आत्मा का स्थान-5

आत्मा का स्थान-5

–  स्वामी आत्मानन्द

गतांक से आगे…..

जो आत्मा अभी अन्नमय, प्राणमय, और मनोमय में फंसा हुआ है, उसको लक्ष्य का निर्देश इस आगे के प्रसङ्ग में किया गया है-

मनोमयः प्राणशरीरनेता प्रतिष्ठितोऽन्ने हृदयं सन्निधाय।

तद्विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीरा आनन्दरूपममृतं यद्विभाति।

(मु. 2/2/7)

शरीर का नेता अर्थात् प्राणमय और अन्नमय के प्रबन्ध में लगा हुआ आत्मा, अन्न में = अन्नमय कोष में अपने हृदय को स्थापित कर उस में प्रतिष्ठित है। जो आनन्द रूप अमृत ब्रह्मरन्ध्र में चमक रहा है और प्राप्तव्य है, उसे विद्वान् लोग विज्ञान से अर्थात् इन कोषों और आत्मा के विवेक से देख पाते हैं।

इस प्रसङ्ग में स्पष्ट ही सिद्ध होता है कि आत्मा नीचे के हृदय में प्रतिष्ठित है। क्योंकि उसे विवेक नहीं हुआ, और विवेक के बिना ऊपर के हृदय में उत्क्रमण हो नहीं सकता।

इस आगे के प्रसंग में महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी अज्ञानी आत्मा की स्थिति नीचे के हृदय में ही मानी है।

य एष विज्ञानमयः पुरुषस्तदेषां प्राणानां विज्ञानेन विज्ञानमादाय य एषोऽन्तर्हृदय आकाशस्तस्मिन् शेते। तानि यदा गृह्णात्यथ हैतत्पुरुषः स्वपिति नाम। तद्गृहीत एव प्राणो भवति। गृहीता वाक् गृहीतं चक्षुः। गृहीतं श्रोत्रं गृहीतं मनः।। (बृहदारण्यक 2/1/17)

(जो यह विज्ञानमय आत्मा है वह अपने विज्ञान से इन प्राणों=इन्द्रियों के विज्ञान को समेट कर जो कि हृदय के अन्दर आकाश है उस में सोता है। उन इन्द्रियों को जब वह पकड़ लेता है=उन्हें कार्य से विरत कर देता है, तब यह पुरुष सोता है। उस समय नासिका, वाणी, चक्षु, श्रोत्र और मन सब काम करना बन्द कर देते हैं।)

इस प्रसङ्ग में भी आत्मा को इन्द्रियों से काम लेता हुआ और सोने के समय उन्हें समेट लेता हुआ प्रकट किया गया है। इन्द्रियों के बन्धन में=प्राणमय कोष में ही फंसा हाने के कारण यह आत्मा भी  अभी अज्ञानी है, उत्क्रमण का अधिकारी नहीं, अतः इस का भी निवास नीचे के हृदय में ही है।

और भी आगे चल कर कहा है

अथ यदा सुषुप्तो भवति यदा न कस्यचन वेद हिता नाम नाड्यो द्वासप्ततिः सहस्राणि हृदयात्पुरीतत– मभिप्रतिष्ठन्ते ताभिः प्रत्यवसृप्य पुरीतति शेते।

(बृहदारण्यक 2/1/19)

(अब जब मनुष्य सो जाता है, जब किसी को भी नहीं जानता, तब उसकी जो हिता नाम 72000 बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं उनके द्वारा फैलकर पुरीतत नाड़ी में सोता है।)

हिता नामक हृदय की नाड़ियों के पास ही हृदयाकाश में पुरीतत नाड़ी होगी, जिसमें आत्मा सोता है। क्योंकि ऊपर के प्रसंग में महर्षि याज्ञवल्क्य ने ही जीव का शयन हृदय के आकाश में लिखा है।

यहाँ सारी प्रशाखाओं का सङ्कलन नहीं कि या गया, इसीलिये संखया बहत्तर हजार लिखी है।

यह आत्मा भी अभी आज्ञानी ही है, अतः इसका स्थान भी नीचे का हृदय ही है।

अन्यत्र महर्षि याज्ञवल्क्य लिखते हैं-

कतम आत्मेति योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृद्यन्तज्योतिः पुरुषः।।

(बृहदारण्यक 4/3/7)

(यह कौन सा आत्मा है, जो कि विज्ञानमय नामक है और हृदय के अन्दर प्राणों के मध्य में है, और जो आी अन्तर्ज्योति है, जिसका प्रकाश आी उस के अन्दर ही है, प्रकट नहीं हुआ)

इस प्रसङ्ग में महर्षि ने आत्मा का नाम विज्ञानमय कहा है। और उसे उस हृदय में उपस्थित किया है, जो प्राण केन्द्र के मध्य में शिर में है। क्योंकि वह मन पर अधिकार कर विज्ञानमय में प्रविष्ट हो चुका है। उसका विवेक ब्रह्मरन्ध्र में भगवान् की सहायता से करना चाहता है। और अपनी अन्तर्हित विज्ञान-ज्योति को प्रकट करना चाहता है।

प्राणों का केन्द्र मस्तिष्क में है, इसके समबन्ध में यजुर्वेद के एक मन्त्र के द्वारा महर्षि याज्ञवल्क्य क्या कहते हैं, इसे आगे पढ़िये-

‘‘अर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नस्तस्मिन् यशो निहितं विश्वरूपम् तस्याऽऽसत ऋषयः सप्त तीर वागष्टमी ब्रह्मणा संविदानेति। य एष ऊर्ध्वबुध्नः तच्छिरः। प्राणा वै यशो विश्वरूपम्। प्राणा वा ऋषयः। वाग्ध्यष्टमी ब्रह्मणा संवित्ते।’’ (बृहदारण्यक 2/2/3)

(एक कटोरा है, जिसका पेंदा ऊपर और छिद्र नीचे है। उसमें विश्वरूप यश रक्खा हुआ है। उसके किनारे पर सात ऋषि हैं, और आठवीं वाणी है, जो ब्रह्म के साथ संवाद करती है। इसके व्याखयान में महर्षि लिखते हैं कि वह कटोरा हमारा शिर है और इसमें जो विश्वरूप यश है वह प्राण है। सात ऋषि भी  प्राण ही है और आठवीं ब्रह्म से संवाद करने वाली अथवा उसका गुणगान करने वाली वाणी भी  शिर के पास ही है।)

इस प्रसंग में महर्षि ने प्राणों का केन्द्र शिर माना है। यद्यपि प्राण, शरीर में भिन्न-भिन्न स्थानों में रहकर भिन्न-भिन्न कार्य कर  रहे हैं, परन्तु उनका प्रधान केन्द्र शिर ही है।

अयासी आत्मा को जहाँ ब्रह्म की प्राप्ति होती है, वह स्थान भी यह ब्रह्मरन्ध्र वाला हृदय ही है। इस विषय में आचार्य यम कहते हैं-

तन्दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम्।

अध्यात्मयोगधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति।

(कठ.1/2/12)

(वह दृष्टि से गय नहीं है। वह पुराण है और छिपा हुआ हृदय की गुहा में प्रविष्ट है। उस देव को अध्यात्म योग से मनन कर बुद्धिमान् पुरुष हर्ष शोक से छूट जाता है।)

ब्रह्म ऊपर की गुहा के अन्दर जिसे कि ब्रह्मरन्ध्र वाला हृदय कहते हैं, मिलता है। आत्मा को उसकी प्राप्ति के लिये उसका वहाँ ही जाकर मनन करना होता है।

ऊपर के हृदय में पहुँचने पर ही ब्रह्म प्राप्त होता है, इसका आचार्य और भी स्पष्टीकरण करते हैं-

ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे,

छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पंचाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः।

(कठ. 1/3/1)

(शरीर के उत्कृष्ट पर भाग में गुहा में प्रविष्ट दो आत्माओं को आहिताग्नि, पञ्चाग्नि विद्या में निपुण ब्रह्मज्ञानी लोग अपने सुकृत का फल प्राप्त करते हुए को छाया और धूप के समान देखते हैं।)

हमारे शरीर के उत्कृष्ट पर भाग में विद्यमान गुहा हमारा ब्रह्मरन्ध्र का हृदय ही है। ब्रह्मज्ञानी का अग्न्याधान अध्यात्म अग्नि में ही होता है। पञ्चकोष विवेक ही उनका पञ्चाग्नि विद्या में नैपुण्य है। इस हृदय में छाया स्थानीय जीव और आतप स्थानीय ब्रह्म है। जीव ज्ञानवान् है, परन्तु ब्रह्मज्ञान के सामने तो उस का ज्ञान छाया के समान ही है। वह यहाँ रहकर प्रभु के ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त कर रहा है, और यह ही उस के सुकृत का फल उसे प्राप्त हो रहा है, और यह ही उसे ज्ञान देना रूप प्रभु के सुकृत का फल है। प्रभु का अपना कुछ भी प्राप्तव्य नहीं है।

यह ही विषय संक्षेप में महर्षि तित्तिरि ने कहा है-

‘‘यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्’’

(जो उत्कृष्ट आकाश में गुहा में प्रविष्ट को जानता है)

हमारे शरीर में उत्कृष्ट आकाश,शरीर के द्युलोक नामक शिर में हृदयाकाश ही है। उसी में ब्रह्म को जाना जाता है। इसीलिये उसे यहाँ इस स्थान में निहित कहा गया है।

इसी विषय को महर्षि याज्ञवल्क्य ने छान्दोग्य में भी कहा है-

‘‘अथ यदस्मिन् ब्रह्मपुरे  दहरं पुण्डरीकं वेश्म, दहरोऽस्मिन्नन्तराकाशः, तस्मिन् यदन्तस्तदन्वेष्टव्यम्, तद्वाव विजिज्ञासितव्यम्’’           (छान्दोग्य 8/1/1)

(अब जो हमारे इस ब्रह्मपुर में कमल के समान दहर नामक स्थान है। इसके अन्दर का आकाश भी दहर है। उस के अन्दर जो है, उसे खोजना चाहिये और उसी के ज्ञान की इच्छा करनी चाहिये)

हमारे शरीर में ब्रह्मपुर हमारा द्युलोक नामक शिर है। उसमें कमल की आकृति वाला हमारा हृदय है। उसके अन्दर के आकाश को और उस हृदय को दोनों को ही यहाँ दहर कहा गया है। दहर शबद का अक्षरार्थ होता है ‘‘ददाति, हन्ति, रमयति च’’ देता है, नष्ट करता है, और रमण कराता है। इन दोनों में ही ब्रह्म का निवास है। ब्रह्म-ज्ञान देता है, अज्ञान का नाश करता है और आनन्द में रमण कराता है। उसके समबन्ध के कारण, हृदय और हृदयाकाश को भी आत्मा के लिये ऐसे साधन उपस्थित करने वाला कह दिया गया है। महर्षि याज्ञवल्क्य ने आत्मा और ब्रह्म दोनों को इस हृदय में दिखलाया है-

एष म आत्माऽन्तर्हृदयेऽणीयान् व्रीहेर्वा यवाद्वा

सर्षपाद्वा श्यामाकाद्वा, श्यामाकतण्डुलाद्वा।

एष म आत्माऽन्तर्हृदये ज्यान्पृथिव्या,

ज्यायानन्तरिक्षात् ज्यायान्दिवो, ज्यायानेयो लोकेयः

– छान्दोग्य 3/14/3

(यह मेरा आत्मा अन्दर के हृदय में, धान से, जौ से, सामक से, और सामक के दाने से भी अत्यन्त छोटा है।)

यह मेरा आत्मा अन्दर के हृदय में, भूमि से, अन्तरिक्ष से, द्युलोक से और इन सारे लोकों से भी बहुत बड़ा है।।

यहाँ अन्दर का हृदय शिर वाला हृदय ही लिया गया है। इसमें प्राप्त करने वाले और प्राप्तव्य दोनों ही आत्माओं का एक का अणु और दूसरे का व्यापक स्वरूप दिखलाया गया है। इस प्रसंग में स्पष्ट किया गया है कि आत्मा को ब्रह्म प्राप्ति के लिये इस स्थान का आश्रय लेना पड़ता है।

इसी प्रकार के दृश्य का बृहदारणयक में एक स्थान पर भी वर्णन किया गया है-

‘‘मनोमयोऽयं पुरुषो भाः सत्यस्तस्मिन्नतर्हृदये यथा वीहिर्वा यवो वा (दूसरे को लक्ष्य करके कहते हैं) स एष सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः सर्वमिदं प्रशास्ति यदिदं किञ्च’’।                                  (बृहदारण्यक 5.1)

यह मनोमय पुरुष अन्दर के हृदय में प्रकाश-रूप है, सत्-रूप है। और यह वह सबका ईश्वर, सब का स्वामी है। यह जो सब संसार है, सब पर यह शासन करता है।

यहाँ भी अन्दर का हृदय वही ब्रह्म-रन्ध्र वाला हृदय है। यहाँ भी इस हृदय में जीव ज्ञानरूप प्रकाश को प्राप्त कर रहा है और ब्रह्म उस ज्ञान की प्राप्ति में उसका स्वामी बना हुआ है। यहाँ जीव को धान अथवा जौ जितना परिमाण, उसके यहाँ के निवास स्थान के परिमाण के कारण कह दिया गया है। इसका वास्तविक परिमाण हम उपनिषद् के वाक्य से ही आगे चलकर व्यक्त करेंगे।

श्वेताश्वेतर में भी जीव और ब्रह्म इन दोनों के ज्ञान के लिये इसी हृदय में उल्लेख किया गया है-

न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्।

हृदा-हृदिस्थं मनसा य एनमेवं विदुरमृतास्ते भवन्ति।।

– श्वे.4,20

(इसका रूप प्रत्यक्ष गोचर नहीं है। इसे चक्षु से कोई नहीं देखता। हृदय साधन से अर्थात् हृदय में रहकर हृदय में वर्तमान ब्रह्म को जानते हैं, वे अमर हो जाते हैं।)

इस प्रसंग में यह निर्देश किया गया है कि ब्रह्म ऊपर के हृदय में मिलेगा। साधक-आत्मा उस हृदय में पहुँचने की योग्यता प्राप्त करे और उसे जानकर मोक्ष का अधिकारी बने।

इसी विषय का स्पष्टीकरण अथर्ववेद के 10.2.31, 32वें में बड़ी उत्तम रीति से किया गया है-

अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।

तस्यां हिण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।।

तस्मिन् हिरण्यये कोषे त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते।

तस्मिन्यद्यक्षमात्मन्वत्तद्वै ब्रह्मविदो विदुः।।

(जिस के साथ कोई युद्ध नहीं कर सकता, ऐसी एक नौ द्वारों वाली और आठ चक्रों वाली देवताओं की नगरी है। उसमें एक सुवर्णमय कोष है, जिसे कि स्वर्ग कहते हैं और वह प्रकाश से घिरा हुआ है। हे देवो! उस तीन अरों वाले और तीन स्थानों पर प्रतिष्ठित सुवर्णमय कोष में जो आत्मा वाला पूजनीय देव है, उसे ब्रह्मज्ञानी जानते है।)

इन दो मन्त्रों में निम्न विषय प्रकट किये गये हैं-

  1. हमारे इस शरीर में आठ चक्र और नौ द्वार हैं।
  2. जब तक यह शरीर देवताओं की नगरी बना रहता है- अर्थात् इसके इन्द्रिय आदि देव असुर नहीं बन जाते, देव ही बने रहते हैं, तो इस नगर पर कोई रोग अथवा काम आदि शत्रु विजय नहीं पा सकते।
  3. इस में एक स्वर्ग नामक प्रकाश से घिरा हुआ कोष है। जो कि सुवर्ण जैसे उपादान से बना है। चक्र का ही दूसरा नाम कोष है। प्रकाश वाला कोष हमारे शरीर में सहस्रार ही है, जो कि शिर में है। देवों का स्थान स्वर्ग भी हमारा शिर ही कहलाता है। प्रकाश वाला स्थान होने के कारण इसे ही द्युलोक भी कहते हैं।
  4. इस कोष का निर्माण तीन अरों पर हुआ है। और इसीलिये यह अपने त्रिकोण आधार में तीन स्थानों पर टिका हुआ हे।
  5. इसमें एक यक्ष है-पूजनीय देव है, जिसे कि ब्रह्म कहते हैं
  6. उसकी शरण में आत्मा आनन्द तथा ज्ञान की प्राप्ति के लिये आया हुआ है, इसीलिये इसका दूसरा नाम आत्मन्वत्=आत्मा वाला हो गया है।
  7. इस यज्ञ को ब्रह्म-ज्ञानी ही जान सकता है,दूसरा कोई नहीं। हम समझते हैं कि हमारे इस ऊपर के विश्लेषण से इन मन्त्रों का सब विषय पाठकों की समझ में आ गया होगा। इस अवस्था में आत्मा जिन उलझनों को पार करता हुआ पहुँचा है, वे कुछ कम महत्त्व की न थीं। इसे इन उलझनों से निकालकर इतने ऊँचे स्थान पर ले आना, अथवा वहाँ ही उलझाए रखना, ये दोनों ही यद्यपि मनोदेव के काम हैं, परन्तु यह सत्य है कि आत्मा की उपेक्षा अथवा सावधानता उसकी इन दोनों अवस्थाओं में मुखय कारण है।

आत्मा का परिमाण-

एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो यस्मिन् प्राणः पञ्चधा संविवेश।

प्राणैश्चितं सर्वमोतं प्रजानां यस्मिन् विशुद्धे विभवत्येष आत्मा।

– (मुण्डक 3/1/9)

यह अणु आत्मा मन से ही जानना चाहिए। पाँचों प्राणों का निवास इसी के पास है। प्राण एक व्यापक तत्त्व है, जिसका सारी प्रजाओं के चित्तों के साथ समबन्ध है। विशुद्ध हो जाने पर आत्मा का ज्ञान भगवान् के ज्ञान की सहायता से इतना विस्तृत हो जाता है कि उस का भी समबन्ध प्रजाओं के सब चित्तों के साथ हो जाता है। इस प्रसंग में स्पष्ट ही आत्मा का परिमाण अणु माना है।

यह प्रश्न हो सकता है कि दैव-मन का स्थान प्राणों तथा ज्ञानेन्द्रियों के केन्द्र में शिर में माना गया और यक्ष मन का कर्म इन्द्रियों के केन्द्र में छाती वाले हृदय में माना गया है। और यह भी मन्तव्य-कोटि में आ चुका है कि मन आत्मा की स्वीकृति के बिना कुछ नहीं कर सकता। उसका कोई ज्ञान तथा कर्म उसकी प्रेरणा के बिना समभव नहीं है। ऐसे स्थल मिलते हैं कि जहाँ मन कई काम कर लेता है और आत्मा को उनका पता भी नहीं लगता। परन्तु उन स्थलों में भी उसे आत्मा की आज्ञा हो चुकी होती है। ऐसे अयास में आये हुए कर्मों के स्थल में एक बार आज्ञा प्राप्त हो जाती है और फिर वे उसी प्रकार के कर्म उसी आज्ञा के आधार पर अयास के चक्र में होते रहते हैं।

जैसे कि हमने 25 कोस की यात्रा आरमभ की है। अपने लक्ष्य पर पहुँचने के लिये 25 कोष चलकर जाने के विषय में पर्याप्त सोच विचार कर लिया है, आत्मा की मन को आज्ञा मिल चुकी है। मन भी  पैरों को चलने की प्रेरणा कर चुका है और पैरों ने भी चलना आरमभ कर दिया है। अब 25 कोस तक यह चलने का अभयास अपने आप चलता रहेगा। बार-बार मन को आत्मा से और पैरों को मन से आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं रहती। इसी प्रकार शौच, व्यायाम, स्नान, नित्य कर्म, भोजन, शयन आदि जो अभयास में आयें, वे नित्य के कर्म हैं। मन में भी बार-बार आज्ञा की आवश्यकता नहीं रहती, इसी प्रकार और भी अभयास में आये हुए कर्मों के विषय में जान लेना चाहिये।

परन्तु पहिले अथवा तत्काल मन को आत्मा की आज्ञा लेनी ही पड़ती है और उसे उसके नियन्त्रण में रहना ही पड़ता है और यदि बात ऐसी है तो जब आत्मा नीचे के हृदय में होगा, तब दैव-मन से और जब यह ऊपर के हृदय में रहेगा तब यक्ष-मन से काम कैसे लेगा?

इस प्रश्न का उत्तर सरल ही है। नीचे के हृदय से लेकर ऊपर के हृदय तक और फिर सारे ही शरीर में प्रेरणा-तन्तुओं, ज्ञान-तन्तुओं और हृदय की और अत्यन्त सूक्ष्म नाड़ियों का इतना विस्तृत जाल बिछा हुआ है, जिसे कि दे कर बुद्धि चकरा जाती है। बस उसी नाड़ी-जाल के द्वारा आत्मा कहीं भी बैठा हुआ किसी मन के ऊपर अपना नियन्त्रण का हाथ रख सकता है।

इस प्रकार उपनिषदों के समन्वय तथा वेद के भी कुछ सिद्धान्तों के आधार पर हमें अपने शरीर में दो हृदय मानने पड़ते हैं। उन में से एक छाती में और एक शिर में है। आत्मा भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में इन दोनों ही स्थानों में निवास करता है, संसार दशा में नीचे के हृदय में वह कहीं भी रहता हुआ प्राण तन्तुओं और ज्ञान तन्तुओं के द्वारा शरीर, साधन, शक्तियों पर अधिकार रख सकता है।

मैंने ये पंक्तियाँ केवल प्रसङ्ग को छेड़ने के लिये लिखी हैं। विद्वानों के विचार मिलने पर ऊहापोह का अवसर मिले, यह ही ध्येय है।

 

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