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प्रत्येक सनातनी के लिए नित्य यज्ञ करना आवश्यक है। – ऋषि उवाच

आजकल सनातनी ने यज्ञ करना छोड दिया है ।

अग्निहोत्र के विषयमें एक महत्वपूर्ण संवाद राजा जनक और याज्ञवल्क्य के मध्य हुआ था, जिसका वर्णन शतपथ ब्राह्मणमें मिलता है।

राजा जनक याज्ञवल्क्य जी को पूछते है की क्या आप अग्निहोत्र को जानते हो? तब याज्ञवल्क्यजी उत्तर देते है की – हे राजन्, में अग्निहोत्र को जानता हूं। जब दूध से घी बनेगा, तब अग्निहोत्र होगा।

तब जनकने याज्ञवल्क्य की परीक्षा लेने के लिए प्रश्नो की शृङ्खला लगा दी।

जनक – अगर दूध ना हो तो किस प्रकार हवन करोगे?

याज्ञ – तो गेहूं और जौं से हवन करेंगे।

जनक – अगर गेहूं और जौं ना हो तो कैसे हवन करोगे?

याज्ञ – तो जङ्गल की औषधीओ से यज्ञ करेंगे।

जनक – जङ्गल की जडी-बूटी भी ना हो, तो कैसे हवन करोगे?

याज्ञ – समिधा से हवन कर लेंगे।

जनक – अगर समिधा ना हो तो?

याज्ञ – जल से हवन कर लेंगे।

जनक – यदि जल न हो तो कैसे हवन करेंगे?

याज्ञ – तो हम सत्य से श्रद्धामें हवन करेंगे।

याज्ञवल्क्यजी के उत्तर से राजा जनक संतुष्ट हुए। केवल भौतिक पदार्थो का प्रयोग कर यज्ञ करना ही यज्ञ करना नहीं होता। सत्य और श्रद्धा को धारण करना भी अग्निहोत्र ही है।

इस लिए यज्ञ नित्य करे।

यज्ञ में मन्त्रों से आहुति क्यों? – शिवदेव आर्य

‘यज्ञ’ शब्द यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु धातु से नङ्प्रत्यय करने से निष्पन्न हुआ है। जिस कर्म में परमेश्वर का पूजन, विद्वानों का सत्कार, संगतिकरण अर्थात् मेल और हवि आदि का दान किया जाता है, उसे यज्ञ कहते हैं। यज्ञ शब्द के कहने से नानाविध अर्थों का ग्रहण किया जाता है किन्तु यहाँ पर यज्ञ से अग्निहोत्र का तात्पर्य है।  अग्नेः होत्रम् अग्निहोत्रम्, अग्नि और होत्र इन दोनों शब्दों के योग से अग्निहोत्र शब्द निष्पन्न हुआ है। जिसका अर्थ होगा कि जिस कर्म में अत्यन्त श्रद्धापूर्वक निर्धारित विधिविधान के अनुसार मन्त्रपाठसहित अग्नि में जो ओषधयुक्त हव्य आहुत करने की क्रिया की जाये, उसे अग्निहोत्र कहते हैं।

                महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में अग्निहोत्र के लाभ बताते हुए कहा है कि – ‘सब लोग जानते हैं कि दुर्गन्धयुक्त वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुःख़ और सुगन्धित वायु तथा जल से आरोग्य और रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है।’ (सत्यार्थप्रकाश, तृतीयसमुल्लास) आगे भी कहा है – ‘देखो! जहां होम होता है वहां से दूर देश में स्थित पुरुष के नासिका से सुगन्ध का ग्रहण होता है वैसे दुर्गन्ध का भी। इतने ही से समझ लो कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म हो के फैल के वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गन्ध की निवृत्ति करता है।’ (सत्यार्थप्रकाश, तृतीयसमुल्लास)

                इसी प्रकरण में प्रश्न उठाते हुए महर्षि स्वामी दयानन्द जी कहते हैं कि ‘जब ऐसा ही है तो केशर, कस्तूरी, सुगन्धित पुष्प और इतर आदि के घर में रखने से सुगन्धित वायु होकर सुखकारक होगा।’ इसके उत्तर में लिखते हैं कि – ‘उस सुगन्ध का वह सामर्थ्य नहीं है कि गृहस्थ वायु को बाहर निकाल कर शुद्ध वायु को प्रवेश करा सके क्योंकि उस में भेदक शक्ति नहीं है और अग्नि ही का सामर्थ्य है कि उस वायु और दुर्गन्धयुक्त पदार्थों को छिन्न-भिन्न और हल्का करके बाहर निकाल कर पवित्र वायु को प्रवेश करा देता है।’(सत्यार्थप्रकाश,तृतीयसमुल्लास)

                अग्निहोत्र की प्रक्रिया में मन्त्रोच्चारण की क्या आवश्यकता है? यदि अग्निहोत्र में बिना मन्त्रों से आहुति दे दी जाये तो क्या हानि? क्या मन्त्रों के स्थान पर अर्थों को पढ़कर आहुति दी जा सकती है? अंग्रेजी, ऊर्दू आदि के शब्दों को बोलकर क्या आहुति दी जा सकती है? इन समस्त जिज्ञासाओं का समाधान लोग अपने-अपने निज-आग्रह के आधार पर करते हैं किन्तु इन शंकाओं का समाधान हमारे वैदिक वाङ्मय में पहले से ही उपलब्ध है। अतः शास्त्रमर्यादाविहीन निज-आग्रह को छोड़ सत्यान्वेषी होना आवश्यक है।

                यज्ञ के प्रबल पोषक महर्षि देव दयानन्द सरस्वती जी ने शास्त्रानुशीलन कर ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदविषयविचार में कहा है कि – वेदमन्‍त्रोच्चारणं विहायान्यस्य कस्यचित्पाठस्तत्र क्रियते तदा किं दूषणमस्तीति? अत्रोच्यते – नान्यस्य पाठे कृते सत्येतत्प्रयोजनं सिध्यति। कुतः? ईश्वरोक्ताभावान्निरतिशयसत्यविरहाच्च….। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदविषयविचारः)

                अर्थात् यज्ञ में वेदमन्त्रों को छोड़ के दूसरे का पाठ करें तो क्या दोष है? अन्य के पाठ में यह प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। ईश्वर के वचन से जो सत्य प्रयोजन सिद्ध होता है, आप्त पुरुषों के ग्रन्थों का बोध और उनकी शिक्षा से वेदों को यथावत् जानके कहता है, उसका भी वचन सत्य ही होता है। और जो केवल अपनी बुद्धि से कहता है वह ठीक-ठीक नहीं हो सकता। इससे यह निश्चय है कि जहाँ-जहाँ सत्य दीखता और सुनने में आता है, वहाँ वेदों में से ही फैला है, और जो जो मिथ्या है सो सो वेद से नहीं, किन्तु वह जीवों ही की कल्पना से प्रसिद्ध हुआ है। क्योंकि ईश्वरोक्त ग्रन्थ से सत्य प्रयोजन सिद्ध होता है, सो दूसरे से कभी नहीं हो सकता।

                महर्षि स्वामी दयानन्द जी ने मन्त्रों से ही यज्ञों का विधान किया है, इसका प्रमाण ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में पुनः प्राप्त होता है – अग्निहोत्रकरणार्थं ताम्रस्य मृत्तिकाया वैकां वेदिं सम्पाद्य, काष्ठस्य रजतसुवर्णयोर्वा चमसमाज्यस्थलीं च संगृह्य, तत्र वेद्यां पलाशाम्रादिसमिधः संस्थाप्याग्निं प्रज्वाल्य, तत्र पूर्वोक्तद्रव्यस्य प्रातः सायंकालयोः प्रातरेव वोक्तमन्त्रैर्नित्यं होमं कुय्‍र्यात्। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पंचमहायज्ञविषयः) इसमें स्पष्ट शब्दों में कहा है कि मन्त्रैर्नित्यं होमं कुय्‍र्यात् अर्थात् मन्त्रों से नित्य होम को करें। अतः स्पष्ट सिद्ध है कि यज्ञ वेद मन्त्रों से ही होना अनिवार्य है।

                 लब्धप्रतिष्ठित वैदिक विद्वान् आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी ने सामवेद भाष्य में – उपप्रयन्तो अध्वरं मन्त्रं वोचेमाग्नये। आरे अस्मे च शृण्वते।। (सामवेद-1379) इस मन्त्र का व्याख्यान करते हुए लिखा है कि ब्रह्मयज्ञ वा देवयज्ञ करते हुए मनुष्य मन्त्रोच्चारणपूर्वक परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभावों का ध्यान किया करें और उससे शिक्षा-ग्रहण किया करे।

                आर्य संन्यासी स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती जी श्रीमद्भगवद्गीता का भाष्य करते हुए कहते हैं कि-

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।

           श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।। (गीता-17/13)

                अर्थात् जो शास्त्र-विधि से हीन हो, जिसमें लोक-कल्याणार्थ अन्न तक न दिया गया हो, जो मन्त्रोच्चारणरहित हो, जिसमें कार्यकर्त्ताओं को दक्षिणा न दी गई हो, जो श्रद्धारहित मन से किया गया हो, उस यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं। इससे स्पष्ट है कि मन्त्रहीन यज्ञ तामससंज्ञक है, पुनः तामस यज्ञ विश्वकल्याण के लिए क्यों कर हो सकता है?

                महर्षि दयानन्द सरस्वती जी यजुर्वेद भाष्य में कहते हैं –

उपप्रयन्तोSअध्वरं मन्त्रं वोचेमाग्नये।

आरेSअस्मे च  शृण्वते।। (यजुर्वेद-3/11)

                अर्थात् मनुष्यों को वेदमन्त्रों के साथ ईश्वर की स्तुति वा यज्ञ के अनुष्ठान को करके जो ईश्वर भीतर-बाहर सब जगह व्याप्त होकर सब व्यवहारों को सुनता वा जानता हुआ वर्त्तमान है, इस कारण उससे भय मानकर अधर्म करने की इच्छा भी न करनी चाहिये। जब मनुष्य परमात्मा को जानता है, तब समीपस्थ और जब नहीं जानता तब दूरस्थ है, ऐसा निश्चय जानना चाहिए।

                वैदिक विद्वान् हरिशरण सिद्धान्तालंकार जी ने यजुर्वेद के भाष्य करते हुए –

यज्ञ यज्ञं गच्छ यज्ञपतिं गच्छ स्वां योनिं गच्छ स्वाहा।

                                एष ते यज्ञो यज्ञपते सहसूक्तवाकः सर्ववीरस्तं जुषस्व स्वाहा।। (यजुर्वेद – 08/22)

                प्रस्तुत मन्त्र एष ते यज्ञो यज्ञपते सहसूक्तवाकः का अर्थ कहते हुए स्पष्ट संकेत किया है कि ‘यह यज्ञ आपका ही है। इसके करने वाले आप ही हैं, हम लोग तो निमित्तमात्र हैं। यह यज्ञ ऋग्, यजुः आदि के सूक्तों से उच्चारण युक्त है।’

                पद्मभूषण डॉ.  श्रीपाद दामोदर सातवलेकर जी ने यजुर्वेद के सुबोध भाष्य में –

समुद्रे ते हृदयमप्स्वन्तः सं त्वा विशन्त्वोषधीरुतापः।

                                                यज्ञस्य त्वा यज्ञपते सूक्तोक्तौ नमोवाके विधेम यत् स्वाहा।।

                                                                                                                                                                (यजुर्वेद – 08/25)

                प्रस्तुत मन्त्र यज्ञस्य त्वा यज्ञपते सूक्तोक्तौ नमोवाके विधेम यत् स्वाहा का अर्थ – ‘हे यज्ञ के पालक! जिसमें वेद के सूक्त कहे जायें, ऐसे उत्तम यज्ञ कार्य में और वैदिक वचनों के उच्चारण में जो हवन योग्य पदार्थ हैं, वह तुझे हम अर्पण करें’ किया है।

                शतपथब्राह्मण में यज्ञस्य त्वा यज्ञपते सूक्तोक्तौ नमोवाके विधेम यत् स्वाहा की व्याख्या – ‘यज्ञस्य त्वा यज्ञपते सूक्तोक्तौ नमोवाके विधेम यत्स्वाहेति तद्यदेव यज्ञस्य साधु तदेवास्मिन्नेतद्दधाति।’ (शतपथ ब्राह्मण – 4/4/5/20) की है।

                मन्त्रों के बिना यज्ञ के स्वरूप की तथा उसकी पूर्णता की कल्पना नहीं जा सकती है, क्योंकि त्रयी विद्या रूप मन्त्र, यज्ञ से अभिन्न हैं – सैषा त्रयी विद्या ऋक्यजूंषिनामानि। (शतपथ ब्राह्मण – 1/1/4/3)

                शतपथ ब्राह्मण में आगे कहा गया है –

‘वागेवSर्चश्च सामानि च मन एव यजूंषि’ (शतपथ ब्राह्मण – 1/1/4/3)

                अर्थात् वाचा, मनसा, कर्मणा यज्ञानुष्ठान के लिए मन्त्रों का विनियोग आवश्यक है।

                छान्दोग्य ब्राह्मण ग्रन्थ में वेदमन्त्रों से यज्ञादि कर्म का प्रतिपादन किया गया है –

यो ह वा अविदिताSर्षेयच्छन्दो दैवताविनियोगेन ब्राह्मणेन मन्त्रेण याजयति वाSध्यापयति वा स स्थाणुं वर्च्छति गर्त्तं वा पद्यते, प्रमीयते वा पापीयान् भवति यातयामान्यस्यच्छन्दांसि भवन्ति।

(छान्दोग्य ब्राह्मण-3/7/5)

                इसका भाव यह है कि जो याजक वैदिक छन्द को बिना जाने ही केवल देवता सम्बन्धी विनियोगपूर्वक ब्राह्मण ग्रन्थीय मन्त्र से यजन कराता है, अध्यापन करता है, वह मन्त्र प्रयोक्ता याजक या अध्यापक वृक्ष, लता आदि जड़ योनि को प्राप्त होता है अथवा दुःखालयाSत्मक नरक को प्राप्त करता है। इसप्रकार  यदि कोई करता है तो उसे छान्दोग्य ब्राह्मण में पापियों में अतिनिकृष्ट कहा है।

                इसी तथ्य का प्रतिपादन करते हुए सर्वाSनुक्रम सूत्र में महर्षि कात्यायन जी कहते हैं कि –

‘छन्दांसि गायत्र्‍यादीनि एतान्यविदित्वा योSधीतेSनुब्रूते जपति, जुहोति, यजते याजयते तस्य ब्रह्म निर्वीर्यं यातयामं भवति। अथाSन्तरा श्वगर्तं वा पद्यते स्थाणुं वर्च्छति प्रमीयते वा पापीयान् भवति।’

(सर्वाSनुक्रम सूत्र)

                अर्थात् जो व्यक्ति गायत्री आदि छन्दों के ज्ञान से रहित होकर वेदाध्ययन करता है, वेदमन्त्रों का अभ्यास करता है, यज्ञकर्म में वेदमन्‍त्रों को उच्चारित करता है, यागक्रिया करता व कराता है तो वह व्यक्ति पाप का भागी होता है। अतः महर्षि कात्यायन के अनुसार सिद्ध है कि यज्ञ मन्त्र के सम्यक् उच्चारण व विधिविधान से होना चाहिए।

                महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में यज्ञ में मन्त्रों के उच्चारण का उद्देश्य दर्शाते हुए कहा है कि इससे मन्त्रों की रक्षा भी होती हैं। इसी तथ्य को महर्षि पतंजलि ने व्याकरणमहाभाष्य के प्रथम पस्पशाह्निक में उल्लेख किया है कि – ‘रक्षार्थं वेदानामध्येयं व्याकरणम्’  अर्थात् वेदों की रक्षा के लिए व्याकरण का अध्ययन करें। वेदाध्यय के द्वितीय प्रयोजन में महर्षि पतंजलि ने व्याकरणमहाभाष्य में लिखा है कि – ‘ऊहः खल्वपि – न सर्वैर्लिङ्गैर्न च सर्वाभिर्विभक्तिभिर्वेदे मन्त्र निगदिताः। ते चावश्यं यज्ञगतेन यथायथं विपरिणमयितव्याः। तान्नावैयाकरणः शक्नोति यथायथं विपरिणमयितुम्।’ (व्याकरणमहाभाष्य, प्रथम पस्पशाह्निक) उक्त प्रयोजन में भी स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि वेदमन्त्रों से यज्ञकर्म होना चाहिए।

                आगे एक प्रयोजन को महर्षि पतंजलि उद्धृत करते हुए कहते हैं कि –

     विभक्तिं कुर्वन्ति – याज्ञिकाः पठन्ति – प्रयाजाः सविभक्तिकाः कार्या इति। न चान्तरेण व्याकरणं प्रयाजाः सविभक्तिकाः शक्याः कर्तुम्। विभक्तिं कुर्वन्ति। (व्याकरणमहाभाष्य, प्रथम पस्पशाह्निक) यहॉँ पर प्रयाजाः शब्द से वेदमन्त्र का ग्रहण किया गया है। अतः स्पष्ट है कि वेद मन्त्रों से यज्ञ होना आवश्यक है।

                प्रयाजा शब्दात्मक ऋग्वेद में दो मन्त्र प्राप्त होते हैं –

प्रयाजान्मे अनुयाजाँश्च केवलानूर्जस्वन्तं हविषो दत्त भागम्।

घृतं चापां पुरुषं चौषधीनामग्नेश्च दीर्घमायुरस्तु देवाः।।

तव प्रयाजा अनुयाजाश्च केवल ऊर्जस्वन्तो हविषः सन्तु भागाः।

           तवाग्ने यज्ञो यमस्तु सर्वस्तुभ्यं नमन्तां प्रदिशश्चतस्रः।। (ऋग्वेद- 10/51/8-9)

                पाणिनीय व्याकरण के ओमभ्यादाने (अष्टाध्यायी-8/2/87)  इस सूत्र में कहा है कि मन्त्रों के उच्चारण से पूर्व जो ओ३म् है, उसको प्लुत हो जाता है। प्रणवष्टेः (अष्टाध्यायी-8/2/89)  इस सूत्र के अनुसार यज्ञकर्म में वेदमन्त्रों के टि भाग को ‘ओ३म्’ आदेश का विधान कर उदाहरण प्रस्तुत किया गया है – अपां रेतांसि जिवन्तो३म्। इससे स्पष्ट होता है कि पाणिनीय काल में वेदमन्त्रों से यज्ञ करने का विधान था।

                ‘पुरुषविद्यानित्यत्वात् कर्मसम्पत्तिर्मन्त्रे वेदे’ (निरुक्त) आचार्य यास्क के अनुसार पुरुष की विद्या अनित्य है और मन्त्र परमात्मा की वाणी होने से नित्यज्ञान है। अतः अग्निहोत्रादि कर्म नित्यज्ञान से युक्त युक्त वेदमंत्रें से करने चाहिए। उपरोक्त वैदिक प्रमाणों से यह ज्ञात होता है कि महर्षि देव दयानन्द सरस्वती जी ने आर्षशास्त्र मर्यादा का अनुशीलन कर शास्त्रपरम्परा को अक्षुण्य बनाने का मार्ग प्रशस्त किया है, हमें इसी शास्त्रपरम्परा के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।

– गुरुकुल पौन्धा,

देहरादून (उत्तराखण्ड)

मन्त्र व्याख्या : पण्डित चमूपति जी

गत पृष्ठों में यज्ञ के प्रत्येक अङ्ग को आध्यात्मिक विचार किया गया है। इसका अभिप्राय कहीं यह समझा जाय कि विना कुण्ड तथा वेदी बनाए, तथा आहुति दिये, काल्पनिक कुण्ड में काल्पनिक यज्ञ किया जा सकता है। मानसिक हवन की स्थिरता क्रियात्मिक हपन के बिना नहीं हो सकती। भारतीय विचार शैली में यह बड़ा दोष है कि मन की एकाग्रता के बहाने वास्तविक संसार से आंखें मूंद लेते हैं। मन का संयम अलौकिक अभ्यास है। यह भारत की पैतृक पूंजी है इसे त्यागने की आवश्यकता नहीं। किन्तु अलौकिक से लौकिक बनाने की आवश्यकता है संसार से सम्बद्ध सर्वोत्तम समाधि है। 

___आगामी पृष्ठों में हम उन मन्त्रों की व्याख्या करेंगे जिन से नित्य का हवन किया जाता है यह हवन करते हुए उप र्युक्त तत्व का दर्शन करना वास्तविक तत्त्वदर्शन है। इसके बिना भौतिक जीवन सिद्ध होगा तत्त्वदर्शन ही हो सकेगा। बिना माया के ब्रह्म भी भ्रम मात्र रह जायगा। 

विधि :आर्यसमाजियों को हवन दूभर हो रहा है। किसी को समय के आभाव से वाधा है किसी को धन के व्यय का भ्रम है। वास्तव में यह दोनों भ्रम काल्पनिक हैं। जितना अग्नि होत्र न्यून से न्यून करने की विधि है, उस में तो कोई पांच सात मिनट समय और कोई डेढ़ छटांक भर सामग्री वाञ्छित पञ्चमहायज्ञ विधि तथा ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में प्रातः काल के लिए चार विशेष आहुतियांसूर्योज्योतिःइत्यादि मन्त्रों से और सायंकाल की चार विशेष आहुतियांअग्निोतिइत्यादि मन्त्रोंस और पांच दोनों समयकी सामा न्य आहुतियां भूरग्नयेइत्यादि मन्त्रों से देनी लिखी हैं। इन के अतिरिक्त पूर्णाहुतियां होती हैं। 

अतः एक समय दोनों समयों का हवन करते हैं उनके लिए सारी मिल कर सोलह आहुतियां और जो दो समय हवन करने हैं उनके लिए सारी २४ आहुतियां हुई इसमें बहुत व्यय लगता है समय आहुति का परिमाण हव्य तथा धत मिला कर माशे है। (देखो सत्यार्थप्रकाश बारहवीं आवृत्ति पृ. ३६) जो इससे अधिक समय देशके और खर्च को सामर्थ्य रखता हो वह आचमन अङ्गस्पर्श, अग्न्याधान, जल सिञ्चन तथा आधारावाज्याहुतियां दे। __ और समय हो तो ईश्वरस्तुति, स्वस्ति वाचन, शान्ति पाठ कर लिया करे इससे बढ़ेतो सारे वेद मन्त्रों को स्वाहान्त कर के आहुतियां दे सकता है। 

हवन का समय सूर्योदय से पीछे और सूर्यास्त से पूर्व है। यदि किसी कारण से सायंकाल हवन का समय अतिवाहित हो जाय तो मन्त्रों का उच्चारण तो अवश्य करले जिससे नियम टूटने पाए और अग्निप्रदीप्तन करें। इस में कीड़ियां गिरेंगी तो पाप होगा। अग्नि सामूहिक हवन हो तो यज्ञशाला में बैठने का नियम यह है। 

यज्ञ के उपकरण तथा उन का प्रयोग 

(पञ्च महायज्ञ विधि से उद्धृत) इसका आचरण इस प्रकारसे करनाचाहिये कि सन्ध्यो पासन करने के पश्चात् अग्निहोत्र का समय है इसके लिये सोना, नांदो, ताम्बा, लोडा वा मट्टो का कुण्ड बनवा लेना चाहिए जिला परिम १६ अंगुठ बौड़ा, १६ अंगुठ गहरा और उसका नका चार अंगुल लम्मा चोड़ा रहे एक नमसा समिधा के लिए रख ले। पुनः वृत को ग म कर छान लेवे। और १ सर घो मे एक रत्ता कस्तूरी एक मास केमा पोस के मिला कर उक्त पात्र के तुल्य दूसरे पात्र मे रख छाई । जब अग्निहोत्र को तब शुद्ध स्थान में बैठ कर पूर्वोक्त मामग्री पास रख लेवे जठ के पात्र में जल और घो के पात्र में एक छटांक वा अधिक जितना सामर्थ्य हो उतने शोये हुए घो का निकाल कर अग्नि मे तपा कर सामने रख लेवे पुनः उन्हीं पलाशादि वा चन्दनादि लकड़ियों को वेदी में रख कर उन में आग धर कर पंखे से प्रदीप्त कर एक २ मन्त्र से एक २ आहुति देता जाय। जिसको दण्डी १६ अंगुठ और उसके अग्रभाग मैं गंगूठा की यव रेखा के प्रमाण से लम्बा चौड़ा आचमनी के समान बनवा लेवे सो भी सोना नांदी पलाशादि लकड़ी का हो एक आज्य स्थाली अर्थात् घृतादि सामग्री रखने का पात्र सोना, चांदी व पूर्वोका लकड़ी का बनवा लेवे । एक जल का पात्र तथा एक चिमटा और पलाशादि की लकड़ी 

  • अमृतपान

 . ओ३म् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा

अर्थः-(ओ३म्) हे परमात्मन् आप (अमृतउपस्तरणम्) अमृत के फैलाने वाले ( असि) हैं (स्वाहा) यह वाक्य सुन्दर है। इस मन्त्र से एक आचमन करे 

प्रोम् अमृतापिधानमसि वाहा

अर्थः ( ओ३म् ) हे परमात्मन् ? आप ( अमृतापि धानम् ) अमृत के धारण करने वाले ( असि) हैं । ( स्वाहा।) यह वाक्य कल्याण कारी है इस मन्त्र से दूसरा आचमन करे  

. ओ३म् सत्यं यशः श्रीमयि श्रीः श्रयताम् स्वाहा

तैत्तरी प्र० १० अनु० अर्थः-(ओ३म्) हे परमात्मन् ! ( सत्यं ) सच ( यशः) यश (श्रीः) शोभा और ( श्रीः धन (मय) मुझे (श्रयताम्) प्राप्त हों। (स्वाहा) यह वाक्य ठीक प्रकार कहा गया। इससे तीसरा आचमन करे। आचमन से अभीष्ट शान्ति होती है सो तोन प्रकार की है आध्यात्मिक अर्थात् आत्मा संबन्धिनी, आधिदैविक अर्थात् इन्द्रियों तथा मनसे सम्बन्धिनी और आधिभौतिक अर्थात् भौतिक जगत् तथा शरीर संबन्धिनी। तीन वार आचमन इसी लिये करते हैं कि एक करके तीनों प्रकार की शान्ति का ध्यान तथा प्रार्थना की जाए। अमृत का अर्थ यहां आनन्द है परमात्मा आनन्द स्वरूप है। सारे संसार को आनन्द देने वाले हैं आनन्द धाम हैं। सब आनन्द उन्हीं के आश्रय हैं। संसार का विस्तार उन का यश है। उनकी शोभा तथा कीर्ति अणु के मुखसे गान की जारही है । वह शोभा दिखाये की नहीं। उसका आधार सत्य है। तभी तो वह आनन्ददायिनी है। ___ परमात्मा के उन गुणों का गान करते हुए मनुष्य अपने लिये आनन्द का संचय करता है परमात्मा को अमृत का पुंज कह कर अमृत का घोंठ चढ़ाता है जल शान्ति प्रद औषध है। शारीरिक रोगों का शमन, मानसिक विकारों का दमन तथा आत्मा परमात्मा का सम्मेलन जल द्वारा ही होता है। शारीरिक लाभ तो पानी के इतने हैं कि वेद कहता है 

अप्स्वन्तर्विश्वानि भेषजः। __

 अर्थात् पानी में सब औषध हैं। यह जलचिकित्सकों की धारणा है । मानसिक रोग क्रोध, कृश, काम आदि भी जल ही से शान्त होते हैं। दो घोंट ठंडे जल के पान तथा हस्त पाद प्रक्षालन से सब विकार ठंडे पड़ जाते हैं। इससे भी सन्तोष हो तो सबही उपद्रवों को मिटा देता है  

परमात्मा का स्मरण कराने का जल ने मानो ठेका लिया है। और किसी समय ध्यान आये, जहां दो चुल्लू पानी सिर पर पड़ा, वहीं परमात्मा का पुनीत नाम जिह्वा पर  गया। 

अमृतपान का रस वस्तुतः अमृत होना चाहिये अर्थात् उस में कोई मल तथा अशुद्धि नहीं । कुर्षों में चावल तथा आटे के पिंड डालने की प्रथा अनीव कुत्सित है। इससे जल जहां दुर्गन्धियुक्त होना है , यहां रोग के किमियों का कोड़ा स्थल वन जाता है। पानी उबार का ठंडा कर लिया जाए तो 

बहुत लाभकारी है। 
२ अङ्ग स्पर्श

  • अओ३म् वाड्म आस्येऽस्तु

अर्थः – (ओ३म् ) हे नाच -पो। ( वाक् ) वोलने की शक्ति ( मैं ) ( मेरे ) ( भास्ये ) मुख में ( अस्तु ) हो। 

  • प्रो३म् नसो, पणो अस्तु

अर्थः- ओ३म् ) हे प्राणेश्वर ! ( मे ) मेरे ( नसोः) नथनों में (प्राणः ) प्राण ( अस्तु ) हो । 

ओ३म् अक्षणोर्मे चक्षरस्तु

अर्थ:-( ओ३म् ) हे सर्व द्रष्टः ! (मे) मेरे (अक्षणोः) आंखों में ( चक्षुः ) देखने की शक्ति ( अस्तु ) हो। 

ओ३म् कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु

अर्थः-(ओ३म् ) हे सर्व श्रोतः ! ( मे ) मेरे (कर्णयोः ) कानों में (श्रोत्रम् ) सुनने की शक्ति (अस्तु) हो। 

5 ओ३म् वाह्वोर्मे बलमस्तु

अर्थः-(ओ३म् ) हे महाबलिन् ! ( मे ) मेरे ( बाह्वोः ) बाहुओं में (बलम् ) बल ( अस्तु ) हो। 

ओम् ऊर्वोर्म प्रोजोऽस्तु। 

अर्थः-(ओ३म् ) हे महौजस्थिन् ! ( मे ) मरी (ऊर्वोः ) जंघाओं में ( ओजः) ओज ( अस्तु) हो । 

ओ३म् अरिष्टोनि मे ऽङ्गोनि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। 

अर्थः — ( ओ३म् ) हे गेग विनाशक ! ( में ) मेरे (अङ्गानि) अङ्ग (अरिष्टानि ) अटूट विकार राहत तथा ( मे ) मेरे (तनूः) नीनों शरीर ( तन्त्रा मह ) फैलाव वाले ( सन्तु ) हों। 

बाई हथेली में जल लेकर दाए हाथ की मध्यमा अर्थात् बीच पालो अंगुली और अनामिक अर्थात् उसके साथ वाली अंगुली को उन जल से भिगोने साप और जिस अंग का नाम मन्त्रों में आए, उसे छूने जाएं । अन्तिम मन्त्र में सब अंगों का नाम आया है। उसे पढ़कर जल देह पर छिड़कें। 

अंगरूप में बल का यानना होतो है अन्तिम मन्त्रमें “अरि टानि” तथा ‘तन्य स: शब्दों से अंगों को नैरोग्य तथा फैलाव स्पष्टतया मांगा है। 

मुख्य अंगों का उल्लेख कर सारे शरीर के लिए बल की याचना की है हम ने संध्या रहस्य में जताया है कि प्रार्थना  प्रतिक्षा है जो वस्तु परमात्मा से मांगी जाए उसकी उपलब्धि का स्वयं यत्न करना है मन्त्रों के पीछे स्वाहा का यही तात्पर्य है। जो बात कह कर कार्य में लाई जाए वह ठीक प्रकार नहीं कही गई वह स्वाहा नहीं। 

_ सन्ध्या रहस्य में उन साधनों का विस्तृत वर्णन आया है जिनके प्रयोग से अंग पुष्ट होते हैं। पाठक को उस पुस्तक का अंग स्पर्श प्रकरण अवश्य पढ़ लेना चाहिए ___ जल लगाने का अभिप्राय शुद्धि की प्रार्थना है। बल के साथ अंगों की निर्मलता तथा इन्द्रियों की वृत्ति की निर्दो पता आवश्यक है। देखो सन्ध्या रहस्य का मार्जन प्रकरण  

. अग्निप्राधान भों भूभुवः स्वः गोभिल गृ. प्र.१। खं. १सू. ११ 

अर्थ🙁ओ३म् ) परमात्मा (भूः) प्रणस्वरूप अर्थात् जगत के जीवन के हेतु (भुवः) अपान अर्थात् मल नाशक (स्वः) और सुखवर्धक तथा तेजः प्रसारक हैं। अग्नि में भी गौणरूपेण यह गुण है। 

यह शब्द कह कर कपूर में अग्नि लगावे। 

. ओ३म् भूर्भुवः स्वोरिव भूना पृथिवीव रिम्णा तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निम 

नादमन्नाधायाधे यजुः . 

अर्थः-( ओ३म् ) परमात्मा (भूः ) जगत्प्राण (भुवः) दुःख नाशक ( स्वः ) सुखस्वरूप ( भूम्ना) बड़ाई में अर्थात् व्यापकता में ( द्यौः ) आकाश (इव ) जैसा और ( वरिम्गा) धारण धर्मरूप श्रेष्ठना में ( पृथिवी ) पृथिवी (इव ) जैसा है। परमात्मा की व्यापकता तथा धारणारुप शक्ति को आकाश तथा पृथिवी की उपमा देकर यहीं तक परिमित नहीं किया किंतु उस की सर्वव्यापकता के ध्यान का सूधा मार्ग बत.या है जैसे आकाश अर्थात् स्थान अपने बीच रहने वाले अणुओं में भी व्यापा हुआ है। ऐसे ही परमात्मा ब्रह्माण्ड भर में विद्यमान है। उस की सत्ता सब सत्ताधारियों में है और वह स्वरूप से उन से पृथक् नहीं है। 

(पृथिवी ) हे पृथिवी ( देवयजनि ) देवताओं की यज्ञ वेदि (तस्या) उस (ते ) तेरी ( पृष्ठे ) पोठ पर ( अन्नादम् ) अन्न अर्थात् हव्य खाने बाले ( अग्निं ) अग्नि को ( अन्नाधाय ) खाने योग्य अन्न के लिये ( आधे ) स्थापित करता हूं। 

संसार रूपी यज्ञ की वेदी पृथिवी है। उस पर ब्रह्माण्ड भर की दिव्य शक्तियां यज्ञ करती हैं। वायु तथा अग्नि, सूर्य, तथा चन्द्रमा किरणों के चभसों से यथा सामर्थ्य आहुति दे रहे हैं। देवों के देव परमात्मा इस यज्ञ के ब्रह्मा हैं। उस महा यज्ञ का छोटा रूप यजमान का यज्ञ है जो यह यज्ञ करते हैं, वह भी देव हैं अर्थात् सज्जन, ईश्वरानुरागी। 

अग्नि का काम है यज्ञ को खा लेना। इस की चारों और लपकती जिहवाओं को देखो । क्षण भर में सारी सामग्री को भस्म करती हैं। ऐसे उदरंभर को उद्दीप्त करने और उसे घृतोपहार देने की आवश्यकता? कहते हैं ‘अन्नाद्याय’ खाने योग्य अन्न की प्राप्ति के लिये ऐसा किया जाता है। अग्नि सत्ययुगी ब्राह्मण है । अपने लिये कुछ नहीं खाता । जो खाता है उस से दसगुणा संसार को देता है । वायु में औषधियों का रस पहुंचा कर नैरोग्य का विस्तार करता है । .व्य को मेघमिश्रित कर आनन्दप्रद वृष्टि करता है। आकाश में उष्णता लाकर वनस्पति की वृद्धि करता है। अग्नि के मुख में डाला हुआ अन्न तो यों समझो कि ऊर्ध्वमुखी पृथिवी में बीज हो छिड़का है। 

कोई कहेगा इतने बड़े आकाशमें हव्य की मुट्ठा स्वाहा हुई, न जाने कहां लुप्त हो जाएगो । कहते हैं- परमात्मा भी विस्तृति आकाश के साथ २ है । किया कर्म और छिड़का बीज निष्फल न होगा ।न पृथिवा उस को पचा सकती है भाकाश उड़ा सकता है। – 

– 

अग्निप्रबोध ओ३म् उध्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वामि ष्टापूत्ते सृजेथामयं अस्मिन्त् सधस्थ अध्युतरस्मिन् विश्वदेवा यजमानश्च सीदत  

य० १५॥ ५४॥ 

(औ३म् ) परमेश्वर को साक्षी कर (अग्ने ) हे विद्वान् उद्घध्यस्व ) उठ ( प्रतिजागृहि ) जाग ( त्वम् )तू (च) और (अयं) यह अग्नि (इष्टापूर्त) यश कर्म मे ( ससजेथाम् ) मिलो। ( अरिमन् ) इस उत्तरस्मिन् ) उत्तम (सधस्थे) यज्ञ स्थान में (विश्वे) सब (दवा) विद्वानो! ( अधिसीदन) मान पूर्वक बैठो। 

नालल्य त्याग का अनुपम उपदेश है अग्नि सजग है। उसे प्रमाद नरें। वह यज्ञ करने में तन्द्रारदित है। यजमान को भी नन्दारहित होजाना चाहिये उत्साह शन्य हृदय राख की मुट्ठः । अग्नि के साथ गना अपो में अग्निप्रदीप्त करना है। भले कामों में आलस्य अपनी सत्ता का नाश है। 

___संसार यज्ञ का स्थान है। वेद करता हैईशावास्य मिदं सर्वम् । य: सब ईघर के रहने योग्य है । संसार का त्याग मूगता है। ऐसा सुन्दर स्थल करां है। देवता कार्य क्षेत्र में आन हे । दान । वचार है वहाने से काम करने से भागते हैं  

मनुष्य की स्थिति इस जगत् में गौरव की स्थिति है। हम यहाँ आत्माविकार से सते हे । जहां मान नही, वह जीवन नही गिड़गिड़ाने तथा शिर झुका कर बठने वाले यज्ञ नहीं किया करते आत्माभिमान छोड़ कर आत्मा की रक्षा नहीं होता। यज्ञ की बैठक ही संसार में विचरने की विधि का उपदेश देती है। 

यह शिक्षा तो स्वतः ही होगई कि यज्ञ का स्थान सुहा वना होना चाहिये कहा भी तो हैयह स्थलउत्तरहै अर्थात् अच्छा जहां संसार को देवों का यज्ञ स्थल समझना है, वहां अपनी यज्ञशाला को तो देव भूमि बनाए विना यश यश ही नहीं रहता। 

. समिदाधान

. मो३म् भयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेने ध्यस्व वर्धस्व चेद्धवर्धय चास्मान् प्रजया पशुभि ब्रह्मवर्चसेनानायेन समेधय स्वाहा इदमग्नये जातवेदसे इदन्नमम  

इस मन्त्र से एक समिधा जो घी में भिगो रक्खी हो भग्नि में डालो। 

(ओ३म् ) हे परमात्मन् ( जातवेदः) उत्पन्नों में वि धमान अग्निवत् प्रकाशक परमेश्वर ! (अयं) यह मेरा (आत्मा) आत्मा (ते) तेरे लिये ( इध्मः ) ईधन है । (तेन) उससे (इध्यस्व ) प्रदीप्त हो (वर्धस्व ) बढ़, () और (इद्ध) प्रदीप्त कर (वर्धय ) बढ़ा। () और ( अस्मान् ) हमें (प्रजया) प्रजा से ( पशुभिः) पशुओं से ( ब्रह्मवर्चसेन ) ब्राह्म तेज से ( अन्नाद्येन ) खाने योग्य अन्न से (सम्) भली प्रकार ( एधय ) समृद्ध कर ( इदं) यह आहुति (अग्नये) परमेश्वरार्पण है ( इदं ) यह ( मम ) मुझ एक की () नहीं। 

उधर अग्नि में लकड़ी डालते हैं, इधर आत्मा को पर मात्मा के समर्पण करते हैं लकड़ी से अग्नि प्रदीप्त होती है 

और उसे प्रदोत करती है परमात्मा का प्रकाश बढ़ता घटता नहीं। परन्तु प्रकाश का काम क्या जब प्रकाश्य हो। जीवों की गृष्टि से तटस्थ होने पर परमेश्वर का प्रकाश अधिकाधिक प्रकट हाता है। 

ऐसी उच्च वृत्ति के योगी के लिये भी की आत्मा को परमात्मा की ज्योति का ईन्धन बना चुका है, संसार के पदार्थ हेंच नहीं। वह प्रजा मांगता है। ब्रह्मवर्चस् अर्थात् भात्म-ज्ञान और आत्मिक ज्योतिः मांगता है। फिर मांगता हैखाने योग्य अन्न। 

ऋषियों ने यजमान को निरा पेटू नहीं बनाया। किन्तु यह तथ्य अवश्य झलकाया है कि योगी का भी पेट होना है। इसे भी भूख लगती है और उसे भ्रान्ति कह देने से शान्त नहीं होती। 

__ परमात्मा की हम सब प्रजा हैं। तत्स्थं होने का तो सूधा मार्ग यही है कि हम प्रजावान् हों। परमात्मा पशुपति हैं। पाशुपत्य हमारे योग की सिद्धि है वह महावर्चस्वी हैं। हमारी उपासना वर्चस्वी होने में है अन्न के साथ अद्य क्या लिखा, अन्न का यथार्थ रूप बताया रुपया धन नहीं। कागज़ी वस्तु हैं सुवर्ण का वर्ण सुन्दर है परन्तु उदर की तृप्ति इससे भी नहीं होती। वास्ताविक सम्पत्ति है नाज। महँगी के दिनों रुपया होो हुए भा पेट की पूर्ति पूर्णतया नहीं हो सक्तो। उयोग को वह तुओं को बहुतायत सुकाल है और इन्हीं की न्यूनता मात्र ही दुष्कल है। 

यह सब कुछ मांगा हुए भी स्वार्थ बुद्धि नहीं रखी। परमात्मा के लिये सब कुछ चाहा है। वह सब के पिता हैं, सबको बांट देंगे अग्नि के मुख में आहु। डालदी है कि यह दैवों का दून है, हव्यवाद है। सबको अपना २ भाग पहुँचा देगा। उन देवियों में हम भा हैं। जहां भारत तृन होगा, वहां हमारी तृप्ति भी हो रहेगा। 

. [] ओ३म् समिधाग्नि दुव्यस्त घृतै: धयतनातिथं आस्मिन् हव्याजुहोतन स्वाहा इदमग्नये इदन्न मम। यजु० अ० मं०१  

(ओ३म् ) परमात्मा को साक्षी मान कर (समिधा) लकड़ी से ( अग्नि ) अग्नि को (दुवख्यत ) सत्कृत करो (घृतैः) घृत से (आंतथि ) अतिथि के समान आए हुए अग्नि को (बोधयत ) जगाओ अर्थात् प्रदीप्त करो। (अस्मिन् ) इसमें ( हव्याहव्यानि ) हवन सामग्री को (आ) अच्छी तरह (जुहोतन = जुहुन ) डालो ( स्वाहा ) जो कहा सो किया। (इदम् ) यह (मम ) अकेले मेरी () नहीं। 

[] ओ३म् सुसमिद्वाय शोचिषे घृत तीन जुहोतन अग्नये जातवेदसे इदन्नमम  

यजु० अ०३ म०२।

अर्थः –(ओश्न ) परमात्मा को लाक्षी कर (सुसमि द्धाय ) पूर्णतया प्राठिा (शोचिष ) शोधक (जातवेदमे ) जात संसार में विद्यमान ( अन्न) अग्नि के लिये ( नीत्र ) तेज़ साफ़ (घृतम् ) घृत को (जुनन-जुहन) हरन करो। ( स्वाहा ) जो कहा सो किया । ( इदम् ) या आहुति (जात. वेदमे ) जातवेदः ( अग्नये ) अग्निशिए है । ( दम् ) यह (मम ) मुझ अकेले को (न ) नहीं। 

इन दो मन्त्रों ने उसी प्रकार दूसरी समिधा डालें। 

यज्ञ को सामग्री लकड़ः पृ तथा हा है। यह तीनों शुद्ध और उत्तम हो अग्नि पूर्णतया प्रदान की जाए। नहीं तो हानि करेगी। 

ऐसे ही संसार के प्रत्येक यज्ञ कर्ष में अपना उत्तम सर्वस्त्र स्वाहा करना चाहिए । और मन्द अग्नि से नहीं किन्तु भड़कते हृदय से कार्यक्षेत्र में प्रवृत्त होना चाहिए। 

. ओम् तन्त्वा समिद्भिरगिरो घृतेन वर्धया मसि वृहच्छोचायविष्ठ्य स्वाहा इदमग्नयेऽङ्गि रसे इदन्नमम यजु० अ० ३। मं०  

(४६ ) ( ओ३म् ) हे परमात्मन् ( अङ्गिरः) व्यापक (समि द्भिः) वृत्तिक लकड़ियों से तथा (घृतेन ) उपासना के घृन से ( तम् ) उस (त्वां ) तुझ को (वर्धयामसि ) बढ़ाते हैं। (यविष्ठ्य ) हे सब से बड़े मिलाने वाले तथा बखेरने वाले ( बृहत् ) बहुत (शोचाशोच) प्रकाशित हो। (इदम् ) यह आहुति ( अङ्गिरसे) व्यापक ( अग्नये ) अग्नि के लिये है। (इदन्नमम ) यह मुझ अकेले की नहीं इस मन्त्र से तीसरी समिधा डालें। 

यज्ञ उपासना है। लकड़ियों से अग्नि प्रज्वलित होती है। आत्मा समर्पण से परमात्मा के प्रकाश का अधिक मान होता है । भक्ति युक्त कर्म ज्ञान चक्षु का उन्मीलन करते हैं 

और सर्व प्रकाश का साक्षात्कार होता है अग्नि पदार्थों को मिलाता और तोड़ता है परमात्मा सृष्टि और प्रलय करते हैं। ऐसे ही मनुष्य भूतों को मिलाए और बखेरे जिस तरह काम चले, चलाओ। सब पदार्थों का सार निकालें और उन उत्तम प्रयोग करे 

५ घृताहुति

ओ३म् अयन्त इध्म आत्मा जाजवेदस्तेने ध्य स्व वर्धस्व चेद्धवर्धय। चास्मान् प्रजया पशुभिब्रम वर्चसेनानायेन समेधय स्वाहा इदमनयेजातवेदसे इनमम्  

– 

इस मन्त्र का अर्थ पूर्व हो चुका है। इस मन्त्र का पाठ पांच वार करे और प्रत्येक पाठ में स्वाहा कह कर एक आहुति घृत की दे। 

धृत विषनाशक और पुष्टिप्रद पदार्थ है। इससे अग्नि की वृद्धि और प्रजा, पशु, ब्रह्मवर्चस् तथा अन्नाद्य से समृद्धि होती है इन पांच कामनाओ की साधक पांच आहुतियां हैं। 

६ जल सेंचन ओ३म् अदिते ऽनुमन्यस्व गोभिल प्र० खंड सू०१। 

अर्थ -(ओ३म् ) हे परमात्मन ! ( अदिते ) टूटने वाले अखण्ड ! (अनुमन्यस्व) हमारे अनुकूल हो। 

इस मन्त्र से वेदी के पूर्व में जल छिड़के। ओ३म् अनुमते ऽनुमन्यस्व गोभिल प्र० खं० ३। सू० २। 

(ओ३म्) हे परमेश्वर ! ( अनुमते ) अनुकूल मति बाले (अनुमन्यस्व) हमारे अनुकूल हो। 

इससे वेदी के पश्चिम में जल छिड़के। 

ओ३म् सरस्वत्यनुमन्यस्व गोभिल गृ० प्र. . सू०३। 

अर्थः-(ओ३म् ) हे परमात्मन् ! ( सास्वति ) सर्वज्ञ सब विद्याओं के प्रकाशक ! (अनुमन्यस्त्र) अनुकूल हो। 

इस मन्त्र से उत्तर में जल छिड़के। 

ओ३म् देव सवित प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपति भगाय दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतन्नः पुनातु वाच स्पतिर्वाचनः स्वदतु यजु० अ० ३० मं०१। 

अर्थः-(ओ३म्) हे परमेश्वः ! ( देव ) प्रकाशक ! (सवित) प्रेरक ! ( यज्ञं) यत्र को (प्रसुष) बढ़ाइए ( यज्ञपतिं ) यजमान को (भगाय ) भजन तथा सौभाग्य के लिए (प्रसुन ) बढ़ा. इप । (दिव्यः ) दिव्य (गन्धर्वः) ज्ञान का आधार (केतपूः) बुद्धि को पवित्र करने वाला परमात्मा (नः) हमारी (केतपू) बुद्धि को (युनातु ) पवित्र करे ( वाचस्पतिः ) वाणी का स्वामी परमात्मा (नः) हमारी ( वानम् ) वाणी को (स्वदतु) स्वाद युक्त करें। ___ इस से वेदो अथवा कुण्ड के चारों ओर जल छिड़के। जल डालने के लिये वेदी के चारों ओर नाली होती है। नहीं तो पृथिवी पर छिड़क दें। चिंवटी आदि को आग में जाने से रोकने के लिये यह नाली बड़ा काम देती है। इससे पूर्व आग के जल जाने से कीटक कुंड से भाग जाते हैं। पानी की पराकार बन जाने से फिर उस में नहीं जाते। इस लिये नाली को पूर्व ही जल से भर देना हानिकारक है। इन मन्त्रों से ही भरना उचित है। 

परमात्मा को इन मन्त्रों में पहिले अदिति फिर अनुमति और सरस्वति कहा है परमात्मा एक रस रहते हैं। उन के नियम कभी नहीं टूटते उनको अपने अनुकूल करने के लिए अपने आपको उनके अनुकूल कर लेना चाहिए यही अदिति को अनुमन्यस्वकहने का प्रयोजन है।

कोई यह समझ ले कि परमात्मा निरेकठोर हैं। उनकी कठोरता, उनकी नियमारूढ़ता हमारी हितकारिणी है। उनके प्रसन्न होने का भी एक अटूट नियम है। यह मूढ़ लोगों का मुग्ध वचन है कि जाने परमात्मा किस चेष्टा से राज़ि होते हैं यदि यह विधि नियत नहीं, तो कोई भले कर्म करे ही क्यों ? तरंगी परमात्मा भले ही रुष्ट रहा करें। जिन के रीझने का प्रकार निश्चित नहीं, उनके रिझाने का यत्न व्यर्थ है भक्तों की भक्ति अवश्य स्वीकार होती है। दर को दण्ड देने में कोई आना कानी नहीं की जाती और परमात्मा की यह व्रतशीलता हमारे व्रतों को सहायता देती है। जभी तो कहा है अदितेऽनुअन्यस्व हे हमारे अनु कूल मति वाले! हमारे अनुकूल मतिवाले! हमारे अनुकूल मति कर! अर्थात् हम वह कर्म करने का व्रत लेते हैं जो आप की मति के अनुकूल हों। ___ जल को अनुकूलता का भौतिक लक्षण बनाया है क्योंकि वह स्थान के अनुकूल बहता है। इस अनुकूलता के लिए पर मात्मा से प्रेरणा चाही है कि हे सवितः देव! प्रेरक परमेश्वर 

यजमान की अर्थात् उस की जो आप के विस्तृत यज्ञ का संक्षेप में अनुकरण करता है वृद्धि कीजिए। भजन के लिए तथा सौभाग्य के लिए उसके सहायी हूजिये। 

वेदी के बीच में जाज्वल्यमान अग्नि है और उसके चारों ओर जल का कोट खिंचा है। यजमान इसमें अपना अभीष्ट स्वरूप देखता है। कि मेरी अन्तरात्मा ज्ञान से प्रचण्ड हो। उन्नतिशील संकल्प के साथ मैं प्रति क्षण ऊँचा उठू। वुद्धि में मल का लेश रहे। पवित्र प्रदीप्त अग्नि की भांति पतितपावन परमात्मा की पुनीत प्रेरणा से पवित्र होऊँ। सत्य पर आरूढ़ रहूं परन्तु वह सत्य जगत् को जलाने वाला हो। शुद्धपानी की तरह सरस हो मेरे वाक्य मधुर हों और मेरा अन्तःकरण स्वच्छ तथा सजग हो। 

____ “सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्का व्याख्यान अत्युत्तम रीति से हुआ है। लोग दिल दुखाने का नाम सत्यवादिता रख लेते हैं वागिन्द्रिय वश में नहीं और कहते हैं हम स्पष्ट वक्ता हैं सत्य योग का अङ्ग है। इस का अनुष्ठान मुंहफटों से नहीं होता, आडम्बरी मौनधारी ही इसके निवाहने का साहस कर सकते हैं। सत्य संयम चाहता है समयोचित मति चाहता है। हित साधक प्रतिमा चाहता है। परोपका रिणी मुखयत्ति चाहता है इसके अन्दर अग्नि की लपट है परन्तु वाह्यरूप जल का है। 

.आधारावाज्याहुतिः मोश्म् अग्नये स्वाहा इदमग्नयेइदन्न मम ____

अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( अग्नये ) सर्व प्रकाशक तथा भौतिक अग्नि के लिये (स्वाहा) सुन्दर आहुति है। ‘(इदं ) यह ( अग्नये ) अग्नि के निमित्त हैं (इदं ) यह (मम

एक मेरी () नहीं। 

इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग से घृत की आहुति दे। ओ३म् सोमाय स्वाहा इदं सोमाय इदन्नमम  गोभिल पृ० प्र० खं० सू० १४

अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( सोमाय ) शान्तिस्वरूप सर्वोत्पादक तथा चन्द्रमा के लिये (स्वाहा) सुन्दर आहुति है ( इदं ) यह (सोमाय ) सोम के निमित्त है (इदं ) यह (मम ) एक मेरी नहीं। 

इस मन्त्र से दक्षिण भाग में घृत की आहुति दे। 

. ओ३म् प्रजापतये स्वाहा इदं प्रजापतये इदन्कमम। 

अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा (प्रजापतये ) प्रजा पाकक तथा सूर्य के लिए (स्वाहा ) सुन्दर आहुति है (इदं ) यह (प्रजापतये) प्रजापति के लिये है (इदं) यह (मम) एकमेरी () नहीं। इस मन्त्र से वेदी अथवा कुण्ड के मध्य भाग में घृत को आहुति दे। 

ओ३म् इन्द्राय स्वाहा इदमिन्द्रायइदन्नमम 

अर्थ🙁 ओ३म् ) परमेश्वर (इन्द्राय) सर्वैश्वर्यवान् सथा विजली के लिए (वाहा) सुन्दर आहुति हैं इदं) यह (इन्द्राय ) इन्द्र के लिए है ( इदं) ये (मम ) एक मेरी () नहीं। 

इस मन्त्र से भी वेदी अथवा कुण्ड के मध्य भाग में घृत की आहुति दें। 

भिन्न भागों में आहुति देने का यह प्रयोजन है कि कुण्ड में सर्वत्र अग्नि प्रज्वलित हो जाए। एक क्रम रखने से नियम रहता है आगे घृत के साथ साकल्प ( हवन सामग्री) डालनी है इस से पूर्व आग को पूर्ण तथा प्रचण्ड कर लेना उचित है। 

ज्योति विशेषतया चार साधनों से प्राप्त होती है। एक अग्नि द्वारा, दूसरे चांद द्वारा, तीसरे सूर्य द्वारा और चौथे बिजली द्वारा इन चारों प्रकारों के प्रकाश का पुञ्ज परमा. त्मदेव है। इन भौतिक ज्योतियों में उस परम ज्योति की झलक झलकती है सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के यज्ञ में इन ज्योतियों की क्या स्थिति है। यह आहुति मात्र ही तो है। जैसे घृत डालने से अग्नि की ज्वाला उठती है वैसे ही इस 

विस्तृत यज्ञ की विशेष आहुतियां यह ज्योतियां दृष्टिगोचर होती हैं और अपना कृत्य साधती हैं यजमान इन ज्योतिषियों में अपनी ज्योति मिला, इन ज्योतियों से सम्पूर्ण लाभ उठा सकल विश्व के अनूठे यश में अपनी आहुति देना है। यही यजमान की यजमानता है। इसी में उस के समस्त परिश्रम की सिद्धि है। 

छोटी से छोटी 

नैत्यिक यज्ञविधि 

उड़ लोगों के लिये जिन के पास समय और धन की न्यूनता है ऋषियों ने यज्ञ की छोटी सी मात्रा आवश्यक कर दी है। आगे उसी भाग का विचार किया जायगा विषय सम्बद्ध होने कारण जिन बातों का उल्लेख पीछे कर चुके हैं, उनकी पुनरावृत्ति नहीं की उन लोगो की भी जो यज्ञ का भनुष्ठान इतना करेंगे जितना आगे बतलाया है, इस पुस्तक का परायण आद्योपान्त कर जाना चाहिये ताकि इतने यज्ञ में भी उनकी वह दृष्टि वहीं बनी रहे जिसका उल्लेख सारे यज्ञ के विषय में किया है। 

यजमान स्वयं देख लेंगे कि इतना हवन करने में केवल सात मिनट समय और घृतादि मिला कर डेढ़ दो छटांक सामग्री से अधिक व्यय नहीं होता। 

इतने को भी व्यर्थ समझना विचार न्यूनता है संसार में कोई कोई कार्य कितना भी अल्पपरिमाण में क्यों हो व्यर्थ नहीं। भौतिक लाभ के अतिरिक्त पारिवारिक प्रेम सामाजिक स्नेह इत्यादि की स्थिरता जो स्वतः प्राप्त हो जाती है, वह ममूल्य लाभ है। 

 ८. प्रातःकाल का यज्ञ ओ३म सूर्योज्योतिर्योतिः सूर्यः स्वाहा अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( सूर्यः) अन्तर्यामी (ज्योतिः) प्रकाश है। और (ज्योतिः) प्रकाश (सूर्यः) अन्तर्यामी है अथवा भौतिक सूर्य प्रकाश का पुंज है। (स्वाहा ) यह सुन्दर भाहुति है। 

ओ३म सूर्यों वों ज्योतिर्वचः स्वाहा। अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( सूर्य्यः) अन्तर्यामी (वर्चः ) तेज है और ( वर्चः ) तेज (ज्योतिः) प्रकाश है ऐसा ही भौतिक सूर्य है ( स्वाहा ) यह सम्यक् आहुति है। 

. ओ३म् ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योति स्वाहा। अर्थ🙁ओ३म् ) परमात्मा (ज्योतिः) प्रकाशस्वरूप (सूर्यः) सर्वव्यापक है। तथा (सूर्यः) सर्व व्यापक (ज्योतिः) प्रकाशस्वरूप है ऐसेही भौतिक सूर्य है। (स्वाहा) मन शरीर वचन द्वारा यह कहा। 

. ओ३म् सजूदेवेन सवित्रासजूरुषसेन्द्रवत्या जुषाणः सूर्योवेतु स्वाहा  

अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा (देवेन) प्रकाशमान् (सवित्रा) प्रेरक के (सजूः) साथ तथा (इन्द्रवत्या) प्रकाश वाली (उषसा) उषा के साथ ( जुषाणः) इस आहुति को ग्रहण करता हुआ (वेतु) चमके। स्वाहा) मन वचन कर्म ने मिल कर आहुति दी। 

प्रातः काल की सुवर्णमय समय ! उषा के केसर में स्नान किया हुआ सूर्य परमात्मा के अलौकिक प्रकाश का ही तो दश्य है भक्त इसी में भक्ति भोजनका दर्शन करते हैं। कभी सूर्य को ज्योति और कभी ज्योति को सूर्य कहा उसका भौतिक भाग निकल दिया सूक्ष्म ध्यान सूक्ष्म ज्योति को ही ध्यान गोचर किया। 

ऊँची दीवारों में घिरे रहने वाले इस कौतुक को नहीं देखते। जो तमाशा योगी को निरन्तर योग से वर्षों पीछे देखना प्राप्त होता है यजमान को नित्य सहसा ही दृष्टिगोचर है। एकाग्र वृत्ति से कोई इस रङ्ग को देखे सही, आत्मा रङ्ग जाती है। 

सूर्य की ज्योति, उपा की ज्योति और इन सब में परमात्मा को ज्योति को ओत प्रोत कर सर्व व्यापक की सर्व व्यापकता का अपूर्व निश्चय हुआ। आहुति क्या दी ! ज्योतिः स्वरूप की ज्योति में अपनो ज्योति मिलाई आत्मा की अनूठी जोत जगी। 

.. 

. व्याहृत्याहुतियां ओ३म् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा इदमग्नये प्राणाय इदन्न मम। ___ अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( भूः) प्राण स्वरूप है 

(अग्नये ) सर्वव्यापक (प्राणाय) प्राण के लिए अथवा गति 

शील अन्दर जाते श्वास के लिए (स्वाहा) यह सुन्दर आहुति है (इदम् ) यह ( अग्नये) सर्व व्यापक तथा गतिशील (प्राणाय ) प्राण के लिए है ( इदम् ) यह (मम) मेरी एक 

की () नहीं। 

ओ३म् भुवर्षायवे ऽपानाय स्वाहा इदं वा यवे अपानाय इदन्न मम  

अर्थ-(ओ३म् ) परमात्मा ( भुवः) अपान अर्थात् दुःख नाशक है। (वायवे) बल स्वरूप (अपनाय ) दुःख नाशक अथवा बाहिर जाने वाले उच्छ्वास के लिए (स्वाहा ) यह उचित आहुति है ( इदम् ) यह ( अपानाय ) अपान (वायवे) वायु तथा दुःख हर्ता बलवान् परमेश्वर के लिए है। (इदम् ) यह (मम ) अकेली तेरी () नहीं। 

. ओ३म् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा इदमादित्याय व्यानाय इदन्न मम  

अर्थ-(ओ३म् ) परमात्मा ( स्वः ) ब्यान अर्थात् व्यापक है। ( आदित्याय ) अखण्ड (व्यानाय ) सर्वव्यापक परमेश्वर अथवा शरीर व्यापी व्यान वायु के लिए ( स्वाहा) सुन्दर आहुति है। ( इदम् ) यह (आदित्याय) अखण्ड (व्यानाय ) व्यापक परमात्मा तथा व्यान वायु के लिए है। (इदम) यह (मम) मेरी अकेली () नहीं। 

. ओ३म् भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापान व्यानेभ्यः स्वाहा इदमग्निवावा दित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः इदन्न मम  

अर्थ-(ओ३म् ) परमात्मा (भूः) प्राण ( भुवः) दुःख नाशक कर्ता (स्वः) सर्वव्यापक सुख स्वरूप है। अग्निवायु 

आदित्येभ्यः) सर्वव्यापक बलस्वरूप तथा अखण्ड (प्राणअपान व्यानेभ्यः) प्राणस्वरूप दुःखनाशक तथा सर्व व्यापक परमेश्वर के लिये अथवा गति शील इत्यादि विशेषणों वाले प्राण आदि वायुओं के हितार्थ (स्वाहा ) यह सुन्दर आहुति है। ( इदं) यह ( अग्निवायु आदित्यभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः ) इन विशेषणों वाले ईश्वर और प्राणों के लिये है। ( इदम् ) यह (मम) मेरी () नहीं। 

पहले परमात्मा की ज्योतिष्मत्ता का चिन्तन सूर्य तथा उषा के प्रकाश द्वारा किया। अब उसकी शक्ति, उसकी व्यापकता तथा आनन्ददायित्व का चिन्तन प्राणों की उपमा से करते हैं। अचिन्त्य के चिन्तन की विधि उन पदार्थों का अवलोकन है जिन में उन के गुणों का कोई अंश झलक सके प्रतिमापूजन से उस के किसी गण का भान नहीं होता। 

प्राणायाम करने वग्ले को हवन की सुगन्धि अतीव लाभकारी है। वायु में औषधों का संचार कर प्राण के लिए सुख की सामग्री इकट्ठी कर दी है। 

ओ३म् पापो ज्योतिरसोऽमृतं ब्रह्मभूर्भुवः स्वरोम् स्वाहा। 

अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( आपः) सर्वव्यापक (ज्योतिः) प्रकाशस्वरूप ( रसः ) आनन्दस्वरूप ( अमृतम्) अमर (ब्रह्म) सब से बड़ा (भूः) जगत का प्राण (भवः) दुःखनाशक (स्वः) सुखस्वरूप (ओम् ) रक्षक है। (स्वाहा ) यह सुंदर वाणी हैं। 

१० पूर्णाहुति ओ३म् सर्व वै पूर्ण स्वाहा ओ३म् सर्वां वै पूर्ण स्वाहा ओ३म् सर्व वै पूर्ण खाहा  

अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( सर्वम् ) सब तरह (वै ) निश्चय से ( पूर्णम् ) पूर्ण है ( स्वाहा ) यह अच्छी वाणी है अथवा परमात्मा को साक्षी कर यज्ञ को पूर्ण किया है। अपूर्ण मात्मा जितना पूर्ण परमात्मा का ध्यान करेगा उतना उसका श्रुटियां मिटाकर पूर्णता आयेगी। 

११ ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः __ अर्थ🙁ओ३म् ) हे परमात्मन् हमें (शान्तिः३) तीनों प्रकार की शान्ति दीजिए। 

यश के अन्त में शान्ति कहने का अर्थ यह है कि शान्ति अकर्म में नहीं पूर्ण साहस के साथ यज्ञशील रहने से ही त्रिविध शान्ति प्राप्त होती है आलसी को निद्रा का सुख भी नहीं मिलता अवकाश का सुख वह भोगते हैं जो अवकाश नहीं करते। 

१२ सायंकाल का हवन

. मोश्म अग्निज्योतिज्योतिरग्निः स्वाहा। अर्थ-(ओ३म्) परमात्मा ( अग्निः) सर्वज्ञ (ज्योतिः) प्रकाश है और ( ज्योतिः ) प्रकाशवरूप ( अग्निः) सर्ववित् है । भौतिक अग्नि भी प्रकाश है। ( स्वाहा ) यह सुन्दर माहुति है। 

भोम् अग्निवों ज्योतिवेच स्वाहा अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा (अग्निः) सर्वज्ञ ( वर्चः) तेजः स्वरूप है। तथा (ज्योतिः ) प्रकाशवरूप (वर्चः ) तेज का पुञ्ज है ( स्वाहा ) यह सुन्दर आहुति है। 

. मोश्म् अग्निज्योतिज्योतिरमिः खाहा अर्थ हो चुका है। 

. ओ३म् सजूदेवेन सवित्रा सजूराश्येन्द्रवत्या सुषाणो अग्निवेंषु स्वाहा। 

अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( देवेन ) प्रकाशस्वरूप ( सवित्रा ) प्रेरक से ( सजूः) मिलकर [ इन्द्रवत्या ] प्रकाश युक्त [राश्या] सन्ध्या वेला से [ सजूः] मिलकर [जुषाणः] सेवन करता हुआ अग्निः [वेतु ] चमके [स्वाहा ] यह सुहावनी वाणी है। __ प्रातःकाल सूर्य था अब अग्नि है सन्ध्या वेला का रङ्ग उषा का सा ही होता है। शेष सब कुछ वह है जो प्रातः था समय पलटा है समा नहीं पलटा।। 

इस मन्त्र से यह स्पष्ट हो गया कि सायंकाल का हवन रात्रि होने से पूर्व करना चाहिये। उस के पीछे सन्ध्या वेला का सुवर्णमय तेज दीखेगा कीटकों के अग्नि में गिर कर मरने का भी भय रहता है जिस में हिंसा दोष लगता है 

इन आहुतियों के पीछे व्याहृतिआहुतियां प्रातःकाल की भान्ति उन्हीं मन्त्रों से दें। ऐसे ही पूर्णा हुति ___ यदि प्रातः सायं दोनों समय हवन कर सकें तो प्रातः काल ही पहिले [ सूर्यो ज्योतिः ] इत्यादि से चार आहुतियां, फिर [ अग्निज्योति से चार, तत्पश्चात् व्याहृति और पूर्ण आहुतियां डालें। 

गुरुकुलों में प्रयुक्त होने वाले विशेष मंत्र। ___ गुरुकुलों में साधारण नैत्यिक हवन के पीछे वेदारम्भ संस्कार के लिए हुए व्रत पालन के पांच मन्त्र और पढ़े जाते हैं, और उनके साथ एक आहुति दा जाती है। मन्त्र और उन के अर्थ यह है

ओ३म् अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तत्ते प्रब बीमितच्छकेयम् तेनासमिदमहमन्तात्सत्य मुपेमि स्वाहा इदमग्नये इदन्नमम  

अर्थ :–(ओ३म् अग्ने) हे शानस्वरूप ओ३म् (व्रतपते) व्रतों के पालने वाले ! मैं ( व्रतं ) व्रत का (चरिष्यामि ) आच. रण करूं ( तत् ) वह (ते) तुझ से (प्रत्रवीमि) प्रकटतया कहना हूं (तत्) इस में (शकेयम् ) मैं शक्त होऊं (तेन) उस से (अध्यासम् ) मैं समृद्ध होऊ। ( अहं ) मैं ( अनृतात् ) असत्य से [ मुक्त होकर ] ( इदम् ) इस ( सत्यम् ) सत्य को ( उपैमि ) प्राप्त होता हूं ( स्वाहा ) यह सुन्दर वाणी है (इदम्) यह ( अग्नये ) ज्ञान स्वरूप के लिए है (इदम् ) यह ( मम ) मेरी अकेले की () नहीं। 

ओ३म् वायो व्रतपते…..”‘इदन्न मम  

अर्थः-(ओ३म् वायो ) हे बल स्वरूप ३म् ! …… …….”शेष पूर्ववत्  

यज्ञ शेष : पण्डित चमूपति जी

यज्ञ से जो भोज्य पदार्थ बचे उसको यज्ञ शेष करते हैं। इसे शास्त्रों में अत्युत्तम भोजन कहा है। हव्य देवताओं का भोज्य है। अपने से उत्तम भोज्य देवताओं के अर्पण करना होता है। यह नहीं कि आप तो खोर खाई और खाली पिच के पिंड बनाकर देवों के गाल में डाल दिया। 

यहां न ब्राह्मणों के कल्पित देव हैं न पितरों के पिंड ही उन का आहार है। यज्ञ संसार चक्र है। जाति तथा समाज का हित साधन ही वास्तविक यज्ञार्थ कर्म है। यही वस्तुतः देव ताओं का अर्चन है ।। ३३ करोड़ देवता भारत की ३३ करोढ़ प्रजा है। मानुषीय जीवन का प्रथम साध्य जातीय हित है। तभी तो स्वामी जी कहते हैं-संसार का उपकार करना आर्य समाज का मुख्योद्देश्य है । इससे जो बच जाय वह व्यक्तित्त्व है । जाति पहिले, व्यक्ति पीछे। 

रामायण में लक्ष्मण ने अकेला मिष्टान्न खाना पातक गिना है । वेद में आता है-केवलायो भवति केवलादी। अर्थात् अकेला भोजन करनेवाला केवल पापान्न खाता हैं। मनुस्मृति तथा गीता इस सिद्धान्त की पुष्टि करती हैं । कमाई वही सफल हैं जिस में औरों का हिस्सा हो। 

वाइसराय की कौंसिल में भारतीय प्रतिनिधियों को यह उलाहना मिला कि क्या तुम स्वराज्य इस लिये चाहते हो कि जिन अब्राह्मणों को तुम अपने कुए का पानी पीने नहीं देते, अपनी दरी छूने नहीं देते, अपने देवता पूजने नहीं देते उन पर और अत्याचारों का अवसर पाओ ? अब वह यथा तथा जीते तो हैं । फिर उनका जीना भी वाधित करना चाहते हो ? यज्ञ शेषभोजी मालवीय उठे और कहा कि ब्राह्मणों की ओर से मैं वकील होता हूं । पहिले अब्राह्मणों को स्वराज्य दे लो। जो बचेगा हम खा लेंगे। यही यज्ञ – शेष है। जाति तथा समाज का अङ्ग होता हुआ भी मनुष्य अपने व्यक्तित्व के आगे आंखें नहीं मूंद सकता । अहंकार को कितना विशाल रूप दो। सारे जगत् को ‘अहम्’ दृष्टि से देखो । एक विन्दु अवश्य ऐसा रह जाएगा जो व्यष्टि को समष्टि से अलग दिखाएगा । क्या उस बिन्दु की उपेक्षा करलें । सम्पूर्णवृत्त, संपूर्ण चक्र के घुमाव में विन्दु का प्रभाव अलग है। सूर्य सौर ब्रह्माण्ड को घुमाता है। परन्तु उसकी अपनी केन्द्रानुवर्तिनी गति भिन्न है । ऐसे ही जातीय तथा मानुषीय उन्नति पर अलग भी ध्यान देना होता है । जाति के पेट के साथ २ अपना पेट भी भरना है। अपने हित को रोकना नहीं किन्तु जातीय हित से अपना हित गौण रखना है ? पढ़ाने वाला पढ़ाता तो जाय परन्तु अपनी पाठोन्नति न रोके । धन दे पर साथ २ कमाए भी । सूर्य स्वयं न फिरे तो जगत् को भी फिरा न सके। 

राष्ट्रीयता तथा जातीयता का प्रादुर्भाव तब होगा जब उदर देव से पहले रुद्र देव को अपने लहू से तृप्त किया जाये गा। आक्षेप करने वाले कहते हैं, पुरातन आर्य यज्ञों में गौ की, वकरी की, पुरुषों की, अश्वों की, और अपनी आहुति देते थे। आर्य सहम जाते हैं और कह उठते हैं ‘नहीं । हम तो अहिंसक हैं। हमारी दृष्टि में यज्ञ में अर्थात् जाति की रक्षार्थ पशु, पक्षी, बालक, बालिका, मित्र, अमित्र सब की बलि हमारे पूर्व पुरुष देते थे और हमें देनी चाहिये । सबसे उत्तम, सबसे प्रबल, सबसे प्रभूत तर शक्तियां जाति के पहिये में लगादो। जो बल बच जाय, वह अपनी ऋद्धि सिद्धि में प्रयुक्त करो। देवताओं का दिया हुआ खाओ वह उत्तम प्रसाद है। 

७ सर्व वै पूर्ण यज्ञ समाप्त हुआ । अब पूर्ण आहुति दिया चाहता है। देखले अग्नि बुझ तो नहीं गई ? मन्त्रों का ठीक उच्चारण हुआ ? स्वाहा सार्थक है ? आहुतियों में इदन्नमम का भाव रहा ? यज्ञ शेष खाने से पहले यज्ञार्थ कृत्य पूर्ण कर । 

इदन्नमम : पण्डित चमूपति जी

श्री कृष्ण गीता में कर्म के रूप बताते है एक स्वार्थ, दूसरा यशार्थ उनकी रष्टि में स्वार्थ कर्म बन्धन का हेतु है और यक्षार्थ कर्म मोक्ष का। 

यज्ञ का अर्थ हम पीछे स्पष्ट कर चुके हैं जो कर्म व्यक्ति गत लाभ के लक्ष्य से किया जाता है, वह स्वार्थ है, और जो समष्टि के कल्याणार्थ किया जाता है, वह यज्ञार्थ है  

समष्टि में व्यष्टि सम्मिलित है। व्यक्तियों से जातियां बनती हैं जातियों के उत्थान से व्यक्तियां वञ्चित नहीं रहती। स्वार्थ सिद्धि यज्ञार्थ से स्वतः होती है। वस्तुतः स्वार्थ और यशार्थ में भेद नहीं संकल्प भेद तो है परन्तु क्रिया एक ही है। 

कोई रोटी खाता है इस लिये कि में मोटा होजाऊ, कोई मोटा होता है इस लिये कि मैं जाति की रक्षा करूं पहला • स्वार्थी है, दूसरा यज्ञार्थी है। 

यथार्थ स्वार्थ यज्ञार्थ है मनुष्य समाज की रचना ऐसी है कि जातियों के उठाए बिना व्यक्तियां उठ नहीं सकतीं एक आङ्गल व्यक्ति का संसार भर में वही अधिकार है जो उसके उसके देश ने अपने गौरव से प्राप्त किए हैं भारतवासियोंका भारत दण्डपद्धति अमरीका में भी पीछा नहीं छोड़ती गोखले को तुम नीतिश कहो, बुद्धि निधि कहो, दक्षिण अफ्रीका में में कुलियों का राजा कहाता है। व्यक्तिगत आचार को कौन पूछता है अन्य देशों में भारतीय भारतीय होने के कारण undesirable अशुभ हैं । रवीन्द्र जगत् भर के बड़े कवि हैं। पूर्व पश्चिम में पूजे जाते हैं परन्तु किसी स्वाधीन जाति के महा कवि की तरह गर्दन सीधी करके नहीं चल सकते कोई लखपति हो देश दरिद्र है, तो उसका धन भी अपने देशवासियों के ही परिमाण के अनुसार प्रचुर होगा। उन देशों के धनपतियों का सान्मुख्य यह नहीं कर सकता जहां सामान्य जनता लाखों में लेटती है। 

मूखों में विद्वान् विद्वान् रहेगा। विद्या की वृद्धि विद्या प्रचार से होता है धन की तरह यह सम्पत्ति प्रयोग से बढ़ती है। भारत को धन धान्य से दरिद्र किसने किया कृपणता ने। भारत का गुण ज्ञान क्यों धूलि धूसरित हुआ कृपणता से अपना कौशल लोगों से जितना छिपाओगे, उतना तुम से छिपेगा। वैभव विभु है। खुली हवा में बढ़ता फूलता है। संकुचित स्थान में इस का दम घुटता है। 

परमात्मा सब के हैं, तू सब का हो। भक्त कहते हैं, अपने जीवन को डोर प्रभु के हाथ में दे और स्वयं अपने इष्ट, अनिष्ट से निश्चिन्त हो जा। क्या इसका यह अर्थ है ? स्वयं धनोपार्जन छोड़ दे। तुझे परमात्मा धन देंगे? रोटी खा पका, परमात्मा तेरी रोटी खा छोड़ेंगे। 

परमात्मा स्वयं सजग है, और सजगों का ही साथ देते हैं अन्धों को लाठियां परमात्मा ग्रहण नहीं करते। परमात्मा 

की इच्छा का जो मार्ग है वही शुभ है। किसी मनोरथ से, किसी उद्देश्य से संसार का यज्ञ सम्पादित होता है मनुष्य का कल्याण इसमें है कि उस मनोरथ को जाने, उस उद्देश्य को परमात्मा के मन्त्रोच्चारण के साथ अपना मन्त्रोच्चारण करे, उनकी स्वाहा पर अपनी तन मन की आहुति डाले। एक आहुति परइदन्नममकहे अर्थात् यह आहुति मेरे अपने लिये नहीं है इदमग्नये, इदं सोमायका अर्थ परमात्मार्पणहै। परन्तुअग्नयेकहनेका यह अर्थ नहीं किअग्निको उत्तरदाता बना कर स्वयं उत्तरदातृत्व से मुक्त हो जाए जीवों के संपाद्य कार्य जीवों को करने हैं। परमात्मा उनका स्थान नहींलेने हांपरमात्मा की आज्ञा समझ कर अग्नि की ज्वाला को देख कर डाली हुई आहुति सफल होती है। 

परमात्मा का नाम लेने से जहां स्वार्थ वृत्ति का नाश होता है, वहां यज्ञार्थ वृत्ति आजानी चाहिये स्वार्थी को अपनी चिन्ता है, यज्ञार्थी को सारे ब्रह्मांड की। यह हो कि अपनी चिन्ता भी छोड़ बैठो और ब्रह्मांड की भी चिन्ता करो। 

स्वामी दयानन्दइदन्न ममका यथार्थ अर्थ समझे हैं आर्य समाज के पहले पांच नियम स्वार्थ के लक्ष से हैं, तो अन्तिम पांच यशार्थ के लक्ष के हैं। 

यथानियम . संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्योद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। 

नियम . सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार वर्तना चाहिए। 

नियम . अविद्या का नाश विद्या की वृद्धि करनी चाहिए। 

नियम . प्रत्येक को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट रहना चाहिये, किन्तु सक की उन्नति में अपनी उन्नति सम झनी चाहिये। 

इससे और स्पष्ट सामाजिक सिद्धान्त क्या हो। लोग स्वार्थ छुड़वाते हैं। स्वार्थ छूटता नहीं। स्वामी यज्ञार्थ को यथार्थ स्वार्थ बताता है। यही अर्थ इदन्न ममका है। अर्थात् यह आहुति एक मेरी नहीं, सब की है, और सब में मेरी है। 

ममता और अहंकार के शत्रु संसार भर में विद्यमान हैं। क्या समाचार पत्रों और क्या व्याख्यानवेदिकाओं सब में इसी तुरी का नाद है कि ममता छोड़ो, अहंकार का बीज रखो तथ्य यह है, श्रोता तो श्रोता लेखक तथा वक्ता भी तो ममता और अहंकार के अवतार हैं। 

ममता नहीं छूट सकती, अहंकार का नाश नहीं हो सकता, पर बढ़ाने की वस्तु है विशाल मम अपवाद के योग्य मम नहीं रहती। संकुचित अहम् मोह है, अभिमान है विस्तृत 

अहम् बैराग्य, है, नम्रमा है। परमात्मा के संकल्प को जान कर जब अपना संकल्प उस के अनुकूल कर दिया, जब अपनी आहुति उस की स्वाहा सुन कर स्वाहा को, तो फिरइद. मग्नयेऔरइदं मह्यम्में भेद रहा। 

समूह में अपने आप को मिला देना अपना और समूह दोनों का भला करना है। समिति को अपनी सुयोग्य सम्मति देना समिति का हित करना है। जाति से अपना अभाव करना जाति को जहां तक अपने जीवन का सम्बन्ध है उतना मृत करना है सब व्यक्तियां अपने आप को जाति से अलग कर दें तो जाति रहे परन्तु सम्मति देकर उस पर हठ करना, दूसरों के युक्त मत को भी लताड़ कर अपने यज्ञ को जय चाहना संकुचित ममता है। स्वामी जी कहते हैं 

नि० १०सब मनुष्यों को सामाजिक सर्व हितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें। 

___ यही सिद्धान्त एकता प्राण है ।। सर्व हितकारी नियमों में व्यक्तियों की पारस्परिक परतन्त्रता सामाजिक तथा जातीय स्वतन्त्रता है। तभी तो एक आहुति परइदन्न मम” “इदन्न ममकह कर यज्ञ को समूहसात् बनाया जाता है व्यक्तिसात् नहीं। 

स्वाहा: पण्डित चमूपति जी

स्वाहा सुन्दर आहुति हैं वह आहुति जिस ऋतु अनुसार इस समय के रोगों को नाश करने के लिये डाली जाय बुखार के दिनों में चिरायता, गिलोय इत्यादि ज्वर नाशक पदार्थ हो अन्य व्यधियों में उन्हीं के लिये उपयोगी सामग्री हो यह स्वाहा हैं। 

सामग्री में मिष्ट, पुष्टि प्रद, रोग नाशक तथा सुगन्धि युक्त सभी प्रकार पदार्थ हों। 

सौषधि सेवन तीन रूपों में होता है एक तो ठोस वस्तुओं को पीस कर कूट कर, पाक बना कर दूसरा द्रव रूप अर्थात् जोशादा तथा अर्क अथवा शर्वत की अवस्था में, तीसरे वायु में मिलाके, बाष्प तथा धूम के रूपमें। 

पहिला प्रकार अतीव स्थूल है। इस से लाभ तो हैं परन्तु मल अधिक बनता है इस विधि से सूक्ष्म विधि जला कार है। फोग निकाल कर औषधि का सार पानी में हल कर देते हैं इस के प्रयोग से मल बनता है परन्तु थोड़ा इस विधि से भी सूक्ष्म वायु रूप है। वावु का प्रवेश उन अङ्गों में हो सकता है यहां जल तथा पाक जा सकें। यह लाभ भी हो जाय और मल भी बने रोग नाश का यह विधि उत्तम विधि है। 

उदाहरण सौफों का सेवन ही ले लीजीये सौफों के फाकने से उदर शुद्ध होता है सौकों के अरक से भी यह काम निकल आता है परन्तु सुभीता अधिक रहता है कहीं यह विधि चल सके तो वैद्य रोगी के शरीर को कपड़े के अन्दर लपेट कर अन्य प्रकार के वायु को रोक कर सौफों की धूनी देते हैं पसीने में मल निकल जाता है। 

एमेरिका में बुखार के दिनों में उबला हुवा क्वीनीन नालियों में वहा छोड़ते हैं जिससे ज्वर नाशक वाष्प वायु में फैल जायें और रोग नष्ट हो  

पाठक इस तत्त्व को स्वयं जानता होगा कि ठोस से द्रव और द्रव से मारूत रूप अग्नि द्वारा प्राप्त होता है अग्नि पर भट्ठी चढ़ा कर अरक निकालते हैं और अग्नि का अधिक प्रयोग करके वाष्प बनाते हैं यही यज्ञ है। 

___ “हुधातु का अर्थ दान है सुन्दर आहुति सुन्दर दान है। जिस प्रकार संसार का उपकार यज्ञ द्वारा होता है वैसा किसी और प्रकार ले नहीं होता आहुति मारुत रूप में जगत् भर में फैल जाती है। 

__”हु” धातु का अर्थ खाना भी होता है सो सुन्दर आहुति सुन्दर खाना भी है ठोस तथा द्रव खाने से मारुत खाना अच्छा है क्योंकि एक तो सूक्ष्म होने से सुगमतया ग्राह्य है बालक ही इससे नाक मुंह सिकोड़ता है वृद्ध  दूसरा मल रहित है पहुंच भी नाड़ी नाड़ी नस नस में जाता है। 

___ स्वाहा का तीसरा अर्थ है अच्छा कहा हुवा स्वामी जी यज्ञ में स्वाहा शब्द के प्रयोग का प्रयोजन यह बताते हैं कि जो मन में हो वह वाणी में आए और जो वाणी में आये वह शरीर द्वारा अनुष्ठान किया जाये। 

हवन में वेद मंत्र पढ़ने का विधान इस लिये है। अग्नि होत्र का चिन्ह मात्र तो अब भी आर्य जाति में शेष रह गया है कच्ची ईट पर जो शुद्ध मट्टी की बनी हुई हो, जंडी की दों शाखायें जला कर उस पर थोड़ा सा सुगन्धित पदार्थ डाल लेते हैं वृद्धो यह क्रीड़ा क्यों करते हो कहेंगे देवताओं की प्रसन्नता के लिए अर्थ देवों का आता है प्रसन्नता का वास्तव में अग्नि जल आदि ही देव हैं और इनकी शुद्धि प्रसन्नता कहाती है संस्कृत में प्रसन्नता का अर्थ मल शून्यता है। शकुन मात्र शेष रहने का कारण यही है कि वास्तविक अग्निहोत्र के पूरे निधान तथा प्रयोजन का पता नहीं स्वाहा सार्थक नहीं रहा। 

___ अग्निहोत्र में जो मंत्र पढ़े जाते हैं उन मंत्रों में से एक एक में अग्निहोत्र का माहात्म्य, उसके लाभ विधि तथा फल को कविता के तत्त्वद्योतक प्रकार से दर्शाया गया है। 

___ इन मंत्रों का रटन मात्र पर्याप्त नहीं स्वाहा तो उस मंत्र के पीछे यथार्थ होगा जिसका अर्थ मन में स्फुरित हो 

और डच्चारण जिह्वा से कियाजाय तत्पश्चात् शारीरिक व्वव हार उसके प्रतिकूल हो, अनुकूल हो। मन वाणी तथा काया के एक स्वर, एक ताल में आजाने को स्वाहा कहते हैं। 

योगी का वचन निष्फल कहीं होता जिस वाक्य की पुष्टि में, मानसिक दृढ़ता हो, वह अमोघ है आधे से अधिक जगत् पर हमारे मन की शक्ति का राज्य है प्रार्थना और सङ्कल्प वल शाली यत्न है स्वामी दयानन्द समाधि में हैं। एक वैश्या उनकी पवित्रता नष्ट करने की इच्छा से जाती है। साहस नहीं होता कि योगी के व्रत का अनिष्ट चाहे दूसरी वार वलात् भेजी जाती है तो वैश्यावृत्ति को ही छोड़ बैठती 

सामूहिक सङ्कल्प संसार भर का तख्ता पलटने वाली, सेना से बढ़ कर है जहां अनेक मन एक सूत्र में पिरोये जाकर एक माला के दाने बन गये हों उनका एक जप, एक तप, एक समाधि तथा संयम हो वहां सो सिद्धि मनोरथ की परिचा रिका होगी। 

__ आज संसार मलिन है। अशुभ विचार, अशुभ आचार, अशुभ व्यवहार का राज्य है इसका और क्या कारण है ? पही कि संसार की सामूहिक कामना शुभ नहीं आर्य यत्न करे तो वेदों के पठन पाठन वेदों के मनन निधिध्यासन से भौर नहीं तो अपनी गली से गाली गलोच, कलह कोलाहल  सेठनियां दोहे दूर कर सकते हैं। 

गुरुकुल में बालक आता है गन्दी गलियों का आवारा गर्द बच्चा गालियां बकता है कोई स्पष्टतया इनका निषेध नहीं करता समय बीतने यह स्वयं ही बकवाद छोड़ वेदभाषी हो जाता है कारण कि वहां का वायुमण्डल पवित्र है, आकाश वेदमय है। 

मनुष्य का कहा वाक्य व्यर्थ नहीं जा सकता बिना तार के और तार सहित शब्दों के एक जगह से दूसरी जगह पहुंचने तथा ग्रामोफोन आदि यन्त्रों में सुरक्षित रहने से स्पष्ट है कि शब्द नष्ट नहीं होते हैं, वायु में अटक जाते हैं। और जो अन्तःकरण उस वायु में आता है उस पर प्रभाव डालते हैं। 

एक महाशय एक स्थान का वर्णन करते हैं कि वहां बैठे हुवे मनुष्य के शिर पर से गुजरते हुवे कव्वे, चीलें तथा ऐसे और अबोध पक्षी तकसोऽहम्का उच्चारण करते थे। उस स्थान से पृथक् हुवे सो वहीं कांय चूँ चूँ परन्तु वहां फिर आये तो सोऽहम्  

उन्हों ने इसको निदान जानना चाहा ! उन्हें बताया गया कि वहां तपस्वियों ने निरन्तर सोऽहम् का जाप किया है। किसी पाप के कारण पक्षी योनि प्राप्त होगई है उनका साधारण आलाप तो उसी योनि विशेष का आलाप है जब इस स्थान पर आए हैं तो पिछला अभ्यास स्मरण आता है और विवश सोऽहम् कह उठते हैं। 

इस समाधान से उनका सन्तोष हुवा अन्त में किसी योगी उसने उनकी शङ्काएँ निवृत्त की कि कथित स्थान किसी योगी की कुटी था सदैव के जापसे सोऽहम् शब्द वहां के वायु में जम गया है जैसे ग्रामोफोन के रिकार्ड पर कोई भी सुई चलावो! वही शब्द निकलेगा जो रिकार्ड की रेखाओं में रक्षित हैं। ऐसे ही इस स्थान पर जो भी शब्दोत्णदक कला लाई जावेगी ध्वनि वही सोऽहम् ही निकलेगी। 

सन्ध्या का समीचीन स्थान एकान्त है। आदि में जबकि अभ्यास नहीं सन्ध्या समूह सहित करनी चाहिये जब चित्त वृत्ति एकाग्र हो जाए, और अकेले आंखें मूंदने पर संकल्प विकल्प व्याकुल करें तो सन्ध्या मन में ही करनी उचित है। इसके विपरीत हवन सदैव समूह सहित करने का यज्ञ है। योगी भी हवन करें तो औरों में बैठ कर, और ऊंची स्वर से मंत्रों का पाठ करके यदि आर्यसमाजी गली गली में यज्ञशाला निर्माण कराएं और उसमें नित्यं प्रति देव यज्ञ का अनुष्ठान करें तो उनकी सम्मिलित स्वर इकडे वेद मन्त्रोच्चारण, एक साथ आहुति प्रक्षेपण, एकीकृत संकल्प, एक क्रिया से जाति तो जाति, संसार भर का कितना भूला हो अणु में वेद छा जाएँ घर में वेदों का नाद हो भवन वेदमय हो जिह्वा वेदमय हो देह वेदमय हो। आत्मा वेदमय हो। 

अग्नि: पण्डित चमूपति जी

एक अग्नि भौतिक एक आत्मिक भौतिक अग्नि चूल्हे में जलनी है, कुण्ड में प्रदीप्त होती है, कलाओं की चलाती हैं, कहीं उष्मा और कहीं प्रकाश का कारण होती है। दो पदार्थ आपस में टकराते है। संघर्षण से गर्मी निकलती है। वैज्ञानिक कहते हैं विद्युत् है याज्ञिक विद्युत् को अग्नि का रूप मानते हैं। परोक्ष रूप में विद्युत् स्थान में काम कर रही है। अणुओं का का गुण गति है। और गति और उष्मा सहवर्ती हैं  

प्राणियों का जीवन प्राणों की गति से है। जब तक प्राण चलते हैशरीर में उष्मा बनी रहती है। प्राणों का तांता रुका और शरीर ठण्ढा हुआ। लोक में ठण्डक और मृत्यु पर्याय है। 

यही प्रलय और सृष्टि का भेद है प्रलय में परमाणु सुप्त होते हैं। सुप्त लुप्त होता है सृष्टि परमाणुओं की प्रवृत्ति का नाम हैं। पहला कम्पन आधुनिक संसार का पहला जन्म अलग करो चलने परमाणु टकराते हैं। उनमें विद्युत धूम जाती है ! यज्ञ चल पड़ता है। 

ऐसे हो आत्मिक जगत् में उत्साह अग्नि है आलस्य मृत्यु जागृति जीवन हैं, सुषुप्ति मृत्यु है आत्माभिमान जीवन, आत्म हानि मृत्यु अग्नि शब्द जीवन के इन सब लक्षणों का पर्याय हैं यह सोच कर पट्टो मुह पर मत बांधो कि श्वास प्ररश्वास से प्राणी मरेंगे चिऊटियां कुचल जाने के भय से गुफ़ा में टिके रहने से अहिंसा व्रत का पालन नहीं होता। ऐसी अहिंसा जड़ पदार्थ कर लेते है अहिसा में हिंसा का निषेध हैं तो इसके विरोधी धर्म रक्षा की भी विधि है। योगी वह है जो क्रियात्मिक धर्म का पालन करें। निष्क्रिय अहिंसा तो राख द्वारा भी पलित है उस पर चिऊटियां चढ़ती है परन्तु उसमें शक्ति नहीं कि उनका वाल वांका कर सके अग्नि जलने की शक्ति रखती परन्तु वचाव हैं भी उसी से होता है शतघ्नी रणक्षेत्र में सैकड़ों का नाश करती है परन्तु इसी नाश से सहस्रों और लक्षों का त्राण हो जाता है। युद्ध जातीय जीवन का आवश्यक अंग है। क्षत्रिय अपना क्षय करता है दूसरे को त्राता है। यह रहस्य मुझे क्ष और त्र ने बताया दुष्टों का संहार अहिंसा है आयों का परित्राण अहिंसा हैं। ऐसे ही सत्य ऐसे ही अस्तेय जव तक अग्नि है तब तक धर्म हैं जव राख हुवे तव राख से अधिक कुछ नहीं। 

यज्ञ का मुख्य देवतो अग्नि है वेद इसे हव्य वाट कहता है। अर्थात् हव्य पदार्थ उठा ले जाने वाला। इसके बिना यश कीसफलता नहीं दूसरे देव अग्नि की बाट देखते हैं 

हवन मंत्रों में से इसेअन्नादकह कह पहिले तो इस तत्त्व की और सङ्कत किया है कि यह हव्य खा जाता है पन्तु किस निमित्त उसी श्वास में कहते हैं अन्नाधाय अर्थात् खाने योग्य अन्न देने के निमित्त अग्नि देवताओं का दूत है हवि को अकेला आप चट नहीं करता। अन्य देवताओं तक पहुँचाता है मुखिया होकर उनके सेवक का काम करता है। देवताओं द्वारा खाया हुआ यज्ञ फल रूप में यजमान को लौट आता है। 

यथा ब्राह्मण वर्ण जातीय देह का मुख होकर उसके दिये धन धान्य को खाते हैं परन्तु स्वयं उसकी इति श्री नहीं करते ब्राह्मण के लिये स्वाद का दास होना हलाहल विष है। उसके खाये का उपयोग सारी जाति के लिये है। स्वामी होकर सब का सेवक बनता हैं ऐसे ही अग्नि अपने 

उदरसे दूसरों की उदर पूर्ति करता है। 

यज्ञ की उन्नतिशील यज्ञकी अग्नि सजग, यज्ञ की अग्नि पुनीत और पावन, यज्ञ की अग्निस्वयं प्रकाश दूसरों के लिये प्रकाशमय यज्ञ की अग्नि अपने खाने के बहाने दूसरों को खिलाने वाली। 

इस जोत के जगाने से यजमान की आत्मा में जलता पुरुषार्थ, जलता उत्साह, जलता तेज और जलती परोपकार की लगन आती है हम पर विश्वास नहीं तो यही कथन जलती ज्वालाओं की जाज्वल्यमान जिह्वाओं से  सुनलो। 

यज्ञ : पण्डित चमूपति जी

लोग पद्य से उतरते हैं, परन्तु कोरो गद्य से काम नहीं चलता आजका संसार गद्यमय है कवियो की कल्पना को सोतों का स्वप्न कहकर शुष्क विज्ञान में जागृति दंडने चले हैं परन्तु जो सच पूछो तो है बात बात में पद्य उपमा और रूपक के बिना एक वाक्य नहीं कहते भला संसार को संसार ही क्यों कहो ? इसमें सृति है। गति है यह कविता नहीं तो क्या है ? और सब गुण भुलाकर सृति मात्र से संसार का कहना कहां का सूधा विचार है। लो और उदाहरण लो काम चलता है ! भला काम भी चला करते है? जड़ में गति कैसी ? बात बात में कविता भरी है। 

संसार के लिये उपमाओं की दंड हुई। किसी ने कहा विवाह मन्दिर है। विवाह मन्दिरों में बराती निमन्त्रित होते हैं उनका काम दूसरों के व्यय से स्वयम् भोग विलास करना है। वह खाएंगे, पीयेंगे। यह चिंता औरों को होगी कि वृथा सैंकड़ों पर पानी फिरा जाता है। ऐसों की दृष्टि में संसार मोद का स्थान है खा, पी, और मौज मनाइस तत्व की व्यवस्था मात्र ही मनुष्य का जीवन है यूरोप वाले इसे  एपिक्यूरिमन सौर भारतीय इसे चारवाक सिद्धान्त कहते हैं। वस्तुतः प्रत्येक जाति तथा विचार के समुदाय में क्रिया त्मिक एपिक्यूरिमत और चारवाक खुले फिरते हैं। 

एक और कवि वैराग्य वान् था वह नित्य प्रति शव उठते देखता था उसने संसार का श्मशान कहा उसके विचार में जन्म हर्ष का अवसर है मरण का मनुष्य रोता हुआ उत्पन्न होता है और रोता हुआ यमदूतों की रखवाली मे कूच करता है इस कमी ने मानव जाती को रोने का पाठ पढ़ाया। कभी नरक का अग्नि से, कभी यमको यातना ओं से डरा डरा कर अधीर आत्माओं को और अधीर किया भय तथा त्रास के अश्रुओं को मानो मुक्ति और सद्गति के बीज ठहरादिया। 

कोई खिलाड़ी इन दोनों सिद्धान्तों पर हंस दिया । कहा संसार रोने की जगह है हंसने की। यहां का सुख भी उतना ही कड़वा है जितना कि दुःख विषयभोग मैं में अनजानों को क्षणिक मात्र आनन्द तो होता है पर पीछे की खिन्नता पहिले के स्वाद को किर किरा देती है। बहुत खाओ अजीर्ण होजावे स्वाद की अति होने से स्वाद स्वादु रहें तृप्ति का परिमाण नियत नहीं आज छटाङ्क से मस्त है, ता कल पाव चाहिये आखिर कहां तकऔर जो शोक ही मे दिन बिता दिये रोते प्रातः रोते सायं की तो इस से हर्ष का वृक्ष कहां सिंच सकता है। 

संसारमें तटस्थ रहना ही अच्छा भौतिक जगत् भोगने के लिये नहीं, देखने के लिये है संसार एक नाट्य शाला है इसका आनन्द दर्शक के भाग्य में है। क्रीड़ा पाज के लिये नहीं उपराम वृत्ति ही सात्विक वृत्ति है। मनुष्य से जितना हो सके अपनी वृत्तियों को सुकेड़े वाणी की सफलता मौन धारण में हैं अङ्गहीन होना अङ्गों का यथार्थ प्रयोग है। कान रखता हुंआ करण रहित हो जाये। इन्द्रियां विक्षोभ का कारण हैं प्रवृत्ति बन्धन की रस्सी है सुख चाहे शुभ हो चाहे अशुभ दोनों का परिणाम अशुभ है। सुख पूर्वक सुख का संग्रह नहीं होता। 

आखिर संसार क्या है ? वर बधू विवाह है ? श्मशान है नाटय शाला है ! क्याहैं ! युधिष्ठर से यक्ष ने यह प्रश्न किया तो उत्तर दिया कि मैं संसार को कटाह पाता हूं : यह भौतिक अग्नि द्वारा तपाया जारहा है। इसमें धन धान्य आदि भोज्य वस्तुएँ पकती हैं और अन्त को काल को गाल में ग्रास बन कर जाता है। 

___ संसार के वास्तविक रूप को कुछ कुछ युधिष्ठिर ने पहचान लिया। इस में अग्नि है। संसार साहस का स्थान है। कोई निवृत्त हो चाहे प्रवृत्ति, इस कटाह में तपोगे कर्म शील कर्जा हाथ में लेकर कटाह को चलाएगा और जलने से बच जाएगा, निष्कर्म भोज्य पदार्थ की न्याई बलात् कटाह में धकेला जायगा काम आओ अथवा काम करो पको अथवा पकाओ इसके अतिरिक्त और विकल्प नहीं। 

वेद में संसार को देवों का यज्ञ कहा है। यही संसार के लिये यथार्थ उपमा है और संसार वासियों के लिये यथोचित शिक्षा भी पुरुष सूक्त मे आया है: अश्म् यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्म शरद्धविः॥ य०१४। 

अर्थात् देवता जिस पुरुष के साथ मिल कर हवि से यज्ञ करते है उसका वसन्त ऋतु घृत है, ग्रीष्म लकड़ी है, शरद् ऋतु हवि है। 

इस मन्त्र मे ऋतुओं को यज्ञ की सामग्री कहा है ग्रीष्म यज्ञ को नपाता है, वसन्त रस देता है। यज्ञ में घृत हो तो यज्ञ शुष्क रहे शरद् वृक्षों के फल फूल, पत्ते, पत्तियां झाड़ कर अपना सर्वम्व स्वाहा करता है तब संसार की सृति होती है। 

__ यश देवों का है संसार में जो शक्तियां काम करती हैं देव है। अपने आप को इन देवों में मिलाने वाला नहीं, इनके देवत्व को देवत्व बनाने वाला मनुष्य देवो का देव हो जाता है। इन सब देवों की साझी आहुति से संसार का यज्ञ पूर्णता 

की प्राप्त करता है। 

हवन के मन्त्रों में एक जगह पृथ्वी कोदेवयजनीकहा है अर्थात् देवों के यज्ञ करने की जगह, एक और मन्त्र में आज्ञा है 

देवा यजमानश्च सीदत। 

अर्थात् हे देवो! यजमान और तुम बैठो और इकट्ठ यज्ञ करो। अभिप्राय यह है कि संसार यज्ञ है इसके अणु अणु में गति है। इस वृक्ष की पत्ती पत्ती कर्म शील है तो मनुष्य जिस का देह इन्हीं परमाणुओं से बना। जो इस समष्टि शरीर का व्यष्टि मात्र अंश ही है। वह भी बिना कर्म के नहीं रह सकता। प्राणियों का सम्पूर्ण जीवन यज्ञ है इस यज्ञ में और आहुति दो, प्राणों को कैसे रोकोगे। सफल वह आहुति है जो विधि पूर्वक हो कोई उल्टी सीधी आहुति पड़ी नहीं और देव कुपित हुए नहीं देव समर्थ हैं उनका सह पक्षी होने में सर्व कल्याण और वैपक्ष्य में सर्वनाश है। 

परमात्मा यज्ञ के ब्रह्मा हैं उनके संकल्प के साथ अपना संकल्प मिलाना शिवसंकल्प होना है स्वाहा वह आहुति है जो उनको आहुति के साथ दी जाए आगे पीछे दी हुई आहुति स्वाहा नहीं होती। 

भारत के अन्न से अपने आपको अन्नाद बनाने वालो! भारत के प्राणों से अपने प्राण बचाने वालो ! यज्ञ करो। भारत का वायु विष हो गया है क्योंकि तुम विष हो भारत का जल नहीं रहा गङ्गा बहती है और तुम्हें मुक्त नहीं करती। हिमा लय खड़ा है और शिव के शत्रुओं का श्वसुराल बन गया है। देव बन कर यज्ञ में अपना सर्वस्व स्वाहा करो देवता तुम्हें आशीष देंगे। 

देव : पण्डित चमूपति जी

वेद को चाहे कोई किसी दृष्टि से पढ़ो, दो भावों के आगे आंखें मूंद सकोगे यूरोपियन भाष्यकार इञ्जील के पूर्वभाग में पशुओं के बलिदान पूर्वक परमात्मा की प्रसन्नता का प्रहास पढ़ चुका है। वह इस विचार को मनुष्य के धार्मिक विचार का प्रथम स्फुरण समझता है उसके पूर्वज अनेक देवार्चन की अबोध क्रीड़ा नित्यंप्रति करते थे। उसवेद में अनेक देवताओं की खोज इसी निमित्त ही तो है कि संसारभर की पूर्वजातियों को अबोध दिखाकर अपने पुरुषाओं की बाललीला पर परदा डाले इसी भाव से प्रेरित होकर सही, पर वह कहता है, और चीख़ चिल्ला कर कहता है कि वेद यज्ञों की पुस्तक है. और उसमें देवों की स्तुति है।

देव और यज्ञयह दो शब्द सनातन आर्य जीवन का संक्षेप हैं आर्य धर्म का सार देवों और यशों में है एक आत्मा है दूसरा शरीर वेद की एक दाहिनी आंख है, दुसरी बाहिनी।

भोला बच्चा सूर्य को निकलता देख कर झट हाथ फैला देता है कि मुझे यह गोला चाहिये चन्द्र की ज्योत्सना देखकर  रोता और चिल्लाता है कि मैं खेलूं तो इसी खिलौने से। आंधी आए, बादल गर्जे, बिजली कूदै वह आंखे मूंद लेता है और माता की गोदी में इस डर से कि देव आया! भूत आया !! हाथ पांव सुकेड़ कर छिप जाता है। यह शान्त शरण मिले तो रोता है, और सहायता के लिये जान अनजान सब को बुलाता है। कभी दीपक पर मुग्ध है, कभी जलती और बुझती चिनगारी पर।

क्या आदि काल में आर्य बालकों ने ऐसी ही बाल चेष्टाएँ की? कभी चमकते खिलोनों पर मचल गये? कभी आंधी और बादल से डर कर गिड़गिड़ाए ? उनकी चीखें, उनकी चिल्लाहट, उनकी चाटुकारी, उनका विनय विलाप वेद की स्तुतियां बनी ?

यह कल्पनाएं यूरोपियनों की हैं। 

वेद की स्तुतियों की स्वर पर ध्यान दो ! उनकी लय पहिचानो! यह रोना है ? चिल्लाना है ? या बुद्धिमानों का भक्तिरस पूर्णगान है

__ आंगल कवि वर्डस वर्थ वर्षा के अनन्तर इन्द्र धनुष तना देखता है तो उसका जी उछलता है वह कहता है बालपन से मेरी यह चेष्टा रही है वृद्ध होने तक इस धनुष की डोरी पर नाचा करूं तो जियूं नहीं तो मर जाऊं। 

इसे बाल क्रीड़ा कोई नहीं कहता यह कविदृष्टि है, यह यह तत्त्ववेत्ताओं का तत्त्वावलोकन है। 

हाँ दरिया के पुजारी दरिया कोदूलाकहते हैं। लेखक सैकड़ों वारदुलेके दर्शन को गया जलोपासकों की प्रेमरस में सनी गीतियां सुनीं भक्तिमद में घंटों डूबा रहा दूलेकी लहरियों पर मनके पांवसे नाचा दूलेकी छाती पर दिये बहते देख कर दीपाल का दृश्य भूल गया। 

पुजारी की गोतियां सुनी तो उनका नाम उन्मत्तगीत, मूढ़ों का प्रलाप रक्खा और इस बात का पता नहीं सभ्य इग्लैण्ड का पूर्णशिक्षित कविरत्न वही वर्डस वर्थ समुद्र के तट पर खड़ा, खीष्टमत को ठण्डी सांस के साथ विदा करता है। उसने ठानी यही है कि बहते बुबुदों में देवों का दर्शन करूं। 

अहा ! दिव्य चक्षुकी दिव्यदृष्टि ! विज्ञान शुष्क था तू उसके लिये उपासना रूपी तैल बनी सूर्य है तो धातुओं का गोलकही प्रकाश इन धातुओं का गुण मात्र है जहां यह धातु इकट्ठे हुए, यही रङ्ग, यही रूप, यह किरणे, यही आग्नेय बाण स्वतः बन जावंगे। परन्तु यह गुण क्यों है ? इन धातुओं से इसका विशेष सम्बन्ध क्या है ? तेरे लिये विज्ञान का भण्डार भक्ति का भण्डार होगया आत्मा को पियास जल क्यों बुझाए ? इसीलिये कि आत्मा भी देव है, जल भी। 

आधे से अधिक जगत् मनुष्यों के हृदय में बसता है इन्द्र धनुष सूर्य की किरणें होती हैं। पानी की किसी आकाश में अटकी हुइ बूंद में विचलित हो गई। किसी कवि से पूछोयह उसके प्रियतम का झला है। कोई देवता आकाश से नीचे उतरा चाहता है कोई उसको झुलाओ भी

वेद की वर्णन शैली में विज्ञान की विद्युत् है परन्तु भक्ति की घटनाओं से घिरी हुई इधर आनन्दधन गर्जता है, उधर शान की रेखा चमकती है। भौतिक अद्भुतालय को आत्मिक देवालय बना दिया है। 

सजीव वर्णन निर्जीव विषय को सजीव बना देता है। वेदमन्त्र का जो विषय हो सो देव बिना प्राण प्रतिष्ठा के जड़ मूर्तियों को चेतन किया है वेद परमात्मा को कवि कहता है। आदिम कवि का पद्यात्मक काव्य शुष्क विज्ञानी का परीक्षणा लय नहीं हो सकता। 

मूर्ख इन कल्पनाओं के आगे हाथ जोड़ते हैं कवियों के हृदय इस कविता का आनन्द लेते हैं। पुजारी शङ्का फंकता है, कवि का हृदय उमड़ता है। मन्दिर में घण्टियां बजती हैं, कवि चुपके चुपके अनहत गीत सुनता है एक ने बाह्य, अन्तरीय दोनों आंखें मूंद ली। वह अन्धी भक्ति में हाथ पांव हिलाया किया। दूसरे का शान चक्षु खुला रहा उसने विज्ञान पूर्वक प्रेमानन्द लूटा। 

तैतीस करोड़ देवताओं पर लोग हंसते हैं। उपासक इतने नहीं, जितने उपास्य हैं। मूढ़ों की उपासना ने उपास्यों की निन्दा कराई। लोगों ने देव शब्द को परमात्मा का पर्याय समझा, तभी से अनेक देवार्चन चले। मेरे प्रभु का निवास 

होने से प्रत्येक अणु देव है। वेद के प्रत्येक विषय की गणना करें तो मुख्य तथा गौण सब मिल मिला कर तैतीस करोड़ से अधिक देवता होते हैं। ऐसे देव तो हम स्वयं भी हैं देव देवों की पूजा क्यों करें? परमदेव परमात्मा सब देवों के देव हैं। उनकी स्तुति, उनकी प्रार्थना, उनकी उपासना जगत् का अणु अणु करता है दूसरे देवताओं का देवत्व इतना ही है कि उन की सुन्दरता में आंखों को स्नान कराए और उनके उपभोग से जोवन को सफल करें। 

देवताओं का देवताओं से व्यवहार हुआ करता है अग्नि, सूर्य, जल, देव कहां हैं, यदि हम उसे दैव न बनाएं। दरिया खेत डुबों दें, अग्नि सर्वस्व जला दे। हमारा सँयोग हुआ। आत्मदेव के नियम में आएं, देव बन गए यही हानि कारक दैत्य परोपकारक देवता बने खड़े हैं। एक नहीं, अनेक स्वर्ग रच लो। 

मनुष्य अति चाहता है। तैतीस करोड़ों से लजाए तोएक ब्रह्मपर उतर आए। कहां तो असंख्य देव माने थे, और कहां वस्तु ही एक रह गयी। प्रकृति मिथ्या, जीव मिथ्या, एक ब्रह्म सत्य इस भ्रम ने और आंखें बन्द कर दी देव दर्शन तो क्या? अदेव दर्शन भी रहा आंख का काम अदर्शन हो गया। 

ब्रह्माण्ड जैसा है, वैसा है। हृदय का ब्रह्माण्ड भौतिक ब्रह्माण्ड का स्थान नहीं ले सकता। दोनों को ओत प्रोत करने 

से जहां वास्तविक ब्रह्माण्ड आत्मिक देवालय बन जाता है, वहां आत्मिक देवालय वास्तविक ब्रह्माण्ड से पृथक् नहीं होता। भक्ति चक्षु शून्य होती है, ज्ञान नीरस  

होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ -रामनाथ विद्यालंकार

होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता: अग्निवायू यज्ञश्च । छन्दः भुरिक् पङिः।

घृताची स्थो धुर्यों पात सुम्ने स्थः सुम्ने मा धत्तम्। यज्ञ नमश्च तऽउप च यज्ञस्य शिवे सन्तिष्ठस्व स्विष्टे मे सन्तिष्ठस्व।

-यजु० २ । १९

हे अग्नि और वायु ! तुम (घृताची ) घृत आदि हवि को फैलाने वाले और मेघ-जल को भूमि पर लाने वाले, तथा ( धुर्यों ) होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ के धुरे को वहन करने वाले (स्थः ) हो, ( पातं ) मेरी रक्षा करो। तुम (सुम्ने स्थः ) सुखदायक हो, ( सुम्ने मा धत्तम् ) सुख में मुझे रखो। ( यज्ञ ) हे सब जनों के पूजनीय परमेश्वर । ( नमः च ते ) आपको नमस्कार है। आप ( यज्ञस्य शिवे ) होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ के मङ्गलप्रद सुख प्राप्त कराने हेतु ( उप सं तिष्ठस्व ) सामीप्य के साथ संनद्ध हों, (मे स्विष्टे ) मेरे यज्ञ का सुफल प्राप्त कराने हेतु ( सं तिष्ठस्व) संनद्ध हों।

मन्त्र के देवता अग्नि-वायु और यज्ञ हैं। अग्नि से पार्थिव अग्नि, विद्युत् और सूर्य तीनों ग्राह्य हैं। यज्ञ से होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ दोनों अभीष्ट हैं। होमयज्ञ में यज्ञाग्नि और वायु घृत आदि हव्य द्रव्य को दूर-दूर तक फैलाने का कार्य करते हैं। वे हविर्द्रव्य के सूक्ष्म परमाणुओं को अन्तरिक्षस्थ मेघजल तक भी ले जाते हैं, जिससे जल उन परमाणुओं से भरपूर तथा सुगन्धित हो जाता है। अग्नि-वायु मेघस्थ जल को बरसाने का काम भी करते हैं। इस वृष्टि में यज्ञाग्नि, अन्तरिक्षस्थ विद्युत् और द्युलोकस्थ सूर्य तीनों अग्नियाँ कारण बनती हैं। सुगन्धित जल बरस कर वनस्पतियों और प्राणियों को प्राप्त होता है तथा रोगों को नष्ट करता एवं प्राण प्रदान करता है और सुख देता है। इस प्रकार अग्नि और वायु होमयज्ञ के धुर्य (धुरे को वहन करने वाले) होते हैं। तीनों अग्नियाँ और वायु शिल्पयज्ञ के भी धूर्वह या साधक बनते हैं। ये भूमियानों, जलयानों और विमानों को तथा विविध यन्त्रों एवं कल-कारखानों को चलाने के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं और मनुष्यों को सुख देते हैं।

मन्त्र के उत्तरार्ध में ‘यज्ञ’ सम्बोधन पूजनीय परमेश्वर के लिए प्रयुक्त हुआ है। उसे नमस्कार करके उससे प्रार्थना की गयी है कि आप होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ का मङ्गलप्रद सुखदायक फल हमें प्राप्त कराते रहें, क्योंकि अग्नि-वायु भी ईश्वरीय नियमों के अनुसार ही कार्य करते हैं।

उवट एवं महीधर ने यज्ञ के शिव में संस्थित होने का आशय लिया है यज्ञ को न्यून या अधिक न होने देना और उसके लिए श्रुतिप्रमाण भी प्रस्तुत किया है।

होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ

 

पाद टिप्पणियाँ

१. घृतम् आज्यम् उदकं च अञ्चयत: स्थानान्तरं प्रापयत: इति घृताच्यौ। घृताची+औ, पूर्वसवर्णदीर्घघृताची। अञ्चु गतिपूजनयोः, भ्वादिः ।

२. सुम्नम्-सुखम्, निघं० ३.६।।

३. इज्यते सर्वैर्जनैः स यज्ञ: ईश्वर:-द०भा० ।

४. यज्ञस्य शिवे संतिष्ठस्व अन्यूनातिरिक्तं यज्ञं कुर्वित्यर्थः ।। ‘यद्वै यज्ञस्यान्यूनातिरिक्तं तच्छिवं, तेन तदुभयं शमयति’ इति श्रुतेः म० ।

होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ