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नकली भगवान्: डॉ धर्मवीर

नकली भगवान्

पाठकगण! इससे पूर्व के अंक में सम्पादकीय को अन्तिम कहकर प्रकाशित किया गया था, परन्तु जब विश्व पुस्तक मेले के लिये श्रीमती ज्योत्स्ना जी दिल्ली गईं, तो उन्हें दिल्ली स्थित आश्रम के डॉ. धर्मवीर जी के कक्ष से यह लेख प्राप्त हुआ, जो कि सम्पादकीय के रूप में ही लिखा गया था। -सम्पादक

किसी भी चित्र को देखकर उसे पहचान लेते हैं, तो यह कलाकार की सफलता है। यदि हम एक चित्र को देखें, उसे कोई दूसरे नाम से पुकारे और किसी अन्य चित्र को किसी और नाम से, तो निश्चय ही नाम और आकृति की भिन्नता से वे दोनों चित्र दो भिन्न व्यक्तियों के होंगे। हम मन्दिर में राम की मूत्र्ति को देखकर उसे भगवान् की मूर्ति नहीं कहते, उसे हम भगवान् राम की मूर्ति कहते हैं। हनुमान् की मूर्ति को भगवान् नहीं कहते, भगवान् हनुमान् कहते हैं। भगवान् विशेषण है, राम, हनुमान् नाम है। अत: मूर्तियाँ भगवान् की नहीं हैं, भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की हैं। राम और हनुमान् की। भगवान् की मूर्ति होती तो दो नाम और भिन्न आकृतियाँ नहीं होती और एक मन्दिर में अनेक प्रकार की मूर्तियों की आवश्यकता भी नहीं होती। हर व्यक्ति किसी विशेष आकृति का उपासक है। अत: सभी को सन्तुष्ट करने के लिए सभी आकृतियों को भगवान् के रूप में स्थापित कर लिया जाता है।

सबसे विचित्र बात है- भगवान् को भोग लगाना। हम पूजा करते हुए यह मानते हैं कि भगवान् खाता है, पीता है। आजतक मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी भी बिना मुख खोले नहीं खा सकते। एक माँ अपने तत्काल उत्पन्न हुए शिशु को भी बिना मुख खोले अपना दूध नहीं पिता सकती, फिर हम हजारों वर्षों से भगवान् को भोग लगाने के नाम पर खिलाने का अभिनय करते हैं और उसे सत्य मानते हैं। घर आये अतिथि को खिलाने में, घर में पाले पशु, गाय, कुत्ते आदि प्राणियों को खिलाने में कष्ट होता है, परन्तु भगवान् को जीवनभर खिलाते हैं और खिलाने की सन्तुष्टि का अनुभव करते हैं, क्योंकि वह खाता ही नहीं। मन्दिर में जाकर भगवान् से माँगते हैं, परन्तु भगवान को अपने घर पधारने का निमन्त्रण नहीं देते, क्योंकि वह जड़ है, चल-फिर नहीं सकता।

जो सदा रहता है, वह कभी नहीं रहा, ऐसा नहीं हो सकता, परन्तु जड़ वस्तुओं से बनाया भगवान् आज होता है, कल नहीं होता। गणेश जी, देवी-देवताओं की प्रतिमायें गणेश चतुर्थी या दुर्गा-पूजा पर हजारों नहीं, लाखों की संख्या में कूड़े-कचरे से बनाई जाती हैं, उनको पण्डाल में सजाया जाता है, उनकी पूजा आरती की जाती है, भोग लगाया जाता है, उनसे प्रार्थनाएँ की जाती हैं, नमस्कार किया जाता है और अगले दिन कचरे के ढ़ेर पर फेंक दिया जाता है। इस प्रकार कचरे से बना भगवान्, वापस कचरे में चला जाता है। यदि जड़ वस्तु को आप भगवान् मानते हैं तो मूर्ति बनने से पहले भी कचरा भगवान् था और वापस कचरे में फेंकने के बाद भी भगवान् ही रहेगा, परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं होता, अत: जड़ वस्तु भगवान् नहीं है। आप उसे कुछ समय के लिए भगवान् मान लेते हैं। इसीलिए गणेश विसर्जन के पश्चात् समुद्र में फेंके गये चित्रों के नीचे लिखा था- कचरे का भगवान् कचरे में।

कभी कोई बात लाख उक्ति, प्रमाणों से नहीं समझाई जा सकती, वह घटना से एक बार में समझ में आ जाती है।

एक बार दिल्ली में वेद मन्दिर में स्वामी जगदीश्वरानन्द जी के निवास पर एक परिवार उनसे भेंट करने आया, परिवार दिल्ली का ही रहने वाला था। पति-पत्नी दोनों केदारनाथ की यात्रा करके लौटे थे। सब कुशलक्षेम की बातें होने के बाद अपनी यात्रा का वृत्तान्त सुनाते हुए एक रोचक घटना सुनाई, जो बहुत शिक्षाप्रद है-

केदारनाथ मन्दिर में प्रात:काल वे दोनों दर्शन के लिए गये। भीड़ बहुत थी, पंक्ति में खड़े थे, उनके पीछे एक वृद्ध राजस्थान से भगवान् के दर्शन के लिये आया था, वह भी पंक्ति में चल रहा था। उन्होंने बताया मन्दिर में पहुँचे, मूर्ति के दर्शन करके आगे बढ़ रहे थे, पीछे के वृद्ध व्यक्ति ने दर्शन करते हुए वहाँ खड़े पुजारी से प्रार्थना की- पुजारी जी, बहुत वर्षों से भगवान् के दर्शनों की इच्छा थी, बड़ी दूर से चलकर आया हूँ। थोड़ी देर खड़े रहने दीजिए, जिससे भगवान् के भली प्रकार दर्शन कर सकूँ, यह सुनकर पुजारी झल्लाया और उस वृद्ध को आगे की ओर धक्का देते हुए बोलो- तुझे दो मिनट में भगवान् क्या दे देगा? मैं यहाँ बत्तीस साल से खड़ा हूँ, मुझे आज तक  कुछ नहीं दिया। चलो, आगे बढ़ो। यह है भगवान् की वास्तविकता। यदि कोई भी भगवान् प्रभावशाली होते तो पुजारी, पादरी, ग्रन्थी, मुल्ला, मनुष्य समाज में आदर्श जीवन के धनी होते, परन्तु पाप सम्भवत: सामान्य भोगों की अपेक्षा इनके पास अधिक है, क्योंकि ये भगवान् से डरते नहीं, उन्हें वास्तविकता का पता है।

योगदर्शन में ईश्वर की पहचान बताते हुए महर्षि पतञ्जलि ने लिखा-

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।।

– धर्मवीर

‘मैं और मेरा धर्म’ -मनमोहन कुमार आर्य।

मैं कौन हूं और मेरा धर्म क्या है? इस विषय पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि मैं एक मुनष्य हूं और मनुष्यता ही मेरा धर्म है। मनुष्य और मनुष्यता पर विचार करें तो हम, मैं कौन हूं व मेरे धर्म मनुष्यता का परिचय  जान सकते हैं। इसी पर आगे विचार करते हैं। मनुष्य मननशील होने स्वात्मवत दूसरों के सुखदुःख हानि लाभ को समझने के कारण ही मनुष्य कहलाता है। यदि हम मनुष्य होकर मनन न करें तो हम मनुष्य नहीं अपितु पशु समान ही होंगे क्योंकि पशुओं के पास मनन करने वाली बुद्धि नहीं है। वह कुछ भी कर लें किन्तु मनन, विचार, चिन्तन, सत्य व असत्य का विश्लेषण आदि नहीं कर सकते। अब प्रश्न उपस्थित होता है कि मनन किससे होता है और मनन की प्रेरणा कौन करता है? इसका उत्तर यह है कि हमारे शरीर में मस्तिष्कान्तर्गत बुद्धि तत्व, इन्द्रिय नहीं अपितु इनसे मिलता जुलता एक अलग उपकरण वा अवयव है, जो सत्य व असत्य, उचित व अनुचित का चिन्तन व विचार करता है, इसी को मनन करना कहते हैं। बुद्धि नामक यह उपकरण जड़ सूक्ष्म प्रकृति तत्व की विकृति है। यह मैं व हम से भिन्न सत्ता है। मैं व हम एक चेतन, सूक्ष्म, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, अल्प-परिणाम, अनादि, अजन्मा, अमर, नित्य, अजर, शस्त्रों से अकाट्य, अग्नि से जलता नहीं, जल से भीगता नहीं, वायु से सूखता नहीं, कर्म-फल चक्र में बन्धा हुआ, सुख-दुःखों का भोगता, जन्म-मरणधर्मा व वैदिक कर्मों को कर मोक्ष को प्राप्त करने वाली सत्ता हैं। मुझे यह जन्म इस संसार में व्यापक, जिसे सर्वव्यापक कहते हैं तथा जो सच्चिदानन्दस्वरूप है, उसके द्वारा मेरा जन्म अर्थात् मुझे इस मनुष्य शरीर की प्राप्ति हुई है। यह शरीर मुझसे भिन्न मेरा अपना है और मेरे नियन्त्रण में होता है। मुझे कर्म करने की स्वतन्त्रता है परन्तु उनके जो फल हैं, उन्हें भोगने में मैं परतन्त्र हूं। मेरे शरीर की सभी पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेंन्द्रियां, मन, बुद्धि आदि अवयव व तत्व मेरे अपने हैं व मेरे अधीन अथवा नियन्त्रण में है। मेरी अर्थात् आत्मा की प्रेरणा पर हमारी बुद्धि विचार, चिन्तन व मनन करती है। यदि हम कोई भी निर्णय बिना सत्य व असत्य को विचार कर करते हैं और उसमें बुद्धि का प्रयोग नहीं करते तो यह कहा जाता है कि यह मनुष्य नहीं गधे के समान है। गधा भी विचार किये बिना अपनी प्रकृति व ईश्वर प्रदत्त बुद्धि जो चिन्तन मनन नहीं कर सकती, कार्य करता है। जब हम बुद्धि की सहायता से मनन करके कार्य करते हैं तो सफलता मिलने पर हमें प्रसन्नता होती है और यह हमारे लिए सुखद अनुभव होता है। इसी प्रकार से जब मनन करने पर भी हमारा अच्छा प्रयोजन सिद्ध न हो तो हमें अपने मनन में कहीं त्रुटि वा कमी अनुभव होती है। पश्चात और अधिक चिन्तन व मनन करके हम अपनी कमी का सुधार करते हैं और सफलता प्राप्त करते हैं। सफलता मिलने में हमारे प्रारब्ध की भी भूमिका होती है परन्तु इसका ज्ञान परमात्मा को ही होता है। हम तो केवल आचार्यों से अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त कर अपनी बुद्धि की क्षमता को बढ़ा सकते हैं और उसका प्रयोग कर सत्यासत्य का विचार व सही निर्णय कर सकते हैं।

 

जन्म के बाद जब हम 5 से 8 वर्ष की अवस्था में होते हैं तो माता-पिता हमें आचार्यों के पास विद्या प्राप्ति के लिये भेजते हैं। आचार्य का कार्य हमारे बुरे संस्कारों को हटा कर श्रेष्ठ व उत्तम संस्कारों व गुणों का हमारी आत्मा में स्थापित करना होता है। आचार्य के साथ हमें स्वयं भी वेदाध्ययन व अन्य सत्साहित्य का अध्ययन कर व अपने विचार मन्थन से श्रेष्ठ गुणों को जानकर उसे अपने जीवन का अंग बनाना होता है। श्रेष्ठ गुणों को जानना, उसे अपने जीवन में मन, वचन कर्म सहित धारण करना और आचरण में केवल श्रेष्ठ गुणों का ही आचरण व्यवहार करना धर्म कहलता है। धर्म को सरल शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि सत्य का आचरण ही धर्म है। सत्य का आचरण करने से पूर्व हमें सत्य की पहचान करने के साथ सत्य के महत्व को जानकर लोभ व काम-क्रोध को अपने वश में भी करना होता है। आजकल देखा जा रहा है कि उच्च शिक्षित लोग अपने हित, स्वार्थ व अविद्या के कारण लोभ व स्वार्थों के वशीभूत होकर भ्रष्टाचार, दुराचार, अनाचार, कदाचार, दुराचार, व्यभिचार, बलात्कार जैसे अनुचित व अधर्म के कार्य कर लेते हैं। यह श्रेष्ठ गुणों के विपरीत होने के कारण अधर्म की श्रेणी में आता है। कोई किसी भी मत को मानता है परन्तु प्रायः सभी मतों के लोग इस लोभ के प्रति वशीभूत होकर, अनेक धर्माचार्य भी, अमानवीय व उत्तम गुणों के विपरीत कार्यों को कर अधर्मी व पापी बन जाते हैं। यह कार्य हमारा व किसी का भी धर्म नहीं हो सकता। मत और धर्म में अन्तर यही है कि संसार के सभी मनुष्यों का धर्म तो एक ही है और वह सदगुणों को धारण करना व उनका आचरण करना ही है। इसमें ईश्वर के सच्चे स्वरूप को जानकर उसकी स्तुति, प्रार्थना और उपासना करना, प्राण वायु-स्वात्मा की शुद्धि व परोपकार के लिए अग्निहोत्र यज्ञ नियमित करना, माता-पिता-आचार्यों व विद्वान अतिथियों का सेवा सत्कार तथा सभी पशु-पक्षियों व प्राणियों के प्रति अंहिसा व दया का भाव रखना ही श्रेष्ठ गुणों के अन्तर्गत आने से मननशील मनुष्य का धर्म सिद्ध होता है। यह सभी कार्य सभी मनुष्यों के लिए करणीय होने से धर्म हैं। आजकल जो मत-मतान्तर चल रहे हैं वह धर्म नहीं है। उनमें धर्म का आभास मात्र होता है परन्तु वह मनुष्यता के लिए न्यूनाधिक हानिकर हैं। यह लोग अपने-अपने मत के स्वार्थ के लिए नाना प्रकार की अमानवीय योजनायें बनाते व उन्हें गुप्त रूप से क्रियान्वित करते हैं जिससे समाज में वैमनस्य उत्पन्न होता है। मनुष्य मत-मतान्तरों में बंट कर एक दूसरे के विरोघी बनते हैं जैसा कि आजकल देखने को मिलता है। इसके साथ सभी मतों के अनुयायी भी ईश्वर की सच्ची उपासना, वेद प्रवर्तित ज्ञानयुक्त कार्यों को न करने और श्रेष्ठ गुणों को धारण कर उनका आचरण न करने से जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से वंचित हो जाते हैं। महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने मत-मतान्तरों में निहित अमानवीय व अधर्म विषयक प्रवृत्तियों का संकेत किया था परन्तु अज्ञान, स्वार्थ व अहंकारवश लोगों ने उनकी विश्व का कल्याण करने वाली मान्यताओं की उपेक्षा की जिसका परिणाम यह हुआ कि हम लोग श्रेष्ठ गुणों को धारण कर जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लक्ष्य से दूर हैं और विश्व की लगभग 7 अरब की जनसंख्या में से शायद कोई एक भी उसे कोई पूरा करता होगा?

 

हम लेख का अधिक विस्तार न कर संक्षेप में यह कहना चाहते हैं कि हम सब मनुष्य व प्राणी एक जीवात्मा हैं और ईश्वर हमारे पूर्व कर्मानुसार हमारा अर्थात् हमारे शरीरों का जन्म दाता है। मनुष्य जन्म मिलने पर सभी को श्रेष्ठ व उत्तम सत्य गुणों को धारण करना चाहिये। इनका आचरण ही धर्म होता हैं। वेद ईश्वरीय ज्ञान है तथा सत्य मनुष्य धर्म व सभी विद्याओं का पुस्तक है। वेदाध्ययन करना और उसके अनुसार जीवन व्यतीत करना ही मनुष्य धर्म वा वैदिक धर्म है। वेद संस्कृत में हैं अतः संस्कृत न जानने वाले लोगों को सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि आदि ग्रन्थों सहित महर्षि दयानन्द व अन्य वैदिक विद्वानों के वेदभाष्यों व ऋषि मुनियों के अन्य ग्रन्थों शुद्ध मनुस्मृति, ज्योतिष, दर्शन व उपनिषदों का आत्मा की ज्ञानवृद्धि के लिए अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करके हमें, मैं व स्व का परिचय प्राप्त होने के साथ अपने कर्तव्य व धर्म का निर्धारण करने में सहायता मिलेगी। मत-मतान्तरों के ग्रन्थों को पढ़कर मनुष्य भ्रान्तियों से ग्रसित होता है अथवा ऐसा मनुष्य बनता है जिसमें आत्मा व बुद्धि होने पर भी वह सर्वथा इनसे अपरिचित होता हुंआ मत-मतान्तरों की सत्यासत्य मान्यताओं में फंसा रहता है। ऐसा मनुष्य लगता है कि केवल खाने-पीने व सुख सुविधायें भोगने के लिए ही जन्मा है। खाना पीना व सुविधायें भोगना मनुष्य जीवन नहीं अपितु इससे ऊपर उठकर सद्ज्ञान प्राप्त कर उससे अपना व दूसरे लोगों का कल्याण करना ही मानव धर्म है। हम आशा करते हैं कि इससे मैं व यथार्थ धर्म का कुछ परिचय पाठकों को प्राप्त होगा।

मनमोहन कुमार आर्य

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