शूद्रों के धर्माधिकार में मनुकालीन इतिहास और समाज -व्यवस्था के प्रमाण: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

जैसा कि प्रथम अध्याय में प्रमाण-सहित दर्शाया गया है कि मनु की वर्णव्यवस्था का प्रसार आदिकालीन विश्व में व्यापक स्तर पर था। मनु ने अपना प्रमुख राज्य अपने बड़े पुत्र प्रियव्रत को सौंपा था। उसने उसको अपने सात पुत्रों में सात विभाग करके बांट दिया। मनुकालीन उन सात द्वीपों अर्थात् देशों में मनु द्वारा निर्धारित समाज-व्यवस्था व्यवहार में थी। प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में जो मनुकालीन इतिहास दिया है और सांस्कृतिक विवरण दिया है उसके अनुसार सभी छह देशों में चारों वर्णों को यज्ञानुष्ठान और धर्मपालन का अधिकार था तथा चारों वर्ण यज्ञ करते थे। प्रमाण सहित उसका वर्णन प्रस्तुत है। पौराणिक जन इस विवरण को ध्यान से पढ़ें क्योंकि वही शूद्रों को यज्ञ आदि का निषेध करते हैं। ये पुराणों के ही प्रमाण हैं-

(क) कुशद्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चानुक्रमोदिताः॥

तत्र ते तु कुशद्वीपे……..यजन्तः क्षपयन्ति॥

(विष्णु पुराण 2.4.36, 39)

    अर्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कुशद्वीप में रहते हुए यजन करते हैं और इस प्रकार अपनी दुर्भावनाओं को नष्ट करते हैं।

भागवतपुराण में वर्णन है कि चारों वर्णों के लोग परस्पर कहते रहते थे – ‘‘यज्ञेन पुरुषं यज’’ (5.20.17)= उस परम पुरुष का यज्ञ से यजन करो। वहां चारों वर्णों में यज्ञ बहुप्रचलित था। चारों वर्ण यज्ञप्रेमी थे।

(ख) शाकद्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

    शाकद्वीपे तु तैर्विष्णुः यथोक्तैरिज्यते सयक्॥ 64, 70॥

(विष्णुपुराण 2.4.64,70)

    अर्थ-शाकद्वीप में चारों वर्णों के लोग सर्वव्यापक ईश्वर का यज्ञ के द्वाराालीभांति पूजन करते हैं।

भागवतपुराण में कहा है कि शाकद्वीप के चारों वर्णों के लोग ‘‘भगवन्तम्………….परमसमाधिना यजन्ते’’ (5.20.22)= परमात्मा की उत्तम समाधि द्वारा उपासना करते हैं।

(ग) प्लक्षद्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

धर्माः पञ्चस्वथैतेषु वर्णाश्रमविभागजाः॥ 15॥

इज्यते तत्र भगवान् तैर्वणैरार्यकादिभिः॥ 19॥

(विष्णुपुराण 2.4.7, 15, 19)

    अर्थ-प्लक्ष द्वीप में वर्ण और आश्रमों के लिए विहित धर्मों का पालन किया जाता है। आर्यक (ब्राह्मण) आदि चारों वर्णों द्वारा यज्ञ करके भगवान् की उपासना की जाती है।

भागवतपुराणकार इससेाी आगे बढ़कर स्पष्ट कथन करता है कि ‘‘त्रय्या विद्यया भगवन्तं त्रयीमयं सूर्यमात्मानं यजन्ते’’ (5.20.4) = ‘प्लक्षद्वीप में चारों वर्ण उस सूर्य संज्ञक परमात्मा का जो स्वयं वेदरूप है, तीनों वेदों के मन्त्रों से उसका यजन करते हैं।’

यहां शूद्रों द्वारा मन्त्रोच्चारण तथा वेदों से यज्ञानुष्ठान का विधान अतिस्पष्ट है। पौराणिक इस पुराण के वचन को पढ़कर सदा के लिए याद रखें।

(घ) क्रौञ्च द्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

  ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चानुक्रमोदिताः॥ 53॥

  यागैः रुद्रस्वरूपश्च इज्यते यज्ञसन्निधौ॥ 56॥ (2.4.53, 56)

    अर्थ-क्रौञ्च द्वीप में चार वर्ण हैं। वे रुद्रस्वरूप परमात्मा का अनेक यज्ञों के अनुष्ठानपूर्वक, यज्ञ के माध्यम से यजन करते हैं।

(ङ) जबू द्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

  ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः मध्ये शूद्राश्च भागशः॥ 9॥

  पुरुषैर्यज्ञपुरुषो जबू द्वीपे सदेज्यते॥ 21॥ (2.3.9, 21)

    अर्थ-जबू द्वीप (भारत सहित एशिया) में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र साथ-साथ निवास करते हैं। उन चारों वर्णों के पुरुषों द्वारा परमात्मा का सदा यज्ञ के द्वारा यजन किया जाता है।

(च) शाल्मलिद्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चैव यजन्ति ते॥ 30॥

वायुभूतं मखश्रेष्ठैः यज्विनो यज्ञसंस्थितम्॥ 31॥

(विष्णुपुराण 2.4.30, 31)

    अर्थ-शाल्मलि द्वीप में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी यज्ञशील हैं। वे चारों वर्ण यज्ञ-रूप वायु संज्ञक परमेश्वर की बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा उपासना करते हैं।

यहां अतिस्पष्ट शदों में शूद्रों द्वारा बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करना लिखा है। भागवतपुराण तो इस द्वीप की यज्ञ परपरा का अनुष्ठान स्पष्टतः वेदों द्वारा किया जाना लिखता है। पुराणकार इस वचन के द्वारा निर्विवाद रूप से शूद्रों का वेदाधिकार मानता है –

‘‘तद् वर्षपुरुषाः…भगवन्तं वेदमयं सोममात्मानं वेदेन यजन्ते।’’

(5.20.11)

    अर्थ-‘शाल्मलि द्वीप के चारों वर्णों के लोग वेदों में वर्णित, आत्मा में व्याप्त, सोमस्वरूप भगवान् की उपासना वेदमन्त्रों से यज्ञानुष्ठान सपन्न करके करते हैं।’ यहां भी शूद्रों के वेदपाठ और वेद से यज्ञानुष्ठान का स्पष्ट वर्णन है।

यह मनुस्वायभुव और उसके पौत्रों के काल का इतिहास है। उस काल में शूद्र यज्ञ भी करते थे और वेदमन्त्रों का वाचन करते थे, यह उद्घाटन भागवतपुराणकार कर रहा है। यह इतिहास-प्रमाण यह स्पष्ट करता है कि जिस मनु के शासन में शूद्र यज्ञ और वेदाध्ययन करते थे, वही मनु अपनी स्मृति में उनका निषेध नहीं कर सकता। इससे यह भी संकेत मिलता है कि वर्तमान मनुस्मृति में जहां कहीं शूद्रों के लिए वेद या यज्ञ आदि का निषेध मिलता है, उनका मनु की शासनकालीन व्यवस्था से तालमेल नहीं है, अतः वे सभी श्लोक बाद के लोगों ने रचकर मनुस्मृति में मिलाये हैं।

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