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सच्चे-राम को ईश्वर बताने की झूठी-बैसाखी क्यों?:- – पं. आर्य प्रहलाद गिरि

सीधे-सच्चे हिंदुओं को ईसाई बनाने के लिये कमर कसकर भारत में आये फादर कामिल बुल्के भी अप्रक्षिप्त वाल्मीकि रामायण में मर्यादा पुरुषोत्तम राजा रामचंद्र, सती सीता, महावीर हनुमान, भाई भरतादि के त्यागपूर्ण जीवन-चरित्रों को पढ़ते हैं, तो वेदकालीन प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति का ऐसा उत्कृष्ट सुंदरतम -स्वर्णिम सुखद दृश्य देखतेे ही चिल्ला उठते हैं।

जिस तरह सैकड़ों शेक्सपियर भी रामचरितमानस-सा विश्व का सुंदरतम महाकाव्य नहीं रच सकते, उसी तरह राम-सा दिव्य महामानव (देवात्मा, देवदूत, बोधिसत्व-तथागत, तीर्थंकर, पैगंबर, प्रभुपुत्र, फरिश्ता) भी कोई हमें इतिहास के किसी पन्ने पर नहीं दिखला सकता। ऐसा इसलिये भी कि-

राम, तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है।

कोई कवि बन जाये, सहज संभाव्य है।।

-राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

समुद्र को भी बांध देने वाले युगपुरुष हमारे राम मानव-धर्म के उच्चादर्शों पर इसलिये भी चलते रहे कि इनके ही पूर्वज राजर्षि मनु दुनिया वालों के सामने सगर्व घोषणा कर चुके थे-

एतत् देश प्रसूतस्य सकाशात् अग्र जन्मन:।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्व मानवा:।।

– (२.२०)

-धरती माता के सारे द्वीप-द्वीपान्तरों पर बसने वाले हर तरह के लोग इसी आर्यावर्त देश के अगुओं (नेताओं, प्रतिनिधियों) से अपने-अपने अनुकूल उन्नत चारित्रिक सभ्यता-संस्कृति को सीखते रहें।

किन्तु आज दुनिया को छोड़ें, हिन्दू कहलाने वाले हम आर्यवंशी लोग भी अपने पूर्वज राम को ईश्वर (अन अनुकरणीय, सिर्फ चर्चा करने योग्य) कहकर इनके विचारों-व्यवहारों से कुछ भी नहीं सीखते। राम का नाम ले-लेकर बेधडक़ रावण-पथ पर बढ़ते जा रहे हैं। गले में ही नहीं, मंदिरों में भी राम के चित्र सजाकर रावण की ही चरित्रोपासना में जुटे हुए हैं। अत: राम-विमुखों की जो दशा होनी चाहिये, वही दुर्दशा महाभारत युद्ध के बाद से आज तक हमारी होती जा रही है।

हल्दीघाटी में घास की रोटी खाकर भी जब मुगलों के प्रहारों को तपस्वी महाराणा प्रताप अपने तलवार से माँ भारत-भारती की रक्षा कर रहे थे, उसी समय उसी काम को सारी मुसीबतों को सहते हुए बड़ी बहादुरी, बुद्धिमानी और कुशलता से संत कवि गोस्वामी तुलसीदास भी अपनी सफल लेखनी से, काशी से भागकर अयोध्या में कर रहे थे। काल्पनिक ही सही, यदि श्रीमद्भागवत गीता को मौर्य गुप्तकाल में न लिखा जाता, तो सारे हिन्दू बौद्ध बन गये होते, और बामियान की विशााल बुद्ध-मूर्ति की तरह सारे बौद्धों को मिटा देना अरबी आक्रांताओं के लिये अत्यन्त सरल था। इसी तरह स्वराष्ट्र-धर्मरक्षक महात्मा तुलसीदास भी सरल और रोचक भाषा-शैली में शैव-वैष्णव का कलह मिटाते हुए रामचरितमानस को लिखकर अयोध्या के ही राजा राम को पूर्ण ब्रह्म परमात्मा बताने और सिर्फ हरिभजन को ही असली यज्ञ-पूजा बताने में यदि सफल न हो पाते, तो उस समय हमें मुहम्मदी, नमाजी और कुरानी बन जाना ही पड़ता।

जिस तरह हम राष्ट्र-धर्म-रक्षक चाणक्य, शंकराचार्य, गुरु गोविंद सिंह, शिवाजी, दयानन्द, सुभाष, सावरकर, पटेलादि के उपकारों को नही भूलते, त्यों ही गीताकार और मानसकार को भी भारतीय वैदिक संस्कृति रक्षा हेतु ‘भारत-रत्न’ पुरस्कार जैसा कुछ न कुछ अविस्मरणीय-सम्मान तो मिलना ही चाहिये। भले ही इनके बनाये ये साहित्यिक-हथियार आज कुछ मोर्चों पर अनुपयुक्त, अप्रासंगिक हो गये हों, तथापि सेवानिवृत्तों (रिटायर्ड्स) की भाँति ये सादर पेंशन पाने के अधिकारी तो हैं ही।

अभी के लिये ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ अत्यन्त अमोघ-औषधि व बुद्धिवर्धक टॉनिक है। जो वाल्मीकि रामायण और महाभारत की तरह ही श्री राम और श्रीकृष्ण को एक आदर्श महात्मा ही साबित करता है, परमात्मा नहीं।

पचास साल पहले तक अक्सर लोग कृतज्ञ-भावुकतावश डॉक्टरों को दूसरा भगवान् कह बैठते थे। आज भी हम त्यागियों-परोपकारियों-सहायकों को देवदूत-फरिश्ता-भगवान् कह देते हैं। इसी तरह हम अग्रि, आदित्य, वायु, अंगिरा, इंद्र, ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती, मनु, भगीरथ, परशुराम, राम, कृष्ण, व्यास, गौतम, कणाद, कपिल, पतंजलि आदि वैज्ञानिकों-ऋषियों को (देव-देवी) तो कह सकते हैं, किन्तु परमात्मा कदापि नहीं, क्योंकि वेदानुसार परमात्मा न तो जन्मता-मरता है और न किसी आकार में कभी बंधता है। तथा उसी निराकार एक अखंड अनंत ब्रह्म-ओ३म् से प्रकाश पा-पाकर अनेकों ब्रह्मा, विष्णु, लक्ष्मी, शंकरादि जन्मते-मिटते रहते हैं (मानस-१.१४१.३) यही ज्ञान-प्रकाश पूर्ण सच्चिदानन्द ईश्वर, ध्यान-योग, प्रार्थना, प्राणायाम, हवन, परोपकार, सच्चाई, ज्ञान, ईमानदारी, सदाचार आदि द्वारा ही सभी मनुष्यों का परमोपास्य है। राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, ईसा, मूसा, मुहम्मद, नानक, कबीर, दयानन्दादि भी इसी ईश्वर के उपासक रहे हैं। इन महान् ऐतिहासिक ईश्वर-भक्तों को ही ईश्वर मान लेना और इनकी मूर्ति को सजीव समझकर लड्डू-पेड़ादि खिलाने-पिलाने, सुलाने-जगाने का अभिनय करना-करवाना भारी मूर्खता या धूर्तता है। यह सिर्फ नास्तिकता ही नहीं, महापुरुषों का अपमान भी है।

राम और कृष्ण का मन्दिर बनाकर उनको खिलाने-पहनाने हेतु भीख-चंदा माँगना, इन्हीं की मूर्तियों के सामने यजमानों से झूठ बोलना, तंग करना साबित करता है कि ये निरक्षर पंडे लोग भी इन मूर्तियों को चेतन नहीं समझते। राम के प्राणप्रिय, वीर, वेदज्ञ, ब्रह्मचारी,शाकाहारी हनुमान जी को बंदरमुखी बना देने से भी इन पंडों को संतोष न हुआ तो अब ये बाघ, गीदड़, गधा, सूअर केे मुख लगाकर पंचमुखी हनुमान को पुजवाने के दुस्साहस में लग गये हैं।

हमारे धार्मिक महापुरुषों के पुश्तैनी दलाल बन चुकेे पंडे लोग भली भांति जानते हैं कि जो भगवान् मीर कासिम से लेकर महमूद गजनी, मुहम्मद गौरी, सिंकदर लोदी, तैमूरलंग, औरंगजेब, कालापहाड़ का कुछ भी बिगाड़ न सका, वो मुझे क्या दंड देगा। सचमुच मंदिरों के सारे भगवान् इन पंडे-पुजारियों के सारे तमाशों के मौन समर्थक ही बने रहते हैं।

हमारे प्रबुद्ध पाठको! यदि आप विश्व मानवता के प्रेरणा-पुरुष श्रीराम को कृतज्ञतावश प्रणाम करने भर की रस्म निभाना चाहें, तब तो ये मंदिर स्मारक ठीक हैं।

किन्तु यदि आप सफल सामाजिक जिंदगी जीने हेतु श्रीराम का सही संपूर्ण दर्शन करना चाहते हों, तो आप को ध्यान से वाल्मीकि रामायण ही पढऩी होगी। इस रामायण में कहीं नहीं लिखा है कि राम ईश्वर हैं, बल्कि राम जी भी ‘ओ३म्’ और गायत्री मन्त्र (ओं विश्वानि देव सवितर् दुरितानि परासुव, यद् भद्रं तन्न आसुव) की जपोपासना, ध्यान-योग, प्राणायाम करने वाले सत्यवादी आर्यपुत्र ही थे। उनका देवी कौशल्या के गर्भ से जन्म और एक सौ ग्यारह वर्ष बाद सरयू में डूबने (जल-समाधि) से मृत्यु हुई थी। चूँकि आर्यों में किसी व्यक्ति की कृति-कीर्ति ही याद रखी जाती थी। उसकी चित्र-मूर्ति या मृत्यु-तिथि (पुण्यतिथि) नहीं मनायी जाती थी, इसीलिये राम की भी न कोई चित्रमूर्ति रही, न पुण्यतिथि का उल्लेख, सीता-हरण से काफी दु:खी होकर राम खुद ही लक्ष्मण से कहते हैं-‘भाई, पूर्वजन्म में जरूर मुझसे कोई भारी अपकर्म हुआ होगा, जो इस जन्म में पिता की मृत्यु, भाई भरत का बिछोह और सीताहरण जैसी मार्मिक-पीड़ाएँ झेलनी पड़ रही हैं।’ – (३.३६.४)

वस्तुत: एक चक्रवर्ती राजपुत्र होकर भी सीता-राम का आर्योत्तम जीवन आदि से अंत तक आदर्शों का रिकॉर्ड बनाने के ही दु:खों में बीतता चला गया।

धर्म पे चल के दिखलाने में ही अपना सुख माना।

निज का सुख तजने के सिवा जो और स्वाद क्या जाना।।

बुद्ध और मुगलकालीन धर्म-संकटों से जन-सामान्य को स्वधर्म में बांधे रखने हेतु ही राम की ईश्वरीय-चमत्कारिक कथाएँ गढ़ी गयीं थीं, ताकि बुद्ध और मुहम्मद से राम और कृष्ण ही सर्वाधिक श्रेष्ठ-प्रभावी सबको लगें। किन्तु आज के कम्प्यूटर-युग में उन सब तर्कहीन बातों से अन्य धर्म के पैगम्बरों का क्या-क्या उपहास हो रहा है, ये मुझे नहीं देखना है। मुझे तो अपने राम के उज्ज्वल चरित्र पर झूठ का गंदा चोगा पहनाये रखने वाले अपने धूर्त धर्माचार्यों-पुरोहितों पर क्रोध तथा अपने धर्मांध-अंधभक्त यजमानों की मूर्खता पर ग्लानि हो रही है। गंगा की तरह गंदे हो गये रामायण के चरित्रों की भी सफाई अब कब होगी? श्री राम की चारित्रिक मूर्ति निर्मल होते ही रामजन्म-भूमि पर ही नहीं, बाबर की भी जन्मभूमि पर भव्य रामालय बन जायेगा।

ईश्वर भक्त-राम को ईश्वर मान लेना-राष्ट्रसपूत गाँधी को राष्ट्रपिता कहने जैसा ही पाप है।

अब न कहेगा जग कि कर्ण को ईश्वरीय भी बल था।

जीता इसीलिये कि उसके पास कवच-कुंडल था।।

– (रश्मिरथी-दिनकर)

इंद्र को अपना चमत्कारी-कवच-कुंडल दे देने के बाद जब कर्ण गर्व से ऐसा बोल सकता है, तब हमारे श्रेष्ठतम राम क्यों नहीं कह सकते-

ईश्वर कह-कह के रे पंडों। मुझे मंदिर में न बंद करो।

ले-ले मेरा नाम वंशजों। रावण-सा ना काम करो।।

युगों-युगों तक प्रेरणा देते रहने हेतु ही जीने वाला यदि मैं सचमुच सच्चा राम रहा हँू तो मुझे ईश्वर कहलाने की झूठी बैसाखी लेकर पूजित होने की जरुरत नहीं है। मैं सदा मनुष्य ही रहा, मुझे नहीं चाहिये पापी-पाखंडियों-सा ईश्वर होने का अवैध-मुखौटा।

 

 

सम्भूत्या अमृतम् अश्नुते: – आचार्य उदयवीर शास्त्री

विद्या-अविद्या और सम्भूति-असम्भूति पदों के माध्यम से यजुर्वेद के ४०वें अध्याय एवं तदनुरूप ईशावास्य उपनिषद् में आध्यात्मिकता का विशद विवेचन हुआ है। १२, १३ मन्त्रों में सम्भूति-असम्भूति अथवा सम्भव-असम्भव पदों का प्रयोग हुआ है, परन्तु १४ मन्त्र में ‘असम्भूति’ पद का प्रयोग न कर, उसके स्थान पर ‘विनाश’ पद का प्रयोग हुआ है। ‘सम्भूति’ का अर्थ है, उत्पन्न हुआ पदार्थ। इसके विपरीत ‘असम्भूति’ का अर्थ है- न उत्पन्न हुआ पदार्थ। अर्थात् समस्त भौतिक-अभौतिक जगत् का मूल उपादान कारण तत्त्व, जो कभी उत्पन्न नहीं होता, न उसका सर्वथा विनाश होता है। पर वह महत्-अहंकार आदि रूप से यथाक्रम परिणत होता रहता है। इस प्रकार उसका यह परिणाम-प्रवाह अनादि अनन्त है।

उसी ‘असम्भूति’ शब्द को मन्त्र १४ में ‘विनाश’ पद से कहा। विनाश पद का अर्थ है-

वि-विविधानिवस्तूनि अनेकानेक जगदू्रपाणि,

नश्यन्ति-अदर्शनतां यान्ति यस्मिन् स विनाश: प्रधानमित्यर्थ:।

मूल उपादान तत्त्व के लिये अधिक व्यवहृत दो पद हैं- प्रकृति और प्रधान। सर्ग अर्थात् रचना की भावना को अभिव्यक्त करने की दिशा में विशेष रूप से ‘प्रकृति’ पद का प्रयोग होता है। रचना से भिन्न प्रलय भावना अभिव्यक्त करने में ‘प्रधान’ पद का। प्रस्तुत मन्त्र में इसी भावना से प्रधान पर्याय ‘विनाश’ पद का प्रयोग हुआ है।

प्रकृति से परिणत-महत् से लगाकर समस्त प्राकृतिक जगत् सम्भूति है। इसकी चरम परिणति ‘मानवदेह’ है। मानव-देह का यह विशेष उत्तर है, इसे शेष समग्र सम्भूति समुदाय में से छांट कर अलग कर लिया गया है।

जब हम यह कहते हैं कि वे घोर अन्धकार में पड़ते हैं, जो प्रकृति की उपासना करते हैं तथा वे और भी अधिक घोर अन्धकार में पड़ते हैं, जो ‘सम्भूति’ में रमण करते हैं। यहाँ ‘सम्भूति’ पद अपनी विशेषता को लेकर मुख्य रूप में ‘मानवदेह’ के लिये प्रयुक्त हुआ है। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि असम्भूति के साथ ‘उपासते’ क्रियापद दिया है। यहाँ मानव-देह के अतिरिक्त शेष समग्र सम्भूति भी उपास्य रूप में असम्भूति के अन्तर्गत है। इनकी उपासना से मृत्यु अर्थात् संसार में होने वाले शीत-ताप, भूख-प्यास, आघात-विघात, यातायात आदि दु:खों से पार पाया जा सकता है। यह भी भूलना नहीं चाहिये कि असम्भूति की उपासना भी मानव-देह के माध्यम से ही सम्भव है। इसलिये जो सम्भूति में रमण करते हैं, अर्थात् मानव-देह के साज-शृंगार मात्र में लगे रहते हैं, ‘ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्’ के उसूलों पर ही अमल करते हैं, मानव-देह का सदुपयोग नहीं करते, वे और अधिक घोर अन्धकार में पड़ेंगे ही, क्योंकि न वे मानव-देह से असम्भूति की उपासना करते हैं, न मानव-देह माध्यम से अध्यात्ममार्गीय अनुष्ठानों का आचरण करते हैं। इसलिये अधिभूत एवं अध्यात्म दोनों प्रकार के लाभों से वञ्चित रह जाते हैं। यही स्थिति उनके घोरतर-घोरतम अन्धकार में पड़े रहने की है। फलत: प्रस्तुत प्रसंग में- प्रकृति परिणत पदार्थों के सम्भूति पद से ग्राह्य होने पर भी प्रकृति की चरम-परिणति ‘मानव-देह’ ही सम्भूति-पद वाच्य समझना चाहिये। इसी तथ्य को लक्ष्य कर कहा है- सम्भूत्या अमृतमश्नुते। सम्भूति से अर्थात् मानवदेह रूप माध्यम से अध्यात्म ज्ञान प्राप्त कर योगाङ्गानुष्ठान द्वारा आत्म-साक्षात्कार से अमृत-मोक्ष की प्राप्ति होती है। प्रस्तुत प्रसंग में विद्या-अविद्या आदि यह पारिभाषिक जैसे हैं। व्याख्याकारों ने विद्या का अर्थ ज्ञान-काण्ड और अविद्या का अर्थ यज्ञ-याग आदि कर्मकाण्ड किया है। वस्तुत: विद्या पद अध्यात्म विषयक जानकारी को कहता है। तात्पर्य है- आत्म-तत्त्व का साक्षात्कार, यही अमृत प्राप्ति का एकमात्र साधन है और वह मानवदेह (सम्भूति) रूप साधन द्वारा ही प्राप्त होता है, उससे अतिरिक्त अन्य कोई माध्यम या साधन उसका सम्भव नहीं। इस प्रकार विद्या या सम्भूति इनको मिलाकर ही अर्थ करने से उक्त मन्त्रों का प्रतिपाद्य पूरा होता है।

अविद्या का अर्थ है, विद्या से विपरीत। विद्या यदि अध्यात्म ज्ञान है, जो अधिभूत ज्ञान अविद्या है। प्रकृति और प्रकृति से परिणत पदार्थों का अन्तिम स्तर तक प्राप्त ज्ञान, जिसे आधिभौतिक विज्ञान कहा जाता है और जो आज प्राय: अपने चरम उत्कर्ष पर है, सब अविद्या की कोटि में आता है।

मन्त्रों में बताया ‘अविद्यया मृत्युं तीत्त्र्वा’ ‘विनाशेन मृत्युं तीत्त्र्वा’ अविद्या से मृत्यु को पार करके तथा विनाश से मृत्यु को पार करके। तात्पर्य हुआ- अविद्या अथवा विनाश से मृत्यु को पार किया जा सकता है अर्थात् मृत्यु से पार पाने का साधन अविद्या अथवा विनाश है। गत पंक्तियों में स्पष्ट किया गया है कि प्रस्तुत प्रसंग में विनाश पद का प्रयोग समस्त जगत् में मूल उपादान कारण त्रिगुणात्मक प्रधान के लिये है। प्रकृति और प्रकृति से परिणत पदार्थों की यथावत् जानकारी और उसके अनुसार उनका यथावत् उपयोग करना ही भौतिक विज्ञान है। इसी को यहाँ ‘अविद्या’ पद से कहा है। अविद्या या विनाश से मृत्यु को पार कैसे किया जा सकता है? इसे समझने के लिये यह जान लेना आवश्यक होगा कि प्रस्तुत प्रसंग में ‘मृत्यु’ पद का तात्पर्य क्या है? इसका लोक प्रसिद्ध अर्थ है- आत्मा का देह से वियोग हो जाना। उस अवस्था में आत्मा कोई कार्य कर नहीं पाता। उसे किसी भी प्रकार का कार्य करने के लिये देह धारण करना आवश्यक है। परन्तु मानव जीवन देह धारण किये हुए भी कभी ऐसी स्थितियाँ उसके सामने आ जाती हैं कि उनसे बाधित होनकर मानव का जीवन जीवन नहीं रह जाता, वह मरण प्राय: हो जाता है, कुछ भी करने के लिये अपने आपको असमर्थ पाता है, वे स्थितियाँ कौन-सी हैं? संसार का अनुभव बताता है, वे स्थितियाँ हैं-ताप त्रय। ताप त्रय से त्रस्त मानव जीवन के रस को खो बैठता है। सभी दार्शनिक आचार्यों ने ताप त्रय को विस्तार से स्पष्ट करने और उनसे बचने के उपायों को जानने के लिये मानव को प्रेरित किया है। वे ताप त्रय क्या हैं? संक्षेप में पढिय़े-

‘ताप’ का अर्थ- दु:ख, तपाने वाले या दु:खाने वाले जितने प्रसंग संसार में आते है, आचार्यों ने उन सबका समावेश तीन वर्गों में कर दिया है १. आध्यात्मिक, २. आधिभौतिक, ३. आधिदैविक।

१. आध्यात्मिक ताप- दो प्रकार का है- १. दैहिक, २. मानस

पहला है देह में वात, पित्त, कफ आदि के विकार तथा अन्य विविध कारणों से देह में रोग व्याधियों का उत्पन्न होना। दूसरा है- काम, क्रोध, राग, द्वेष, मोह आदि मानसिक विकारों से जनित दु:ख। इनको दूर करने के उपाय हैं- आयुर्वेदादि पद्धति से चिकित्सा, संयत जीवन, नियमित एवं व्यवस्थित आहार-विहार, व्यवस्थित दिनचर्या, ऋतु अनुसार अपेक्षित व्यायाम आदि। उन सब उपायों की जानकारी अविद्या क्षेत्र के अन्तर्गत आती है। अविद्या का अर्थ अज्ञान नहीं है।

२. आधिभौतिक ताप- वे हैं, जो अन्य प्राणियों द्वारा प्राप्त होते हैं। सांप, बिच्छू, ततैया, मक्खी, मच्छर आदि से होने वाले दु:ख इसी के अन्तर्गत हैं। बैल ने सींग मार दिया, गाय ने लात मार दी, घोड़े के खुर से पैर दब गया, आदि दु:ख भी इसी में आते हैं। किसी ने थप्पड़ मारा, गाली दी, लाठी मारी, छुरा घोंपा, गोली चलाई आदि से होने वाले ताप भी इसी बीच हैं। छोटे-बड़े राष्ट्रों में युद्ध होते हैं, जिनसे अनेक प्रकार के दु:ख राष्ट्र के सामने आते हैं, उन सबका समावेश इसी वर्ग में है। इन सभी मार्गों से प्राप्त दु:खों के निराकरण व प्रतिरोध करने के उपाय आधिभौतिक विषयक जानकारी प्रस्तुत करती है, इस प्रकार के किसी भी स्तर का कोई ऐसा दु:ख नहीं है, जिसको दूर करने का उपाय भौतिक जानकारी ने न सुझाया हो।

३. आधिदैविक ताप- वे हैं, जो आकस्मिक या नियमित दैवीय घटनाओं से प्राप्त होते हैं। सब जानते हैं, जेठ की दु:खभरी गर्मी बढ़ जाने तथा पूस-माह में ठण्ड बढ़ जाने से वे दिन दु:खद होते हैं। अचानक नदी में बाढ़ आ जाने, भूकम्प होने, सार्वत्रिक रोग आदि फैल जाने से तथा तटवर्ती समुद्रों में तूफान आ जाने एवं विद्युत्पात आदि से जो दु:ख होते हैं, वे सब इसी वर्ग के अन्तर्गत हैं।

दैवीं घटनाओं पर मानव बहुत सीमित नियन्त्रण कर पाया है, फिर भी यथामति यथाशक्ति उपाय किये जाते हैं। नदियों पर बड़े-बड़े बांधों का बनाया जाना उसी का एक अंग है। इससे वर्षा का अतिरिक्त जल एक जगह दृढ़ता के साथ संगृहीत कर लिया जाता है, इससे बाढ़ आने का अन्देशा कम हो जाता है तथा उस एकत्रित जल का विद्युत्-उत्पादन, कृषि-भूमि सिंचन आदि अनेक रूपों में सदुपयोग किया जाता है।

भूकम्प, तू$फान आदि के विषय में अग्रिम सूचना प्राप्त कर लेना भी उनसे आंशिक बचाव का उपाय है। यह सब भौतिक विज्ञान का फल है। इस विवरण से हमने यह समझा कि मन्त्रों में ‘मृत्यु’ पद का प्रयोग उन सांसारिक दु:खों के लिये हुआ है, जो शास्त्रीय परिभाषा में ‘ताप त्रय’ के नाम से जाने जाते हैं। इनसे पार पाने का साधन प्राकृत तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान और उसका सदुपयोग है, जो आज भौतिक-विज्ञान के नाम से सर्वविदित है। मन्त्रों में इसी को विनाश एवं अविद्या पदों से कहा है। इस प्रकार मानवदेह रूप अनिवार्य माध्यम के द्वारा सांसारिक दु:खों को पार करता हुआ व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार कर अमृत को प्राप्त कर लेता है। मानव देह की अनिवार्यता के कारण ही सबसे अन्त में ‘सम्भूत्या अमृतमश्नुते’ कहा गया है।

अमृत-प्राप्ति की यह प्रक्रिया या पद्धति बताई गई। अब प्रलयकाल का अवसान होने को है, सर्ग सद्य प्रारम्भ होने को है, उस अवसर पर आत्मा मानवदेह प्राप्ति की भावना को लक्ष्य कर चेतन प्रकाश स्वरूप प्रभु से प्रार्थना करता है-

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।

तत् त्वं पूषन्नपावृणु, सत्यधर्माय दृष्टये।।

हिरण्मय-ज्योतिर्मय-तेजोमय पात्र से सत्य का, प्रवाहरूप में सदा रहने वाले सद्रूप जगत् का मुख प्रारम्भ अपिहितम्- आच्छादित है, ढका हुआ है। तात्पर्य है, समस्त विश्व चाहे यह कारण रूप है अथवा कार्य रूप में, वह सदा सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापक परमात्मा का जहाँ तक अस्तित्व है, उसी में सीमित रहता है। परमात्मा से छूटा कोई स्थान नहीं है, इसलिये उसके बाहर……. विश्व के या विश्व के किसी अंश के होने का प्रश्न ही नहीं उठता। वेद में अन्यत्र (पुरुषसूक्त) कहा, यदि परमात्मा के सर्वव्यापकत्व को चार भागों में विभक्त करने की कल्पना की जाय, तो समस्त विश्व अनन्तानन्त लोक-लोकान्तर उसके एक भाग में ही सीमित रह जाते हैं। इस प्रकार चेतन परमात्मा द्वारा सम्पूर्ण जगत् ढका हुआ है, अपने अन्दर समेटा हुआ है। इस पर भी विश्व अपने रूप में सदा सत्य है।

इसी भाव को प्रस्तुत उपनिषद् के प्रारम्भ में लिखे सन्दर्भ ‘पूर्णमद: पूर्णमिदं’ द्वारा अभिव्यक्त किया गया है। अदस्- वह परोक्ष परमात्म-चेतन पूर्ण है। इदम्- यह प्रत्यक्ष दृश्यमान् जगत् पूर्ण है। अपने-अपने अस्तित्व में दोनों पूर्ण है। जिसका जो कार्य है, उसके लिये किसी को एक-दूसरे से उधार नहीं लेना पड़ता, न अदस् कभी इदम् होता है और न आंशिक मात्र भी इदम् कभी अदस्। ये दोनों अपनी जगह अपने अस्तित्व में पूर्ण हैं, क्योंकि इदम् सर्वव्यापक अदस् में सीमित होते हुए भी पृथक् है, इसलिये अदस् पूर्ण में से इदम् पूर्ण का उदञ्चन कर लिया जाता है- ‘पूर्णात् पूर्णमुदच्यते’ इदम् पूर्ण परिणत कर लिया जाता है, अदस् अपरिणत रह जाता है। सन्दर्भ के उत्तराद्र्ध से इसी भाव को अभिव्यक्त किया- ‘पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।’

फलत: जगत् का मूल उपादान तत्त्व त्रिगुणात्मक प्रधान प्रलय काल में परमात्मा की गोद में सोता रहा। अब प्रलय का अवसान है। अब प्रभु की प्रेरणा से प्रकृति का मुख खुल जाता है। त्रिगुण सन्दर्भों में क्षोभ होगा, अन्योन्य मिथुन होकर सर्ग प्रारम्भ हो जायेगा। प्राणि सर्ग में मानवदेह प्राप्त कर आत्मा अपने अपरिहार्य उपादेय की प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील हो उठेगा। इस भावना से प्रभु के प्रति प्रार्थना करता है-

तत् त्वं पूषन्नपावृणु, सत्यधर्माय दृष्टये।

जिस व्यवहार्य सत्य जगत् को तुमने अभी तक ढका हुआ है, हे पूषन्! सबका पोषण करने वाले प्रभु! अब उसे ‘अपावृणु’- खोल दो। प्रश्न होता है, क्यों खोल दिया जाय? उसे खुलवा कर क्या करोगे? उत्तर आया- ‘सत्य धर्माय दृष्टये’ सत्य धर्म की जानकारी के लिये, क्योंकि सर्ग रचना के अनन्तर मानव देह प्राप्त होने पर ही सत्यधर्म-अध्यात्म-अधिभूत धर्मों की जानकारी सम्भव है, उसी के आधार पर परम पद प्राप्त हो सकता है।

सर्ग के अनन्तर आत्मा को मानव देह प्राप्त हो गया। शास्त्रीय पद्धति के अनुसार योगाङ्गों के अनुष्ठान एवं औपनिषद् उपासनाओं द्वारा आत्मा ने अपने चैतन्य रूप का साक्षात्कार कर लिया है। उसके फलस्वरूप वह प्रभु के कल्याणतम् आनन्दस्वरूप का अनुभव कर रहा है। तब प्रभु से प्रार्थना करता है-

पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन् समूह।

पूषन्! सबका पोषण करने वाले जगदुत्पादक परमात्मन्!

एकर्षे! एक मात्र सर्वज्ञ वेदोत्पादक प्रभो!

यम! समस्त विश्व का नियन्त्रण करने वाले, अखिल लोक-लोकान्तरों के नियामक, व्यवस्थापक! सर्वान्तर्यामिन्! सर्वशक्तिमान् प्रभो!

सूर्य- सर्वत्र प्रसृत! सर्वव्यापक! अपरिणामिन्! परमात्मन्! इस पद का यहाँ वही अर्थ अपेक्षित है, जो प्रस्तुत उपनिषद् की चौथी कण्डिका (अनेजदेक) में विवृत किया गया है।

प्राजापत्य! सब प्रजाओं-जड़ चेतन के पालक एवं स्वामिन्! अब

व्यूह- मूल स्रोत से जो अनेकानेक विविध धाराओं में संसार प्रवाहित किया था, उसे सीमित कर लो,

रश्मीन् समूह- जैसे सूर्य दिन का कार्य सम्पन्न हो जाने पर रश्मियों को समेट लेता है, ऐसे ही हे प्रभो! मूल स्रोत से प्रवाहित इन सब सहस्र-सहस्र विविध जगती धाराओं को मेरी ओर से समेट लो, अब इन धाराओं की मुझे अपेक्षा नहीं है। मेरे लिये जो प्राप्तव्य था, वह प्राप्त कर लिया है।

प्रश्न उभरा, अभी दुहाई दे रहा था, इस हिरण्मय पात्र से ढके सत्य के मुँह को खोलो, जब वह सत्य व्यवहार्य जगत् प्रसृत कर दिया,  तब इसे समेटने के लिये हल्ला मचा रहा है, जो प्राप्तव्य था, वह तूने इसमें क्या पा लिया? उत्तर आया- यत्ते कल्याणतमं रूपं तत्ते पश्यामि

जो तुम्हारा सर्वोच्च कल्याणमय रूप है, उस तुम्हारे कल्याणमय रूप को साक्षात् देख रहा हूँ। यही तो मानव जीवन का प्राप्तव्य अन्तिम लक्ष्य है। उसे प्राप्त कर लिया है। तब उस अवस्था का अबाधित अनुभव बताया-

योऽसावसौ पुरुष: सोऽहमस्मि

जो वह दूर-अति दूर प्रकृति सम्पर्क से अभिभूत मेरे लिये सर्वथा अन्तर्हित पुरुष था, यह अब साक्षात् दीख रहा है। उसके आनन्द स्वरूप का अनुभव कर रहा हूँ, तब वैसा ही तो मैं हूँ। जीवात्मा-परमात्मा के चैतन्यरूप में कोई अन्तर नहीं होता। अन्तर चैतन्य का नहीं है, वह इस प्रकार का है- परमात्मा सर्वत्र है, जीवात्मा अल्पज्ञ है ‘ज्ञ’ दोनों हैं, अथवा ‘ज्ञता’ दोनों में समान है, केवल विषयस्तर वा ग्राह्य स्तर का भेद है। अभी तक प्राकृत धाराओं में प्रवाहित आत्मा इन्द्रिय-ग्राह्य विषयों में आप्लावित रहा। अब उपयुक्त उपायों के अनुष्ठान से अपने शुद्ध चैतन्यरूप का साक्षात्कार कर लिया है, प्रकृति का गहरा परदा बीच से हट गया है। इसी दशा में प्रभु का- आनन्दरूप प्रभु का- साक्षात् दर्शन हो रहा है। तब आत्मद्रष्टा जीवन्मुक्त अपना अनुभव बताता है, वह मैं हूँ, अर्थात् जो वह है, वैसा ही मैं हूँ। अत्यन्त सादृश्य तादात्म्य का प्रयोग सर्वशास्त्र सम्मत है। इससे जीवात्मा-परमात्मा की एकता या अभिन्नता करना पूर्णत: अशास्त्रीय होगा।

इस प्रकार जहाँ कहीं जीवात्मा-परमात्मा की एकता या अभिन्नता का उल्लेख आपातत: दृष्टिगोचर होता है, वहाँ सर्वत्र उसे औपचारिक ही समझना चाहिये। ऐसे प्रयोग- मुख को चन्द्र कहने के समान- सर्वत्र भेदमूलक ही सम्भव हैं। अन्यथा-

निरीक्ष्य विद्युन्नयनै: पयोदो मुखं निशायामभिसारिकाया:।

धारानिपातै: सह किन्नु वान्तश्चन्द्रोऽयमित्यात्र्ततरं ररास:।।

क्या यहाँ अद्वैतवादी सचमुच चन्द्र को मेघ की जलधाराओं के साथ भूमि पर गिरा समझेगा? वस्तुत: यहाँ मुख और चन्द्र के अति सादृश्य का ही द्योतन् है। जलधाराओं के साथ चन्द्र कभी भूमि पर नहीं आ सकता। दोनों का भेद स्पष्ट है। चन्द्र अपनी जगह है, मुख अपनी जगह। इसी प्रकार जीवात्मा परमात्मा का परस्पर स्पष्ट भेद होने पर भी ‘योऽसावसौ पुरुष: सोऽहमस्मि’ सन्दर्भ द्वारा मोक्षदशा में दोनों के तादात्म्य का अतिदेश उनके अति सादृश्य को ही अभिव्यक्त करता है। फलत: जीवात्मा परमात्मा के अभेद वर्णनों में सर्वत्र यही व्यवस्था समझनी चाहिये। विषय का उपसंहार करता है-

‘वायुरनिलममृतम्-अथेदं भस्मान्तं शरीरम्।’

प्राण वायु से उपलक्षित, ‘अनिलम्’ निर्दोष, निर्विकार, अपरिणामी, आत्मतत्त्व ‘अमृतम्’ अमृत है, अमरणधर्मा है और यह शरीर भस्म हो जाने तक है। तात्पर्य है, इस नश्वर शरीर में चेतनतत्त्व अपरिणामी है, जब तक शरीर में वह तत्त्व बैठा है, शरीर संचालित रहता है। आत्मा का वियोग हो जाने पर शरीर भस्म कर दिया जाता है। आत्मा अपने कर्मों के अनुसार अगली योनियों को प्राप्त होता है। इसी को मन्त्र के अन्तिम भाग से कहा-

क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर।

मानव देह को प्राप्त कर आत्मा प्रकृति सम्पर्क में डूबा हुआ इस यथार्थ को बार-बार भूल जाता है कि इस देह को सावधानतापूर्वक सदुपयोग करना अभीष्ट है। मन्त्र एकाधिक बार कहकर इसी तथ्य को समझा रहा है, हे क्रतो! कत्र्तव्यनिष्ठ आत्मन्! ‘कृतं स्मर’ अपने किये का स्मरण कर। कर्मों के अनुष्ठान में तूने मानव देह का सदुपयोग किया? यही देह अमृत प्राप्ति का माध्यम है। जिसने इसे समझा, उसने पाया, जिसने न समझा, उसने खोया।

ऋषि दयानन्द की कल्पना के यज्ञ – होतर्यज- स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती

भारतीय स्वातन्त्र्य के अनन्तर का आर्यसमाज कई दृष्टियों से १९४९ से पूर्व के आर्यसमाज से आगे भी है और कई दृष्टियों से यह ऋषि दयानन्द के स्वप्नों से पीछे हटता जा रहा है।

यह आवश्यक है कि इसमें से कतिपय बुद्धिजीवी व्यक्ति प्रति तीसरे या पाँचवें वर्ष स्वयं अपनी स्थिति का सिंहावलोकन कर लिया करें। अपने सामाजिक और व्यक्तिगत निर्देशन के लिए एक ‘ब्ल्यू-प्रिन्ट’ तैयार कर लिया करें।

आर्यसमाज जीवित और उदात्त संस्था है- अनेक राजनीतिक दल पनपते रहेंगे, मरते रहेंगे, अपना कलेवर बदलते रहेंगे। अनेक बाबा-गुरु-अवतार-भगवान्-माताएँ आती रहेंगी, जाती रहेंगी, पर जो जितना ही स्वामी दयानन्द के दृष्टिकोण के निकट रहेगा, उतना ही आर्यसमाज का महत्त्व बढ़ता जावेगा। हिन्दुओं के अनेक रूप हमारे सामने आर्यमाज का विरोध करने के लिए आये, पर वे चले नहीं, बदलते गये, क्योंकि ये मूत्र्तिपूजा, अवतारवाद, रूढिय़ों, अन्धविश्वासों, वर्गभेदों, देशभेदों, जातिभेदों आदि पर निर्भर थे। आर्यसमाज के कार्यकत्र्ताओं को समझना चाहिए कि वे धरती के पुत्र हैं, सब नदी-नदियाँ उनके लिए एक-सी पवित्र हैं। उनको ईश्वर, ईश्वर के स्वरूप, ईश्वरीय-ज्ञान, ईश्वरीय-व्यवस्था और मानव-मात्र की श्रेष्ठता और समवेत कर्मठता में आस्था है- वे सत्य और ऋत के उपासक हैं। इस स्वरूप का आर्यसमाज सदा जीवित रहेगा। आगे की मानवता न पैगम्बरों पर एक होने वाली है, न धर्म और न सम्प्रदायों पर, न मन्दिरों-मस्जिदों या गिरजों पर, वेद-वेदांगों पर ही एक होगी, भौतिक विज्ञान, रसायन शास्त्र, विकासवान् ज्ञान-विज्ञान के विविध शास्त्र (वेदांग-उपांग) समस्त मानव के एक होंगे। (भारतीय ज्योतिष, चीन देश की केमिस्ट्री, भारतीय रसायन, यूनान की ज्यामिति, इस प्रकार के भौगोलिक शब्द मिट जायेंगे)।

वेद-वेदांग के ऋषि एक होंगे, चाहे आइन्स्टाइन हो, मैक्स प्लांक हो, प्रो. रमन् या रामानुजन् हों, चाहे मैडम क्यूरी हों- इन ऋषियों के नाम पर सबको गर्व होगा। ये ऋषि जो भी मार्ग-निर्देशन करेंगे, उनके संकेतों पर यज्ञों का निर्माण होगा।

यज्ञेन कल्पन्ताम्। (यजु. अध्याय १८), यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा:। (यजु. ३१/१६), यज्ञो यज्ञेन कल्पताम्। (१८/२९)- इन वाक्यों के नूतनतम अर्थ हमें धीरे-धीरे समझ में आवेंगे। मैं अभी करनाल (हरियाणा) में अपनी दाहिनी आँख नई करवा के आया हूँ, डॉ. जे.के. पसरीचा की यज्ञस्थली में मानो ‘चक्षुर्यज्ञेन कल्पताम्’ (यजु. १८/२९) का यज्ञ कराया हो। कुछ मास पूर्व मैंने बम्बई के हिन्दूजा-अस्पताल में प्रोस्टेट-ऑपरेशन द्वारा अपने जीवन की नई आयु प्राप्त की थी (आयुर्यज्ञेन कल्पताम्)। ऋषि दयानन्द की दृष्टि में यह सब यज्ञ है। इन यज्ञों में भाग लेने वाले ही ऋत्विक्, होता, अध्वर्यु हैं। इसी प्रकार के होताओं को दृष्टि में रखकर यजुर्वेद, अध्याय २१ के ४८-५८ मन्त्रों में बार-बार ‘दधुरिन्द्रियं वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज’ और इससे पूर्व ‘पय: सोम: परिस्रुता घृतं मधु व्यन्त्वाज्यस्य होतर्यज’ (मन्त्र २९-४७), यजुर्वेद संहिता में पठित है।

स्वामी दयानन्द की कल्पना के यज्ञ क्या है, यह समझना हो तो यजुर्वेद अध्याय २१ के मन्त्रों के भावार्थ देखिये। ये यज्ञ काष्ठाग्नि में घृत और हव्य डालना नहीं हैं।

मन्त्र २९- येऽस्य संसारस्य मध्ये साधनोपसाधनै: पृथिव्यादिविद्यां जानन्ति, ते सर्व उत्तमान् पदार्थान् प्राप्नुवन्ति।।

मन्त्र ३०- ये संगन्तारो विद्यासुशिक्षासहितां वाचं प्राप्य पथ्याहारविहारैर्वीर्यं वद्र्धयित्वा पदार्थविज्ञानं प्राप्यैश्वर्यं वर्धयन्ति ते जगद्भूषका भवन्ति।।

मन्त्र ३१- ये निर्लज्जान् दण्डयन्ति प्रशंसनीयान् स्तुवन्ति जलेन सहौषधं सेवन्ते ते बलाऽऽरोग्ये प्राप्यैश्वर्यवन्तो जायन्ते।।

मन्त्र ३२- मनुष्या ब्रह्मचर्येण शरीरात्मबलं विद्वत्सेवया विद्यापुरुषार्थेनैश्वर्यं प्राप्य पथ्यौषधसेवनाभ्यां रोगान्हत्वारोग्यमाप्नुयु:।।

मन्त्र ३३- यदि मनुष्या विद्यासंगतिभ्यां सर्वेभ्य: पदार्थेभ्य उपकारान् गृöीयुस्तर्हि वाय्वग्निवत्सर्वविद्यासुखानि व्याप्नुयु:।।

मन्त्र ३४- ये मनुष्या: सर्वदिग्द्वाराणि सर्वर्तुसुखकराणि गृहाणि निर्मिमीरंस्ते पूर्णसुखं प्राप्नुयु:। नैतेषामाभ्युदयिकसुखन्यूनता कदाचिज्जायेत।।

मन्त्र ३५- हे मनुष्या:! यथाहर्निशं सूर्याचन्द्रमसौ सर्वं प्रकाशयतो रूप-यौवनसम्पन्ना: पत्न्य: पतिं परिचरन्ति च यथा वा पाकविद्याविद्विद्वान् पाककर्मोपदिशति तथा सर्वप्रकाशं सर्वपरिचरणं च कुरुत भोजनपदार्थांश्चोत्तमतया निर्मिमीध्वम्।।

मन्त्र ३६- हे विद्वांसो यथा सद्वैद्या: स्त्रिय: कार्याणि साधयितुमहर्निशं प्रयतन्ते यथा वा वैद्या रोगान्निवाय्र्यं शरीरबलं वर्धयन्ति तथा वत्र्तित्वा सर्वैरानन्दितव्यम्।।

इसी प्रकार की प्रेरणायें और उद्बोधन अन्य मन्त्रों में भी हैं (होतर्यज)- मनुष्यै: पुरुषार्थेन लक्ष्मी: प्राप्तव्या (३८), विद्यया वह्निशान्त्या विद्वांसं पुरुषार्थेन प्रज्ञां न्यायेन राज्यं च प्राप्यैश्वर्यं वद्र्धयन्ति ते ऐहिकपारमार्थिके सुखे प्राप्नुवन्ति। (३९), ये…..विद्यां विज्ञाय गवादीन् पशून् संपाल्य सर्वोपकारं कुर्वन्ति ते वैद्यवत्प्रजादु:खध्वंसका जायन्ते। (४०), ये कृषिकरणाद्यायैतान्वृषभान्युञ्जन्ति ते धनधान्ययुक्ता जायन्ते।। (४१)

ऋषि दयानन्द की कल्पना उदात्त समाज के निर्माण की थी, जिसमें सभी शास्त्रों की विद्यायें विकसित हों, सभी विषयों के ज्ञाता हों और सभी प्रकार के सर्वोपयोगी संस्थान हों। उनकी दृष्टि में यजुर्वेद का २१वाँ अध्याय इन्हीं प्रेरणाओं का स्रोत है। आज आर्यसमाज के यज्ञ और हमारे याज्ञिक आर्यसमाज को भटका रहे हैं और हमारे पुरोहित और विद्वान् हमें फिर उस ओर ढकेलने में कटिबद्ध हैं, जिस ओर से ऋषि हमें बचाना चाहते थे।

महर्षि ने वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज (२१/४८-५८) मन्त्रों के भावार्थों में भी उदात्त प्रेरणायें दी हैं-

मन्त्र ४८- यथा विदुषी ब्रह्मचारिणी कुमारी स्वार्थं हृद्यं पतिं प्राप्यानन्दति तथा विद्यासृष्टिपदार्थबोधं प्राप्य भवद्भिरप्यानन्दितव्यम्।।

मन्त्र ५०- ये पुरुषार्थिनो मनुष्या: सूर्यचन्द्रसन्ध्यावन्नियमेन प्रयतन्ते सन्धिवेलायां शयनाऽऽलस्यादिकं विहायेश्वरस्य ध्यानं कुर्वन्ति ते पुष्कलां श्रियं प्राप्नुवन्ति।।

मन्त्र ५३- यथा विद्वत्सु विद्वांसौ सद्वैद्यो सत्क्रियया सर्वानरोगीकृत्य श्रीमत: सम्पादयतो यथा वा विदुषां वाग्विद्यार्थिनां स्वान्ते प्रज्ञामुन्नयति तथाऽन्यैर्विद्याधने संचयनीये।।

मन्त्र ५८- ये मनुष्या ईश्वरनिर्मितानेतन्मन्त्रोक्तयज्ञादीन् पदार्थान् विद्ययोपयोगाय दधति ते स्विष्टानि सुखानि लभन्ते।।

यजुर्वेद के १८वें अध्याय में ‘यज्ञेन कल्पताम्’ पद मन्त्र १-१७ और २९ में बराबर प्रयुक्त हैं, जिनमें भी ऋषि दयानन्द ने यज्ञ के कर्मोदात्त और कर्म-प्रेरक अर्थ दिए हैं- कर्मकाण्डी अर्थ नहीं। स्वामी दयानन्द की कल्पना का आर्य परिवार रूढि़ अर्थों में याज्ञिक नहीं है, जैसा कि हमारे पुरोहितों, कर्मकाण्डियों और तथाकथित याज्ञिकों ने भटका रखा है। स्मरण रखना चाहिए कि वेदमन्त्रों से राष्ट्र शब्द संकलित करके उनसे काष्ठाग्नि में घृतादि की आहुतियाँ डलवा देना राष्ट्रभृत् यज्ञ नहीं है। जिन मन्त्रों में अक्षि या चक्षु शब्द प्रयोग हुए हों, उन्हें संकलित करके आहुतियाँ दिला देना नेत्र-यज्ञ या चक्षु-यज्ञ का उपहास मात्र होगा।

मैं अपने युवकों और बुद्धिजीवियों से आग्रह करूँगा कि यदि आप मेरी कही हुई बातों में कुछ तथ्य समझते हों, तो आपको आर्यसमाज के परिवारों में प्रचलित वर्तमान यज्ञों की कुप्रथा को रोकने के लिए कुछ सक्रिय कदम उठाने होंगे, नहीं तो कैन्सर की तरह बढ़ता हुआ यह कर्मकाण्ड हमें मध्यकालीन हिन्दुओं की तरह ही विकृत और पथभ्रष्ट कर देगा। आर्यसमाज में यज्ञ के रूप में फैला हुआ यह कैन्सर चालीस-पचास वर्ष ही पुराना है, अभी तो हम इसकी रोकथाम कर सकते हैं, अन्यथा आगे रोकना कठिन होगा।

मेरी आयु ८५ वर्ष है, आगे की बात ईश्वर जाने, इसीलिए कुछ तीखे उपाय बता रहा हूँ, हो सकता है कि मेरे मित्रों को और आर्यसमाज के वर्तमान कर्णधारों को शायद ये पसन्द न आवें। कुछ उपाय ये हैं-

१. विद्वान् युवकों को चाहिए कि वर्तमान यज्ञों के विरुद्ध उचित वातावरण तैयार करें (प्यार और स्नेह से)

२. जहाँ-कहीं भी ये कैंसर-यज्ञ हों, उनका सक्रिय विरोध करें।

३. स्वामी दयानन्द ने दो ग्रन्थ हमें व्यावहारिक महत्त्व के दिए हैं- पंचमहायज्ञविधि और संस्कारविधि। संस्कारविधि का सामान्य प्रकरण केवल १६ संस्कारों और नवशस्येष्टि-संवत्सरेष्टि एवं शालानिर्माण विधि के लिए है। कर्मकाण्ड एवं विनियोगों को यहीं तक सीमित रक्खें।

४. भारतवर्ष में कैंसर-यज्ञ चलने लगे हैं और इनकी छूत देश के बाहर भी फैलने लगी है। हमें चाहिए कि वह हवा देश के बाहर न जावे।

(मैं वेदपारायण यज्ञ और मृत्युञ्जय यज्ञों को कैन्सर-यज्ञ कहता हूँ।)

५. लोगों को बतावें कि जो हम विद्या-संस्थायें खोलते हैं (चाहे गुरुकुल शैली की या कॉलेज शैली की) ये संस्थायें ही हमारी यज्ञस्थली हैं, हमारे सभी चिकित्सालय, अनाथाश्रम, सेवागृह, फैक्टरियाँ, पशुधन-विस्तारशालायें- इन सबको आर्यसमाज यज्ञ मानता है। दीनदु:खियों की सहायता के लिए, दुर्भिक्ष-पीडि़तों और बाढ़ से सन्तप्त व्यक्तियों की सहायता के लिए जो भी कुछ हम करेंगे, वह सब यज्ञ है।

आर्यसमाज के प्रारम्भिक युग में लाला मुन्शीराम, लाला लाजपतराय, लाला हंसराज आदि मनीषियों ने ऐसा ही किया था। वे हमारे महान् याज्ञिक थे, कर्मयोगी थे। आज हम कर्मयोगी नहीं कर्मकाण्डी पैदा कर रहे हैं। मिशनरी नहीं, पुरोहित मण्डली तैयार कर रहे हैं।

युवकों से मेरा आग्रह है कि जहाँ-कहीं भी कर्मकाण्डियों द्वारा वेदपारायण यज्ञ होता देखें, मृत्युञ्जय-यज्ञ देखें, वर्षा के निमित्त यज्ञ करते-कराते देखें, उनके विरुद्ध सक्रिय विरोध और रोष प्रकट करें।

महर्षि दयानन्द का जन्म १८२४ ई. में हुआ था। उनकी द्वितीय जन्मशती २०२४ ई. में मनाई जायेगी। तब तक हमें अपने कैन्सर-यज्ञों को दूर कर देना चाहिए। अगली शती के लिए वर्तमान आर्यसमाज के सामने जीता-जागता गौरवमय कार्यक्रम होना चाहिए। केवल नारे, लंगर और जलूसों से काम न चलेगा।

मूर्तिपूजा अवैदिक होने पर भी हमारे देश से दूर क्यों नहीं हुई, क्योंकि यह पण्डितों, पुरोहितों, शंकराचार्यों और महन्तों की जीविका बन गई है। आर्यसमाज के कर्मकाण्डी यज्ञ भी जीविका के साधन बन गये, तो आप आगे इन्हें बन्द न कर सकेंगे।

पुनरोदय: – देवनारायण भारद्वाज ‘देवातिथि’

सुन्दर नर तन मन मधुवन को।

प्रभुवर! पुन: पुन: दो हम को।।

सुखकर दीर्घ आयु फिर पायें,

फिर प्राणों का ओज जगायें।

फिर से आत्मबोध अपनायें।

मंगल दृष्टिकोण के धन को।

प्रभुवर! पुन: पुन: दो हम को।।१।।

होवें सक्षम श्रोत्र हमारें,

तज कर जग को प्रेय पुकारें।

फिर से साधन श्रेय सुधारें।।

विज्ञान विमल के दर्पण को।

प्रभुवर! पुन: पुन: दो हम को।।२।।

दु:ख दुरित दूर उर करो मधुर,

हो हृदय अहिंसक सर्व सुखर।

हे जठर अनल हे वैश्वानर।।

कर्मठ ललाम नव परपन को।

प्रभुवर! पुन: पुन: दो हम को।।१।।

स्रोत- पुनर्मन: पुनरायुर्मऽआगन्पुन: प्राण:,

पुनरात्मामऽआगन्पुनश्चक्षु: पुन:

श्रोत्रंमऽआगन्। वैश्वानरोऽअदब्ध

स्तनूपाऽअग्निर्न: पातु दुरितादवद्यात्।।

– (यजु. ४.१५)

कयामत की रात : पं॰ श्री चमूपतिजी एम॰ ए॰

 

कयामत की रात

 

एकदम अल्लाह को क्या सूझा?—पिछले अध्याय में अल्लाताला के न्याय के रूपों को तो एक दृष्टि से देख ही लिया गया! क्या ठीक हिसाब किया जाता है। अब हम इस न्याय की कार्य पद्धति देखेंगे। इसके लिए कयामत के दिन पर एक गहरी दृष्टि डाल जाना आवश्यक है, क्योंकि न्याय का दिन वही है।

मुसलमानों की मान्यता है कि सृष्टि का प्रारम्भ है। सृष्टि एक दिन प्रारम्भ हुई थी। पहले अल्लाह के अतिरिक्त सर्वथा अभाव था। एक दिन ख़ुदा ने क्या किया कि अभाव का स्थान भाव ने ले लिया। किसी के दिल में विचार आ सकता है कि इससे पूर्व अल्लाह मियाँ क्या करते थे? उनके गुण क्या करते थे? जो काम पहले कभी न किया था वह अकस्मात सूझा कैसे? क्या यह अल्लामियाँ के जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं था कि पहले अकेले विद्यमान थे और अब अपनी सत्ता में किसी और को भी सम्मिलित कर लिया? एकत्व से उकता गए थे क्या? वृद्धावस्था कुछ मनोरंजन चाहती थी? कुछ हो संसार पैदा हो गया।

इसमें असमान तत्त्व भी रख दिए। क्योंकि उसके बिना संसार का कारोबार न चलता था। असमानता में क्या नियम कार्य करता था? प्रकटरूप से अल्लाह मियाँ की इच्छा के अतिरिक्त और कोई नियम बरता ही नहीं गया। यह भी हुआ। हज़रत ने आत्माएँ उत्पन्न कीं। उनको काम करने की सामर्थ ही नहीं प्रदान की। कार्य भी निश्चित कर दिए। किसी के भाग्य लेख में पवित्रता लिखी गई। किसी के भाग्य में पाप करना। पाप कर्म का साधन शैतान को निश्चित किया गया। दोज़ख़ भर देने का निर्णय ख़ुदाई न्यायालय से प्रारम्भ से ही कर दिया गया था, इसमें जाने वाले, जलने वाले सब निश्चित हैं।

परन्तु अब एक दिन आना है जब अल्लामियाँ न्याय की कुर्सी को शोभा प्रदान करेंगे और कर्मों का फल दिया जाएगा। हम परेशान हो रहे हैं कि कर्म किसके? बदला क्यों? परन्तु अल्लाह मियाँ की इच्छा है कि करे कराए तो आप ही परन्तु बदला हमें दे। दे दें। इसके लिए दरबार लगाना क्या आवश्यक है? भाग्य लेख तो हमारा प्रारम्भ से ही निश्चित है फिर इस दिन नूतन क्या होगा? यदि इस दरबार लगाने का नाम ही न्याय है तो हमारा विनम्र निवेदन है कि यह न्याय का स्वांग एक ही दिन क्यों किया जाता है? कहीं इससे अल्लामियाँ के न्याय के गुण में अस्थाई होने का दोष तो लागू नहीं होगा 1?

[1. डॉ॰ जेलानी पहले मुस्लिम विचारक हैं जो अल्लाह द्वारा प्रतिपल न्याय देना मानते हैं। देखिये उनकी पुस्तक ‘अल्लाह की आयत’।   —‘जिज्ञासु’]

कयामत से पूर्व इस गुण का कोई प्रयोग नहीं और इसके पश्चात् भी कोई प्रयोग की अवस्था नहीं होगी।

ख़ैर आइए! इस दरबार का दर्शन करें। इस दरबार की भूमिका रूप में अवस्थाएँ बयान की गई हैं—

व तरल जिबाला तहसबहा जामिदतुन वहिया तमरुमर्रा अस्सहाबे।

—(सूरते नमल आयत 88)

और देखेगा तू पहाड़ों को कि अनुभव करेगा तू उनको जमे हुए और वह चलेंगे बादलों की भाँति।

व इज़ा रुज्जतिल अरज़ो रज्जन, व बुस्सतिल जवालो बुस्सन।

—(सूरते वाकिया आयत 4-5)

जब हिलाई जाएगी भूमि भली प्रकार और टुकड़े हों पहाड़ टूटकर।

व इज़श्शमसो कुर्रिरत व इज़न्नजूमो उन्कदिरत व इजल जवालो सुय्यरत व इज़स्समाओ कुशितत।

—(सूरते तकवीर आयत 1-2-3,11)

जब सूरज को लपेटा जाएगा और तारे गदले हो जाएँगे और जब पहाड़ चलेंगे और जब आसमान की खाल उतारी जाएगी।

सूरज लपेट दिया गया तो प्रकाश न हो सकेगा रात हो जायेगी। इसी विचार से स्वामी दयानन्द कयामत का दिन नहीं ‘रात’ लिखते हैं। अन्तिम आयत पर जलालैन ने लिखा है—

जैसे बकरी का चमड़ा उतारा जाता है।

व इज़स्समाउन्कतरनो, व इज़लकवाकिबो उन्तरसरत व इज़ल बिहार फुज्जिरत व इज़ल कबूरो बुइसरत।

—(सूरते इनफ़ितार आयत 1-4)

जब आसमान फट जावे, जब तारे झड़ जाएँ जब दरिया चीरे जाएँ, जब कबरें उठाई जाएँ।

कबरों का अर्थ यहाँ भाष्यकारों ने कबरों में लेटे मुर्दे किया है। वे मुर्दे शरीरों के साथ उठेंगे या इसके बिना1 ?

[1. अब श्री फारूकी आदि ने ये अर्थ बदल दिये हैं।   —‘जिज्ञासु’]

उठना बिना शरीर के क्या होगा? इस्लाम के अनुयायियों का सिद्धान्त यही है कि शरीर के साथ उठेंगे। वह शरीर कहाँ से आएगा? शरीर तो जर्जरित हो चुका और वह कब्र में मिलजुल गया। अब कब्र का उठना या शरीर का उठना एक ही बात है। और जो कबरें इससे पूर्व नष्ट हो चुकेंगी वह? कुछ होगा। यह हुई कब्रों की बात। अब तारे। ऊपर तो तारों को गदला (बुझे हुए) ही किया था, यहाँ झाड़ दिया है और दरिया चीरने से न जाने, क्या आशय है?

वजउश्शमसे व लकमरे।

—(शूरते कयामत आयत 9)

और इकट्ठा किया जाएगा सूरज और चाँद।

इस पर तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है—

यानी एशां रा बयक दीगर मज्तमअ साख्ता दर दरिया अफ़गन्द।

अर्थात् इन दोनों को इक्ट्ठा करके दरिया में डाल देंगे।

क्या उस चीरे हुए दरिया में? लीजिए अब तो प्रकाश का कोई साधन न रहा। सूरज का ही लपेटा जाना (इसके अर्थ कुछ भी हों) प्रकाश को समाप्त हो जाने के लिए पर्याप्त है, क्योंकि चाँद भी तो सूरज से ही प्रकाश पाता है। परन्तु यहाँ सूरज चाँद सितारे सब कुछ झड़ गया है। कोई लपेटा गया है, कोई दरिया में डाल दिया है। इसी कयामत के दिन को रात ही नहीं घुप अन्धेरी रात कहना चाहिए। यह सब निशानियाँ लिखते हुए हम एक बात भूल गए वह है नरसघे का फूँका जाना। वह पहली बार तो इन सारी अवस्थाओं के प्रकट होने से पहले बजेगा और एक बार कब्रों के उठने पर।

वनफ़ख़ा फ़िस्सूरे फ़इजाहुम मिनल अजदाते इलारब्वहुम यन्सिलून।

—(सूरते यासीन आयत 51)

और फूँका जाएगा नरसघा। फिर अचानक वह कबरों में से अपने परवरदिगार (परमात्मा) की ओर दौड़ेंगे।

इस आयत से तो यह स्पष्ट हो जाता है कि सारी कब्र न दौड़ेगी उसका एक भाग शरीर बनकर दौड़ेगा। परन्तु हम तो यह देख रहे हैं कि एक कब्र क्या कब्रिस्तान के कब्रिस्तान नष्ट होते जाते हैं। उनके स्थान पर शहर बस रहे हैं। यह और बात है कि पहले पहल कब्रों के खुदने से रोग फैलने की आशंका होती है। वैज्ञानिकों की सम्मति है कि मुर्दे गाड़ने की रस्म स्वास्थ्य के नियमों के विरुद्ध है। इसी बात को ध्यान में रखकर योरोप व अमरीका में मुर्दे जलाने का रिवाज बढ़ रहा है। मुर्दों के उठने की भी एक योजना बताई है—

वल्लाहल्लज़ी अरसलर्रीहा फ़तुशीरो सहाबन फ़सुकानहू इलाबलदिन मय्यतिन फ़अहयैनाबिहिल अरज़ा बादो मौतिहा कज़ालिकन्नशूर।

—(सूरते फ़ातिर आयत 8-9)

और अल्लाह वह है जिसने भेजा हवाओं को, फिर उठाया बादलों को, फिर हाँक लाते हैं उसको शहरों की ओर फिर जीवित किया हमने उससे ज़मीन को उसकी मृत्यु के पश्चात्। इस प्रकार मुर्दे उठाए जाएँगे।

मिश्कात किताब फ़तन बाब नफ़ख़ फ़िस्सूर में लिखा है—

काला व लैसा मिनल इन्साने शैउन लायबली इल्लल उज़मा वाहिदहू व हुवा अजबुज़्ज़नबो व मिनहू यरकिबुल ख़लका योमिल कयामते।

कहा और नहीं मनुष्य में कोई ऐसी वस्तु जो पुरानी न हो जाए। एक हड्डी के अतिरिक्त और वह रीढ़ की हड्डी के नीचे की हड्डी है और इससे संसार की रचना होती है कयामत के दिन।

कहा जाता है कि यह हड्डी कयामत के दिन गले सड़े बिना सुरक्षित रहेगी। यह बीज का काम देगी जिससे सारा शरीर नवीन बनाया जायेगा। यह काम चालीस दिन की वर्षा से होगा जो अल्लाहताला भेजेगा। जो भूमि को आठ बलिश्त तक ढाँप लेगी और उसके इस काम से शरीर पौधों की भाँति उग आएँगे।

यह कयामत का प्रारम्भ है इसकी अवधि दो सूरतों में वर्णन की है—

सूरते सजदा में कहा है—

फ़ीयोमिन काना मिकदारहू अलफ़ा सिनत्तिन मिम्मात अदून।

—(सूरते सजदा आयत 4)

एक दिन में जिसकी मात्रा हज़ार वर्ष है तुम्हारे गणित से।

तफ़सीरे जलालैन में इस आयत पर लिखा है—

आशय हज़ार वर्ष के दिन से कयामत का दिन है। परन्तु सूरते मआरिज़ में हम एक और अवधि पाते हैं—

तअरजुल मलाइकतो वर्रुहो इलैहे फ़ीयोमिन काना मिकदारहू रवमसीना अलफ़ा सनतिन…….योमा यरवरजूना मिनल अजदाते सिराअनकअन्नहुम इलानुसुबिन युविफ़्फ़ज़ून।

—(सूरते मआरिज आयत 4)

चढ़ते हैं फ़रिश्ते और रूहें तरफ़ उसके उस दिन में जिसकी अवधि है पचास हज़ार साल………जिस दिन निकलेंगे कब्रों से दौड़ते हुए जैसे किसी निशानी पर दौड़ते हैं।

इन दो संख्याओं के मतभेद का निवारण कैसे हो? पहली संख्या के साथ गुण की वृद्धि की है और वह संख्या तुम्हारी गिनती के अनुसार है सम्भव है जो अवधि मनुष्यों की गिनती में एक हज़ार वर्ष होती है वह किसी और सृष्टि की गिनती में पचास हज़ार साल हो जाती हो।

गुत्थी सुलझा ली गई—तफ़सीरे जलालैन में इस गाँठ को यह कहकर खोला है—

दूसरी सूरत में पचास हज़ार साल फ़रमाया है यह लम्बाई कयामत की काफ़िरों को अनुभव होगी।

इन पचास हज़ार वर्षों में होगा क्या? मूजिह कुरान तो पचास हज़ार पर कहता है, जब से मुर्दे निकलेंगे जब तक दोज़ख़ बहिश्त भर जाएँगे।

तफ़सीरे हुसैनी में इस स्थान पर लिखा है—

दर अरसा हाए कयामत पंजाह मौतन व मौकफ़ ख़्वाहद बूद, व ख़लायक रा दर हर मौकफ़े हज़ार साल वाज़ दारन्द, व बयाने मवाकिफ़ दर जवाहरुत्तफ़ासीर अस्त।

कयामत के मैदान में पचास पड़ाव व ठहराव होंगे। लोगों को हर ठहराव पर पचास हज़ार साल रोका जाएगा। इन ठहरावों का वर्णन जवाहरुत्तफ़ासीर में है।

अब जरा कयामत की कार्यवाही के विवरण का दर्शन करें। चालीस दिन की बरसात से पौधों की भाँति कब्रों से उत्पन्न हुए मुर्दा मनुष्य दौड़कर न्यायालय के स्थान पर पहुँच चुके हैं। प्रत्येक को उसके भाग्य का पर्चा मिलता है। इसीलिए सूरते बनी इसराईल में आया है—

व कुल्ला इन्सानिन अलज़मनाहू ताइरतुन फ़ीउनकिही व युख़रजोलहु योमल कयामते किताबन यलकाहो मन्शूरन।

—(सूरते बनी इसराईल आयत 13)

और प्रत्येक व्यक्ति के लिए लगा दिया है हमने कर्म लेख उसका बीच उसकी गर्दन के और निकालेंगे हम उसके लिए कयामत के दिन एक पुस्तक (के रूप में) देखेगा उसको खुला हुआ।

इस पर तफ़सीरे जलालैन में लिखा है—

मुजाहिद ने कहा कि कोई बच्चा ऐसा नहीं जिसकी गर्दन में उसके एक कागज होता है उसमें यह लिखा होता है कि यह सौभाग्यशाली है या दुर्भाग्यशाली (अभागा)।

तफ़सीरे हुसैनी में इस वाक्य की भूमिका में लिखा है—

दर ज़ादुलमसीर अज़ मुज़ाहिद नकल मे कुनद।

जादुलमसीर में मुजाहिद से यह उद्धृत हुआ है।

इस कथन के बाद लिखा है—

यानी आँचे तकदीर करदा अन्द अज़ रोज़े अज़ल अज़ किरदारे ओ, लाज़िम साख्ता अन्द दर गर्दने ओ यानो ओ रा चारा नेस्त अज़ां।

अर्थात् जो भाग्य आरम्भ के दिन से उसके लिए कर्मों के लिए निश्चित कर दिए वह उसकी गर्दन में लटका दिया, अर्थात् उससे वह बच नहीं सकता।

दर ऐनुलमआनी गुफ़्ता कि तायर1 आं किताब अस्त कि रोज़े कयामत परां-परां बदस्ते बन्दा आयद।

1 [1. तायर शब्द का अर्थ पक्षी है। यह पक्षी रूपी पुस्तक कैसी होगी इसकी कल्पना करना अति कठिन है। न जाने इसके पृष्ठ कितने होंगे? —‘जिज्ञासु’]

तायर रूपी पुस्तक—ऐनुलमआनी में कहा है कि तायर  वह किताब है जो कयामत के दिन उड़ती-उड़ती बन्दे के हाथ आएगी।

प्रत्येक व्यक्ति के कर्म प्रारम्भ से ही नियत हैं। अटल भाग्य ने कर्मों का लेख बना दिया। इसमें हेर-फेर तो हो नहीं सकता। इसके अनुसार ही प्रत्येक व्यक्ति ने कार्य किया होगा। अब वह कर्मों का लेखा उसके हाथ में दे दिया जाता है।

व वज़अलकिताबा।

—(सूरते ज़मर आयत 67)

और रखे जाएँगे कर्म के हिसाब।

इस कर्म लेख के हिसाब में भी बहिश्त व जन्नत में जाने वालों में परस्पर अन्तर होगा। अतः सूरते हाका में कहा है—

कअम्मा मनओ किताबहु वियमोनिही फ़यकूली अकरऊ किताबहु व अम्मामन ऊती किताबहु बिशमालिही फ़यकूलो यालैतनी लमऊते किताबिहा।

—(सूरते हाका आयत 19 व 25)

तब जिसके दाएँ हाथ में उसका कर्मों का लेखा दिया जाएगा वह कहेगा लीजिए पढ़ो मेरा कर्म-लेख………..और जिसको कर्मों का लेखा बाएँ हाथ में दिया जाएगा वह कहेगा ऐ काश! न मिलता मेरा कर्मों का लेखा।

इस देने के ढंग से ही निर्णय का पता तो लग ही गया। अब आगे और कार्यवाही से क्या लाभ? दोज़ख़ वाले दोज़ख़ के लिए बहिश्त वाले बहिश्त के लिए तैयार हो गए। परन्तु कानून व्यवस्था फिर व्यवस्था है। इसे अल्लामियाँ भी निरस्त नहीं करते।

इधर तो इन भाग्य लेखों को नित्य कहा है। अब कहते हैं—

वल्लाहो यकतुबो मायुबेतून।

—(सूरते निसा आयत 81)

और अल्लाह लिखता है जो यह ठहराते हैं।

तफ़सीरे हुसैनी में इस पर लिखा है—

ख़ुदा मे नवीसद दरलोहे महफ़ूज़ या किरामुल कातिबीन ब अमरे ख़ुदा मे नवीसन्द।

ख़ुदा लोहे महफ़ूज़ में लिखता है या लिखने वालों में सम्मानीय ख़ुदा की आज्ञा से लिखते हैं।

नित्य लेख की पुष्टि की जाती है? या नया लेख लिखा जाता है? सम्भवतः पैंसिल के लेख पर स्याही या कोई रंग चढ़ाया जाता हो। इस प्रकार के स्मरण लेख रखने की उन्हें आवश्यकता होती है जिन्हें भूल जाने का भय हो, संसार का ज्ञान रखने वाले अल्लामियाँ को इतना दफ्तर रखने की क्या आवश्यकता पड़ी है? व्यर्थ की लेखकों में श्रेष्ठों की मेहनत। इतनी मात्रा में लेखन सामग्री का अपव्यय क्यों किया जाता है?

फिर यह भी तो आवश्यक नहीं कि स्मृतियाँ कर्मों का सही रोज़नामचा हों। क्योंकि एक और जगह फ़रमाया है—

व यमहू अल्लाहो मायशाओ।

—(सूरते रअद आयत 39)

और मिटा देता है अल्लाह जो चाहता है।

तफ़सीरे हुसैनी में इस आयत पर लिखा है—

आंचे अज़ बन्दा सादिर शुवद अज़ अकवालो अफ़आल हमा रा वनवीसन्द आं दफ्तर रा बमवमाकिफ़ अरज़ रसानन्द, हक्के सुबहानहू कोलो फ़ेले कि सवाबो व ख़ताए बदां मुतफ़र्रअनेस्त महव कुनद व बाकी रा मसबत बिगुज़ारद या सैय्याते ताइब रा महव कुनद।

जो कुछ बन्दे से काम होता है उसका लेखा वाणियों व कर्मों की दशा में वह सब लिखते हैं और उस रजिस्टर को पेश करते हैं। ख़ुदा-वन्द उस वाणी व कर्म को कि कोई पुरस्कार या दण्ड उससे कल्पनीय नहीं मिटा देते हैं व शेष को लिखा रहने देते हैं या तौबा करने वाले की बुराइयों को मिटा देते हैं।

जब यह शासकीय अधिकार भी काम में आते रहते हैं तो लिखना व्यर्थ है, परन्तु हाँ, कचहरी की परम्परा का पालन होना चाहिए। अल्लामियाँ ने स्वयं या फ़रिश्तों ने लिखा और अल्लामियाँ ने संशोधन करके पुष्टि कर दी, परन्तु कचहरियों में तो साक्षी भी होते हैं। अल्लाहमियाँ की कचहरी बिना साक्षियों के कैसे रहे? फ़रमाया है—

योमा नदऊ कुल्ला अनासिन बिइमामिहिम।

—(बनी इसराईल आयत 71)

जिस दिन बुलाएंगे सब मनुष्यों को उनके इमाम पेशवा मार्गदर्शकों के सहित।

बजाआ बिन्नबीयिन्ना व श्शुहदाए कज़ाबैनहुम बिलहक्के।

—(सूरते ज़ुमर आयत 69)

और लाए जाएँगे पैग़म्बर और साक्षी और निर्णय किया जाएगा उनमें न्याय से।

तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है कि साक्षियों से तात्पर्य—

मुराद उम्मते मुहम्मद अस्त।

तात्पर्य हज़रत मुहम्मद की उम्मत से है।

परन्तु नहीं, साक्षी कुछ और भी है—

व योमा तशहदो अलैहिम अलसनतहुम व ऐदिहिम व औजलहुम बिमा कानूयअमलून।

—(सूरते नूर आयत 24)

जिस दिन साक्षी देंगी उन पर उनकी वाणियाँ और उनके हाथ और उनके पाँव। जिनसे वह काम करते थे।

व तशहदो अरजलहुम बिमा कानूयकसिबून।

—(सूरते यासीन आयत 65)

और गवाही देंगे पाँव उनके जो कुछ वह कमाते थे।

हत्ताइज़ामाजाऊहा शहिदा अलैहिम समउहुम व अवसारिूहुम व जलूदुहुम बिमाकानूयअमलून। वा कालूलजुलूदहुम लिमा शाहिदा तुम अलैना कालू अन्तकनल्लाहुल्लज़ी अन्तका कुल्लाशैअन।

—(सूरते हम सजदा आयत 20-21)

यहाँ तक कि जब जाएँगे पास उसके, साक्षी देंगे उन पर कान उनके और आँखें उनकी और चमड़े उनके, जो कुछ करते थे और वह कहेंगे अपने चमड़ों से क्यों साक्षी दी तुमने हमारे ऊपर। वह कहेंगे बुलवाया हमको अल्लाह ने जिसने बुलवाया प्रत्येक वस्तु को।

एक एक अंग बोलेगा!—यह अन्तिम साक्षियाँ खूब रहीं, शरीरों के यह अंग कबर की मिट्टी में मिट्टी हो चुके। रहा केवल रीढ़ की हड्डी का निचला भाग। इस पर वर्षा पड़ने से शरीर उगेगा। कयामत की कचहरी में पहुँचे तो इन अंगों को वाणी भी मिल गई, क्या यह वही अंग नहीं जो संसार में थे? परन्तु अब तो मिट्टी नहीं रही। बनाएँगे किससे? यदि यह सारी वाक्य रचना केवल अलंकारिक है तो वह तो नित्य प्रति हो ही रहा है।

अपराधी की आँखें अपराध की स्वीकृति तो देती हैं? कयामत में विशेष क्या होना है? चमड़ा कहता है। मुझे बुलवाता है अल्लाह मियाँ। क्या वही बात बुलवाता है जो चाहता है या बोलने की स्वतन्त्रता है? स्वतन्त्रता न रही तो साक्षी विश्वसनीय न रही। अल्लाहमियाँ की इच्छा हो तो क्या स्वयं कर्त्ता अपने अपराध को स्वीकार करने को तैयार नहीं? वह विचारा तो बाएँ हाथ में कर्मों का लेखा मिलते ही काँप गया था। फिर और साक्षी की आवश्यकता क्या पड़ी थी? क्या केवल औपचारिकता पूरा करनी थी? यह तो केवल कम ज्ञान वालों के लिए होता है।

सर्वज्ञ का अपना ज्ञान पर्याप्त है फिर यहाँ तो प्रत्येक के कार्यों का लेखा स्वयं बना दिया है प्रारम्भ से ही जिससे बाल बराबर भी इधर-उधर नहीं हो सकता। इसके बाद ख़ुदा के अपने हिसाब रखने वाले निश्चित हैं। वे इस बात के उत्तरदायी हैं कि जो कुछ भी नित्य सत्ता का लेख है वह पूरी तरह कार्यान्वित हुआ है। सम्भव है कि वह दूसरा रजिस्टर तैयार करते हों जिसकी लोहे महफ़ूज़ से मिलान की जाती हो फिर अल्लामियाँ अपने पवित्र हाथों से उसमें घट बढ़ करते हैं।

नबियों व उनके समुदाय की साक्षी अलग है। फिर प्रत्येक कर्त्ता को वाणी प्रदान की जाती है और वह कर्त्ता की इच्छा के विरुद्ध पर्चा फड़वा देते हैं। साक्षी के विषय का स्वयं निर्णय देते हैं या कोई और? इसमें सन्देह है।

कचहरी की कार्यवाही पूरी है। हाँ! कमी है तो केवल वकील की व युक्ति की, भला सर्वज्ञ न्यायकारी को इसकी क्या आवश्यकता है? मगर फिर दूसरे प्रावधानों की क्या आवश्यकता? और यदि यह आवश्यकता का प्रश्न एक बार चल पड़े तो फिर प्रारम्भ में ही अभाव से भाव में लाने की क्या आवश्यकता? पाप कराने की भी अच्छे भले अल्लामियाँ को क्या आवश्यकता? प्रारम्भ से अन्त काल तक अल्लामियाँ की इच्छा के चमत्कार हैं। यदि अब इन साक्षियों के पश्चात् कर्त्ता को बोलने की आज्ञा हो तो वह कहे— मुझसे अल्लाह ताला ने कराया है जो सबसे कराता है—

वही कातिल वही मुख़बिर वही मुन्सिफ़ भी।

अकरिबा मेरे करें ख़ून का दावा किस पर॥1

[1. अर्थात् हत्यारा भी वही है, सूचना देने वाला भी वही है और इस अपराध के निर्णय के लिए न्यायाधीश भी उसीको बनाया जाता है। मेरे सगे-सम्बन्धी मेरी हत्या का केस किस पर करें? उर्दू के इस प्रसिद्ध पद्य का अर्थ देना हमने आवश्यक जाना।     —‘जिज्ञासु’]

अंगों ने साक्षी देने को दे दी, अब उन पर भी ‘फ़तवा’ ख़ुदाई आदेश लागू होता है। फ़रमाया है—

कल्लइल्लन लम यन्तही लनसफ़अन, नासियतुन काज़िबतिन ख़ातियतिन।

—(सूरते अलक आयत 15-16)

निश्चय ही हम उसको पेशानी के साथ घसीटेंगे वह पेशानी जो अपराधी व झूठी है।

दण्ड की विचित्र प्रक्रिया!—ऊपर मनुष्य को उसके अंगों से पृथक् कर दिया था। अनुमान हुआ था कि आर्य दर्शन की भाँति कुरान शरीफ़ भी मानव को चेतन कर्त्ता और उसके अंगों को अचेतन साधन निर्धारित करता है, परन्तु पेशानी (सिर का अग्र भाग) को दण्ड दिये जाने से अनुमान होता है कि सम्भव है नास्तिकों के सिद्धान्त के अनुसार यहाँ भी मस्तिष्क को कर्त्ता मानते हों।

क्योंकि आत्मा का स्वरूप कुरान शरीफ़ में वर्णन नहीं किया गया। यदि पेशानी भी शरीर के दूसरे अंगों की भाँति आत्मा से पृथक् है तो इस विचारी को दण्ड के लिए क्यों चुना गया? क्या दण्ड देते समय दूसरे अंगों को जो सरकारी साक्षी बने थे बरी कर दिया जाएगा? सांसारिक न्यायालयों में यह परम्परा है ख़ुदाई न्यायालय में भी सम्भव है ऐसा ही हो।

इस दशा में नरक की पीड़ा उठाने वाले मनुष्य का रूप व दशा क्या होगी? वाणी छूट गई, कान नहीं, आँखें निरस्त, चमड़ा अलग हो गया। पाँव भी गये। पेशानी भी बिना चमड़े की होगी जो घसीटी जायेगी। यदि कुछ अंगों को इसलिए छुट्टी मिल जाए कि उन्होंने सत्य साक्षी दी है और कुछ इसलिए कि उनका दुरुपयोग हुआ है तो दण्ड की पात्र केवल आत्मा ही रह जाए जो दर्शन के अनुसार उचित है, अचेतन के दण्ड के क्या अर्थ?

वह कथनी को करनी का रूप न दे सके:- राजेन्द्र जिज्ञासु

मालवीय जी ने पं. दीनदयाल से कहा, ‘‘मुझसे विधवाओं का दु:ख देखा नहीं जाता।’’ इस पर उन्होंने कहा- ‘‘परन्तु सनातनधर्मी हिन्दू तो विधवा-विवाह नहीं मानेंगे। क्या किया जाये?’’ इस पर मालवीय जी बोले, ‘‘व्याख्यान देकर एक बार रुला तो मैं दूँगा,  सम्भाल आप लें।’’

इन दोनों का वार्तालाप सुनकर स्वामी श्रद्धानन्द जी को बड़ा दु:ख हुआ। आपने कहा, ‘‘ये लोग जनता में अपना मत कहने का साहस नहीं करते। व्याख्यानों में विधवा-विवाह का विरोध करते हैं।’’

मालवीय जी शुद्धि के समर्थक थे परन्तु कभी किसी को शुद्ध करके नहीं दिखाया।

हटावट मिलावट दोनों ही पाप कर्म- धर्मग्रन्थों में मिलावट भी पाप है। हटावट भी निकृष्ट कर्म है। परोपकारिणी सभा के इतिहास लेखक ने ऋषि-जीवन में, ऋषि के सामने जोधपुर में आर्यसमाज स्थापना की मनगढ़न्त कहानी जोड़ दी, दयानन्द आश्रम के लिये उस युग में प्राप्त २४०००/- रुपये की आश्चर्यजनक राशि की घटना की हटावट एक दु:खदायक पाप कर्म है। ऐसे ही सभा द्वारा मौलाना अब्दुल अज़ीज की शुद्धि व स्वामी नित्यानन्द विश्वेश्वरानन्द जी को आर्यसमाज में सभा ने खींचा। इस हटावट का कारण समझ में नहीं आया। यह भी पाप है।

कहीं से जानकारी मिले तो पता दीजिये:- कर्नल प्रतापसिंह ने अपनी आत्मकथा में ऋषि के जोधपुर आगमन व विषपान पर एक अध्याय तो क्या एक पृष्ठ भी नहीं लिखा। इसी प्रकार उसके जीवन काल में जहाँ-जहाँ से उसका जीवन परिचय (उसी से प्राप्त सामग्री के आधार पर) छपा किसी ने भी ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का कतई उल्लेख नहीं किया। ‘भारत के सपूत’ नाम की पुस्तक इसका प्रमाण है। यदि किसी देशी-विदेशी लेखक की पुस्तक में कर्नल प्रतापसिंह की ऋषि-भक्ति व समाज-प्रेम की कोई घटना दी गई हो तो कृपया उसकी जानकारी दी जाये।

श्री दुर्गासहाय ‘सरूर’:- देश के मूर्धन्य कवि, आर्यसमाज के रत्न श्री दुर्गासहाय सरूर की रचनाओं का संग्रह ‘हृदय की तड़पन’ प्रकाशन आधीन है। वह आर्यसमाजी कैसे बने? यह प्रामाणिक जानकारी और पं. लेखराम पर उनकी मुसद्दस चाहिये। क्या कोई सभा संस्था सहयोग करेगी। उत्तराखण्ड सरकार को भी पत्र तो लिखा है। वह पीलीभीत जि़ला अन्तर्गत जहानाबाद निवासी थे। समाज के मन्त्री रहे। उनके मेरठ निवासकाल व समाज-सेवा की कोई प्रामाणिक घटना भी चाहिये।

 

लाला लाजपतराय की मनोवेदना और उनके ये लेख:- राजेन्द्र जिज्ञासु

एक स्वाध्याय प्रेमी युवक ने लाला लाजपत राय जी के आर्यसमाज पर चोट करने वाले एक लेख की सूचना देकर उसका समाधान चाहा। दूसरे ने श्री घनश्यामदास बिड़ला के नाम उनके उस पत्र के बारे में पूछा जिसमें लाला जी ने अपने नास्तिक होने की चर्चा की है। मैंने अपने लेखों व पुस्तकों में इनका स्पष्टीकरण दे दिया है। लाला जी पर मेरी पुस्तक में सप्रमाण पढ़ा जा सकता है। जब उनके मित्रों ने, कॉलेज पार्टी ने उनसे द्रोह करके सरकार की उपासना को श्रेयस्कर मान लिया तो लाला जी के घायल हृदय का हिलना, डोलना स्वाभाविक था। उधर महात्मा मुंशीराम की शूरता, अपार प्यार और हुँकार ने उनका हृदय जीत लिया। घायल हृदय को शान्ति मिली। स्वामी जी के बलिदान पर दिल्ली की विराट सभा में बोलते समय उनके नयनों से अश्रुकण टप-टप गिर रहे थे। तब उस केसरी की दहाड़ यह थी, ‘‘श्रद्धानन्द तुम्हारे जीवन पर भी मैंने सदा रश्क (स्पर्धा) किया और मौत पर भी रश्क करता हूँ। भगवान् मुझे भी ऐसी ही मौत दे तो मैं इतना समझूँगा कि मैं तुमसे आगे न बढ़ सका तो पीछे भी न रहा।’’

यह तो है नास्तिकता विषयक उनके उस पत्र का उन्हीं के द्वारा अन्तिम वेला में प्रतिवाद। वह योग भी सीखते रहे। उनके साथ जो छल किया गया, जो अन्याय किया गया, उसकी प्रतिक्रिया में क्रोध में आकर यदा-कदा बहुत कुछ कहा परन्तु पटियाला राजद्रोह अभियोग में वे महात्मा मुंशीराम के साथ आर्यसमाज की रक्षा के लिये खड़े थे। श्रीयुत अमरनाथ कालिया की पुस्तक के प्राक्कथन को पढिय़े, आर्यसमाज के लिये उनके उद्गार क्या हैं? उनकी हुँकार की रंगत पं. लेखराम समान थी। शेष कभी फिर लिखा जायेगा।

सभी मौन साध लेते हैं:- राजेन्द्र जिज्ञासु

श्री लक्ष्मण जी ‘जिज्ञासु’ आदि कुछ भावनाशील युवकों ने परोपकारिणी सभा को वेद और आर्य हिन्दू जाति के विरुद्ध विधर्मियों की एक घातक पुस्तिका की सूचना दी। सभा ने एक सप्ताह के भीतर ज्ञान-समुद्र पं. शान्तिप्रकाश जी का एक ठोस खोजपूर्ण लेख परोपकारी में देने की व्यवस्था कर दी। आवश्यकता अनुभव की गई तो पुस्तक का उत्तर पुस्तक लिखकर भी दिया जायेगा। मिशन की आग जिन में हो वही ऐसे कार्य कर सकते हैं। विदेशों में भ्रमण करने वाले कथावाचक तो कई हो गये। मेहता जैमिनी, डॉ. बालकृष्ण, पं. अयोध्याप्रसाद, स्वामी विज्ञानानन्द, स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी की परम्परा से एक डॉ. हरिश्चन्द्र ही निकले। जिन में पीड़ होगी वही विरोधियों के उत्तर देंगे। दर्शनी हुण्डियाँ काम नहीं आयेंगी। इन महाप्रभुओं ने कभी श्याम भाई, पं. नरेन्द्र, देहलवी जी, कुँवर सुखलाल, पं. लेखराम, आर्यमुनि जी पर एक पृष्ठ नहीं लिखा। इनसे क्या आशा करनी?

परोपकारिणी सभा की एक देन क्यों भूल गये: राजेन्द्र जिज्ञासु

राजस्थान ने अतीत में पं. गणपति शर्मा जी, पूज्य मीमांसक जी आदि कई विभूतियाँ समाज को दीं। स्वामी नित्यानन्द जी महाराज भी वीर भूमि राजस्थान की ही देन थे और पं. गणपति शर्मा जी से तेरह वर्ष बड़े थे। श्री ओम् मुनि जी कहीं से एक दस्तावेज़ खोज लाये हैं। उसका लाभ पाठकों को आगे चलकर पहुँचाया जावेगा। आज महात्मा नित्यानन्द जी के अत्यन्त शुद्ध, पवित्र और प्रेरक जीवन के कुछ विशेष और विस्तृत प्रसंग देकर पाठकों को तृप्त किया जायेगा। आर्यसमाज के प्रथम देशप्रसिद्ध शीर्षस्थ विद्वान् स्वामी नित्यानन्द ही थे, जिन्होंने पंजाब के एक छोर से मद्रास, हैदराबाद, मैसूर, बड़ौदा आदि दूरस्थ प्रदेशों तक वैदिक धर्म का डंका बजाया था। आपका जन्म सन् १८६० में जालौर (जोधपुर) में हुआ।

छोटी आयु में गृह त्यागकर विद्या प्राप्ति के लिये काशी आदि कई नगरों में कई विद्वानों के पास रहकर ज्ञान अर्जित किया।

घूम-घूमकर कथा सुनाते रहे। महर्षि दयानन्द जी के अमर बलिदान पर आपका झुकाव एकदम आर्यसमाज की ओर हो गया। श्रीयुत अमरनाथ जी कालिया एक तत्कालीन आर्य लेखक की पठनीय अलभ्य पुस्तक से पता चलता है कि ऋषि के बलिदान के पश्चात् परोपकारिणी सभा के प्रथम उत्सव में स्वामी विश्वेश्वरानन्द जी के साथ आपने भी सोत्साह भाग लिया था। इस कथन में सन्देह का कोई प्रश्न ही नहीं उठता परन्तु इसकी पुष्टि में किसी अन्य पत्र-पत्रिकाओं से प्रमाण की सघन खोज की जायेगी।

परोपकारिणी सभा ने इस नररत्न को खींच लिया:- श्री अमरनाथ जी ने ही यह लिखा है कि परोपकारिणी सभा के प्रथम उत्सव में ही इन दोनों की सभा के तथा आर्यसमाज के नेताओं से बातचीत हुई तो सबको यह जानकर हार्दिक आनन्द हुआ कि दोनों विद्वान् संन्यासी दृढ़ आर्यसमाजी बन गये हैं। उसी समय से आर्यसमाज में प्रविष्ट होकर समर्पण भाव से दोनों वेद-प्रचार करने में सक्रिय हो गये। ऋषि जी के प्रति सभा की यह प्रथम बड़ी श्रद्धाञ्जलि मानी जानी चाहिये। वेद-प्रचार यज्ञ में निश्चय ही यह सभा की प्रथम व श्रेष्ठ आहुति थी।

स्वामी नित्यानन्द जी के जीवन के ऐतिहासिक व अद्भुत प्रसंग लिखने की आवश्यकता है। राजस्थान में तो इस दिशा में किसी ने कुछ किया ही नहीं। दक्षिण के पत्रों में इनकी विद्वत्ता पर स्मरणीय लेख छपे। वीर चिरंजीलाल के पश्चात् धर्म-प्रचार में बन्दी बनाये गये आर्य पुरुष आप ही थे। ऋषि के पश्चात् आपके ब्रह्मचर्य-व्रत की अग्नि-परीक्षा की गौरवपूर्ण घटना फिर कभी दी जायेगी।

जाति-पाँति आदि रोग रहेंगे तो:- राजेन्द्र जिज्ञासु

बिहार में गंगा पार करते कितने तीर्थ यात्री मर गये। भगदड़ में यहाँ-वहाँ मरे। प्रयाग में इतनी शीत में यमुना में, त्रिवेणी में डुबकी लगाने वालों का क्या विधि विधान होता है? अव्यवस्था से प्रतिवर्ष इतने तीर्थ यात्री मर जाते हैं। यह बड़े दु:ख की बात है। सरकारें पर्यटन के नाम पर तीर्थ-यात्राओं को, अन्धविश्वास को प्रोत्साहन देती हैं। प्रत्येक नदी का महत्त्व है। गंगा, यमुना, नर्मदा की महिमा गा-गाकर आरती उतारना जड़ पूजा है। यह अन्धविश्वास है। क्या कृष्णा, कावेरी, भीमा नदी का महत्व नहीं? नदी में स्नान से मोक्ष लाभ नहीं। गंगा, गायत्री, गौ व तुलसी की तुक मिलाकर धर्म की नई विशेषता गढ़ी गई है। उपनिषदों में, गीता में, मनुस्मृति में इसका उल्लेख है कहीं? लोगों को वेद विमुख करने के लिये यह फार्मूला गढ़ा गया है। अदरक का, नीम का, काली मिर्ची का, गन्ने का, नारियल का, केले का, बादाम व मूंगफली का क्या तुलसी से कम महत्त्व है? वेद में तो सब वनस्पतियों, औषधियों का गुणगान है। हमारे क्षेत्र में एक संस्था ने हिन्दू धर्म के नाम पर तुलसी के पौधे घरों में लगाने के लिये वितरित किये। आस्था के नाम पर…….।

हिन्दू संगठन का राग छेडऩा तो अच्छा लगता है परन्तु संगठन के, एकता के सूत्र क्या हैं? हिन्दुओं की जाति-पाँति, मन्दिर-प्रवेश की रुकावटें, फलित ज्योतिष, विधवा विवाह का निषेध, बाल-विवाह, मृतक-श्राद्ध आदि कुरीतियों व अंधविश्वासों का आज पर्यन्त किसी हिन्दू संगठन ने खण्डन किया? अस्पृश्यता, जाति बहिष्कार, वेद के पढऩे से स्त्रियों तथा ब्राह्मणेतर को वञ्चित करने का विरोध हिन्दू संगठन करने वाली किस संस्था ने किया? निर्मल दरबार की किसी ने पोल खोली! जो अन्धविश्वासों का खण्डन करे, वह बुरा। जाति-पाँति तोड़ कर जब तक विवाह करने का आन्दोलन लोकप्रिय नहीं होगा, हिन्दू की रक्षा और संगठन की लहर सफल न होगी।

सामूहिक बलात्कार के समाचार टी.वी. पर सुनकर कलेजा फटता है। इस पाप की निन्दा में कोई लहर देश में दिखाई नहीं देती। आत्महत्या का महारोग बढ़ रहा है। धर्म-प्रचार व व्यवस्था अब धर्माचार्य नहीं कोई और ही रिमोट कन्ट्रोल से….. दुर्भाग्य यही है।