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‘धर्म के अनुशासन बिना विज्ञान मानव जीवन के लिए अहितकारी’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

आजकल विज्ञान की उन्नति ने सबको आश्चर्यान्वित कर रखा है। दिन प्रतिदिन नये नये बहुपयोगी उत्पाद हमारे ज्ञान व दृष्टि में आते रहते हैं। बहुत कम लोग जानते होंगे कि उनकी अनेक समस्ययाओं का कारण भी विज्ञान व इसका दुरुपयोग ही है। इसका सबसे मुख्य उदाहरण तो वायु, जल और पर्यावरण प्रदुषण का है। यह प्रदुषण विज्ञान व उसके आविष्कारों सहित औद्योगिक उत्पादों के बिना सोचे उपभोग के कारण व मनुष्य की दिनचर्या में आये बदलाव का परिणाम है। मनुष्य को वायु और जल शुद्ध न मिले तो यह अनेकानेक रोगो का उत्पादक होने से मनुष्यों के स्वास्थ्य के लिए घातक होता है। यही आजकल सर्वत्र हो रहा है। इतना ही नहीं हम जो भोजन करते हैं उसे भी विज्ञान ने हमारे लिए अहितकार व अनेकानेक रोगों का उत्पादक बना दिया है जिससे मनुष्य दुःखी रहते हैं और कालकवलित होते रहते हैं। आज हमें जो खाद्य पदार्थ बाजार से मिलते हैं उसमें रासायनिक खादों कीटनाशकों के प्रयोग ने उन्हें स्वास्थ्य के अहितकर हानिप्रद बना दिया है। अनेक अन्नीय पदार्थ व सब्जियां मल-मूत्र को खाद के रूप में प्रयोग कर पैदा की जाती है जो स्वास्थ्य व मनोविकारों को जन्म देती हैं। इस ओर देश व समाज का बहुत कम ध्यान है और विज्ञान भी चुप है जबकि हमारे ऋषि-मुनियों को इसका ज्ञान था और इसी कारण उन्होंने मल-मूत्र के संसर्ग से उत्पन्न अन्न आदि पदार्थों के सेवन को निषिद्ध किया था। विज्ञान के नाम पर आज आम मनुष्य की क्षमता से भी कहीं अधिक खर्चीली चिकित्सा पद्धति देश में आई है जिसमें न केवल जीवन भर की पूंजी कुछ ही दिनों छोटे-मोटे रोगों के उपचार में स्वाहा हो जाती है अपितु वह कर्जदार होकर शेष जीवन नरक के समान व्यतीत करता है। बहुत से लोग तो धनाभाव के कारण अपना उपचार करा ही नहीं पाते और मृत्यु का वरण कर लेते हैं। अनेक चिकित्सक और पैथोलोजी लैब भी रोगियों को स्वेच्छा से लूटती हैं जिसके अनेक उदाहरण सामने आ चुके है और जो कम नहीं हो रहे हैं। स्वार्थ के कारण कुछ व अनेक चिकित्सक रोगियों को महंगी व कई अनावश्यक दवायें भी लिख देते हैं जिसका असर रोगी की आर्थिक स्थिति व स्वास्थ्य पर बुरा ही पड़ता है। इस ओर न तो सरकारों का ध्यान है और न ही देश के नागरिक ही सचेत हैं। इस क्षेत्र में सरकार व रोगी परिवारों के बीच किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति है। इसका कोई हल सामने नहीं आ रहा है। जिस प्रकार से संसार के विकसत व अर्धविकसित देश विज्ञान के उपयोग से नाना प्रकार के हानिकारक आयुद्ध आदि बना रहे हैं वह भी मानवता की सुख, समृद्धि व शान्ति के उपयों के विपरीत हैं। सौभाग्य से आज योग, प्राणायाम, आसन, व्यायाम व सन्तुलित भोजन के प्रति स्वामी रामदेव जी के प्रयासों से जागरुकता बढ़ी है। उन्होंने कम खर्चीली आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को भी विश्व स्तर पर लोकप्रिय बनाया है। इसे अपनाने वाले लोग इससे लाभान्वित हो रहे हैं परन्तु फिर भी विज्ञान प्रदत्त अन्य साधनों से कुल मिलाकर मनुष्यों को नानाविध हानियां हो रही है जिस पर विद्वानों व वैज्ञानिकों सहित सरकारों को भी ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है। इसका प्रमुख कारण हमें धर्म के वास्तविक रूप को न समझना ही ज्ञात होता है। यदि मनुष्य धर्म के वास्तविक स्वरूप से परिचित होकर सत्य व सरलता का प्राकृतिक व वैदिक मान्यताओं के अनुसार जीवन व्यतीत करें जैसा कि उन्होंने महाभारतकाल तक व उससे पहले व्यतीत किया है, तो समाज में आज की यह समस्यायें न होती। आज भी यदि इस दिशा में विचार व आचरण किया जाये तो सामाजिक भलाई का बहुत कार्य किया जा सकता है।

 

वैदिक धर्म की कुछ विशेषतायें हैं जिससे अनेक समस्याओं का निराकरण हो जाता है। वैदिक धर्म मनुष्यों को मानव जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य से परिचित कराता है और उन कार्यों व उपायों को करने के लिए बल देता है जिससे मनुष्य का यह जीवन व परजन्म सुख व शक्ति का संचय कर दीर्घायु हो और उसे जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति प्राप्त होकर दुःखों की सर्वथा निवृत्ति वा चिरकालीन मोक्ष रूपी स्वर्गीय सुखों व आनन्द की प्राप्ति हो। वैदिक धर्म वेदों का ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुसार आचरण करने को कहते हैं। वैदिक जीवन में मनुष्य को अनिवार्य रूप से ईश्वरोपासना, ईश्वर का ध्यान, चिन्तन, मनन, अध्ययन वा स्वाध्याय, ऋषियों व विद्वानों की संगति व उनकी सेवा सत्कार, प्राणियों के प्रति अंहिसा व हित की कामना, स्वयं व दूसरों के जीवन का सुधार व उन्नति, समाज को संगठित करना व उसका उच्च आदर्शों के अनुरूप निर्माण सहित परोपकार व दूसरों की सेवा के संस्कार वा स्वभाव की प्राप्ति होती है। वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है जो मनुष्यों को सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा ऋषियों को प्राप्त हुआ, तत्पश्चात उनसे ब्रह्मा जी को प्राप्त हुआ और उनके द्वारा आदि सृष्टि के स्त्री-पुरूषों सहित काल-क्रम के अनुसार संसार भर में प्रवृत्त हुआ था। वेद की सभी शिक्षायें अज्ञान से सर्वथा रहित व मानव जीवन सहित सभी प्राणियों की हितकारी है। यह मत-पन्थ-मजहब-सम्प्रदाय आदि से कहीं ऊपर व सर्चोच्च हैं। वेदों व वैदिक धर्म में सुख-सुविधा-विलासिता के भौतिक साधनों का न्यूनतम प्रयोग करते हुए भोगों से दूर रहकर त्याग पूर्ण जीवन व्यतीत करने का विधान है। शारीरिक उन्नति व आत्मिक उन्नति पर वैदिक धर्म में सर्वाधिक ध्यान दिया जाता है। वेदों के आधार पर उपनिषदों व दर्शनों में ऋषियों ने जो ज्ञान दिया है वह संसार भर के साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है। इन सबका सेवन, आचरण व अभ्यास करते हुए वायु, जल व पर्यावरण की शुद्धि के लिये प्रयास करने की प्रेरणा की गई है, तभी मनुष्य अपने जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त कर सकेगा अन्यथा नहीं। वैचारिक व सत्य-असत्य के विवेचन के आधार पर चिन्तन करने पर भी यह विचारधारा प्राणिमात्र के हित को सम्पादित करने में सहायक व सत्य सिद्ध होती है। इसी कारण से हमारे प्राचीन ऋषि व पूर्वज वैदिक धर्म का न केवल स्वयं पालन करते थे अपितु समाज के सभी लोग उनसे उपदेश प्राप्त कर उनकी आज्ञाओं के अनुसार ही अपना त्यागपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। वैदिक धर्म मनुष्य के जीवन को अनुशासित कर उन्नति करते हुए जीवन के उद्देश्य धर्मअर्थकाममोक्ष तक ले जाता है। दूसरी ओर उन्मुक्त वा अनुशासन रहित जीवन आर्थिक सुख-समृद्धि भले ही प्राप्त कराये, परन्तु यह मनुष्य को रोगी व अल्पायु बनाकर, उसे जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य से दूर कर जन्म-जन्मान्तरों में दुःख व कष्टों का कारण सिद्ध होता है।

 

विज्ञान के लाभ व हानि को जानने का प्रयास सभी मनुष्यों को करना आवश्यक है। विज्ञान के साधनों का उसी सीमा तक उपयोग उचित है जहां तक की उससे हमारा धर्म, अर्थात् वर्तमान व भावी सुख, कुप्रभावित न हों। वायु-जल-अन्न के प्रदुषण के सभी कारको को दूर कर प्रदुषण निवारण के उपाय करने का प्रयास होना चाहिये। यदि विज्ञान इनका समाधान प्रस्तुत नहीं करता तो फिर निश्चय ही प्रदुषणकारक साधनों व उत्पादों को छोड़ना व इनका उपयोग नियंत्रित करना आवश्यक है। यातायात के साधन, वाहन, उद्योग तथा सीमेंट-कंक्रीट के बड़े बड़े भवन आदि वायु-जल-अन्न व पर्यावरण प्रदुषण के प्रमुख कारक हैं। निश्चय ही यह आज हमारे जीवन में ऐसे प्रविष्ट हो गये हैं कि इनके बिना जीवन व्यतीत करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस पर भी जिस प्रकार विष-मिश्रित स्वादिष्ट भोजन का त्याग करना ही श्रेयस्कर होता है वैसी ही यहां भी स्थिति है। सत्य वैदिक धर्म को यदि संसार अपना ले और उसके अनुसार सभी मनुष्य ईश्वरोपासना, यज्ञअग्निहोत्र, योग, ध्यान, स्वाध्याय, सेवा, परोपकार, त्याग, प्राणिहित, अंहिसात्मक व्यवहार, स्वार्थ लोभ पर नियंत्रण, अपरिग्रह आदि का सेवन करें तभी पर्यावरण बच सकेगा। वैदिक धर्म में प्रतिदिन प्रातः सायं यज्ञ करने का जो विधान है वह अनेक लाभों सहित वायु, जल अन्न के प्रदुषण को दूर करने के लिए होता है। इस ज्ञान विज्ञान को विकसित कर प्रदुषण निवारण में इसका भी उपयोग किया जा सकता है। सरकार वैज्ञानिकों इस ओर ध्यान देना है। वैदिक धर्म का ज्ञान व उसका सभी मनुष्यों द्वारा आचरण आज संसार में सर्वाधिक महत्वपूर्ण व प्रासंगिक होने के कारण आवश्यक व अनिवार्य प्रतीत हो रहा क्योंकि इसके द्वारा ही हम विश्व को सभी प्रकार के प्रदुषणों, अन्याय, शोषणों व अशान्ति से बचा सकते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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मनुष्य की चहुंमुखी उन्नति का आधार अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

मनुष्य के जीवन के दो यथार्थ हैं पहला कि उसका जन्म हुआ है और दूसरा कि उसकी मृत्यु अवश्य होगी। मनुष्य को जन्म कौन देता है? इसका सरल उत्तर यह है कि माता-पिता मनुष्य को जन्म देते हैं। यह उत्तर सत्य है परन्तु अपूर्ण भी है। माता-पिता तभी जन्म देते हैं जबकि ईश्वर माता-पिता व जन्म लेने वाली जीवात्मा के शरीर के निर्माण वा रचना सहित सभी व्यवस्था और उपाय करता है। क्या मनुष्य का जन्म बिना पुर्लिंग पुर्लिंग ईश्वर के सहाय के सम्भव है, इसका उत्तर नहीं में है। अब प्रश्न है कि ईश्वर व माता-पिता ने सन्तान को जन्म क्यों दिया है? माता-पिता तो यह कह सकते हैं कि यह मनुष्य का स्वभाव सा है कि युवावस्था में उसे विवाह की आवश्यकता अनुभव होती है और विवाह के बाद परिवार की वृद्धि की इच्छा से सन्तान का जन्म होता है। अन्य कुछ कारण भी हो सकते हैं। माता-पिता द्वारा सन्तानों से वृद्धावस्था व आपातकाल में सेवा-सुश्रुषा आदि की अपेक्षा भी की जाती है। ईश्वर जन्म लेने वाली जीवात्मा को पिता व माता के शरीर में प्रवेश कराने सहित उसका लिंग स्त्रीलिंग वा पुर्लिंग निर्धारित करता है और माता के गर्भ में एक शिशु का शरीर रचकर उसे गर्भ की अवधि पूरी होने पर जन्म देता है। इसका उद्देश्य तो सामान्य व्यक्ति ईश्वर से पूछ नहीं सकता। हां, योगी व ज्ञानी अपने अध्ययन, विवेक, योग साधना व कुछ सिद्धियों से इसका यथार्थ उत्तर दे सकते हैं। वह उत्तर है कि जीवात्मा ज्ञान वा विद्या प्राप्त कर अपने अज्ञान को दूर करे। इसके साथ मनुष्य जन्म में अपने अकर्तव्य व अकर्तव्यों सहित उसे संसार, ईश्वर व जीवात्मा का यथार्थ ज्ञान भी होना चाहिये। जीवात्मा, ईश्वर व अनेकानेक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर ईश्वर को प्राप्त करना मनुष्य जन्म में ही सुलभ है। अतः ईश्वर जीवात्माओं को मनुष्य आदि अनेक योनियों में उसके पूर्वजन्म के कर्मानुसार जन्म देता है और पुराने कर्मों का भोग करने तथा नये कर्मों के आधार पर मृत्यु के पश्चात जीवात्मा के नये जीवन अर्थात् पुनर्जन्म की योनि का निर्धारण करता है।

 

मनुष्य जीवन केवल शरीर को पोषण देने, स्वादिष्ट भोजन करने व धन स्म्पत्ति अर्जित कर सुख-सुविधाओं की वस्तुओं का संग्रह करने मात्र के लिए ही नहीं मिला है। यह काम अवश्य करने हैं परन्तु सबसे महत्वपूर्ण इस संसार सहित ईश्वर व जीवात्मा के सत्य ज्ञान व रहस्यों को जानकर ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना को भी करना होता है। इन सब कामों के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है जो हमें माता-पिता के बाद आचार्यों व शास्त्रों के अध्ययन से प्राप्त होता है। यदि जीवन में शास्त्रों का ज्ञान व सदाचरण नहीं है तो वह जीवन मनुष्य का होकर भी पशु के समान, एकांगी जीवन, ही कहा जाता है। पशु का काम खाना-पीना व अपने स्वामी की सेवा करना होता है। यदि मनुष्य भी धनसंग्रह करने व शारीरिक सुविधाओं के लिए ही जीवित रहता है तो यह पशुओं के समान ही है। सत्य शास्त्रों के ज्ञान से जो विवेक प्राप्त होता है वही मनुष्य की वास्तविक पूंजी होता है। यह ज्ञान व इसकी प्रेरणा से किए गये सदकर्म न केवल इस जीवन अपितु भावी अनेकानेक जन्मों में भी सहयोगी, लाभदायक व सुखप्रापक होते हैं। अतः सभी मनुष्यों का मुख्य कर्तव्य यह है कि वह अपने अज्ञान व अविद्या का नाश करने के लिए योग्य आचार्यों से वेदाध्ययन वा ज्ञान की प्राप्ति करे।

 

यदि हम इतिहास पर दृष्टि डाले तो हमें इतिहास में बड़े-बड़े ज्ञानियों, धर्मपालकों, ऋषियों, आचार्यों के नाम मिलते हैं जिनका नाम श्रद्धा से लिया जाता है। ऐसे लोग ही मानव समुदाय का आदर्श हुआ करते हैं। इतिहास में प्राचीन महापुरुषों में श्री रामचन्द्र जी व श्री कृष्ण जी का नाम प्रसिद्ध होने के साथ उनको लोग आज भी श्रद्धा-भक्ति से स्मरण करते हैं। इसका कारण उनके कार्य व जीवन का आचरण है जो उन्होंने किया था। इन महापुरुषों के जीवन को प्रकाश में लाने का काम महर्षि वाल्मीक और महर्षि वेदव्यास जी ने रामायण व महाभारत ग्रन्थों की रचना कर किया। यह सभी लोग विद्या में सर्वोच्च थे। आज भी हम महर्षि दयानन्द, स्वामी शंकराचार्य, आचार्य चाणक्य, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह, सरदार पटेल आदि को स्मरण करते हैं तो इसका कारण भी इन लोगों का ज्ञान व उसके अनुरुप किये गये कार्य हैं। इन उदाहरणों का अभिप्राय यही है कि मनुष्यों को पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर श्रेष्ठ कार्यों को करना चाहिये जैसा कि इन कुछ महापुरुषों ने किये हैं। ऐसा करके हम अपने अपने जीवन को सफल व सफलतम बना सकते हैं।

 

शास्त्रों ने बताया है कि विद्या वह होती है जो मनुष्यों को दुःखों से मुक्त करती है। इससे यह आभाष मिलता है कि मनुष्यों के दुःखों का कारण अविद्या व असत् ज्ञान होता है। हम संसार में भी देखते हैं कि असत् ज्ञान व ज्ञानहीनता निर्धनता का मुख्य कारण होता है। अज्ञानी व्यक्ति अन्याय व शोषण से पीडि़त भी होता है व स्वयं भी ऐसा ही आचरण दूसरों के प्रति करता है। ऐसा भी देखा जाता है कि जिस व्यक्ति को ज्ञान हो जाता है वह न केवल अपने जीवन का सुधार करता है अपितु अपने साथ अपने सम्पर्क में आने वाले अनेकों का भी उससे सुधार होता है। आजकल संसार में नाना विषयों का ज्ञान उपलब्ध है। यह सांसारिक ज्ञान अपरा विद्या कहलाता है। इस विद्या से मनुष्य अनेकानेक काम करके धन व सम्पत्ति व अनेक पदार्थों का सृजन कर सकता है परन्तु अपनी आत्मा को उत्तम नहीं बना सकता। आत्मा को उत्तम व श्रेष्ठ बनाने के लिए वेदों व वैदिक साहित्य की शरण में जाना पड़ता है। वेदों का आत्मा व ईश्वर सम्बन्धी ज्ञान परा विद्या कहलाती है। इसे आध्यात्मिक विद्या भी कह सकते हैं। इस विद्या से मनुष्यों को अपने यथार्थ कर्तव्यों का बोध होता है। इस ज्ञान व विज्ञान को प्राप्त होकर मनुष्य अपरिग्रह को अपनाता है और आत्मा व ईश्वर का चिन्तन करते हुए ईश्वर का अधिकतम व पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेता है जिससे उसकी अविद्या नष्ट होकर वह वैदिक मान्यता के अनुसार जन्म व मरण के दुःखों से 4.32x2x360x100 =  3,11,040  अरब वर्षों तक के लिए मुक्त होकर ईश्वर के सान्निध्य में पूर्ण आनन्द का भोग करता है। यही मनुष्य जीवन का वास्तविक स्वर्ग है जिसका विस्तृत वर्णन सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में उपलब्ध होता है।

 

महर्षि दयानन्द वेद सहित प्राचीन काल से उनके समय तक ऋषियों व विद्वानों द्वारा रचित सभी शास्त्रों व ग्रन्थों के अपूर्व विद्वान थे। संसार का सुधार व उन्नति करने के लिए उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की थी। वेद ज्ञान के आधार पर आपने आर्यसमाज के दस नियमों की रचना की जिसमें से आठवां नियम है कि अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। यह नियम सर्वमान्य नियम है। इसका महत्व सभी जानते हैं। इस पर किसी को विवाद नहीं है। परन्तु विद्या का क्षेत्र कहां तक है यह बहुतों को ज्ञात नहीं है। पूर्ण विद्या की प्राप्ति वेद वैदिक साहित्य का अध्ययन कर ही सम्पन्न होती है। वेदों के ज्ञान से रहित मनुष्य पूर्ण ज्ञानी नहीं कहा जा सकता। अतः जीवन की पूर्ण उन्नति के लिए संसार के अनेकानेक विषयों का अध्ययन करने के साथ वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन भी अवश्य ही करना चाहिये। जो करेंगे उनको आत्मा के विकास सहित  ईश्वर की प्राप्ति का लाभ होगा और परजंन्म की उन्नति होगी। जो नहीं करेंगे वह इन लाभों से वंचित रहेंगे। महर्षि दयानंद के आर्यसमाज के तीसरे नियम में प्रस्तुत शब्दों का उल्लेख कर लेख को विराम देते हैं। उन्होंने लिखा है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना पढ़ाना सुनना सुनाना सब आर्यों (श्रेष्ठ मनुष्यों) का परम धर्म है।

मनमोहन कुमार आर्य

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स्तुता मया वरदा वेदमाता- डॉ धर्मवीर

 

वेद जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण रखने का सन्देश देता है। इस मन्त्र में महिला के द्वारा कहा जा रहा है। प्रतिदिन सूर्योदय के साथ ही प्राणियों का भाग्योदय होता है। प्रत्येक सूर्योदय नये जीवन का सन्देश लेकर आता है। मनुष्य को अपने जीवन से निराशा को समाप्त करना चाहिए। निराशा असफलता को स्वीकार करने का दूसरा नाम है। मनुष्य के सभी मनोरथ पूर्ण नहीं हो पाते। मनुष्य को असफलता मिलती है तो निराश होने की सभावना होती है, किन्तु यदि दूसरा-तीसरा अवसर उसके सामने होता है तो वह निराशा की ओर न जाकर फिर से प्रयत्न करने के लिये तैयार हो जाता है। वेद कहता है- मनुष्य को कितनी भी बार असफलता क्यों न मिले, हर नया दिन एक नई सफलता का अवसर लेकर आता है, इसीलिये मन्त्र में ऋषिवर ने कहा है- यह सूर्योदय मात्र सूर्योदय नहीं है, यह मेरे सौभाग्य का उदय है। प्रतिदिन सूर्योदय के साथ मनुष्य को निराशा छोड़कर नये उत्साह और विश्वास के साथ नये दिन का प्रारभ करना चाहिए।

एक महिला की सफलता उसके साथ जीवन बिताने वाले की योग्यता से जुड़ी होती है। मन्त्र कहता है- अहं तद् विद्वला– मैंने वर को प्राप्त कर लिया है। संस्कृत भाषा के शदों में अद्भुत शक्ति है- अर्थ को अपने अन्दर समाने की। होने वाले पति की विवाह संस्कार के समय वर संज्ञा होती है। वर शब्द  का मूल अर्थ चुना गया होता है। वर का एक अर्थ श्रेष्ठ भी होता है, व्यक्ति जब बहुतों में से चुनाव करता है, तो वह श्रेष्ठ का ही चुनाव करता है, इसी कारण विवाह के समय विवाह कर रहे युवक की संज्ञा वर होती है। जब विवाह में युवक को वर कहते हैं, तो उसी समय युवती की संज्ञा वधू होती है। वधू शब्द  का अर्थ है- इसे जीवन के लक्ष्य तक पहुँचाना है अथवा जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के साथ लेना है, जिसके साथ रखने का उत्तरदायित्व वर स्वीकार करता है। वधू को साथ रखने का जिसमें सामर्थ्य है, ऐसा चुने गये व्यक्ति की संज्ञा वर है। इससे भी रहस्य की बात है, वर शब्द  बताता है कि उसे किसी ने अपने लिए चुना है, स्वीकार किया है, अतः चुनने का अधिकार वर का नहीं, वधू का है। वर तो वधू का चयन स्वीकार करता है। चुनाव की प्रक्रिया को स्वयंवर कहते हैं। स्वयंवर में वर तो युवक है, परन्तु चुनने का अधिकार युवती का है, उस चुनाव से सहमत होना, न होना, युवक की स्वतन्त्रता है। जब अनेक युवक एक युवती को प्राप्त करने में इच्छुक होते हैं, तो चयन का अधिकार युवती का होता है। भारतीय इतिहास में अनेकशः स्वयंवर के उदाहरण मिलते हैं, द्रौपदी स्वयंवर है, सीता स्वयंवर है। कालिदास के प्रसिद्ध महाकाव्य में अज- इन्दुमति स्वयंवर का चित्रण बड़ा रोचक है। स्वयंवर के समय देश के विभिन्न भागों से इन्दुमति से विवाह करने के इच्छुक राजकुमार स्वयंवर स्थल पर उपस्थित होते हैं। स्वयंवर के समय इन्दुमति की दासी सुनन्दा राजकुमारी इन्दुमति के साथ चलती है और प्रत्येक राजकुमार के सामने खड़ी होकर, राजकुमार के गुण, वैभव, विद्या, वीर्य, पराक्रम का वर्णन करती है। राजकुमारी इन्दुमति द्वारा अस्वीकृत करने पर वह अगले राजकुमार के सामने पहुँच जाती है। इस चित्रण को कालिदास ने अपने काव्य में बहुत सुन्दर ढंग से बाँधा है। वे कहते हैं-

संचारिणी दीपशिखेव रार्त्रो ये ये व्यतीयाय पतिंवरासा

नरेन्द्र मार्गट्ट इव प्रपेदे विवर्ण भावं स स भूमिपालः।।

अर्थात् जब इन्दुमति राजकुमारों के समुख वरमाला लेकर उपस्थित होती थी, तब राजकुमार का मुख कान्ति से दैदीप्यमान हो जाता था, जैसे चलते हुए दीपक के किसी महल के समुख आने पर भवन की भव्यता प्रकाशित होती है, परन्तु जब राजकुमारी राजकुमार के सामने से बिना वरण किये आगे बढ़ जाती थी तो उस राजकुमार की कान्ति वैसी मलिन पड़ जाती थी, जैसे दीपक के भवन के सामने से निकल जाने पर, कितना भी विशाल भवन हो- अन्धकार में विलुप्त हो जाता है।

इस प्रकार महिला के अधिकारों पर एक सहज विचार इन शदों में प्रतिबिबित होता है। आज महिला के अधिकार और कर्त्तव्य का निश्चय पुरुष करना चाहता है, तब हमें वेद के इस सन्देश पर ध्यान देना चाहिये।

वेद प्रत्येक मनुष्य को ज्ञान का अधिकार देता है। ज्ञान प्राप्त करके ही मनुष्य अपने हित-अहित का विचार कर सकता है। यदि महिला शिक्षित नहीं होगी, तो निर्णय और विचार कैसे कर सकेगी? इन मन्त्रों में अपने अधिकार, अपने कर्त्तव्य, अपनी योग्यता के कारण जो आत्मविश्वास व्यक्ति के अन्दर आता है, उसका स्पष्ट पता चलता है। अतः तद् विद्वला पतिम् अर्थात् मैंने अपने योग्य पति को प्राप्त कर लिया है, यह कथन उचित ही है।

 

यह भाव से अभाव तथा अभाव से भाव कैसे हो जाता है? आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा :-

आचार्य जी, ‘‘समाधान – 93’’ में आपने जो दिया है, उसमें थोड़ी-सी शंका शेष रह गई है और वह यह है कि ईश्वर ने इस साकार जगत् की रचना प्रकृति के परमाणुओं से की है। इसका मतलब प्रकृति के परमाणुओं में साकारत्व का गुण है, तभी तो साकार जगत् बन पाया। पंचभौतिक तत्त्व भी प्रकृति के परमाणुओं से ही बने हैं, तो इन परमाणुओं से निराकार पदार्थ कैसे बन जाते हैं और फिर वे निराकार पदार्थ परस्पर मिलते हैं, तो आकार कैसे ग्रहण कर लेते हैं, अर्थात् साकार कैसे बन जाते हैं? यह भाव से अभाव तथा अभाव से भाव कैसे हो जाता है?

निम्न बिन्दुओं पर भी स्थिति स्पष्ट करने का कष्ट करें-

(1) आपने आकाश निराकार बताया है। यह प्रकृति के परमाणुओं से बना है। इसी तरह वायु भी निराकार है, अग्नि जब प्रकट होती तब साकार होती है, अन्यथा निराकार। यह क्यों है?

(2) मेरे विचार से प्रलयकाल में जब प्रकृति अपने विशुद्ध रूप में होती है, तब निराकार ही होती है और ईश्वर तथा जीव निराकार होते ही हैं। फिर निराकार प्रकृति से साकार जगत् कैसे बना?

(3) महर्षि दयानन्द जी ने बताया है कि साकार चीजें असीम नहीं होती, बल्कि जीवात्माएँ भी संया वाली हैं, चाहे वे मनुष्य की गिनती से बाहर हों। ऐसी अवस्था में आकाश या अवकाश रूप आकाश असीम है या ससीम है?

(4) वायु ससीम है या असीम?

(5) क्या ईश्वर के अतिरिक्त अन्य भी कोई तत्त्व ऐसा है, जो असीम हो?

कृपया, समाधान करने का कष्ट करें।

– इन्द्रसिंह पूर्व एस.डी.एम. 29- नई अनाज मण्डी, भिवानी (हरियाणा) चलभाषः – 9416057813

समाधानः परमेश्वर ने यह संसार अपने सामर्थ्य से मूल प्रकृति को लेकर बनाया है। संसार के बनाने में परमेश्वर निमित्त कारण और प्रकृति उपादान कारण है। स्थूल जगत् के बनने की प्रक्रिया महर्षि कपिल ने अपने सांय दर्शन में दी है-

सत्त्वरजतमसां सायावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान्, महतोऽहङ्कारोऽहङ्कारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिद्रियं पञ्चतन्मात्रेयः स्थूलभूतानि……।।  सां.- 1.61

सत्त्व, रज, तम- इन तीन वस्तुओं से मिलकरजो एक संघात है, उसका नाम प्रकृति है। उस प्रकृति से महतत्त्व बुद्धि, उस महतत्त्व से अहंकार, अहंकार से पाँच तन्मात्रा अर्थात् सूक्ष्म भूत- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द , दस इन्द्रियाँ तथा ग्यारहवाँ मन, पाँच तन्मात्राओं से पाँच स्थूल भूत अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश और इन पाँच महाभूतों से यह दृश्य जगत्।

प्रकृति से जो कुछ भी उत्पन्न होता है, वह आकार वाला होता है, क्योंकि प्रकृति स्वयं आकार वाली है, जो गुण कारण में नहीं होते, वे कार्य में भी नहीं होते। यदि ऐसा होने लग जाये, तो अभाव से भाव की उत्पत्ति माननी पड़ेगी, जो द्रव्यात्मक पदार्थों में कभी घट ही नहीं सकता। महर्षि दयानन्द ने भी प्रकृति को आकार वाला माना है। महर्षि लिखते हैं-‘‘…….वह प्रकृति और परमाणु जगत् का उपादान कारण है और वे सर्वथा निराकार नहीं, किन्तु परमेश्वर से स्थूल और अन्य कार्य से सूक्ष्म आकार रखते हैं।’’ – स. प्र. स. 8

आपने जो कहा कि ‘‘मेरे विचार से प्रलयकाल में जब प्रकृति अपने विशुद्ध रूप में होती है, तब निराकार ही होती है।’’ यह विचार ऋषि के विचार से नहीं मिल रहा है। यदि ऐसा मान भी लें तो अभाव से भाव की उत्पत्ति वाली बात हो जायेगी, जो कि युक्त नहीं है। ऊपर जो लिखा कि प्रकृति से उत्पन्न पदार्थ आकार वाले होते हैं, इस कथन से आकाश निराकार कैसे सिद्ध होगा- यह प्रश्न खड़ा हो जायेगा। इसके लिए मेरा कथन है कि जो आपने परोपकारी के जिज्ञासा समाधान-93 की चर्चा की है, उसमें साकार निराकार की तीन परिभाषाएँ लिखी हैं, उनको यहाँ पुनः उद्धृत करता हूँ-

  1. साकार वह है, जो प्रकृति से बना हुआ, इसके अतिरिक्त निराकार।
  2. साकार वह, जिसमें रूप, रस, गन्धादि पाँचों गुण प्रकट हों, इससे भिन्न अर्थात् जिसमें पाँचों गुण प्रकट न हों, वह निराकार।
  3. साकार वह, जिसमें केवल रूप गुण प्रकट रूप में हो, अर्थात् जो आँखों से दिखाई दे वह साकार, इससे भिन्न निराकार।

इन परिभाषाओं के आधार से पहली परिभाषा के अनुसार देखें तो जो प्रकृति से बना आकाश है, वह भी साकार होगा। जहाँ आकाश को निराकार कहा है, वहाँ सापेक्ष रूप से कहा है। आकाश पाँच भूतों में सबसे सूक्ष्म है, उसको हम केवल शब्द  के आधार से अनुमान लगाकर जान पाते हैं। इसी प्रकार वायु को स्पर्श से जान पाते हैं। रूप क ी दृष्टि से तो ये निराकार ही कहलाएँगे।

हाँ, जिस अवकाश रूप आकाश की बात ऋषि करते हैं, जो कि प्रकृति से नहीं बना, वह तो निराकार ही है और यह अवकाश रूप आकाश असीम है। इन आकाश, वायु आदि के असीम-ससीम के विषय में हम इतना ही कह सकते हैं कि ये पदार्थ प्रकृति से बने होने केकारण ससीम हैं। शेष बाद में लिखेंगे।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

बैठकर-निज मन से घंटों तक झगड़िए: आर्य संजीव ‘रूप’,

गीत

बैठकर-निज मन से घंटों तक झगड़िए

(तर्ज – राम का गुणगान करिए)

ईश का गुणगान करिए,

प्रातः सायम्् बैठ ढंग से ध्यान धरिए।।

ध्यान धरिए वह प्रभो ही इस जगत का भूप है,

यह जगत ही सच्चिदानन्द उस प्रभो का रूप है।

देख सूरज चाँद उसका भान करिए।।

हाथ में गाजर टमाटर या कोई फल लीजिए,

वाह क्या कारीगरी तेरी प्राो कह दीजिए,

ये भजन हर वक्त हर एक स्थान करिए।।

मित्रता करनी हो तो मन से भला कोई नहीं,

शत्रुता करनी हो तो मन से बुरा कोई नहीं

बैठकर निज मन से घंटों तक झगड़िए।।

– आर्य संजीव ‘रूप’, गुधनी (बदायूँ)

गृहस्थाश्रम की सफलता के उपाय प्रो. रामसिंह एम.ए.

 

वैदिक आश्रम मर्यादा में गृहस्थाश्रम दूसरा आश्रम है। इसे यदि चारों आश्रमों का आधार कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी। इस आश्रम की सफलता के लिए आवश्यक है कि आश्रम में प्रवेश के इच्छुक यथावत् ब्रह्मचर्य में आचार्यानुकूल वर्त कर, धर्म से चारों वेद या तीन या फिर दो अथवा एक वेद को सांगोपांग पढ़कर अखण्डित-ब्रह्मचर्य से युक्त पुरुष वा स्त्री गुरु की यथावत् आज्ञा लेकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपने वर्णानुकूल सुन्दर-लक्षणायुक्त कन्या से विवाह करें।

उत्तम कुल के लड़के और लड़कियों का आपस में विवाह होना चाहिए। जो कुल सत्क्रिया से हीन और सत्पुरुषों से रहित हों तथा जिनमें बवासीर, क्षय, दमा, मिरगी, श्वेतकुष्ठ और गलित कुष्ठाादि भयानक रोग हों, उनकी कन्या या वर के साथ विवाह होना अनुचित है, क्योंकि इस प्रकार के विवाहों से ये सब दुर्गुण और रोग अन्य कुलों में भी प्रविष्ट हो जाते हैं।

कन्या पिता के गोत्र की नहीं होनी चाहिए तथा माता के कुल की छः पीढ़ियों मेंाी न हो। साथ ही कन्या का विवाह दूर देश में होने से हितकारी होता है, निकट रहने में नहीं। दूरस्थों के विवाह में अनेक लाभ हैं तथा निकट विवाह होने में अनेक हानियों की सभावना रहती है।

जब स्त्री-पुरुष विवाह करना चाहें, तब विद्या, विनय, शील, रूप, आयु, बल, कुल, शरीर का परिमाण आदि यथायोग्य होना चाहिये। जब तक उपर्युक्त गुणों में मेल नहीं होता, तब तक गृहस्थाश्रम में कुछ भी सुख नहीं मिलता।

बाल्यावस्था में तो विवाह करने से सुख होता ही नहीं। जिस देश में ब्रह्मचर्य-विद्या-ग्रहण रहित बाल्यावस्था हो और जहाँ अयोग्यों का विवाह होता है, वह देश दुःख में डूब जाता है तथा जिस-जिस देश में विवाह की श्रेष्ठ विधि और ब्रह्मचर्य-विद्यायास अधिक होता है, वह देश सुखी और समृद्ध होता है। सोलहवें वर्ष से लेकरचौबीसवें वर्ष तक कन्या और पच्चीसवें वर्ष से लेक रअड़तालीसवें वर्ष तक पुरुष का विवाह-समय उत्तम है। इसमें जो सोलह और पच्चीस वर्ष में विवाह करें तो निकृष्ट, अठारह वर्ष की स्त्री, तीस, पैंतीस व चालीस वर्ष के पुरुष का विवाह मध्यम तथा चौबीस वर्ष की स्त्री और अड़तालीस वर्ष के पुरुष का विवाह होना उत्तम है।

ब्रह्मचर्य विद्या के ग्रहणपूर्वक, विवाह के सुधार ही से, सब बातों का सुधार और बिगाड़ने से बिगाड़ हो जाता है।

चाहे लड़का-लड़की मरण पर्यन्त कुँवारे रहें, परन्तु असदृश अर्थात् परस्पर विरुद्ध गुण-कर्म-स्वभाव वालों का विवाह काी न होना चाहिए।

परस्पर-सहमति

विवाह लड़के-लड़की की प्रसन्नता के बिना न होना चाहिये, क्योंकि एक दूसरे की प्रसन्नता से विवाह होने में विरोध बहुत कम और सन्तान उत्तम होती है। अप्रसन्नता के विवाह में नित्य क्लेश ही रहता है। विवाह में मुय प्रयोजन वर और कन्या का है, माता-पिता का नहीं, क्योंकि जो उनमें परस्पर प्रसन्नता रहे तो उन्हीं को सुख और विरोध में उन्हीं को दुःख होता है, इसलिये जैसी स्वयंवर की रीति आर्यावर्त्त में परपरा से चली आती थी, वही उत्तम है।

जब तक सब ऋषि-मुनि, राजा-महाराजा और अन्य आर्य लोग ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ कर ही स्वयंवर विवाह करते थे, तब तक इस देश की सदा उन्नति होती रही। जब से यह ब्रह्मचर्य से रहित विद्या की पढ़ाई और बाल्यावस्था में पराधीन अर्थात् माता-पिता के आधीन विवाह होने लगे, तब से क्रमशः आर्यावर्त्त देश की हानि होती चली आयी। इससे इस दुष्ट काम को छोड़ कर सज्जन लोग पूर्वोक्त प्रकार से स्वयंवर विवाह किया करें। विवाह वर्णानुक्रम से करें।

कईलोग आपत्ति करते हैं कि विवाह-बंधन में केवल दुःख भोगना पड़ता है, इसलिए यह क्यों न हो कि जिसके साथ जिसकी प्रीति हो, तब तक मिले रहें, प्रीति छूट जाने पर एक-दूसरे को छोड़ देवें। परन्तु इस प्रकार करने को हम पशु-पक्षी का व्यवहार मानते हैं, मनुष्यों का नहीं। जो मनुष्यों में विवाह का नियम न रहे, तो गृहस्थाश्रम के अच्छे-अच्छे व्यवहार नष्ट-भ्रष्ट हो जायें। कोई किसी की सेवा भी न करे और महा व्यभिचार बढ़ कर सब रोगी, निर्बल और अल्पायु हो शीघ्र ही मर जायें । भय-लज्जा भी न रहे। वृद्धावस्था में कोई सेवा न करे। कोई किसी के पदार्थों का स्वामी या दायभागी भी न हो सके  और न ही किसी का किसी पदार्थ पर दीर्घकाल पर्यन्त रहे। इन दोषों के निवारणार्थ विवाह ही होना सर्वथा योग्य है।

यह भी स्मरण रहे कि एक समय में एक ही विवाह उचित है, परन्तु समयान्तर में अनेक विवाह भी हो सक ते हैं। जिस स्त्री या पुरुष का मात्र पाणिग्रहण संस्कार हुआ हो और संयोग न हुआ हो-अर्थात् अक्षतयोनि स्त्री और अक्षतवीर्य पुरुष हो, उनका ऐसी ही अन्य स्त्री वा पुरुष के साथ पुनर्विवाह होना चाहिए।

विवाह-प्रयोजन

स्त्री और पुरुष की सृष्टि का यही प्रयोजन है कि वे धर्म से अर्थात् वेदोक्त रीति से सन्तानोत्पत्ति करें। ईश्वर के सृष्टि क्रमानुकूल स्त्री-पुरुष का स्वाभाविक व्यवहार रुक ही नहीं सकता, सिवाय वैराग्यवान् पूर्ण विद्वान् योगियों के। संसार में व्यभिचार और कुकर्म को रोकने का श्रेष्ठ उपाय ही है कि जो जितेन्द्रिय रह सकेंगे, वे विवाह न करें तो भी ठीक, परन्तु जो ऐसे नहीं हैं, उनका वेदोक्त रीति से विवाह अवश्य होना चाहिये। आपात्काल में नियोग भी आवश्यक है। इसी प्रकार से व्यभिचार न्यून तथा प्रेम से उत्तम सन्तान और स्वस्थ मनुष्यों की वृद्धि सभव है।

विवाह के प्रकार

विवाह आठ प्रकार के होते हैं- एक ब्राह्म, दूसरा दैव, तीसरा आर्ष, चौथा प्राजापत्य, पाँचवाँ आसुर, छठा गान्धर्व, सातवाँ राक्षस एवं आठवाँ पैशाच।

इन विवाहों की यह व्यवस्था है कि वर कन्या दोनों यथावत् ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्वान्, धार्मिक और सुशील हों, उनका परस्पर प्रसन्नता से विवाह होना ‘ब्र्राह्म’ कहलाता है। विस्तृत यज्ञ करने में ऋत्विक् कर्म करते हुए जामाता को अलंकार युक्त कन्या का देना ‘‘दैव’’, वर से कुछ लेकर विवाह होना ‘‘आर्ष’’, दोनों का विवाह धर्म की वृद्धि के अर्थ होना ‘‘प्राजापत्य’’, वर और कन्या को कुछ दे के विवाह होना ‘‘आसुर’’, अनियम- असमय किसी कारण से वर कन्या का इच्छापूर्वक परस्पर संयोग होना ‘‘गान्धर्व’’, लड़ाई करके बलात्कार अर्थात् छीन-झपट वा कपट से कन्या का ग्रहण करना ‘‘राक्षस’’, शयन व मद्यादि पी हुई पागल कन्या से बलात्कार संभोग करना ‘‘पैशाच’’ विवाह कहलाता है। इन सब विवाहों में ब्राह्म विवाह सर्वोत्कृष्ट, दैव और प्राजापत्य मध्यम, आर्ष आसुर और गान्धर्व निकृष्ट, राक्षस अधम और पैशाच महाभ्रष्ट है, इसलिए यही निश्चय रखना चाहिए कि कन्या और वर का विवाह के पूर्व एकान्त में मेल न हो, क्योंकि युवावस्था में स्त्री-पुरुष का एकान्तवास दूषणकारक है।

विवाह से पूर्व

जब कन्या या वर के विवाह का समय हो तो उनके अध्यापक अथवा माता-पिता उनके गुण, कर्म और स्वभाव की भली-भाँति परीक्षा कर लें। जब दोनों का निश्चय विवाह करने का हो जाय, तो यदि अध्यापकों के समक्ष विवाह करना चाहें तो वहाँ, नहीं तो कन्या के माता-पिता के घर में विवाह होना योग्य है। कन्या और वर के खान-पान का उत्तम प्रबन्ध वैवाहिक-विधि से पूर्व होना चाहिये, जिससे उनका ब्रह्मचर्यव्रत और विद्याध्ययनरूप तपश्चर्या से दुर्बल शरीर चन्द्रमा की कला के समान बढ़कर थोड़े ही दिनों में पुष्ट हो जाये।

पश्चात् उपयुक्त समय वेदी और मण्डप रचकरअनेक सुगन्धादि द्रव्य और घृतादि का होम करके वैदिक-विधि के अनुसार विद्वान् पुरुष और स्त्रियों के सामने पाणिग्रहणपूर्वक विवाह-विधि पूरी करें।

विवाह के पश्चात्

स्त्री और पुरुष अपने-अपने कर्त्तव्य को पूरी तरह समझें और जहाँ तक बन पड़े, वहाँ तक ब्रह्मचर्य के वीर्य को व्यर्थ न जाने दें, क्योंकि उस वीर्य वा रज से जो शरीर उत्पन्न होता है, वह अपूर्व उत्तम सन्तान होती है।

पुरुष वीर्य की स्थिति और स्त्री गर्भ की रक्षा और भोजन-छादन इस प्रकार करे, जिससे गर्भस्थ बालक का शरीर अत्युत्तम रूप, लावण्य, पुष्टि, बल, पराक्रमयुक्त होकर दसवें महीने में जन्म होवे। विशेष उसकी रक्षा चौथे महीने से और अतिविशेष आठवें महीने से करना योग्य है। कभी गर्भवती स्त्री रेचक, रुक्ष, मादक द्रव्य, बुद्धि और बलनाशक पदार्थों का सेवन न करे, किन्तु घी, दूध, उत्तम चावल, गेहूँ, मूँग,उर्द आदि खान-पान देश-कालादि के अनुसार करे। चौथे महीने में पुंसवन संस्कार और आठवें में सीमन्तोन्नयन विधि के अनुकूल करे।

सन्तान-पालन

बालक के जन्म के समय बालक और उसकी माता की सावधानी से रक्षा करनी चाहिये। शुण्ठीपाक और सौभाग्यशुण्ठीपाक प्रथम से ही तैयार रहना चाहिए। बालक और उसकी माता को सुगन्धियुक्त उष्ण जल से स्नान कराना भी उचित है। नाड़ी-छेदन यथा-विधि कराये। प्रसूति-गृह में सुगन्धादि युक्त घृत का होम करे। तत्पश्चात् बालक के कान में ‘वेदोऽसि’ – तेरा नाम वेद है सुनाकर, पिता मधु और घृत से बालक की जीभ पर ‘ओ3म्’ लिखे और शलाका से उसे चटा दे।

पश्चात् बालक और उसकी माता को दूसरे शुद्ध स्थान पर बदल दें और वहाँ नित्य सायं-प्रातः सुगन्धित घी का हवन करें। बालक छह दिन तक माता का दूध पिये। छठे दिन स्त्री बाहर निकले। सन्तान के दूधादि के लिए यथावत् प्रबन्ध करें। समर्थ हो तो कोई धाय रख ली जाये। बालक के पालन-पोषण में कोई अनुचित व्यवहार न हो।

पश्चात् नामकरणादि संस्कार ‘‘संस्कार-विधि’’ की रीति से यथाकाल करता जाये।

पुरुष के कर्त्तव्य

इस प्रकार स्त्री और पुरुष विधिपूर्वक गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए संसार में सुखपूर्वक रहें। पुरुष का कर्त्तव्य है कि सभी प्रकार से स्त्री को प्रसन्न रखे। जिस कुल में भार्या से भर्ता और पति से पत्नी अच्छे प्रकार प्रसन्न रहती है, उसी कुल में सौभाग्य और ऐश्वर्य निवास करते हैं। जिस घर में स्त्रियों का सत्कार होता है, उसमें पुरुष विद्यायुक्त होकर देव संज्ञा को प्राप्त होते हैं और आनन्द करते हैं। जहाँ स्त्रियों का सत्कार नहीं होता, वहाँ सारी क्रियायें निष्फल हो जाती हैं।

स्त्री के कर्त्तव्य

स्त्री को भी योग्य है कि अति प्रसन्नता से घर के कामों में चतुराई युक्त सब पदार्थों के उत्तम संस्कार तथा घर की शुद्धि रखे और व्यय करने में भी संकोच से काम ले, अधिक उदारता न दिखाये, अर्थात् यथायोग्य खर्च करे। पाकादि भी इस भाँति बनावे कि औषधरूप होकर शरीर और आत्मा में रोग न आने दे। आय-व्यय का ध्यान भी यथावत् रखे। घर के नौकर-चाकरों से यथायोग्य काम ले और घर के कार्यों में पूरी सावधानी बरते।

गृहस्थ के कर्त्तव्य

इस भाँति गृहस्थाश्रम में स्त्री-पुरुष परस्पर प्रेमपूर्वक रहें। बुद्धि-धनादि की वृद्धि करने वाले शास्त्रों को नित्य सुनें और सुनावें।

यथाविधि दिन और रात्रि की सन्धि में परमेश्वर का ध्यान और अग्निहोत्र अवश्य करना चाहिए।

पितृयज्ञ भी गृहस्थ का कर्त्तव्य कर्म है। श्रद्धा और भक्ति भाव से विद्यमान माता-पिता आदि पितरों की सेवा करना ही पितृयज्ञ और श्राद्धतर्पण है। परम विद्वानों, आचार्यादि की सर्वप्रकार से सेवा करना ही ऋषि तर्पण है।

वास्तव में माता-पिता, स्त्री, भगिनी, सबन्धी आदि तथा कुल के अन्य कोई भद्र पुरुष वा वृद्ध हों, उन सबको अत्यन्त श्रद्धा से उत्तम अन्न, वस्त्र, सुन्दर यानादि देखकर अच्छी प्रकार तृप्त करना, जिससे उनकी आत्मा तृप्त और शरीर स्वस्थ रहे-यही श्राद्ध और तर्पण है।

चौथा ‘वैश्वदेव’ यज्ञ है। जब भोजन सिद्ध हो जाये, तब उसमें से खट्टा, लवणान्न और क्षार युक्त को छोड़कर घृत-मिष्ट युक्त अन्न लेकर मन्त्रों से आहुति दे दें तथा कुछ भाग पत्ते या थाली में भी मन्त्रों से आहुति देते समय रखता जाय। यदि कोई अतिथि हो तो उसको दे दें, नहीं तो अग्नि में ही छोड़ देवें। इसी प्रकार किसी दुःखी प्राणी अथवा कुत्ते, कव्वे आदि के लिये भी छः भाग अलग रख दें- पश्चात् उनको दे दिये जायें।

अतिथि यज्ञ भी आवश्यक है। यदि अकस्मात् कोई धार्मिक , सत्योपदेशक, सबके उपकारार्थ सर्वत्र घूमने वाला पूर्ण विद्वान्, परमयोगी, संन्यासी गृहस्थ के यहाँ आ जाये तो उसका यथाविधि सत्कार करना, खान-पानादि से सेवा-शुश्रूषा करना परम कर्त्तव्य है। समयानुसार गृहस्थ और राजादि भी अतिथिवत् सत्कार करने योग्य हैं, परन्तु पाखण्डी, वेदनिन्दक, वेदविरुद्ध आचरण करने वालों का वाणी मात्र से भी सत्कार न करें-क्योंकि इनका सत्कार करने से ये वृद्धि को पाते हैं- संसार को अधर्मयुक्त करते हैं और अपने सेवकों को भी अविद्या रूपी महासागर में डुबो देते हैं।

इन पाँचों महायज्ञों का अत्युत्तम फल होता है। धर्म की वृद्धि होकर संसार में सुख का संचार होता है।

गृहस्थ को अपनी दिनचर्या का भी विशेष ध्यान रखना आवश्यक है। रात्रि के चौथे प्रहर अथवा चार घड़ी रात से उठे। आवश्यक कार्य से निवृत्त हो, धर्म और अर्थ, शरीर के रोगों का निदान और परमात्मा का ध्यान करे। अधर्म का आचरण कभी न करे।

अधर्मात्मा मनुष्य मिथ्याभाषण, कपट, पाखण्ड और विश्वासघातादि कर्मों से पराये धन और पदाथरें को लेकर बढता है, धनादि ऐश्वर्य, यान, स्थान, मान-आदि प्रतिष्ठा कोाी प्राप्त कर लेता है, परन्तु शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, जैसे जड़ से कटा हुआ वृक्ष। इसलिये गृहस्थों को उचित है कि पक्षपात रहित होकर सत्य का सदैव ग्रहण करें, असत्य का परित्याग करें। न्याय रूप वेदोक्त धार्मिक मार्ग ग्रहण करें तथा अन्यों को भी इसी प्रकार की शिक्षा दिया करें।

धर्म से धन को कमायें और ऐसे धन को सद् पात्र में ही व्यय करें, अपात्र में धन का दुरुपयोग न करें। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य, सत्यभाषण आदि तपरहित हैं, अशिक्षित हैं और दूसरों के धन पर ही अपना दाँत लगाये रखते हैं, उसी पर पलते हैं, ये तीनों प्रकार के अपात्र ही हैं। वे स्वयं भी डूबते हैं और अपने दाताओं को भी साथ डुबा लेते हैं।

इस प्रकार गृहस्थ इस लोक और परलोक का सदा ध्यान रखें। धर्म का सञ्चय धीरे-धीरे करता जाये, क्योंकि धर्म ही के सहारे से दुस्तर दुःख सागर को जीव तर सकता है।

गृहस्थ जीवन में- विवाह होने के पश्चात् स्त्री के साथ पुरुष और पुरुष के साथ स्त्री बिक चुके होते हैं। जो उनके पारस्परिक हाव-भाव, नख-शिखाग्र-पर्यन्त जो कुछ भी हैं- वह एक दूसरे के आधीन हो जाते हैं, अतः स्त्री वा  पुरुष एक दूसरे की प्रसन्नता बिना कोई व्यवहार न करें। इनमें बड़े अप्रियकारक काम व्यभिचार, वेश्या-परपुरुषगमनादि हैं। इनको छोड़के अपने पति के साथ स्त्री और स्त्री के साथ पति सदा प्रसन्न रहें।

वर्णाश्रम-व्यवस्था

जिस प्रकार गृहस्थ अपने विवाह वर्णानुक्रम से करते हैं, वैसे ही वर्ण-व्यवस्था भी गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार होनी चाहिये। जो उत्तम विद्या स्वभाव वाला है, वही ब्राह्मण के योग्य और मूर्ख शूद्र के योग्य होता है और ऐसा ही आगे भी होगा।

जो नीच भी उत्तम वर्ण-कर्म-स्वभाव वाला होवे तो उसकोाी उत्तम वर्ण में और जो उत्तम वर्णस्थ हो के नीचे काम करे, तो उसको नीच वर्ण में अवश्य गिनना चाहिये।

यजुर्वेद के इकत्तीसवें अध्याय के ग्यारहवें मन्त्र-‘‘ब्राह्मणोऽस्यमुखमासीद्’’का अर्थ भी यही है कि जो पूर्ण व्यापक परमात्मा की सृष्टि में मुख के सदृश सब में मुय-उत्तम हो, वह ब्राह्मण; बाहुबल-वीर्य जिसमें अधिक हो, वह क्षत्रिय; कटि के अधोभाग और जानु के उपरिस्थ भाग का ऊरु नाम है, जो सब पदार्थों और सब देशों में ऊरु के बल से जावे-आवे, प्रवेश करे, वह वैश्य और जो पग के अर्थात् नीचे अङ्ग के सदृश मूर्खत्वादि गुण वाला हो वह शूद्र है। यही बात मनु ने भी कही है कि शूद्र कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के समान गुण कर्म स्वभाव वाला हो तो वह शूद्र-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हो जाये और वैसे ही जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो और उसके गुण कर्म और स्वभाव शूद्र के सदृश हों तो वह शूद्र हो जाये। इसी प्रकार क्षत्रिय या वैश्य कुलोत्पन्न भी ब्राह्मण या शूद्र के समान होने से ब्राह्मण और शूद्र भी हो जाता है। चारों वर्णों में जिस-जिस वर्ण के सदृश जो-जो पुरुष वा स्त्री हो, वह-वह उसी वर्ण में गिनी जावे। इस विषय में अनेक प्रमाण हैं।

वर्ण-धर्म

चारों वर्णों के कर्त्तव्य, कर्म और गुण भी पृथक्-पृथक् हैं।

पढ़ना-पढ़ाना, यज्ञ करना-कराना, दान देना और लेना- ये छः कर्म ब्राह्मण के हैं। वास्तव में ‘‘प्रतिग्रह’’ लेना नीच कर्म है। ‘शम, दम, तप, शौच, क्षान्ति, आर्जव, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिक्य’- छः पहिले और नौ पिछले मिलाकर- यह पन्द्रह कर्म और गुण ब्राह्मण वर्णस्थ मनुष्यों में अवश्य होने चाहियें।

इसी प्रकार ग्यारह क्षत्रिय वर्ण के कर्म और गुण हैं- अर्थात् प्रजा-रक्षण, दान, इज्या- अग्निहोत्रादि यज्ञ करना-कराना, अध्ययन, विषयों में न फँसना, शौर्य, धृति (धैर्य), दाक्ष्य- राजा प्रजा सबन्धी व्यवहार और शास्त्रों में चतुराई, युद्ध से न डरना, न भागना, दान, ईश्वरभाव-पक्षपातरहित होकर सबके साथ यथायोग्य वर्तना, प्रतिज्ञा पूरी करना-ये क्षत्रियों के धर्म हैं।

वैश्यों के गुण-कर्माी इसी प्रकार गिनाये गये हैं- अर्थात् पशु-रक्षा, दान, इज्या (अग्निहोत्रादि), अध्ययन, वणिक्पथ (सब प्रकार के व्यापार करना), कुसीद (याज-सौ वर्ष में भी दूने से अधिक न लेना), कृषि (खेती) करना- यह सब वैश्य-कर्म समझे गये हैं।

शूद्र को सेवा का अधिकार है। वह भी इसलिये कि वह विद्या रहित है, मूर्ख है। जो विज्ञान-सबन्धी कुछ भी काम नहीं कर सकता और केवल शरीर से ही कार्य कर सकता है, वही उससे लेना उचित है। वर्णों को अपने-अपने अधिकार में प्रवृत्त करना राजा आदि सयजनों का काम है।

गृहस्थ का महत्त्व

इस प्रकार गृहस्थाश्रम (विवाह करके गृहस्थ बनना) बहुत महत्त्वपूर्ण आश्रम है। कुछ लोग पूछा करते हैं-यह आश्रम सब से छोटा है-अथवा बड़ा? हम तो यही कहते हैं कि अपने-अपने कर्त्तव्य कर्मों में सब बड़े हैं, परन्तु जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमते रहते हैं, जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं होते, वैसे गृहस्थ ही के आश्रय से सब आश्रम स्थिर रहते हैं। बिना इसके किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता। ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास तीनों आश्रमों को दान अन्नादि देकर गृहस्थ ही धारण करता है, इससे गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है, अर्थात् सब व्यवहारों में धुरन्धर कहलाता है। जो मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता है, वह प्रयत्न से गृहाश्रम को धारण करे।

जितना कुछ व्यवहार संसार में है, उसका आधार गृहस्थाश्रम है। जो यह गृहस्थाश्रम न होता तो सन्तानोत्पत्ति न होती- फिर ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम कहाँ से हो सकते?

जो गृहस्थाश्रम की निन्दा करता है, वही निन्दनीय है- जो प्रशंसा करता है, वही प्रशंसनीय है।

परन्तु स्मरण रहे यह पुण्य गृहस्थाश्रम दुर्बलेन्द्रिय अर्थात् भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने योग्य नहीं है, और गृहस्थाश्रम में सुखाी तभी होता है, जब स्त्री और पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न,विद्वान्, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता हों। इसलिये गृहस्थाश्रम के सुख का मुय कारण ब्रह्मचर्य और पूर्वोक्त स्वयंवर विवाह है। समावर्तन, विवाह और गृहस्थाश्रम के विषय में यह संक्षिप्त शिक्षा लिखी गयी है।

आर्य समाज का वेद प्रचारः एक नूतन प्रयोग – रामनिवास गुणग्राहक

 

आर्य समाज की प्रचार पद्धति के सबन्ध में विचार करने से पहले एक बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि संसार के धार्मिक कहे जाने वाले मत-पन्थों के प्रचार-अभियान और आर्य समाज के प्रचार कार्य में बहुत बड़ा अन्तर है। पाखण्ड और अन्धविश्वास को धर्म स्वीकार कर चुका भारतीय जन मानस एक पाखण्ड से अच्छे और सरल लगने वाले दूसरे पाखण्ड को सहजता से स्वीकार कर लेता है। मूर्ति राम की न सही, कृष्ण की भी चलेगी, गणेश की न सही, हनुमान की भी चलेगी। यही परपरा आज यहाँ तक पहुँच गई है कि शिव का स्थान साँई ले सकता है और गली-गली में बनने वाले भोले-भैरों के मन्दिर से जिनकी कामना सिद्ध नहीं होती, वे उसी कथित श्रद्धा-भक्ति से किसी मियाँ की मजार या कब्र पर जाकर भेंट पूजा चढ़ाने चले जाते हैं। आर्य समाज इन सबसे अलग हटकर बुद्धि और तर्क की बात करता है, जिन्हें हमारे पुराणी और कुरानी बन्धु सैकड़ों सहस्रों वर्ष पूर्व धार्मिक सोच से दूर भगा चुके हैं। यही कारण है कि तर्क और बुद्धि से काम लेने वालों को आज के धर्माचार्य व धर्मभीरु लोग बिना सोचे-समझे नास्तिक कह डालते हैं। वैसे यह एक कड़वा सच भी है कि तर्क और विज्ञान की बात करने वाले हमारे बुद्धिजीवी आज नास्तिक बन कर ही रह गये हैं। ऐसे में आर्य समाज को अपनी प्रचार-पद्धति की जाँच-परख करते रहना चाहिए।

यह सही है कि आर्य समाज की पहली पीढ़ी ने जितना, जो कुछ वेद प्रचार व समाज सुधार का काम किया, वह सब इसी प्रचार-पद्धति से किया है। ऐसे में प्रत्येक वेद भक्त और ऋषि भक्त आर्य का कर्त्तव्य है कि वह आर्य समाज के प्रचार कार्य को प्रखर और प्रभावी बनाने की दिशा में गभीरता से विचार करे और उसे व्यावहारिक बनाने  के लिए कुछ ठोस कार्य भी करे।

आर्य समाज को नवजीवन देने के लिए हमें अपनी प्रचार-पद्धति में क्या कुछ बदलना पड़ेगा। यद्यपि आज आर्य समाज में ऐसे उपदेशक बहुत कम संया में हैं जो नित्य नियमित रूप से संध्योपासना व स्वाध्याय करते हों। जितने भी हों, प्रारभ के लिए ऐसे विद्वान् हमारे मध्य हैं जो संध्या व स्वाध्याय दैनिक कर्म के रूप में करते हैं। जो नहीं भी करते हैं, जब सिर पर आ पड़ेगी तो सब करने लग जाएँगे। आज समस्या यह है कि आर्य समाज में ‘सब धान सत्ताईस का सेर’ बिकता है। हमें सिद्धान्तनिष्ठ, धर्मात्मा, निष्कलंक, निर्लोाी और सरल स्वभाव के स्वाध्यायशील किसी एक विद्वान को अपने आर्य समाज में प्रचार कार्य के लिए कम से कम 8-10 दिन के लिए सादर आमन्त्रित करना चाहिए। उससे पहले आर्य समाज के पदाधिकारी व श्रेष्ठ सभासद मिलकर प्रचार योजना इस ढंग से बनायें – प्रतिदिन प्रातःकाल सुविधानुसार किसी पदाधिकारी या श्रद्धालु आर्य के घर यज्ञ व पारिवारिक सत्संग रखें, जिसमें एक घण्टे तक व्यायायुक्त यज्ञ हो और एक घण्टा धर्म, ईश्वर, वेद आदि की विशेषताएँ लिये हुए परिवार समाज व राष्ट्र से जुड़े हुए कर्त्तव्यों के पालन की प्रेरणा परक प्रवचन होना चाहिए। जिसके परिवार में यज्ञ व सत्संग हो,वह अपने परिचितों व पड़ौसियों को प्रेमपूर्वक आमन्त्रित करे। घर मीठे चावल बनाये, स्विष्टकृत् आहुति व बलिवैश्वदेव की आहुतियाँ देकर प्रसाद रूप में सबको वही यज्ञ शेष प्रदान करे।

प्रातःकाल इतना करके दिन में किसी विद्यालय में कार्यक्रम रखने के लिए पहले से सबन्धित प्रधानाध्यापक आदि से मिलकर सुविधानुसार 40-50 मिनट का समय तय कर लें। आर्य समाज के एक या दो सज्जन आमन्त्रित विद्वान् को समानपूर्वक विद्यालय ले जाएंँ और विद्या व विद्यार्थियों से जुड़े हुए विषय पर सरल व रोचकााषा शैली में वेद व वैदिक साहित्य के प्रमाणपूर्वक प्रवचन करें। वेद व आर्य समाज के प्रति श्रद्धा बढ़ाने की भावना का ध्यान पारिवारिक यज्ञ-सत्संग में भी रखना चाहिए और विद्यालयों में भी। कार्यक्रम के अन्त में सबको निवेदन करें कि वे सायंकाल आर्य समाज में होनेवाली धर्मचर्चा सत्संग में पुण्य लाभ प्राप्त करने हेतु अवश्य पधारें। सुविधानुसार एक दिन में दो-तीन विद्यालयों में प्रवचन रख सकते हैं। हमारी आज की पीढ़ी बहुत तेज तर्रार है, उसके मन-मस्तिष्क में धर्म और ईश्वर को लेकर अनेक प्रश्न खड़े होते हैं। लेखक लड़के-लड़कियों के कॉलेजों के अनुभव के आधार पर कह सकता है कि युवक- युवतियाँ बड़े तीखे प्रश्न करते हैं। ऐसे में आर्य समाज के गौरव को ये स्वाध्यायशील व साधनाशील आर्य विद्वान् ही बचा सकते हैं। नई पीढ़ी को प्रश्नों व शंका समाधान की छूट दिये बिना हम नई पीढ़ी के मन-मस्तिष्क को धर्म, ईश्वर व आर्य समाज की ओर नहीं मोड़ सकते, इसलिए किसी विद्वान् को बुलाने से पहले इस बात का ध्यान अवश्य रखें और उन्हें इसकी सूचना भी अवश्य कर दें।

दिन में इतना कुछ करके रात्रि में सबकी सुविधा व अधिकतम लोगों के आगमन की सभावना को ध्यान में राते दो घण्टे का कार्यक्रम बनायें। दिन में अगर अधिक प्रश्न व शंकाएँ रखी गई हों तो उनके उत्तर रात्रिकाल के सत्संग में रखे जा सकते हैं या समाज के  सुधी जन कार्यक्रम बनाते समय कुछ उपयोगी व सामयिक विषय निश्चित कर सकते हैं। इस प्रकार एक दिन का यह कार्यक्रम है। ऐसे ही 8-10 दिन का कार्यक्रम बनाकर हम इसके अनुसार प्रचार-कार्य करके अपने समय, श्रम व संसाधनों का सटीक सदुपयोग करके बहुत लाभ प्राप्त कर सकते हैं। प्रसंगवश एक बहुत ही महत्त्पूर्ण तथ्य की ओर आर्य जनों का ध्यान आकर्षित करना बहुत आवश्यक है। प्रचार कार्य में प्रवचन और सत्संग से अधिक भूमिका साहित्य की होती है। प्रचार को प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक है कि हम ऋषि दयानन्द के लघु ग्रन्थों, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, पं. चमूपति, स्वामी दर्शनानन्दजी, स्वामी वेदानन्द जी जैसे सिद्धान्तनिष्ठ विद्वानों के साहित्य को बहुत बड़ी मात्रा प्रकाशित करा कर अल्प मूल्य में उपलध करायें। आर्य समाज को इस दिशा में भी गभीरता से सोचना पड़ेगा। पहली-दूसरी पीढ़ी के गभीर, सिद्धान्त जीवी वैदिक विद्वानों के साहित्य का उद्धार करना आज की बहुत बड़ी माँग है, ऐसा न हो कि कल बहुत देर हो जाए। वेद प्रचार को जीवन्त बनाने के लिए सत्साहित्य सिद्धान्तनिष्ठ प्रवचन-सत्संग ही एक मात्र उपाय है। हमारे सुधी पाठक इस पर गभीरता से विचार करके देखेंगे तो लगेगा कि बिना लबी-चौड़ी भागदौड़ के, बिना किसी ताम-झाम के, बिना किसी बड़े खर्चे के – एक सीमित आय वाले आर्य समाज भी इसका लाभ ले सकते हैं।

कुछ लोग यह कहते हैं कि आर्य समाज का सांगठनिक ढाँचा आज के समय के अनुकूल नहीं है। ऐसे लोग लोकतान्त्रिक पद्धति की न्यूनताएँ गिनाने लगते हैं, लेकिन वे महर्षि दयानन्द की वेद विद्या से प्राप्त दूरदृष्टि को समझ नहीं पाते। नियम-सिद्धान्त कितने ही उच्चस्तर के हों, अगर व्यक्ति निम्न स्तर के हैं तो अति महत्त्वपूर्ण तथ्यों की अनदेखी करके, साधारण या मनोनुकूल तथ्यों पर अधिक ध्यान केन्द्रित करके वे अच्छे-अच्छे नियम-सिद्धान्तों का दुरुपयोग कर डालते हैं। आर्य समाज के संगठन सबन्धी नियम-उपनियमों के साथाी हमारे कर्णधार लबे समय से यही करते चले आ रहे हैं।

– स्मृति भवन, जोधपुर, राजस्थान

मो. 07597894991

संस्कृत की शब्द -सपदा – आचार्य आनन्दप्रकाश

 

संस्कृत भाषा महत्त्वपूर्ण है, यह हम कहते हैं, परन्तु क्यों इसको बहुत कम लोग जानते हैं? जब आप इस लेख को पढ़ लेंगे, तब इसका साक्षात्कार हो जायेगा। विद्वान् लेखक वर्तमान में आर्ष-शोध-संस्थान अलियाबाद, शामीरपेट, जि. रंगारेड्डी (तेलंगाना) में अध्ययन-अध्यापन में संलग्न हैं।                                       – सपादक

संसार की सभी भाषाओं की जननी तथा संस्कृति और सयता की संवाहिका देववाणी संस्कृत-भाषा के अदुत और विलक्षण गुणों पर आज सारा संसार मुग्ध है। यहाँ उसकी केवल एक ही विशेषता का संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया जा रहा है। वह विशेषता है, उसके पदों की सुमहती सपदा और उनकी यौगिकता।

संस्कृतपदों को दृष्टव्य व अव्यय इन दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। दृष्टव्य / विकारी शदों के पुनः दो भेद हैं- नाम और आयात। नाम पद सुबन्त होते हैं तथा आयात/क्रि यापद तिङन्त।

अव्ययउपसर्ग, निपात, कुछ कृत्प्रत्ययान्त, कतिपय तद्धितप्रत्ययान्त तथा कतिपय समस्त पद अव्यय होते हैं। इन सभी का मूल है धातु।

धातु से तिङ्प्रत्यय के योग से क्रियापद तथा कृत्प्रत्यय के योग से नाम या प्रातिपदिक बनते हैँ, जिन्हें सामान्य भाषा में शब्द  कहते हैं। प्रातिपादिक से सुप् प्रत्ययों के योग से पद बनते हैं। इसी प्रकार तिङ्प्रत्ययान्त धातुज शदों को भी पद कहते हैं।

अथाह शब्द  भण्डार

एक-एक धातु से लाखों शब्द  बनते हैं। यह संस्कृत की अनुपम विशेषता है। उदाहरण के लिए भू धातु को ही लेते हैं, जो धातुपाठ का प्रथम धातु है। ‘भू’ का सामान्य अर्थ है-होना।

संस्कृत में दस लकार हैं- लट्, लिट्, लुट् लृट्, लेट्, लोट्, लङ्, लिङ, लुङ् , लृङ्। इनमें पञ्चम लकार ‘लेट्’ वेद में ही प्रयुक्त होता है। व्यवहार में प्रायः अप्रयुक्त है। लिङ् लकार के दो ोद हैं। एक- विध्यादिलिङ्, जिसे सामान्यतया विधिलिङ् बोलते हैं, दूसरा है- आशीर्लिङ्। इस प्रकार सामान्य व्यवहार में भी दस लकार आ जाते हैं।

प्रत्येक लकार में तीन पुरुष – प्रथम, मध्यम तथा उत्तम, और प्रत्येक पुरुष में तीन वचन होते हैं- एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन। फलतः एक लकार के न्यूनतम 9 पद रूप हो जाते हैं। कहीं-कहीं रूप-भेद से यह संया बढ़ भी जाती है।

इस प्रकार लट् लकार में भवति, भवतः, भवन्ति, भवसि,ावथः, भवथ, भवामि, भवावः, भवामः, – इत्यादि, शेष 9 लकारों में भी 9-9 रूप बनकर -9×10=90 पद होते हैं ।

यह संया कर्तृवाच्य परस्मैपद की है। यदि धातु आत्मनेपदी भी हो तो- व्यतिभवते, व्यतिभवेते, व्यतिभवन्ते इत्यादि 90 रूप और होंगे। इसी प्रकार कर्मवाच्य में भी 90 रूप होंगे।

‘चाहना’ अर्थ में धातु से ‘सन्’ प्रत्यय लगता है। होना चाहता है- बुाूषति। देश -विदेश की किसी भी भाषा में यह विशेषता नहीं है। ङ्खड्डठ्ठह्लह्य ह्लश द्दश, ङ्खड्डठ्ठह्लह्य ह्लश स्रश, ङ्खड्डठ्ठह्लह्य ह्लश ड्ढद्ग या जाना चाहता है, करना चाहता है, होना चाहता है- इत्यादि वाक्य बनते हैं। भिन्न रूप में प्रयोग सभव ही नहीं, परन्तु संस्कृत में दोनों तरह के प्रयोग सभव हैं- ‘गन्तुम् इच्छति’ भी ‘जिगमिषति’ भी। इसी प्रकार ‘कर्तुम् इच्छति’ – परस्मै. और आत्मनेपदों के 10 लकारों के ये 180 रूप बनते हैं। इसके भी कर्मवाच्य आदि में ‘बुभूष्यते’- इत्यादि 90-90 रूप बनते हैं।

बार-बार होना या ‘बहुत होना’ अर्थ में धातु से यङ् प्रत्यय होता है (धातोरेकाचो.)। यह उन एकाच धातुओं से होता है, जिनका आदि वर्ण हल/व्यञ्जन हो। यथा – भ् + ऊ = भू, प + अठ्=पठ्। इससे भी ‘बोभूयते’ इत्यादि 90 रूप बनते हैं।

इस यङ् का लुक् (=लोप) हो जाने पर ‘बोभवीति’ तथा ‘बोभोति’ जैसे एक वचन के दो रूपों के कारण 30+90=120 रूप बनते हैं। फिर इनकी कर्मवाच्य, भाववाच्य, कर्मकर्तृवाच्य आदि प्रक्रियाओं के भी दसों लकारों में रूप चलते हैं।

प्रेरणा अर्थ में धातु से णिच् – प्रत्यय होता है। ऐसे धातु को णिजन्त कहते हैं । इससे प्रेरणार्थक या णिजन्तरूप भावयति, भावयतः, भावयन्ति आदि परस्मैपद में तथा भावयते, भावयेते, भावयन्ते आदि आत्मनेपद में होते हैं। इस प्रकार 10 लकारों के ये रूप 90+90=180 हो जाते हैं।

सन्, यङ्, णिच् की प्रक्रियाओं में दो या तीनों प्रक्रियाओं के मिल जाने पर पुनः 90-90 रूप बनते जाते हैं। जैसे – पुनः पुनः भवितुमिच्छति = ‘बोभूयिषते’ इत्यादि। भावयितुमिच्छति= ‘विभावयिषति’ इत्यादि। पुनः पुनः भावयितुमिच्छति= ‘बोभूययिषति’।

वेद में व्यत्यय की बहुलता से प्रयुक्त लेट् लकार में और भी अधिक रूप होते हैं। यथा- भू धातु के लेट् लकार के केवल तिप् में- ‘‘भविषति, भाविषाति, भाविषद्, भाविषाद्, भाविषत्, भाविषात्, भविषति, भविषाति, भविषद् भविषाद् भविषत् भविषात् भवति, भवाति, भवद्, भवाद्, भवत्, भवात्’’-ये 18 रूप केवल भवेत् के तुल्य अर्थात् लिङ् के अर्थ में प्रथम पुरुष एकवचन के हैं। द्विवचन में 6 रूप, बहुवचन में 12, द्विवचन में 6, बहुवचन में 6 रूप और उत्तम पुरुष के एक वचन में 12 तथा द्विवचन और बहुवचन में भी 12-12 रूप बनते हैं। इस एक ही लकार में 16 रूप हैं।

अन्य लकारों के समान ‘लेट्’ में भी आत्मनेपद, भाववाच्य, कर्मवाच्य, कर्मकर्तृप्रक्रियाः सन्, यङ्, णिच् आदि प्रक्रियाओं में समान रूप से पद बन सकते हैं।

‘भू’ – धातु से इस प्रकार लेट् लकार सहित सभी 11 लकरों में हमारे हस्तलेख अमुद्रित ‘धातुप्रकाशः’ के अनुसार कुल तिङन्तरूप 6336 बनते हैं।

क्रिया पद के निष्पन्न रूप के साथ ‘तरप्, तमप्, कल्पप्, देश्य, देशीयर, अकच्, रूपप्’ – आदि कुछ तद्धित प्रत्यय विशिष्ट अर्थों में लगते हैं। तदनुसार ‘भवतितराम्, भवतितमाम्, भवतिकल्पम्, भवतिदेश्यम्, भवतिदेशीयम्,भवतकि, भवतिरूपम्’= भवति रूप बनते हैं, जो 6336×7= 44352 रूप बनते हैं, जो पूर्वरूपों के साथ मिलकर (44352+6336)= 50688 रूप हो जाते हैं।

उपसर्गों की विशेषता

उपसर्गों के योग से धात्वर्थ में कहीं वैशिष्ट्य आ जाता है, तो कहीं अर्थ बदलता है। जैसेः- ‘प्रभवः, पराभवः सावः, अनुभव, विभवः, आभव, अधिभवः, उदव, अभिभवः, प्रतिभवः, परिभवः’ इत्यादि । इसी प्रकार आहारः, विहारः, संहारः, प्रहार, समाहारः, प्रत्याहारः, उदाहारः इत्यादि रूप होते हैं।

20 उपसर्गों के योग से पूर्वोक्तरूप (50688×20)= 1013760 बनते हैं, जो उपसर्गरहितों से मिलकर (1013760+50688)= 1064448 रूप हो जाते हैं। ये दस लाख चौंसठ हजार चार सौ अड़तालीस रूप केवल ‘भू’ धातु के हैं। पाणिनीय धातुपाठ में इस प्रकार के धातु 2000 से अधिक हैं।

इनमें कुछ धातु अजादि (स्वरादि) हैं, जिनसे यङ् प्रत्यय न होने से यङन्त प्रक्रिया के रूप कम हो जाते हैं। इस प्रकार यदि औसतन प्रत्येक धातु से 10 लाख रूप मानें तो सब धातुओं के रूप मिलकर (1000000×2000)= 2,00,00,00,000 (दो अरब= दौ सौ करोड़) रूप हो जाते हैं।

उपर्युक्त संया पाणिनीय धातुपाठ की लगभग 2000 धातुओं से निष्पन्न रूपों की है। काशकृत्स्न-धातुपाठ के लगभग 800 (= आठ सौ) धातु ऐसे हैं, जो पाणिनीय धातुपाठ में नहीं हैं। कुछ सौत्र धातु अष्टाध्यायी में तथा कुछ जिनेन्द्र-व्याकरण आदि के धातुओं की संया दो सौ/200हो जाती है। इस प्रकार पाणिनीय धातुपाठ से अतिरिक्त 1000(= एक सहस्र) धातु हैं, जिनके पूर्वोक्त विधि से 1,00,00,00,000 (= एक अरब = एक सौ करोड़) रूप और बनेंगे तथा कुल मिलाकर 3,00,00,00,000 (= तीन अरब) धातुरूप होंगे।

कृत् – प्रत्यय

‘भू’ – धातु से कृत्प्रत्ययों के योग से बने प्रातिपदिकों / शदों को भी संक्षेप से देखेंः-

‘चाहिए’ या ‘के लिए’ अर्थ में ‘तव्य’ प्रत्यय लगता है। ‘भू + तव्य = भवितव्य’, (होना चाहिए, होने योग्य)। इसके तीनों लिङ्गों में सातों विाक्तियों में 21+21+21 = 63 रूप होते हैं।

सन् आदि प्रत्ययान्त भू-धातु से ‘तव्य’ प्रत्यय का योग होने पर ‘बुभूषितव्य, भावयितव्य, भावयिषितव्य, बोभूयितव्य’- आदि रूप बनेंगे।

प्रत्येक के तीनों लिङ्गों और सातों विभक्तियों में 63-63 रूप बनकर 63×4= 252 रूप तथा पूर्व के 63 रूप मिलकर 252+63= 315 रूप होंगे।

तव्य से अतिरिक्त अन्य 40 से अधिक कृत् प्रत्ययाी ‘भू’ धातु से लगते हैं, जिनसे पूर्ववत् (315×40=)12600 रूप बनते हैं। इनके समान पूर्वोक्त (2000+1000 =)3000 धातुओं से (12,500×3000=)3,75,00,000 रूप न्यूनतम बनेंगे। इन सबके साथ 20 उपसर्ग लगें तो (3,75,00,000×20=) 75,00,00,000 रूप और भी बन जायेंगे। पूर्वोक्त निरुपसर्गों के साथ मिलकर कुल कृदन्त रूप (75,00,00,000+ 3,75,00,000=) 78,75,00,000 (अठत्तर करोड़ पिचत्तर लाख) बनते हैं।

कृदन्त प्रातिपदिकों से तद्धित प्रत्ययों के योग से अर्थ विशेष में भिन्न प्रातिपदिक बना लिए जाते हैं। जैसे-ाूमि से सबन्धित अर्थ में ‘भौम’। यह विशेषण होने से तीनों लिङ्गों में हो सकता है। इसी प्रकार ‘प्रति भू’ से ‘प्रातिभाव्य’ (जमानत) ‘स्वयभू’ से ‘स्वायभुव’, ‘भूरि’ से ‘भौरिक’, ‘भवत्’ ‘भवदीय, भावत्क’। ‘भूत’ से ‘भौतिक’। विभव से ‘वैभव’। शभू से ‘शाभव’। ये सभी विशेषण होने के कारण तीनों लिङ्गों से सबद्ध हैं। भू धातु के योग से यथेष्ट शब्द  बन जाते हैं।

कुछ तद्धित प्रत्यय शदों को अव्यय भी बना देते हैं। जैसे- भव + तसिल् = भवतः (भव से); भव + त्रल् = भवत्र इत्यादि।

पारस्परिक समास से बने शदों की इयत्ता असाव है। अव्ययीभाव के पद एवं कुछ अन्य सामासिक पद अव्यय होते हैं।

जैसे :- अधिभूतम् (भूत या भूतों में)। अधिभवम् (जन्म में, संसार में, शिव में) इत्यादि।

यहाँ भू धातु से निष्पन्न अत्यन्त प्रसिद्ध पदों की गणना कराई गयी है। अन्य अप्रसिद्ध प्रत्यय या अतिशास्त्रीय प्रयोग छोड़ दिए हैं। इसी प्रकार अन्य धातुओं से भी बहुत से रूप बनते हैं। उनकी पूर्ण इयत्ता नहीं बतायी जा सकती।

नामधातु

अब तक हमने पाणिनीय धातुपाठ के धातुओं तथा अन्य धातुपाठों के लगभग 3000 धातुओं से निष्पन्न विािन्न रूपों के विस्तार का दिग्दर्शन कराया है। अब नाम धातुओं का विचार करते है।

नामधातु के रूप में प्रत्येक प्रातिपदिक एक धातु है तथा उससे फिर उसी प्रकार लाखों पदों का क्रम है-पुत्र से ‘पुत्रीयति, पुत्रायते’। ‘अश्व’ से ‘अश्वस्यति’ अश्वायते। ‘त्वद्’ से ‘त्वद्यति’ इत्यादि 10 लकारों एव 40 प्रक्रियाओं में रूप करोड़ों , अरबों की संया में हो जाते हैं। तुल्य- आचरण अर्थ में क्विप् प्रत्यय होने पर जिसका कि पूर्णतया लोप भी हो जाता है, प्रत्येक प्रातिपदिक उसी रूप में नामधातु बन जाता है। जैसे :- देवदत्त इव आचरति (देवदत्त + क्विप्) देवदत्त, (देवदत्त + शप् +तिप्)= ‘देवदत्तति’; ‘देवदत्ततः’; ‘देवदत्तन्ति’- इत्यादि सभी पुरुषों सभी वचनों, सभी दस लकारों, सभी 40 प्रक्रियाओं में तिङन्त एवं कृदन्त रूप अरबों, खरबों की संया में विशिष्ट अथरें में बनते चले जाते हैं।

नामधातुओं से बने शदों / पदों की गणना करना उसी प्रकार असाव है, जिस प्रकार अन्तरिक्ष के सभी तारों अथवा पृथिवी आदि ग्रहों पर स्थित सभी पदार्थों के परमाणुओं की गिनती / इयत्ता बताना। चिन्तन करते – करते पाणिनीय आदि व्याकरणों के आधार पर ब्रह्माण्ड में शब्द समूह / शब्द ब्रह्म वैसा ही व्यापक दीखता है, जैसे लोक-लोकान्तरों में सब ब्रह्माण्डों में ब्रह्म / परमेश्वर व्यापक है। शदों / पदों की एक-एक करके गणना करने के लिए यदि सब समुद्रों की स्याही बनाकर, सब वृक्षों की एक-एक टहनी को लेखनी बनाकर युगों-युगों तक लिखा जाय, तो भी उनकी गणना पूरी नहीं हो सकेगी।

जिस प्रकार विशिष्ट दूरबीनों की सहायता से वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड के सितारे गिनने का कुछ प्रयत्न करते हैं, उसी प्रकार वैयाकरण लोग पाणिनीय आदि व्याकरणों की सहायता से आवश्यक/अपेक्षित शदों की अर्थ सहित व्यवस्थित जानकारी करते कराते हैं।

शब्द कोष

संस्कृत का शब्द कोष भी संसार की सभी भाषाओं से विशालतम है। इसमें पृथिवी के लिए 25 शब्द  हैं, रात्रि के लिए 27, उषा के लिए 20, मेघ के लिए 35, वाणी के लिए 120, नदी के लिए 37, अपत्य/पुत्र के लिए 25, मनुष्य के लिए 30 शब्द  हैं। ये केवल उदाहरण मात्र हैं, परिगणन नहीं।

संसार की किसीाी भाषा में इतना विशाल शब्द संग्रह नहीं है। हरीतकी (=हरड़) के 35 नाम  है। उनमें से कुछ  ये हैंः- अभया, अव्यथा, पथ्या, श्रेयसी,शिवा, कायस्था, बल्या, पाचनी, जीवनिका, जीवनी, प्राणदा, अमृता- इत्यादि। इससे जान सकते हैं कि हरड़ से शरीर निरोग होता है, रोगभय दूर होता है, पाचनशक्ति बढ़ती है। स्त्री के – माता, जननी, महिला, योषा, पुरन्ध्री, पतिंवरा, वर्या, कुलवधू, कुलपालिका, जाया, दारा, वरारोहा, महिषी, ललना, कान्ता, पत्नी, सहधर्मिणी, भार्या, पाणिगृहीती- इत्यादि बहुत से नाम हैं, जिनसे स्त्रियों की विभिन्न स्थितियों का ज्ञान होता है।

अंग्रेजी आदि अन्य भाषाओं में यह विशेषता नहीं है। जैसेः- अंग्रेजी में मामा, चाचा, ताऊ, मौसा, फूफा के लिए एक ही शब्द  हैः अंकल। चाची, ताई, बुआ, मौसी, मामी के लिए-आण्टी शब्द  है। दादा और नाना के लिए एक ही सामान्य शब्द  है- ‘ग्राण्डफादर’, तथा दादी और नानी के लिए ‘ग्राण्डमदर’। ऐसी स्थिति में अंकल कहने से पता नहीं चलता कि इससे मामा, चाचा, आदि में से किसको बताया जा रहा है? एक बार बी.बी.सी. के समाचारों में मैंने सुना कि श्री राजीव गाँधी के दादा स्वतन्त्र भारत के पहले प्रधानमन्त्री बने। जब कि दादा के स्थान पर नाना कहना चाहिए था। इस त्रुटि का कारण था, दोनों के लिए प्रयुक्त ‘ग्राण्डफादर’ शब्द । अंग्रेजी में प्राप्त समाचार का अनुवाद ‘नाना’ के स्थान पर ‘दादा’ हो गया।

इतना विशाल शब्द  भण्डार होते हुएाी उसका शदार्थ समझने में विशेष कठिनाई नहीं होती, क्योंेिक संस्कृत के शदों के अर्थ उसके धात्वर्थ से उनके अन्दर ही विद्यमान होते हैं । उदारणार्थः- ‘सृष्टि, जगत् और संसार’- इन शदों से विश्व की यथार्थ सत्ता का बोध होता है। ‘सृज्’ धातु का अर्थ है- रचना, बनाना। इससे ‘क्तिन्’ -प्रत्यय लगाकर ‘सृष्टि’ शब्द  बनता है। इससे पता चलता है कि यह विश्व बनाया हुआ है, रचा गया है। फिर ‘गच्छति इति जगत्’ से ज्ञान होता है कि विश्वचलता है, गतिशील है। ‘सम्’ उपसर्ग सहित ‘सृ’ का अर्थ है-गति करना, चलना, बहना आदि। इससे ज्ञात होता है कि यह विश्व गतिशील है, चलता है और संसरणशील (परिवर्तनशील) है। इस प्रकार संसार- विषयक बहुत सी बातें इन तीन शदों से ही ज्ञात हो जाती है। अंग्रेजी के ङ्खशह्म्द्यस्र- इस शब्द  से विश्व का स्थिति विषयक कोई बोध नहीं होता। इसी प्रकार महिला (पूजनीया, समाननीया), पिता (रक्षक, पालक), माता (सन्तान से सर्वाधिक स्नेह / प्रीति करने वाली), पात्र (रक्षक, भोज्यसाधन), वस्त्र (आच्छादित करने वाला), लेखनी (लिखने का साधन) आदि शदों से उनके कार्यों / उपयोगों का ज्ञान जिस सरलता से हो जाता है, वैसा इनके अंग्रेजी शदों क्रमशः   ‘लेडी, फादर, मदर, पॉट, क्लॉथ, पैन’ से नहीं होता।

संस्कृत – व्याकरण की यौगिक – अर्थबोधकता के कारण ही हम वेदों तथा हजारों वर्ष पूर्व लिख गये शाखा- उपवेद- ब्राह्मण- आरण्यक- उपनिषद्- वेदाङ्ग- साहित्य- आयुर्वेद- विज्ञान- गणित- रामायण- महाभारत- गीता आदि ऋषि-मुनियों के बनाये हुए सभी ग्रन्थों को सुगमता से समझ सकते हैं, जबकि हमारी प्रान्तीय भाषाओं में लिखे 2-3सौ वर्ष पुराने ग्रन्थाी आज हमारे लिए दुरूह हो जाते हैं।

‘आङ्ग्ल-भाषा (अंगेजी)का इतिहास’ नामक ग्रन्थ में आङ्ग्ल – भाषा, यूरोपीय भाषाओं में समृद्ध भाषा के रूप में बतायी गयी है। उसमें कपेण्डियस- ऑक्सफोर्ड- डिक्सनरी के आधार पर जर्मन भाषा में 1,85,000; फ्रेंच भाषा में 1,00,000 और आङ्ग्ल- भाषा में 5,00,000+5,00,000 (सांकेतिक, वैज्ञानिक)= 10,00,000 शब्द  बताये गये हैं। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में अंग्रेजी शदों की संया 6,50,000 बतायी गयी है।

इससे आप संस्कृत – भाषा के महत्त्व एवं उसके भाव प्रकट करने के सामर्थ्य का अनुमान कर सकते हैं।

18वीं शतादी में जब इस संस्कृत भाषा का प्रवेश योरोप में हुआ, तो पाश्चात्य विद्वानों में नये उत्साह और हर्ष की लहर- सी दौड़ गयी तथा तुलनात्मक भाषा-विज्ञान एवं तुलनात्मक वेद-विज्ञान जैसे नये शास्त्रों की रचना होने लगी। मैक्समूलर, मैक्डोनेल्ड, गोल्ड़ुस्टुकर, विल्सन, कीथ, विंटरनिट्ज, रॉथ, ग्रासमान जैसे सैकड़ों विद्वानों ने अपने जीवन को उसके अयास और अनुसन्धान में लगा दिया। योरोप और अमेरिका के हर विश्वविद्यालय में तथा जापान, रूस आदि के विश्वविद्यालयों में संस्कृत – भाषा के अध्ययन और अनुसन्धान के लिए पीठों का निर्माण हुआ। वैदिक शोध और भाषा – विज्ञान विषयक महान् ग्रन्थों की रचना हुई । देववाणी संस्कृत में आकाशवाणी से वार्ता-प्रसारण भी सर्वप्रथम जर्मनी के कोलोन केन्द्र से प्रारभ हुआ, उसके वर्षों बाद हमने भारत में प्रारभ किया।

अमेरीका के ‘नासा’ नामक सैन्य अनुसन्धान केन्द्र और संगणक (कप्यूटर) के कुछ विशेषज्ञों ने संगणक पर मानवीय भाषा के जो प्रयोग किये हैं, उसमें संस्कृत सबसे उपयुक्त पायी गयी है। इन वैज्ञानिकों ने अपने 25 वर्ष के अनुसन्धान के पश्चात् दावा किया है कि संगणक की यान्त्रिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किसी भी अन्य भाषा की तुलना में संस्कृत की संरचना ही सबसे उपयुक्त है। ‘नासा’ के वैज्ञानिकों की यह उपलधि भारत के लिए बड़े गौरव और महत्त्व की बात है, परन्तु बड़े खेद का विषय है कि आज उस सुरभारती की जन्मस्थली भारतवर्ष में ही उसका ह्रास बड़ी तेजी से हो रहा है। तथाकथित त्रिभाषा -सूत्र के नाम पर आज उसको पाठ्यक्रम से निकाला जा रहा है। देश की सबसे बड़ी और अमूल्य धरोहर से ही देश की युवा पीढ़ी को वंचित कर दिया गया है ।

अन्त में हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह इस देश के कर्णधारों एवं जनता के हृदय में अपूर्व अनुराग एवं भक्तिभावना भरे, जिससे भारत पुनः विश्वगुरु का पद प्राप्त कर सके।।

वह ऐतिहासिक गीत : – प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु

‘‘सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं’’

श्री यतीन्द्र आर्य की उत्कट इच्छा से मैं कई मास से इस पूरे गीत की खोज में लगा रहा। जब कुँवर सुखलालजी पर विरोधियों ने प्राणघातक आक्रमण किया था, तब पता करने वालों के प्रश्न के उत्तर में इसका प्रथम पद्य बोला था। यह गीत कुँवर जी की रचना नहीं है- जैसा कि प्रायः हम सब समझे बैठे थे। यह किसी पंजाबी आर्य लिखित गीत है। इसके अन्त में ‘धरम’ शब्द  से लगता है कि यह लोकप्रिय पंजाबी आर्य गीतकार पं. धर्मवीर की रचना है। कुछ पंक्तियाँ छोड़कर इसे परोपकारी की भेंट किया जाता है। यह लेखराम जी के बलिदान के काल में रचा गया था।

– जिज्ञासु

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं।

झण्ड दुनिया में उनके गड़े हैं।।

एक लड़का हकीकत नामी,

सार जिसने धरम की थी जानी,

जग में अब तक है जिसकी निशानी,

सीस कटवाने को खुश खड़े हैं।

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं……………………

बादशाह ने कहा सब तुहारे,

राज दौलत खजाने हमारे

सुन हकीकत यह बोले विचारे,

हम तो इनसे किनारे खड़े हैं।

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं……………………

यह हकीकत को दौलत न भाई,

बल्कि आािर को है दुःखदायी

कारुँ जैसे ने प्रीत बढ़ाई,

आ नरक में वे आखिर पड़े हैं।

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं……………………

गुरु गोविन्द के थे दो प्यारे,

गये रणभूमि में वे भी मारे

और जो छोटे थे जो न्यारे,

जिन्दा दीवार में वे गड़े हैं।

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं…………………..

महर्षि दयानन्द प्यारे,

धरम कारण खा विष सिधारे

सुनके हिल जाते थे दिल हमारे,

ओ3म् जपते वे आगे बढ़े हैं।

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं………………….

लेखराम धरम का प्यारा,

जिसने धरम पर तन मन वारा

खाया जिस्म पर तेग कटारा,

उठ ‘‘धरम’’ तू याँ क्या करे है?

सीस जिनके धरम पर चढ़े हैं

झण्डे दुनिया में उनके गड़े हैं।।

पं. दीनदयाल जी को कहना पड़ाः- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

पं. दीनदयाल जी को कहना पड़ाः-

पं. दीनदयाल उपाध्याय एक त्यागी, तपस्वी व सरल नेता थे। उन जैसा राजनेता अब किसी दल में नहीं दिखता। वह जनसंघ के मन्त्री के रूप में जगन्नाथपुरी गये। वहाँ के मन्दिर में दर्शन करने पहुँचे तो पुजारियों ने चप्पे-चप्पे पर यहाँ पैसे चढ़ाओ, यहाँ भेंट धरो, इसका यह फल और बड़ा पुण्य मिलेगा आदि कहना शुरू किया। जब दीनदयाल जी से बाहर आने पर पत्रकारों ने मन्दिर की इस यात्रा व भव्यता के बारे में प्रश्न पूछे तो आपका उत्तर था, ‘‘जब मैं मन्दिर में प्रविष्ट हुआ तब पक्का सनातन धर्मी था, अब बाहर निकलने पर मैं कट्टर आर्यसमाजी हूँ।’’ उनका यह वक्तव्य तब पत्रों में छपा था, जिसे उनके नाम लेवा अब छिपा चुके हैं, पचा चुके हैं। हिन्दू समाज के महारोगों की औषधि केवल दीनदयाल जी की यह स्वस्थ सोच है। दुर्भाग्य से हिन्दू अपने रोगों को रोग ही नहीं मानता।