश्ते अपने परवर्दिगार की खूबी बयान करते हुए तख्त को (जिस पर खुदा बैठा होगा) आस-पास घेरे हुए हैं।

समीक्षा

जब खुदा को घेरा जा सकता है तो वह कद में (लम्बाई चौड़ाई मोटाई में) बहुत बड़ा (अनन्त) नहीं हो सकता है, बल्कि वह एक घेरे में आ जाने वाली छोटी सी हस्ती का व्यक्ति होगा।