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पर्यावरण की समस्या – उसका वैदिक समाधान: डॉ धर्मवीर

जब मनुष्य को जैसी आवश्यकता होती है, जैसी इच्छा करता है। यदि उसकी वह इच्छा पूरी हो जाती है तो सुख अनुभव करता है, इच्छा के पूरा होने में बाधाएँ आती हैं तो दु:ख अनुभव करता है, इसलिए आवश्यकता, इच्छा और समाधान के क्रम में सन्तुलन बना रहना चाहिए। सन्तुलन बनाये रखना प्राकृतिक नियम है। प्रकृति अपने स्वाभाविक क्रम में सन्तुलन की प्रक्रिया को निरन्तर जारी रखती है। वर्षा का जल भूमि पर गिरकर तथा अन्य तत्त्वों के साथ मिलकर अशुद्ध होता है। मनुष्यों, पशुओं, प्राणियों के द्वारा उपयोग में लिया जाकर उत्सर्जित पदार्थों के संयोग से मलिनता को प्राप्त होता है और बहकर नाली, नाले, नदी बनकर समुद्र में मिल जाता है या तालाबों में एकत्रित हो जाता है। प्रकृति इस अशुद्ध जल को वाष्पित करके पुन: शुद्ध कर देती है। मनुष्य शुद्ध तत्त्व जलवायु, पृथ्वी, अग्नि, आकाश के माध्यम से प्राप्त करता है, परिणामस्वरूप मनुष्यों से प्राप्त अशुद्धता को प्रकृति अपने नियम से शुद्ध कर देती है। इस प्रकार मनुष्य जो प्रकृति से प्राप्त करता है, वह उसका शुद्ध रूप होता है तथा जो प्रकृति को देता है, उसमें विकृति होती है। विकृति की मात्रा जब प्राकृतिक नियम से दूर होना कठिन हो, तब समस्या का जन्म होता है। प्रकृति में विषमता की मात्रा अधिक होने पर वर्षा का जल भी दूषित होने लगता है। इसी प्रकार वायु, भूमि और ध्वनि से प्रदूषण बढक़र प्रकृति के सन्तुलन को बिगाड़ देता है, परिणामस्वरूप मनुष्यों व अन्य प्राणियों के लिए प्रकृति से उन्हें आवश्यक तत्त्व प्राप्त नहीं हो पाते, इस अभाव की स्थिति को हम पर्यावरण प्रदूषण कहते हैं।

प्रश्न उठता है कि प्रकृति में असन्तुलन क्यों उत्पन्न हुआ? दो कारण हो सकते हैं- प्रथम प्रकृति की क्षमता का घट जाना, दूसरा मनुष्यों द्वारा प्रकृति की क्षमता से अधिक का उपयोग करना। इसमें प्रथम कारण सम्भव नहीं, क्योंकि प्रकृति अपनी पूर्ण क्षमता के साथ हमारे सामने हैं। प्राणियों द्वारा विशेषकर मनुष्यों द्वारा प्रयोग में लाये जाने पर प्राकृतिक तत्त्वों की न्यूनाधिकता हम अनुभव करते हैं, इसलिए प्रकृति से सामंजस्य बैठाने के लिए प्रकृति को कुछ नहीं करना, जो कुछ करना है मनुष्य को ही करना है। ऐसी स्थिति में प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करने वालों की संख्या अधिक होगी तो आवश्यक तत्त्व अधिक मात्रा में अपेक्षित हैं। उन्हें कैसे पूरा किया जाए? उनकी पूर्ति के लिए एक तरीका तो यह है कि उपभोक्ताओं की संख्या कम की जाए। यह मानवीय पक्ष नहीं हो सकता है, फिर इसका निर्णय कौन करेगा कि इस संसार में जीवित रहने का अधिकार किसे है और किसे नहीं, तो प्रकृति के अनुसार योग्यतम की विजय का सिद्धान्त स्वीकार करने पर मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं रहेगा, इसलिए मनुष्यता का पक्ष है कि जो प्राप्त है, उसका सम्यक् विभाजन और प्रदूषण पर अंकुश। यही पर्यावरण की समस्या का सम्भव समाधान है।

पर्यावरण की समस्या पहले विचार में उत्पन्न होती है, पश्चात् व्यवहार में, इस कारण मनुष्य का प्रकृति से सम्बन्ध आदिकाल से चला आ रहा है और यथार्थ है, इस कारण अन्य बातों के विचार के साथ प्रकृति से उसके सम्बन्धों पर भी उसने विचार किया हो, यह स्वाभाविक है। जिस प्रकार आज की परिस्थितियों ने मनुष्य को सोचने के लिए बाध्य किया है, उसी प्रकार पहले भी कोई प्रसंग आया हो, जब मनुष्य को इस दिशा में सोचने की आवश्यकता अनुभव हुई हो। पुराना चिन्तन पुरातन साहित्य में सुलभ है। भारतीय साहित्य की विशाल सम्पदा आज भी हमें प्राप्त है। उस अनुभव से आज हम अपने ज्ञान को समृद्ध करते हैं। पर्यावरण के विषय में यत्र-तत्र विचार बिखरे मिलते हैं। उन विचारों को लेकर यदा-कदा समाचार पत्रों में लेख भी प्रकाशित होते हैं। इस प्रकार यदि इन विचारों को संग्रह कर व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया जा सके तो आज की इस ज्वलन्त समस्या के समाधान में निश्चित सहायता मिल सकती है।

भारतीय चिन्तक और पाश्चात्य चिन्तन परम्परा में मौलिक अन्तर है। पाश्चात्य चिन्तन पहले लाभ के अवसरों का पूर्ण दोहन करने में विश्वास करता है, फिर उत्पन्न समस्या के समाधान का उपाय खोजता है। जैसे लाभ प्राप्त करना ध्येय होने से कुछ लोग ही उससे सम्पन्न होंगे, परन्तु  उसके दुष्प्रभाव और हानियाँ अधिक होंगी और अधिक लोगों को प्रभावित करेंगी, उसका समाधान बड़े स्तर पर अधिक व्यय-साध्य होता है। इसके विपरीत प्राचीन भारतीय मनीषी आवश्यकता के लिए स्वीकार करने और समाज की आवश्यकता के लिए उत्पादन करने को महत्त्व देते थे, इससे विभाजन और वितरण विके्रन्द्रित होता है, अत: सभी लोग समस्या के समाधान में सहभागी हो सकते हैं। पर्यावरण की समस्या के समाधान में भी सबकी सहभागिता आवश्यक है। इस बात को पुष्ट और प्रमाणित कर समाज को उत्तरदायित्व से अवगत कराना इस कार्य का उद्देश्य है। पर्यावरण की समस्या से परिचित व्यक्ति अपने स्तर पर भी समाधान में योगदान कर सकता है। उसे अपने प्राचीन साहित्य के तथ्य, उसका ध्यान इस ओर आकर्षित करने और उद्देश्य की ओर प्रेषित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं, क्योंकि इस देश की जनता में प्राचीन मर्यादा की स्थापना करने वाले पुरुषों ने पाप-पुण्य, धर्माधर्म के नाम से समाज में जो प्रथाएँ प्रचलित की हैं, उनके मूल में इस प्रकार की समस्याओं का समाधान निहित है।

विष्णु धर्मसूत्र में लिखा है कि जो व्यक्ति इस जन्म में जितने वृक्ष लगाता है, वे उसे परलोक में सन्तान के रूप में मिलते हैं-

वृक्षा रोपयितुर्वृक्षा: परलोके पुत्रा: भवन्ति

वराह पुराण में लिखा है- वृक्ष लगाने वाला नरक में नहीं जाता-

अश्वत्थमेकं पियुमन्दमेकं

न्यग्रोधमेकं दश पुष्प जाती:।

द्वे द्वे तथा दाडिम मातुलुंगे

पंचाम्र रोपी नरकं न याति।।

‘सम्पूर्ण जीवन चरित्र-महर्षि दयानन्द’ को क्यों पढ़ें?:- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

‘सम्पूर्ण जीवन चरित्र-महर्षि दयानन्द’ को क्यों पढ़ें?:- गत वर्ष ही इस विनीत ने श्रीयुत् धर्मेन्द्र जी जिज्ञासु तथा  श्री अनिल आर्य को बहुत अधिकार से यह कहा था कि आप दोनों इस ग्रन्थ के गुण-दोषों की एक लम्बी सूची बनाकर कुछ लिखें। मुद्रण दोष के कारण कहीं-कहीं भयङ्कर चूक हुई है। जो इस ग्रन्थ में मौलिक तथा नई खोजपूर्ण सामग्री है, उसको मुखरित किया जाना आवश्यक है। विरोधियों, विधर्मियों ने ऋषि की निन्दा करते-करते जो महाराज के पावन चरित्र व गुणों का बखान किया है, वह Highlight मुखरित किया जाये। लगता है, आर्य जगत् या तो उसका मूल्याङ्कन नहीं कर सका या फिर प्रमादवश उसे उजागर नहीं करता। वे तो जब करेंगे सो करेंगे, आज से परोपकारी में इसे आरम्भ किया जाता है। पाठक नोट करते जायें।

१. महर्षि की मृत्यु किसी रोग से नहीं हुई। उन्हें हलाक ((Killed)) किया गया। नये-नये प्रमाण इस ग्रन्थ में पढिय़े। अंग्रेज सरकार के चाटुकार मिर्जा गुलाम अहमद ने अपने ग्रन्थ हकीकत-उल-वही में बड़े गर्व से महर्षि के हलाक किये जाने का श्रेय (Credit) लिया है। यह प्रमाण पहली बार ही ऋषि जीवन में दिया गया है।

२. काशी शास्त्रार्थ से भी पहले उसी विषय पर मेरठ जनपद के पं. श्रीगोपाल शास्त्री ने ऋषि से टक्कर लेने के लिये कमर कसी। घोर विरोध किया। विष वमन किया। अपनी मृत्यु से पूर्व उसने अपने ग्रन्थ ‘वेदार्थ प्रकाश’ में ऋषि के पावन चरित्र की प्रशंसा तो की ही है। ऋषि को गालियाँ देने वाले, ऋषि के रक्त के प्यासे इस विरोधी ने एक लम्बी $फारसी कविता में ऐसे लिखा है:-

हर यके रा कर्द दर तकरीर बन्द

हर कि खुद रा पेश ऊ पण्डित शमुर्द

दर मुकाबिल ऊ कसे बाज़ी न बुर्द

उस महाप्रतापी वेदज्ञ संन्यासी ने हर एक की बोलती बन्द कर दी। जिस किसी ने उसके सामने अपनी विद्वत्ता की डींग मारी, उसके सामने शास्त्रार्थ में कोई टिक न सका। सभी उससे शास्त्रार्थ समर में पिट गये।

३. ऋषि की निन्दा में सबसे पहली गन्दी पोथी जीयालाल जैनी ने लिखी। इस पोथी का नाम था ‘दयानन्द छल कपट दर्पण’ यह भी नोट कर लें कि यह कथन सत्य नहीं कि इस पुस्तक के दूसरे संस्करण में इसका नाम ‘दयानन्द चरित्र दर्पण’ था। हमने इसी नाम (छल कपट दर्पण) से छपे दूसरे संस्करण के पृष्ठ की प्रतिछाया अपने ग्रन्थ मेें दी है। इस ग्रन्थ में जीयालाल ने ऋषि को महाप्रतापी, प्रकाण्ड पण्डित, दार्शनिक, तार्किक माना है। विधर्मियों से अंग्रेजी पठित लोगों की रक्षा करने वाला माना है। कर्नल आल्काट के महर्षि दयानन्द विषयक एक झूठ की पोल खोलकर ऋषि का समर्थन किया। कर्नल ने ३० अप्रैल १८७९ को ऋषिजी की सहारनपुर में थियोसो$िफकल सोसाइटी की बैठक में उपस्थिति लिखी है। जीयालाल ने इसे गप्प सिद्ध करते हुए लिखा है कि ऋषि ३० अप्रैल को देहरादून में थे। वे तो सहारनपुर में एक मई को पधारे थे। यह प्रमाण इसी ऋषि जीवन में मिलेगा।

४. ज्ञानी दित्त सिंह की पुस्तिका सिखों ने बार-बार छपवाकर दुष्प्रचार किया कि दित्त सिंह ने शास्त्रार्थ में ऋषि को पराजित किया। हमने दित्त सिंह की पुस्तक की प्रतिछाया देकर सिद्ध कर दिया कि वह स्वयं को वेदान्ती बताता है, वह सिख था ही नहीं। वह स्वयं लिखता है कि तेजस्वी दयानन्द के सामने कोई बोलने का साहस ही नहीं करता था। यह प्रमाण केवल इसी जीवन चरित्र में मिलेंगे। (शेष फिर)

श्रद्धेय आचार्य डॉ धर्मवीर को प्रथम पुण्य तिथि पर भावभीनी श्रद्धांजलि

Dharmveer ji

भला समय बीतते भी कहीं समय लगता है? विश्वास नहीं होता कि डॉ. धर्मवीर जी को पार्थिवता से मुक्त हुये एक वर्ष हो गया। हो भी कैसे? एक दिन की …. है जो हमारे हृदय पटल पर उस दिव्य मूर्ति का सौम्य स्वरूप न प्रकट हुआ हो, जो हमारी सांसों के स्पन्दन में भीगी हुयी करुणा न छायी हो, जो हमारे कण्ठ ने फफक-फफक कर आहें न भरी हों, जो इन शुष्क आखों ने यह जानते हुये कि यह सम्भव नहीं है राह तकते-तकते तनिक आराम की ख्वाहिश की हो। पर समय पर जोर किसका? वह तो यूँ भी बीतेगा और यूँ भी।

हाय रे! निष्ठुर हृदय, निष्ठुरता पर आश्चर्य है। इतने संताप को तू सह कैसे गया?

हे आचार्य! जरा देखो तो, आपकी सजाई बगिया का हर नुक्कड़ आपकी बाट जोहता है। ये झील, ये पर्वत, ये उमड़ती हुयी बदलियाँ आपके गुञ्जायमान शब्दों के श्रवण को लालयित हैं। देखें इन वृक्षों को और लताओं को, इन खिलती हुयी कलियों की मजबूर हँसी को। लगता है जैसे हँसने की कोई कीमत ली हो इन्होंने। निरापद झूठी और फीकी हँसी। यह निष्प्राण उद्यान अब किसी बीहड़ वन सा मालूम होता है। न जाने क्यूँ? पर सब कछ नीरस सा हो गया है। सब कुछ बिखर सा गया है। किस-किस बात पर रोयें। उस जगन्नाथ के रहते हम स्वयं को अनाथ भी नहीं कह सकते, भला हम क्या जगत् से बाहर हैं? और सनाथ कहने का भी अब कोई कारण न रहा है। हाय! माता जी की अन्तर्वेदना को कौन मरणधर्मा जान सकता है। कौन सुन सकता है उनके दर्द की पुकार। अब तो आँसू भी थक गये है। किसका सामथ्र्य है जो उन पथरायी हुयी आँखों से आखें मिला सके। दिन में न जानें किनी बार एक ही प्रश्र उनकी जिह्वा पर उठता है बाकी सब ठीक पर धर्मवीर जी  क्यों …..? कदाचित् आपके पास इसका उत्तर हो।

काश….काश! कि आप इस पीड़ा को सुन पाते। पर अफसोस! ‘काश’ जैसे शब्द तो पीड़ा को बढ़ाने के लिये बनते हैं।

वो और दौर था जब संन्यासी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त और पं. लेखराम जैसे दिग्गजों की धाक् थी। स्वामी दर्शनानन्द, पं. गणपति और पं. चमूपति जैसे सूरमा विचरते थे। किसी एक के हाथ से पतवार छूटे तो पलक झपकते ही उसे दूसरा सम्भाल लेता था। पर आज तो आर्यजगत् की पतवार सिर्फ और सिर्फ आपके हाथ में थी। और कोई दीखता ही नहीं जो खिवैया बन सके। न जाने इस नैया को और कितना वक्त लगे अपना सिपैया ढूढऩे में। वैदुष्य के दर्शन को हमारी आखें तरस गयी हैं। वेद और उपनिषद् की बातें तो जैसे बातें ही बनकर रह गयी हैं। अब अगर विरोधी प्रश्र उठायें तो हमारी आँखें झुक जायेंगी। मगर हाँ! आपको ये जानकर सन्तोष होगा कि आपकी जलाई लौ मन्द बेशक पड़ी हो, पर बुझी नहीं है और हमारा विश्वास है कि दयानन्द के स्वप्र पर बलिहारी होने को फिर अनेकों धर्मवीर उठ खड़े होंगे। ऋषिवर की जय-जयकार चहुँओर गूँजेगी।

‘आप नहीं हैं’ इस सत्य को स्वीकार करने में हम अब तक समर्थ न हो पाये हैं। और शायद हो भी न सकें। यतो हि यह सत्य भी असत्य सा मालूम होता है और कदाचित् हो भी। आपकी वाणी और आपकी लेखनी आज भी हृदयों को झंकझोरने में समर्थ है। आपके व्याख्यानों को लिपिबद्ध किया जा रहा है। ये समस्त कार्य सदैव आपके होने की सूचना देते रहेंगे।

हे आचार्य! हमें प्रेरणा दीजिये कि हम आपके पथ के पथिक बन सकें।

 

क्या आर्य बाहर से आये थे : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

गुरुकुल काँगड़ी से एक भावनाशील युवक ने दो बार चलभाष पर ‘आर्यों का आदि देश’ विषय पर लेखक से चर्चा करते हुए यह पूछा कि कोई ऐसी पुस्तक बतायें, जिसमें ‘आर्यों का आदि देश आर्यावत्र्त है’ इस विषय में अकाट्य तर्क प्रमाण दिये गये हों। उनका प्रश्र हमारे लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है, इसलिये इसे परोपकारी द्वारा मुखरित किया जा रहा है। हम यदा-कदा अपनी पुस्तकों में तथा इस स्तम्भ में एतद्विषयक प्रबल तर्क व प्रमाण देते चले आ रहे हैं। प्रबुद्ध पाठक सूझबूझ से इनको व्याख्यानों व लेखों में देकर मिथ्या मतवादियों के दुष्प्रचार का निराकरण किया करें।

जो लोग थोड़ा गुड़ डालकर अधिक मीठा चाहें, वे पं. भगवद्दत्त जी की पुस्तक ‘भारतीय संस्कृति का इतिहास’ पढ़ें। मेरे द्वारा लिखित ‘बहिनों की बातें’ पुस्तक में भी इस विषय में आकट्य तर्क दिये हैं। एक फै्रंच लेखक फें्रकायस गाटियर लिखित India’s self Denial भी पठनीय है। श्री अनवर शेख की उर्दू पुस्तकों में भी साम्राज्यवादी सूली के वेतन भोगियों केे मत का प्रबल खण्डन मिलता है।

योरुपीय ईसाई जातियों के अठारहवीं शताब्दी में भारत में घुसने से पहले विश्व के किसी भी इतिहास लेखक ने आर्यों के भारत पर आक्रमण या बाहर से भारत में आने का कहीं भी उल्लेख नहीं किया। तुर्कों, अफगानों व मुगलों के दरबारी इतिहास लेखकों ने हिन्दुओं को सग (कुत्ता), काफिर व नरकगामी आदि के रूप में बार-बार लिखा है, परन्तु फैजी अबुलफजल आदि की किसी पुस्तक में आर्यों को भारत में बाहर से आये आक्रमणकारी नहीं लिखा। इससे अधिक प्रबल तर्क  ‘भारत ही आर्यों का आदि देश है’ के लिये और क्या हो सकता है?

२. आर्यों के किसी भी ग्रन्थ में आर्यों के बाहर से भारत में आने का लेश मात्र भी कोई प्रमाण नहीं मिलता। यूँही वेद शास्त्र के वचनों को तोड़-मरोड़ कर ईसाई पादरी, सरकारी लेखक यह मनगढ़न्त मत थोपते चले आ रहे हैं। जवाहरलाल जी नेहरू आदि अंग्रेजी पठित लोगों ने हीन भावना से इस मिथ्या मत को खाद-पानी देकर और बढ़ाया।

३.महर्षि दयानन्द जी महाराज पहले ऐसे भारतीय विचारक, महापुरुष और राष्ट्र नायक हैं, जिन्होंने सूली व सरकार के चाकर इतिहास लेखकों के इस मनगढ़न्त मत को चुनौती दी। ऋषि की शिष्य परम्परा में आचार्य रामदेव जी, डॉ. बालकृष्ण जी, पं. धर्मदेव जी, पं. भगवद्दत्त जी, वैद्य गुरुदत्त जी आदि प्रकाण्ड इतिहासज्ञ और विद्वानों ने इस मिथ्या मत की धज्जियाँ उड़ा दीं। अंग्रेजों के शिष्य राजेन्द्र लाल मित्र (गो-मांस भक्षण के प्रबल पोषक) को भी यह लिखना पड़ा कि स्वामी दयानन्द वेदों के अद्वितीय बेजोड़ विद्वान् थे। उनके दृष्टिकोण को हिन्दू समाज ने आज कुछ समझा है, अन्यथा अभागा हिन्दू तो स्वामी विवेकानन्द जी के शिकागों के अंग्रेजी भाषण का ही ढोल पीटता रहा। जब स्वामी विवेकानन्द ने ही मैक्समूलर की प्रशंसा के पुल बाँध दिये तो फिर भारतीय स्वाभिमान की रक्षा कैसे हो?

४. सब जातियाँ अपनी विजयों, उपलब्धियों पर इतराते हुये उनकी चर्चा करती हैं, अपने वीरों का यशोगान करती हैं। भारत विजय यदि आक्रमणकारी आर्यों ने की तो कहाँ-कहाँ लड़ाई हुई? कौन तब आर्यों का सेनापति था? किसी विजय का कोई स्मारक तो दिखाया जाये। वे आर्य जो अथर्ववेद के भूमिसूक्त की ऋचायें गाते आये हैं, उन्होंने उस भूमि, उस देश, उस प्रदेश, उन नदियों, पर्वतों को कैसे सर्वथा सर्वदा के लिये बिसार दिया-जहाँ से वे भारत में आये?

५. इस्लाम मक्का से आया। ईसाई मत यरूशलम से निकला। संसार भर के नमाजी मक्का, मदीना की ओर मुँह करके नमाज पढ़ते हैं। ईसाई रोम की यात्रा को जाते हैं, परन्तु आर्य जाति ने तो सागर पार जाना ही पाप मान लिया। आर्यों का आदि देश भारत ही है-इसका इससे बड़ा तर्क व प्रमाण क्या हो सकता है?

६. परकीय मतों के पवित्र व ऐतिहासिक स्थल सब भारत से बाहर हैं। हिन्दुओं के सब स्थल अखण्ड भारत में ही हैं। कोई भी भारत से बाहर नहीं। आशा है कि इतने से प्रश्रकत्र्ता आर्य युवक का काम चल जायेगा। हिन्दू अब भी कृतज्ञता से ऋषि दयानन्द का कहाँ गुणगान करता है कि उस ऋषि ने इस महान् सांस्कृतिक आक्रमण का प्रतिकार इस ढंग से किया कि आज यूरोप व अमरीका के विद्वान् उसके शंखनाद को सुनकर हमारी मान्यताओं को सत्य सिद्ध कर रहे हैं। अमरीकन लेखक की पुस्तक Glory of the Vedas इसका एक प्रबल प्रमाण है।

७. प्रसंगवश हम बतादें कि राजेन्द्र लाल मित्र के जिस पत्र की ऊपर हमने चर्चा की है, वह हमारे प्रकाण्ड विद्वान् विरजानन्द जी ने खोज कर हमें दिया। हमने उसकी छायाप्रति छपवा दी है।

नकली भगवान्: डॉ धर्मवीर

नकली भगवान्

पाठकगण! इससे पूर्व के अंक में सम्पादकीय को अन्तिम कहकर प्रकाशित किया गया था, परन्तु जब विश्व पुस्तक मेले के लिये श्रीमती ज्योत्स्ना जी दिल्ली गईं, तो उन्हें दिल्ली स्थित आश्रम के डॉ. धर्मवीर जी के कक्ष से यह लेख प्राप्त हुआ, जो कि सम्पादकीय के रूप में ही लिखा गया था। -सम्पादक

किसी भी चित्र को देखकर उसे पहचान लेते हैं, तो यह कलाकार की सफलता है। यदि हम एक चित्र को देखें, उसे कोई दूसरे नाम से पुकारे और किसी अन्य चित्र को किसी और नाम से, तो निश्चय ही नाम और आकृति की भिन्नता से वे दोनों चित्र दो भिन्न व्यक्तियों के होंगे। हम मन्दिर में राम की मूत्र्ति को देखकर उसे भगवान् की मूर्ति नहीं कहते, उसे हम भगवान् राम की मूर्ति कहते हैं। हनुमान् की मूर्ति को भगवान् नहीं कहते, भगवान् हनुमान् कहते हैं। भगवान् विशेषण है, राम, हनुमान् नाम है। अत: मूर्तियाँ भगवान् की नहीं हैं, भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की हैं। राम और हनुमान् की। भगवान् की मूर्ति होती तो दो नाम और भिन्न आकृतियाँ नहीं होती और एक मन्दिर में अनेक प्रकार की मूर्तियों की आवश्यकता भी नहीं होती। हर व्यक्ति किसी विशेष आकृति का उपासक है। अत: सभी को सन्तुष्ट करने के लिए सभी आकृतियों को भगवान् के रूप में स्थापित कर लिया जाता है।

सबसे विचित्र बात है- भगवान् को भोग लगाना। हम पूजा करते हुए यह मानते हैं कि भगवान् खाता है, पीता है। आजतक मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी भी बिना मुख खोले नहीं खा सकते। एक माँ अपने तत्काल उत्पन्न हुए शिशु को भी बिना मुख खोले अपना दूध नहीं पिता सकती, फिर हम हजारों वर्षों से भगवान् को भोग लगाने के नाम पर खिलाने का अभिनय करते हैं और उसे सत्य मानते हैं। घर आये अतिथि को खिलाने में, घर में पाले पशु, गाय, कुत्ते आदि प्राणियों को खिलाने में कष्ट होता है, परन्तु भगवान् को जीवनभर खिलाते हैं और खिलाने की सन्तुष्टि का अनुभव करते हैं, क्योंकि वह खाता ही नहीं। मन्दिर में जाकर भगवान् से माँगते हैं, परन्तु भगवान को अपने घर पधारने का निमन्त्रण नहीं देते, क्योंकि वह जड़ है, चल-फिर नहीं सकता।

जो सदा रहता है, वह कभी नहीं रहा, ऐसा नहीं हो सकता, परन्तु जड़ वस्तुओं से बनाया भगवान् आज होता है, कल नहीं होता। गणेश जी, देवी-देवताओं की प्रतिमायें गणेश चतुर्थी या दुर्गा-पूजा पर हजारों नहीं, लाखों की संख्या में कूड़े-कचरे से बनाई जाती हैं, उनको पण्डाल में सजाया जाता है, उनकी पूजा आरती की जाती है, भोग लगाया जाता है, उनसे प्रार्थनाएँ की जाती हैं, नमस्कार किया जाता है और अगले दिन कचरे के ढ़ेर पर फेंक दिया जाता है। इस प्रकार कचरे से बना भगवान्, वापस कचरे में चला जाता है। यदि जड़ वस्तु को आप भगवान् मानते हैं तो मूर्ति बनने से पहले भी कचरा भगवान् था और वापस कचरे में फेंकने के बाद भी भगवान् ही रहेगा, परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं होता, अत: जड़ वस्तु भगवान् नहीं है। आप उसे कुछ समय के लिए भगवान् मान लेते हैं। इसीलिए गणेश विसर्जन के पश्चात् समुद्र में फेंके गये चित्रों के नीचे लिखा था- कचरे का भगवान् कचरे में।

कभी कोई बात लाख उक्ति, प्रमाणों से नहीं समझाई जा सकती, वह घटना से एक बार में समझ में आ जाती है।

एक बार दिल्ली में वेद मन्दिर में स्वामी जगदीश्वरानन्द जी के निवास पर एक परिवार उनसे भेंट करने आया, परिवार दिल्ली का ही रहने वाला था। पति-पत्नी दोनों केदारनाथ की यात्रा करके लौटे थे। सब कुशलक्षेम की बातें होने के बाद अपनी यात्रा का वृत्तान्त सुनाते हुए एक रोचक घटना सुनाई, जो बहुत शिक्षाप्रद है-

केदारनाथ मन्दिर में प्रात:काल वे दोनों दर्शन के लिए गये। भीड़ बहुत थी, पंक्ति में खड़े थे, उनके पीछे एक वृद्ध राजस्थान से भगवान् के दर्शन के लिये आया था, वह भी पंक्ति में चल रहा था। उन्होंने बताया मन्दिर में पहुँचे, मूर्ति के दर्शन करके आगे बढ़ रहे थे, पीछे के वृद्ध व्यक्ति ने दर्शन करते हुए वहाँ खड़े पुजारी से प्रार्थना की- पुजारी जी, बहुत वर्षों से भगवान् के दर्शनों की इच्छा थी, बड़ी दूर से चलकर आया हूँ। थोड़ी देर खड़े रहने दीजिए, जिससे भगवान् के भली प्रकार दर्शन कर सकूँ, यह सुनकर पुजारी झल्लाया और उस वृद्ध को आगे की ओर धक्का देते हुए बोलो- तुझे दो मिनट में भगवान् क्या दे देगा? मैं यहाँ बत्तीस साल से खड़ा हूँ, मुझे आज तक  कुछ नहीं दिया। चलो, आगे बढ़ो। यह है भगवान् की वास्तविकता। यदि कोई भी भगवान् प्रभावशाली होते तो पुजारी, पादरी, ग्रन्थी, मुल्ला, मनुष्य समाज में आदर्श जीवन के धनी होते, परन्तु पाप सम्भवत: सामान्य भोगों की अपेक्षा इनके पास अधिक है, क्योंकि ये भगवान् से डरते नहीं, उन्हें वास्तविकता का पता है।

योगदर्शन में ईश्वर की पहचान बताते हुए महर्षि पतञ्जलि ने लिखा-

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।।

– धर्मवीर

हदीस : चोरी की सज़ा

चोरी की सज़ा

आयशा बतलाती है-”अल्लाह के पैग़म्बर ने एक-चौथाई और उससे अधिक दीनार की चोरी करने वालों के हाथ काट डाले“ (4175)। अबू हुरैरा, पैगम्बर को यह कहते बतलाते हैं-”उस चोर पर अल्लाह की लानत है जो एक अंडा चुराता है और जिसका हाथ काट डाला जाता है। और उस चोर पर भी जो रस्सी चुराता है और उसका हाथ काट डाला जाता है“ (4185)।

 

हदीस में कुरान की पुष्टि ही की गई है। कुरान में कहा है-”और जो चोरी करे, वह मर्द हो या औरत, उसके हाथ काट डालो। यह उनके किये की सज़ा और अल्लाह की तरफ से इबरत है। और अल्लाह सबसे जबर्दस्त और साहिबे-हिकमत (बुद्धिमान) है“ (5/38)। अनुवादक दो पृष्ठ की एक लम्बी टिप्पणी देकर समझाते हैं कि ”इस्लाम द्वारा विहित सामाजिक सुरक्षा की योजना को दृष्टि में रखते हुए ही कुरान चोरी के लिए हाथ काट डालने की सज़ा निर्धारित करता है“ (टि0 2150)।

 

आयशा इसी तरह का एक और मामला बयान करती हैं। मक्का की विजय के अभियान के समय एक औरत ने कोई चोरी की। यद्यपि मुहम्मद की प्रिया उसामा बिन ज़ैद ने उसकी ओर से पैरवी की, तथापि उस औरत का हाथ काट डाला गया। आयशा कहती हैं कि ”यह एक सही प्रायश्चित था“ (4188)। अनुवादक हमें विश्वास दिलाते हैं कि इस सज़ा के बाद ”उस औरत की आत्मा में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन आ गया“ (टि0 2152)।

author : ram swarup

 

ठाकुरजी घर कैसे लौटें?

ठाकुरजी घर कैसे लौटें?

पण्डित श्री रामचन्द्रजी देहलवी दिल्ली में बाबू सुन्दरलालजी अहलुवालिया के घर में किराये पर रहा करते थे। उनका एक मन्दिर भी था। मन्दिर के पुजारी से पण्डितजी की मित्रता थी। एक

दिन पुजारी ने अपने पुत्र ऋषि को आवाज़ लगाकर पूछा कि रात होनेवाली है, तूने मन्दिर को ताला लगाया अथवा नहीं? उसके नकारात्मक उज़र पर पुजारीजी भी कुछ रुष्ट होकर बोले कि यदि कोई ठाकुरजी को उठाकर ले-जाए तो गये हुए ठाकुर आज तक कभी वापस आये हैं?

पूज्य पण्डित रामचन्द्र जी देहलवी सुनकर हँस पड़े और अपने पुजारी-मित्र से कहा-‘‘कभी आपने इनको गली-कूचों में घूमने का अवसर दिया है? ठाकुरजी बेचारों को ज़्या पता? वे तो आज

तक कभी बाहर गये ही नहीं तो उन्हें अपने घर के मार्ग का कैसे पता चले? इसलिए एक बार जाने के पश्चात् आज तक लौटे नहीं।’’ इस पर पुजारीजी भी हँस पड़े।

हदीस : हदूद

हदूद

पन्द्रहवीं किताब में इस्लाम की दंड-संहिता, हदूद, का विवेचन है। इस पुस्तक को अहादीस कुरान अथवा सुन्ना में निरूपित दंड-विधान से संबंधित हैं। इनमें चोरी और मामूली डकैती के लिए अंगभंग की सजा, परस्त्री-गमन के लिए पत्थरों से मार डालने की सज़ा, कुमारी-गमन के लिए सौ करोड़ की सज़ा, शराब पीने के लिए भी अस्सी कोड़ों की सज़ा और इस्लाम छोड़ने पर मौत की सज़ा शामिल हैं। इस सब सज़ाओं का ज़िक्र पहले हो चुका है।

author : ram swarup

 

रोज़ा की बीवी

रोज़ा की बीवी

शास्त्रार्थ-महारथी पण्डित श्री शान्तिप्रकाश जी ने यह घटना सुनाई। एक बार कुछ यात्री गाड़ी में यात्रा कर रहे थे। उनमें से एक मौलवी साहब भी थे। मौलवीजी कुछ फल आदि खाने लगे तो साथ बैठे हिन्दू-यात्री से भी बड़े स्नेह से कहा-‘‘आप भी लीजिए।’’

हिन्दू-यात्री ने कहा-‘‘मौलवी साहब! आज मेरा एकादशी का व्रत है, अतः कुछ न खाऊँगा।’’

मौलवीजी बोले, ‘‘ज़्या जानते हो कि एकादशी हमारे रोज़ा की बीवी है।’’ हिन्दू बेचारा कच्चा-सा होकर चुप हो गया। मौलवीजी हिन्दू की इस मनोदशा पर बड़े इतराए।

समीप बैठे एक आर्यसमाजी से रहा न गया। वह बोला- ‘‘मौलाना! आपने बजा फ़र्माया। एकादशी रोज़ा की ही बीवी है, परन्तु रहती हिन्दुओं के यहाँ है। अब मौलवीजी ऐसे चुप हुए कि फिर बोलने का साहस न कर पाए।’’

हिन्दुओं का नरसंहार कर रहे दुर्दांत जेहादी दल PFI के मंच पर दिखे हामिद अंसारी.

हिन्दुओं का नरसंहार कर रहे दुर्दांत जेहादी दल PFI के मंच पर दिखे हामिद अंसारी. हर शब्द सच साबित हुआ सुदर्शन का

एक ऐसा पक्षपाती महामहिम जिसने गैर राजनैतिक पद पर रहते हुए भी अपने शासन काल में सिर्फ और सिर्फ राजनैतिक ही नहीं जेहादी हरकतें भी की . एक ऐसा पक्षपाती व्यक्ति जिसके खिलाफ बोलने पर सुदर्शन न्यूज को नोटिस तक जारी हो गयी जबकि सुदर्शन न्यूज ने सबसे पहले उसकी जेहादी हरकतों को पकड़ा और पहचाना था . उस समय भले ही हमारा विरोध किसी ने जान कर या अनजाने में किया रहा हो पर आज सुदर्शन न्यूज की उस समय की कही गयी एक एक बात की तस्दीक अर्थात प्रमाणिकता साबित हो रही है और उसे साबित करने वाला कोई और नहीं खुद वही अंसारी है जिसके जेहादी स्वरूप को सुदर्शन न्यूज ने सबसे पहले खोल कर रख दिया था वो भी उस समय जब  वो गद्दी और शक्ति के मद में चूर था ..

यहाँ बात हो रही है भारत के तिरंगे को सलाम न करने वाले हामिद अंसारी की , यहाँ बात हो रही है भारत की नवागत सरकार पर आये दिन नया आक्षेप लगाने वाले हामिद अंसारी की , यहाँ बात हो रही है अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में संसार की सबसे धर्मनिरपेक्ष व् सहिष्णु कौम भारत के हिन्दुओ को कटघरे में  खड़ा कर के चले गए हामिद अंसारी की जो एक समय खुद को भले ही धर्मनिरपेक्षता का सबसे बड़ा ठेकेदार अपनी संविधान और जनता द्वारा मिली शक्ति के दुरूपयोग से साबित कर ले गए हों पर आखिर अपनी हरकतों से वो एक एक बात साबित कर गये जो सुदर्शन न्यूज ने कई साल पहले कहा था .

ज्ञत हो की भारत के दुर्भाग्यस्वरूप पूर्वउपराष्ट्रपति हामिद अंसारी अचानक ही उस क्रूर जेहादी संगठन PFI अर्थात पापुलर फ्रंट आफ इंडिया के मंच पर नजर आये हैं जो पिछले काफी समय से केरल और कर्नाटक के आस पास हिन्दू नेताओं के नरसंहार के संलिप्त पाई गयी है . इसी जेहादी संगठन का केरल के कोझिकोड में एक कार्यक्रम आयोजित था जिसमे हामिद अंसारी मुख्य अतिथि के तौर पर शामिल होते पाए गये हैं . पापुलर फ्रंट आफ इंडिया वही सन्गठन है जो आतंकी घोषित हो चुके जाकिर नाइक के लिए हिन्दुओ के कत्लेआम की धमकी भी दे चूका है और भाजपा से ले कर संघ और बजरंग दल तक के कार्यकर्ताओं के लहू से कई बार अपने हाथ रंग चूका है |

इस सनसनीखेज खुलासे से देश सन्न है . सन्न वो भी हैं जो हामिद अंसारी को धर्म निरपेक्षता का मसीहा मानते थे . सन्न हो भी हैं जिन्होंने सुदर्शन न्यूज के दावों पर शक किया था . सन्न वो भी है जो धर्म निरपेक्षता का अर्थ अभी तक समझ ही नहीं पाए है . हामिद अंसारी वहां कई संदिग्ध लोगों को सम्मानित करते और उनके साथ मंच शेयर करते भी दिखे जिनके चेहरे पर अजीब किस्म के भाव थे जो कम से कम भारत के पूर्व उपराष्ट्रप्ति के नहीं हो सकते थे .. दुर्दांत आतंकियों के दल में बैठ कर हामिद अंसारी ने अपने कार्यकाल के अंतिम समय में अपने कुकृत्य रुपी बयान का अपने आप उत्तर और अर्थ समझा दिया है . बाकी ये देश की जनता को फैसला करना है पर सुदर्शन सत्य साबित हुआ है अपनी एक एक बात पर . उस बात पर भी जिसके लिए उसको नोटिस तक जारी की गयी थी

source: http://www.sudarshannews.com/category/national/hamid-ansari-found-on-jehadi-group-stage–6288