ऋषि दयानन्द की कल्पना के यज्ञ – होतर्यज- स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती

भारतीय स्वातन्त्र्य के अनन्तर का आर्यसमाज कई दृष्टियों से १९४९ से पूर्व के आर्यसमाज से आगे भी है और कई दृष्टियों से यह ऋषि दयानन्द के स्वप्नों से पीछे हटता जा रहा है।

यह आवश्यक है कि इसमें से कतिपय बुद्धिजीवी व्यक्ति प्रति तीसरे या पाँचवें वर्ष स्वयं अपनी स्थिति का सिंहावलोकन कर लिया करें। अपने सामाजिक और व्यक्तिगत निर्देशन के लिए एक ‘ब्ल्यू-प्रिन्ट’ तैयार कर लिया करें।

आर्यसमाज जीवित और उदात्त संस्था है- अनेक राजनीतिक दल पनपते रहेंगे, मरते रहेंगे, अपना कलेवर बदलते रहेंगे। अनेक बाबा-गुरु-अवतार-भगवान्-माताएँ आती रहेंगी, जाती रहेंगी, पर जो जितना ही स्वामी दयानन्द के दृष्टिकोण के निकट रहेगा, उतना ही आर्यसमाज का महत्त्व बढ़ता जावेगा। हिन्दुओं के अनेक रूप हमारे सामने आर्यमाज का विरोध करने के लिए आये, पर वे चले नहीं, बदलते गये, क्योंकि ये मूत्र्तिपूजा, अवतारवाद, रूढिय़ों, अन्धविश्वासों, वर्गभेदों, देशभेदों, जातिभेदों आदि पर निर्भर थे। आर्यसमाज के कार्यकत्र्ताओं को समझना चाहिए कि वे धरती के पुत्र हैं, सब नदी-नदियाँ उनके लिए एक-सी पवित्र हैं। उनको ईश्वर, ईश्वर के स्वरूप, ईश्वरीय-ज्ञान, ईश्वरीय-व्यवस्था और मानव-मात्र की श्रेष्ठता और समवेत कर्मठता में आस्था है- वे सत्य और ऋत के उपासक हैं। इस स्वरूप का आर्यसमाज सदा जीवित रहेगा। आगे की मानवता न पैगम्बरों पर एक होने वाली है, न धर्म और न सम्प्रदायों पर, न मन्दिरों-मस्जिदों या गिरजों पर, वेद-वेदांगों पर ही एक होगी, भौतिक विज्ञान, रसायन शास्त्र, विकासवान् ज्ञान-विज्ञान के विविध शास्त्र (वेदांग-उपांग) समस्त मानव के एक होंगे। (भारतीय ज्योतिष, चीन देश की केमिस्ट्री, भारतीय रसायन, यूनान की ज्यामिति, इस प्रकार के भौगोलिक शब्द मिट जायेंगे)।

वेद-वेदांग के ऋषि एक होंगे, चाहे आइन्स्टाइन हो, मैक्स प्लांक हो, प्रो. रमन् या रामानुजन् हों, चाहे मैडम क्यूरी हों- इन ऋषियों के नाम पर सबको गर्व होगा। ये ऋषि जो भी मार्ग-निर्देशन करेंगे, उनके संकेतों पर यज्ञों का निर्माण होगा।

यज्ञेन कल्पन्ताम्। (यजु. अध्याय १८), यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा:। (यजु. ३१/१६), यज्ञो यज्ञेन कल्पताम्। (१८/२९)- इन वाक्यों के नूतनतम अर्थ हमें धीरे-धीरे समझ में आवेंगे। मैं अभी करनाल (हरियाणा) में अपनी दाहिनी आँख नई करवा के आया हूँ, डॉ. जे.के. पसरीचा की यज्ञस्थली में मानो ‘चक्षुर्यज्ञेन कल्पताम्’ (यजु. १८/२९) का यज्ञ कराया हो। कुछ मास पूर्व मैंने बम्बई के हिन्दूजा-अस्पताल में प्रोस्टेट-ऑपरेशन द्वारा अपने जीवन की नई आयु प्राप्त की थी (आयुर्यज्ञेन कल्पताम्)। ऋषि दयानन्द की दृष्टि में यह सब यज्ञ है। इन यज्ञों में भाग लेने वाले ही ऋत्विक्, होता, अध्वर्यु हैं। इसी प्रकार के होताओं को दृष्टि में रखकर यजुर्वेद, अध्याय २१ के ४८-५८ मन्त्रों में बार-बार ‘दधुरिन्द्रियं वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज’ और इससे पूर्व ‘पय: सोम: परिस्रुता घृतं मधु व्यन्त्वाज्यस्य होतर्यज’ (मन्त्र २९-४७), यजुर्वेद संहिता में पठित है।

स्वामी दयानन्द की कल्पना के यज्ञ क्या है, यह समझना हो तो यजुर्वेद अध्याय २१ के मन्त्रों के भावार्थ देखिये। ये यज्ञ काष्ठाग्नि में घृत और हव्य डालना नहीं हैं।

मन्त्र २९- येऽस्य संसारस्य मध्ये साधनोपसाधनै: पृथिव्यादिविद्यां जानन्ति, ते सर्व उत्तमान् पदार्थान् प्राप्नुवन्ति।।

मन्त्र ३०- ये संगन्तारो विद्यासुशिक्षासहितां वाचं प्राप्य पथ्याहारविहारैर्वीर्यं वद्र्धयित्वा पदार्थविज्ञानं प्राप्यैश्वर्यं वर्धयन्ति ते जगद्भूषका भवन्ति।।

मन्त्र ३१- ये निर्लज्जान् दण्डयन्ति प्रशंसनीयान् स्तुवन्ति जलेन सहौषधं सेवन्ते ते बलाऽऽरोग्ये प्राप्यैश्वर्यवन्तो जायन्ते।।

मन्त्र ३२- मनुष्या ब्रह्मचर्येण शरीरात्मबलं विद्वत्सेवया विद्यापुरुषार्थेनैश्वर्यं प्राप्य पथ्यौषधसेवनाभ्यां रोगान्हत्वारोग्यमाप्नुयु:।।

मन्त्र ३३- यदि मनुष्या विद्यासंगतिभ्यां सर्वेभ्य: पदार्थेभ्य उपकारान् गृöीयुस्तर्हि वाय्वग्निवत्सर्वविद्यासुखानि व्याप्नुयु:।।

मन्त्र ३४- ये मनुष्या: सर्वदिग्द्वाराणि सर्वर्तुसुखकराणि गृहाणि निर्मिमीरंस्ते पूर्णसुखं प्राप्नुयु:। नैतेषामाभ्युदयिकसुखन्यूनता कदाचिज्जायेत।।

मन्त्र ३५- हे मनुष्या:! यथाहर्निशं सूर्याचन्द्रमसौ सर्वं प्रकाशयतो रूप-यौवनसम्पन्ना: पत्न्य: पतिं परिचरन्ति च यथा वा पाकविद्याविद्विद्वान् पाककर्मोपदिशति तथा सर्वप्रकाशं सर्वपरिचरणं च कुरुत भोजनपदार्थांश्चोत्तमतया निर्मिमीध्वम्।।

मन्त्र ३६- हे विद्वांसो यथा सद्वैद्या: स्त्रिय: कार्याणि साधयितुमहर्निशं प्रयतन्ते यथा वा वैद्या रोगान्निवाय्र्यं शरीरबलं वर्धयन्ति तथा वत्र्तित्वा सर्वैरानन्दितव्यम्।।

इसी प्रकार की प्रेरणायें और उद्बोधन अन्य मन्त्रों में भी हैं (होतर्यज)- मनुष्यै: पुरुषार्थेन लक्ष्मी: प्राप्तव्या (३८), विद्यया वह्निशान्त्या विद्वांसं पुरुषार्थेन प्रज्ञां न्यायेन राज्यं च प्राप्यैश्वर्यं वद्र्धयन्ति ते ऐहिकपारमार्थिके सुखे प्राप्नुवन्ति। (३९), ये…..विद्यां विज्ञाय गवादीन् पशून् संपाल्य सर्वोपकारं कुर्वन्ति ते वैद्यवत्प्रजादु:खध्वंसका जायन्ते। (४०), ये कृषिकरणाद्यायैतान्वृषभान्युञ्जन्ति ते धनधान्ययुक्ता जायन्ते।। (४१)

ऋषि दयानन्द की कल्पना उदात्त समाज के निर्माण की थी, जिसमें सभी शास्त्रों की विद्यायें विकसित हों, सभी विषयों के ज्ञाता हों और सभी प्रकार के सर्वोपयोगी संस्थान हों। उनकी दृष्टि में यजुर्वेद का २१वाँ अध्याय इन्हीं प्रेरणाओं का स्रोत है। आज आर्यसमाज के यज्ञ और हमारे याज्ञिक आर्यसमाज को भटका रहे हैं और हमारे पुरोहित और विद्वान् हमें फिर उस ओर ढकेलने में कटिबद्ध हैं, जिस ओर से ऋषि हमें बचाना चाहते थे।

महर्षि ने वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज (२१/४८-५८) मन्त्रों के भावार्थों में भी उदात्त प्रेरणायें दी हैं-

मन्त्र ४८- यथा विदुषी ब्रह्मचारिणी कुमारी स्वार्थं हृद्यं पतिं प्राप्यानन्दति तथा विद्यासृष्टिपदार्थबोधं प्राप्य भवद्भिरप्यानन्दितव्यम्।।

मन्त्र ५०- ये पुरुषार्थिनो मनुष्या: सूर्यचन्द्रसन्ध्यावन्नियमेन प्रयतन्ते सन्धिवेलायां शयनाऽऽलस्यादिकं विहायेश्वरस्य ध्यानं कुर्वन्ति ते पुष्कलां श्रियं प्राप्नुवन्ति।।

मन्त्र ५३- यथा विद्वत्सु विद्वांसौ सद्वैद्यो सत्क्रियया सर्वानरोगीकृत्य श्रीमत: सम्पादयतो यथा वा विदुषां वाग्विद्यार्थिनां स्वान्ते प्रज्ञामुन्नयति तथाऽन्यैर्विद्याधने संचयनीये।।

मन्त्र ५८- ये मनुष्या ईश्वरनिर्मितानेतन्मन्त्रोक्तयज्ञादीन् पदार्थान् विद्ययोपयोगाय दधति ते स्विष्टानि सुखानि लभन्ते।।

यजुर्वेद के १८वें अध्याय में ‘यज्ञेन कल्पताम्’ पद मन्त्र १-१७ और २९ में बराबर प्रयुक्त हैं, जिनमें भी ऋषि दयानन्द ने यज्ञ के कर्मोदात्त और कर्म-प्रेरक अर्थ दिए हैं- कर्मकाण्डी अर्थ नहीं। स्वामी दयानन्द की कल्पना का आर्य परिवार रूढि़ अर्थों में याज्ञिक नहीं है, जैसा कि हमारे पुरोहितों, कर्मकाण्डियों और तथाकथित याज्ञिकों ने भटका रखा है। स्मरण रखना चाहिए कि वेदमन्त्रों से राष्ट्र शब्द संकलित करके उनसे काष्ठाग्नि में घृतादि की आहुतियाँ डलवा देना राष्ट्रभृत् यज्ञ नहीं है। जिन मन्त्रों में अक्षि या चक्षु शब्द प्रयोग हुए हों, उन्हें संकलित करके आहुतियाँ दिला देना नेत्र-यज्ञ या चक्षु-यज्ञ का उपहास मात्र होगा।

मैं अपने युवकों और बुद्धिजीवियों से आग्रह करूँगा कि यदि आप मेरी कही हुई बातों में कुछ तथ्य समझते हों, तो आपको आर्यसमाज के परिवारों में प्रचलित वर्तमान यज्ञों की कुप्रथा को रोकने के लिए कुछ सक्रिय कदम उठाने होंगे, नहीं तो कैन्सर की तरह बढ़ता हुआ यह कर्मकाण्ड हमें मध्यकालीन हिन्दुओं की तरह ही विकृत और पथभ्रष्ट कर देगा। आर्यसमाज में यज्ञ के रूप में फैला हुआ यह कैन्सर चालीस-पचास वर्ष ही पुराना है, अभी तो हम इसकी रोकथाम कर सकते हैं, अन्यथा आगे रोकना कठिन होगा।

मेरी आयु ८५ वर्ष है, आगे की बात ईश्वर जाने, इसीलिए कुछ तीखे उपाय बता रहा हूँ, हो सकता है कि मेरे मित्रों को और आर्यसमाज के वर्तमान कर्णधारों को शायद ये पसन्द न आवें। कुछ उपाय ये हैं-

१. विद्वान् युवकों को चाहिए कि वर्तमान यज्ञों के विरुद्ध उचित वातावरण तैयार करें (प्यार और स्नेह से)

२. जहाँ-कहीं भी ये कैंसर-यज्ञ हों, उनका सक्रिय विरोध करें।

३. स्वामी दयानन्द ने दो ग्रन्थ हमें व्यावहारिक महत्त्व के दिए हैं- पंचमहायज्ञविधि और संस्कारविधि। संस्कारविधि का सामान्य प्रकरण केवल १६ संस्कारों और नवशस्येष्टि-संवत्सरेष्टि एवं शालानिर्माण विधि के लिए है। कर्मकाण्ड एवं विनियोगों को यहीं तक सीमित रक्खें।

४. भारतवर्ष में कैंसर-यज्ञ चलने लगे हैं और इनकी छूत देश के बाहर भी फैलने लगी है। हमें चाहिए कि वह हवा देश के बाहर न जावे।

(मैं वेदपारायण यज्ञ और मृत्युञ्जय यज्ञों को कैन्सर-यज्ञ कहता हूँ।)

५. लोगों को बतावें कि जो हम विद्या-संस्थायें खोलते हैं (चाहे गुरुकुल शैली की या कॉलेज शैली की) ये संस्थायें ही हमारी यज्ञस्थली हैं, हमारे सभी चिकित्सालय, अनाथाश्रम, सेवागृह, फैक्टरियाँ, पशुधन-विस्तारशालायें- इन सबको आर्यसमाज यज्ञ मानता है। दीनदु:खियों की सहायता के लिए, दुर्भिक्ष-पीडि़तों और बाढ़ से सन्तप्त व्यक्तियों की सहायता के लिए जो भी कुछ हम करेंगे, वह सब यज्ञ है।

आर्यसमाज के प्रारम्भिक युग में लाला मुन्शीराम, लाला लाजपतराय, लाला हंसराज आदि मनीषियों ने ऐसा ही किया था। वे हमारे महान् याज्ञिक थे, कर्मयोगी थे। आज हम कर्मयोगी नहीं कर्मकाण्डी पैदा कर रहे हैं। मिशनरी नहीं, पुरोहित मण्डली तैयार कर रहे हैं।

युवकों से मेरा आग्रह है कि जहाँ-कहीं भी कर्मकाण्डियों द्वारा वेदपारायण यज्ञ होता देखें, मृत्युञ्जय-यज्ञ देखें, वर्षा के निमित्त यज्ञ करते-कराते देखें, उनके विरुद्ध सक्रिय विरोध और रोष प्रकट करें।

महर्षि दयानन्द का जन्म १८२४ ई. में हुआ था। उनकी द्वितीय जन्मशती २०२४ ई. में मनाई जायेगी। तब तक हमें अपने कैन्सर-यज्ञों को दूर कर देना चाहिए। अगली शती के लिए वर्तमान आर्यसमाज के सामने जीता-जागता गौरवमय कार्यक्रम होना चाहिए। केवल नारे, लंगर और जलूसों से काम न चलेगा।

मूर्तिपूजा अवैदिक होने पर भी हमारे देश से दूर क्यों नहीं हुई, क्योंकि यह पण्डितों, पुरोहितों, शंकराचार्यों और महन्तों की जीविका बन गई है। आर्यसमाज के कर्मकाण्डी यज्ञ भी जीविका के साधन बन गये, तो आप आगे इन्हें बन्द न कर सकेंगे।

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