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हे गौ माता -रामनाथ विद्यालंकार

हे गौ माता। 

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता सविता। छन्दः क. स्वराड् बृहती, र. ब्राह्मी उष्णिक्।

ओ३म् इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमा कर्मणूऽआप्यायध्वमघ्न्याऽइन्द्राय भागं ‘प्रजार्वतीरनमीवाऽ अयक्ष्मा मा व स्तेनऽईशत माघशसो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौ स्यात ह्वीर्यजमानस्य शून् पाहि॥

-यजु० १ । १ 

हे गौ माता !

मैं (इषे त्वा ) अन्नोत्पत्ति के लिए तुझे पालता हूँ, (अर्जे त्वा ) बलप्राणदायक गोरस के लिए तुझे पालता हूँ। हे गौओ ! तुम (वायवः स्थ) वायु के समान जीवनाधार हो। ( देवः सविता ) दाता परमेश्वर व राजा ( श्रेष्ठतमाय कर्मणे ) श्रेष्ठतम कर्म के लिए, हमें (वः प्रार्पयतु) तुम गौओं को प्रदान करे। (अघ्न्याः ) हे न मारी जानेवाली गौओ! तुम (आप्यायध्वम् ) वृद्धि प्राप्त करो, हृष्टपुष्ट होवो। ( इन्द्राय) मुझ यज्ञपति इन्द्र के लिए ( भागं ) भाग प्रदान करती रहो। तुम (प्रजावतीः ) प्रशस्त बछड़े-बछड़ियों वाली, ( अनमीवा:६) नीरोग तथा ( अयक्ष्माः ) राजयक्ष्मा आदि भयङ्कर रोगों से रहित होवो। ( स्तेनः ) चोर (वः मा ईशत ) तुम्हारा स्वामी न बने, ( मा अघशंसः ) न ही पापप्रशंसक मनुष्य तुम्हारा स्वामी बने। (अस्मिन् गोपतौ ) इस मुझ गोपालक के पास ( धुवाः ) स्थिर और ( बह्वीः७) बहुत-सी ( स्यात ) होवो। हे परमेश्वर व राजन ! आप ( यजमानस्य ) यजमान के (पशून्) पशुओं की ( पाहि ) रक्षा करो।

 हे गौ माता !

मैं तुझे पालता हूँ तेरी सेवा के लिए, अन्नोत्पत्ति के लिए और गोरस की प्राप्ति के लिए। तू सबका उपकार करती है, अत: तेरी सेवा करना मेरा परम धर्म है, इस कारण तुझे पालता हूँ।

तुझे पालने का दूसरा प्रयोजन अन्नोत्पत्ति है। तेरे गोबर और मूत्र से कृषि के लिए खाद बनेगा, तेरे बछड़े बैल बनकर हल जोतेंगे, बैलगाड़ियों में जुत कर अन्न खेतों से खलिहानों तक और व्यापारियों तथा उपभोक्ताओं तक ले जायेंगे।इस प्रकार तू अन्न प्राप्त कराने में सहायक होगी, इस हेतु तुझे पालता हूँ।

तीसरे तेरा दूध अमृतोपम है, पुष्टिदायक, स्वास्थ्यप्रद, रोगनाशक तथा सात्त्विक है, उसकी प्राप्ति के लिए तुझे पालता हूँ। हे गौओ ! तुम वायु हो, वायु के समान जीवनाधार हो, प्राणप्रद हो, इसलिए तुम्हें पालता हूँ।

दानी परमेश्वर की कृपा से तुम मुझे प्राप्त होती रहो। राष्ट्र के ‘सविता देव’ का, राष्ट्रनायक राजा प्रधानमन्त्री और मुख्य मन्त्रियों का भी यह कर्तव्य है कि वे श्रेष्ठतम कर्म के लिए तुम्हें गोपालकों के पास पहुँचाएँ राष्ट्र की केन्द्रीय गोशाला में अच्छी जाति की गौएँ पाली जाएँ, जो प्रचुर दूध देती हों और गोपालन के इच्छुक जनों को उचित मूल्य पर दी जाएँ।

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार श्रेष्ठतम कर्म यज्ञ है। अग्निहोत्र रूप यज्ञ के लिए भी और परिवार के सदस्यों तथा अतिथियों को तुम्हारा नवनीत और दूध खिलाने-पिलाने रूप यज्ञ के लिए भी प्रजाजनों को राजपुरुषों द्वारा उत्तम जाति की गौएँ प्राप्त करायी जानी चाहिएँ।

हे गौओ!

तुम ‘अघ्न्या’ हो, न मारने योग्य हो । राष्ट्र में राजनियम बन जाना चाहिए कि गौएँ। मारी–काटी न जाएँ, न उनका मांस खाया जाए। यदि किसी। प्रदेश में बूचड़खाने हैं तो बन्द होने चाहिएँ। दुर्भाग्य है हमारा कि वेदों के ही देश में वेदाज्ञा का पालन नहीं हो रहा है। मांस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं है, न उसके दाँत मांस चबाने योग्य हैं, न आँतें मांस पचाने योग्य हैं।

हे गौओ !

तुम अच्छी पुष्ट होकर रहो। मुझ यज्ञपति इन्द्र का भाग मुझे देती रहो, बछड़े-बछड़ियों का भाग उन्हें प्रदान करती रहो। तुम प्रजावती होवो, उत्तम और स्वस्थ बछड़े-बछड़ियों की जननी बनो । तुम रोगरहित और यक्ष्मारहित होवो। तुम मुझ सदाचारी याज्ञिक गोस्वामी के पास रहो, चोर तुम्हें न चुराने पावे। पापप्रशंसक और पापी मनुष्य तुम्हारा स्वामी न बने। पापी नर-पिशाचों को गोरस नसीब न हो। मुझ गोपालक के पास तुम स्थिररूप से रहो, संख्या में बहुत होकर रहो, जिससे मैं गोशाला चलाकर उन्हें भी तुम्हारा दूध प्राप्त करा सकें, जो स्वयं गोपालन नहीं कर सकते हैं।

हे परमेश्वर ! मुझ यजमान के पशुओं की रक्षा करो, हे राजन् ! मुझ यजमान के पशुओं की रक्षा करो।


पाद-टिप्पणियाँ

१. इष्=अन्न, निघं० २.७।

२. ऊर्ग रसः, श० ५.१.२.८ । ऊर्जा बलप्राणनयोः, चुरादिः ।।

३. दीव्यति ददातीति देवः दाता। देवो दानाद्, निरु० ७.१५ ।

४. षु प्रसवैश्वर्ययोः, भ्वादिः, घूङ् प्राणिगर्भविमोचने, अदादिः । | ( सविता सर्वजगदुत्पादकः सकलैश्वर्यवान् जगदीश्वरः-द०भा० । (सवितः) सकलैश्वर्ययुक्त सम्राट्, य० ९.१-द०भा० ।।

५. (ओ) प्यायी वृद्धौ, भ्वादिः ।।

६. (अनमीवाः) अमीवो व्याधिर्न विद्यते यासु ताः । अम रोगे इत्यस्माद् | बाहुलकाद् औणादिक ईवन् प्रत्यय:-द०भा० ।

७. बह्वीः=बह्वयः । बह्वी+जस्, पूर्वसवर्णदीर्घ, वा छन्दसि पा० ६.१.१०६ ।।

८. यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म। -श०१.७.१.५

९. अघ्न्या=गौ, निघं० २.११। अघ्न्या अहन्तव्या भवति, निरु० ११.४० । अघ्न्या इति गवां नाम के एता हन्तुमर्हति, म०भा० शान्तिपर्व २६३ ।

-रामनाथ विद्यालंकार

प्राण अपान शब्द पर शंका समाधान :- डॉ वेदपाल

शंङ्का – समाधान 

– डॉ. वेदपाल

शङ्का-    शरीर में श्वास लेते समय प्राणवायु ऑक्सीजन प्रवेश करती है, अत: श्वास लेने को प्राण कहना ही युक्तिसंगत है।श्वास छोड़ते समय हानिकारक गैस कार्बन-डाइऑक्साइड शरीर से बाहर निकलती है, इसलिये श्वास छोडऩे को अपान कहना युक्तिसंगत है। वैसे भी पान का अर्थ है, ग्रहण करना। अत: अपान शब्द पान शब्द का विलोम हुआ। इस कारण अपान का अर्थ हुआ छोडऩा। अत: श्वास छोडऩे को ही अपान तथा श्वास लेने को प्राण कहना तार्किक एवं सही है। महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के ‘वेदोक्त धर्म-विषय’ में अथर्ववेद के मन्त्र-१२/५/९ की व्याख्या करते हुये प्राण और अपान के सम्बन्ध में जो उल्लेख किया गया है, वह इससे उलटा है। इसमें श्वास छोडऩे को प्राण और श्वास लेने को अपान कहा है। अथर्ववेद के मन्त्र-४/१३/२ एवं ३ की व्याख्या करते हुये श्री क्षेमकरणदास त्रिवेदी और पण्डित हरिशरण सिद्धान्तालंकार ने श्वास लेने को प्राण और छोडऩे को अपान ही लिखा है। ऋग्वेद के मन्त्र-१०/१३७/२ एवं ३ में भी ऐसा ही लिखा है। पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘जीवात्मा’ में भी पृष्ठ-५६ पर श्वास लेने को प्राण और छोडऩे को अपान ही लिखा है।

अत: ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदोक्त धर्म-विषय में उपरोक्त त्रुटि ‘लेखन-त्रुटि’ ही प्रतीत होती है। विद्वानों द्वारा गहन विचार-विमर्श उपरान्त एकमत होकर इस लेखन-त्रुटि को ठीक कर देना चाहिये।

– जगदीश प्रसाद शर्मा, भोपाल

समाधान-   सर्वप्रथम अथर्व १२.५.९ ‘आयुश्च रूपं च नाम च कीर्तिश्च प्राणश्चापानश्च चक्षुश्च श्रोत्रं च’-मन्त्रस्थ प्राण-अपान की महर्षि कृत व्याख्या को लें-‘‘शरीराद् बाह्यदेशं यो वायुर्गच्छति स ‘प्राण:’ बाह्यदेशाच्छरीरं प्रविशति स वायुरपान:’’(ऋ.भा.भू.)।

शर्मा जी का अभिमत कि महर्षिकृत व्याख्या अन्य विद्वानों द्वारा अनुमोदित नहीं है। अत: लेखन-त्रुटि मानकर ठीक कर देना चाहिए के सन्दर्भ में निम्र बिन्दु विचारणीय हैं-

१. शर्मा जी द्वारा अपान शब्द को पान शब्द का विलोम मानना उचित नहीं है। पान शब्द पा धातु से ल्युट् प्रत्यय होकर निष्पन्न हुआ है, जबकि अपान शब्द अप उपसर्ग पूर्वक अन प्राणने (अदादि.) धातु (पा नहीं)से अच् प्रत्यय होकर निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है-अपानयति मूत्रादिकम् (अप+आ+नी+ड वा)।

यदि दुर्जनतोष न्याय से अपान शब्द को पान शब्द से नञ् समास का अवशिष्ट अ पूर्वक मान भी लें तो नञ् (अ) केवल निषेधार्थक ही नहीं है। नञ् के छ: अर्थ हैं-

तत्सादृश्यं तदन्यत्वं तदल्पत्वं विरोधिता।

अप्राशस्त्यमभावश्च नञर्था: षट् प्रकीर्तिता:।।

वामन शिवराम आप्टे (संस्कृत हिन्दी कोष, प्रकाशक-मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) ने अपान शब्द के निम्र अर्थ किए हैं-

‘‘श्वास बाहर निकालना, श्वास लेने की क्रिया, शरीर में रहने वाले पांच पवनों में से एक जो कि नीचे की ओर जाता है तथा गुदा के मार्ग से बाहर निकलता है’’-पृ. ६२

२. प्राण शरीर में रहते हुए क्रिया भेद के आधार पर प्राण-अपान-व्यान-समान-उदान कहा जाता है। तद्यथा- ‘‘प्राणोऽन्त: शरीरे रसमलधातूनां प्रेरणादिहेतुरेक: सन् क्रियाभेदादपादानादिसंज्ञां लभते’’- प्रशस्तपाद (द्रव्ये वायु प्रकरणम्) सम्पूर्णानन्द-संस्कृतविश्वविद्यालय: वाराणसी, द्वि.सं. पृ. १२१

उपर्युद्धृत प्रशस्तपाद पर कन्दली भी द्रष्टव्य है-‘‘मूत्रपुरीषयोरधोनयनादपान:, रसस्य गर्भनाडीवितननाद् व्यान:, अन्नपानादेरूध्र्वं नयनादुदान:, मुखनासिकाभ्यां निष्क्रमणात् प्राण:, आहारेषु पाकार्थमुदरस्य वह्ने: समं सर्वत्र नयनात् समान इति न वास्तव्यमेतेषां पञ्चत्वमपितु कल्पितम्।’’

३. वेद के प्रसिद्ध भाष्यकार सायण का अथर्ववेद के १२ वें काण्ड पर भाष्य उपलब्ध नहीं है, किन्तु अथर्व १८.२.४६ ‘प्राणो अपानो व्यान:………’ मन्त्र की सायण व्याख्या द्रष्टव्य है-

‘‘मुख्य प्राणस्य तिस्रो वृत्तय: प्राणाद्या:। मुखनासिकाभ्यां बहिर्नि:सरन् वायु: प्राण:। अन्तर्गच्छन् अपान:। मध्यस्थ: सन् अशितपीतादिकं विविधम् आनयति कृत्स्नदेहं व्यापयतीति व्यान:।’’

आचार्य सायण भी प्राण अपान का वही अर्थ करते हैं जो ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में उपलब्ध है।

४. अथर्व ११.४.८ ‘नमस्ते प्राण प्राणते नमो अस्त्वपानते’- मंत्र का पं. जयदेव कृत अर्थ- हे (प्राण प्राणते नम:) प्राण! प्राणक्रिया करते, श्वास त्यागते हुए तुझे नमस्कार है।

(अपानते नम: अस्तु) श्वास ग्रहण करते हुए तुझे नमस्कार है।

इसी प्रकार अथर्व ११.४.१४ पर भी पं. जयदेव एवं सायण भाष्य भी द्रष्टव्य हैं।

५. वैशेषिक दर्शन ३.२.४-‘प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तरविकारा: सुखदु:खेच्छाद्वेषप्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गानि’ सूत्र पर पं. हरिप्रसाद वैदिक मुनिकृत प्राण-अपान की व्याख्या- ‘मुखनासिकाभ्यां बहिर्निष्क्रमणशील: ऊध्र्वगतिक: शरीरान्त: सञ्चारी वायु: प्राण:। मूत्रपुरीषयोरधोनयनहेतु वाग्गतिक: शरीरान्त: सञ्चारी वायुरपान:।’

उक्त सूूत्र पर पं. तुलसीराम स्वामी -‘‘मुख और नासिका से बाहर निकलने वाला, ऊपर को चलने वाला, शरीरस्थ वायु प्राण कहाता है, मूत्र और विष्ठा को नीचे निकालने वाला शरीरस्थ वायु अपान कहाता है।’’

६. सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास पृ. १२६ पर जीव के गुणों के वर्णन में महर्षि दयानन्द वैशेषिक के पूर्व उद्धृत सूत्र ३.२.४ की व्याख्य ‘(प्राण) प्राण वायु को बाहर निकालना (अपान) प्राण को बाहर से भीतर को लेना करते हैं।’

७. वाचस्पत्यम् शब्दकोष में भी-प्राण: वायुस्तस्य कर्म नासाग्रतो बहिर्गति: (भाग-६, पृ. ४५०८) नासाग्र से बाहर जाने वाले वायु को प्राण कहा है।

उक्त सभी सन्दर्भों को दृष्टिगत रखकर यह कहा जा सकता है कि महर्षि दयानन्दकृत अर्थ की सम्पुष्टि आचार्य सायण, महर्षि द्वारा मान्य वैशेषिक के भाष्यकार प्रशस्तपाद के कन्दली टीकाकार श्रीधर, पं. हरिप्रसाद वैदिक मुनि, संस्कृत के प्रसिद्ध कोष वाचस्पत्यम्, कोषकार आप्टे, पं. जयदेव तथा पं. तुलसीराम आदिकृत भाष्य से होती है। अत: परम्परा द्वारा स्वीकृ त होने से महर्षिकृत अर्थ त्रुटिपूर्ण नहीं है।

वामपंथ के इशारों पर हिन्दू

सबरीमाला
केरल में चल रहे इस भयंकर ड्रामे का अंत मुझे तो नही दिखता
वामपंथी और जो समूह महिलाओं के प्रवेश करने को लेकर समर्थन देकर आगे हुए है वे भी नही चाहते है कि ये ड्रामा बन्द हो

वामपंथ यही तो चाहता है कि हिन्दू अपनी मानसिकता को इतना संकीर्ण बनाये रखे और वे नारी सशक्तिकरण के नाम पर तुम्हें एक घटिया और नारी विरोधी मत पंथ सिद्ध करते रहे

क्योंकि हिंदुओं को वामियों ने दलितों से तो अलग कर ही दिया है (विश्वास नही होता ना अभी तीन राज्यों में आये परिणाम इसका चीखता चिल्लाता हुआ प्रमाण है कि तुम लोगों से दलितों को दूर कर लिया गया है)

अब नारी सशक्तिकरण की चाह रखने वाले उस बड़े महिला वर्ग को भी तुमसे अलग कर लिया जाए

वे तो चाहते है कि सबरीमाला के वे कब्जाधारी पण्डित समूह इसका भरपूर विरोध करें और आस्था के नाम पर हिंदुओं को भड़का कर महिलाओं के प्रवेश के विरुद्ध खड़ा रखे जिससे हिन्दू मत और उसकी संकीर्ण सोच के विरुद्ध महिलाओं को हर क्षेत्र में खड़ा किया जा सके

आज यह मंदिर है कल कोई और होगा और इसमें भी आश्चर्य नही होना चाहिए कि आगे चल ये जो जातिगत छुटपुट विवाद चल रहे है ये भी इसी तरह के बड़े तूल पकड़ेंगे

वामपंथियों का होमवर्क, उनकी तैयारी इतनी जबरदस्त है कि आध्यात्मिक अंधभक्ति, अंधविश्वास की जंजीरों में बंधा यह हिन्दू दिमाग उससे कभी पार नही पा सकता

क्या फर्क पड़ जायेगा यदि महिलाएं भी सबरीमाला में प्रवेश कर लेगी तो ? यदि हिन्दू तैयार हो जाये तो यह निर्णय तो उनके विशाल हृदय का प्रमाण सिद्ध होगा

महिलाओं की एक आयुसीमा तय कर रखी है और उसके पीछे तर्क यह है कि वे मासिक धर्म में जो अपवित्रता होती है उसके साथ मन्दिर में प्रवेश करेगी तो मन्दिर अपवित्र हो जाएगा

अर्थात वे सभी मन्दिर अपवित्र है जिनमें महिलाएं प्रवेश कर सकती है, क्या अपवित्र हृदय लिया हुआ व्यक्ति सबरीमाला में प्रवेश करेगा तो मन्दिर दूषित नही होगा ??

“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमन्ते तत्र देवता”
फिर क्यों यह पंक्ति सुना सुनाकर इस बात का ढोंग करते हो कि हिन्दू मत पंथ में नारी को समान अधिकार दिया गया है

एक तरफ कहते हो जहां नारी पूजी जाती है वहां देवता रमण करते है, वही देव स्थान में ही नारी को नही जाने देते हो, फिर जब तुम पर नारी अधिकार हनन का आरोप लगता है तो चीखते चिल्लाते हो, रोते हो, सर फोड़ते हो

यही संकीर्ण सोच तो हिंदुओं को बांट रही है और विश्वास कीजिये आगे भी बांटेगी, किसी घमण्ड में मत रहिये की आपको कोई मिटा नही सकता, आपको मिटाने की अब किसी को आवश्यकता ही नही आप स्वयं अब मिटने को आतुर दिख रहे है

यह सबरीमाला उस तीन तलाक का ही तो जवाब है जिसे समाप्त करने पर सबसे अधिक खुश हिन्दू दिख रहे थे आज उसी का तमाचा खुद हिंदुओं की इस फ़तवाधारी सोच की वजह से पड़ा है जिसकी आग में केरल जल रहा है

वरना जो सहृदयता दिखाई होती महिलाओं के प्रवेश पर समर्थन दिखाया होता तो तीन तलाक से अधिक बड़ा तमाचा इन वामपंथियों को लगता

हिंदुओं को तो चाहिए कि वे अब नारी सशक्तिकरण के इस ड्रामे को खुद बढ़ाये और मस्जिदों में नारी के प्रवेश को लागू करवाने को इसी स्तर की मुहिम छेड़े

डटकर मस्जिदों के आगे खड़ी होकर इसी तरह प्रवेश करने को आगे आये

परन्तु वहां आपकी हिम्मत नही होती हिन्दू अपने आप में खुश है उसे बदला लेना नही आता, क्रिया की प्रतिक्रिया करना नही आता, सामने वाले को उसी की भाषा में जवाब देना नही आता, हिन्दू तो चाहता है कि उससे उसकी धार्मिक स्वतंत्रता नही छीनी जाए अरे राम मंदिर नही स्वयं राम बनों और उसकी धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला करो जिसने आप पर यह हमला किया है

हर समय रक्षात्मक स्थिति बनाये रखने से आप जीवित नही रह पाओगे, समय की आवश्यकता को देखते हुए आपको सठे साठयम समाचरेत को अपनाते हुए आक्रमक मुद्रा में आना ही होगा तभी आपका भविष्य उज्ज्वल, स्वछन्द और स्वतंत्र होगा अन्यथा एक दिन इसी संकीर्ण सोच के बोझ तले दबकर समाप्त हो जाओगे तब न मोदी आएगा न राम न ईश्वर

औ३म्🙏

गौरव आर्य
(पण्डित लेखराम वैदिक मिशन)

पौरुष का पर्याय: आचार्य धर्मवीर (द्वितीय पुण्यतिथि पर स्मरण)

पौरुष का पर्याय: आचार्य धर्मवीर

वह तेज पुंज, वैदिक विचारधारा के संरक्षण हेतु सतत जागरूक प्रहरी, धर्माघात करने वालों के हृदयों को जिनकी वाणी पाञ्चजन्य की ध्वनि सम विदीर्ण करती रही सहसा ही हमारे मध्य नहीं रहा . “ऊर्जा के स्त्रोत” अमर धर्मवीर को हमसे विमुख हुए २ वर्ष व्यतीत हो गए लेकिन वह रिक्त स्थान यथावत है उसकी पूर्ति वर्तमान परिस्तिथियों में दुष्कर प्रतीत हो रही है एवं इस वास्तविकता का निरन्तर भान कराती है.

शिवाजी की भूमि पर स्वात्रंत्र प्रेमी ऋषि भक्त पण्डित भीमसेन जी के घर जन्मा यह बालक कपिल कणादि जैमिनी से दयानन्द पर्यंत ऋषियों द्वारा प्रदत्त ज्ञान रूपी सोम का पान कर , शश्त्र शाश्त्रों से सुसज्ज्ति धर्म पर स्व एवं परकीयों द्वारा हो रहे आघातों से आकुल ह्रदय लिय वह धर्मरक्षक योद्धा इस समर भूमि में सर्वस्व न्योछावर कर अम्रत्व्य को प्राप्त हो गया .

उनका जीवन, कर्म क्षेत्र, घर्म क्षेत्र, समर क्षेत्र में अधर्मियों के कृत्यों से पीड़ित होने के उपरान्त अंगद सम धर्म पथ पर अटल रहने का उद्धरण प्रदर्शित करता हुआ अनंत काल तक युवकों को प्रेरणा देता हुआ कीर्ति पुंज है उनका जीवन दर्शन अगणित ऐसी घटनाओं से शोभित  है जो धर्म पथगामियों को सदा ही प्रेरित करता रहेगा.

आरोप पत्र या अभिनन्दन पत्र: भारतवर्ष का इतिहास साक्षी है कि विदेशियों की विजय पताका फहराने में सहायक स्वजन ही थे बिना उसके इस धर्म भूमि पर परकीयों के वर्चस्व का ध्वज कैसे गगन चूम सकता था !

हमने ही स्वयं की तलवारों से स्व बान्धवों के रक्त का पान कर इस मातृभूमि को विधर्मियों के सुपुर्द कर दिया . भला आर्य समाज इस रोग से ग्रसित होने से कहाँ रह सकता था ? लाला मूलराज आदि के द्वारा बोया गया यह परजीवी पौधा, मानस पुत्रों को जन्म देता रहा और वैदिक धर्म के प्रचार में अभिनव प्रयोग कर अनेकों बाधाएं  पग पग पर वैदिक धर्म के दीवानों के रास्ते में खडी की गयी.

धर्मवीर जी का जीवन इससे अछुता नहीं था . आचार्य रामचंद्र जी ने ऐसी ही एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है की अधिकारियों ने व्यक्तिगत खुन्नस के कारण दयानन्द कॉलेज अजमेर से आपकी सेवाओं को निलम्बित कर दिया . आपके विरुद्ध जो आरोप पत्र जारी किया गया वह भी वास्तव में आपके कार्यों के महत्व का , आपके दृढ चरित्र का एक प्रमाण पत्र है . उसमें आरोप लगाया लगाया था – १. आप परोपकारिणी सभा का कार्य करते हें .२ आप परोपकारी पत्रिका का संपादन करते हैं ३. आप आर्य समाज का प्रचार करते हैं . इस पत्र को पढ़कर अचम्भित होना स्वाभाविक ही है कि ये अभिनन्दन पत्र है या आरोप पत्र !

धर्मवीर जी परिस्थियों से घबराने का नाम नहीं है धर्मवीर वह ज्वाला है जो तम आवृत जग के लिए पथ प्रदर्शक का कार्य करती रही. क्या ये यातनाएं धर्मवीर को पथ से विचलित कर सकती थी ?  क्या ये यातनाएं वेदनाएं उनके साहस को चूर चूर करने में सक्षम थीं ? वह ऋषि भक्ति के लिए समर्पित योद्धा विश्व के वैभव लालसाओं का त्याग कर चुका था . ऋषि दयानन्द ही उसके लिए सर्वस्व था .

जीत की हार : श्रद्धेय श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आचार्य धर्मवीर जी की जीवनी में एक घटना का  उल्लेख किया है कि जब प्राचार्य वाब्ले धर्मवीर जी को अपमानित करने व कुचलने  पर तुला हुआ था उन्ही दिनों उसने अहंकार में आकर धर्मवीर जी से कहा “ मैं यदि तुम्हें निकाल दूँ तो सुप्रीम कोर्ट भी तुम्हें नहीं रखवा सकता “

जितने भरपूर अहंकार में पाचार्य वाब्ले ने धर्मवीर जी को धमकी देकर डराया और उनका मनोबल गिराना चाहा उतने ही अटल ईश्वर – विश्वास तथा आत्मबल से आपने उसे  तत्काल उत्तर दिया “ मैं मनुष्य को भगवान् नहीं मानता और अजमेर को सकल सृष्टि नहीं मानता “

प्रखर ऋषिभक्ति: धर्मवीर जी महाराणा प्रताप के साहस अभिमन्यु के महान पौरुष की प्रतिमूर्ति थे .भला वह इन वज्र सम विपदाओं से कहाँ विचलित हो सकते थे . ऋषि मार्ग  के पथिक  का समझौता वादी व्यक्तित्व न होने के कारण ऐसा प्रतीत होता था मानों वे स्वयं विपदाओं को आमन्त्रित कर रहे हों . ये जग उन्हीं धर्मवीरों का गायन करता है जो विपदाओं की परवाह किये बिना प्राण हथेली पर लिए रण भूमि में अर्जुन के गांडीव की तरह गुंजायमान हो रिपु दल के हृदयों को विदीर्ण कर विजय रस का पान करते हैं .

आचार्य धर्मवीर जी की इस विशेषता से कोई अभागा ही हो जो परिचित न हो . वैदिक धर्म पर यदि कहीं भी प्रहार होता था तो उनकी आत्मा कम्पायमान हो उठती थी, उनका ह्रदय वेदना से भर उठता था और कभी ऐसा न हुआ कि वैदिक धर्म पर प्रहार हुआ हो और धर्म रक्षक धर्मवीर की लेखनी न चली हो .

ऐसी ही घटना का  “ धौलपुर सत्यागृह शताब्दी यात्रा “ के समय सभा के मंत्री श्री ॐ मुनि जी ने वर्णण किया कि  एक दर्शनाचार्य ने ऋषी दयानन्द अब  अप्रसान्गिक  हो गए हैं, यदि अधिक लोगों को आकर्षित करना है तो ऋषि दयानंद का नाम मंच से न लिया जाये ऐसा कहने का दुस्साहस किया . इस घटना को दो और सज्जनों ने शब्द भेद, यथा “ऋषि दयानंद का नाम बदनाम हो गया है अतः प्रचार को संकुचित न करने के लिए इस नाम को प्रयोग न किया जाये” , के साथ सुनाया .

जिस धर्मवीर का रोम रोम ऋषि भक्ति के रंग में रंगा हुआ था जो ऋषि दयानन्द के लिए सर्वस्व न्योछावर करने के लिए प्रतिपल सहर्ष तैयार था वह भला कहाँ ये सुन के चुप रह सकता था . ऋषि के लिए स्वजनों ने ऐसे शब्द  सुनते ही उनके ह्रदय में प्रबल प्रचण्ड धधकती हुयी ज्वाला जाग्रत होना स्वाभाविक ही था. धर्मवीर जी ने काल सम तुरन्त ध्वनियंत्र को लेकर सिंह गर्जना करते हुए कहा कि आपने जो शब्द अभी बोले हैं क्या वो दोहरा सकते हो ? सभा में सन्नाटा छा गया ! इस धधकती हुयी ज्वाला का सामना कौन करे . दर्शनाचार्य को माफी मांगनी पडी.

धर्म पर प्रतिवाद विश्व के किसी भी कौने में हो , चाहे वो ईसाईयों का “ पवित्र ह्रदय “ पत्रिका , जमाअते इस्लामी के  “ कांति “ मासिक का पुनर्जन्म खंड विशेषांक , रामपाल का ऋषि के प्रति विष वमन या स्वजनों का द्रोहराग  धर्मवीर जी की लौह लेखनी सदैव उद्वेग से आवेश से इनका  प्रतिकार करती रही . श्रद्धेय राजेन्द्र जिज्ञासु जी द्वारा लिखित “ अमर धर्मवीर “ में ऐसे अंकों उद्धरण उन्होंने दिए हैं. धर्मवीर जी विधर्मियों दारा धर्म पर कुत्सित प्रहार का बिना प्रतिकार लिए कहा चैन से बैठने वाले थे . धार्मिक गर्व पर अरि का प्रहार हो और जब तक प्राण  हैं गौरव मर्दन कैसे हो सकता है .धर्मवीर जी भीम की गदा, अर्जुन के गांडीव, हिमगिरि  सदृश्य रक्षक बन सदैव खड़े हो जाते थे. उस  धीरता की प्रतिमा कोमल दृदय देव का पौरुष, क्षत्रित्व सदा जागृत रह मानो धर्म की रक्षार्थ प्रज्वलित ज्वाला लिए न केवल अम्बर को गुंजायमान कर रहा था अपितु अनेकों आर्य वीरों को सुप्तता से जगाने धर्म के प्रति सजग होने की प्रेरणा का निमित्त था.

धर्म पर प्रहार होने की स्तिथी में आर्य लोग केवल परोपकारिणी प्रत्रिका की तरह ही आशा लिए निहारते थे. उन्हें आभास था यह वो धर्मवीर पौरुष है जो किसी लोभ के वश मूक नहीं रह सकते यह वह नेता कथित योगी नहीं जो दिन रात निमग्न योगचिंतनादि में ही लीन रहे. अपितु वो तो वह वीर योद्धा है जिसकी तलवार कभी म्यान में नहीं सोती वह तो हर दुषाशन के लिए भीम का प्रतिशोध है हर हिरण्यकश्यप के लिए नृसिंह का प्रतिशोध है वह तो लेखराम जैसी धर्म धुन का धुनी है जो यज्ञ वेदी पर धर्म की रक्षार्थ सर्वस्व समर्पित करने के लिए सदैव उद्धत है .

वैदिक सिद्धातों पर निष्कंप निष्ठायुक्त , ऋषि की वाटिका के पुष्पों के रक्षार्थ सर्वस्व समर्पण का प्रण लिए ,स्वधर्मियों के अन्यायों से त्रसित वह विप्र, समर्पण का प्रतिकार करता हुआ , वज्र सम धर्म के मार्ग पर अविचल जीवन व्यतीत कर वर्तमान और भावी पीढी के लिए ऐसा जीवन दर्शन प्रस्तुत कर गया जो अनेक धर्म रक्षकों के पथ को अंतरिक्ष में ध्रुव के सम द्वीपित करता रहेगा .

धर्मवीर प्रतिपल युवकों में गौरवमयी आर्यत्व चैतन्य भरने का प्रयास सतत करते रहते थे. उनका स्नेह उनका समर्पण युवकों को सदैव आकर्षित करता था. वह प्रतिभा के धनी गहन शोध, ऋषि भक्ति, देशभक्ति के पर्याय थे उनका जीवन स्वयं में एक दर्शन है. आज आवश्यकता है कि हम उनके जीवन से प्रेरणा लें उन धुन के धुनी बनें .

लक्ष्मण जिज्ञासु ( पण्डित लेखराम वैदिक मिशन )

 

मृतक श्राद्ध पर 21 प्रश्न

प्रश्न १.–

पितर संज्ञा मृतकों की है या जीवितों की ? यदि जीवितों की है तो मृतक श्राद्ध व्यर्थ होगा। यदि मृतकों की हैं तो – आधत्त पितरो गर्भकुमार पुष्करसृजम”।

| (यजुर्वेद २-३३) “ऊर्ज वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिश्रुतम् ।। स्वधास्थ तर्पयतमे पितृन्’ ।।

(यजुर्वेद २-३४) “आयन्तु नः पितरः सोम्यासोऽग्निष्वात्तः पथिभिर्देवयानैः ।

(यजुर्वेद १८-५८) इत्यादि वेद मंत्रों से पितरों का गर्भाधान करना, अन्नजलं, दृ आदि का सेवन करना, आना-जाना-बोलना आदि क्रियायें करने वाला बताया गया है, जोकि मृतकों में संभव नहीं है।

इससे पितर संज्ञा जीवितों की ही सिद्ध है। अतः मृतकों का श्राद्ध करना अवैदिक कर्म है ।

प्रश्न २.– | जीवात्मा की गति जब निजकर्मानुसार होती है तो मृतक श्राद्ध की क्या आवश्यकता है ?

प्रश्न ३.– | जब जीवात्मा में लिंगभेद नहीं होता है तो शरीर त्यागने के बाद उसे पितर आदि मानना कैसे बनेगा ? उपनिषद में जीवात्मा को

| “नैव स्त्री न पुमानेषु न चैवायं नपुंसकः। / यद् यच्छरीरं आधत्ते तेन तेन स युज्यते ।।

| (श्वेताश्वेतर उपनिषद ५-१०) अर्थात् जीवात्मा स्त्री, पुरुष या नपुंसक भेद वाला नहीं है। वह जिस-जिस शरीर में जाता है, वैसा ही कहलाता है ।

प्रश्न ४.–

शरीर त्याग के पश्चात् जीवात्मा के लौकिक सम्बन्ध पिता-पुत्रादि के नष्ट हो जाते हैं तो उनके पुत्रादि के दिये पदार्थ वे कैसे प्राप्त करते हैं ?

प्रश्न ५.–

जो अविवाहित रहते हुए मर जाते हैं उनके पितर (मरने के बाद पौराणिक कल्पनानुसार उनकी आत्मा के) न बनने से उनकी मोक्ष कैसे होगी ? भीष्म पितामह व शुकदेव जी की क्या गति हुई होगी ?

प्रश्न ६.–

जिनका वंशनाश हो जाता है, क्या वे पितर भूखे ही मरते रहते हैं ? यदि हां तो क्यों ?

प्रश्न ७.– | किन जीवों का पुनर्जन्म होता है किनका नहीं होता है, किनकी मोक्ष हो जाती है इसका पता लगाने का क्या साधन आपके पास है ? और बिना पता लगाये मृतक का श्राद्ध करना निरर्थक क्यों नहीं है ?

प्रश्न ८.–

मरने पर स्थूल शरीर नष्ट हो जाता है, सूक्ष्म शरीर को भूख-प्यास से कोई सम्बन्ध नहीं होता है न उसे भोजनादि का ग्रहण होता है, तब

आपके पितर भोजन कैसे करते है ?

. प्रश्न ९.– | श्राद्ध में जो पदार्थ दिया जाता है; यदि वह पुनर्जन्म प्राप्त जीवों की यानियों के स्वाभाविक भोजन के अनुकूल न हो तो श्राद्ध से क्या लाभ होगा ?

प्रश्न १०.–

यदि एक पुरुष के चार बेटे चार दूरस्थ नगरों में एक ही दिन, एक ही समय उनका श्राद्ध करें तो उनकी आत्मा चारों स्थानों पर श्राद्ध ग्रहण करने व खाने को कैसे जा सकेंगी ? क्योंकि एक देशीय जीव एक समय पर एक ही स्थान पर विद्यमान हो सकता है ?

प्रश्न ११.–

श्राद्ध का अधिकार सभी जातियों को क्यों नहीं है ?

प्रश्न १२.– | जिन जातियों को श्राद्ध का अधिकार नहीं होता है उनके पितर तो भूखे ही मरते होंगे या दूसरों का माल छीनकर खाते होगे ? उस दशा में उनके झगड़े-फिसाद की शान्ति कौन कैसे करता होगा ? मरने के बाद भी जीवों में ऊँच-नीच का भेद कायम रहना आप क्यों मानते हैं ?

प्रश्न १३.– | मरने के बाद लापता जीवात्माओं के पास पण्डित जी श्राद्ध का मालटाल पहुँचा देते हैं इसका प्रमाण क्या है ?

प्रश्न १४.–|

जब लापता शरीर विहीन जीवात्माओं के पास आप माल पहुँचाना मानते हैं तो परदेश गये लोगों के नाम पर भोजनों का थाल भी क्यों नहीं पहुँचाकर

उन्हें भूख-प्यास से तृप्त कर देते हैं ?

प्रश्न १५.– | कौवों और पितरों का श्राद्ध से क्या सम्बन्ध है जो श्राद्धों में कौवों को भोजन कराया जाता है ? क्या वे पितरों के प्रतिनिधि हैं ?

प्रश्न १६.:

वर्षा ऋतु में क्वार में जब नदी-तालाबों में सर्वत्र जल भरा रहता है, आकाश में बादल पानी लिये खड़े रहते हैं तब जलदान पितरों को करने की क्या

आवश्यकता है ? ग्रीष्म की प्रचण्ड गर्मी में ज्येष्ठ-वैसाख में जलदान क्यों नहीं किया जाता है जबकि पानी की सभी का सख्त जरूरत होती है ?

प्रश्न १७.–

वर्ष भर में केवल एक बार खिला करके पितरों को साल भर तक भूखा मारना और अपना पट दिन में तीन बार रोजाना भर पेट भोजन करके भरते रहना अपने बुजुर्ग पितरों के साथ निकृष्टतम मजाक नहीं है ?

क्या पितरों का हाजमा इतना खराब होता है कि एक बार वाकर साल भर तक उसे हजम भी नहीं कर पाते हैं ?

प्रश्न १८.– | महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय ३२ में लिखा है कि – ‘‘चिकित्सक, मन्दिर का. पुजारी, दूध बेचने वाला, गायत्री जाप व संध्या करने वाला, वेतन लेकर पढ़ाने वाला, इन ब्राह्मणों को यज्ञदान व श्राद्ध में नहीं बुलाना चाहिये । यदि इनको बुलाया जावेगा तो दान का फल नष्ट हो जावेगा तथा यज्ञ-दान व श्राद्ध करने वाले के पितर घोर नरक में जाते हैं।

प्रश्न यह है कि क्या उपरोक्त कर्म करना, पुराण पढ़ना आदि महापाप

कर्म है जो वैसा करने वालों को महापापी माना है ? इनको श्राद्धादि में बुन्नाने का पाप तो श्राद्ध कर्ता द्वारा किया जाता है तो उसके कुकर्म का फल स्वयं विना किये पितरों को क्यों भोगना पड़ता है ?

प्रश्न १९.–

जबकि महाभारत वन पर्व अध्याय १३ श्लोक ७७ (गीता प्रेस) में स्पष्ट लिखा है –

आयुषोऽन्ते प्रहादेव क्षीण प्रायः कलेवरम् ।

सम्भवत्येव युगपदयोनो नास्त्यन्तराभवः’ ।। अर्थात् – एक शरीर त्यागकर दूसरे शरीर को जीव तत्क्षण ग्रहण कर लेता है । वह विना स्थूल शरीर के आश्रय बिना एक क्षण भी नहीं रहता है। गीता २-२२ ने भी जीव के तुरन्त पुनर्जन्म की पुष्टि की है। तब पुनर्जन्म प्राप्त जीवों के लिए श्राद्ध करना मिथ्या कर्म क्यों नहीं है ? क्योंकि प्रत्यक्ष में जन्मे हुए वालको व वड़ों को किसी को भी उनके पूर्व जन्म के स्थान में दिया हुआ श्राद्ध पदार्थ नहीं पहुँचता है ।

प्रश्न २०.–

बतादें कि पितर से तात्पर्य आपका जीवात्मा से हैं या शरीर से है। अथवा जीव संयुक्त शरीर से है ? यदि जीवात्मा से है तो मरने के बाद रिश्ता ही समाप्त हो जाता है । यदि शरीर से है तो वह भस्म होकर समाप्त हो जाता है । यदि जीव संयुक्त शरीर से है तो पितर जीवित पुरुष हुए न कि मृतक ! तब श्राद्ध मुर्दो के नाम पर गलत होगा ।

प्रश्न २१.–

भविष्य पुराण ब्राह्म पर्व अध्याय १८४ श्लोक ५६ में लिखा है

| ‘‘मृतान्न मधु माँसं च यस्तु भन्जीथ ब्राह्मणः ।।

स त्रीण्यहान्युपवसेदेका – हं चोदके वसेत् ।। अर्थात् – जो ब्राह्मण मुर्दे के निमित्त (श्राद्ध का) अन्न, शराब व मांस का सेवन करे वह तीन दिन उपवास करे और एक दिन जल में बैठा रहे तब शुद्ध होगा। इससे स्पष्ट है कि श्राद्ध भोजन किसी भी ब्राह्मण को नहीं करना चाहिए । तब क्या पौराणिक ब्राह्मण श्राद्ध खाकर उक्त प्रकार से प्रायश्चित करते हैं ?

‘‘लाजपतराय अग्रवाल” नोट – | श्री आचार्य डा० श्रीराम आर्य जी द्वारा रचित समस्त खण्डन मन्डनात्मक

 

योग किया नहीं जाता, जीया जाता है: आचार्य धर्मवीर

योग किया नहीं जाता, जीया जाता है

वर्तमान समय में योग एक बहुत प्रचलित शब्द है, परन्तु अपने अर्थ से बहुत दूर चला गया है। योग के सहयोगी शब्दों के रूप में समय-समय पर कुछ शब्दों का प्रयोग होता रहता है- योगासन, योग-क्रिया, योग-मुद्रा आदि। इसी प्रकार कुछ अलग-अलग क्रियाएँ, जिनसे प्रयोजन की सिद्धि हो सकती है, उनका भी योग नाम दिया गया है- राजयोग, मन्त्रयोग, हठयोग आदि। इनसे परमात्मा की प्राप्ति होना अलग-अलग ग्रन्थों में बताया गया है। मूलत: योग शब्द का अर्थ जोडऩा है। जोडऩा गणित में भी होता है, अत: संख्याओं के जोडऩे को योग कहते हैं। जिस कार्य से प्रयोजन की सिद्धि न हो, उसे वह नाम देना निरर्थक है। योग में किसी से जुडऩे का भाव अवश्य है। हम समझते हैं, योग प्रात:काल-सायंकाल करने की चीज है। योग चाहे आसन के रूप में किये जायें, चाहे साधना के रूप में। आसन के रूप में योगासन स्वास्थ्य के लिए किये जाते हैं, किन्तु पूरे दिन स्वास्थ्य-विरोधी आचरण करते हुए योगासन करके कोई स्वस्थ नहीं हो सकता, क्योंकि प्रात:काल-सायंकाल योगासन करके शरीर को सक्रिय तो कर लिया, परन्तु भोजन और विश्राम के द्वारा ऊर्जा का संग्रह किया जाता है। भोजन, विश्राम यदि ठीक नहीं तो आसन व्यर्थ हो जाते हैं। व्यायाम, आसन, प्राणायाम आदि से तो तन्त्र को दृढ़ता और सक्रियता प्रदान की जाती है। उसी प्रकार योग-साधना का प्रयोजन परमेश्वर से मिलना है, उससे जुडऩा या उस तक पहुँचना है। यदि योग परमेश्वर तक पहुँचने के उपाय का नाम है, तो विचार करने की बात यह है कि उस परमेश्वर की प्राप्ति का यत्न तो प्रात:काल सायंकाल घण्टा-दो-घण्टा किया जाये, उससे दूर होने के काम सारे दिन किये जायें तो कल्पना कर सकते हैं कि हम कब तक परमेश्वर को मिल सकेंगे? यह तो ऐसा हुआ जैसे प्रात:काल-सायंकाल अपने गन्तव्य की ओर दौड़ लगाना और दिनभर उसके विपरीत दिशा में दौडऩा। ऐसा व्यक्ति जन्म-जन्मान्तर तक भी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार पूरे जीवन प्रात:-सायं सन्ध्या, योग करते रहने वाला कभी भी परमेश्वर तक नहीं पहुँच सकता, क्योंकि वह उद्देश्य की ओर थोड़े समय चलता है, उद्देश्य के विपरीत अधिक समय चलता है। ऐसा व्यक्ति लक्ष्य से दूर तो हो सकता है, परन्तु लक्ष्य तक कभी भी नहीं पहुँच सकता।

योग परमेश्वर तक पहुँचने का उपाय है, तो यह कार्य कुछ समय का नहीं हो सकता। जैसे कोई व्यक्ति यात्रा पर निकलता है, तो सभी कार्य करते हुए भी उसकी यात्रा, उसी दिशा में निरन्तर आगे-आगे बढ़ती रहती है। मार्ग में वह सोता है, खाता है, बात करता है, किन्तु उसकी न तो यात्रा की दिशा बदलती है, न यात्रा पर विराम लगता है और वह देरी से या जल्दी गन्तव्य तक पहुँच ही जाता है। इसी कारण वेदान्त दर्शन में साधना कब तक करनी चाहिए- इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है- आ प्रायणात्तत्रापि दृष्टम्। लक्ष्य की प्राप्ति तक साधना करने का विधान किया गया है, अत: योग केवल प्रात:काल-सायंकाल की जाने वाली क्रिया नहीं है। यह जीवनरूपी यात्रा है, जिसका प्रयोजन परमेश्वर तक पहुँचना या उसे प्राप्त करना है। यह यात्रा तब तक समाप्त या पूर्ण नहीं हो सकती, जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये। यह जीवन-यात्रा कैसे सम्भव है? इसको बताने वाले अनेक शास्त्र हैं, परन्तु योगदर्शन इसका सबसे अधिक व्यवस्थित, उपयोगी एवं सरल शास्त्र है। इस सारे योगदर्शन को संक्षिप्त किया जाये, तो तीन सूत्रों में बाँधा जा सकता है, शेष शास्त्र तो इन सूत्रों का व्याख्यान है।

प्रथम योग कैसे होता है, यह सूत्र में कहा गया है- योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। चित्त की वृत्तियों के निरोध-अवरोध करने का नाम योग है। जब चित्त की वृत्तियाँ अर्थात् उनका बाह्य व्यापार रुक जाता है, तो प्रयोजन की प्राप्ति हो जाती है। अगले सूत्र में बतलाया गया है, वह प्रयोजन क्या है, जो चित्त के बाह्य व्यापार को रोकने से सिद्ध होता है? तो पतञ्जलि मुनि कहते हैं- तदा द्रष्टु: स्वरूपे अवस्थानम्। चित्त का कार्य ही आत्मा को संसार से जोडऩा है, जब उसे संसार से जोडऩे के काम से रोक दिया जाता है तो वह बाहर के व्यापार को छोड़ कर भीतर के व्यापार में लग जाता है। उसके भीतर का व्यापार आत्मदर्शन कहलाता है, जब वह स्वयं में स्थित होता है तो अपने में स्थित परमात्मा का भी उसे सहज साक्षात्कार होता है, अत: योग परमात्मा के साक्षात्कार करने का नाम है। जब हमारा चित्त हमारी आत्मा में नहीं होता तो निश्चित रूप से विपरीत दिशा में लगा होता है। क्योंकि मन एक क्षण के लिए भी निष्क्रिय नहीं रहता, अत: मनुष्य के सोते, जागते, वह कार्य में लगा रहता है, तब यदि वह अन्तर्मुखी नहीं होगा तो निश्चित रूप से बहिर्मुखी होगा। उसी को बताने के लिये पतञ्जलि मुनि ने सूत्र बनाया है- वृत्तिसारूप्यमितरत्र चित्त की वृत्तियों का निरोध न करने की दशा में चित्त सांसारिक व्यापार में ही लगा रहता है। यह स्वाभाविक और अनिवार्य है।

योग एक यात्रा है, जो जीवन के प्रयोजन को प्राप्त करने के लिए की जाती है। इस योग को समझने के लिए एक और विधि हो सकती है। संक्षेप में योग क्या है- जैसे एक शब्द में योग को समझाना हो तो कैसे समझा जाये? एक शब्द में योग को जानना हो तो वह शब्द है- ईश्वरप्रणिधान। प्रणिधान शब्द का अर्थ है- समर्पण। जब कोई साधक सिद्ध बन जाता है, अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, तब वह ईश्वर के प्रति अपना समर्पण कर देता है। जब व्यक्ति में समर्पण आता है, तब उसे अपना कुछ भी पृथक् रखने की इच्छा नहीं रहती, सब कुछ उसे उसका ही लगता है, जिसके प्रति वह समर्पित होता है। इसकी व्याख्या करते हुए व्यास जी कहते हैं- ऐसे साधक के कर्मों में- ईश्वरार्पणं तत्फलसंन्यासो वा, जैसे वह या तो स्वामी से पूछ कर कार्य करता है, उसके आदेश का पालन करता है और स्वयं कोई कार्य करता है तो उसे स्वामी के अर्पण कर देता है अर्थात् किये हुए कार्य के फल की इच्छा नहीं करता। ईश्वर और उसके मध्य स्वामी-सेवक का सम्बन्ध होता है, जैसे- श्रेष्ठ सेवक सदैव स्वामी को प्रसन्न करना चाहता है, सदा स्वामी के हित साधन में तत्पर रहता है, उसी प्रकार उपासक अपने उपास्य को प्रसन्न करने में तत्पर रहता है। स्वामी के आदेश की प्रतीक्षा करता है, आज्ञा पालन कर प्रसन्न होता है, अपने को धन्य समझता है, कृत-कृत्य मानता है।

ईश्वरप्रणिधान का महत्त्व समझने के लिये योगदर्शन के सूत्रों पर चिन्तन करना अच्छा रहता है। सूत्रों पर विचार करने से पता लगता है कि योग के अंगों में सबसे महत्त्वपूर्ण शब्द ईश्वरप्रणिधान है। योग दर्शन में साधना, समाधि की सिद्धि के बहुत सारे उपायों में पहला मुख्य उपाय बताया है, ईश्वरप्रणिधान। पतञ्जलि ने सूत्र लिखा है- समाधिसिद्धिरीश्वर- प्रणिधानात्- ईश्वरप्रणिधान से समाधि सिद्ध हो जाती है। व्यास कहते हैं- ईश्वरप्रणिधान से परमेश्वर प्रसन्न होकर तत्काल उसे अपना लेता है।

कुछ विस्तार से योग समझाते हुए योगदर्शन के दूसरे पाद में, जिसे साधन पाद कहा गया है, उसमें क्रिया योग और अष्टांग योग का व्याख्यान किया है। इन दोनों स्थानों पर ईश्वरप्रणिधान का उल्लेख किया गया है। क्रिया योग का पहला सूत्र है- तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:। तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान क्रिया योग के तीन अङ्ग हैं। इसी प्रकार अष्टांग योग में सर्वप्रथम यम-नियमों की चर्चा की गई है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि। इन आठ अंगों में प्रथम दो हैं- यम और नियम। यम हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। नियम हैं- शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान। इस प्रकार नियमों में अन्तिम है- ईश्वरप्रणिधान। विस्तार से जब योग का कथन किया जाता है तो उसे अष्टांग योग कहते हैं। इसमें भी ईश्वरप्रणिधान है। कुछ कम विस्तार से योग के अंग बतलाये गये हैं- तप: स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि क्रियायोग:। इसमें भी ईश्वरप्रणिधान है तथा समाधि पाद में एक शब्द में जब योग की बात की गई है तो भी कहा गया- समाधिसिद्धिरीश्वर- प्रणिधानात्। अर्थात् एक शब्द में योग ईश्वरप्रणिधान है। यही उपासना है।

उपासना का अर्थ समझने के लिए उपनिषद् में एक सुन्दर दृष्टान्त आया है। वहाँ कहा गया है- जैसे भूखे बच्चे माँ की उपासना करते हैं, उसी प्रकार देवता अग्निहोत्र की उपासना करते हैं। उपासना ऐच्छिक नहीं है, जब इच्छा हुई की, जब इच्छा हुई नहीं की। समय मिला तो कर ली, नहीं समय मिला तो नहीं की। उपासना एक आन्तरिक भूख है, एक आवश्यकता है, जिसे पूरा किये बिना रहा नहीं जा सकता। एक भूख से पीडि़त बालक को माँ की जितनी आवश्यकता लगती है, उतनी ही तीव्र उत्कण्ठा एक उपासक के मन में उपास्य के प्रति होती है। तब उपासना सार्थक होती है। मनुष्य जिससे प्रेम करता है, जिसे चाहता है उसके निकट रहना चाहता है, उसी प्रकार परमेश्वर को उपासक अपने निकट देखना चाहता है। सदा अपने प्रिय की निकटता की इच्छा करना ही उपासना है।

जनसामान्य के मन में उपासना करने को लेकर बहुत संशय रहता है। उपासना कैसे प्रारम्भ की जाये, चित्त की वृत्तियों को कैसे रोका जाये, मन परमेश्वर में कैसे लगे आदि-आदि। जो लोग उपासना के अभ्यासी हैं, उनके अनुभव नवीन साधक के लिये उपयोगी हो सकते हैं। जहाँ तक मन को एकाग्र करने का प्रश्न है, मन कभी खाली नहीं रहता, उसकी रचना प्रकृति से हुई है, अत: वह स्वाभाविक रूप से सांसारिक विषयों की ओर दौड़ता है। उसे हम रोकना चाहते हैं, वह रुकने का नाम नहीं लेता। ऐसी परिस्थिति में मन को नियन्त्रित करने का सरल उपाय है- अपने पूर्व कार्यों का चिन्तन करना। इसमें प्रतिदिन प्रात:-सायं अपने दिनभर, रातभर के कार्यों पर विचार करने का विधान तो है ही, यदि दिन में जब भी खाली समय मिले, अपने पिछले कार्यों के विचार में मन को लगाया जाये, तो मन सरलता से अपने कार्यों पर विचार करने में व्यस्त हो जाता है। आज के, कल के, सप्ताह के या मास के कार्यों पर चिन्तन करते-करते मन अनायास ही उपासक के नियन्त्रण में हो जाता है। मन अपेक्षा करने लगता है कि उसे किसी कार्य में लगाया जाये, उसी समय मन को वाञ्छित कार्य में लगाया जा सकता है। उपासना की सफलता और उपासना में गति लाने के कई सरल नियम हैं, उनमें उपासना के लिए स्थान और समय का निश्चित करना भी आता है। निश्चित स्थान और निश्चित समय उपासक को उपासना के  लिये प्रेरित करते हैं। उपासना में बैठने के बाद आसन को सहज भाव से बिना बदले उपासक कितने समय बैठ सकता है, यह महत्त्वपूर्ण है। वस्तुत: आसन में इन्द्रियों को एकाग्र करने में सबसे सहयोगी क्रिया यही है कि उपासक कितनी देर तक आँखें बन्द करके बैठ सकता है? इन सामान्य बातों से उपासना में रुचि और गति दोनों बढ़ती हैं।

अब हमारी समझ में आ सकता है कि योग केवल प्रात:काल और सायंकाल किया जाने वाला व्यायाम नहीं, अपितु चौबीस घण्टे आनन्द में रमण करने का नाम है। जब हम जागते हुये, प्रात:काल के समय ब्रह्ममुहूर्त में सन्ध्या करते हैं, तब आँख बन्द करके योग करते हैं। सूर्योदय के समय सबके साथ बैठकर घी, सामग्री, समिधा से अग्निहोत्र करते हैं, यह भी उपासना है। अग्निहोत्र के लाभ बतलाते हुए ऋषि दयानन्द कहते हैं- यज्ञ में मन्त्रों के पढऩे से परमेश्वर की उपासना भी होती है। हम कह सकते हैं- यह आँख खोलकर अग्निहोत्र करना उपासना ही है। इसी प्रकार चौबीस घण्टे के व्यवहार में भी उपासना होनी चाहिए, तब उपासना क्या होगी? तब उपासना यम-नियम का पालन करना, दुकान करना, खेती करना, मजदूरी करना, नौकरी करना, सब कुछ उपासना होगी। उस समय यम-नियमों का पालन हो रहा होगा। इस प्रकार अकेले उपासना करना सन्ध्या है, परिवार के साथ उपासना करना अग्निहोत्र है और पूरे दिन सबके साथ, सभी प्रकार का व्यवहार यम-नियम पूर्वक करना सार्वजनिक उपासना है। यही योग है।

सामान्यजन की धारणा रहती है कि मुक्ति तो परमेश्वर की वस्तु है, वह उसकी कृपा व उसकी उपासना से मिलती है। यह बात सब लोग मानते और समझते हैं परन्तु संसार के विषय में ऐसा समझते हैं कि यह ईश्वर की वस्तु नहीं है या उससे विपरीत वस्तु है, इसीलिए संसार की वस्तुओं को पाने के लिए हम ईश्वर के विपरीत चलना आवश्यक मानते हैं। जबकि सच तो यह है कि संसार भी उसी ईश्वर का है जिसकी मुक्ति है, फिर जिस योग की साधना से ईश्वर मुक्ति देता है, वही ईश्वर योग की साधना करने से संसार के सामान्य सुख से वञ्चित क्यों रखेगा? योग संसार से होकर मुक्ति तक जाने का मार्ग है, इसलिए संसार का सुख भी बिना योग के मिलने की कल्पना नहीं की जा सकती। इस प्रकार संसार योग का विरोधी नहीं, योग की प्रयोगशाला है।

योग जीवन की यात्रा है, इसमें कभी गति तीव्र होती है, कभी मध्यम और कभी मन्द। इतना ही सब उपासना काल के बीच अन्तर है। इसी भाव को कृष्ण जी ने गीता के निम्न श्लोकों में कहा है-

नैव किञ्चित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।

पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्।।

प्रलपन्विसृजन्गृöन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।

नारी उत्थान में महर्षि का योगदान : डॉ दिनेश

वर्तमान युग कहने को तो बहुत प्रगतिशील, तर्कवादी और वैज्ञानिक सोच का युग है, परन्तु जब इस युग में प्रभावी समस्याओं पर दृष्टिपात करते हैं, तो बहुत निराशा होती है। राजनीतिक, सामाजिक, वैयक्तिक समस्याओं से व्यक्ति हर स्तर पर जूझ रहा है। इन समस्याओं का समाधान क्या है? इस पर बहुत-से चिंतन और विचार सामने आते हैं, परन्तु कोई भी प्रभावी नहीं हो पाता। इतिहास का सूचना-भंडार हमारे सामने मौजूद हैं, परन्तु इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में समझने का बोध उत्तरदायी या समर्थजनों में शायद नहीं है।

वैदिक दृष्टिकोण से हम आर्यजन प्रत्येक समस्या पर विचार करने के अभ्यस्त हैं। ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि हमारा मानना है कि इसी दृष्टिकोण से विचार करने पर हम प्रत्येक समस्या का समुचित निदान पा सकते हैं। वेदों पर आधारित अन्य वैदिक साहित्य और महापुरुषों ने हमें पदे-पदे मार्गदर्शन दिया ही है। अत: हमें उनकी अवहेलना न करते हुए समस्याओं का समाधान खोजना चाहिए।

आज एक विकराल समस्या महिलाओं के उत्पीडऩ की है। वैज्ञानिक युग में, उदारवादी सोच और विपुल कानूनी प्रावधानों के बावजूद आज भी स्त्री प्रताडि़त और शोषित है, अकल्पनीय अत्याचारों की शिकार है। आखिर दोष कहाँ है? हमारे विचार में दोष सोच में है। विभिन्न संचार-माध्यमों ने नारी के प्रति एक संकुचित और विकृत सोच को जन्म दिया है, जो उसे स्वेच्छाचारिणी और भोग्या के रूप में देखने का संस्कार या विकार शिक्षा एवं समाज में प्रारम्भिक स्तर से उत्पन्न करता है। इस विकृत सोच या मानसिकता को स्त्री-स्वातन्त्र्य का बाना पहनाकर प्रस्तुत किया गया है, ताकि स्त्री इस आकर्षण में आबद्ध रहकर लम्पटों का शिकार बनती रहे।

ऐसे में किसी भी पुरातन या शास्त्रीय विचार को पिछड़ा या प्रतिगामी कहकर तुरन्त खारिज किया जा सकता है या फिर ऐसा विचार देने वालों की बौद्धिक कुटाई-पिटाई की जा सकती है। परन्तु जब तथ्यों और तर्क की कसौटी पर हम शास्त्रीय, विशेषत: वैदिक विचारों को परखते हैं, तो हमें स्पष्ट प्रतीत होता है कि वैदिक मार्ग के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग स्त्री के उद्गार का और उसे न्याय दिलाने का है ही नहीं। विचारिए कि वैदिक साहित्य में नारी ब्रह्मवादिनी है, देवी है, साम्राज्ञी है, शिक्षिका है, विदुषी है, नेत्री है, उपदेशिका है, पूज्या है और प्रकाशिका है। पति की सर्वोत्तम मित्र और सचिव भी वही है। यदि इन गुणों की धारणकत्र्री को आदर्श जानकर चला जाए, तो कौन उसे सम्मान नहीं देना चाहेगा? दुर्भाग्य से मध्यकाल में विपरीत विचारों वाले विदेशी आततायियों का देश में शासन होने पर स्त्रियों की दुर्दशा प्रारम्भ हुई। उनको सहेजकर रखने वाली ‘वस्तुÓ के रूप में रखा गया। उनको बंधन में रखने के लिए स्मृतियों और विधानों की रचना की गई। परन्तु, भारतवर्ष में उन्नीसवीं शताब्दी में उनके एक उद्घाटक का आविर्भाव हुआ, जो मानवमात्र के परम हितैषी सिद्ध हुए। वे ‘ऋषिÓ की पदवी के योग्य महामानव थे।

दयानन्द का ऋषित्व यह था कि वेदार्थ को समझने के अधिकारी होने की योग्यता तो उनमें थी ही, परमात्मा के सत्यस्वरूप और न्यायकारी होने का गुण भी उनमें मानवीय सामथ्र्य की सीमा तक विद्यमान था। वे प्राणिमात्र के प्रति सहानुभूति की भावना को सत्य का ही अंश समझते थे। स्त्री-पुरुष में असमानता का बर्ताव उन्हें असह्य था। महर्षि ने वेदों के प्रमाणों और तर्क के आधार पर पुरुष और नारी की समानता का उद्घोष किया। उनका कथन था ”ईश्वर के समीप स्त्री-पुरुष दोनों बराबर हैं। कारण, ईश्वर न्यायकारी है। अत: उसमें पक्षपात का लेश भी संभव नहीं है।ÓÓ पुराकाल में जो स्त्री परिवार की धुरी की भाँति थी, संतति की निर्मात्री थी, जिसके बिना समाज में विद्या और शिक्षा का प्रचार और प्रसार संभव नहीं था। उसे ही विद्या-विहीन और सामाजिक कार्यों से विरत कर घर की सीमा में पशु की भाँति बाँध दिया गया था। महर्षि की विचारधारा ने स्त्री-जगत् को यह साहस दिया कि वह अपनी पीड़ा और अपनी दुरवस्था के विचारों को प्रकट कर सके।

महर्षि दयानन्द ने अपने उद्बोधन, पत्रों तथा अन्यान्य लेखन में सर्वत्र महिला-उत्पीडऩ के विरुद्ध कार्य करने के निर्देश दिए हैं। यद्यपि महाभारत युद्ध के बाद समाज में अनेक दुर्गुणों का समावेश हो गया था और जहाँ राजधर्म विखण्डित हुआ वहीं समाज में विभिन्न प्रकार की दुर्नीतियाँ प्रचलित हो गईं। 8वीं शताब्दी के बाद इस्लामी आक्रमण के प्रारम्भ होने से भारतीय समाज में नारी की दशा और भी दयनीय होती गई। पुरुषों का वर्चस्व और नारी को हेय मानने की प्रवृत्ति बढ़ती ही गई। जबकि प्राचीन भारतीय सत्शास्त्रों में नारी की गौरवमयी स्थिति विद्यमान थी, जिसके अनुसार नारियाँ सभा और समिति में भाग लेती थीं, युद्धों में और खेलों में उनकी भागीदारी थी, विदुषी और ब्रह्मवादिनी महिलाओं के नाम भारतीय इतिहास में बिखरे पड़े हैं। इसलिए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सामान्यतया महिलाओं के अधिकार सुरक्षित थे, भले ही वैदिक शास्त्रों से इतर ग्रन्थों में यत्र-तत्र उनके अधिकारों का अतिक्रमण किया गया हो, लेकिन वे वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध होने के कारण स्वीकार नहीं किए जा सकते।

महर्षि ने नारी की दशा को देश में भ्रमण करते हुए अनुभव किया था। इसीलिए उन्होंने स्त्री-शिक्षा, स्त्री के विवाह की उम्र, स्त्री की समाज में सक्रियता, उनकी शिक्षा इत्यादि के संबन्ध में लिखा और अपने भाषणों में भी इस विषय पर पर्याप्त प्रवचन किया। उन्हीं के उपदेशों का अनुसरण कर बाद के आर्य नेताओं ने कन्या-गुरुकुल, कन्या डीएवी कॉलेज, स्त्री आर्यसमाज इत्यादि संगठनों का निर्माण किया और महिलाओं के बीच जागृति उत्पन्न करके उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोडऩे का महनीय कार्य किया।

उदाहरण रूप में हम चर्चा करें, तो एक साहसी महिला थी हरदेवी। इस अप्रसिद्ध-सी विधवा महिला ने 1881 में स्त्री-विलाप नामक एक कविता लिखी थी जिसके द्वारा तत्कालीन महिलाओं की स्थिति को बखूबी समझा जा सकता है। महिला सुधार हेतु उपर्युक्त हरदेवी का योगदान महत्त्वपूर्ण है। ये प्रसिद्ध रायबहादुर कन्हैयालाल की पुत्री थीं। कन्हैयालाल जी लाहौर के आधुनिक भवन-निर्माताओं में से थे। हरदेवी पहली ऐसी महिला थी जिसका महर्षि दयानन्द के उपदेशों के बाद विधवा-विवाह आर्यसमाज के प्रसिद्ध विद्वान् और एडवाकेट रोशनलाल, बैरिस्टर एट लॉ के साथ बहुत विरोधों के बावजूद हुआ। बाद में रोशनलाल आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के मंत्री चुने गए जिन्होंने इंग्लैण्ड से वकालत की डिग्री प्राप्त की थी। वे गौरक्षक और प्रसिद्ध समाजसुधारक थे। इन्हीं आर्यसमाजी रोशनलाल ने जब समाज के विरोध के बावजूद इस विधवा महिला से विवाह किया तो उसका कारण इस महिला के द्वारा महिला कल्याण के लिए किए जा रहे कार्यों से प्रभावित होना ही था। तत्कालीन एक अन्य प्रसिद्ध महिला जानकी देवी ने हरदेवी के विषय में लिखा था कि ”हरदेवी लाहौर के बैरिस्टर रोशनलाल की पत्नी, समाजसेविका, हिन्दी पत्रिका ‘भारत-भगिनीÓ की सम्पादिका थीं जो क्रांतिकारियों के मुकदमों में धन इक_ा करके सहायता देती रहीं।ÓÓ आर्यसमाज के इतिहास में सत्यकेतु विद्यालंकार ने पटियाला षड्यंत्र केस में हरदेवी द्वारा प्रकाशित समाचारपत्र ‘भारत-भगिनीÓ को राजद्रोहात्मक साहित्य मानकर उसे जब्त करने का उल्लेख किया है तथा रोशनलाल के योगदान को रेखांकित किया। स्पष्टत: हरदेवी ने आर्यसमाज और महर्षि दयानन्द के साथ-साथ पण्डिता रमाबाई से भी महिला कल्याण की प्रेरणा ली थी।

हरदेवी को पढ़ाई के लिए इंग्लैण्ड भेजा गया और यह माना जाता है कि वे पहली ऐसी हिन्दीभाषी महिला थीं जिन्होंने लंदन में जाकर बालिकाओं के लिए किण्डर गार्डन पद्धति से शिक्षा का अध्ययन किया। हरदेवी ने भाग्यवती, सासपतोहु वामाशिक्षक, लंदन यात्रा, हुकुमदेवी-हिन्दू धर्म की उच्चता में एक सच्ची कहानी, सीमन्तनी उपदेश, स्त्रियों पर सामाजिक अन्याय, पुनर्विवाह से रोकना, भारत-भगिनी, स्त्री-विलाप इत्यादि अन्यान्य पुस्तकों और पत्रकों की रचना की।

उपर्युक्त विदुषी महिला श्रीमती हरदेवी का उदाहरण इस कारण प्रस्तुत किया गया है कि तत्कालीन स्त्रीशिक्षा-विरोधी वातावरण में भी महर्षि दयानन्द और उनके अनुयायियों ने किस प्रकार स्त्रीशिक्षा और उनकी अन्य समस्याओं के निराकरण हेतु जो कार्य किया; इसके महत्त्व को आज के शोधार्थी समझें और वर्तमान संदर्भों में वैदिक शिक्षा के दृष्टिकोण को अपनाएँ। स्त्रियों की महत्ता और स्वस्थ समाज के निर्माण में उनकी महती और शाश्वत भूमिका को केवल वैदिक दृष्टि से ही समझा जा सकता है, क्योंकि संस्कारों के सुदीर्घकालीन अभ्यास से ही वैचारिक शुद्धता संभव है, और ऐसी स्थिति का निर्माण होने पर ही स्त्रियों के प्रति सम्मान की भावना का उदय होगा और जिससे उनके प्रति अन्याय समाप्त हो सकेगा। स्त्रियों की शास्त्रोक्त महत्ता को समझना आवश्यक है, जहाँ कहा गया है-

यस्यां भूतं समभवद् यस्यां विश्वमिदं जगत्।

तामद्य गाथां गास्यामि या स्त्रीणामुत्तमं यश:।।

– दिनेश

ऋषि दयानन्द का हत्यारा कौन? –डॉ. धर्मवीर जी

साभार :- परोपकारी पत्रिका 1994

ऋषि दयानन्द का हत्यारा कौन?

 

कुछ दिन पहले परली बैजनाथ में था, वहाँ यमुनानगर से श्री इन्द्रजित देव का दूरभाष आया, जिसमें सत्यार्थ प्रकाश के सम्बन्ध में अग्निवेश द्वारा दिये गये वक्तव्य की चर्चा थी। कल उनके द्वारा भेजी गई समाचार पत्रों की कतरने भी मिलीं, जिनमें अग्निवेश का वक्तव्य तथा पंजाब में उस पर हुई प्रतिक्रिया छपी है। अग्निवेश का यह वक्तव्य भड़काऊ और शान्तिभंग करने वाला है। यह बात उस पर हई प्रतिक्रिया से भली प्रकार जानी जा सकती है।

११ जून के पंजाबी दैनिक स्पोक्समेन चण्डीगढ़ के पृष्ठ १ पर छपे अग्निवेश के वक्तव्य में कहा गया है कि वह आर्यसमाज का मुखिया हैं। और उन्होंने जोर देकर कहा- मुखिया होने के नाते वह वायदा करता है कि सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ दोबारा छापा जायेगा, इस ग्रन्थ को दोबारा छापने से पूर्व शिरोमणि कमेटी से वांछनीय सझाव मांगे जायेंगे। उसका यह भी कहना है कि सब धर्म महान् और सब ग्रन्थ पवित्र हैं।

इस वक्तव्य को पढ़कर ऐसा लगता है कि कल अग्निवेश पाकिस्तान में मुशर्रफ से मिलने जाये और तोहफे में दिल्ली भेट कर आये तो आप उसे क्या कहेंगे? यह तो उसकी मर्जी है, वह दिल्ली भेंट दे सकता है, परन्तु क्या अग्निवेश के कहने से दिल्ली मुशर्रफ की भेंट हो जायेगी?

सत्यार्थ प्रकाश के सम्बन्ध में दिया गया वक्तव्य इसी कोटि का है।

पहले तो जो व्यक्ति अपने को आर्यसमाज का मुखिया बता रहा है, वह मुखिया है भी? इस व्यक्ति ने अपने जीवन में जो किया, चोर दरवाजे से, उलटे रास्ते किया। दूसरों के द्वारा बुलाये गये सम्मेलनों में जाकर उनका कार्यक्रम बिगाड़ना इस व्यक्ति फितरत रही है।

सभी संस्थाओं में धाँधली करना. चोर दरवाजे से घुसने की कोशिश करना जीवन भर का कार्यक्रम रहा उसी के चलते सार्वदेशिक सभा के भवन में उसने कब्जा कर लिया, ऐसा करके यदि कोई अपने को मुखिया कहे तो इसमें गलत कुछ भी नहीं। आज समाज और राजनीति में दादा लोग स्वयं ही मुखिया बन जाते हैं, उन्हें कोई मुखिया बनाता नही है।

इससे भी महत्त्वपूर्ण बात है कि इस मुखिया को पता नहीं है कि आर्यसमाज के संगठन की वैधानिक स्थिति क्या है, ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में तीन संगठन बनाये और तीन ही संविधान बनाये।

गोकरुणानिधि लिखी तो गोकृष्यादिरक्षणी सभा बनाई, उसके नियम और विधान बनाये, जीवन के अन्तिम दिनों में ऋषि ने परोपकारिणी सभा बनाई और उसका विधान और नियम बनाये।

इस अन्तिम सभा को महाराणा उदयपुर के यहाँ पर पंजीकृत कराया और सभा को अपनी समस्त चल, अचल सम्पत्ति सौंपी तथा अपने ग्रन्थ, यंत्रालय, वस्त्र, रुपये के साथ अपना उत्तराधिकार सौंपा।

इतनी ही नहीं, ऋषि ने अधिकांश ग्रन्थों की रजिस्ट्री भी कराई, जिससे कोई अग्निवेश उनके ग्रन्थों में उलट फेर न कर सके। चूंकि रजिस्ट्री कानूनन पचास साल तक चलता है, अत: अन्य लोग ऋषि ग्रन्थ पचास साल बाद ही छाप सके। इस प्रकार सत्यार्थ प्रकाश के सम्बन्ध में अग्निवेश को किसी तरह का वक्तव्य देने का अधिकार ही नहीं है, परन्तु अग्निवेश को नियम औचित्य की परवाह ही कब है? यह फुंस के ढेर में आग लगाकर तमाशा देखने का आदी है।

यह वक्तव्य गलत है, एक अनधिकृत व्यक्ति के द्वारा दिया गया है, परन्तु लोगों को क्या पता कौन अधिकृत है। और कौन नहीं है? समाज गुटों में बँटा है, मुकदमों में फँसा है, जो चाहे अपने को मुखिया कह सकता है, इसलिए इस गलत वक्तव्य का भी समाज पर गंभीर प्रभाव होना ही था, हो रहा है।

पंजाबी दैनिक स्पोक्समेन चण्डीगढ़ १२ जून के पृष्ठ ३ पर खबर जो बरनाला शहर के हवाले से छपी है, उसमें कहा गया है,

“आर्यसमाज के मुखिया अग्निवेश की ओर से अमृतसर में श्री गुरु अर्जुनदेव की चौथी बलिदान शताब्दी को समर्पित शिरोमणि कमेटी की ओर से कराये गये आर्यसमाज के ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को दोबारा शोध कर प्रकाशित करने की घोषणा का हार्दिक स्वागत करते हुए गुरु गोविन्द सिंह स्टडी सर्किल युनिट बरनाला के प्रधान प्रि. कर्मसिंह भण्डारी ने कहा कि इस ग्रन्थ का शोधन करते समय केवल गुरु नानक देव जी के बारे में लिखे अपशब्द ही नहीं हटाये जायें अपितु श्री गुरु अर्जुनदेव जी के महावाक्य ‘ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर’ के अर्थ का बिगाड़ रूप, श्री गोविन्दसिंह जी की ओर सज्जित व खालसा पन्थ के वरदान रूप में दिये ५ ककारों का उड़ाया गया मखौल तथा श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी के सत्कार प्रति लिखे अपशब्दों के अतिरिक्त भक्त शिरोमणि कबीर जी, दाददयाल, महात्मा बद्ध तथा जैन धर्म की की गई निन्दा के शब्द भी हटाये जायें।”

समाचारों की इन पंक्तियों को पढने के बाद यह समझना इतना कठिन नहीं है कि अग्निवेश ने अपने वक्तव्य से ऋषि दयानन्द को गलत साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अगले ही दिन १२ जून के पंजाबी अखबार दैनिक स्पोक्समेन पृष्ठ ३ पर जालन्धर के हवाले से छपी पंक्तियां गौर करने लायक हैं-

“अमृतसर में अग्निवेश की ओर से सत्यार्थ प्रकाश में संशोधन करने सम्बन्धी बयान पर प्रतिक्रिया प्रकट करते हुए महान् चिन्तक श्री सी.एल. चुम्बर ने इस पुस्तक पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने की माँग की। उन्होंने  कहा कि इस पुस्तक में श्री गुरुनानक देव साहिब के अतिरिक्त भक्त कबीर जी, ईसाइयों, बौद्धों, जैनियों तथा मुसलमानों विरुद्ध काफी कुछ आपत्तिजनक शब्द लिखे गये हैं…। सत्यार्थ प्रकाश सम्बन्धी और विवरण देते हुए श्री चुम्बर ने बताया कि इसमें समाज को जातियों-पॉतियों में बाँटने वाली मनुस्मति के १५० से अधिक सन्दर्भ दर्ज हैं।” |

२६ जून २००६ को आउटलुक पत्रिका ने लिखा- चर्चित सामाजिक कार्यकर्ता और प्रगतिशील संत कहे जाने वाले स्वामी अग्निवेश ने एक नया शिगूफा छोड़ दिया है। पंजाब में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा पंचम गुरु अर्जुन देव जी के ४०० वे शहीदो वर्ष को समर्पित एक सेमीनार को संबोधित करते हुए स्वामी अग्निवेश ने यह दावा कर दिया कि आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में सिखों के प्रथम गुरु गुरुनानक देव जी  के बारे में की गई टिप्पणियों को संशोधित किया जाएगा।

वर्ल्ड कौंसिल ऑफ आर्यसमाज के अध्यक्ष होने के नाते स्वामी अग्निवेश ने पंजाब के राज्यपाल जनरल (सेवा.) एस. एफ. रोड्रिग्स, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, एसजीपीसी के मुखिया अवतार सिंह मक्कड बोबी जागीर कौर की मौजूदगी में यह दावा किया कि सत्यार्थ प्रकाश का आगामी संस्करण संशोधित होगा और जिन बातों पर सिख बुद्धिजीवियों को आपत्ति है, उन अंशों को हटा दिया जाएगा।

उसके इस दावे से पंजाब में एक नई बहस उठ खड़ी हुई है, जिसने नई पीढ़ी के सिख युवकों में जिज्ञासा पैदा कर दी है कि स्वामी दयानन्द जी ने प्रथम गुरु श्री गुरुनानक देव जी के बार में ऐसी कौन-सी आपत्तिजनक बातें लिखी थी जिन्हें इस वक्त हटाने की जरूरत पड़ गई है? दूसरी तरफ पुरानी पीढ़ी के सिखों को शिरोमणि अकाली दल व आर्यसमाज के बीच पुराने विवादों का वह दौर याद आ गया है, जब अकालियों व आर्यसमाजियों के बीच तनातनी के रिश्ते थे |

 

 अग्निवेश को आर्यसमाज के सिद्धान्तों में कोई आस्था नहीं रही। ऋषि में कोई निष्ठा नहीं, उसकी आर्यसमाज को समाप्त करने के लिए विधर्मी और राष्ट्र विरोधी लोगों की ताकत बढ़ाने वाले कार्यकर्ता की छवि है। जो व्यक्ति सब धर्मों को पवित्र और सब धर्म ग्रन्थों को महान् बता रहा है, वही व्यक्ति ऋषि दयानन्द को और सत्यार्थ प्रकाश को गलत साबित कर रहा है। उसकी नजर में वैदिक धर्म महान् नहीं है, सत्यार्थ प्रकाश उसके लिए पवित्र नहीं है।

अग्निवेश का यह कोई आर्यसमाज और दयानन्द को गलत साबित करने का पहला प्रयास नहीं है, व्यक्तिगत रूप से और मंच से ऐसी बातें पहले भी अनेक बार कही गई हैं। परली बैजनाथ में कार्यकर्ताओं से विचार-विमर्श के दौरान दिल्ली सभा के प्रधान श्री राजसिंह ने बताया था कि हवाई जहाज में यात्रा करते हुए सत्यार्थ प्रकाश से १३वें व १४वें समुल्लास को निकालने की चर्चा अग्निवेश ने की थी। आर्यसमाज को सन्ध्या एण्ड हवन कम्पनी कहना इन्हीं लोगों ने शुरू किया था।

पिछले दिनों स्वामी सम्पूर्णानन्द करनाल वालों ने एक प्रसंग सुनाया। जब उड़ीसा में एक पादरी को जिन्दा जलाया गया था, अग्निवेश ने एक यात्रा निकालने की तैयारी की थी। इस व्यक्ति ने स्वामी सम्पूर्णानन्द को यात्रा के लिये निमन्त्रित किया।

उन्होंने कहा- उससे अधिक हिन्दू कश्मीर में मारे गये हैं, उनके लिए यात्रा निकालना पहले आवश्यक है।

अग्निवेश ने कहा ईसाई अल्पसंख्यक हैं, अत: उनका समर्थन जरूरी है।

स्वामी सम्पूर्णानन्द ने कहा- कश्मीर में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं, इसलिए उनका ध्यान रखना अधिक जरूरी है।

इसका उत्तर अग्निवेश के पास नहीं था, क्योंकि समर्थन कमजोर का नहीं ईसाई का करना था। यहाँ स्मरण दिलाना उचित होगा कि अग्निवेश की सिफारिश पर चर्च ने धर्मबन्धु को २२ लाख रुपये का सहयोग किया था।

इससे अग्निवेश और चर्च के रिश्तों का अनुमान लगाया जा सकता है। अमेरिका वैदिक धर्म का प्रचार करने वालों को राय बहादुर नहीं बनाता, राय बहादुर बनने के लिए उनकी सेवा उनकी शर्तों पर करनी पड़ती है।

इस व्यक्ति की न संगठन में आस्था है, न सिद्धान्त में। इस व्यक्ति ने अपने जीवन में संगठन और सिद्धान्त को जितना तहसनहस किया जा सकता था, उसे करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, फिर इस व्यक्ति को जो मिला, उसके पीछे समाज में और संगठन में सिद्धान्तहीन, स्वार्थी, कमजोर लोगों का होना ही मुख्य कारण रहा है। जिस समय इस व्यक्ति ने सार्वदेशिक सभा भवन पर कब्जा किया, उस समय आर्यजनता को दु:ख हुआ, परन्तु जो गये उनको समाज के लोग स्वार्थी और कमजोर मानते थे। समाज के लोग सिद्धान्तहीन होते जाते हैं, तभी दुष्ट लोग नेतृत्व पर काबिज होते हैं।

सार्वदेशिक भवन में बैठकर तथा उससे पहले भी संगठन को विकृत करने के लिए अग्निवेश ने मुसलमान, ईसाइयों को आर्यसमाज का सदस्य बनाने की वकालत की थी। ऐसा करने वालों के बारे में हमें स्पष्ट होना चाहिए जो कि स्वार्थी दष्ट प्रकृति का होता है उसे संस्था, समाज या देश के नुकसान की चिन्ता नहीं होती। यह कहना कि ईसाई मुसलमान रहते हुए वह आर्यसमाजी हो सकता है तो उससे भी आसान है सनातनी रहते हुए आर्यसमाजी रहना। अग्निवेश की नजर में सनातनी, मूर्तिपूजक, पुराणपन्थी का आर्यसमाजी होना रुचिकर नहीं होगा, जबकि वेद विरोधी सिद्धांत

 

विरोधी ईसाई और मुसलमानों का आर्यसमाजी होना उसे सही लगता है। वास्तविकता यह है कि ईसाई, की उपासना करने वाले व्यक्ति को आर्यसमाजी कहना बौद्धिक व्यभिचार व सैद्धान्तिक वेश्यावृत्ति है। या वेश्या, स्त्री के नाते तो एक है, परन्तु अन्तर इतना ही हैं कि एक की एक के साथ निष्ठा है, दूसरा निष्ठा नहीं, उसकी निष्ठा पैसों के साथ है।

ऐसे ही अग्निवेश की निष्ठा अपने व्यक्तिगत स्वार्थ लक्ष्य की पूर्ती में है अतः उसका यह कथन कि कोई मुसलमान, ईसाई, जड़ पूजक, साकार उपासना वाला व्यक्ति हो सकता है, यह केवल बौद्धिक वेश्यावृत्ति है और कुछ नहीं।

इस बात की पुष्टि में एक और प्रसंग उद्धृत करना उचित रहेगा। दिसम्बर मास में नागपुर में राष्ट्रीय संगोष्ठी का प्रसंग। गोष्ठी की समाप्ति के दिन सायंकाल भोजन के पश्चात् डॉ. रामप्रकाश और अग्निवेश चर्चा कर रहे थे। अग्निवेश को डॉ. साहब से शिकायत थी।

अग्निवेश ने आचार्य बलदेव जी और आचार्य विजयपाल जी को हवालात पहुचाने का षड्यंत्र रच रखा था, जिसे डॉ. राम प्रकाश जी ने अनुचित मानकर असफल करा दिया। उनका कहना था- उनके जानते-बुझते आर्यसमाज की साधु गलत आरोप में हवालात भेजा जाय, यह कभी संभव नहीं। अग्निवेश से कहा गया- आचार्य बलदेव साधु हैं, उनके विरुद्ध ऐसा मिथ्या आरोप उचित नहीं, तो अग्निवेश का उत्तर था- कोई भी गेरवे कपड़े से क्या साधु हो जाता है? अब कोई बताये कौन साधु है या नहीं- यह प्रमाण-पत्र भी ढोंगी साधु से लेना पड़ेगा?

इससे इस व्यक्ति की मानसिकता का पता चलता है।

पाठको को याद होगा, अग्निवेश डॉट काम पर वर्षों तक वैदिक धर्म और ऋषि विरोधी बातों का प्रचार-प्रसार होता रहा। जब आपत्ति हुई तो मासूम कहता है, ये तो हमारे नाम से किसी ने बना दी है। हर बार अपराध करना और लोगों ने मुझे गलत समझा है- कहकर पीछा छुड़ाना, क्या यह लोगों को बेवकूफ बनाने वाली बात नहीं है? अग्निवेश का सिद्धान्तों और स्वामी दयानन्द से कितना प्रेम है.

इसके उदाहरण रूप में जनसत्ता दिनांक ६ अक्टूबर १९८९ का निम्न सन्दर्भ पढ़ने लायक है- “मुकदमें में स्वामी अग्निवेश ने मनु को देशद्रोही करार देते हुए उसे समाज का प्रबल शत्रु बताया। उन्होने कहा कि न्यायालय में जात-पाँत और छुआछुत के जन्मदाता मनु की प्रतिमा की स्थापना अन्यायपूर्ण है।” क्या ऐसा व्यक्ति ऋषि दयानन्द के सम्मान की रक्षा कर सकता है? अग्निवेश के बारे में सत्यार्थ प्रकाश की एक पंक्ति बड़ी सटीक लगती है

“अन्तः शाक्ता बहिश्शैवा: सभा मध्ये त वैष्णवाः’।

जहाँ तक दूसरे लोगों द्वारा सत्यार्थ प्रकाश पर आक्षेप करने का प्रश्न है, उन लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि ऋषि दयानन्द का स्थान किसी समाज सुधारक की तुलना में कम आँकने से ऋषि दयानन्द का कुछ बिगड़ने वाला है, परन्तु यह काम आकलन कर्ता के बुद्धि के दिवालियेपन का द्योतक अवश्य है।

ऋषि दयानन्द ने जो लिखा और जो कहा, छिप कर नहीं कहा, समाज में उन वर्गों में जाकर कहा। उनका उद्देश्य देश और समाज के हित में वास्तविकता का बोध कराना मात्र था, किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं। उन्होंने किसी बात को अच्छी लगने पर उसकी प्रशंसा में कोई कमी नहीं छोड़ी।।

सत्यार्थ प्रकाश पिछले डेढ़ सौ वर्षों से पढ़ा-पढ़ाया जा रहा है, क्या पहले लोगों की समझ नहीं थी? मालूम होना चाहिए कि पटियाला नरेश के सामने शास्त्रार्थ के समय यही प्रश्न उठा था। उस समय भी यही उचित समझा गया था कि गुरु भी बड़े हैं स्वामी जी भी बड़े। किसी ने किसी को कुछ कहा-सुना तो उसके लिए अनुयायियों को लड़ना उचित नहीं है।

आज तो नेता बनने के चक्कर में लोग ऐसी बात ढूँढने की कोशिश में रहते हैं, जिससे समाज में विघटन और संघर्ष पैदा हो और उनको नेतागिरी करने का मौका मिले। हमें स्मरण रखना चाहिए कि सिक्खों में बहुत लोग आर्यसमाजी थे, क्या वे गुरुओं का महत्त्व नहीं मानते थे या शहीद भगतसिंह के पिता, चाचा को सत्यार्थ प्रकाश समझ में नहीं आता था? जब तब आपत्ति नहीं हुई तो आज क्यों होनी चाहिए?

जो व्यक्ति सत्यार्थ प्रकाश से आपत्तिजनक वक्तव्य हटाने की बात कर सकता है, क्या वह कुरान की उन आयतों को जिसे न्यायालय ने भी आपत्तिजनक माना है, उन्हें हटाना तो दूर हटाने की सिफारिश भी कर सकता है या नहीं, क्योंकि उसकी नजर में इस्लाम महान् धर्म है और कुरान पवित्र धर्म पुस्तक है। यहाँ वह उनका वकील है। ईसाइयों द्वारा देश में किये जा रहे षड्यन्त्रों की वह वकालत करता है, क्योंकि राजनीति में स्थान चाहिए।

क्या गुरु गोविन्दसिंह के शब्दों को वह पुस्तक से निकलवा सकता है, जिनमें तुर्क को गो-ब्राह्मण घातक कहकर उनके नाश की प्रतिज्ञा की है

जगे धर्म हिन्दू सकल धुन्ध भाजे

 

सफलता के सहयोगी: -प्रकाश चौधरी

व्यक्ति के मन में प्रतिपल कामनाओं की तरंगें उठती रहती हैं, वह विकास चाहता है, उन्नति के पथ पर अग्रसर होना चाहता है, परन्तु अभाव के झोंके, प्रतिकूलताएँ, बाधाएँ राह को रोकती हैं। केवल जो संकल्पवादी है, वह सारी प्रतिकूलताओं से निकलता हुआ अपने उद्देश्य या मंजिल को पा लेता है। क्षेत्र कोई भी हो-लौकिक अथवा आध्यात्मिक, पथिक अपने रास्ते में बाधाओं का निराकरण करता हुआ प्रगति-पथ पर बढ़ता रहता है। शास्त्रों के अनुसार कुछ ऐसे सहयोगी हैं जो उसके मार्गदर्शन करने में सहायक हैं। व्यक्ति को उनका सहयोग लेना चाहिए-

(१) वैचारिक शुद्धि:- किसी भी शास्त्र एवं उत्तम पुस्तक का अध्ययन करते समय विचारों का महत्त्व सर्वोपरि माना गया है। विचार व्यक्ति की उन्नति एवं अवनति का मुख्य कारण है। सोच ही है जो मनुष्य का मनोबल बढ़ाती है या घटाती है। अच्छे विचारों का संग्रह प्रगतिशील बनाता है और बुरे विचार अर्थात् नकारात्मक सोच पतन की ओर ले जाती है। प्रगति के लिए वाणी, व्यवहार, धर्म-अधर्म, सुख-दु:ख जैसे विषय गंम्भीरता से विचारने के विषय हैं। इनका शुद्ध होना अति आवश्यक है।

उत्तम गुणों का संग्रह बड़ा सौभाग्यशाली व्यक्ति ही कर पाता है लेकिन कुछ गुण ऐसे हैं, जिन्हें हर व्यक्ति प्रयत्न करने पर प्राप्त कर लेता है, उनसे युक्त रह सकता है। जैसे ‘‘उचित वाणी का प्रयोग और अनुचित वाणी का निरोध’’ नियन्त्रित एवं मधुर वाणी पराये को भी अपना बना लेती है। वाणी की मधुरता तो पशु-पक्षी भी समझते हैं और अपने सहायक और हितैषी बन जाते हैं। संसार वश में हो सकता है वाणी के बल पर। किसी जंगल को कुठाराघात से या जला देने से वह पुन: हरा हो जाता है, परन्तु चित्तरूपी वन वाणी के गलत प्रहार से, कठोर वचनों से आहत पुन: शान्त नहीं होता।

वाणी के चार गुण हैं और चार ही दोष हैं, मुख्य गुण-सत्य बोलना, हितकारी बोलना, प्रिय बोलना, स्वाध्याय करना आदि। झूठ बोलना, कठोर बोलना, निंदा करना, व्यर्थ बोलना दोष हैं।

व्यवहार को लें- उत्तम व्यवहार ही मनुष्य को यशस्वी बनाता है। ईमानदारी, पक्षपातरहित लेन-देन में कुशलता, संयमशील रहना, वाक्पटुता, शालीनता आदि बहुत सारे गुण व्यक्ति को व्यावहारिक बनाते हैं और प्रगति पर ले जाते हैं। इसी प्रकार धर्म-अधर्म को जानना, अत्याचारी न होना, पाप-मुक्त होना धर्म है। सत्य-असत्य का भान व्यक्ति को प्रगति-पथ पर ले जाता है। सुख-दु:ख में सम रहना, द्वन्द्व में न होना यानी इन चारों की शुद्धि-वैचारिक शुद्धि है।

सांसारिक विषयों से व्यक्ति की आसक्ति होती है, आकर्षण होता है। यदि उनकी प्राप्ति में बाधा आ जाये तो क्रोध आता है। क्रोध से मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति नष्ट होती है। स्मृति नष्ट हो गयी तो बुद्धि कार्य नहीं करती, निर्णय नहीं ले सकती और यहीं से व्यक्ति का पतन आरम्भ होता है, इसलिए विचारों की शुद्धि अर्थात् अच्छी सोच रखना आवश्यक है।

व्यक्ति सोचता है हम दुनिया से अच्छे हैं। रहन-सहन अच्छा है, शान से परिपूर्ण हंै, आचार-विचार, पठन-पाठन सब अच्छा है लेकिन उसे सतर्क रहना चाहिए कि जब तक यह कारण हैं, तब तक ही प्रगति सम्भव है। क्योंकि भविष्य में यदि यह विचार, अच्छा आचरण, अच्छा खान-पान बदल गया तो पतन भी हो सकता है। आज सदाचारी है, कल दुराचारी हो सकता है। ईश्वर को भूल सकता है स्थिति व गुण बदलते रहते हैं इसलिए अपने विचारों के प्रति सजग और सावधान रहना चाहिए। इन्द्रियों पर नियन्त्रण आवश्यक है। संसार के विषयों को तो नष्ट नहीं किया जा सकता। वे सदैव थे और सदैव रहेंगे। व्यक्ति को अपने विचारों पर नियन्त्रण करना होगा, हर व्यक्ति ये कभी न सोचे कि-

१.     मैं परिपक्व हँू

२.     मैं सर्वथा समर्थ हँू

३.     अन्दर-बाहर मेरा कोई शत्रु नहीं है

बल्कि ऐसा विचारे-

१.     मैं निर्बल हँू

२.     शत्रु अन्दर भी है और बाहर भी

३.     आगे बढऩे हेतु बहुत समाधान करने हैं- अच्छे संस्कारों एवं विचारों का संग्रह करना है।  इन्द्रियों पर विजय पानी है आदि।

(2) अविद्यानिरास- उन्नति के पथ पर बढऩे के लिए विद्या और अविद्या का अन्तर समझना होगा। अविद्या के लक्षण जानकर उन्हें दूर करना प्रत्येक व्यक्ति का कत्र्तव्य है। अधर्म, अन्याय, पाप, पीड़ा आदि अविद्या के लक्षण हैं। एक बार पढक़र या सुनकर समझना कठिन होता है। इसे दूर करने के लिए तीव्र इच्छा, साधन, पूर्ण पुरुषार्थ एवं तप की आवश्यकता होगी। खाते-पीते, सोते-जागते अपने अन्दर की अविद्या को दूर करना होगा। तभी कोई व्यक्ति अपने उद्देश्य में सफल हो सकता है। भ्रम, मिथ्या सोच अविद्या है। हमारे कल्पित विचार जो तर्क एवं प्रमाणों से रहित हैं, विशेषकर प्रत्यक्ष, अनुमान और वेद रूपी शब्द प्रमाण से रहित हैं, वे अज्ञान तथा भ्रम हैं। यही अविद्या है।

(३) सुदृढ़ आधार:- जैसे निर्बल नींव पर बना भवन लंबे समय तक नहीं रह सकता, उसी प्रकार कोई भी व्यक्ति मज़बूत, पूर्ण पुरुषार्थ एवं कार्य के सिद्धान्तों को जाने बिना अपने कार्य में सफल नहीं हो सकता, चाहे वह लौकिक क्षेत्र हो या आध्यात्मिक।

१. अपनी स्थिति एवं सामथ्र्य का ज्ञान होना आवश्यक है। यदि नहीं है तो कार्य आरम्भ करने से पूर्व अपने सामथ्र्य का संग्रह आवश्यक है।

२. राह में आने वाली संभावित प्रतिकूलताओं का ज्ञान तथा उनके उन्मूलन के उपाय आदि का ज्ञान आवश्यक है। विपरीत घटनाएँ न भी हों फिर भी स्वयं को विचारशील बनाना चाहिए, इस प्रकार वह क्रूरता, विश्वासघात, आरोप जैसी स्थिति में स्वयं को बचा सकता है।

३. सुदृढ़ आधार है तो व्यक्ति न आन्तरिक न बाहरी कारणों से पतन को प्राप्त करता है। जीवन का निर्माण है अविद्या को दूर करना । वेदों में सब ज्ञान दिया ईश्वर ने, ऋषियों ने उनके अनुसार सिद्धान्त बनाए। अब व्यक्ति या योगी को देखना है कि वह किस प्रकार उनका उपयोग कर प्रगति करता है। ज्ञान पाने के लिए तो पुरुषार्थ ही करना पड़ेगा। प्रगति के लिए किये गए संकल्प को पूरा करने का प्रयत्न होना चाहिए।

कुछ पूर्व जन्म के शुभ संस्कारों की अग्रि को जलाये रखना, ईश्वर प्राप्ति के लिए आवश्यक है। ब्रह्मचर्यपूर्वक किसी अच्छे गुरु के निर्देशन में दृढ़तापूर्वक आगे बढऩा चाहिए। संसार में कोई एक व्यक्ति ही आपके विचारों से सहमत होता है। यदि सुदढ़ आधार है तो ही आप निश्चय-पूर्वक प्रगति-पथ पर बढ़ सकते हैं।

(४) शुद्ध आचरण:- अध्यात्म मार्ग पर वही चल सकता है जो जीते जी मरे समान रह सकता हो। समस्त प्रतिकूलताओं का समाधान कर सकता हो। संघर्षशील हो, अपने अनुभवों से, अपने ज्ञान-बल तथा अनुभवों में वृ़द्धि कर रहा हो। पढ़े तथा सुने हुए ज्ञान को अपने आचरण में ला रहा हो। इस कठिन कार्य के लिए सतत संघर्षशील हो, आदर्शवादी हो। किसी द्वन्द्व अर्थात् यश, कीर्ति, सुख-दु:ख आदि में समभाव हो, कर्मठ हो। अवरोध में परित्याग नहीं करने वाला हो। गिरकर उठ जाना, आगे बढऩा जिसका ध्येय हो। ऐसा व्यक्ति ही सफल होता है जो ज्ञान और कर्म का समन्वय कर अपने आचरण को सुदृढ़ बनाता है।

(५) आवास:- आज वह समय नहीं रहा जब कोई आध्यात्मिक व्यक्ति मानसिक प्रगति हेतु दूर पर्वतों या गुफाओं में शान्त वातावरण प्राप्त करता था। आज न तो पर्वत, न गुरुकुल, न आश्रम रहे-जहाँ अनुकूलता मिले। राग-द्वेष, विवाद, अनियमितता, यम-नियम का हनन आदि बाधाएँ सब ओर हैं। व्यक्ति कहीं भी भागना चाहे-सब ओर एक ही प्रकार का अशान्त वातावरण है। अगर उत्तम दिनचर्या है, विशेषकर उपासना, यज्ञ, स्वाध्याय, व्यायाम-नियमितता है, तो वही स्थान प्रगति के लिए उत्तम है। अच्छा संगतिकरण हो। सेवाभावी, राग-द्वेष से रहित स्वभाव वाले, यम-नियम का पालन करने वाले, अच्छे विषयों पर चर्चा करने वाले, कत्र्तव्य के प्रति सजग, चिंतनशील सहयोगी हों तो मानसिक प्रगति के साथ-साथ शारीरिक-बौद्धिक प्रगति होगी। लौकिक प्रगति होगी। विचारशील व्यक्ति की सदैव ईश्वर में श्रद्धा रहेगी। ऐसे वातावरण में यदि कोई व्यक्ति न भी पढ़े, न चर्चा करे, तो भी जीवन अच्छा बीतेगा और सफलता भी मिलेगी।

(६) सत्य ईश्वर की भक्ति:- ‘‘अनादिकाल से मनुष्य अपने जीवन में यही सुनता आ रहा है कि ईश्वर नाम की कोई शक्ति है जो इस जगत् की रचना, पालना, संहारना आदि करती है। वह कर्मफल प्रदाता है-आनन्द का स्रोत है और वही जानने व मानने योग्य है।’’

इन विचारों के संग्रह से उसे जानने केे लिए, उसका साक्षात्कार करने की जिज्ञासा मन में उठती है। शान्ति व सुख पाने हेतु मनुष्य अपने अपने ढंग से पूजा-पाठ उपासना-प्रार्थना आदि करता है। प्राय: देखने में आता है कि पूजा-पाठ करने वाला उतनी सुख-शान्ति प्राप्त नहीं कर पा रहा होता, जितनी कि एक नास्तिक। जबकि ऐसे व्यक्ति अच्छे आचरण रहित पापी व प्रमादी होते हैं। क्या ईश्वर ही ये दुर्गुण उन्हें देता है? क्या पूजा-पाठ उपासना आदि केवल क्रिया-कलाप हैं, ऐसा विचार स्वाभाविक है। ऋषि इसका केवल एक उत्तर देते हैं, जो व्यक्ति वेद-शास्त्रों के प्रतिकूल आचरण करता है, चाहे वह कितना भी पूजा-पाठ करता हो, सुख शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि वह सच्चे ईश्वर को जानता ही नहीं उसकी आसक्ति, धार्मिकता, आराधना सब मिथ्या है। दिव्य गुणों का अभाव होता है उसमें। यह संभव नहीं कि सत्य पर आधारित भक्ति हो और ईश्वर का आशीर्वाद न मिले।

ईश्वरभक्ति का अर्थ जानना आवश्यक है, ‘‘ईश्वरभक्ति अर्थात् ईश्वर की आज्ञा का पालन।’’

वेद कहता है-आचरण शुद्ध है, सत्य पर, ज्ञान पर आधारित है तो उसे मालाएँ फेरने अथवा तीर्थों पर जाने की भी आवश्यकता नहीं। व्यक्ति की दिनचर्या, भोजन, यम-नियम, स्वाध्याय सत्संग-शुद्ध रूप में हैं, वेदानुसार आचरण है तो यही भक्ति है। ईश्वर की आज्ञानुसार जीवन हो। ‘‘क्रोध मत करो।’’ यह ईश्वर की आज्ञा है। यदि व्यक्ति क्रोध करता है- तो वह उसका साक्षात्कार नहीं कर सकता ‘‘दान दो’’ यह ईश्वर की आज्ञा है। ‘‘सत्य को ग्रहण करना और असत्य को छोडऩा’’ यह ईश्वर की आज्ञा है। जो इन आज्ञाओं को छोड़ मिथ्या-वचन, छल, कपट का आचरण करता है-वह कितनी भी उपासना, पूजा-पाठ करे उसका ईश्वर से सम्बन्ध नहीं हो सकता, जैसे विश्राम अथवा सही निद्रा के लिए शुद्ध एवं शान्त वातावरण की आवश्यकता होती है-वैसे ही ईश्वर प्राप्ति हेतु उचित भोजन, शुद्ध आचरण तथा उत्तम दिनचर्या की आवश्यकता होती है। उपरोक्त अपेक्षाएँ तो स्थूल हैं। यहाँ तो ईश्वर प्रणिधान जैसी कष्टमय सूक्ष्म अपेक्षाएँ भी साधनी पड़ती हैं।

आज तो अपनी सरलता के लिए ईश्वर के सच्चे स्वरूप को न जानकर उसे मूर्तिमान्, सुन्दर वस्त्रों से, आभूषणों सहित पत्नी-पुत्र सहित, कारोबारी युक्त बना दिया गया है, ऐसे लोगों को भला ईश्वर-प्राप्ति कैसे होगी। इसलिए कहा -भक्ति से पूर्व ज्ञान आवश्यक है, कि जिस ईश्वर को हम भज रहे हैं, वह ठीक भी है या नहीं। उसका वास्तविक स्वरूप क्या है। कोई व्यक्ति उसे माने या न माने, निष्ठा करे या न करे, प्रमाणित है कि वह अनादिकाल से प्राणिमात्र का हित करता आ रहा है।

चिन्तन-मनन से सच्चे ईश्वर का निर्णय करना आवश्यक है। वह अपने ज्ञान, बल, समर्थ से ही यह सारा जगत् , प्राणिमात्र, वनस्पति, सूर्य, पृथ्वी आदि को सत्ता में लाता है। भोजनादि सुख सामग्री उसी की देन है। उसी के द्वारा दी गयी बुद्धि से सारी वैज्ञानिक उन्नति संभव हो पायी है। ईश्वर समस्त रोगों का चिकित्सक है। कुछ रोग ऐसे हैं जो किसी व्यक्ति विशेष को नहीं, बल्कि सभी जाति, लिंग, भाषा, देशवासी सभी को समान रूप से होते हैं। बल, धन, रूप से कोई भेदभाव नहीं होता। ये मानसिक रोग हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग-द्वेष, अहंकार जैसे रोगों की दवा केवल और केवल ईश्वर के पास है। किसी वैद्य के पास नहीं।

सच्चे ईश्वर की भक्ति करने वाला कभी चिंतित, हताश, निराश, निस्तेज, दु:खी, असमर्थ नहीं होता। ऐसा व्यक्ति किसी का अनर्थ नहीं करता। अपने व्यवहार से किसी को आहत नहीं करता। शिखा, यज्ञोपवीत, माला, जटाजूट धारण से कोई सच्चा उपासक नहीं हो जाता। ये तो बाह्य लक्षण हैं। दया, धर्म, ज्ञान, तपस्या, पुरुषार्थ, सेवा, निर्भीकता, एक सच्चे उपासक के लक्षण हैं। वही ईश्वर का सच्चा स्वरूप जानता है।

ईश्वर का जो आज रूप बना दिया गया है वे सब भ्रान्तियाँ हैं। दक्षिण वाले उत्तर में उसे ढूँढने जाते हैं और उत्तर दिशा वाले दक्षिण में। पूर्व वाले पश्चिम में और पश्चिम वाले पूर्व में। पर्वतों से नीचे नदी-समुद्र पर और कोई पर्वतों पर उसे ढूंढने जाते हैं। ईश्वर तो एक है, सर्वत्र है। उसका दर्शन बाहर नहीं अपने हृदय में होता है। जो ऐसा जान लेता है और विचार शुद्ध रखता है वही प्रगति-पथ पर बढ़ता है।

वेदों का काल क्या है ?

वेद
जिज्ञासा १ – कुछ विद्वान् वेदों का काल पाश्चात्य विद्वानों के आधार पर २००० या ३००० ईसा पूर्व ही मानते हैं, क्या यह ठीक है? और मैक्समूलर ऋग्वेद को दुनिया के पुस्तकालयों की सबसे पुरानी पुस्तक मानता है, क्या मैक्समूलर की यह मान्यता ठीक है? क्या हम आर्यों को भी इसी के अनुसार मानना चाहिए? कृपया, मार्गदर्शन करें।
– अनिरुद्ध आर्य, दिल्ली
समाधान- वेदों का काल जबसे मानवोत्पत्ति हुई है, तभी से है। आज इस काल को महर्षि दयानन्द के अनुसार १ अरब ९६ करोड़ ८ लाख ५३ हजार ११५वाँ वर्ष (२०१४ के अनुसार ) चल रहा है। पाश्चात्य विद्वानों द्वारा की गई वेदों की काल गणना ठीक नहीं है, क्योंकि इनके द्वारा की गई काल गणना निराधार, पक्षपात पूर्ण और कपोलकल्पना मात्र है। इस गणना के लिए इन विद्वानों के पास कोई ठोस प्रमाण नहीं है। जब हमारा लाखों वर्ष पुराना इतिहास सप्रमाण हमें प्राप्त हो रहा है, तब हम इनकी कुछ हजार वर्ष पूर्व की बात कैसे स्वीकार कर लें?  हाँ, इनकी बात को वह स्वीकार कर सकता है जो अपने ऋषियों, महापुरुषों से प्रभावित न होकर, पाश्चात्य संस्कृति व विद्वानों से प्रभावित रहा हो।
कुछ लोगों की निराधार व अल्पज्ञान भरी बात है कि ऋग्वेद की रचना सबसे पहले हुई और इसके बाद अन्य वेदों की। ऐसी मान्यता वाले लोग अथर्ववेद को तो ऋग्वेद से बहुत बाद का मानते हैं। इस बात का भी उनके पास कोई ठोस प्रमाण नहीं है।
हमारे ऋषियों के अनुसार चारों वेदों का काल एक ही है, एक ही साथ एक ही समय परमेश्वर ने ४ ऋषियों के हृदयों में चारों वेदों का अलग-अलग ज्ञान दिया, अर्थात् अग्नि ऋषि को ऋग्वेद का, वायु ऋषि को यजुर्वेद का, आदित्य ऋषि को सामवेद का और अङ्गिरा ऋषि को अथर्ववेद का ज्ञान दिया। ऋषियों ने ऐसा कहीं नहीं लिखा कि चारों वेदों की उत्पत्ति अलग-अलग समय में हुई। हमें वेद व ऋषियों के अनेक प्रमाण प्राप्त हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि चारों वेद एक ही समय में उत्पन्न हुए।

जैसे-
यस्मिन् वेदा निहिता विश्वरूपा:। -अथर्व. ४.३५.६
ब्रह्म प्रजापतिर्धाता लोका वेदा: सप्त ऋषयोग्नय:।
-अथर्व. १९.९.१२
इन दोनों मन्त्रों में वेद शब्द का बहुवचनान्त वेदा: शब्द प्रयुक्त हुआ है। यह वेदा: शब्द चारों वेदों का संकेतक है।
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत: ऋच: सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत।।
-ऋ. १०.९०.९, यजु. ३१.७
यस्मिन्नृच: साम यजुœंषि यस्मिन्
प्रतिष्ठिता रथानाभाविवारा:।           -यजु. ३४.५
यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन्।
सामानि यस्य लोमान्यथर्वाङ्गिरसो मुखम्-
स्कम्भं तं ब्रूहि कतम: स्विदेव स:।।
-अथर्व. १०.७.२०
स्तोमश्च यजुश्चऽऋक् च साम च बृहच्च रथन्तरञ्च।
-यजु. १८.२९
ऋचो नामास्मि यजुंœषि
नामास्मि सामानि नामास्मि।        -यजु. १०.६७
स उत्तमां दिशमनुव्यचलत्।।
तमृचश्च सामानि च यजंूषि च ब्रह्म चानुव्यचलन्।।
-अथर्व. १५.६.७-८
एवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य नि:श्वसितमेतद्
यदृग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस:।।
श.ब्र. १४.५.४.१० व बृहद्.उप. ३४.१०
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्ववेद:।
– मु. ५.१.१.५
इत्यादि अनेक वेद व ऋषियों के प्रमाण सिद्ध करते हैं कि चारों वेदों का काल एक ही है।
आप मैक्समूलर की मान्यता के विषय में भी जानना चाहते हैं कि उनकी मान्यता ठीक है या नहीं। मैक्समूलर ने तथाकथित भाषाशास्त्र के आधार पर वेदों के रचना काल की सम्भावना सर्वप्रथम १८५९ ई.  में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ए हिस्ट्री ऑफ एशियट संस्कृत लिटरेचर’ में की थी। उनकी यह कालावधि किसी तथ्य पर आश्रित न होकर विशुद्ध कल्पना पर अवलम्बित थी, किन्तु यह मान्यता इतनी बार दुहरायी गयी कि परवर्ती समय में आधुनिक इतिहासकारों में बिना सोचे-समझे स्थापित-सी मानी जाने लगी, लेकिन स्वयं मैक्समूलर ने १८८९ में ‘जिफोर्ड व्याख्यानमाला’ के अन्तर्गत अपने इस मत पर सन्देह प्रकट किया था और ह्विटनी जैसे पाश्चात्य व प्रो. कुञ्जन राजा प्रभृति भारतीय इतिहासकारों ने भी मैक्समूलर के भाषाशास्त्र के आधार पर वेदों के काल सम्बन्धी मत का जोरदार खण्डन किया था। दूसरा जो मैक्समूलर ऋग्वेद को दुनिया की सबसे पुरानी पुस्तक कहता है, उसकी यह बात वेदों की रचना के सम्बन्ध में भ्रम पैदा करने के उद्देश्य से कही गई प्रतीत होती है। ऋषियों-महर्षियों के आधार पर आर्यसमाज की दृढ़ मान्यता के विपरीत ये वेदों का क्रमिक विकास सिद्ध करते हैं, जिससे वेद ईश्वरीय रचना न होकर मानवीय रचना सिद्ध हो सके।
इस सारे प्रसंग को मैक्समूलर की इन मान्यताओं के सन्दर्भ में भी देखा जाना चाहिए कि वह वेदों को बाइबिल से निचली श्रेणी का मानता है। कैथोलिक कॉमनवैल्थ के दिये गये एक साक्षात्कार में यह पूछे जाने पर कि विश्व में कौन-सा धर्मग्रन्थ सर्वोत्तम है, तो मैक्समूलर ने कहा-

“There is no doubt, however, that ethical teachings are far more prominent in the old and New Testament than in any other sacred book.” He also said “It may sound prejudiced, but talking all in all, I say the New Testament. After that, I should place the Quran which in its moral teachings is hardly more than a later edition of the New Testament. Then would follow…. according to my opinion, the Old Testament, The southern Buddhist Tripitika….. The Veda and the Avesta.” (LLMM, Vol. II, PP. 322-323)
अर्थात् ‘‘इसमें कोई सन्देह नहीं कि यद्यपि किसी भी अन्य ‘पवित्र पुस्तक’ की अपेक्षा (ईसाइयों के धर्म ग्रन्थ) ओल्ड और न्यू टेस्टामेंट में नैतिक शिक्षायें प्रमुखता से विद्यमान् हैं। उसने यह भी कहा- यह भले ही पक्षपातपूर्ण लगे, लेकिन सभी दृष्टियों से मैं कहता हूँ कि न्यू टेस्टामेंट सर्वोत्तम है। इसके बाद मैं कुरान को कहूँगा जो कि अपनी नैतिक शिक्षाओं में न्यू टेस्टामेंट के नवीन संस्करण के लगभग समीप है। उसके बाद….. मेरे विचार से ओल्ड टेस्टामेंट (यहूदियों का धर्मग्रन्थ), दी सदर्न बुद्धिस्ट त्रिपिटिका, (बौद्धों का धर्मग्रन्थ) फिर वेद और अवेस्ता (पारसियों का ग्रन्थ) है।’’
अत: आर्यों को वेद के सन्दर्भ में मैक्समूलर जैसे लोगों के मत को उद्धृत करने से बचना चाहिए। इसके स्थान पर ऋषियों-महर्षियों के मत को रखना चाहिए। लेकिन अगर कोई आर्य वेदों की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए मैक्समूलर को इस रूप में उद्धृत करता है कि ‘मैक्समूलर भी वेदों की प्राचीनता के प्रसंग में एक सत्य को अस्वीकार न कर सका, उसे भी ऋग्वेद को प्राचीनतम पुस्तक स्वीकार करना पड़ा’ इस रूप में बात रखी जा सकती है।