Category Archives: पाखण्ड खंडिनी

सच्ची रामायण की पोल खोल-५

*सच्ची रामायण की पोल खोल-५
अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
 कार्तिक अय्यर
   ।। ओ३म।।
धर्मप्रेमी सज्जनों! सादर नमस्ते । पिछले लेख में हमने पेरियार के पांच आक्षेपों का जवाब दिया। अब आगे:-
 *प्रश्न ५राम और सीता में कोई किसी प्रकार की कोई दैवी तथा स्वर्गीय शक्ति नहीं है।आगे लिखा है कि आर्यों(गौरांगों)ने स्वतंत्रता के बाद उनके नामों से देवता गढ़ लिये।तमिलनाडु की जनता को चाहिये कि तमिल नाडु के विचारों और सम्मान को दूषित करने वाली आर्यों की सभ्यता मिटा देने की शपथ लें*
समीक्षा:- श्रीराम चंद्र और सीता में दैवीय गुण न थे-यह कहना कोरा अज्ञान है।यदि रामायण के नायक में धीरोदत्त गुण न होते तो रामायण रची ही क्यों जाती?श्रीराम में कितने सारे दिव्य गुण थे तथा वे आप्तकाम थे।यदि पक्षपातरहित होकर रामायण पढ़ते तो ७० पृष्ठों की रंगाई-पुताई नहीं करते। ये देखिये,श्रीराम के दिव्य गुणों की झलकियां:-
 ” वे श्रीराम बुद्धि मान,नीतिज्ञ,मधुरभाषी,श्रीमान,शत्रुनाशक,ज्ञाननिष्ठ,पवित्र,जितेंद्रिय और समाधि लगाने वाले कहा गया है। (बालकांड सर्ग १ श्लोक ९-१२)
 उसी प्रकार मां सीता को भी पतिव्रता, आर्या आदि कहा गया है। सार यह है कि श्रीराम व मां सीता में दिव्य गुण थे।हां,यदि स्वर्गीय शक्ति और दैवी शक्ति का तात्पर्य आप असंभव चमत्कार आदि से ले रहे हैं तो वे दोनों में नहीं थे।
देखिये प्रबुद्ध पाठकजनों!मेरे प्यारे परंतु भोलेभाले मूलनिवासी भाइयों! पेरियार साहब आर्यों को विदेशी मानते हैं पर डॉ अंबेडकर शूद्र तक को आर्य व भारत की मूल सभ्यता मानते हैं (पढ़िये ‘शूद्र कौन थे?’-लेखक डॉ अंबेडकर) ।दोनों में से आप किस नेता की बात मानेंगे?
आर्यों ने खुद को देवता नहीं कहा बल्कि दिव्य गुण धारण करने वाले विद्वान देवता कहलाते हैं,फिर वे चाहे जिस किसी मत,देश,भाषा से संबंधित हो।
 तमिल जनता को गुमराह करने का आपका उद्देश्य कभी सफल नहीं होगा।आर्यसभ्यता सत्य,विद्या,धर्म की सभ्यता है।भारत की मूल संस्कृति है।न तो तमिल की सभ्यता अलग है न आर्यों की।दोनों एक ही है।*आर्य सभ्यता को मिटाने की शपथ लेना लेखक की विक्षिप्त मनोदशा बताता है।*लेखक विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता,जो “आत्मवत् सर्वभूतेषु ,मनुर्भव,” वसुधैव कुटुंबकम्” पर आधारित है,को मिटाना चाहता है।इसका कारण या तो लेखक का मिथ्याज्ञान है या फिर स्वार्थांधता और मानसिक दिवालियापन।
पाठकजन! आप समझ गये होंगे कि लेखक का इस पुस्तक को बनाने के पीछे केवल एक ही मंशा थी-*श्रीराम और रामायण पर आक्षेप लगाने के नाम पर आर्य-द्रविड़ की राजनीति खेलना तथा सत्य को छिपाकर गलत धारणाओं व मान्यताओं का प्रचार करना।अपनी स्वार्थांधता के कारण लोगों की धार्मिक भावनाओं पर प्रहार करना किसी विवेकवान,सत्यान्वेषी तथा विद्वान व्यक्ति का काम नहीं हो सकता।
निश्चित ही पेरियार साहब के आक्षेपों का द्वेषमुक्त तथा मर्यादित रूप से खंडन किया जायेगा ताकि पाठकजन असत्य को त्यागकर सत्य को जानें।
आगे के लेख में ‘कथास्रोत’ नामक लेख का खंडन-मंडन विषय होगा
नोट : यह लेखक का अपना विचार  है |  लेख में कुछ गलत होने पर इसका जिम्मेदार  पंडित लेखराम वैदिक  मिशन  या आर्य मंतव्य टीम  नहीं  होगा

*सच्ची रामायण की पोल खोल -४

*सच्ची रामायण की पोल खोल -४
अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
– कार्तिक अय्यर
ओ३म
 धर्मप्रेमी सज्जनों!पेरियार के आक्षेपों के खंडन की चौथी कड़ी में आपका स्वागत है। आपने पिछले लेखों को पढ़ा तथा शेयर किया।इसलिये में हृदय से आपका आभारी हूं।आशा है कि आगे की पोस्ट भी आपका इसी प्रकार समर्थन प्राप्त करेगी। पेरियार साहब की “भूमिका” के खंडन में :-
*प्रश्न-३ :-रामायण युद्ध में कोई भी उत्तर भारत का कोई भी निवासी ब्राह्मण (आर्य) या देवता नहीं मारा गया।एक शूद्र ने अपने जीवन का मूल्य इसलिये चुकाया था क्योंकि आर्यपुत्र बीमार होने के कारण मर गया था इत्यादि।वे लोग जो इस युद्ध में मारे गये वे आर्यों द्वारा राक्षस कहे जाने वाले लोग थे*
*समीक्षा:-* आपका यह कथन सर्वथा अयुक्त है।राम-रावण युद्ध में दोनों ओर के योद्धा मारे गये थे।वानर भी क्षत्रिय वनवासी ही थे, तथा आर्य ही थे,यह हम सिद्ध कर चुके हैं।यह सत्य है कि लक्ष्मण जी,जांबवान,हनुमान आदि वीर योद्धा नहीं मारे गये परंतु कई वानर सैनिक वीरगति को प्राप्त हुये।जब आर्य-राक्षस में युद्ध होगा तो दोनों ही पक्ष के सैनिक मारे जायेंगे या नहीं? राम-रावण युद्ध ” परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृतां” था। अर्थात् अधर्म पर धर्म की विजय का युद्ध था। धर्म-अधर्म के युद्ध में धर्म को जीतना ही था।
यहां फिर प्रांतवाद का खेल खेला। आर्य,देवता या ब्राह्मण केवल उत्तर भारत के ही नहीं होते बल्कि सर्वत्र हो सकते हैं, क्यों कि ये गुणवाचक संज्ञायें हैं कोई जातिगत नाम नहीं। यही नहीं, रावण तक को उसका पुत्र प्रहस्त “आर्य” कहकर संबोधित करता है। अतः पेरियार साहब की यह बात निर्मूल है।
रहा प्रश्न शंबूक वध का तो यह प्रक्षिप्त उत्तरकांड की कथा है । *हम डंके की चोट पर कहते हैं उत्तर कांड पूरा का पूरा प्रक्षिप्त है तथा महर्षि वाल्मीकि की रचना नहीं है।हम इस कथन को सिद्ध भी कर सकते हैं।*
” राक्षस कहे जाने वाले तमिलनाडु के मनुष्य थे”- यह सत्य नहीं है।लंका कहां और तमिल नाडु कहां? रावण की लंका सागर के उस पार थी और तमिल नाडु भारत का अंग है।तो तमिल वासी राक्षस कैसे हुये? राक्षस आतंककारी, समाज विघातक,दुष्टों को कहते हैं। रावण की लंका के वासी ऐसे ही कर्मों के पोषक होने से राक्षस ही थे। ISIS जैसे आतंकी संगछन,माओवादी,नक्सली सब मानवता विरोधी हत्यारे हैं।इनको मारना मानव मात्र का कर्तव्य है।तब श्रीराम का राक्षसों का संहार गलत क्यों?
स्पष्ट है कि लेखक आर्य-द्रविड़ की राजनीति खेलकर अपना मतलब साधना चाहते हैं। उनकी इसी विचारधारा को पेरियारभक्त आगे बढ़ा रहे हैं।
: *प्रश्न:-४ रावण राम की स्त्री सीता को हर ले गया- क्योंकि राम के द्वारा उसकी बहन सूर्पनखा के अंग-भंग किये गये व रूप बिगाड़ा गया। रावण के इस कृत्य के कारण पूरी लंका क्यों जलाई जाये? लंका निवासी क्यों मारे जायें?इस कथा उद्देश्य केवल दक्षिण की तरफ प्रस्थान करना है। तमिलनाडु में किसी सीमा तक सम्मान से इस कथा का विष-वमन अर्थात् प्रचार यहां के लोगों के लिये अत्यंत पीड़ोत्पादक है।*
*समीक्षा*:-
रावण सीता को हरकर ले गया,ये कदापि न्यायसंगत नहीं था।भला छल से किसी के पति और देवर को दूर करवाकर तथा कपटी संन्यासी का वेश धरकर एक अकेली पतिव्रता स्त्री का हरण करना कौन सी वीरता है? यदि रावण सचमुच इतना शूरवीर था तो राम-लक्ष्मण को हराकर सीताजी को क्यों नहीं ले गया?अंग-भंग किये लक्ष्मण जी ने श्रीराम के आदेश पर और बदला लिया एक पतिव्रता निर्दोष स्त्री से!
 और शूर्पणखा का अंग-भंग करना भी उचित था,क्योंकि एक तो कुरूप,भयावह,कर्कशा,अयोग्य होकर भी न केवल शूर्पणखा ने श्रीरामचंद्र पर डोरे डाले,प्रणय निवेदन किया,बल्कि माँ सीता पर जानलेवा हमला भी किया।ये दोनों कृत्य  दंडनीय अपराध हैं जिनका दंड शास्त्रों में प्रतिपादित है।इस विषय पर आगे विस्तार से लिखा जायेगा।परंतु शूर्पणखा और रावण के कृत्य कदापि न्यायसंगत नहीं कहे जा सकते।
 रहा प्रश्न लंका को जलाने का तो इस पर भी आगे प्रकाश डाला जायेगा।फिलहाल यह जानना चाहिये कि हनुमान जी ने अधर्मी राक्षसों को संतप्त करने के लिये लंका का ‘दुर्ग’ नष्ट किया था,पूरी लंका नहीं।उसी को अतिशयोक्ति में कह दिया गया कि पूरी लंका जल गई।इसे ऐसे जानिये,जैसे कह दिया जाता है कि ‘पूरा काश्मीर आतंकी हमलों से जल रहा है’ यहां कश्मीर का जलना आलंकारिक है।जलने का तात्पर्य आतंकित होना,त्रस्त होना इत्यादि है।देखिये:-
*वनं तावत्प्रमथितं प्रकृष्टा राक्षसा हताः।*
*बलैकदेशः क्षपितः शेषं दुर्गविनाशिनम्।।२।।*
*दुर्गे विनाशिते कर्म भवेत्सुखपरिश्रम।।* ( सुंदरकांड सर्ग ३५ )-स्वामी जगदीश्वरानंद टीका।
अर्थात्:-*(हनुमान जी विचारकर रहे हैं)’मैंने रावण के प्रमदावन=अशोकवाटिका का विध्वंस कर दिया।चुने हुये पराक्रमी राक्षसों को मार दिया।अब तो केवल दुर्ग का नाश करना शेष है।दुर्ग के नष्ट होते ही मेरा परिश्रम सार्थक हो जायेगा।
 “तमिलनाडु में इस कथा का प्रचार विष वमन,निंद्य तथा पीड़ोत्पादक है”-यह कहना दुबारा आर्य-द्रविड़ का खेल खेलना दर्शाता है।क्योंकि *रामायण धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य के संग्राम की कथा है*- रामायण का पढ़ना-पढ़ाना केवल असत्य,अधर्म के पक्षियों के लिये ही पीड़ोत्पादक हो सकता है नाकि आम जनता के लिये।आम जनता में रामायण के प्रचार-प्रसार से धर्य,नैतिकता,स्वाभिमान,राष्ट्रीयता आदि गुणों का ही प्रचार होगा।रामायण किसी देश विशेष की निंदा नहीं अपितु अधर्म का प्रतिकार सिखाती है।इस राजनीतिक हथकंडों द्वारा आप केवल अपने अंधभक्तों को फंसा सकते हैं,जनता-जनार्दन को नहीं।अस्तु।
पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये धन्यवाद ।कृपया पोस्ट को अधिक से अधिक शेयर करें ताकि श्रीराम तथा आर्य संस्कृति के बारे में फैले दुष्प्रचार का निराकरण हो। अगले लेख में भूमिका पर  अंतिम समीक्षा तथा ” कथास्रोत”नामक लेख का उत्तर दिया जायेगा। पेरियार साहब ने पुस्तक में दशरथ,राम,सीता आदि शीर्षक देकर आलोचना की है तथा ललई सिंह यादव,जिन्होंने हाईकोर्ट में सच्ची रामायण का केस लड़ा और दुर्भाग्य से जीता,ने “सच्ची रामायण की चाबी” नाम से पेरियार की पुस्तक का शब्द प्रमाण दिया है।ये दोनों पुस्तकें सच्ची रामायण तथा इसकी ‘चाबी’ हमारे पास पीडीएफ रूप में उपलब्ध है।हम दोनों का खंडन साथ ही में करेंगे।ईश्वर हमें इस काम को आगे बढ़ाने की शक्ति दे।
धन्यवाद
 मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र जी की की जय।।
योगेश्वर श्रीकृष्ण चंद्र जी की जय
नोट : यह लेखक का अपना विचार  है |  लेख में कुछ गलत होने पर इसका जिम्मेदार  पंडित लेखराम वैदिक  मिशन  या आर्य मंतव्य टीम  नहीं  होगा

*सच्ची रामायण की पोल खोल-3

*सच्ची रामायण की पोल खोल-३ अर्थात्*
*पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
-लेखक:- *कार्तिक अय्यर
*ओ३म*
धर्मप्रेमी सज्जनों! सादर नमस्ते । पिछले लेख में हमने पेरियार साहब द्वारा लिखी भूमिका का खंडन प्रारंभ किया था। इसी भूमिका में आगे *राम जी पर अनर्गल आरोप लगायें हैं साथ ही आर्य-द्रविड़ राजनीति का कार्ड भी खेला गया है।पाठकवृंद आगे की समीक्षायें पढ़कर आनंद उठाये तथा सत्य को जाने*
निवेदन:-पोस्ट को अधिकाधिक शेयर करें ताकि पेरियारभक्तों का मुखमर्दन तेजी से हो।
*प्रश्न २* पेरियार साहब भूमिका में आगे लिखते हैं *”राम तमिल सभ्यता का कण मात्र भी नहीं था।उसकी स्त्री सीता तमिलनाडु की विशेषताओं से रहित  उत्तरी भारत की निवासिनी थी।तमिल के मनुष्यों को बंदर और राक्षस कहकर उनका उपहास किया जाता है।वही उनकी स्त्रियों के प्रति भी।*
*समीक्षा* :-
१:-लेखक महोदय से पूछना चाहिये कि तमिल नाडु और तमिल नाडु की सभ्यता तथा आर्य संस्कृति में क्या अंतर है?स्पष्ट हो गया कि आपका पुस्तक बनाने का उद्देश्य तमिल-उत्तर भारत में फूट डालने के अलावा कुछ और विदित नहीं होता। पेरियार साहब को बताना चाहिये कि तमिल संस्कृति व सभ्यता की विशेषतायें क्या हैं और सीता राम में तमिल की किन विशेषताओं का अभाव था।
२:-तमिल के मनुष्यों को बंदर और राक्षस नहीं कहा गया। बल्कि वाल्मीकि रामायण में *वानर* शब्द है तथा दुष्टाचरण,पापी,समाज विघातक,आतंककारी आदि का करने वालों का नाम राक्षस,दस्यु,असुर है। वानर और राक्षस दोनों गुणवाचक नाम हैं नाकि जातिवाचक। हम क्रमशः दोनों शब्दों की मीमांसा करते हैं।
*(अ)* *वानर* :- *वने भवं वानरम्,राति गृहणाति ददाति वा।वानं वनं संबंधिनं,फलादिकं गृहणाति ददाति वा।* – जो वन में उत्पन्न होने वाले फलादि खाता है वह वानर है। वानर कोई विशेष जाति नहीं है अपितु वनवासी और वानुप्रस्थ वर्ग इस श्रेणी में आते हैं। इसलिये सुग्रीव,बालि,जामवंत,हनुमान आदि वानर मनुष्य ही थे पूंछवाले बंदर नहीं। और तारा,रुमा आदि भी मानव स्त्रियां थीं।वे ऋष्यमूक पर्व पर रहते थे ,वन में उगने वाले फलादिक खाते थे इसलिये “वानर” कहलाये नाकि पूंछवाले बंदर थे।उनकी पूंछ बंदर जैसी न थी बल्कि वो विलक्षण मानव ही थे। उनकी पूंछ एक यंत्र थी जो उछलने कूदने के काम आती थी। वाल्मीकि रामायण से कुछ प्रमाण हम लिखते हैं:-
*हनुमानजी को  वेदज्ञ तथा राजमंत्री कहा गया है। (  आध्यात्म रामायण किष्किंधाकांड १/१६,१८,३९)
*हनुमान जी व्याकरण के महापंडित थे ( वाल्मीकीय रामायण किष्किंधा-३/२६,२८,२९)
*सुग्रीव का सिंहासन पर बैठना व स्वयं को मनुष्य कहना ( किष्किंधा-२/२२ तथा ३३/६३)
*सोने के घड़े,चंवर आदि (किष्किंधा-२६/२३,३३-३६)
* अंगद का बाली को अग्नि देक अपना यज्ञोपवीत दाहिने कंधे पर रखना( किष्किंधा-२ ५/५) इससे सिद्ध है कि वानर मानव ही थे क्यों कि यज्ञोपवीत यज्ञ करने वाला धारण करता है। यज्ञेपवीत आर्य संस्कृति का चिह्न है अतः वानर क्षत्रिय आर्य थे ।
* बालि की पत्नी तारा को राज संचालन में निपुण कहा गया है। ( किष्किंधा-२ २/१३,१४) क्या कोई बंदरिया राज-संचालन कर सकती है? कदापि नहीं। अतः वानर मनुष्य ही थे जो वनों में रहा करते थे।
पेरियार साहब, यहां ऋष्यमूक पर्वतवासी वानरों को द्रविड़ या तमिलवासी कहकर आपकी दाल नहीं गलेगी। देखिये, जब बालि का वध हुआ तब बाली की भार्या तारा ने उसे *आर्यपुत्र* कहकर संबोधित किया था:- लीजिये प्रमाण-
*समीक्ष्य व्यथिता भूमौ संभ्रांता निपपात ह।*
*सुप्तेवै पुनरुत्थायलआर्यपुत्रेति क्रोशती।।* *(किष्किंधा-१९/२७)*
*अर्थात-् युद्ध में मरे अपने पति को देख विकल और उद्विग्न हो तारा भूमि पर गिर पड़ी।थोड़ी देर बाद सोती हुई के समान उठकर, “हा आर्यपुत्र!” कह और कालकवलित पति को देख रोने लगी।*
अब आपका क्या कहना है पेरियार साहब?यहां तथाकथित “वानर तमिलवासी” बालि को भी “आर्य पुत्र कहा गया है।इससे सिद्ध है कि आर्य एक गुणवाचक नाम है,किसी जातिविशेष का नहीं।जिस समाज में कोई भी श्रेष्ठ गुण वाला वेदानुसार सत्याचरण करने वाला व्यक्ति हो, वो आर्य है।
अब आर्य शब्द की मीमांसा करते हैं :-आर्य का अर्थ है श्रेष्ठ,बलवान,सद्गुणी आदि।
* ऋग्वेद १/१०३/३,१/१३०/८ में श्रेष्ठ व्यक्ति का वाचक आर्य है।
*ऋग्वेद ६/२२/१०- आर्य का प्रयोग बलवान के अर्थ में हुआ।
* ” कृण्वंतो विश्वमार्यम्” विश्व को आर्य बनाओ, यह वेद का आदेश है।
*निरुक्त ६/२६- अर्य ईश्वरपुत्रः। अर्य ईश्वरपुत्र होता है ।इसी से आर्य बना है।
अब डॉ अंबेडकर के भक्त नवबौद्ध भाइयों के लिये विशेष प्रमाण लिखते हैं, अवलोकनकरें:-
* डॉ अंबेडकर अपनी पुस्तक “शूद्र कौन थे” में  शूद्र तक को आर्य कहते हैं।
*धम्मपद अध्याय ६ वाक्य १९/६/४ ममें आया है कि जो आर्यों के मार्ग पर चले वो पंडित है।
*बौद्धग्रंथ “विवेक विलास” में आर्य शब्द आया है *बौधानाम सुगतो देवो च क्षभंगुमार्य सत्वाख्या यावरुव चतुष्यामिद कल्पना त*  अर्थ:- बुद्धवग्ग ने अपने उपदेशों मेॉ तार आर्य सत्य प्रकाशित किये। (अध्याय १४) *चत्वारि आरिय सच्चानि*।।
: *ब * राक्षस मीमांसा*:- राक्षस का प्रयोग विध्वंसकारी,आतंककारी,हत्यारे तथा दुष्ट प्रवृत्ति वालों के लिये किया जाता है। यह भी गुणवाचक नाम है।देखिये:-
*ऋग्वेद ७/१०४/२४- यहां यातुधान (प्रजाजनों को छुपकर मारने वाले)को राक्षस कहा है।*
*ऋग्वेद १०/८३/१९-यहां अनार्य को दस्यु कहा है।*
*ऋग्वेद १०/२२/८-अज्ञानी,अकर्म का , अमानवीय व्यवहार वाला व्यक्ति दास है।*
*निरुक्त ७/१३-कर्मों नाश करने वाला दस्यु है।*
*अष्टाध्यायी ५/१०-हिंसा करने वाले,गलत भाषण करने वाले दास,दस्यु,डाकू हैं।*
अतः पेरियार जी का दास,दस्यु ,असुर आदि शब्दों का द्रविड़ो,आदिनासियों,दलितों के लिये प्रयोग करना अयुक्त है । दस्यु ,दास,राक्षस आदि का प्रयोग अमानवीय, हिंसक,लुटेरों के लिये किया गया है।तब क्या आप आज के सभी द्रविड़ों(तमिल वासियों)को दस्यु आदि कहेंगे?परंतु रावण और लंका के वासी आतंककारी,विध्वंसकारी, हिंसक,मांसभक्षक,मद्यपि,ऋषि मुनियों के हत्यारे आदि होने के कारण राक्षस कहलाने के अधिकारी हैं। परंतु वर्तमान के के तमिललोग राक्षस नहीं कहे जा सकते क्योंकि उनमें उपर्युक्त गुण नहीं हैं।
*निष्कर्ष:- पेरियार साहब का पुस्तक लिखने का उद्देश्य उत्तर और दक्षिण भारत में फूट डालकर राजनीति करने का था,यह स्पष्ट हो गया। द्रविड़,आर्य,दस्यु,राक्षस वानर आदि नाम उछालकर जनता की आंखों में धूल झोंककर अपना मतलब साधना चाहा परंतु हमने इन शब्दों की गुणवाचक व्याख्या कर दी है।
पोस्ट को पूरा पढ़ने के लिये धन्यवाद । अगले लेख में खंडन कार्य आगे बढ़ाया जायेगा।

नोट : यह लेखक का अपना विचार  है |  लेख में कुछ गलत होने पर इसका जिम्मेदार  पंडित लेखराम वैदिक  मिशन  या आर्य मंतव्य टीम  नहीं  होगा |

*अथ पेरियार दर्प भंजनम्* सच्ची रामायण का जवाब -१ –

*अथ पेरियार दर्प भंजनम्*

सच्ची रामायण का जवाब -१
– कार्तिक अय्यर
नमस्ते मित्रों! पिछली पोस्ट में हमने प्रस्तावना तथा पेरियार रचित पुस्तक “सच्ची रामायण” का खंडन करने का उद्देश्य लिखा था। अब इस लेख में पेरियार जी के आक्षेपों का क्रमवार खंडन किया जाता है। परंतु इसके पहले *ग्रंथ प्रमाणाप्रमाण्य* विषय पर लिखते हैं।
 १: *वाल्मीकीय रामायण* – वाल्मीकि मुनिकृत रामायण श्रीरामचंद्र जी के जीवन इतिहास पर सबसे प्रामाणिक पुस्तक है। महर्षि वाल्मीकि राम जी के समकालीन थे अतः उनके द्वारा रचित रामायण ग्रंथ ही सबसे प्रामाणिक तथा आदिकाव्य कहलाने का अधिकारी है। अन्य रामायणें जैसे रामचरितमानस, चंपूरामायण, भुषुंडि रामायण, आध्यात्म रामायण,उत्तररामचरित ,खोतानी रामायण, मसीही रामायण, जैनों और बौद्धों के रामायण ग्रंथ जैसे पउमचरिउ आदि बहुत बाद में बने हैं । इनमें वाल्मीकि की मूल कथा के साथ कई नई कल्पनायें, असंभव बातें, इतिहास ,बुद्धि ,तथा वेदविरोधी  बातें समावेश की गई हैं। रामायण की मूल कथा में भी काफी हेर-फेर है। साथ ही स्वयं वाल्मीकि रामायण में भी काफी प्रक्षेप हुये हैं। अतः वाल्मीकि रामायण श्रीरामचंद्रादि के इतिहास के लिये परम प्रमाण है तथा इसमें मिलाये गये प्रक्षेप इतिहास,विज्ञान,बुद्धि तथा वेदविरुद्ध होने से अप्रमाण हैं ।अन्य रामायणें तब तक मानने योग्य हैं जब तक वाल्मीकि की मूल कथा से मेल खाये। अन्यथा उनका प्रमाण भी मानने योग्य नहीं।
२:- *महाभारत में वर्णित रामोपाख्यानपर्व* तथा *जैमिनीय अश्वमेध* :- महाभारत में रामोपाख्यान का वर्णन है तथा जैमिनीय अश्वमेध में भी ।  चूंकि महाभारत महर्षि वेदव्यास रचित है परंतु राम जी के काल का बना हुआ नहीं है और महाभारत में प्रक्षेप होने से पूर्णतः शुद्ध नहीं है, तथापि आर्षग्रंथ होने से इसका *अंशप्रमाण* मान्य होगा। यही बात जैमिनीय अश्वमेध पर भी लागू होती है।
३:- *उत्तरकांड* पूर्ण रूप से प्रक्षिप्त तथा नवीन रचना है। यह वाल्मीकि मुनि ने नहीं रचा है। क्योंकि युद्धकांड के अंत में ग्रंथ की फल-श्रुति होने से ग्रंथ का समापन घोषित करता है। यदि उत्तरकांड लिखी होता तो वाल्मीकि जी उत्तरकांड के अंत में फल श्रुति देते। इस कांड में वेद,बुद्धि,विज्ञान तथा राम जी के मूल चरित्र के विरुद्ध बातें जोड़ी गई हैं। साथ ही राम जी पर शंबूक वध,सीता त्याग,लक्ष्मण त्याग के झूठे आरोप,रावणादि की विचित्र उत्पत्ति,रामजी का मद्यपान आदि मिथ्या बातें रामजी तथा आर्य संस्कृति को बदनाम करने के लिये किसी दुष्ट ने बनाकर मिला दी हैं। अतः उत्तरकांड पूरा का पूरा प्रक्षिप्त होने से खारिज करने योग्य तथा अप्रामाणिक है। उत्तरकांड की
प्रक्षिप्त होने के विषय में विस्तृत लेख में आंतरिक तथा बाह्य साक्ष्यों सहित लेख दिया जायेगा। फिलहाल उत्तरकांड अप्रामाणिक है, ऐसा जान लेना चाहिये ।
४:- *वेद* – वेद परमेश्वर का निर्भ्रांत ज्ञान है। ऋक्,यजु,साम तथा अथर्ववेद धर्माधर्म निर्णय की कसौटी हैं। वेद तथा अन्य ग्रंथों में विरोध होने पर वेद का प्रमाण अंतिम कसौटी है। अतः रामायण की कोई बात यदि वेद सम्मत हो तो मान्य हैं, वेदविरुद्ध होने पर मान्य नहीं। यदि रामायण के किसी भी चरित्र के आचरण वेदसम्मत हों,तभी माननीय हैं अन्यथा नहीं।
५:- कोई भी पुस्तक चाहे मैथिलीशरण गुप्त रचित *साकेत* हो अथवा कामिल बुल्के रचित *रामकथा* , वे हमारे लिये अप्रमाण हैं। क्योंकि मैथिलीशरण जी, फादर कामिल बुल्के आदि सज्जन ऋषि-मुनि नहीं थे/हैं और न ही श्रीराम के समकालीन ही हैं जो उनका सच्चा खरा इतिहास लिख सके। अत: *आर्यसमाज के लिये यह सभी ग्रंथ अनार्ष होने से अप्रमाण हैं।इन ग्रंथों के प्रमाणों का उत्तरदायी आर्यसमाज या लेखक  नहीं है* ।
*निष्कर्ष*- *अतः यह परिणाम आता है कि ऐतिहासिक रूप में वाल्मीकि रामायण परमप्रमाण तथा धर्माधर्म के निर्णय में चारों वेद( ऋक्, यजु,साम तथा अथर्ववेद)परमप्रमाण हैं। अन्य आर्ष ग्रंथ जैसे महाभारतोक्त रामोपाख्यान आदि आर्ष व परतः प्रमाण हैं। मानवरचित ग्रंथ जैसे साकेत,कैकेयी,रामकथा,पउमचरिउ,उत्तरपुराण आदि ग्रंथ अप्रमाण हैं क्योंकि ये अनार्ष , नवीन तथा कल्पित हैं।*
जारी……….
अब पेरियार साहब के आक्षेपों का क्रमवार उत्तर लिखते हैं। *भूमिका* शीर्षक से लिखे लेख का उत्तर:-
*प्रश्र-1* – *रामायण किसी ऐतिहासिक कथा पर आधारित नहीं है। यह एक कल्पना तथा कथा है।……रावण लंका का राजा था।।  १।।* ( मूल लेख चित्र में देखा जा सकता है।हम केवल कुछ अंश उद्धृत करके खंडन लिख रहे हैं)
*समीक्षक:-* धन्य हो पेरियार साहब! यदि रामायण नामकी कोई घटना घटी ही नहीं थी तो आपने इस पुस्तक को लिखने का कष्ट क्यों किया?जब आपके पास निशाना ही नहीं है तो तीर किस पर चला रहे हैं।
उस घटना पर,जिसे आप सत्य नहीं मानते पर अनर्गल आक्षेप लगाकर जनसामान्य को दिग्भ्रमित करना किसी सत्यान्वेशी अथवा विद्वान का काम नहीं हो सकता। आपके अनुसार यदि श्रीराम, लक्ष्मण, सीता,हनुमान आदि महामानव यदि काल्पनिक थे तो परस्त्रीगामी,कामी,दुराचारी रावण महात्मा,सच्चा भक्त, सच्चा संत व आदर्श कैसे हो गया? जब पूरी रामायण ही काल्पनिक है तो फिर विवाद कैसा? या तो पूरी रामायण को सच्ची घटना मानिये अन्यथा रावण को पूर्वज मसीहा आदि लिखकर राजनीतिक रोटियां सेंकने का प्रयास न करें। यहां हम अंबेडकर साहब के अनुयायी मित्रों से यह पूछना चाहते हैं कि एक ओर वे रावण को अपना वीर पूर्वज मानकर उसको आदर्श मानते हैं, वहीं उनके दूसरे नेता पेरियार साहब पूरी रामायण को काल्पनिक कहकर रावण को भी काल्पनिक सिद्ध कर रहे हैं। अहो मूलनिवासी मित्रों! आपके दोनों नेताओं में से आप किसकी बात मानेंगे? यह फैसला हम आप पर छोड़ते हैं।
  आगे रामायण के ऐतिहासिक होने के प्रबल साक्ष्य दिये जायेंगे। किसी पेरियार भक्त में सामर्थ्य हो तो उचित तर्क-प्रमाण से रामायण को काल्पनिक सिद्ध करे।
   *प्रश्न*:- पेरियार जी ने रामायण को उपन्यास मानकर लेखनी चलाई। इसमें क्या आपत्ति है?
*उत्तर*:- यदि उपन्यास माना है तो रावण भी स्पाइडर मैन ,बैटमैन,सुपरमैन जैसे काल्पनिक पात्रों से बढ़कर कोई हैसियत नहीं रखता। तो आप लोग उसे अपना  आदर्श पूर्वज क्यों कहते हो? और एक उपन्यास के पात्रों पर लेखनी चलाकर लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना तथा आर्य-द्रविड़ राजनीति का मंतव्य साधना क्या धूर्तता की श्रेणी में नहीं आता? यदि उपन्यास मानते हो तो धर्म को घसीटकर दलित-आर्य का कार्ड खेलकर समाज में वैमनस्य क्यों फैलाया? अतः इस पुस्तक को लिखना न केवल अनुचित है, अपितु धूर्तता भी है।

 

नोट : यह लेखक का अपना विचार  है |  लेख में कुछ गलत होने पर इसका जिम्मेदार  पंडित लेखराम वैदिक  मिशन  या आर्य मंतव्य टीम  नहीं  होगा |

अथ पेरियार रचित *सच्ची रामायण* खंडनम्।

अथ पेरियार रचित *सच्ची रामायण* खंडनम्। – कार्तिक अय्यर

धर्मप्रेमी सज्जनों! मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम तथा योगेश्वर श्रीकृष्ण भारतीय संस्कृति के दो आधार स्तंभ हैं।केवल सनातनधर्म के लिये ही नहीं अपितु मानव मात्र के लिये श्रीराम और श्रीकृष्ण आदर्श हैं।किसी के लिये श्रीरामचंद्र जी साक्षात् ईश्वरावतार हैं तो किसी के लिये एक राष्ट्रपुरुष,आप्तपुरुष और मर्यादा पुरुषोत्तम हैं।परंतु इन दोनों श्रेणियों ने श्रीराम का गुण-कर्म-स्वभाव सर्वश्रेष्ठ तथा अनुकरणीय माना है। समय- समय पर भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात करने के लिये नास्तिक,वामपंथी अथवा विधर्मी विचारधारा वाले लोगों ने ” कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी”, “सीता का छिनाला”,” रंगीला कृष्ण ” जैसे घृणास्पद साहित्य की रचना की।इन पुस्तकोॉ का खंडन भी आर्यविद्वानों ने किया है।इसी परंपरा ( या कहें कुपरंपरा) में श्री पेरियार रामास्वामी नाइकर” की पुस्तक ” सच्ची रामायण ” है।मूलतः यह पुस्तक तमिल व आंग्लभाषा में लिखी गई थी। परंतु आर्यभाषा में भी यह उपलब्ध है। पेरियार महोदय ने उपरोक्त पुस्तक में श्रीराम,भगवती सीता,महाप्राज्ञ हनुमान् जी, वीरवर लक्ष्मण जी आदि आदर्श पात्रों( जो जीवंत व्यक्तित्व भी थे)पर अनर्गल आक्षेप तथा तथ्यों को तोड़- मरोड़कर आलोचना की है। पुस्तक क्या है, गालियों कापुलिंदा है। लेखक न तो रामजी को न ईश्वरावतार मानते हैं न ही कोई ऐतिहासिक व्यक्ति । लेखक ने श्रीराम को धूर्त,कपटी,लोभी,हत्यारा और जाने क्या-क्या लिखा है।वहीं रावण रो महान संत,वीर,ईश्वर का सच्चा पुत्र तथा वरदानी सिद्ध करने की भरसक प्रयास किया है। जहां भगवती,महासती,प्रातःस्मरणीया मां सीता को व्यभिचारिणी,कुलटा,कुरुपा,अंत्यज संतान होने के मनमानै आक्षेप लगाये हैं,वहीं शूर्पणखा को निर्दोष बताया है। पेरियार साहब की इस पुस्तक ने धर्म विरोधियों का बहुत उत्साह वर्धन किया है।आज सोशल मीडिया के युग में हमारे आदर्शों तथा महापुरुषों का अपमान करने का सुनियोजित षड्यंत्र चल रहा है। यह पुस्तक स्वयं वामपंथी,नास्तिक तथा स्वयं को महामहिम डॉ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का अनुयायी कहने वालों में खासी प्रचलित है।आजकल ऐसा दौर है कि भोगवाद में फंसे हिंदुओं(आर्यों) को अपने सद्ग्रंथों का ज्ञान नहीं होता। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं:- *कलिमल ग्रसे ग्रंथ सब,लुप्त हुये सदग्रंथ। दंभिन्ह निज मत कल्प करि,प्रगट किये बहु पंथ।।* ( मानस,उत्तरकांड दोहा ९७ क ) अर्थात् ” कलियुग में पापों ने सब धर्मों को ग्रस लिया।दंभियों ने अपनी बुद्धि कल्पना कर करके बहुत से पंथ प्रकट कर दिये।” इसी विडंबना के कारण *जब भोले भाले हिंदू के समक्ष जब इस घृणास्पद पुस्तक के अंश उद्धृत किये जाते हैं तो धर्मभीरू हिंदू का खून खौर उठता है।परंतु कई हिंदू भाई अपने धर्म,सत्यशास्त्रों का ज्ञान न होने के कारण ग्लानि ग्रस्त हो जाते हैं।उनका स्वाभिमान घट जाता है, अपने आदर्शों पर से उनका विश्वास उठ जाता है। फलस्वरूप वे नास्तिक हो जाते हैं या मतांतरण करके ईसाई ,बौद्ध या मुसलमान बन जाते हैं।* “सच्ची रामायण” का आजतक किसी विद्वान ने सटीक मुकम्मल जवाब दिया हो, ऐसा हमारे संज्ञान में नहीं है।अतः हमने इस पुस्तक को जवाब के रूप में लिखने का कार्य आरंभ किया है। *इस पुस्तक को लिखने का उद्देश्य* १:- पेरियार साहब की पुस्तक जो श्रीराम जी के निष्पाप चरित्र रर लांछन लगाती है का समुचित उत्तर देना। २:-आम हिंदू आर्यजन को ग्लानि से बचाकर अपने धर्म संस्कृति तथा राष्ट्र के प्रति गौरवान्वित कराना। ३:-श्रीराम के दुष्प्रचार,रावण को अपना महान पूर्वज बताते,तथा आर्य द्रविड़ के नाम पर राजनैतिक स्वार्थपरता, छद्मदलितोद्धार तथा अराष्ट्रीय कृत्य का पर्दाफाश करना। ४:- मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र जी के पावन,निर्मल,आदर्श चरित्र को मानव मात्र के लिये श्लाघनीय तथा अनुकरणीय सिद्धकरना। *ओ३म विश्वानिदेव सवितर्दुरितानी परासुव यद्भद्रं तन्न आसुव।* यजुर्वेद:-३०/३ *अर्थात् ” हे सकल जगत् के उत्पत्ति कर्ता,शुद्धस्वरूप,समग्र ऐश्वर्य को देने हारे परमेश्वर!आप ह मारे सभी दुर्गुणों,दुर्व्यसनों और दुःखो को दूर कीजिये।जो कल्याणकारक गुण-कर्म-स्वभाव तथा पदार्थ हैं वे हमें प्राप्त कराइये ताकि हम वितंडावादी,असत्यवादी,ना स्तिक पेरियारवादियों के आक्षेपों का खंडन करके भगवान श्री रामचंद्र का निर्मल यश गानकर वैदिक धर्म की विजय पताका फहरावें।* ।।ओ३म शांतिः शांतिः शांतिः।। ( पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये धन्यवाद । खंडन कार्य अगली पोस्ट से प्रारंभ होगा। पुस्तक लेखन का कार्य चल रहा है। कृपया खंडन पुस्तक का नाम भी सुझावें। पोस्ट जितना अधिक हो प्रचार करें ताकि नास्तिक छद्मता का पर्दाफाश हो।) मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम चंद्र की जय। योगेश्वर श्रीकृष्ण चंद् की जय |

नोट : यह लेखक का अपना विचार  है |  लेख में कुछ गलत होने पर इसका जिम्मेदार  पंडित लेखराम वैदिक  मिशन  या आर्य मंतव्य टीम  नहीं  होगा |

जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं

जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं

 

 

  • जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं

    एक न्यूज रिपोर्ट के मुताबिक, कुछ मुस्लिम महिलाएं तलाक के बाद अपनी शादी बचाने के लिए मोटी रकम देकर ‘हलाला’ विवाह करती हैं. कुछ मुस्लिमों के द्वारा माने जाने वाले ‘हलाला’ परंपरा में तलाक के बाद महिला अगर पहले पति के पास जाना चाहती है तो उसे किसी दूसरे पुरुष से शादी करनी पड़ती है और फिर उसे तलाक देना होता है.

  • जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं

     

    बीबीसी लंदन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, डिजिटल एज में हलाला सर्विस देने के नाम पर कई ऑनलाइन एकाउंट चल रहे हैं. किसी अजनबी के साथ हलाला विवाह करने के लिए महिलाएं से सर्विस एजेंसी पैसे मांगती है और उस शख्स के साथ उसे सोना भी पड़ता है.

  • जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं

    हालांकि, काफी मुस्लिम हलाला को गलत मानते हैं. लंदन के इस्लामिक शरिया काउंसिल भी इस परंपरा का कड़ा विरोध करती है.

  • जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं

    हालांकि, काफी मुस्लिम हलाला को गलत मानते हैं. लंदन के इस्लामिक शरिया काउंसिल भी इस परंपरा का कड़ा विरोध करती है.

  • जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं
     

    रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि ऑनलाइन एजेंसी सर्विस देने के लिए महिलाओं से 2 लाख रुपए तक चार्ज करते हैं. ऐसी ही एक सर्विस देने वाले शख्स ने यह भी बताया कि एक बार हलाला होने के बाद एक पुरुष महिला को तलाक देने से इनकार करने लगा.

  • जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं

    कई बार हलाला के तहत महिलाओं को कई मर्दों के साथ भी सोना पड़ता है. उनका यौन शोषण भी होता है.

  • जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं

    लंदन के इस्लामिक शरिया काउंसिल की खोला हसन कहती हैं कि हलाला पाखंड है. यह सिर्फ पैसा बनाने के लिए किया जाता है.

  • जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं

    खोला हसन यह भी कहती हैं कि महिलाओं को इससे बचाने के लिए काउंसिलिंग मुहैया कराई जानी चाहिए.

    source:http://aajtak.intoday.in/gallery/muslim-women-sleep-stranger-save-marriage-4-11853.html

जात-पाँत तोड़क मण्डल का आर्यसमाज से आत्मीय सम्बन्ध: डॉ. कुशलदेव शाश्त्री

शायद बहुत ही कम लोगों को यह मालूम हो कि आर्यसमाज के जो प्रमुख कार्यकत्र्ता थे, वे जातपाँत तोड़क मण्डल के भी कार्यकत्र्ता थे। वैधानिक दृष्टि से हमारे कुछेक मित्रों का यह कथन ठीक है कि जात-पाँत तोड़क मण्डल एक स्वतन्त्र संस्था है और उसका आर्यसमाज से कोई सम्बन्ध नहीं है। पर गहराई से देखा जाए तो जात-पाँत तोड़क मण्डल और आर्यसमाज का अविभाज्य सा आत्मीय सम्बन्ध था। इस मण्डल के अधिकांश सभासद वैदिक मतावलम्बी थे।

मण्डल के संस्थापक सन्तराम बी0 ए0 (1887-1988) स्वामी दयानन्द की लकीर के फकीर या पूर्णतः दयानन्द के अनुयायी न भी हों, पर दयानन्द के व्यक्तित्व और कृतित्त्व के ˗प्रति वे नतमस्तक थे। सन् 1971-72 में मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में संतराम बी0 ए0 लिखित स्वामी दयानन्द नामक एक प्रदीर्घ चरित्र लेख पढ़ाया जाता था। संतराम बी0 ए0 के लिए अपने ’मण्डल के बाद सबसे निकटतम और आत्मीय अगर कोई संस्था थी, तो वह आर्यसमाज थी।‘

श्री संतराम बी0 ए0 की ओर से डॉ0 अम्बेडकर के साथ जो 27.3.1937 को पत्र व्यवहार हुआ, उसमें डॉ0 अम्बेडकर के अध्यक्षीय भाषण पर तीव्र असन्तोष करने वाले जो चार या पाँच व्यक्तियों के नाम दिये गये हैं, उनमें क्रमशः प्रथम तीन व्यक्ति तो मेरी जानकारी के अनुसार सुप्रसिद्ध अखिल भारतीय आर्यसमाजी नेता हैं। जिनके नाम हैं-भाई परमानन्द (1876-1947), महात्मा हंसराज (1864-1938) और डॉ0 गोकुलचन्द नारंग एम0 ए0, पी0 एच0 डी0, डी0 लिट् (1878-1969)।

भाई परमानन्द बचपन में ही आर्यसमाजी बन गये थे, लाहौर के दयानन्द हाईस्कूल व कॉलेज के वे स्नातक थे। दयानन्द कॉलेज लाहौर में आप प्राध्यापक भी रहे और दयानन्द एँग्लो वैदिक (डी0 ए0 वी0) शिक्षण संस्था के आदेश पर आप प्रचारक के रूप में विदेश गये और आर्यसमाज का प्रचार-प्रसार किया ये वे ही भाई परमानन्द हैं, जिन्हें आजन्म काले पानी की सजा हुई थी। जो सरदार भगत सिंह के दादापिता के आत्मीय सखास्नेही थे, तथा लाहौर के राष्ट्रीय महाविद्यालय में सुखदेवभगतसिंह आदि क्रान्तिकारियों के प्राध्यापक थे।

दूसरा नाम है महात्मा हंसराज का, जो दयानन्द कॉलेज (डी0 ए0 वी0) लाहौर के प्राचार्य थे और जिन्होंने किसी प्रकार का पारिश्रमिक न लेते हुए 26 वर्ष (1886-1912) तक उक्त शिक्षण संस्था की सेवा की थी और जीवन के 26 वर्ष आर्यसमाजी आन्दोलन के लिए समर्पित किये थे।

तीसरे महानुभाव डॉ0 गोकुलचन्द नारंग भी भाई परमानन्द के शिष्य और डी0 ए0 वी0 शिक्षण संस्था के विद्यार्थी थे। आप स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा स्थापित ’भारतीय शुद्धि सभा‘ (1923) की कार्यकारिणी के सभासद थे। पं0 इन्द्र विद्यावाचस्पति लिखित ’आर्यसमाज का इतिहास‘ का आपने प्राक्कथन लिखा है। इन्द्रजी ने इन्हें

आर्यजाति का ज्ञानवृद्ध-वयोवृद्ध नेता कहा है। आप डी0 ए0 वी0 कॉलेज लाहौर और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में भी प्राध्यापक रहे।

20 फरवरी 1925 में मुम्बई के डॉ0 कल्याणदास देसाई की अध्यक्षता में जातपाँत तोड़क मण्डल का जो वार्षिक अधिवेशन हुआ था। उस अधिवेशन को सम्बोधित करने वाले अधिकांश व्यक्ति आर्यसमाजी ही थे। जिनमें स्वामी श्रद्धानन्द, पं0 घासीराम (1873-1934), स्वामी मुनीश्वरानन्द, स्वामी सत्यदेव आदि उल्लेखनीय हैं। इस अधिवेशन में जो प्रस्ताव पास हुआ था, उससे भी इस मण्डल पर आर्यसमाज की छाप या प्रभुत्व की बात स्पष्ट होती है, प्रस्ताव निम्न प्रकार है

”इस मण्डल की सम्मति में आजकल जो वर्ण-व्यवस्था प्रचलित है, वह बुरी है, इसलिए आवश्यक है कि खान-पान और विवाह विषयक बन्धनों को उठा दिया जाए, इसलिए यह मण्डल प्रत्येक आर्य युवक-युवती को प्रेरणा देता है कि विवाह आदि के कार्यों में जो मौजूदा बन्धन है, उन्हें जान-बूझकर तोड़ें और जात-पाँत के बाहर विवाह करें।“

 

आर्यसमाज और जात-पाँत तोड़क मण्डल के आपसी सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए डॉ0 सत्यकेतु विद्यालंकार लिखते हैं-’बीसवीं सदी के प्रथम चरण (सन् 1921) में लाहौर में जात-पाँत तोड़क मण्डल की स्थापना हुई, जिसके ˗प्रमुख नेता सन्तराम बी0 ए0 थे। यद्यपि यह मण्डल आर्यसमाज के संगठन के अन्तर्गत नहीं था, पर इसका संचालन आर्यसमाजियों द्वारा ही किया जा रहा था। यह मण्डल जातपाँत तोड़कर विवाह सम्बन्ध स्थापित करने के लिए आन्दोलन करता था।

स्पष्ट है कि आर्यसमाज और जात-पाँत तोड़क मण्डल वैधानिक दृष्टि से दो स्वतन्त्र संस्थाएँ होते हुए भी विचारधारा की दृष्टि से जात-पाँत तोड़क मण्डल आर्यसमाज का ही पर्यायवाची या एक पोषक भाग था। आर्यसमाज ने अपने प्रारम्भिक काल से ही जातिनिर्मूलन और दलितोद्धार में विशेष दिलचस्पी ली थी। डॉ0 अम्बेडकर भी अपने ढंग विशेष से इन अभियानों में विशेष अभिरुचि रखते थे। इन कार्यक्रमों के सन्दर्भ में विचार साम्य होने के कारण ही जात-पाँत तोड़क मण्डल के माध्यम से श्री संतराम जी बी0 ए0 ने डॉ0 अम्बेडकरजी को ’मण्डल‘ के वार्षिक अधिवेशन (1936) की अध्यक्षता के लिए आमन्त्रित किया था। लेकिन ने जाने वे कौन से कारण रहे कि तत्कालीन कतिपय आर्यसमाजी डॉ0 अम्बेडकरजी के विचारों को यथावत् सुनने की सहनशीलता का भी परिचय नहीं दे सके। काश यदि वे डॉ0 अम्बेडकरजी के विचारों को धीरज से सुन लेते। मतभेदों के बावजूद अपनी आग्रही भूमिका को एक ओर रखकर उदारमतवादियों के लिए खुलकर चर्चा करने का वातावरण बनाना जरूरी होता है, पर तत्कालीन आर्यसमाजी उस प्रकार की खुली चर्चा का वातावरण बनाने में असमर्थ रहे। यदि वे समर्थ होते तो, आज उन्हें कमसेकम इस बात का तो श्रेय मिलता कि डॉ0 अम्बेडकरजी को अपने अधिवेशन की अध्यक्षता करने का पहला अवसर सर्वप्रथम उन्होंने ही दिया था। अब तो इतिहास में आर्यसमाज केवल एक अयशस्वी निमन्त्रक या संयोजक बनकर रह गया है। इतिहासकार इतना ही कह सकेगा कि डॉ0 अम्बेडकरजी को अपने वार्षिक अधिवेशन की अध्यक्षता करने का एकमात्र निमन्त्रण यदि किसी ने दिया था तो वह आर्यसमाजियों ने, पर वह भी मूर्तरूप धारण न कर सका, अयशस्वी रहा। डॉ0 अम्बेडकरजी के शब्दों में-”मेरा विश्वास है-यह पहला अवसर है जबकि स्वागत समिति ने अध्यक्ष की नियुक्ति को समाप्त कर दिया, क्योंकि वह अध्यक्ष के विचारों को स्वीकार नहीं करती थी।“

चर्चित अध्यक्षीय भाषण में डॉ0 अम्बेडकरजी ने शास्त्रों के साथ वेद की भी आलोचना की थी, जो तत्कालीन वेद प्रामाण्यवादी आर्यसमाजियों को सहन नहीं हुई। सम्भवतः इसीलिए आर्यसमाज बच्छोवाली लाहौर के पूर्व प्रधान श्री हरभगवान् ने अपने 14 अप्रैल, 1937 के पत्र में डॉ0 अम्बेडकरजी को लिखा था कि-”हममें से कुछ हैं, जो चाहते हैं कि अधिवेशन बगैर किसी अप्रिय घटना के साथ सम्पन्न हो, इसलिए वे चाहते हैं कि-कम-से-कम वेद शब्द इस समय के लिए छोड़ दिया जाए।“ स्मरण रहे इस अध्यक्षीय भाषण में डॉ0 अम्बेडकरजी ने अपने भावी धर्मांतरण का संकेत देते हुए यह घोषणा कर दी थी कि ’हिन्दू के रूप में मेरा यह अन्तिम भाषण होगा।‘ वेद की तथाकथित आलोचना और भविष्य में धर्मांतरण का संकेत, ये दोनों ही तथ्य ऐसे थे कि जिन्हें सहजता से सहन कर पाना आर्यसमाज के लिए असम्भव था। दोनों पक्ष अपने-अपने स्थान पर अडिग रहे। डॉ0 अम्बेडकर अपने विचारों पर दृढ़ थे और किसी प्रकार के समझौते के लिए तैयार न थे और उन्होंने बिना लाग लपेट के स्पष्ट कर दिया था-“मैं अल्पविराम तक परिवर्तित करने के लिए तैयार नहीं हूँ, मैं अपने भाषण पर किसी प्रकार के सेंसर की अनुमति नहीं दूँगा।” इसके अतिरिक्त जात-पाँत तोड़क मण्डल के प्रतिनिधि को उन्होंने यह भी लिखा था कि-”यदि आप में से कोई भी थोड़ा संकेत करता कि आप मुझे अध्यक्ष चुनकर जो सम्मान दे रहे हैं। उसके बदले मुझे धर्मांतरण (हिन्दू से बौद्ध) के कार्यक्रम में अपने विश्वास का परित्याग करना होगा, तो मैं आपसे स्पष्ट शब्दों में कह देता कि मैं आपसे मिलनेवाले सम्मान से अधिक अपने विश्वास की परवाह करता हूँ।“

कर्मफल और मुक्ति का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब संक्षेप से कर्मफलों का विचार किया जाता है। धर्म वा अधर्म का संचय कराने वाले शास्त्रों में कर्त्तव्य बुद्धि से विधान किये वा छोड़ने के लिये निषिद्ध किये शुभ-अशुभ अच्छे-बुरे दो प्रकार के कर्म हैं। उनके फल भी वैसे ही शुभ-अशुभरूप होते हैं। वे कर्म मन, वाणी और शरीर में उत्पन्न होने से तीन प्रकार के हैं। मानस कर्मों का फल मन से, वाचिकों का वाणी से और शरीर से होने वाले कर्मों का फल शरीर से ही इस जन्म में वा जन्मान्तर में मनुष्य भोगता है। इन्द्रियादि साधन और भोग के आधार शरीर के साथ रहने पर ही जीवात्मा का कर्त्ता-भोक्ता होना विद्वान् लोग स्वीकार करते हैं और इसी से केवल आत्मा के भोक्ता होने का निषेध भी करते हैं। वात्स्यायन ऋषि ने न्यायभाष्य में लिखा है कि- ‘शरीररहित आत्मा को कुछ भोग नहीं होता’१ और केवल शरीरादि भी सुख-दुःखादि के   साधन नहीं हो सकते अर्थात् इन्द्रिय और शरीर के द्वारा मनुष्य को सुख-दुःख का भोग प्राप्त होता है। जब धर्म का अधिक सेवन करता है तो सर्वोत्तम स्वर्गनामक सुख को प्राप्त होता और अधर्म के अधिक सेवन से नरकनामक विशेष दुःख पाता है। कर्मों से ही प्राणियों के शरीरों में प्रधान सत्त्वादि गुण और उनके अवयवरूप अवान्तर भेद प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं। इसीलिये मनु ने बारहवें अध्याय में कहा है कि- ‘ज्ञानरूप सत्त्वगुण अज्ञानस्वरूप तमोगुण और रागद्वेषरूप रजोगुण माना है। अर्थात् इस शरीर में कर्मभेद से न्यूनाधिकभाव को प्राप्त हुए सत्त्वादिगुण व्याप्त रहते हैं।’२ कर्म के भेद से ही ऊंच-नीच अधिकारों और ऊंच-नीच योनियों में लिग्शरीर के सहित जीवात्मा प्रतिक्षण भ्रमते रहते हैं। इसीलिये मनु ने बारहवें अध्याय में कहा है कि- ‘इस जीवात्मा की अपने कर्म से ही अनेक प्रकार की दशा संसार में देख तथा धर्म और अधर्म के मेल को छोड़कर केवल धर्म में मन को धारण करे।’३ जिन-जिन शुभ वा अशुभ कर्मों का सेवन मनुष्य वर्त्तमान जन्म में करता है, उन कर्मों का यदि उसी शरीर में फलभोग नहीं होता तो उसको जाति कि कैसे कुल में जन्म होना, अवस्था कितनी और कैसा भोग हो यह तीन प्रकार का फल जन्मान्तर में होता है। इन्हीं फलरूप जाति आदि का विशेष विस्तार मनु आदि महर्षियों ने अपने अनुभव से किया है कि ऐसा-ऐसा कर्म करने से जन्मान्तर में अमुक-अमुक जाति वा योनि में जन्म होता है। सो यह बुद्धि के पार पहुंचे ज्ञान से देखने वाले लोकोत्तर पण्डित लोगों को वर्त्तमान प्रत्यक्ष शरीरों में किन्हीं लक्षण वा चिह्नों को देखकर भूतपूर्व उनके कारणों का यथार्थ अनुमान कर लेना कुछ आश्चर्य नहीं है कि- यह जीवात्मा इससे पूर्वजन्म में अमुक योनि वा जाति में रहकर अमुक कर्म करता रहा उस कर्म का यह जाति आदि रूप इस समय फल प्राप्त हुआ है। ऐसे परोक्ष विषयों का ठीक-ठीक अनुभव योगी लोग ही कर सकते हैं। कोई सन्ध्या वा पढ़ाने आदि ब्राह्मणादि के नित्य कर्म हैं और कोई गर्भाधानादि नैमित्तिक हैं। भोजन से नित्य क्षुधा की निवृत्ति के समान नित्यकर्म का फल भी नित्य-नित्य ही प्राप्त होता जाता है और नैमित्तिक गर्भाधानादि कर्मों का पुत्रोत्पत्ति आदि नैमित्तिक ही फल होता है। उत्तम, मध्यम, निकृष्ट इन तीन प्रकार के कर्मों का फल भी वैसा ही त्रिविध होता है। उत्तम कोटि के कर्मों का फल स्वर्गनामक, निकृष्ट का नरक और मध्यम का सुख-दुःख मिला हुआ रजोगुणसम्बन्धी फल होता है। तमोगुण में पड़ने वाले कृमि- कीटादि नीच कर्मों के नरक फल गामी होते और सत्त्वगुणी प्राणियों को प्रायः स्वर्गसुख के भागी वा निवासी जानना चाहिये।

कोई लोग संसारी प्रत्यक्षदशा से विलक्षण अदृश्य और परोक्ष नरक-स्वर्ग हैं अर्थात् किसी निज स्थान का नाम नरक और स्वर्ग है, ऐसा मानते हैं। हम लोग उन नरक-स्वर्गों के परोक्ष होने का खण्डन न करके प्रत्यक्ष भी नरक-स्वर्गों का ग्रहण करते हैं। वैसे बहुत लोक और उनके विशेष स्थान परोक्ष हैं वहां सुखविशेष के हेतु स्वर्गस्थान और दुःखविशेष के हेतु नरकस्थान भी हैं कि जैसे पृथिवी पर स्वर्गनाम सुखविशेष के हेतु और नरकनाम दुःखविशेष के भोगस्थान प्रत्यक्ष दीखते हैं। इसी प्रकार अन्य सब परोक्ष लोक-लोकान्तरों में भी स्वर्ग-नरक होना बन सकता है परन्तु यह नहीं हो सकता कि स्वर्ग-नरक किसी एक ही स्थल में हों और सर्वत्र न हों। जैसे सम्प्रति प्रत्येक नगर वा जिलों में बन्धागार (जेलखाना) बनाये जाते हैं वैसे ही सुख-दुःख की सामग्री सर्वत्र जानो। सब सुखों के भोगों की सामग्री जहां विद्यमान है ऐसे स्थानों में बसते स्वर्गरूप सुख का अनुभव करने वाले विद्याबुद्धिसम्पन्न पुरुष देव कहाते हैं। इसी से कहा है कि- ‘यज्ञ करने वा वेद पढ़ने वाले ज्ञानी लोग जो कि सत्त्वगुण की मध्यावस्था में रहते हैं वे ही देवता हैं। मुक्ति भी कर्मों से ही सिद्ध होती है।’१ इससे मुक्ति पाने के लिये भी मनुष्य को फलभोग की आशा छोड़कर धर्म का ही सेवन करना चाहिये। फलप्राप्ति की इच्छा छोड़कर सेवन किये कर्मों से उत्पन्न होने पर भी मुक्ति कर्मफल से पृथक् नहीं रह सकती क्योंकि अकस्मात् भी कर्मों का फल मिलता है। चाहना का बन्धन मानें तो बुरे कर्म के दुःखफल की चाहना कोई नहीं रखता। यद्यपि मुक्ति में दुःख के विरोधी किसी सुख का भोग नहीं है तो भी दुःख के अभाव का नाम सुख होने से मुक्त को अत्यन्त सुख होना कह सकते हैं। जैसे प्रक्षालन- धोने आदि कर्म से वस्त्रादि के मल की निवृत्ति और निर्मलता की प्राप्ति कर्म का ही फल है, ऐसा शिष्ट लोग मानते हैं। वैसे ही अन्तःकरण में रहने वाली पाप की वासना और उनसे होने वाले दुःख की विशेष निवृत्ति भी मनु आदि धर्मशास्त्र में कहे वर्णाश्रम धर्म का बहाना और कामना को छोड़कर सेवन करने से हो सकती है। इसी सर्वोत्तम मनुष्य की दशा को विचारशील मुक्ति कहते हैं। सो इसी धर्मशास्त्र के बारहवें अध्याय में कहा है कि- ‘वेदोक्त कर्म दो प्रकार का है- संसार में वा जन्मान्तर में जिसके फल की इच्छा हो जिससे देवाधिकार प्राप्त हो सके वह प्रवृत्त कर्म और द्वितीय केवल निष्काम ज्ञानपूर्वक ईश्वर की उपासनादि कर्म निवृत्त कहाता है, इसी का फल मुक्ति है।’१ ऐसा होने पर जो लोग मुक्ति को कर्म का फल नहीं मानते उनका उत्तर आ जाता है। वेद का अभ्यास करने में यत्न करता रहे इस कथन से उस संन्यासदशा के उपयोगी कर्मों के करने का विधान और अतिवृद्ध होने वा गृहादि के न होने से अग्निहोत्रादि कर्मों का त्याग सूचित किया है। यहां कर्मफलों का विवेचन संक्षेप से किया गया और विद्वानों को थोड़ा कथन ही बहुत होता है।

जो विषय हमने उपोद्घात के आरम्भ में उद्देशमात्र गिनाये हैं उन सबका क्रमानुसार संक्षेप से विचार किया। अब उपोद्घात समाप्त किया जाता है। बारहवें अध्याय में प्रक्षिप्त श्लोक कोई नहीं दीखता। अब आगे प्रतिज्ञा के अनुसार मानव धर्मशास्त्र के

एकादश अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब ग्यारहवें अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार किया जाता है। इसमें पहले चालीसवां श्लोक प्रक्षिप्त है। इस पद्य में ‘बहुत धन के व्यय से पूरा होने योग्य यज्ञ को थोड़े धन से आरम्भ नहीं करना चाहिये’ इस विधिवाक्य का अर्थवाद कहा है। सो असम्भव है और अर्थवाद सम्भव होना चाहिये। क्योंकि यज्ञ कोई चेतन पदार्थ नहीं किन्तु जड़ है इससे इन्द्रियादि का नाश नहीं कर सकता और इस अर्थवाद में कहा यही है कि- इन्द्रिय, यश, स्वर्ग, आयु, कीर्त्ति, प्रजा-सन्तान और पशुओं को थोड़ी दक्षिणा वाला यज्ञ नष्ट कर देता है।’१, सो ठीक नहीं। यद्यपि यज्ञादि कर्मों में जो दक्षिणा ऋत्विजादि को दी जाती है वह परिश्रम का फल (मेहनताना) है उसका लेन-देन नियमानुसार होना चाहिये। जैसे वकील आदि का मेहनताना उस काम और वकीलादि की योग्यतानुसार नियत होता है। किन्तु यह दान में नहीं गिना जायेगा। दान में दान लेने वाले से दाता का उपकार कुछ भी अपेक्षित नहीं किन्तु दक्षिणा में पूरा अपेक्षित है इसी से जहां-जहां ब्राह्मण को दान लेना बुरा कहा है, उससे दक्षिणा का निषेध नहीं हो सकता। इसी कारण जिस कार्य में परिश्रम का फल ठीक नहीं दिया जाता उसमें विघ्न होते हैं तथापि वह यज्ञादि कर्म जड़ होने से यजमान की कुछ हानि नहीं कर सकता किन्तु जिनका परिश्रम का फल ठीक नहीं मिलता वे ही विघ्न करते और कर सकते हैं। तथा उक्त श्लोक में यश और कीर्त्ति दोनों पर्यायवाचक पद एक साथ पढ़े हैं इस पुनरुक्ति दोष से भी उक्त श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होता है। यद्यपि इस पुनरुक्ति का समाधान कुल्लूकभट्ट ने किया है तथापि वह सन्तोषजनक नहीं। और जब ऋत्विज् आदि को दक्षिणा देना उनके परिश्रम का फल है तो उसके दिये बिना उस कार्य की पूर्ति वा उससे फलप्राप्ति होना भी असम्भव है। यदि कोई वर्त्तमान समय में वकीलादि को इतना द्रव्य न देवे जितना उनको राजद्वार (अदालत) में कार्यसिद्ध होने के लिये देना चाहिये तो उस पुरुष का वह कार्यसिद्ध हो जावे, यह सम्भव नहीं है। अर्थात् जैसी और जितनी सामग्री वा व्यय से जो कार्य सिद्ध हो सकता है तो उस      अधूरे सामान वा व्यय से वह कार्य कदापि ठीक सिद्ध नहीं हो सकता। इसी प्रकार अल्पदक्षिणा वाला यज्ञ भी ठीक सुफल नहीं होता है, इस कारण अल्पदक्षिणा वाला यज्ञ नहीं करना चाहिये, यही अर्थवाद ठीक है। और जब यह अर्थवाद ठीक है तो वह इन्द्रियादि के नाश का अर्थवाद विरुद्ध हो गया। इसी से वह श्लोक प्रक्षिप्त है। इसके आगे बयालीसवां और तैतालीसवां (४२,४३) दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इन श्लोकों में शूद्र से धन लेकर अग्निहोत्र करने वाले की निन्दा है। परन्तु ध्यान देकर देखा जावे तो धनाभाव में अग्निहोत्र न करने की अपेक्षा शूद्रादि नीच पुरुषों से भी धन लेकर अग्निहोत्र का सेवन करना चाहिये, यह निन्दित काम नहीं किन्तु जो इस ग्यारहवें अध्याय के उन्नीसवें (१९) श्लोक में कहा है कि- ‘जो नीचों से धन लेकर और श्रेष्ठों को देता है वह अपने को पवित्र करके उन दोनों को दुःख के पार कर देता है।’१ इस कथन से भी वह विरुद्ध है। अर्थात् शूद्र भी असाधु है उससे धन लेकर अग्निहोत्ररूप श्रेष्ठकर्म में लगाना शुभ काम है। अग्निहोत्र सबका उपकारक होने से महोत्तम कर्म है उसमें लगाया धन क्यों नीच वा निन्दित काम हुआ। जो कोई जिससे मांगने आदि द्वारा धनादि को लेकर कार्य करता है, वह काम उसी कर्त्ता का होता है किन्तु द्रव्यदाता का नहीं। और जब    धनदाता पुरुष धनादि देकर भृत्यों के तुल्य पुरोहितादि से काम कराता है तब वे पुरोहितादि शूद्रों के ऋत्विज् हो सकते हैं। शूद्र से धन लेकर यज्ञ करने में यदि धनदाता शूद्र को भी कुछ थोड़ा फल प्राप्त हो तो हमारी क्या हानि है ? अर्थात् अन्य की सुखसामग्री का उदय नहीं सह सकने वाले ही मत्सरता के दोष से दूषित होते हैं। शूद्र के धन से यज्ञ करने में शूद्र का भी कल्याण हो तो और भी अच्छा है कि एक काम से दो फल हुए।

आगे ११८,११९,१२१ ये तीन श्लोक प्रक्षिप्त हैं। अवकीर्णी का लक्षण ही जब एक सौ बीसवें श्लोक में कहा है फिर उसका असम्बद्ध व्रत करना पहले से ही कैसे हो जावे ? जिस ब्रह्मचारी ने जानकर व्यभिचार कर लिया हो उसको अवकीर्णी कहते हैं, उसका मुख्य प्रायश्चित्त १२२,१२३ श्लोकों में ठीक-ठीक कहा है। और होम करने आदि के सामान्य नियम तो आगे इसी ग्यारहवें अध्याय में कहे अनुसार मानने चाहियें। वहां जो-जो जप-होमादि प्रायश्चित्त में कहे हैं वे ग्रहण करने चाहियें। काणे गदहे को मारकर उसके मांस का होम करना तो राक्षसों का ही काम है उसका वेदमतानुयायियों को सदा ही त्याग कर देना चाहिये।

आगे १७४वां श्लोक प्रक्षिप्त जान पड़ता है। क्योंकि स्नान करना नित्य का काम होने से प्रायश्चित्त नहीं है। सो स्नान तो मनुष्य को करना ही चाहिये, सामान्यकर शास्त्र की आज्ञानुसार अपनी स्त्री से मैथुन करने वाले को चाहिये कि मैथुन के पश्चात् स्नान करे तभी शुद्धि होती है। इसी प्रयोजन से यदि यह भी श्लोक हो तो पुनरुक्त है। और जो महानीच शास्त्रविरुद्ध वा जिसके लिये शास्त्र में विधान नहीं, ऐसा पुंसिमैथुनादि दुष्ट कर्म है उसकी स्नान कर लेने मात्र से शुद्धि नहीं हो सकती। और इस १७४वें श्लोक से पूर्व १७३वें श्लोक में अयोनि पद करके पुंसिमैथुनादि का सम्भव प्रायश्चित्त कहा ही है। इससे वह श्लोक प्रक्षिप्त ही है।

आगे १८२,१८३ दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। यहां शुद्धि करने वा मानने का प्रकरण नहीं है किन्तु आगे और पीछे केवल प्रायश्चित्त का प्रकरण है। शुद्धिप्रकरण पञ्चमाध्याय में है वहां यथासम्भव सब कहा ही है। पतितों की जीवितदशा में ही मरे के तुल्य क्रिया करना ठीक नहीं, क्योंकि महापातकी आदि पतित लोग यदि अपनी इच्छा से प्रायश्चित्त का आचरण नहीं करते तो वे राजदण्ड भोगने योग्य हैं अर्थात् राजा उनको बलात्कार पूर्वक दण्ड देवे, उस राजदण्ड से जब वे चिह्नयुक्त हो जावेंगे तो उनको मरा समझना नहीं हो सकता सो कहा भी है कि- ‘राजा के शासन से दण्ड के चिह्न को प्राप्त होकर सर्वत्र घूमा करें।’१ इस प्रकरणविरुद्ध और असम्भव होने आदि कारण से ये उक्त दोनों श्लोक प्रक्षिप्त हैं। आगे २०६,२०७ ये दो पद्य प्रक्षिप्त हैं, इसी आशय के दो श्लोक चतुर्थाध्याय में हैं। उनको भी हम ने प्रक्षिप्त ही ठहराया है। और यह अन्याय है कि जो किसी के गाली देने पर मार डालने का दण्ड दिलाना वैसे यहां भी अतिसूक्ष्म अपराध का अधिक दण्ड कहा है। इसी अध्याय में २०८वें श्लोक में उसी अपराध का सम्भव प्रायश्चित्त कहा है। इसलिये उक्त दोनों पद्य प्रक्षिप्त हैं। आगे २६१वां पद्य प्रक्षिप्त है। यह विषय जो इसमें कहा है, असम्भव है। यदि सब हत्या का ऋग्वेद पढ़नामात्र प्रायश्चित्त हो जावे तो ब्रह्महत्यादि महापातकों के अधिक कर बड़े-बड़े पृथक् प्रायश्चित्त कहना व्यर्थ हो जावे। और यह कहना असम्भव वा असग्त भी है कि वेद पढ़ लेने से सब पाप छूट जावें। इसलिये उक्त पद्य प्रक्षिप्त ही है। इस प्रकार इस ग्यारहवें अध्याय के दो सौ पैंसठ श्लोकों से १२ श्लोक प्रक्षिप्त हैं और शेष दो सौ त्रेपन श्लोक शुद्ध जानने चाहियें।

प्रायश्चित्त का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब संक्षेप से प्रायश्चित्तविषय का विवेचन किया जाता है। प्रायश्चित्त यह शब्द कर्मविशेष का नाम है कि दुष्ट कर्मों के सेवन से उत्पन्न हुई व्याकुलता वा विषमता की निवृत्ति के लिये वेदवेत्ता विद्वानों की आज्ञा से मनुष्य जिसका सेवन करते हैं वह प्रायश्चित्त कर्म कहाता है। प्राय शब्द से परे चित्त या चित्ति शब्द को वार्त्तिक१ से सुट् का आगम होकर यह प्रायश्चित्त शब्द बनता है। सो इसका ऐसा ही विद्वानों ने लाक्षणिक अर्थ भी माना है कि- ‘प्रायः नाम तप और चित्त नाम निश्चय करके युक्त कर्म का नाम प्रायश्चित्त है। चित्त को सम करने के लिये अर्थात् चित्त की विषमता मेटने के लिये जो दिया वा बताया जाता और जिसका सेवन विशेष आन्दोलन के साथ विद्वानों की सभा कराती है वह कर्म प्रायश्चित्त कहाता है।२ इन श्लोकों में सभा के द्वारा कराने की आज्ञा दिखाने से ज्ञात होता है कि राज्यसभा के तुल्य वेदवेत्ता विद्वानों की सभा ने देश-कालादि का विचार करके करने को कहा कर्म प्रायश्चित्त कहाता है। अर्थात् राजदण्ड के तुल्य प्रायश्चित्त भी एक प्रकार का दण्डभोग है। इसी कारण यदि न्यायपूर्वक अपराधानुकूल ही दुष्ट कर्म का फल राजदण्ड भोग लिया हो तो पीछे इस जन्म वा जन्मान्तर में दुष्ट कर्म का बुरा फल नहीं मिलेगा। किन्तु वह अपराधी उस पाप से फिर छूट जाता है। वैसे ही यथार्थ रीति से प्रायश्चित्त कर लेने पर वह अपराधी उस पाप से छूट जाता है जो चोर, डाकू आदि पापकर्म करके उसका दुःख फल भोगना नहीं चाहते उनको राजा बलपूर्वक दण्डादि द्वारा वश में रखकर निर्बल धर्मात्माओं की रक्षा करे। और जो धर्मात्मा हैं वे किसी प्रकार अज्ञान वा दुःसग् में पड़ के भ्रम से पाप कर लेवें अर्थात् उनसे बुरा काम बन पड़े तो पीछे उसकी बुराई को सोचने से यदि मन ग्लानि को प्राप्त हो तो विद्वानों की सम्मति से उनको स्वयमेव दण्डभोगरूप प्रायश्चित्त का सेवन कर लेना चाहिये वा यों कहिये कि धर्मात्मा लोग बुरा काम बन जाने से स्वयमेव उसका दुःख फल भोगकर शुद्ध होना पसन्द करते हैं। यही प्रायश्चित्त और राजदण्ड में भेद है।

प्रायश्चित्त किस दशा में वा किसको करना चाहिये सो दिखाते हैं कि-  ‘वेदादिशास्त्रों में ब्राह्मणादि वर्णों के जो सन्ध्यादि कर्म विहित हैं उनको न करने वाला तथा निन्दित वा जिनके लिये वेदादि में निषेध किया है कि ऐसा काम न करना वैसे पापकर्म का आचरण करने वाला और इन्द्रियों के भोगविषय में लम्पट वा आसक्त, ये तीन प्रकार के मनुष्य ही विशेषकर प्रायश्चित्त करने योग्य होते हैं।’१ इस प्रायश्चित्त के दो भेद हैं- ‘एक तो बिना इच्छा किये स्वभाव से वा अज्ञान से दुष्ट कर्म का सेवन किया जाता अथवा कर्त्तव्य का त्याग किया जाता है, वहां द्वितीय ज्ञानपूर्वक किये की अपेक्षा प्रायश्चित्त थोड़ा किया जाता है। और जो इच्छापूर्वक वा जानकर बुरा काम किया जाता है उसमें पूर्व की अपेक्षा शास्त्रकारों ने अधिक प्रायश्चित्त कहा है।’२ तात्पर्य यह है कि ज्ञानपूर्वक किया कर्म जितना संस्कार को बिगाड़ने वाला होता है वैसा अज्ञान से किया कर्म नहीं हो सकता। क्योंकि अज्ञान से किये काम का हृदयादि के साथ वैसा पूरा प्रवेश नहीं होता जैसा कि ज्ञान से किये का होता है। इसी कारण इन दोनों प्रकार के कर्मों में भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त कहा है, सो ठीक ही मन्तव्य है।

इस मानव धर्मशास्त्र के इसी ग्यारहवें अध्याय में एक-एक ब्रह्महत्यादि महापातक वा उपपातक के अनेक प्रकार के प्रायश्चित्त दिखाये हैं। उसमें      अधिकारियों का भेद, देश का भेद और काल का भेद भी कारण हैं। सब अवस्थाओं, सब काल वा सब देश में सब लोग एक प्रकार का प्रायश्चित्त नहीं कर सकते। जवान, बलवान् और स्वस्थ मनुष्य जैसा दुःख सह सकता है वैसा वृद्ध, निर्बल और रोगी वा बालक नहीं सह सकता। इस कारण इनके प्रायश्चित्त वा दण्ड में भेद होना चाहिये। लक्षाधीश मनुष्य पर एक सहस्र मुद्रा का दण्ड जितना उसको दुःखदायी होगा उतना ही सहस्रपति को दस मुद्रा के दण्ड से क्लेश हो जायेगा और सर्वथा निर्धन दरिद्री मनुष्य को एक मुद्रा का दण्ड भी लक्षाधीश की अपेक्षा विशेष दुःखदायी होगा। इसी प्रकार लोक में अनेक प्रकार के अधिकारी हैं, उनकी योग्यता देखकर जैसे राजदण्डादि की न्यूनाधिक व्यवस्था करनी चाहिये वैसे ही प्रायश्चित्त में भी जानो, परन्तु यह काम सामयिक विद्वानों का है। सब देशों और सब कालों में भी सब काम नहीं हो सकते, इस कारण भी प्रायश्चित्तों में भेद किया है और करना ही चाहिये। जहां ब्रह्महत्या वा सुरापानादि महापातकों में आत्मघातरूप वधदण्ड ही प्रायश्चित्त लिखा है, वह उत्सर्ग है। कहीं किसी ब्रह्महत्या करने वाले के शरीर का बना रहना कई कारणों से अत्यन्त उपयोगी वा उचित है तो वहां वधदण्डरूप प्रायश्चित्त न कर, करा के अन्य प्रकार का प्रायश्चित्त करा लेना चाहिये। इत्यादि प्रकार एक-एक अपराध पर अनेक प्रायश्चित्त कहना सार्थक ही है।

मनुष्य जैसे कर्म का सेवन करता है वैसी ही उसके हृदय में वासना संचित होती है, उन्हीं वासनाओं का नाम संचित पाप वा पुण्य है अर्थात् पाप-पुण्यों का आधार मन ही है। जैसे ओषधि के सेवन से रोगों की निवृत्ति हो सकती है वैसे ही प्रायश्चित्त से निकृष्टसंस्काररूप पापों की निवृत्ति हो जाती है। अथवा जैसे दीपक से अन्धकार की, राग से द्वेष की और विद्या से अज्ञान वा मोह की निवृत्ति होती है वैसे प्रायश्चित्त से पापों की निवृत्ति जानो। सो योगभाष्य में कहा भी है कि- ‘जिस जन्मान्तर में फल देने वाले संचित कर्म का फल नियत नहीं कि अमुक देश, काल वा अवस्था में ऐसा फल अमुक पुरुष को अवश्य होगा। वैसे अनियतविपाककर्म की तीन दशाएं होती हैं। एक तो फलीभूत होने से उस संचितकर्म का नाश हो जाना, द्वितीय अपने साथी प्रधान पाप वा पुण्य के साथ मिल जाना और तृतीय नियत जिसका फल है ऐसे संचितकर्म के साथ दबा रहना, इनके उदाहरण ये हैं कि जैसे विद्याध्ययन कर लेने से जड़ता वा मूर्खता छूट जाती है विद्वत्ता और मूर्खता दोनों एक काल में एक शरीर में नहीं ठहर सकती वैसे जब प्रायश्चित्तादिरूप शुभ, पुण्य सूर्य का उदय हृदय में होता है तब अन्धकाररूप पाप का तत्काल नाश हो जाता है। द्वितीय जैसे जौ आदि अन्न के साथ घास के दाने पड़े रहते हैं परन्तु जौ बोया, जौ काटा, जौ धरा है इत्यादि व्यवहार जौ का ही होता है उसमें घास के दाने मिल कर पड़े रहने पर भी कुछ हानि नहीं करते इसी प्रकार थोड़ा पाप वा पुण्य अपने विरोधी पुण्य वा पाप के साथ मिला पड़ा रहता है कुछ हानि नहीं कर सकता केवल प्रधान का ही भोग वा व्यवहार होता है। तथा तृतीय प्रधान अपने विरोधी कर्म से तब तक दबा पड़ा रहे जब तक विरोधी की निर्बलता और उसकी प्रबलता देश-काल-वस्तु भेद से न हो।’१ इस प्रकार अनियतफल वाले दुष्ट कर्म के दण्डभोगरूप औषध से निवारण के लिए ही विशेषकर प्रायश्चित्तों की प्रवृत्ति है। और जो जन्मान्तर में नियत फल देने वाला संचितकर्म है उसकी असाध्य रोग के तुल्य प्रायश्चित्त से भी निवृत्ति नहीं हो सकती। पर वहां भी प्रायश्चित्त करना इस कारण निष्फल नहीं कि जब शुभकर्मरूप प्रायश्चित्त से उसके मन का सन्तोष वा दृढ़ता हो जाने से पाप का फल भोगने के समय में दुःख कम व्यापेगा। जैसे वही दुःख निर्बल और बलवान् को न्यूनाधिक व्यापता है। अथवा जैसे विद्वान्, अविद्वान् दो पुरुषों पर एक ही दुःख आकर पड़े तो अविद्वान् की अपेक्षा विद्वान् बहुत कम क्लेशित होता है, वैसे ही जिसने प्रायश्चित्त कर लिया है उसका मन प्रबल वा दृढ़ हो जाने से बड़े-बड़े दुःखों को छोटा-छोटा मानकर सहज में भोगकर पार हो जाता है।

तथा पाप न छूटने में प्रायश्चित्त करना इसलिये भी सार्थक है कि पुण्य कर्म के साथी प्रायश्चित्त के संचित हो जाने से शुभ फल होगा ऐसा विचारकर यथावसर सबको प्रायश्चित्त करना चाहिये, यही धर्मशास्त्रकारों का आशय है। सो यह प्रायश्चित्त दण्डभोगरूप ही है। यदि कोई पुरुष किन्हीं ऐसे नवीन दुष्ट कर्मों को करे जिनका प्रायश्चित्त धर्मशास्त्र में विशेष कुछ नहीं कहा तो वहां सामयिक विद्वानों को चाहिये कि देश, काल और वस्तु के अनुकूल नवीन प्रायश्चित्त की कल्पना कर लेवें। इसीलिये इस मानव धर्मशास्त्र के ग्यारहवें अध्याय में कहा भी है कि- ‘जिनके प्रायश्चित्त नहीं कहे गये ऐसे पापों से मुक्त होने के लिये शक्ति और पाप को देखकर प्रायश्चित्त की व्यवस्था बांध लेनी चाहिये।’१ इसीलिये बारहवें अध्याय में कहा है कि- ‘दस वा तीन वेदवेत्ता सदाचारी धर्मात्मा विद्वानों की सभा जिसको निश्चित करे उसको प्रायश्चित्तादिरूप से सभी लोग कर्त्तव्य निश्चित धर्म मानें कोई भी उसका उल्लंघन न करे।’२ इत्यादि। और धर्मशास्त्रकारों ने जिस अपराध में जो प्रायश्चित्त कहा हो वह भी विद्वानों की सभा की सम्मति से ही सबको सेवना चाहिये। इस प्रकरण में यह कोई न समझे कि प्रायश्चित्त से पाप छूटने का सिद्धान्त खड़ा करने से बिना भोग किये पाप छूट जायेंगे तो ‘मनुष्य के द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है।’३ यह सिद्धान्त कट जावे क्योंकि प्रायश्चित्त भी एक प्रकार का दण्डभोग है, यह लिख चुके हैं। इसलिये कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है, यही सिद्धान्त ठीक है। जल और स्थलादिक में स्नान वा दर्शन करना मानव धर्मशास्त्र के अनुकूल प्रायश्चित्त नहीं है किन्तु वह शास्त्र के सिद्धान्त से विरुद्ध नवीन कल्पना है। यहां संक्षेप से प्रायश्चित्त के विषय में कहा गया है, इसकी विशेष व्याख्या भाष्य में देखनी चाहिये।