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लव जिहाद में फंसती लड़कियां
लव जिहाद या रोमियो जिहाद
यह जिहाद का ही एक अंग है मुसलमानों की तरफ से कई तरह के जिहाद किये जाते है जिनके परिणाम अल्प समय में भी दिख जाते है तो कई परिणाम दूरगामी होते है
लव जिहाद शब्द पढ़कर जिन्हें यह लगता है की यह भारत की राजनीतिक रोटी सेकने के लिए पैदा किया गया शब्द है तो सच मानिए आपको स्वयम आपकी बुद्धि पर तरस आना चाहिए
मेने आजकल की पढीलिखी युवा पीढ़ी को इस शब्द के कानों में पड़ते ही मुह सिकुड़ते हुए देखा है
इसीलिए इतना विस्तृत लिखने की इच्छा होती है की यह शब्द किसी राजनितिक लाभ के लिए नहीं बनाया गया है
इसका इतिहास पुराना ही है बस आज इसके बुरे परिणाम देखने को मिल रहे है तो इतना बवाल मचा हुआ है और मचे भी क्यों नहीं जब आग घर में लगी हो तो परिवार मौहल्ले को सर पर तो उठाएगा ही
आज आग सनातनियों के घर में लगी है इसलिए हल्ला मचा है और इन आक्रान्ताओं के सहायक तत्वों ने इसे राजनितिक रंग देना प्रारम्भ कर दिया
परन्तु जब यह जिहाद अपने चरम पर पहुंचा है तो देश की कुछ मुख्य न्याय पालिकाओं को यह सत्य दिखाई देने लगा है
लव जिहाद यह शब्द भारत सन्दर्भ में प्रयोग किया जाता है किन्तु कथित रूप से इसी तरह की गतिविधियाँ यूके आदि देशों में भी हुई हैं। केरल हाईकोर्ट के द्वारा दिए एक फैसले में लव जेहाद को सत्य पाया है।
इस्लाम फैलाने के दो मुख्य तरीके उपयोग में लिए जाते रहे है
पहला जबरदस्ती जो पहले बहुत उपयोग किया जाने लगा जब भारत या किसी भी देश में राज्य संगठित नहीं थे तब इस्लामिक आक्रान्ता जबरदस्ती तलवार के जोर पर इस्लाम कबूल करवाते थे और इसका इतिहास हमें पढने को मिलता है
दूसरा है प्यार मोहब्बत इश्क यह तरीका पहले भी अपनाने के प्रयास किये गये थे जिनमें इस्लामिक आक्रान्ताओं को मुह की खानी पड़ी थी सफलता उँगलियों पर गिनी जा सकती है इतनी ही मिली
इसका कारण है की पहले संस्कारों की कमी नहीं थी ना पाश्चात्य संस्कृति हावी थी
परन्तु आज की स्थिति बहुत ही भयावह है
जहाँ पहले लड़कियों की आदर्श हुआ करती थी
रानी लक्ष्मी बाई जिन्होंने देश की रक्षा के लिए छोटे बच्चे को कमर पर बांधकर शत्रुओं के खिलाफ तलवार उठाई,
रानी पद्मिनी जिन्होंने अपने स्त्रीधर्म की रक्षा हेतु जौहर कर लिया,
वीरांगना ऊदा देवी,
रणचंडी मुन्दर,
झलकारी बाई,
तपस्वनी देवी,
अवन्तिका बाई,
पन्ना धाय,
ऐसे सेंकडों नाम है जिनसे भारतीय इतिहास आज भी गौरवान्वित है
तब लव जिहाद जैसे शब्द सुनने में नहीं आये क्यूंकि हमारी लड़कियां स्वयं इतनी सशक्त थी की कोई मुल्ला पास तक फटकने से डरता था
वही जब से लड़कियों ने
करीना कपूर (जिसने एक नवाब के बेटे से विवाह कर भारतीय इतिहास में कुख्यात रह चुके तेमूर के नाम से अपने बेटे का नामकरण किया),
प्रियंका चौपडा (जो मेरी जिन्दगी मेरी पसंद के नाम पर गंदगी फैला चुकी है),
दीपिका पादुकोण (जो एक प्रेमी के होते हुए विन डीजल के बच्चे की माँ बनने का ख़्वाब देखती है),
अमृता राव (जो विवाह से पूर्व सेक्स को सही मानती है)
ऐसी ऐसी लडकियों को अपना आदर्श बनाया है तब से इन गजवा ए हिन्द का स्वप्न देखने वालों को मौक़ा मिल चूका है
फैशन की मारी इन लड़कियों को आकर्षित करना इनके लिए दाए हाथ का खेल बन चूका है और संस्कार विहीन ये लड़कियां इनके जाल में फस भी जाती है
इस पर विस्तार से लिखा जा सकता है
परन्तु यह बिलकुल उचित नहीं होगा की सम्पूर्ण दोष उन लड़कियों को दिया जाए जो ऐसी प्रवृति की है सबसे बड़ा दोष है परिजनों का जिन्होंने हद से अधिक अपने बच्चों को छुट दी है चाहे वो लड़की हो या लड़का एक हद तक छुट दी जाए तो ठीक है परन्तु पहले ही संस्कार से विहीन बच्चे फिर ऊपर से इतनी छुट यह तो आग में घी का कार्य हो रहा है
जब लडकी लव जिहाद के केस में फस जाती है तो इन्हें ये सत्य दिखाई देता है हाय तौबा मचाते है और इस देश में अभी तक ऐसा कानून है नहीं की परिवार वाले शिकार हो चुकी अपनी बच्ची को बच्चा सके
मारवाड़ी में कहते है की “राड़ बीचे बाड़ भत्ति” यानी डांटने मारने पीटने से अच्छा है की पहले की कुछ प्रतिबन्ध बच्चों पर लागू रखे जाए
बच्चों पर नजर रखी जाए उनकी दिनचर्या का पूरा ध्यान रखे बच्चा कहाँ जा रहा है किससे मिल रहा है, क्या खा रहा है, कैसे कपड़े पहन रहा है
हर एक छोटी से छोटी गतिविधि का ध्यान रखा जाए
और यह कोई मुश्किल कार्य नहीं हर बच्चे के पास स्मार्ट फोन आज मिल जाता है, बस इसीके सदुपयोग से आप अपने बच्चों की निगरानी रख सकते है
इसके लिए सभी जानकारियाँ इन्टरनेट पर मिल जाती है
अपने घर में आध्यात्मिक साहित्य के साथ वीर वीरांगनाओं के इतिहास की किताबे भी रखे बच्चों को लव जिहाद की सभी घटनाओं से परिचित करवाए
मेरा मानना है की हम बाद में पछताए यदि उससे पूर्व ही थोड़ी सी सतर्कता बरते तो शायद हमें कभी पछताना न पड़े
प्रयास रहेगा आपको इससे और अधिक जानकारी इसी वेबसाइट के माध्यम से दी जाए
नमस्ते
एक ऐसा ही केस अभी सुर्ख़ियों में है
पढ़े
आर्यसमाज का वेद-सम्बन्धी उत्तरदायित्व: स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती
पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय के सुपुत्र स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती आर्यसमाज के विद्वान् नेता एवं प्रतिष्ठित वैज्ञानिक थे। उनकी वैज्ञानिक योग्यता का एक उदाहरण यह है कि वे ‘वल्र्ड साइन्स कॉन्फ्रैन्स’ के अध्यक्ष रहे हैं। उनकी लेखनी बड़ी बेबाक, मौलिक एवं सुलझी हुई थी। उनके द्वारा दिये गये विचार हमारे लिये आत्मचिन्तन के प्रेरक हैं। उनकी प्रत्येक बात पर सहमति हो- ये अनिवार्य नहीं है, परन्तु उनके विचार आर्यसमाज की वर्तमान व भावी पीढ़ी को झकझोरने वाले हैं। -सम्पादक
१. आप सम्भवतया मेरे विचारों से सहमत न होंगे, यदि मैं कहँू कि ऋषि दयानन्द के सपनों का आर्यसमाज उस दिन मर गया, जिस दिन किन्हीं कारणों से स्वामी श्रद्धानन्द महात्मा गाँधी और काँग्रेस को छोडक़र महामना मालवीय-वादी हिन्दू महासभा के सक्रिय अंग बन गए। श्रद्धानन्द जी का गाँधी और कांग्रेस से अलग होना इतना दोष न था, पर हिन्दू महासभा की विचारधारा का पोषक हो जाना आर्यसमाज की मृत्यु थी। अगर सत्यार्थप्रकाश के ११ वें समुल्लास को फिर से ऋषि आज लिखते तो वे आज के आर्यसमाज को भी हिन्दुओं का एक सम्प्रदाय मानकर इसकी गतिविधियों की उसी प्रकार आलोचना करते जिस प्रकार अन्य हिन्दू सम्प्रदायों की उन्होंने की है। इसमें से आज प्राय: सभी इस बात को स्वीकार करेंगे कि आर्य समाज आज हिन्दुओं के अनेक सम्प्रदायों में से एक सम्प्रदाय है, अर्थात् वह सम्प्रदाय जो वेद और यज्ञों के नारे पर जीवित हो।
२. शायद हिन्दुओं के अन्य सम्प्रदायों की अपेक्षा आज का आर्यसमाज इन हिन्दुओं का वह सम्प्रदाय है, जो सबसे ज्यादा वेद की दुहाई देता है। यों तो तुलसीदासजी विष्णु के अवतार राम का चरित्र लिखने में पदे-पदे आगम-निगम की दुहाई देने में संकोच नहीं करते थे, पर आज का आर्यसमाज वैदिक संहिताओं की अन्य हिन्दू सम्प्रदायों की अपेक्षा सबसे अधिक दुहाई देता है।
३. स्वामी दयानन्द से पूर्व के भारतीय पण्डितों ने वेद की आज तक रक्षा की, और लेखन-मुद्रण-प्रकाशन की सुविधा न होते हुए भी उन्होंने वैदिक संहिताओं के पाठों को सुरक्षित रखा। वैदिक साहित्य की यह सुरक्षा भारतीयों का बहुत बड़ा चमत्कार माना जाता है।
४. मैं कई वर्ष हुए (संन्यास से पूर्व) लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम की सैर कर रहा था, म्यूजियम के पुस्तकालय कक्ष में मैंने बाइबिल पर एक अद्भुत व्याख्यान सुना- वक्ता महोदय हम श्रोताओं को म्यूजियम के विविध कक्षों में ले गये। उन्होंने हमें बाइबिल की वे सुरक्षित प्रतियाँ साक्षात् करायीं जो तीसरी-चौथी-पाँचवीं सदी से लेकर १८वीं-१९वीं सदी की हस्तलिखित या मुद्रित थीं।
तब से मेरी इच्छा रही है कि ऋग्वेद की भी वे हस्तलिखित प्रतियाँ देखूँ जो पुरानी हैं। आपको आश्चर्य होगा-भूमण्डल के साहित्यों में सबसे पुराना ऋग्वेद है, पर इसकी हस्तलिखित प्रति शायद १३वीं-१४वीं शती से पूर्व की भी नहीं है। वेदों की हस्तलिखित प्रतियों पर मैं कभी फिर लिखूँगा पर निस्सन्देह, यह साहित्य आज तक सुरक्षित है, जो अनुक्रमणियाँ हमें प्राप्त हैं, वे बहुत पुरानी नहीं है। जैसे यजुर्वेद का सर्वानुक्रम सूत्र, शौनक का अनुवाकानुक्रमणी (ऋग्वेद की) या ऋक्-सर्वानुक्रमणी। शतपथ ब्राह्मण (१०/४/२/२३) में यहाँ तक उल्लेख है कि वेदों के समस्त अक्षरों की संख्या १२००० बृहती छन्दों की अक्षर संख्या के बराबर है अर्थात् १२,०००&३६=४,३२,००० अक्षर। (सातवलेकरजी ने ऋग्वेद के अक्षरों की संख्या एक संस्करण में दी है। वह संख्या ३,९४,२२१ है।)
५. जैसा मैं कह चुका हँू, आज का आर्यसमाज हिन्दुओं का ही वेदानुरागी सम्प्रदाय है। हिन्दुओं के अन्य सम्प्रदाय धीरे-धीरे अब वेद को छोड़ते जा रहे हैं या वेद से दूर जा रहे हैं। मेरे ऊपर शताधिकवर्षीय उदासी स्वामी गंगेश्वरानन्दजी का स्नेह रहा है। उन्होंने चारों वेद संहिताओं को एक जिल्द में सुन्दर अक्षरों में छपाया है। यह पाठ की दृष्टि से निर्दोष माना जा सकता है। स्वामीजी भारत से बाहर भी द्वीपद्वीपान्तरों में इस ‘वेद भगवान्’ को ले गये हैं और वहाँ इसकी निष्ठापूर्वक प्रतिष्ठा की है। स्वामी जी को हिन्दुओं से एक ही शिकायत है। कोई हिन्दू अब वेद में रुचि नहीं लेता-जो व्यक्ति लेते प्रतीत होते हैं, वे प्रत्यक्ष या परोक्ष में आर्यसमाज के हैं। सायण के दृष्टिकोण से पृथक् यदि किसी का कोई अन्य दृष्टिकोण है, तो वह आर्यसमाज की विचारधारा से पोषित या प्रभावित है।
६. वेद जीवन का प्रेरणास्रोत है। ऋषि दयानन्द से पूर्व मध्यकालीन युग में (ऐतरेय, शतपथ आदि के काल में कात्यायन, याज्ञवल्क्य, महीधर, उव्वट आदि के काल में) वैदिक संहितायें केवल कर्मकाण्ड की प्रेरिका रह गयीं। उसका परिणाम वही हुआ, जो समस्त सम्प्रदायों में कर्मकाण्ड का हुआ करता है-विनाश और सर्वथा विनाश। कर्मकाण्डी व्यक्ति (नेता या पुरोहित) तो यही समझता रहता है कि धर्म की ‘प्रतिष्ठा’ उसके कर्मकाण्ड के कारण है, पर वस्तुत: कर्मकाण्ड के परोक्ष में जो विनाश का अंकुऱ है, वह पनपता आता है। श्रीपाद दामोदर सातवलेकर हिन्दू सम्प्रदाय के अन्तिम वेदानुरागी व्यक्ति थे (आदरणीय स्वामी गंगेश्वरानन्दजी का राग केवल मंत्रभाग से है, न कि व्यक्तिगत या समाजगत नवनिर्माण से।)
७. १८ वीं शती के प्रारम्भ से यूरोपीय विद्वानों ने वेद में रुचि ली और वैदिक साहित्य पर उनकी तपस्या सराहनीय है। (क) उन्होंने भारतवर्ष से इस साहित्य की हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध कीं और इन प्रतियों को अपने पुस्तकालयों में कुशलता से सुरक्षित रखा। (ख) यूरोपीय (बाद को अमरीकी) विद्वानों ने वैदिक व्याकरण, प्रातिशाख्य, वैदिक छन्द, वैदिक स्वरों का अच्छा अध्ययन किया, (ग) छोटे-छोटे संकलनों पर भी ये वर्षों अध्ययनशील रहे, (घ) अध्ययन की एक नयी परम्परा को उन्होंने जन्म दिया, (ञ) अपने देश में इन सम्पादित ग्रन्थों को नागरी और रोमन लिपियों में अति शुद्ध छपवाने का भी प्रयत्न किया। उन्होंने (रॉथ-बण्टलिंक के ग्रन्थों के समान) बड़े-बड़े कोश तैयार किए, (च) अध्ययन की सुविधा के लिए अनेक प्रकार के तुलनात्मक विश्वकोश भी तैयार हुए।
८. धीरे-धीरे भारतवर्ष में भी पाश्चात्य परम्परा पर अध्ययन और अनुशीलन करने के कुछ केन्द्र खुल गए (शब्दानुक्रमणीय पर कार्य स्वामी नित्यानन्द और स्वामी विश्वेश्वरानन्द जी ने प्रारम्भ किया)। इन केन्द्रों में सर विलियम जोन्स की एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता, उसकी बम्बई वाली शाखा, गायकवाड़ संस्थान बड़ौदा, भाण्डारकर इन्स्टीट्यूट-पूना और विश्वबन्धु जी वाला विख्यात इन्स्टीट्यूट होशियारपुर और संस्कृत कॉलेज काशी ने भी अच्छा काम किया।
९. यह मैं पीछे कह चुका हँू कि पुरानी परम्परा के हिन्दू विद्वान् वेद को छोड़ बैठे हैं और उनके हाथ से आर्यसमाज के विद्वानों ने वेद को एक प्रकार से छीन लिया है। अत: ऐसी स्थिति में आर्यसमाज की जनता का उत्तरदायित्व वेद के सम्बन्ध में बढ़ गया है। मैंने एक बार सान्ताक्रूज की आर्यसमाज में भी यह बात कही थी। यह उत्तरदायित्व निम्र दृष्टियों से महत्त्व का है-
१. मन्त्रों का उच्चारण
२. मन्त्रों का विनियोग
३. कर्मकाण्ड में मन्त्रों का प्रयोग
४. मन्त्रों के छोटे बड़े संकलन
५. मन्त्रों के भाष्य
पिछले वर्ष मैं नैरोबी गया था-मैंने वहाँ के आर्यसमाज में स्पष्ट कहा था-दिल्ली की हवा से नैरोबी आर्यसमाज को बचाओ। बम्बई की हवा से भी विदेशी आर्यसमाजों को हमें बचाना होगा।
इन देशों में किसी से भी पूछो-तुमने यह अशुद्ध उच्चारण कहाँ सीखा-वे यह उत्तर देते हैं-हम दिल्ली या बम्बई गये थे-हमने वहाँ ऐसा ही देखा या सुना था। ओं भूर्भव:, ओजो अस्तु-यह तो दिल्ली और बम्बई की हवा के साधारण उदाहरण हैं।
कई स्थानों पर जब मैं स्वस्तिवाचन और शान्ति प्रकरण के टेप सुनता हँू, उनको सुनकर यह स्पष्ट लगता है कि ये टेप मेरे ऐसे अज्ञ उपदेशकों या पंडितों के हैं, जिन्हें न ऋक् पाठ आता है न यजु: पाठ-साम के मन्त्रों का पाठ सामवेद का परिहास या उपहास है, जिसे आप किसी भी अवसर पर स्वस्तिवाचन (अग्र आ याहि वीतये) या शान्तिकरण (स न: पवस्व शं गवे) पाठ के अवसर पर सुन सकते हैं।
ऋषि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में स्पष्ट लिखा है कि ऋग्वेद के स्वरों का उच्चारण द्रुत अर्थात् शीघ्र वृत्ति में होता है। दूसरी-मध्यम वृत्ति, जैसे कि यजुर्वेद के स्वरों का उच्चारण ऋग्वेद के मन्त्रों से दूने काल में होता है। तीसरी विलम्बित वृत्ति है, जिसमें प्रथम वृत्ति से तिगुना काल लगता है, जैसा कि सामवेद के स्वरों के उच्चारण वा गान में, फिर इन्हीं तीनों वृत्तियों के मिलाने से अथर्ववेद का भी उच्चारण होता है, परन्तु इसका द्रुत वृत्ति में उच्चारण अधिक होता है।
मैंने दक्षिण भारत के पंडितों को ऋग्वेद का यथार्थ उच्चारण करते देखा है, किन्तु आर्यसमाज के लोगों के उच्चारणों पर आप विश्वास नहीं कर सकते। उच्चारण या तो गुरुमुख से सीखे जा सकते हैं, या परिवार की परम्परा से।
आर्यसमाज में नित्य नये विनियोग बनते जा रहे हैं। सबसे पुराना विनियोग शान्तिपाठ का है (द्यौ: शान्ति:), ‘त्र्यंबकं यजामहे’ की भी बीमारी चल पड़ी है। मरने के बाद संस्कारविधि के प्रतिकूल शान्ति-यज्ञ चल गए हैं, जिनमें शान्तिकरण के मन्त्र पढऩा अनिवार्य सा हो गया है। प्रत्येक अग्रिहोत्र का नाम यज्ञ पड़ गया है, जिसके बाद ‘यज्ञरूप प्रभो’ वाला भजन अवश्य गाना चाहिए। ऐसी नयी प्रथा चल पड़ी है। ऋग्वेद के अन्तिम सूक्त (दशम मंडल, १९१ वाँ सूक्त) का नाम संगठन-सूक्त रख दिया गया है। ऋग्वेद के इस सूक्त के प्रथम मन्त्र का देवता अग्रि है। शेष तीन मन्त्रों का देवता ‘संज्ञानम्’ है। समाज के साप्ताहिक अधिवेशनों में संगठन सूक्त के नाम पर चारों मन्त्र पढ़े जाने लगे हैं। क्या हम संगठन सूक्त का नाम ‘संज्ञान-सूक्त’ नहीं रख सकते?
इस प्रसंग में संज्ञान-सूक्त में केवल तीन ही मन्त्र हैं-(१) संगच्छध्वं (२) समानो मन्त्र:. और (३) समानी व आकूति:. प्रथम मन्त्र संसमिद्युवसे. मन्त्र तो इस प्रसंग में पढऩा ही नहीं चाहिये।
आगे के वेदप्रेमी हमारा अनुकरण करेंगे, अत: हमें सावधानी बरतनी चाहिए।
जिज्ञासा समाधान: – आचार्य सोमदेव
परमात्मा का गौणिक नाम ब्रह्मा क्यों है? क्योंकि ब्रह्म शब्द बहुवाचक है, जबकि ईश्वर एक है और ऋषि का नाम भी ब्रह्मा आया है, वह भी एक ही मनुष्य था। अग्रि, वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषियों को ब्रह्मा नाम देने में क्या दोष है, क्योंकि वे सबसे महान् भी थे और यथार्थ में एक से अधिक भी थे।?
आपकी यह दूसरी जिज्ञासा भाषा को न जानने के कारण है। यदि संस्कृत भाषा को ठीक जान रहे होते तो ऐसी जिज्ञासा न करते। ‘ब्रह्मा’ शब्द एक वचन में ही है, बहुवचन में नहीं। ब्रह्म शब्द नपुंसक व पुलिंग दोनों में होता है। नपुंसक लिंग में ब्रह्म और पुलिंग में ब्रह्मा शब्द है। यह ब्रह्मा प्रथमा विभक्ति एक वचन का है। मूल शब्द ब्रह्मन् है, राजन् के तुल्य। ब्रह्मन् शब्द का बहुवचन ब्रह्मण: बनेगा, इसलिए ब्रह्मा शब्द को जो आप बहुवचन में देख रहे हैं सो ठीक नहीं। परमात्मा एक है, इसलिए उसका गौणिक नाम ब्रह्मा एक वचन में ही है। जब यह शब्द एक वचन में ही है तो इससे अग्रि, आदित्य आदि बहुतों का ग्रहण भी नहीं होगा। यदि ग्रहण करेंगे तो दोष ही लगेगा। और यदि ‘‘ब्रह्म शब्द बहुवाचक है’’ इससे आपका यह अभिप्राय है कि ब्रह्म शब्द ‘बहुत’ अर्थ को कहने वाला है और चूँकि परमात्मा एक है, अत: उसके लिए ब्रह्म शब्द का प्रयोग उचित नहीं है, तो यह कहना भी आपका ठीक नहीं है, क्योंकि ब्रह्म शब्द ‘बहुत’ अर्थ का वाचक नहीं है। ब्रह्म का अर्थ तो ‘बड़ा’ होता है। परमात्मा सबसे बड़ा है, अत: उसे ब्रह्म कहा जाता है। ‘सर्वेभ्यो बृहत्वात् ब्रह्म, अर्थात् सबसे बड़ा होने से ईश्वर का नाम ब्रह्म है।’
– स.प्र. १
ऐसे ही ब्रह्मा नाम के ऋषि सकल विद्याओं के वेत्ता होने के कारण ज्ञान की दृष्टि से सबसे बड़े थे, अत: उन्हें ब्रह्मा कहा गया। और ब्रह्मा परमात्मा का नाम इसलिए है-
योऽखिलं जगन्निर्माणेन बर्हति (बृंहति) वद्र्धयति स ब्रह्मा
जो सम्पूर्ण जगत् को रच के बढ़ाता है, उस परमेश्वर का नाम ब्रह्मा है। – स.प्र. १
जिज्ञासा समाधान :- आचार्य सोमदेव
जिज्ञासा १- ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में लिखा है कि सृष्टि के प्रारम्भ में हजारों-लाखों मनुष्य परमात्मा ने अमैथुन से पैदा किये थे। यही सत्यार्थ प्रकाश में भी माना है। उन लाखों मनुष्यों में चार ऋषि भी पैदा हुये जो अग्रि, वायु, आदित्य और अंगिरा थे। उनको परमात्मा ने एक-एक वेद का ज्ञान दिया था। उस काल में स्त्रियाँ भी पैदा हुई होंगी, परन्तु परमात्मा ने एक या दो स्त्रियों को भी वेद का ज्ञान क्यों नहीं दिया? क्या परमात्मा के घर से भी स्त्रियों के साथ पक्षपात हुआ? इसका समाधान करें।
समाधान-(क) वेद परमात्मा का पवित्र ज्ञान है। यह वेदरूपी पवित्र ज्ञान मनुष्य मात्र के लिए है। वेद मनुष्य मात्र का धर्मग्रन्थ है। सृष्टि के आदि में परमेश्वर ने सभी मनुष्यों के लिए यह ज्ञान दिया। वेद का ज्ञान परमात्मा ने ऋषियों के हृदयों में दिया। चार वेद चार ऋषियों के हृदय में प्रेरणा कर के दिये। ऋग्वेद अग्रि ऋषि को, यजुर्वेद वायु नामक ऋषि को, सामवेद आदित्य ऋषि को और अथर्ववेद अंगिरा ऋषि को प्रदान किया। आपकी जिज्ञासा है कि वेद का ज्ञान ऋषियों (पुरुषों) को ही क्यों दिया, एक-दो स्त्री को क्यों नहीं दिया? इसका उत्तर महर्षि दयानन्द ने जो लिखा वह यहँा लिखते हैं-‘‘प्र.- ईश्वर न्यायकारी है वा पक्षपाती? उत्तर- न्यायकारी। प्र.- जब परमेश्वर न्यायकारी है, तो सब के हृदयों में वेदों का प्रकाश क्यों नहीं किया? क्योंकि चारों के हृदय में प्रकाश करने से ईश्वर में पक्षपात आता है।
उत्तर- इससे ईश्वर में पक्षपात का लेश (भी) कदापि नहीं आता, किन्तु उस न्यायकारी परमात्मा का साक्षात् न्याय ही प्रकाशित होता है, क्योंकि ‘न्याय’ उसको कहते हैं कि जो जैसा कर्म करे, उसको वैसा ही फल दिया जाये। अब जानना चाहिए कि उन्हीं चार पुरुषों का ऐसा पूर्व पुण्य था कि उनके हृदय में वेदों का प्रकाश किया गया।’’ -ऋ.भा.भू.
‘‘प्रश्न-उन चारों ही में वेदों का प्रकाश किया, अन्य में नहीं, इससे ईश्वर पक्षपाती होता है।
उत्तर-वे ही चार सब जीवों से अधिक पवित्रात्मा थे। अन्य उनके सदृश नहीं थे, इसलिए पवित्र विद्या का प्रकाश उन्हीं में किया।’’ – स.प्र. ७
महर्षि के वचनों से स्पष्ट हो रहा है कि परमात्मा पक्षपाती नहीं, अपितु इन चारों को वेद का ज्ञान देने से परमेश्वर का न्याय ही द्योतित हो रहा है। यदि इन चार ऋषियों जैसी पुण्य-पवित्रता किसी स्त्री में होती तो परमात्मा स्त्री को भी वेद का ज्ञान दे देता। परमात्मा तो योग्यता के अनुसार ही फल देता है। पक्षपात कभी नहीं करता। जिस आत्मा के पुरुष शरीर प्राप्त करने के कर्म हैं, उसको पुरुष और जिसके स्त्री बनने के कर्म हैं उसको स्त्री का शरीर देता है।
वेदों का ज्ञान ऋषियों को दिया, स्त्रियों को नहीं-इससे यह बात भी ज्ञात हो रही है कि स्त्री का शरीर पुरुष शरीर की अपेक्षा कुछ कम पुण्यों का फल है। अर्थात् अधिक पुण्यों का फल पुरुष शरीर और उससे कुछ हीन पुण्यों का फल स्त्री शरीर। परमेश्वर की दृष्टि में सब आत्मा एक जैसी हैं, आत्मा-आत्मा मेें परमेश्वर कोई भेद नहीं करता, किन्तु कर्मों के आधार पर तो भेद दृष्टि रखता है।
स्त्री-पुरुष दोनों बराबर हैं, बराबर का अधिकार होना चाहिए। यह इस रूप में उचित है कि दोनों अपनी उन्नति करने में स्वतन्त्र हैं, मुक्ति के अधिकारी दोनों बराबर है, ज्ञान प्राप्त करने में दोनों समान रूप से अधिकारी हैं, दोनों काम करने में स्वतन्त्र हैं। परमेश्वर ने यह सब दोनों को समान रूप से दे रखा है, किन्तु शरीर की दृष्टि से तो भेद है ही। संसार में भी पुरुष के शरीर में अधिक सामथ्र्य देखने को मिलता है, स्त्री शरीर में कम (किसी अपवाद को छोडक़र)। पुरुष को अधिक स्वतन्त्रता है, स्त्री को कम स्वतन्त्रता है। मनुष्य समाज ने अन्यायपूर्वक स्त्रियों पर जो बन्धन लगा रखे हैं, उस परतन्त्रता को यहाँ हम नहीं कह रहे। जो परतन्त्रता प्रकृति प्रदत्त है, वह स्त्रियों में अधिक है पुरुष में कम। यह प्रकृति प्रदत्त स्वतन्त्रता-परतन्त्रता हमारे कर्मों का ही फल है, पुण्यों का फल है। जिसके जितने अधिक पुण्य होते हैं, परमात्मा उसको ज्ञान, बल, सामथ्र्य, साधन सम्पन्नता अधिक देता है और जिसके पुण्य न्यून होते हैं, उसको ये सब भी कम होते चले जायेंगे।
ज्ञान का मिलना भी हमारे पुण्यों का फल है, इसलिए वेदरूपी पवित्र ज्ञान पक्षपात रहित न्यायकारी परमात्मा ने आदि सृष्टि में उत्पन्न हुए सबसे पुण्यात्मा पवित्र चार ऋषियों को ही दिया अन्यों को नहीं।
गीता को समझो तो: राजेन्द्र जिज्ञासु
महाराष्ट्र से किसी सुपठित युवक की एक शंका का उत्तर माँगा गया है। पहली बार ही किसी ने यह प्रश्र उठाया है। गीता में श्री महात्मा कृष्ण जी के मुख से कहा गया एक वचन है कि मैं वेदों में सामवेद हँू। इस श्लोक को ठीक-ठीक न समझकर यह कहा गया है कि इससे तो यह सिद्ध हुआ कि शेष तीन वेदों में आस्तिक्य विचार अथवा ईश्वर का कोई महत्त्व नहीं। अन्य तीन वेदों को गौण माना गया है। वेदों का ऐसा अवमूल्यन करना दुर्भाग्यपूर्ण है। हिन्दू समाज का यह दोष है कि यह वेद पर श्रम करने से भागता है।
इसी श्लोक में तो यह भी कहा गया है कि मैं इन्द्रियों में मन हँू तो क्या आँख, कान, वाणी, हाथ, पैर आदि ज्ञान व कर्मेन्द्रियाँ सब निरर्थक हंै? श्री कृष्ण योगी थे। योगी उपासना को विशेष रूप से महत्त्व देता है। सामवेद का मुख्य विषय उपासना होने से इस श्लोक में ‘‘वेदों में सामवेद हँू’’ यह कहा गया है।
महाभारत युद्ध के पश्चात् यज्ञ रचाया गया तो यज्ञ का अधिष्ठाता कौन हो? इस पर वहाँ यह कहा गया है कि इस समय श्री कृष्ण के सदृश वेद-शास्त्र का मर्मज्ञ विद्वान् कोई धरती तल पर नहीं, सो उन्हीं के मार्गदर्शन में यज्ञ होना चाहिये। वे चारों वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् तथा जानने मानने वाले थे, अत: भ्रामक विचारों से बचना चाहिये।
दीनानगर की जगदंबा: राजेन्द्र जिज्ञासु
सृष्टिकर्ता एक है। वह कण-कण में है। वह हर मन में है। वह जन-जन में है। वह प्रभु जगत् के भीतर-बाहर व्यापक है। वह अखण्ड एकरस है-यह वेद, उपनिषद् सब शास्त्र बताते हैं। सब मत-पंथ कहने को यही कहते हैं कि परमात्मा एक है और कण-कण में है। ब्रह्माकुमारी जैसे कई मत इसका अपवाद हो सकते हैं। ब्रह्माकुमारी मत परमात्मा को सर्वत्र नहीं मानता।
आश्चर्य है कि फिर भी संसार में विशेष रूप से भारत में भगवानों की संख्या बढ़ रही है। मुर्दों की और मर्दों की पूजा भी बढ़ रही है। परमात्मा भोग देता है। कर्मफल का देने वाला वही तो है, फिर भी अज्ञानी मूर्ख यह मानकर अंधविश्वास फैला रहे हैं कि नदियों में स्नान से, तीर्थ यात्रा से, पाप के फल से हम बच जाते हैं। परमात्मा ने कर्मफल का अपना अधिकार नदी, नालों, समाधियों और तीर्थों को दे दिया है। विचित्र कहानियाँ सुनी-सुनाई जाती हैं। दीनानगर (पंजाब) में एक मन्दिर से हिन्दुओं की जगदम्बा की मूर्ति काजी गुलाम मुहम्मद ने उठा ली। माता ने न तो शोर मचाया और न थाने में जाँच में सहयोग किया। काज़ी उसी मूर्ति से अपनी रसोई में मसाला पीसता रहा। जाँच करते-करते पुलिस ने उसे धर दबोचा। चालान हुआ। काज़ी पर केस चला। मनोविकार (पागल-सा) होने की आड़ में गुलाम मुहम्मद दण्ड से बच गया। यह घटना सन् १८९० के एक पत्र में छपी मिलती है, फिर भी अन्धविश्वासी हिन्दू की आँखें नहीं खुलीं। भगवानों की चोरी कौन रोके?
वो बात ही क्या?- – सोमेश पाठक
‘धीरत्व’ कर्म का आभूषण जिस क्षण बनने को आतुर हो,
वह कर्म सफलता की चोटी को तत्क्षण ही पा जाता है।
‘वीरत्व’ धर्म की वेदी पर जिस क्षण बढऩे को आतुर हो,
फिर धर्म-कर्म बन जाता है और कर्म-धर्म बन जाता है।।
संसार समरभूमि है और है युद्धक्षेत्र रणवीरों का,
है कुछ रण के रणधीरों का और कुछ है धर्म के वीरों का।
यहाँ कुरुक्षेत्र है धर्मक्षेत्र और कर्मक्षेत्र भी धर्मक्षेत्र,
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है कर्मक्षेत्र यहाँ धीरों का और धर्मक्षेत्र यहाँ वीरों का।।
वो बात ही क्या जिस बात में कोई बात न हो और बात हो वो,
हर बात महज एक बात ही है गर बात में कोई बात हो तो।
इन धर्म-कर्म की बातों में एक बात छिपी है ऐसी भी,
कुछ बात हो फिर उस बात की भी
इस बात की गर कुछ बात हो तो
– सोमेश पाठक
आचार्य धर्मवीर जी के प्रति उद्गार: – सोमेश पाठक
वही ऋष्युद्यान है, वही बगीचे, वही पक्षियों की चहचहाहट…
वही गगनचुंबी यज्ञशाला, वही सवेरा, वही वेद मन्त्रों की ध्वनियाँ…
वही रास्ते हैं और रास्तों पर चलने वाले भी।
वही हवाओं के झोंके, वही पेड़ों की सरसराहट और मन्द-मन्द खुशबुएँ……पर न जाने क्यूँ ये नीरस से हो गये हैं।
वही कतार में खड़े भवन कि जैसे मजबूर हैं स्थिर रहने को।
और आनासागर भी शान्त… कि जैसे रूठ गया हो और कह रहा हो कि वो आवाज कहाँ है?
जिसकी तरंग मुझमें उमंग लाती थी।
आह! सब कुछ तो वही है पर कोई है…..जो अब नहीं है।
– सोमेश पाठक
महर्षि दयानन्द का राष्ट्र-चिन्तन: – दिनेश
१९ वीं शताब्दी के पुनर्जागरण आन्दोलन मे महर्षि दयानन्द सरस्वती का राष्ट्र चिन्तन परवर्ती भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के चिन्तन की आधारशिला बना। महर्षि दयानन्द के राष्ट्र-चिन्तन का आधार वेद था, जिन्हें महर्षि ने सभी सत्यविद्याओं की पुस्तक घोषित किया। किसी भी विषय के व्यापक विचार-विमर्श के बाद ही उसके क्रियान्वयन और उसके परिणाम की अभिव्यक्ति होती है और यही चिन्तन अन्त:वैश्वीकरण के रूप में युगानुरूप राष्ट्रीय आन्दोलन की बहुआयामी प्रवृत्तियों को अभिव्यक्त करता रहा है। महर्षि दयानन्द सरस्वती के समक्ष विभिन्न प्रकार की चुनौतियाँ थीं। एक ओर ब्रिटिश साम्राज्य की आधीनता, तो दूसरी ओर भारतीय समाज में आई सामाजिक और धार्मिक विकृतियाँ। महर्षि दयानन्द सरस्वती को दुधारी तलवार से सामना करना था। यह कार्य निश्चय ही एक ओर अधार्मिक, अमानवीय और अंधविश्वासी परम्पराओं केा ध्वस्त करना था तो दूसरी ओर नवनिर्माण की आधारशिला पर विश्वग्राम की आधारशिला की संकल्पना को पूर्ण करना था।
महर्षि दयानन्द सरस्वती की राष्ट्रदृष्टि कालजयी तथा सकारात्मक सोच के साथ प्रतिरोध-प्रतिकार के बाद भी नवसंरचना की बुिनयाद पर टिकी थी, यही कारण था कि १८७५ में आर्य समाज की स्थापना के बाद महर्षि दयानन्द ने स्वराज्य, स्वदेश और स्वभाषा का शंखनाद किया था। यद्यपि काँग्रेस की स्थापना उपर्युक्त तीनों मान्यताओं के लिए नहीं हुई थी, तथापि १९०५ में गोपाल कृष्ण गोखले ने काँग्रेस के प्रस्ताव में स्वदेशी को स्वीकार किया और १९०६ में स्वराज्य दादा भाई नौरोजी की अध्यक्षता में स्वीकार किया गया। ‘स्वभाषा’ (आर्य भाषा या हिन्दी) को महात्मा गाँधी ने कालांतर में काँग्रेस के प्रस्ताव में स्वीकार किया। महर्षि दयानन्द सरस्वती का यह कथन स्वदेश के प्रति उनकी तीव्र उत्कंठा को स्पष्ट करता है कि ‘छ: पैसे का चाकू वही काम करता है तो सवा रुपये का विदेशी चाकू क्यों खरीदा जाये’ यह कथन परवर्ती भारतीय राष्ट्रीय एवं स्वदेशी आन्दोलन का प्रबल उद्घोष बना।
महर्षि दयानन्द सरस्वती का राष्ट्र-चिन्तन आज भी उतना ही प्रासंगिक है, क्योंकि यह धर्म या सम्प्रदाय का नहीं है अपितु यह वेदों से नि:सृत मानव कल्याण का राष्ट्रशास्त्र है। जिसमें मतवाद का दुराग्रह नहीं है। जातिवाद का विध्वंसकारी मतवाद नहीं है, अपितु यह लोकतंत्र की स्वत: उद्भुत विचार-पद्धति है, जिसके विमर्श की आज महती आवश्यकता है।
आर्यसमाज के सभासदों, संन्यासियों, गुरुकुल के आचार्यों, छात्रों सभी ने राष्ट्रयज्ञ में सक्रिय भाग लिया। उन्होंने जहाँ एक ओर क्रान्तिकारी आन्दोलनों में भाग लिया, वहीं दूसरी ओर गाँधी के नेतृत्व में उनके सभी आन्दोलनों में भाग लिया।
आर्यसमाज स्वतन्त्रता से पूर्व जिन उद्देश्यों के लिए समर्पित था, स्वतन्त्रता के बाद भी उनकी महत्त्वपूर्ण आवश्यकता थी। आर्यसमाज एक सशक्त राजनैतिक संगठन के रूप में अन्य राजनैतिक दलों की तरह भले ही प्रस्तुत ना हुआ हो, लेकिन देश के विभिन्न क्षेत्रों में आर्यजन अपनी उल्लेखनीय कार्यक्षमता का परिचय दे रहे हैं।
परन्तु वर्तमान में चुनावों के समय महर्षि दयानन्द सरस्वती का राष्ट्र-चिन्तन, जिसका उल्लेख ‘सत्यार्थप्रकाश’ जैसी कालजयी रचना में किया गया है, के अनुरूप ही आर्यजनों को मताधिकार का प्रयोग करना चाहिये। धर्म, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर मत ना देने का प्रावधान जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा १०३ (३) में दिया गया है। यदि इनके आधार पर मत देने का आग्रह किया जाता है तो उसे भ्रष्ट आचरण में रखा जाता है। अभी हाल ही में पांच राज्यों पंजाब, गोवा, उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड और मणिपुर के चुनावों के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने चुनाव को पंथनिर्पेक्ष प्रक्रिया मानते हुए धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्रवाद इत्यादि के आधार पर मत देने को भ्रष्ट आचरण घोषित किया और उसे छ: वर्ष तक चुनाव लडऩे के अयोग्य करार देने का फैसला दिया गया।
महर्षि दयानन्द सरस्वती का राष्ट्र-चिन्तन हमारे मत देने के मौलिक अधिकारों को पुष्ट करता है, जिसमें वेद, भारतीय संस्कृति, भाषा, जातिविहीन समाज-व्यवस्था, छुआछूत का विरोध, भ्रष्टाचार, वंशवाद के विरुद्ध जिस राजनैतिक दल की निष्ठायें हैं, उसी दल को आर्यजन स्वविवेक से अपना मतदान करते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती राजधर्म को एकांगी नहीं मानते थे अपितु उन्होंने संस्कृति के संरक्षणीय मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में राजनीति को विवेचित किया है। पृथ्वी और स्वयं को उसका पुत्र भाव रूपी राष्ट्रधर्म की व्याख्या अथर्ववेद के शब्दों में निम्र प्रकार की गई:-
माता भूमि:पुत्रोऽहं पृथिव्या:।
पर्जन्य: पिता स उ न: पिपर्तृ।
– (१२/१/१२)
सांस्कृतिक उत्थान अक्षत राष्ट्रवाद के मूल में ही संरक्षित एवं पल्लवित होता है। यही आज आर्यजनों को अभीष्ट है।
– दिनेश