मनुस्मृति में पति-पत्नी को त्यागने की परिस्थितियों का वर्णन: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(अ) मुयतः मनु का यही आदेश है कि विवाह सोच-विचार कर तथा पारस्परिक प्रसन्नता से समान, योग्य युवक और युवती से करें। विवाह के पश्चात् यह आदेश है कि पति पत्नी को और पत्नी पति को संतुष्ट और प्रसन्न रखे। इस प्रकार रहते हुए उन्हें निर्देश है कि वे सदा यह प्रयास रखें कि आजीवन एक-दूसरे से बिछुड़ने का अवसर न आये। मनु का यह प्रथम सिद्धान्त है-

(क) अन्योन्यस्याव्यभिचारो भवेदामरणान्तिकः।

       एषः धर्मः समासेन ज्ञेयः स्त्रीपुंसयोः परः॥ (9.101)

(ख)    तथा नित्यं यतेयातां स्त्रीपुंसौ तु कृतक्रियौ।

       यथा नाभिचरेतां तौ वियुक्तौ इतरेतरम्॥ (102)

    अर्थ-‘पति और पत्नी का संक्षेप में सबसे प्रमुख धर्म यह है कि दोनों सदा यह प्रयत्न करें कि मृत्युपर्यन्त दोनों का मर्यादा-अतिक्रमण और पार्थक्य (तलाक) न हो।’

‘विवाह करने के बाद स्त्री और पुरुष सदा ऐसा यत्न करें जिससे वे एक-दूसरे से पृथक् न हों और ऐसे कार्य तथा व्यवहार करें जिससे घर में पृथकता का वातावरण ही न बने।’

(आ) किन्तु इन्हीं श्लोकों की भाषा से यह ध्वनित होता है कि किन्हीं विशेष कारणों से अलग होने का अवसराी अपवाद रूप में होता था। कुछ स्थितियां मनुस्मृति में वर्णित भी हैं जब पति या पत्नी एक दूसरे को छोड़ सकते हैं-

(क) पत्नी को निम्न स्थितियों में छोड़ा जा सकता है-

वन्ध्याष्टमेऽधिवेद्यादे दशमे तु मृतप्रजा।        

एकादशे स्त्रीजननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी॥   (9.81)

    अर्थात्-‘स्त्री वन्ध्या हो तो आठ वर्ष पश्चात्, स्त्री को सन्तान होकर मर जाती हों तो दश वर्ष पश्चात्, और पत्नी कटुवचन बोलने वाली हो तो उसको शीघ्र ही छोड़ा जा सकता है।’

(ख) पति को निन स्थितियों में छोड़ा जा सकता है

       प्रोषितो धर्मकार्यार्थं प्रतीक्ष्योऽष्टौ नरः समाः।

       विद्यार्थं षट् यशोऽर्र्थं वा कामार्थं त्रींस्तु वत्सरान्॥ (9.76)

    अर्थात्-‘यदि पति परदेस जाकर निनलिखित अवधि तक न लौटे तो पत्नी को दूसरा पति करने का अधिकार है-धर्मकार्य के लिए आठ वर्ष तक, विद्याप्राप्ति अथवा प्रसिद्धि प्राप्ति के लिए छह वर्ष तक, धन प्राप्ति के लिए तीन वर्ष तक।’

(इ) किन्तु निर्दोष अवस्था में एक-दूसरे को त्यागने पर दोषी व्यक्ति राजा द्वारा दण्डनीय है-

न माता न पिता न स्त्री न पुत्रस्त्यागमर्हति।      

त्यजन्नपतितानेतान्, राज्ञा दण्ड्यः शतानि षट्॥       (8.389)

    अर्थ-‘बिना गभीर अपराध के माता, पिता, पत्नी, पुत्र का त्याग नहीं किया जा सकता। ऐसा करने पर राजा द्वारा त्यागकर्त्ता को छह सौ पण दण्ड देना चाहिए और त्यक्त परिजनों को साथ रखने का आदेश देना चाहिये।’

5 thoughts on “मनुस्मृति में पति-पत्नी को त्यागने की परिस्थितियों का वर्णन: डॉ. सुरेन्द्र कुमार”

  1. mujhe manu smriti 9.81 theek nahi lagta bhai agar wife sterile ho ya santan mar jay to adopt kar lo ya bahut tarekein hain aaj kal to bacha paida karne ke ? is case mein wife ko chodna galat hai ? ye bhi ho sakta hai ki kami pati mein ho ? to kya us case mein pati ko chodna theek hoga ?

    1. uske arth ko sahi se samjho ji…fir naa samjh me aaye to batlana…..waise hamare paas samay ki aabhav rahta hai jis kaaran shanka ki samadhaan karne me samay lag sakta hai… kyu nahi koi aas paas ke vedik jaankaar se sampark karte ho aap

      1. maine arth ko sahi samjha hai jee aur hamare yahan koi vaidic scholar nahi hai jee ? agar aapko ye theek lagta hain to mere ko batao kyun??

        1. maine ab tak ise check nahi kiya hai… khojbin karna hota hai tabhi to jawab dena hota hai sahi…. ho sakta hai yah prakshipt shlok ho manusmriti ki. tabhi bola thaa vedik scholar se mile…

  2. ji han, mai bhi sahmat nahi hun. ye shlok milawati mane jane chahiy kyonki vedo me pati- patni ke sambandh viched ka varn nahi hai.
    vedo ke samne manu ki baat nahi mani ja sakti
    saath hi dhyan diya jana chahiy ki manu ke jo kathih shlokon me jo karan batayen gaye hain , un sab ke liya niyog ki vyvastha hain.
    phir to niyog ka kya arth.

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