Category Archives: हिन्दी

स्त्रियों के प्रति मनु के दृष्टिकोण की समीक्षा: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

यहां प्रसंगवश यह स्पष्ट कर देना उपयोगी रहेगा कि मनु गुणों के प्रशंसक हैं और अवगुणों के निन्दक। गुणियों को समानदाता हैं, अवगुणियों को दण्डदाता। यदि उन्होंने गुणवती यिों को पर्याप्त समान दिया है, तो अवगुणवती यिों की निन्दा की है और दण्ड का विधान किया है। मनु की एक विशेषता और है, वह यह कि वे नारी की असुरक्षित तथा अमर्यादित स्वतन्त्रता के पक्षधर नहीं हैं, और न उन बातों का समर्थन करते हैं जो परिणाम में अहितकार हैं। इसीलिए उन्होंने यिों को चेतावनी देते हुए सचेत किया है कि वे स्वयं को पिता, पति, पुत्र आदि की सुरक्षा से अलग न करें, क्योंकि एकाकी रहने से दो कुलों की बदनामी होने की आशंका रहती है (5.149; 9.5-6)। देखिए एक प्रमाण-

पित्रा भर्त्रा सुतैर्वापि नेच्छेद् विरहमात्मनः।    

एषां हि विरहेण स्त्री गर्ह्ये कुर्यादुभे कुले॥ (5.149)

    अर्थ-‘किसी भी स्त्री को अपने पिता, पति या पुत्र के संरक्षण से रहित अपने आपको एकाकी रखने की इच्छा नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि इनसे पृथक् एकाकी रहने से दो कुलों के (अपने और पति के) अपयश की आशंका बनी रहती है।’ कारण यह है कि एकाकी रूप में रहते हुए स्त्री अपराधियों से अपनी रक्षा नहीं कर सकती। किसी स्त्री को पुरुष-संरक्षण के बिना एकाकी रहते देखकर अपराधी उसकी ओर कुदृष्टि रखने लगते हैं।

इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मनु यिों की स्वतन्त्रता के विरोधी हैं। इसका निहितार्थ यह है कि नारी की सर्वप्रथम सामाजिक आवश्यकता सुरक्षा की है। वह सुरक्षा उसे, चाहे शासन-कानून प्रदान करे अथवा कोई पुरुष या स्वयं का सामर्थ्य। भोगवादी आपराधिक प्रवृत्तियां उसके स्वयं के सामर्थ्य को सफल नहीं होने देतीं। उदाहरणों से पता चलता है और यह व्यावहारिक सच्चाई है कि शधारिणी डाकू यिों तक को भी पुरुष-सुरक्षा की आवश्यकता रहती है। मनु के उक्त कथन को आज की राजनीतिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में देखना सही नहीं है। आज देश में एक शासन है और कानून उसका रक्षक है। फिर भी हजारों नारियां अपराधों की शिकार होकर जीवन की बर्बादी की राह पर चलने को विवश हैं। प्रतिदिन बलात्कार, अपहरण, नारी-हत्या जैसे जघन्य अपराधों की अनेक घटनाएं होती हैं। जब राजतन्त्र में उथल-पुथल होती है, कानून शिथिल पड़ जाते हैं, तब क्या परिणाम होगा, उस स्थिति में मनु के वचनों का मूल्यांकन करके देखना चाहिये। तब यह मानना पड़ेगा कि वे शतप्रतिशत सही हैं।

मनुस्मृति में पति-पत्नी को त्यागने की परिस्थितियों का वर्णन: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(अ) मुयतः मनु का यही आदेश है कि विवाह सोच-विचार कर तथा पारस्परिक प्रसन्नता से समान, योग्य युवक और युवती से करें। विवाह के पश्चात् यह आदेश है कि पति पत्नी को और पत्नी पति को संतुष्ट और प्रसन्न रखे। इस प्रकार रहते हुए उन्हें निर्देश है कि वे सदा यह प्रयास रखें कि आजीवन एक-दूसरे से बिछुड़ने का अवसर न आये। मनु का यह प्रथम सिद्धान्त है-

(क) अन्योन्यस्याव्यभिचारो भवेदामरणान्तिकः।

       एषः धर्मः समासेन ज्ञेयः स्त्रीपुंसयोः परः॥ (9.101)

(ख)    तथा नित्यं यतेयातां स्त्रीपुंसौ तु कृतक्रियौ।

       यथा नाभिचरेतां तौ वियुक्तौ इतरेतरम्॥ (102)

    अर्थ-‘पति और पत्नी का संक्षेप में सबसे प्रमुख धर्म यह है कि दोनों सदा यह प्रयत्न करें कि मृत्युपर्यन्त दोनों का मर्यादा-अतिक्रमण और पार्थक्य (तलाक) न हो।’

‘विवाह करने के बाद स्त्री और पुरुष सदा ऐसा यत्न करें जिससे वे एक-दूसरे से पृथक् न हों और ऐसे कार्य तथा व्यवहार करें जिससे घर में पृथकता का वातावरण ही न बने।’

(आ) किन्तु इन्हीं श्लोकों की भाषा से यह ध्वनित होता है कि किन्हीं विशेष कारणों से अलग होने का अवसराी अपवाद रूप में होता था। कुछ स्थितियां मनुस्मृति में वर्णित भी हैं जब पति या पत्नी एक दूसरे को छोड़ सकते हैं-

(क) पत्नी को निम्न स्थितियों में छोड़ा जा सकता है-

वन्ध्याष्टमेऽधिवेद्यादे दशमे तु मृतप्रजा।        

एकादशे स्त्रीजननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी॥   (9.81)

    अर्थात्-‘स्त्री वन्ध्या हो तो आठ वर्ष पश्चात्, स्त्री को सन्तान होकर मर जाती हों तो दश वर्ष पश्चात्, और पत्नी कटुवचन बोलने वाली हो तो उसको शीघ्र ही छोड़ा जा सकता है।’

(ख) पति को निन स्थितियों में छोड़ा जा सकता है

       प्रोषितो धर्मकार्यार्थं प्रतीक्ष्योऽष्टौ नरः समाः।

       विद्यार्थं षट् यशोऽर्र्थं वा कामार्थं त्रींस्तु वत्सरान्॥ (9.76)

    अर्थात्-‘यदि पति परदेस जाकर निनलिखित अवधि तक न लौटे तो पत्नी को दूसरा पति करने का अधिकार है-धर्मकार्य के लिए आठ वर्ष तक, विद्याप्राप्ति अथवा प्रसिद्धि प्राप्ति के लिए छह वर्ष तक, धन प्राप्ति के लिए तीन वर्ष तक।’

(इ) किन्तु निर्दोष अवस्था में एक-दूसरे को त्यागने पर दोषी व्यक्ति राजा द्वारा दण्डनीय है-

न माता न पिता न स्त्री न पुत्रस्त्यागमर्हति।      

त्यजन्नपतितानेतान्, राज्ञा दण्ड्यः शतानि षट्॥       (8.389)

    अर्थ-‘बिना गभीर अपराध के माता, पिता, पत्नी, पुत्र का त्याग नहीं किया जा सकता। ऐसा करने पर राजा द्वारा त्यागकर्त्ता को छह सौ पण दण्ड देना चाहिए और त्यक्त परिजनों को साथ रखने का आदेश देना चाहिये।’

स्त्रियों की सुरक्षा के विशेष नियम: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(अ) स्त्रियों के धन की सुरक्षा के विशेष निर्देश

    स्त्रियों को अबला समझकर कोई भी, चाहे वह बन्धु-बान्धव ही क्यों न हों, यदि यिों के धन पर अधिकार कर लें, तो मनु नेउन्हें चोर सदृश दण्ड से दण्डित करने का आदेश दिया है

(9.212; 3.52; 8.28; 8.29)। कुछ प्रमाण प्रस्तुत हैं-

वन्ध्याऽपुत्रासु चैवं स्याद् रक्षणं निष्कुलासु च।

पतिव्रतासु च स्त्रीषु विधवास्वातुरासु च॥ (8.28)

जीवन्तीनां तु तासां ये तद्धरेयुः स्वबान्धवाः।

तान् शिष्यात् चौरदण्डेन धार्मिकः पृथिवीपतिः॥ (8.29)

    अर्थ-‘सन्तानहीन, पुत्रहीन, जिसके कुल में कोई पुरुष न बचा हो, पतिव्रत धर्म पर स्थिर, विधवा और रोगिणी, इन स्त्रियों के धन की रक्षा करना राजा का कर्त्तव्य है।’

‘यदि जीते-जी इनके धन को इनके परिजन या सगे-सबन्धी ले लें तो उनको धार्मिक राजा चोर के समान मानकर उसी दण्ड से दण्डित करे और उक्त स्त्रियों का धन दिलवाये।’

(आ) नारियों के प्रति किये अपराधों में कठोर दण्ड

    यिों की सुरक्षा के दृष्टिगत नारियों की हत्या और उनका अपहरण करने वालों के लिए मृत्युदण्ड का विधान करके तथा बलात्कारियों के लिए यातनापूर्ण दण्ड देने के बाद देश-निकाला का आदेश देकर मनु ने नारियों की सुरक्षा को सुनिश्चित बनाने का यत्न किया है। नारियों के जीवन में आने वाली प्रत्येक छोटी-बड़ी कठिनाई का ध्यान रखते हुए मनु ने उनके निराकरण हेतु स्पष्ट निर्देश दिये हैं। पुरुषों को निर्देश है कि वे माता, पत्नी और पुत्री के साथ झगड़ा न करें (4.180)। नारियों पर मिथ्या दोषारोपण करने वालों, नारियों को निर्दोष होते हुए त्यागने वालों, पत्नी के प्रति वैवाहिक दायित्व न निभाने वालों के लिए दण्ड का विधान है।

(क) स्त्रियों के अपहरण पर दण्ड-

पुरुषाणां कुलीनानां नारीणां च विशेषतः।  

मुयानां चैव रत्नानां   हरणे वधमर्हति॥      (8.323)

    अर्थ-‘स्त्रियों का विशेष रूप से तथा कुलीन पुरुषों का अपहरण करने पर अपराधी को मृत्युदण्ड देना चाहिए। इसी प्रकार रत्न आदि प्रमुख पदार्थों की चोरी-डकैती के अपराध में भी मृत्युदण्ड होना चाहिए।’

(ख) स्त्रियों से बलात्कार करने पर यातनापूर्ण दण्ड-

परदाराभिमर्शेषु प्रवृत्तान् नृन् महीपतिः।      

उद्वेजनकरैः दण्डैः छिन्नयित्वा प्रवासयेत्॥  (8.352)

    अर्थ-‘राजा, स्त्रियों से बलात्कार और व्याभिचार में संलग्न लोगों के हाथ, पैर काटना आदि यातनापूर्ण दण्ड देकर उन्हें अपने देश से निकाल दे।’

(ग) स्त्रियों की हत्या करने पर दण्ड-

    ‘‘स्त्रीबालब्राह्मणघ्नांश्च हन्याद् द्विट्सेविनस्तथा।’’ (9.232)

    अर्थ-‘स्त्रियों, बालकों, सदाचारी ब्राह्मणविद्वानों की हत्या करने वालों और शत्रुओं के सहयोगी लोगों को राजा मृत्युदण्ड से दण्डित करे।’

दायभाग में पुत्र-पुत्री का समान अधिकार: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

संसार के प्रथम विधिनिर्माता महर्षि मनु ने पैतृक सपत्ति में पुत्र-पुत्री को समान अधिकारी माना है। उनका यह मत मनुस्मृति के 9.130, 192 में वर्णित है। मनु के उस मत को प्रमाण मानकर आचार्य यास्क ने निरुक्त में इस प्रकार उद्धृत किया गया है-

(क) अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः।

       मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायभुवोऽब्रवीत्॥   (3.4)

    अर्थात्-‘सृष्टि के प्रारभ में स्वायभुव मनु ने यह विधान किया है कि धर्म अर्थात् कानून के अनुसार दायभाग = पैतृक सपत्ति में पुत्र-पुत्री का समान अधिकार होता है।’ इसी प्रकार मातृधन में केवल कन्याओं का अधिकार विहित करके मनु ने परिवार में कन्याओं के महत्त्व में अभिवृद्धि की है (9.131)। इस विषय में महर्षि मनु का स्पष्ट मत यह है-

(ख)    यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा।

       तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धनं हरेत्॥   (9.129)

    अर्थ-‘पुत्र अपने आत्मा का ही एक रूप होता है, उस पुत्र के समान ही पुत्री भी आत्मारूप होती है, उनमें कोई भेद नहीं। जब तक आत्मारूप पुत्र और पुत्री जीवित हैं तब तक माता-पिता का धन उन्हें ही मिलेगा, अन्य कोई उसका अधिकारी नहीं है।’

(ग) एक अन्य धन-विभाजन में माता और भाई के धन में क्रमशः पुत्र-पुत्रियों और भाई-बहनों का समान भाग वर्णित किया है –

जनन्यां संस्थितायां तु समं सर्वे सहोदराः।      

भजेरन् मातृकं रिक्थं भगिन्यश्च सनाभयः॥    (9.192)

सोदर्या विभजेरन् तं समेत्य सहिता समम्।      

भ्रातरो ये च संसृष्टा भगिन्यश्च सनाभयः॥     (9.212)

    अर्थ-‘माता के देहान्त के पश्चात् सभी सगे भाई और सगी बहनें मातृधन को बराबर बांट लें।’

‘इसी प्रकार किसी अविवाहित भाई के मर जाने पर सभी सगे भाई व बहनें मिलकर उसके धन को बराबर बांट लें।’

इन प्रमाणों से ज्ञात होता है कि मनु ऐसे पहले संविधान-निर्माता हैं जिन्होंने बिना किसी भेदभाव के पुत्र-पुत्री को समान माना है और बराबर दायभाग प्रदान किया है।

युवतियों को वैवाहिक स्वतन्त्रता: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(अ) स्वयवर विवाह का अधिकार

महर्षि मनु, युवतियों को वैवाहिक स्वतन्त्रता का अधिकार देते हैं। विवाह के विषय में मनु के विचार आदर्श हैं। वे कन्याओं के लिए सोलह वर्ष से अधिक आयु को विवाह-योग्य मानते हैं और सहमतिपूर्वक विवाह को उत्तम मानते हैं। मनु ने कन्याओं को योग्य पति का स्वयं वरण करने का निर्देश देकर स्वयवर विवाह का अधिकार एवं उसकी स्वतन्त्रता दी है (9.90-91)। विधवा को पुनर्विवाह का भी अधिकार दिया है तथा साथ ही सन्तानप्राप्ति के लिए नियोग की भी छूट है (9.176, 9.56-63)। उन्होंने विवाह को कन्याओं के आदर-स्नेह का प्रतीक बताया है, अतः विवाह में किसी भी प्रकार के लेन-देन को अनुचित बताते हुए बल देकर उसका निषेध किया है (3.51-54)। यिों के सुखी-जीवन की कामना से उनका सुझााव है कि जीवनपर्यन्त अविवाहित रहना श्रेयस्कर है, किन्तु गुणहीन और दुष्ट पुरुष से विवाह नहीं करना चाहिए (9.89)। कुछ प्रमाण द्रष्टव्य हैं-

त्रीणि   वर्षाण्युदीक्षेत   कुमार्यृतुमती सती।  

ऊर्ध्वं तु कालादेतस्मात् विन्देत सदृशं पतिम्॥ (9-90)

अदीयमाना भर्तारमधिगच्छेद् यदि स्वयम्।  

नैनः किंचिदवाप्नोति न च यं साऽधिगच्छति॥ (9-91)

    अर्थ-विवाह करने की इच्छुक कन्या स्वयवर विवाह कर सकती है। ऋतुमती होने के तीन वर्ष बाद तक वह विवाह की प्रतीक्षा करे। उसके बाद उसे स्वयं पति का वरण करके विवाह करने का वैधानिक अधिकार है।

उस अवस्था में यदि वह विधिवत् स्वयवर विवाह करती है तो न तो उस कन्या को दोषी माना जायेगा और न पति को दोषी माना जायेगा।

(आ) गुणहीन पुरुष से विवाह नहीं

महर्षि मनु पुरुष-पक्षपाती और अन्धश्रद्धा पर आधारित आदेश-निर्देश देने वाले विधिदाता नहीं हैं। वे दुष्ट पति को भी पति-परमेश्वर मानने के पक्षधर बिल्कुल नहीं है। उनके आदेश यथायोग्य न्याय पर आधारित होते हैं। मनु का आदेश है कि कन्या चाहे आजीवन कुंवारी रह जाये किन्तु उसे गुणहीन पुरुष से न तो विवाह करना चाहिए और न ऐसे पुरुष को पति स्वीकारना चाहिए-

    काममामरणात्तिष्ठेत्   गृहे   कन्यर्तुमत्यपि।  

    न चैवेनां प्रयच्छेत्तु गुणहीनाय कर्हिचित्॥   (9.89)

    अर्थ-ऋतुमती होने के बाद तीन वर्ष बीत जाने पर भी चाहे कन्या आजीवन कुंवारी रही रहे किन्तु गुणहीन पुरुष से उसको विवाह कदापि नहीं करना चाहिए।

पुत्र-पुत्री में भेदभाव नहीं: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

मनुमत से अनभिज्ञ पाठकों को यह जानकर सुखद आश्चर्य होना चाहिये कि मनु ही सबसे पहले वह संविधान-निर्माता हैं जिन्होंने पुत्र-पुत्री की समानता को घोषित करके उसे वैधानिक रूप दिया है-

    ‘‘यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा’’   (मनु0 9.130)

    अर्थात्-‘‘पुत्री, पुत्र के समान होती है क्योंकि वह भी पुत्र के समान आत्मारूप है। इस प्रकार पुत्र और पुत्री में कोई भेद नहीं है। अतः उसके साथ कोई भेदभाव भी नहीं किया जाना चाहिए।’’

नारी का परिवार में महत्त्व: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

महर्षि मनु के अनुसार नारी का परिवार में महत्त्वपूर्ण स्थान है। महर्षि मनु परिवार में पत्नी को पति से भी अधिक महत्त्व देते हैं। वे पति-पत्नी को बिना किसी भेदभाव के समान रूप से एक दूसरे को संतुष्ट रखने का दायित्व सौंपते हैं। इसी स्थिति में वे परिवार का निश्चित कल्याण मानते हैं। मनु के कुछ मन्तव्य इस प्रकार हैं-

(अ)   पति-पत्नी की पारस्परिक संतुष्टि से ही कुल का कल्याण संतुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्रा भार्या तथैव च।

      यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम्॥     (3.60)

    अर्थ-‘जिस कुल में भार्या=पत्नी के व्यवहार से पति संतुष्ट रहता है और पति के व्यवहार से पत्नी सन्तुष्ट रहती है, उस परिवार का निश्चय ही कल्याण होता है।’

(आ) नारी की प्रसन्नता में परिवार की प्रसन्नता निहित है-

   स्त्रियां तु रोचमानायां सर्वं तद् रोचते कुलम्।    

   तस्यां त्वरोचमानायां सर्वमेव न रोचते॥ (3.62)

   तस्मादेताः सदा पूज्याः भूषणाच्छादनाशनैः।  

   भूतिकामैर्नरैः नित्यं सत्कारेषूत्सवेषु च॥ (3.59)

   पितृभिः भ्रातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा।  

   पूज्याः भूषयितव्याश्च बहुकल्याणभीप्सुभिः॥ (3.55)

    अर्थ-‘स्त्री के प्रसन्न रहने पर ही सारा कुल प्रसन्न रह सकता है। उसके अप्रसन्न रहने पर सारा परिवार प्रसन्नता-विहीन हो जाता है।’

‘इस कारण अपना और अपने परिवार का कल्याण चाहने वालों का कर्त्तव्य है कि वे सत्कार के अवसर पर और खुशियों के अवसर पर स्त्रियों का आभूषण, वस्त्र, खान-पान आदि के द्वारा सदा सत्कार व आदर किया करें।’

‘अपना और अपने परिवार का अधिक कल्याण चाहने वाले पिता आदि बड़ों, भाइयों, पति और देवरों का यह कर्त्तव्य है कि वे नारियों का सदा आदर करें और आभूषण, वस्त्र आदि द्वारा उनको सुशोभित रखें।’

(इ)     पत्नी के शोकग्रस्त होने से कुल नाश-

शोचन्ति जामयो यत्र विनशत्याशु तद्कुलम्।  

   न शोचन्ति तु यत्रैताः वर्धते तद्धि सर्वदा॥ (3.57)

   जामयो यानि गेहानि शपन्त्यप्रतिपूजिताः।  

   तानि कृत्याहतानीव विनश्यन्ति समन्ततः॥ (3.58)

    अर्थ-‘पत्नियों का आदर क्यों चाहिए? क्योंकि जिन कुलों में अनादरपूर्ण व्यवहार से पत्नियां शोकग्रस्त रहती हैं, वह कुल शीघ्र नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। जहां शोकग्रस्त नहीं रहती अर्थात् प्रसन्न रहती हैं वह कुल उत्तरोत्तर उन्नति करता जाता है।’

‘अनादर के कारण शोकपीड़ित रहने वाली स्त्रियां जिन घरों को अभिशाप देती हैं अर्थात् कोसती हैं यह समझो कि वह परिवार इस प्रकार नष्ट हो जाता है जैसे किसी घातक विपदा से लोग नष्ट हो जाते हैं। उस परिवार का चहुंमुखी पतन हो जाता है।’

(ई) पत्नी परिवार के सुख का आधार

       अपत्यं धर्मकार्याणि शुश्रूषारतिरुत्तमा।    

       दाराधीनस्तथा स्वर्गः पितृणामात्मनश्च ह॥       (9.28)

    अर्थ-‘सन्तानोत्पत्ति, धर्म कार्यों का अनुष्ठान, उत्तम सेवा, उत्तम रतिसुख, अपना तथा घर के बड़े-बुजुर्गों का सुख और सेवा, निश्चय ही ये सब पत्नी के अधीन हैं अर्थात् पत्नी से ही संभव हैं।

(उ) माता, बहन, पुत्री, भार्या से कलह न करें-

नारियों के समान की रक्षा करते हुए मनु ने परिवार में उनकी स्थिति को सुरक्षित एवं सयतापूर्ण बनाया है। उनके साथ मारपीट की बात तो दूर है, उनके साथ विवाद=कलह अथवा व्यर्थ की बहस भी करने का निषेध किया है-

    ‘‘माता पितृयां……भार्यया, दुहित्रा विवादं न समाचरेत्।’’       (4.180)

    अर्थ-‘माता, पिता, पत्नी पुत्री आदि के साथ कलह न करें। उन पर कोई आरोप न लगायें।’ ऐसा करने पर पुरुषों को दण्डित करने का आदेश मनु ने दिया है-

‘‘मातरं पितरं जायाम्……आक्षारयन् शतं दण्ड्यः।’’ (8.180)

    अर्थ-‘माता,पिता, पत्नी पर मिथ्या आरोप लगाने वालों को एक सौ पण का दण्ड दिया जाना चाहिए।’

(ऊ) माता, स्त्री आदि का त्याग नहीं किया जा सकता

समाज में स्वार्थी, लोभी मनुष्य भी रहते हैं। वे कभी-कभी स्वार्थ और लोभ से प्रेरित होकर माता, पिता, पत्नी आदि को छोड़ देते हैं। सेवा-संभाल न करनी पड़े, कभी इस कारण उनको अपने से पृथक् कर देते हैं। मनु का यह आदेश है कि माता आदि को किसी भी रूप में नहीं छोड़ा जा सकता। छोड़ने वाला व्यक्ति दण्डनीय होगा। उनके जीवन को सुरक्षित बनाने के लिए मनु का यह आदेश है-

माता न पिता न स्त्री न पुत्रस्त्यागमर्हति।

त्यजन्-अपतितान् एतान् राज्ञा दण्ड्यः शतानि षट्॥ (8.389)

    अर्थ-बिना गभीर अपराध के माता, पिता, पत्नी, पुत्र का त्याग नहीं किया जा सकता। इनको छोड़ने वाला व्यक्ति राजा द्वारा छह सौ पण के द्वारा दण्डनीय होगा और त्यागे हुए परिजनों को पुनः साथ रखकर उनकी सेवा-संभाल करनी होगी।

नारियों को सर्वोच्च सम्मान दाता मनु: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(अ) नारियों को सर्वोच्च सम्मान दाता मनु

वैदिक परपरा में ‘माता’ को प्रथम गुरु मानकर सम्मान दिया जाता था। मनु उसी परपरा के हैं। महर्षि मनु विश्व के वे प्रथम महापुरुष हैं जिन्होंने नारी के विषय में सर्वप्रथम ऐसा सर्वोच्च आदर्श उद्घोष दिया है, जो नारी की गरिमा, महिमा और समान को सर्वोच्चता प्रदान करता है। संसार के किसी पुरुष ने नारी को इतना गौरव और समान नहीं दिया। मनु का वियात श्लोक है-

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।      

यत्रैताः तु न पूज्यन्ते सर्वाः तत्राफला क्रियाः॥   (3.56)

अर्थ-इसका सही अर्थ है- ‘जिस समाज या परिवार में नारियों का आदर-समान होता है, वहां देवता अर्थात् दिव्य गुण, दिव्य सन्तान, दिव्य लाभ आदि प्राप्त होते हैं और जहां इनका आदर-समान नहीं होता, वहां अनादर करने वालों की सब गृह-सबन्धी क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं।’

नारियों के प्रति मनु की भावना का बोध कराने वाले, स्त्रियों के लिए प्रयुक्त समानजनक एवं सुन्दर विशेषणों से बढ़कर और कोई प्रमाण नहीं हो सकते। वे कहते हैं कि नारियां घर का भाग्योदय करने वाली, आदर के योग्य, घर की ज्योति, गृहशोभा, गृहलक्ष्मी, गृहसंचालिका एवं गृहस्वामिनी, घर का स्वर्ग और संसारयात्रा की आधार होती हैं-

    प्रजनार्थं महाभागाः पूजार्हाः   गृहदीप्तयः।

    यिःश्रियश्च गेहेषु न विशेषोऽस्ति कश्चन॥ (मनु0 9.26)

    अर्थात्- ‘सन्तान उत्पत्ति करके घर का भाग्योदय करने वाली, आदर-समान के योग्य, गृहज्योति होती हैं यिां। शोभा, लक्ष्मी और स्त्री में कोई अन्तर नहीं है, वे घर की प्रत्यक्ष शोभा हैं।’

(आ) स्त्रियों को सम्मान में प्राथमिकता

‘लेडीज फस्ट’ की सयता के प्रशंसकों को यह पढ़कर और अधिक प्रसन्नता होनी चाहिए कि महर्षि मनु ने सभी को यह निर्देश दिया है कि ‘यिों के लिए पहले रास्ता छोड़ दें। और नवविवाहिताओं, कुमारियों, रोगिणी, गर्भिणी, वृद्धा आदि यिों को पहले भोजन कराने के बाद फिर पति-पत्नी को साथ भोजन करना चाहिए।’ मनु के ये सब विधान यिों के प्रति समान और स्नेह के द्योतक हैं।’ कुछ श्लोक देखिए –

चक्रिणो दशमीस्थस्य रोगिणो भारिणः स्त्रियाः।  

स्नातकस्य च राज्ञश्च पंथा देयो वरस्य च॥ (2.138)

सुवासिनीः कुमारीश्च रोगिणी गर्भिणी स्त्रियः।  

अतिथियोऽग्र एवैतान् भोजयेदविचारयन्॥ (3.114)

    अर्थ-‘स्त्रियों, रोगियों, भारवाहकों, नबे वर्ष से अधिक आयु वालों, गाड़ी वालों, स्नातकों, वर और राजा को पहले रास्ता देना चाहिए।’

‘नवविवाहिताओं, अल्पवय कन्याओं, रोगी और गर्भिणी स्त्रियों को, आये हुए अतिथियों से भी पहले भोजन करायें। फिर अतिथियों और भृत्यों को भोजन कराके द्विज-दपती स्वयं भोजन करें।’

समान और शिष्टाचार का परिचय ऐसे ही अवसरों पर मिलता है। मनु ने नारी के प्रति शिष्टाचार को बनाये रखा है।

आत्मा का स्थान-5

आत्मा का स्थान-5

–  स्वामी आत्मानन्द

गतांक से आगे…..

जो आत्मा अभी अन्नमय, प्राणमय, और मनोमय में फंसा हुआ है, उसको लक्ष्य का निर्देश इस आगे के प्रसङ्ग में किया गया है-

मनोमयः प्राणशरीरनेता प्रतिष्ठितोऽन्ने हृदयं सन्निधाय।

तद्विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीरा आनन्दरूपममृतं यद्विभाति।

(मु. 2/2/7)

शरीर का नेता अर्थात् प्राणमय और अन्नमय के प्रबन्ध में लगा हुआ आत्मा, अन्न में = अन्नमय कोष में अपने हृदय को स्थापित कर उस में प्रतिष्ठित है। जो आनन्द रूप अमृत ब्रह्मरन्ध्र में चमक रहा है और प्राप्तव्य है, उसे विद्वान् लोग विज्ञान से अर्थात् इन कोषों और आत्मा के विवेक से देख पाते हैं।

इस प्रसङ्ग में स्पष्ट ही सिद्ध होता है कि आत्मा नीचे के हृदय में प्रतिष्ठित है। क्योंकि उसे विवेक नहीं हुआ, और विवेक के बिना ऊपर के हृदय में उत्क्रमण हो नहीं सकता।

इस आगे के प्रसंग में महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी अज्ञानी आत्मा की स्थिति नीचे के हृदय में ही मानी है।

य एष विज्ञानमयः पुरुषस्तदेषां प्राणानां विज्ञानेन विज्ञानमादाय य एषोऽन्तर्हृदय आकाशस्तस्मिन् शेते। तानि यदा गृह्णात्यथ हैतत्पुरुषः स्वपिति नाम। तद्गृहीत एव प्राणो भवति। गृहीता वाक् गृहीतं चक्षुः। गृहीतं श्रोत्रं गृहीतं मनः।। (बृहदारण्यक 2/1/17)

(जो यह विज्ञानमय आत्मा है वह अपने विज्ञान से इन प्राणों=इन्द्रियों के विज्ञान को समेट कर जो कि हृदय के अन्दर आकाश है उस में सोता है। उन इन्द्रियों को जब वह पकड़ लेता है=उन्हें कार्य से विरत कर देता है, तब यह पुरुष सोता है। उस समय नासिका, वाणी, चक्षु, श्रोत्र और मन सब काम करना बन्द कर देते हैं।)

इस प्रसङ्ग में भी आत्मा को इन्द्रियों से काम लेता हुआ और सोने के समय उन्हें समेट लेता हुआ प्रकट किया गया है। इन्द्रियों के बन्धन में=प्राणमय कोष में ही फंसा हाने के कारण यह आत्मा भी  अभी अज्ञानी है, उत्क्रमण का अधिकारी नहीं, अतः इस का भी निवास नीचे के हृदय में ही है।

और भी आगे चल कर कहा है

अथ यदा सुषुप्तो भवति यदा न कस्यचन वेद हिता नाम नाड्यो द्वासप्ततिः सहस्राणि हृदयात्पुरीतत– मभिप्रतिष्ठन्ते ताभिः प्रत्यवसृप्य पुरीतति शेते।

(बृहदारण्यक 2/1/19)

(अब जब मनुष्य सो जाता है, जब किसी को भी नहीं जानता, तब उसकी जो हिता नाम 72000 बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं उनके द्वारा फैलकर पुरीतत नाड़ी में सोता है।)

हिता नामक हृदय की नाड़ियों के पास ही हृदयाकाश में पुरीतत नाड़ी होगी, जिसमें आत्मा सोता है। क्योंकि ऊपर के प्रसंग में महर्षि याज्ञवल्क्य ने ही जीव का शयन हृदय के आकाश में लिखा है।

यहाँ सारी प्रशाखाओं का सङ्कलन नहीं कि या गया, इसीलिये संखया बहत्तर हजार लिखी है।

यह आत्मा भी अभी आज्ञानी ही है, अतः इसका स्थान भी नीचे का हृदय ही है।

अन्यत्र महर्षि याज्ञवल्क्य लिखते हैं-

कतम आत्मेति योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृद्यन्तज्योतिः पुरुषः।।

(बृहदारण्यक 4/3/7)

(यह कौन सा आत्मा है, जो कि विज्ञानमय नामक है और हृदय के अन्दर प्राणों के मध्य में है, और जो आी अन्तर्ज्योति है, जिसका प्रकाश आी उस के अन्दर ही है, प्रकट नहीं हुआ)

इस प्रसङ्ग में महर्षि ने आत्मा का नाम विज्ञानमय कहा है। और उसे उस हृदय में उपस्थित किया है, जो प्राण केन्द्र के मध्य में शिर में है। क्योंकि वह मन पर अधिकार कर विज्ञानमय में प्रविष्ट हो चुका है। उसका विवेक ब्रह्मरन्ध्र में भगवान् की सहायता से करना चाहता है। और अपनी अन्तर्हित विज्ञान-ज्योति को प्रकट करना चाहता है।

प्राणों का केन्द्र मस्तिष्क में है, इसके समबन्ध में यजुर्वेद के एक मन्त्र के द्वारा महर्षि याज्ञवल्क्य क्या कहते हैं, इसे आगे पढ़िये-

‘‘अर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नस्तस्मिन् यशो निहितं विश्वरूपम् तस्याऽऽसत ऋषयः सप्त तीर वागष्टमी ब्रह्मणा संविदानेति। य एष ऊर्ध्वबुध्नः तच्छिरः। प्राणा वै यशो विश्वरूपम्। प्राणा वा ऋषयः। वाग्ध्यष्टमी ब्रह्मणा संवित्ते।’’ (बृहदारण्यक 2/2/3)

(एक कटोरा है, जिसका पेंदा ऊपर और छिद्र नीचे है। उसमें विश्वरूप यश रक्खा हुआ है। उसके किनारे पर सात ऋषि हैं, और आठवीं वाणी है, जो ब्रह्म के साथ संवाद करती है। इसके व्याखयान में महर्षि लिखते हैं कि वह कटोरा हमारा शिर है और इसमें जो विश्वरूप यश है वह प्राण है। सात ऋषि भी  प्राण ही है और आठवीं ब्रह्म से संवाद करने वाली अथवा उसका गुणगान करने वाली वाणी भी  शिर के पास ही है।)

इस प्रसंग में महर्षि ने प्राणों का केन्द्र शिर माना है। यद्यपि प्राण, शरीर में भिन्न-भिन्न स्थानों में रहकर भिन्न-भिन्न कार्य कर  रहे हैं, परन्तु उनका प्रधान केन्द्र शिर ही है।

अयासी आत्मा को जहाँ ब्रह्म की प्राप्ति होती है, वह स्थान भी यह ब्रह्मरन्ध्र वाला हृदय ही है। इस विषय में आचार्य यम कहते हैं-

तन्दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम्।

अध्यात्मयोगधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति।

(कठ.1/2/12)

(वह दृष्टि से गय नहीं है। वह पुराण है और छिपा हुआ हृदय की गुहा में प्रविष्ट है। उस देव को अध्यात्म योग से मनन कर बुद्धिमान् पुरुष हर्ष शोक से छूट जाता है।)

ब्रह्म ऊपर की गुहा के अन्दर जिसे कि ब्रह्मरन्ध्र वाला हृदय कहते हैं, मिलता है। आत्मा को उसकी प्राप्ति के लिये उसका वहाँ ही जाकर मनन करना होता है।

ऊपर के हृदय में पहुँचने पर ही ब्रह्म प्राप्त होता है, इसका आचार्य और भी स्पष्टीकरण करते हैं-

ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे,

छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पंचाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः।

(कठ. 1/3/1)

(शरीर के उत्कृष्ट पर भाग में गुहा में प्रविष्ट दो आत्माओं को आहिताग्नि, पञ्चाग्नि विद्या में निपुण ब्रह्मज्ञानी लोग अपने सुकृत का फल प्राप्त करते हुए को छाया और धूप के समान देखते हैं।)

हमारे शरीर के उत्कृष्ट पर भाग में विद्यमान गुहा हमारा ब्रह्मरन्ध्र का हृदय ही है। ब्रह्मज्ञानी का अग्न्याधान अध्यात्म अग्नि में ही होता है। पञ्चकोष विवेक ही उनका पञ्चाग्नि विद्या में नैपुण्य है। इस हृदय में छाया स्थानीय जीव और आतप स्थानीय ब्रह्म है। जीव ज्ञानवान् है, परन्तु ब्रह्मज्ञान के सामने तो उस का ज्ञान छाया के समान ही है। वह यहाँ रहकर प्रभु के ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त कर रहा है, और यह ही उस के सुकृत का फल उसे प्राप्त हो रहा है, और यह ही उसे ज्ञान देना रूप प्रभु के सुकृत का फल है। प्रभु का अपना कुछ भी प्राप्तव्य नहीं है।

यह ही विषय संक्षेप में महर्षि तित्तिरि ने कहा है-

‘‘यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्’’

(जो उत्कृष्ट आकाश में गुहा में प्रविष्ट को जानता है)

हमारे शरीर में उत्कृष्ट आकाश,शरीर के द्युलोक नामक शिर में हृदयाकाश ही है। उसी में ब्रह्म को जाना जाता है। इसीलिये उसे यहाँ इस स्थान में निहित कहा गया है।

इसी विषय को महर्षि याज्ञवल्क्य ने छान्दोग्य में भी कहा है-

‘‘अथ यदस्मिन् ब्रह्मपुरे  दहरं पुण्डरीकं वेश्म, दहरोऽस्मिन्नन्तराकाशः, तस्मिन् यदन्तस्तदन्वेष्टव्यम्, तद्वाव विजिज्ञासितव्यम्’’           (छान्दोग्य 8/1/1)

(अब जो हमारे इस ब्रह्मपुर में कमल के समान दहर नामक स्थान है। इसके अन्दर का आकाश भी दहर है। उस के अन्दर जो है, उसे खोजना चाहिये और उसी के ज्ञान की इच्छा करनी चाहिये)

हमारे शरीर में ब्रह्मपुर हमारा द्युलोक नामक शिर है। उसमें कमल की आकृति वाला हमारा हृदय है। उसके अन्दर के आकाश को और उस हृदय को दोनों को ही यहाँ दहर कहा गया है। दहर शबद का अक्षरार्थ होता है ‘‘ददाति, हन्ति, रमयति च’’ देता है, नष्ट करता है, और रमण कराता है। इन दोनों में ही ब्रह्म का निवास है। ब्रह्म-ज्ञान देता है, अज्ञान का नाश करता है और आनन्द में रमण कराता है। उसके समबन्ध के कारण, हृदय और हृदयाकाश को भी आत्मा के लिये ऐसे साधन उपस्थित करने वाला कह दिया गया है। महर्षि याज्ञवल्क्य ने आत्मा और ब्रह्म दोनों को इस हृदय में दिखलाया है-

एष म आत्माऽन्तर्हृदयेऽणीयान् व्रीहेर्वा यवाद्वा

सर्षपाद्वा श्यामाकाद्वा, श्यामाकतण्डुलाद्वा।

एष म आत्माऽन्तर्हृदये ज्यान्पृथिव्या,

ज्यायानन्तरिक्षात् ज्यायान्दिवो, ज्यायानेयो लोकेयः

– छान्दोग्य 3/14/3

(यह मेरा आत्मा अन्दर के हृदय में, धान से, जौ से, सामक से, और सामक के दाने से भी अत्यन्त छोटा है।)

यह मेरा आत्मा अन्दर के हृदय में, भूमि से, अन्तरिक्ष से, द्युलोक से और इन सारे लोकों से भी बहुत बड़ा है।।

यहाँ अन्दर का हृदय शिर वाला हृदय ही लिया गया है। इसमें प्राप्त करने वाले और प्राप्तव्य दोनों ही आत्माओं का एक का अणु और दूसरे का व्यापक स्वरूप दिखलाया गया है। इस प्रसंग में स्पष्ट किया गया है कि आत्मा को ब्रह्म प्राप्ति के लिये इस स्थान का आश्रय लेना पड़ता है।

इसी प्रकार के दृश्य का बृहदारणयक में एक स्थान पर भी वर्णन किया गया है-

‘‘मनोमयोऽयं पुरुषो भाः सत्यस्तस्मिन्नतर्हृदये यथा वीहिर्वा यवो वा (दूसरे को लक्ष्य करके कहते हैं) स एष सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः सर्वमिदं प्रशास्ति यदिदं किञ्च’’।                                  (बृहदारण्यक 5.1)

यह मनोमय पुरुष अन्दर के हृदय में प्रकाश-रूप है, सत्-रूप है। और यह वह सबका ईश्वर, सब का स्वामी है। यह जो सब संसार है, सब पर यह शासन करता है।

यहाँ भी अन्दर का हृदय वही ब्रह्म-रन्ध्र वाला हृदय है। यहाँ भी इस हृदय में जीव ज्ञानरूप प्रकाश को प्राप्त कर रहा है और ब्रह्म उस ज्ञान की प्राप्ति में उसका स्वामी बना हुआ है। यहाँ जीव को धान अथवा जौ जितना परिमाण, उसके यहाँ के निवास स्थान के परिमाण के कारण कह दिया गया है। इसका वास्तविक परिमाण हम उपनिषद् के वाक्य से ही आगे चलकर व्यक्त करेंगे।

श्वेताश्वेतर में भी जीव और ब्रह्म इन दोनों के ज्ञान के लिये इसी हृदय में उल्लेख किया गया है-

न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्।

हृदा-हृदिस्थं मनसा य एनमेवं विदुरमृतास्ते भवन्ति।।

– श्वे.4,20

(इसका रूप प्रत्यक्ष गोचर नहीं है। इसे चक्षु से कोई नहीं देखता। हृदय साधन से अर्थात् हृदय में रहकर हृदय में वर्तमान ब्रह्म को जानते हैं, वे अमर हो जाते हैं।)

इस प्रसंग में यह निर्देश किया गया है कि ब्रह्म ऊपर के हृदय में मिलेगा। साधक-आत्मा उस हृदय में पहुँचने की योग्यता प्राप्त करे और उसे जानकर मोक्ष का अधिकारी बने।

इसी विषय का स्पष्टीकरण अथर्ववेद के 10.2.31, 32वें में बड़ी उत्तम रीति से किया गया है-

अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।

तस्यां हिण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।।

तस्मिन् हिरण्यये कोषे त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते।

तस्मिन्यद्यक्षमात्मन्वत्तद्वै ब्रह्मविदो विदुः।।

(जिस के साथ कोई युद्ध नहीं कर सकता, ऐसी एक नौ द्वारों वाली और आठ चक्रों वाली देवताओं की नगरी है। उसमें एक सुवर्णमय कोष है, जिसे कि स्वर्ग कहते हैं और वह प्रकाश से घिरा हुआ है। हे देवो! उस तीन अरों वाले और तीन स्थानों पर प्रतिष्ठित सुवर्णमय कोष में जो आत्मा वाला पूजनीय देव है, उसे ब्रह्मज्ञानी जानते है।)

इन दो मन्त्रों में निम्न विषय प्रकट किये गये हैं-

  1. हमारे इस शरीर में आठ चक्र और नौ द्वार हैं।
  2. जब तक यह शरीर देवताओं की नगरी बना रहता है- अर्थात् इसके इन्द्रिय आदि देव असुर नहीं बन जाते, देव ही बने रहते हैं, तो इस नगर पर कोई रोग अथवा काम आदि शत्रु विजय नहीं पा सकते।
  3. इस में एक स्वर्ग नामक प्रकाश से घिरा हुआ कोष है। जो कि सुवर्ण जैसे उपादान से बना है। चक्र का ही दूसरा नाम कोष है। प्रकाश वाला कोष हमारे शरीर में सहस्रार ही है, जो कि शिर में है। देवों का स्थान स्वर्ग भी हमारा शिर ही कहलाता है। प्रकाश वाला स्थान होने के कारण इसे ही द्युलोक भी कहते हैं।
  4. इस कोष का निर्माण तीन अरों पर हुआ है। और इसीलिये यह अपने त्रिकोण आधार में तीन स्थानों पर टिका हुआ हे।
  5. इसमें एक यक्ष है-पूजनीय देव है, जिसे कि ब्रह्म कहते हैं
  6. उसकी शरण में आत्मा आनन्द तथा ज्ञान की प्राप्ति के लिये आया हुआ है, इसीलिये इसका दूसरा नाम आत्मन्वत्=आत्मा वाला हो गया है।
  7. इस यज्ञ को ब्रह्म-ज्ञानी ही जान सकता है,दूसरा कोई नहीं। हम समझते हैं कि हमारे इस ऊपर के विश्लेषण से इन मन्त्रों का सब विषय पाठकों की समझ में आ गया होगा। इस अवस्था में आत्मा जिन उलझनों को पार करता हुआ पहुँचा है, वे कुछ कम महत्त्व की न थीं। इसे इन उलझनों से निकालकर इतने ऊँचे स्थान पर ले आना, अथवा वहाँ ही उलझाए रखना, ये दोनों ही यद्यपि मनोदेव के काम हैं, परन्तु यह सत्य है कि आत्मा की उपेक्षा अथवा सावधानता उसकी इन दोनों अवस्थाओं में मुखय कारण है।

आत्मा का परिमाण-

एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो यस्मिन् प्राणः पञ्चधा संविवेश।

प्राणैश्चितं सर्वमोतं प्रजानां यस्मिन् विशुद्धे विभवत्येष आत्मा।

– (मुण्डक 3/1/9)

यह अणु आत्मा मन से ही जानना चाहिए। पाँचों प्राणों का निवास इसी के पास है। प्राण एक व्यापक तत्त्व है, जिसका सारी प्रजाओं के चित्तों के साथ समबन्ध है। विशुद्ध हो जाने पर आत्मा का ज्ञान भगवान् के ज्ञान की सहायता से इतना विस्तृत हो जाता है कि उस का भी समबन्ध प्रजाओं के सब चित्तों के साथ हो जाता है। इस प्रसंग में स्पष्ट ही आत्मा का परिमाण अणु माना है।

यह प्रश्न हो सकता है कि दैव-मन का स्थान प्राणों तथा ज्ञानेन्द्रियों के केन्द्र में शिर में माना गया और यक्ष मन का कर्म इन्द्रियों के केन्द्र में छाती वाले हृदय में माना गया है। और यह भी मन्तव्य-कोटि में आ चुका है कि मन आत्मा की स्वीकृति के बिना कुछ नहीं कर सकता। उसका कोई ज्ञान तथा कर्म उसकी प्रेरणा के बिना समभव नहीं है। ऐसे स्थल मिलते हैं कि जहाँ मन कई काम कर लेता है और आत्मा को उनका पता भी नहीं लगता। परन्तु उन स्थलों में भी उसे आत्मा की आज्ञा हो चुकी होती है। ऐसे अयास में आये हुए कर्मों के स्थल में एक बार आज्ञा प्राप्त हो जाती है और फिर वे उसी प्रकार के कर्म उसी आज्ञा के आधार पर अयास के चक्र में होते रहते हैं।

जैसे कि हमने 25 कोस की यात्रा आरमभ की है। अपने लक्ष्य पर पहुँचने के लिये 25 कोष चलकर जाने के विषय में पर्याप्त सोच विचार कर लिया है, आत्मा की मन को आज्ञा मिल चुकी है। मन भी  पैरों को चलने की प्रेरणा कर चुका है और पैरों ने भी चलना आरमभ कर दिया है। अब 25 कोस तक यह चलने का अभयास अपने आप चलता रहेगा। बार-बार मन को आत्मा से और पैरों को मन से आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं रहती। इसी प्रकार शौच, व्यायाम, स्नान, नित्य कर्म, भोजन, शयन आदि जो अभयास में आयें, वे नित्य के कर्म हैं। मन में भी बार-बार आज्ञा की आवश्यकता नहीं रहती, इसी प्रकार और भी अभयास में आये हुए कर्मों के विषय में जान लेना चाहिये।

परन्तु पहिले अथवा तत्काल मन को आत्मा की आज्ञा लेनी ही पड़ती है और उसे उसके नियन्त्रण में रहना ही पड़ता है और यदि बात ऐसी है तो जब आत्मा नीचे के हृदय में होगा, तब दैव-मन से और जब यह ऊपर के हृदय में रहेगा तब यक्ष-मन से काम कैसे लेगा?

इस प्रश्न का उत्तर सरल ही है। नीचे के हृदय से लेकर ऊपर के हृदय तक और फिर सारे ही शरीर में प्रेरणा-तन्तुओं, ज्ञान-तन्तुओं और हृदय की और अत्यन्त सूक्ष्म नाड़ियों का इतना विस्तृत जाल बिछा हुआ है, जिसे कि दे कर बुद्धि चकरा जाती है। बस उसी नाड़ी-जाल के द्वारा आत्मा कहीं भी बैठा हुआ किसी मन के ऊपर अपना नियन्त्रण का हाथ रख सकता है।

इस प्रकार उपनिषदों के समन्वय तथा वेद के भी कुछ सिद्धान्तों के आधार पर हमें अपने शरीर में दो हृदय मानने पड़ते हैं। उन में से एक छाती में और एक शिर में है। आत्मा भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में इन दोनों ही स्थानों में निवास करता है, संसार दशा में नीचे के हृदय में वह कहीं भी रहता हुआ प्राण तन्तुओं और ज्ञान तन्तुओं के द्वारा शरीर, साधन, शक्तियों पर अधिकार रख सकता है।

मैंने ये पंक्तियाँ केवल प्रसङ्ग को छेड़ने के लिये लिखी हैं। विद्वानों के विचार मिलने पर ऊहापोह का अवसर मिले, यह ही ध्येय है।

 

डॉ अम्बेडकर द्वारा मनुप्रोक्त वर्णपरिवर्तन का समर्थन: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

डॉ0 अम्बेडकर  ने कई स्थलों पर प्राचीन काल में वर्णपरिवर्तन के अवसरों के अस्तित्व को स्वीकार किया है। वर्णपरिवर्तन का स्पष्ट अभिप्राय है कर्मणा वर्णव्यवस्था, और कर्मणा वर्णव्यवस्था का अभिप्राय है जन्मना जातिवाद का अस्तित्व न होना। इस प्रकार वैदिक और मनु की वर्णव्यवस्था में कहीं भी आपत्ति करने की गुंजाइश नहीं रहती है। वे लिखते हैं-

(क) ‘‘इस प्रक्रिया में यह होता था कि जो लोग पिछली बार केवल शूद्र होने के योग्य बच जाते थे, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य होने के लिए चुन लिए जाते थे, जबकि पिछली बार जो लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य होने के लिए चुने गए होते थे, वे केवल शूद्र होने के योग्य होने के कारण रह जाते थे। इस प्रकार वर्ण के व्यक्ति बदलते रहते थे।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 170)

इस सन्दर्भ के अतिरिक्त डॉ0 अम्बेडकर र ने ऊपर तथा अन्य उन उद्धृत श्लोकों के अर्थों को प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है जिनमें मनु ने वर्णपरिवर्तन का विधान किया है। इसका अभिप्राय यह निकला कि वे श्लोक डॉ0 अम्बेडकर र को सिद्धान्त रूप में मान्य हैं-

(ख) ‘‘जिस प्रकार कोई शूद्र ब्राह्मणत्व को और कोई ब्राह्मण शूद्रत्व को प्राप्त होता है, उसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न भी प्राप्त होता है।’’ (मनुस्मृति 10.65) (वही, खंड 13, पृ0 85)

(ग) ‘‘प्रत्येक शूद्र जो शुचिपूर्ण है, जो अपने से उत्कृष्टों का सेवक है, मृदुभाषी है, अहंकाररहित है, और सदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है, वह उच्चतर जाति प्राप्त करता है।’’ (मनुस्मृति 9.335)(वही, खंड 9, पृ0 117)

मनु की वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत शूद्र वर्णपरिवर्तन करके उच्च वर्ण प्राप्त कर सकते थे, मनु के इस सिद्धान्त का डॉ0 अम्बेडकर र स्पष्ट समर्थन कर रहे हैं। मनु आपत्तिरहित सिद्धान्त के प्रदाता हैं, फिर भी मनु का विरोध क्यों? अपने इस परस्परविरोध का उत्तर डॉ0 अम्बेडकर र को देना चाहिए था किन्तु उन्होंने कहीं नहीं दिया क्या अब डॉ0 साहब के अनुयायी या अन्य मनुविरोधी, शूद्र-सबन्धी परस्परविरोधों का उत्तर देने का साहस करेंगे?