Category Archives: पाखण्ड खंडिनी

चाँदापुर शास्त्रार्थ का भय-भूत: – राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

चाँदापुर शास्त्रार्थ का भय-भूत:- एक आर्य भाई ने यह जानकारी दी है कि आपने ऋषि-जीवन की चर्चा करते हुए पं. लेखराम जी के अमर-ग्रन्थ के आधार पर चाँदापुर शास्त्रार्थ की यह घटना क्या दे दी कि शास्त्रार्थ से पूर्व कुछ मौलवी ऋषि के पास यह फरियाद लेकर आये कि हिन्दू-मुसलमान मिलकर शास्त्रार्थ में ईसाई पादरियों से टक्कर लें। आप द्वारा उद्धृत प्रमाण तो एक सज्जन के लिये भय का भूत बन चुका है। न जाने वह कितने पत्रों में अपनी निब घिसा चुका है। अब फिर आर्यजगत् साप्ताहिक में वही राग-अलापा है। महाशय चिरञ्जीलाल प्रेम जैसे सम्पादक अब कहाँ? कुछ भी लिख दो। सब चलता है। इन्हें कौन समझावे कि आप पं. लेखराम जी और स्वामी श्रद्धानन्द जी के सामने बौने हो। कुछ सीखो, समझो व पढ़ो।

मेरा निवेदन है कि इनको अपनी चाल चलने दो। आपके लिये एक और प्रमाण दिया जाता है। कभी बाबा छज्जूसिंह जी का ग्रन्थ ‘लाइफ एण्ड टीचिंग ऑफ स्वामी दयानन्द’ अत्यन्त लोकप्रिय था। इस पुस्तक के सन् १९७१ के संस्करण में डॉ. भवानीलाल जी भारतीय ने इसका गुणगान किया था। जो प्रमाण पं. लेखराम जी का मैंने दिया है, उसी चाँदापुर शास्त्रार्थ उर्दू को बाबा छज्जूसिंह जी ने अपने ग्रन्थ में उद्धृत किया है। पं. लेखराम जी को झुठलाने के लिये नये कुतर्क गढक़र कोई कुछ भी लिख दे, इन्हें कौन रोक सकता है। सूर्य निकलने पर आँखें मीचकर सूर्य की सत्ता से इनकार करने वाले को क्या कह सकते हैं। अब भारतीय जी को क्या कहते हैं? यह देख लेना।

सच्ची रामायण का खंडन भाग-२२

*सच्ची रामायण का खंडन भाग-२२*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों!हम एक बार फिर उपस्थित हुये हैं *भगवान श्रीराम पर किये आक्षेपों का खंडन*
आगे २२ वें आक्षेप से समीक्षा प्रारंभ करते हैं:-
*आक्षेप-२२-* इसका सार है कि अपने पास वन में आये हुये भरत से रामने कहा-” हे भरत! क्या तुम प्रजा द्वारा खदेड़ भगाए हुए हो? क्या तुम अनिच्छा से हमारे बाप की सेवा करने आये हो? (अयोध्याकांड १००)( पेरियार ने १०० की जगह १००० लिखा है।यदि ये मुद्रण दोष है तो भी चिंतनीय है)
*समीक्षा-* हम चकित हैं कि इस प्रकार से बेधड़क झूठ बोलकर किसी लेखक की पुस्तक हाई कोर्ट से बाइज्जत बरी हो जाती है।
इस सर्ग में श्रीराम ने भरत से यह बिल्कुल नहीं पूछा कि “क्या तुम जनता द्वारा खदेड़ कर भाग आए हुए हो ” ।अब भला राजा भरत को कौन खदेड़ेगा ?राजा भरत माता पिता मंत्रियों और सेना सहित श्री राम से मिलने के लिए आए थे। क्या कोई खदेड़ा हुआ व्यक्ति सेना के साथ आता है? “क्या तुम अनिच्छा से हमारे बाप की सहायता सहायता करने आए”- न ही यह प्रश्न भी श्री राम ने नहीं किया।भला भरत जैसा पितृ भक्त अपने पिता की ‘अनिच्छा’ से सेवा क्यों करेगा? और वन में आकर पिता की कौन सी सेवा की जाती है ?यह पेरियार साहब का श्री राम पर दोषारोपण करने का उन्मत्त प्रलाप है यह देखिए अयोध्या कांड सर्ग १०० में मात्र यह लिखा है कि:-
क्व नु तेऽभूत् पिता तात यदरण्यं त्वमागतः ।
न हि त्वं जीवतस्तस्य वनमागन्तुमर्हसि ॥ ४ ॥
“तात ! पिताजी कहां थे कि तुम इस वनमें निकलकरआये हो? वे यदि जीवित होते तो तुम वनमें नहीं आ सकते थे॥ ४ ॥ “
चिरस्य बत पश्यामि दूराद् भरतमागतम् ।
दुष्प्रतीकमरण्येऽस्मिन् किं तात वनमागतः ॥ ५ ॥
’मैं दीर्घ काल केबाद दूरसे (नानाके घर से ) आये भरतको आज इस वनमें देख रहा हूं, परंतु इसका शरीर बहुत दुर्बल हो गया है।तात ! तुम किसलिये इस बुरे वनमें आये हो ? ॥ ५ ॥
देखा यहां पर मात्र इतना ही उल्लेख है आपकी कही वही कपोल कल्पित बातें यहां बिल्कुल भी नहीं है।
*आक्षेप-२३-*राम ने भरत से पुनः कहा कि ,”जब तुम्हारी मां का मनोरथ सिद्ध हो गया, क्या वो प्रसन्न है?”(अयोध्याकांड सर्ग १००)
*समीक्षा-* इस बात का अयोध्याकांड सर्ग 100 में बिल्कुल भी उल्लेख नहीं है विसर्ग में तो श्रीराम अपनी तीनो माताओं की कुशल क्षेम पूछ रहे हैं देखियेे प्रमाण:-
तात कच्चिच्च कौसल्या सुमित्रा च प्रजावती ।
सुखिनी कच्चिदार्या च देवी नंदति कैकयी ॥ १० ॥
’बंधो ! माता कौसल्या सुखमें है ना ? उत्तम संतान होनेवाली सुमित्रा प्रसन्न हैे ना ? और आर्या कैकेयी देवीभीआनंदित है ना ? ॥ १० ॥’
देखिये, श्रीराम वनवास भेजने वाली अपनी विमाता कैकेयी को भी ‘आर्या’ तथा ‘देवी’ कहकर संबोधित करते हैं।
 यदि आप की कही हुई बाक मान भी ली जाये तो भी इससे श्रीराम पर क्या आक्षेप आता है?कैकेयी राम के वनवास और भरत के राज्य प्राप्ति पर तो प्रसन्न ही होगी।इसमें भला क्या संदेह है?यह प्रश्न पूछकर श्रीराम ने कौन सा पाप कर दिया?
*आक्षेप-२४-* इसका सार है:- भरत ने कहा कि उन्होंने सिंहासन के लिये स्वत्व का त्याग कर दिया,तब श्रीराम ने कैकेयी के पिता को दशरथ के वचन देने की बात कही। (अयोध्याकांड सर्ग १०७)
*समीक्षा-* हम पीछे सिद्ध कर चुके हैं कि कैकेयी के पिता को दशरथ ने कोई वचन नहीं दिया था।अतः यह आक्षेप निर्मूल है।
परंतु अभी तो भरत को सिंहासन मिल ही गया न?अब यदि दुर्जनतयातोष इस वचन को सत्य मान भी लें तो भरत को तो राज्य मिल ही गया है! एक तरह से दशरथ का दिया वचन सत्य ही हुआ। फिर भला इस पर क्या आपत्ति।
*आक्षेप-२५-*इसका सार है, कि भरत रामजी की पादुकायें लेकर लौटे,उन्होंने अयोध्या में प्रवेश न किया नंदिग्राम में निवास,तपस्वी जीवन करके क्षीणकाय होना इत्यादि वर्णन है।आक्षेप ये है कि “रामने ऐसे सज्जन और पर संदेह किया”।
तत्पश्चात वनवास से लौटकर हनुमान जी द्वारा अपने आगमन की सूचना देने का उल्लेख किया है।यह वचन सुनकर भरत अत्यंत प्रसन्न होकर श्रीराम के स्वागत को चल पड़े। यहां महोदय ने टिप्पणी की है कि,” संपूर्ण भोगोपभोग पूर्ण अयोध्या को त्यागकर राम के स्वागत के लिये दौड़ कर जाना अत्यंत दुष्कर था”।
*समीक्षा-* हम समझ नहीं पा रहे हैं कि आप किस प्रकार के प्राणी है ।यहां भला कहां लिखा है कि श्रीराम ने भारत के ऊपर संदेह किया ?वे तो उन्हें प्राणों के समान प्रिय मानते थे इसलिए उनको राजनीति का उपदेश देकर अयोध्या में राज्य करने हेतु वापस भेज दिया। यदि श्रीराम का भारत के ऊपर संदेह होता तो उन्हें ना तो राजनीति का उपदेश करते और ना अयोध्या में राज्य करने के लिए भेजते ।हम समझ नहीं पा रहे हैं कि आप कैसे बेसिर-पैर के आरोप लगा रहे हैं।
आप की दूसरी आपत्ति है कि समस्त भागों को त्याग करके तपस्वी जीवन बिताते भरत जी श्री राम के आगमन की सूचना पाते ही अचानक दौड़ कर उनका स्वागत करने हेतु कैसे पहुंच गए ।क्यों महाशय! शंका करने की क्या बात है श्रीराम भी १४ वर्ष तक वनवास में रहे वह भी मात्र कंद-फल-मूल खाकर।फिर भी उन्होंने अपने तपोबल और ब्रह्मचर्यबल से १४००० राक्षसों समेत खर-दूषण का नाश कर दिया।बालि जैसे योद्धा को एक बाण में ही मार गिराया।लंका में घुसकर कुंभकर्ण और रावण को मार गिराया।उनको तो मांस और राजसी भोग भोगने वाले राक्षस लोग भी पराजित ना कर सके तो इसमें भला क्या संदेह है कि राज्य  को छोड़कर कोई तपस्वी जीवन जिए और किसी के स्वागत के लिए भागकर जा भी ना पाए। यदि श्रीराम 14 वर्ष तक वन में रहकर राक्षसों का संहार कर सकते हैं तो भरत जी के लिए मात्र उनके स्वागत के लिए दौड़े दौड़े चले आना सामान्य सी बात है ।रामायण में यह थोड़े ही लिखा है कि भरतजी कुछ नहीं खाते थे।वे राजसी भोग छोड़कर ऋषि-मुनियों योग्य आहार करते थे।
आपने इसका पता भी “उत्तरकांड १२७” लिखा है।क्योंजी!उत्तरकांड में राम जी वापस आये थे?इसका सही पता युद्ध कांड सर्ग १२७ है।ऐसी प्रमाणों की अशुद्धि चिंताजनक है।आप केवल सर्ग लिखकर गपोड़े हांक देते हैं पर उन्हें खोलकर पढ़ा होता तो आधे से अधिक आक्षेप न करते। युद्ध कांड सर्ग १२७ में यह लिखा है कि भरत उपवास से दुर्बल हो गये थे:-
उपवासकृशो दीनः चीरकृष्णाजिनाम्बरः ।
भ्रातुरागमनं श्रुत्वा तत्पूर्वं हर्षमागतः ॥ २० ॥
परंतु यह नहीं लिखा कि उनमें श्रीराम का स्वागत करने की भी शक्ति न थी। वे तो उस समय राजा थे।वे पैदल थोड़े ही गये थे!वे पूरे गाजे-बाजे हाथी-घोड़े के साथ उनके दर्शन करने चले।
यहां वर्णन है कि भरत जी ने स्वागत के लिये घोड़े और रथ सजाये थे:-
प्रत्युद्ययौ तदा रामं महात्मा सचिवैः सह ।
अश्वानां खुरशब्दैश्च रथनेमिस्वनेन च ॥ २१ ॥
क्या आपको लगता है कि राजा पैदल किसी का स्वागत करने जायेगा? वे राजसी भोग न खाकर ऋषि मुनियों का भोजन करते थे।उपवास का अर्थ नहीं कि निर्जला व्रत कर लिया।उपवास में भी फलाहार किया जाता है।आपका यह आक्षेप मूर्खतापूर्ण है।
*आक्षेप-२६-* संक्षेप में श्री राम का मां सीता के चरित्र पर संदेह करने उनकी अग्निपरीक्षा लेने का वर्णन है श्रीराम के कारण सीता को दुख भोगना पड़ा साथ ही उनके गर्भवती पाए जाने पर उन्हें वन में छोड़ने का आरोप लगाया है।
*आक्षेप-* हम डंके की चोट पर कहते हैं की मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने मां सीता को कभी वन में नहीं भेजा।यह बात उत्तर कांड में लिखी है,जोकि पूरा का पूरा प्रक्षिप्त है। अतः श्री राम पर आरोप नहीं लग सकता यह प्रश्न अग्निपरीक्षा का तो महोदय उस प्रसंग में पौराणिक पंडितों ने काफी मिलावट की है बारीकी से अवलोकन करने से यह विदित होता है कि श्री राम ने समस्त विश्व के आंगन में मां सीता के पावन तन चरित्र को सिद्ध करने के लिए ऐसा किया था इस वर्णन में संक्षेप में है कि जब विभीषण ने मां सीता को अलंकृत करके श्रीराम की सेवा में भेजा तब श्री राम ने उनको कहा कि तुम बहुत समय तक राक्षस के घर में रह कर आई हूं अतः मैं तुम्हें स्वीकार नहीं कर सकता तुम चाहो तो सुग्रीव लक्ष्मण या विभीषण के यहां रहो या जहां इच्छा हो वहां जाओ परंतु मैं तुम्हें ग्रहण नहीं करूंगा ऐसा आप स्वयं का अपमान होते देख मां सीता ने ओजस्वी वाणी में श्रीराम को उत्तर दिया उसके बाद उन्होंने अपने पति द्वारा त्यागे जाने पर चिता में भस्म होने का निश्चय किया उनके आदेश पर लक्ष्मण ने चिता सजा दी जब मां सीता सीता की अग्नि की परिक्रमा करते हुए जैसे ही उसने प्रवेश करने वाली थी श्री रामचंद्र ने उनको रोक लिया पता तथा सबके सामने उनके पवित्र होने की साक्षी दी यदि वह ऐसा नहीं करते तो लोगापवाद हो जाता कि रघुकुल नंदन राम अत्यंत का व्यक्ति है जिसने दूसरे के यहां आ रही अपनी स्त्री को ऐसे ही स्वीकार कर लिया।
अतः यह आवश्यकता था।
यह अग्नि का गुण है कि चाहे जो भी हो,वह उसे जला देती है।फिर चाहे मां सीता हो या अन्य कोई स्त्री उसका अग्नि में जलना अवश्यंभावी है। जिस स्त्री को अग्नि ना जला पाए वह पतिव्रता है -यह कदापि संभव नहीं है , तथा हास्यास्पद,बुद्धिविरुद्ध बात है।यह अग्नि का धर्म है कि उसमें प्रवेश करने वाला हर व्यक्ति जलता है ।पुराणों में तो होलि का नाम की राक्षसी का उल्लेख है ।उसे भी अग्नि में ना जलने का वरदान था ।तो क्या इसे वह प्रति पतिव्रता हो जाएगी?? दरअसल अपने पति द्वारा त्यागी जाने पर मां सीता ने अपने प्राणों को तिनके की तरह त्यागने का निश्चय किया।उनके अग्निसमाधि लेने के निश्चय से सिद्ध हो गया कि श्री राम के सिवा उनके मन में सपने में भी किसी अन्य पुरुष की प्रति (पति समान)प्रेम भाव नहीं था।मां सीता क अतः मां सीता को चिता के पास जाने से रोक कर श्रीराम ने समस्त विश्व के सामने उनकी पवित्रता को प्रमाणित कर दिया जो स्त्री अपने पति द्वारा त्यागे जाने पर एक क्षण भी जीना पसंद नहीं करती तथा अपने शरीर को अग्नि में झुककर मरना चाहती है उसका चरित्र अवश्य ही असंदिग्ध एवं परम पवित्र है इस तथ्य से मां सीता का चरित्र पावनतम था।
     हां ,हम आपको बता दें कि इस प्रसंग में ब्रह्मा विष्णु आदि देवताओं का तथा महाराज दशरथ का स्वर्ग से आकर सीता की पवित्रता की साक्षी देना तथा ब्रह्मा जी का श्रीराम से उनके मूल रूप के बारे में पूछना और श्री राम की ईश्वर होने का वर्णन तथा स्तुति करना यह सारे प्रसंग पौराणिक पंडितों ने श्री राम पर ईश्वरत्व का आरोप करने के लिए  लिखे हैं। इन्हें हटाकर अवलोकन करने से अग्नि परीक्षा की पूरी कथा स्पष्ट हो जाती है।
(अधिक जानकारी के लिये आर्यसमाज के विद्वान स्वामी जगदीश्वरानंदकृत रामायण की टीका को पढ़ें)
 हम आपके सामने इसके प्रमाण रखते हैं अवलोकन कीजिए।
यत् कर्तव्यं मनुष्येण धर्षणां प्रतिमार्जता ।
तत् कृतं रावणं हत्वा मयेदं मानकाङ्‌क्षिणा ।। १३ ।।
अपने तिरस्कारका बदला लेने हेतु मनुष्यका जो कर्तव्य है वो सब मैंने अपने मानके रक्षण की अभिलाषा से रावणका वध करके पूर्ण कर दिया है॥१३॥
कः पुमान् हि कुले जातः स्त्रियं परगृहोषिताम् ।
तेजस्वी पुनरादद्यात् सुहृल्लोभेन चेतसा ।। १९ ।।
ऐसा कौन कुलीन पुरुष होगा, जो तेजस्वी होकर भी दूसरे के घरमें रही स्त्रीके केवल” ये मेरेसाथ बहुत दिवस रहकर सौहार्द स्थापित कर चुकी है इस लोभसे उसके मनसे ग्रहण कर सकेगा ? ॥१९॥
यदर्थं निर्जिता मे त्वं सोऽयमासादितो मया ।
नास्ति मे त्वय्यभिष्वङ्गो यथेष्टं गम्यतामिति ।। २१ ।।
इसलिये जिस उद्देश्यसे मैंने तुमको जीता था वो सिद्ध हो गया है।मेरे कुलके कलंक का मार्जन हो चुका है। अब मेरी तुम्हारेप्रति ममता अथवा आसक्ति नहीं है इसलिये तुम जहां जाना चाहो वहां जा सकती हो॥२१॥
और साथ ही कहा कि तुम चाहे भरत,शत्रुघ्न, या विभीषण के यहां चली जाओ,या जहां इच्छा हो वहां जाओ-
शत्रुघ्ने वाथ सुग्रीवे राक्षसे वा विभीषणे ।
निवेशय मनः सीते यथा वा सुखमात्मना ।। २३ ।।
(युद्ध कांड ११५)
फिर मां सीता फूट-फूटकर रोने लगीं और हृदय स्पर्शी वाणी में श्रीराम को उत्तर दिया:-
‘स्वामी आप साधारण पुरुषों की भांति ऐसे कठोर और अनुचित वचन क्यों कह रहे हैं? मैं अपने शील की शपथ करके कहती हूं आप मुझ पर विश्वास रखें प्राणनाथ हरण करके लाते समय रावण ने मेरे शरीर का अवश्य स्पर्श किया था किंतु उस समय में परवश थी ।इसके लिए तो मैं दोषी ठहरा ही नहीं जा सकती ;मेरा हृदय मेरे अधीन है और उस पर स्वप्न में भी किसी दूसरे का अधिकार नहीं हुआ है।फिर भी यदि आपको यही करना था तो जब हनुमान को मेरे पास भेजा था उसी समय मेरा त्याग कर दिया होता ताकि तब तक मैं अपने प्राणों का ही त्याग कर देती।’
( युद्ध कांड सर्ग ११६ श्लोक ५-११ का संक्षेप)
मां सीती ने लक्ष्मण से कहा:-
अप्रीतस्य गुणैर्भर्त्रा त्यक्ताया जनसंसदि ।
या क्षमा मे गतिर्गन्तुं प्रवेक्ष्ये हव्यवाहनम् ।। १९ ।।
एवमुक्तस्तु वैदेह्या लक्ष्मणः परवीरहा ।
अमर्षवशमापन्नो राघवं समुदैक्षत ।। २० ।।
‘ लक्ष्मण! इस मिथ्यापवाद को लेकर मैं जीवित रहना नहीं चाहती।मेरे दुःख की निवृत्ति के लिये तुम मेरे लिये चिता तैयार कर दो।मेरे प्रिय पति ने मेरे गुणों से अप्रसन्न होकर जनसमुदाय में मेरा त्याग किया है।अब मैं इस जीवन का अंत करने के लिये अग्नि में प्रवेश करूंगी।’
जानकी जी के वचन सुनकर तथा श्रीराम का संकेत पाकर लक्ष्मण ने चिता सजा दी।मां सीता पति द्वारा परित्यक्त होकर अग्नि में अपना शरीर जलाने के लिये उद्यत हुईं।
एवमुक्त्वा तु वैदेही परिक्रम्य हुताशनम् ।
विवेश ज्वलनं दीप्तं निःशंकेनान्तरात्मना ।। २९ ।।
ऐसा कहकर वैदेहीने अग्निकी परिक्रमा की और निशंक चित्तसे वे उस प्रज्वलित अग्निमें प्रवेश करने को उद्यत हुईं। ॥२९॥
जनश्च सुमहांस्तत्र बालवृद्धसमाकुलः ।
ददर्श मैथिलीं दीप्तां प्रविशन्तीं हुताशनम् ।। ३० ।।
बालक और वृद्धों से भरे हुये उस महान्‌ जनसमुदायने उन दीप्तिमती मैथिलीको जलती अग्नि प्रवेश करते हुये (घुसने को उद्यत होते )देखा ॥३०॥
इसके बाद मां सीता की अग्नि में कूद जाने ,अग्निदेव के प्रकट होकर उन्हें उठाकर लाने का वर्णन है ।वहीं पर ब्रम्हा ,शिव, कुबेर ,इंद्र ,वरुण आदि बड़े बड़े देवता उपस्थित हो जाते हैं उस समय ब्रह्मा जी श्री राम और सीता के रहस्य की बहुत सी बातें कहते हैं।वहां पर श्रीराम के ऊपर ईश्वरत्व का आरोप है। हमारा मानना है कि यह सारे प्रसंग पौराणिक पंडितों ने मिलाएं हैं , अतः हम उनको प्रक्षिप्त मानकर उल्लेख नहीं करेंगे। हमारा मत में  जब मां सीता अग्नि में प्रवेश करने को उद्यत थी उसी समय श्रीराम को उन की पवित्रता का भान हो गया था और फिर श्रीराम ने यह वचन कहे:-
अवश्यं त्रिषु लोकेषु न सीता पापमर्हति ।
दीर्घकालोषिता हीयं रावणान्तःपुरे शुभा ।।  ।।
बालिशः खलु कामात्मा रामो दशरथात्मजः ।
इति वक्ष्यन्ति मां सन्तो जानकीमविशोध्य हि ।।
अनन्यहृदयां भक्तां मच्चित्तपरिवर्तिनीम् ।
अहमप्यवगच्छामि मैथिलीं जनकात्मजाम् ।।
प्रत्ययार्थं तु लोकानां त्रयाणां सत्यसंश्रयः ।
उपेक्षे चापि वैदेहीं प्रविशन्तीं हुताशनम् ।।
इमामपि विशालाक्षीं रक्षितां स्वेन तेजसा ।
रावणो नातिवर्तेत वेलामिव महोदधिः ।।
न हि शक्तः स दुष्टात्मा मनसा ऽपि हि मैथिलीम् ।
प्रधर्षयितुमप्राप्तां दीप्तामग्निशिखामिव ।।
नेयमर्हति चैश्वर्यं रावणान्तःपुरे शुभा ।
अनन्या हि मया सीता भास्करेण प्रभा यथा ।।
विशुद्धा त्रिषु लोकेषु मैथिली जनकात्मजा ।
न हि हातुमियं शक्या कीर्तिरात्मवता यथा ।।
(युद्ध कांड सर्ग ११८ श्लोक १४-२०)
लोक दृष्टि में सीता की पवित्रता की परीक्षा आवश्यक थी क्योंकि यह बहुत समय तक रावण के अंतः पुर में रही हैं। यदि मैं जानकी की परीक्षा ना करता तो लोग यही कहते कि दशरथ पुत्र राम बड़ा ही मूर्ख और कामी है।जनक नंदिनी सीता का मन अनन्य भाव से मुझे में लगा रहता है और यह मेरे ही चित्त का अनुसरण करने वाली है। यह बात मैं भी जानता हूं यह अपने तेज से स्वयं ही सुरक्षित है इसलिए समुद्र जिस प्रकार अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं कर सकता उसी प्रकार रावण इसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता था ।जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्निशिखा का कोई स्पर्श नहीं कर सकता उसी प्रकार दुष्ट रावण अपने मन से भी इस पर अधिकार नहीं कर सकता था ।यह तो उसके लिए सर्वथा अप्राप्य थी। रावण के अंतः पुर में रहने पर भी इसका किसी प्रकार तिरस्कार नहीं हो सकता था क्योंकि प्रभाव जैसे सूर्य से अभिन्न है उसी प्रकार इसका मूल्य से कोई भेद नहीं है ।जनक दुलारी सीता तीनों लोकों में पवित्र है इसलिए आत्माभिमानी पुरुष जैसे कीर्ति का लोभ नहीं छोड़ सकते, वैसे ही मैं इसका त्याग नहीं कर सकता।’
इससे सिद्ध है कि केवल लोगों के सामने मां सीता को निर्दोष और पवित्र सिद्ध करने के लिए अग्नि परीक्षा ली गई ।वस्तुतः श्रीराम जानते थे कि मां सीता महान सती और पतिव्रता स्त्री हैं। अतः पेरियार साहब का आक्षेप निर्मूल है कि भगवान श्री राम माता सीता के चरित्र पर संदेह करते थे वह तो मानते थे। कि जिस प्रकार से सूर्य प्रभाव से अभिन्न है उसी प्रकार से उनमें और मां सीता में कोई भेद नहीं। अस्तु।
लेख पढ़ने के लिए धन्यवाद मित्रों।कृपया इसे अधिक से अधिक शेयर करें अगले भाग में आगे के आक्षेपों को की समीक्षा की जाएगी।
।।मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र की जय।।
।।योगेश्वर श्री कृष्ण चंद्र की जय।।
।।ओ३म्।।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

सच्ची रामायण का खंडन भाग-२१

*सच्ची रामायण का खंडन भाग-२१*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों । *श्रीराम पर किये आक्षेपों के खंडन में* आगे बढ़ते हैं।पेरियार आगे लिखते हैं:-
*आक्षेप-१५-* वनवास में जब कभी राम को निकट भविष्य के दुख पूर्ण समय से सामना करना पड़ा तो उसने यही कहा कि अब कैकेई की इच्छा पूर्ण होगी अब वह संतुष्ट हुई होगी।
*आक्षेप-१६-* राम ने लक्ष्मण से वनवास में कहा था कि क्योंकि हमारे बाप वृद्धत्व निर्बल हो गए हैं और हम लोग यहां आ गए हैं अब भारत अपनी स्त्री सहित बिना किसी विरोध के अयोध्या पर शासन कर रहा होगा ।इस बात को उसकी राजगद्दी और भारत के प्रति ईर्ष्या की स्वाभाविक तथा निराधार अभिलाषा प्रकट होती है।(अयोध्याकांड ५३)
*आक्षेप-१७-* जब कैकेयी ने राम से कहा -,”हे राम!राजा ने मुझे तुम्हारे पास तुम्हें यह बताने के लिए भेजा है कि भरत को राजगद्दी मिलेगी और तुम्हें वनवास ।तब राम ने उससे कहा कि ,”राजा ने मुझसे यह कभी नहीं कहा कि मैं भरत को राजगद्दी दूंगा।” (अयोध्या कांड 19 अध्याय)
*आक्षेप-१८-* उसने अपने पिता को मूर्ख और पागल कहा था। (अ.कां। ५३ अ.)
आक्षेप 16 और 17 के स्पष्टीकरण में ललई सिंह यादव ने प्रमाण दिया  है-
अयोध्याकांड ५३/१-२ “सौभाग्यवती स्त्री मांडवी का पति और रानी केकेई का पुत्र भारत की सूखी है क्योंकि वह सम्राट की तरह कौशल प्रदेश को भोगेगा।पिताजी वृद्ध है और मैं अकेला वन को चला आया हूं अतएव राज्य का सारा सुख अकेले भरत को मिलेगा।”
फिर इसी सर्ग के ५३/८-१७ का प्रमाण देकर राम ने दशरथ को कामी,मूर्ख आदि कहने का वर्णन है।
*समीक्षा-*  निराधार आरोप लगाने की कला में पेरियार जी अभ्यस्त हैं।इनके आक्षेपों की भला क्या समीक्षा करूं?
१:- यह ठीक है कि वनवास में श्रीराम का समय दुख पूर्ण था
 और उनका यह कहना कि अब कैकेई की इच्छा पूर्ण हो गई -इसमें गलत क्या है क्या भा़रत को राज्य और राम को वनवास मिलने से कैकेयी की इच्छा पूरी नहीं हुई थी?
२:- आक्षेप १६ की पुष्टि के लिये ललई सिंह अयोध्याकांड ५३/१-२ का प्रमाण देते हैं।वैसे पुस्तक में प्रमाण भी मुद्रणदोष सहित दिये हैं। १-२ की जगह १-१२ लिखा है,जो चिंतनीय है।
तो इसका उत्तर यह है कि इस सर्ग में श्रीराम ने लक्ष्मण को अयोध्या वापस भेजने और उनकी परीक्षा लेने के लिये ये बातें कहीं थीं।उनके मन में द्वेष या ईर्ष्या नहीं थी, क्योंकि वे तो अपने भाइयों के लिये ही राज्य चाहते थे,न कि खुद के सुखोपभोग के लिये। श्रीराम जब वनवास से लौट रहे थे,तब उन्होंने श्रीहनुमानजी से कहा था कि-“यदि १४ वर्षों तक राज्यसंचालन करने के बाद भी यदि भरत और आगे भी राजा बने रहना चाहते हैं तो,यही ठीक रहेगा।”
सङ्गत्या भरतः श्रीमान् राज्येनार्थी स्वयं भवेत् ।
प्रशास्तु वसुधां कृत्स्नां अखिलां रघुनन्दनः ॥ १७ ॥
“यदि कैकेयीकी संगति और चिरकालतक संसर्ग होनेसे श्रीमान्‌ भरत स्वतः राज्य प्राप्त करने की इच्छा करते हैं तो रघुनंदन भरत खुशी खुशी समस्त भूमण्डलपर  राज्य राज्य कर सकते हैं।”(मुझे ये राज्य लेने की इच्छा नहीं। ऐसी स्थितीमें हम अन्यत्र कहीं जाकर तपस्वी जीवन व्यतीत करेंगे।) ॥१७॥(युद्ध कांड सर्ग १२५)
देखा !श्रीराम का कितना उज्जवल चरित्र था!वे कितने निर्लोभ,त्यागी और तपस्वी थे! जिन श्रीराम का ऐसा महान चरित्र हो वे कभी अपने भ्राता से ईर्ष्या और द्वेष नहीं कर सकते । वे तो भरत के लिए राज्य त्यागने के लिए भी तैयार हैं। इससे सिद्ध है कि आपके दिए प्रमाण में श्री राम के मूल विचार व्यक्त नहीं होते वे विचार केवल लक्ष्मण की परीक्षा और उन्हें अयोध्या लौट आने के लिए ही थे।
३:- आपने ५३/८-१७ का पता लिखकर श्रीराम द्वारा दशरथ को मूर्ख आदि कहने का उल्लेख किया है।इसका स्पष्टीकरण भी २ के जैसा ही है । वैसे यह श्रीराम के मूलविचार नहीं थे,ये तो लक्ष्मण के लिये कहे थे। इसमें कुछ गलत नहीं है कि दशरथ काम के वशीभूत होकर कैकेयी के वरदानों के आगे विवश हो गये।यह भी ठीक है कि उस समय उनकी बुद्धि भ्रमित हो गई थी।कुछ समय के लिये मौर्ख्य ने उनकी बुद्धि को घेर लिया था।इसमें श्रीराम अपने पिता को अपशब्द नहीं कह रहे हैं , केवल वस्तुस्थिति प्रकट कर रहे हैं।ऐसा करना गाली देना नहीं होता।
*आक्षेप-१९-*उसने अपने पिता से प्रार्थना की थी,कि “जब तक मैं वनवास से वापस न लौट आऊं – तब तक तुम अयोध्या का राज्य करते रहो और किसी को राजगद्दी पर न बैठने दो।” इस प्रकार उसने भरत के सिंहासनारूढ होने से अड़चन लगा दी।”(अयोध्याकांड ३४)
*समीक्षा-* झूठ झूठ झूठ!ऐसा सफेद झूठ बोलने में भी शर्म नहीं आई? क्या पता था कि कोई  स्वाध्यायी रामयण पढ़कर आपके झूठ की धज्जियां उड़ा सकता है?  हमें समझ नहीं आता कि इस झूठ के पुलिंदे को हाईकोर्ट के न्यायाधीशों ने निर्दोष कैसे घोषित कर दिया? आश्चर्य है!
पेरियार साहब!आपके दिये सर्ग  ३४ में कहीं नहीं लिखा कि रामने दशरथ से कहा कि -“मेरे वन से वापस आने तक किसी को गद्दी पर न बैठने दो” और इस तरह भरत के सिंहासन पाने में अड़चन लगा दी।
उल्टा इस सर्ग में तो श्रीराम स्वयं भरत को राज्यगद्दी देने का अनुमोगन करते हैं।लीजिये,प्रमाणों का अवलोकन करें:-
भवान् वर्षसहस्राय पृथिव्या नृपते पतिः ।
अहं त्वरण्ये वत्स्यामि न मे राज्यस्य काङ्‌क्षिता ॥ २८ ॥
“महाराज ! आप सहस्रों(अनेक) वर्षों तक इस पृथ्वीके अधिपति होकर रहें। मैं तो अब वनामें ही निवास करूंगा। मुझे राज्य लेनेकी इच्छा नहीं।॥२८॥
नव पञ्च च वर्षाणि वनवासे विहृत्य ते ।
पुनः पादौ ग्रहीष्यामि प्रतिज्ञान्ते नराधिप ॥ २९ ॥
“नरेश्वर ! चौदह वर्षों तक वनमें घूम फिरकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करके मैं पुनःआपके युगल चरणों को मस्तक नवाऊंगा ॥२९॥(अयोध्याकांड सर्ग ३४)
हम डबल चैलेंज देकर कहते हैं कि रामायण में रामजी ने कहीं नहीं कहा कि-” मेरे आने तक किसी को गद्दी पर बैठने मत देना।”अपने कहे शब्द निकालकर दिखावें अन्यथा चुल्लू भर पानी में डूब मरें।
आपके चेले ललई ने भी इसका कोई स्पष्टीकरण न दिया।होगा तब देंगे न!
 इस सर्ग में इसके विपरीत श्रीराम भरत को गद्दी देने की बात करते हैं:-
मा विमर्शो वसुमती भरताय प्रदीयताम् ॥ ४४ ॥
“आपके मन में कुछ भी अन्यथा विचार आना उपयोगी नहीं। आप  सारी पृथ्वी भरतको दे दीजिये।”
अब क्या ख्याल है महाशय!कहिये,कि आपने झूठा आक्षेप लगाकर श्रीराम कीचड़ उछालने का दुष्प्रयत्न किया जो सर्ग खोलते ही ध्वस्त हो गया।
*आक्षेप-२०-*राम ने यह कहकर सत्यता व न्याय का गला घोंटा,कि,”यदि मुझे क्रोध आया तो मैं स्वयं अपने शत्रुओं को मारकर या कुचलकर स्वयं राजा बन सकता हूं-किंतु मैं यह सोचकर रुक जाता हूं,कि प्रजा मुझसे घृणा करने लगेगी।”(अयोध्याकांड ५३)
*समीक्षा-*इस सर्ग के २५,२६
श्लोक में श्रीराम ने कहा था:-
एको ह्यहमयोध्यां च पृथिवीं चापि लक्ष्मण ।
तरेयमिषुभिः क्रुद्धो ननु वीर्यमकारणम् ॥ २५ ॥
’लक्ष्मण !यदि मैं कुपित हुआ तो अपने बाणों से अकेला अयोध्यापुरी तथा समस्त भूमण्डल पर निष्कण्टक बनकर आपने अधिकारमें ला सकता हूं, परंतु पारलौकिक हितसाधनमें बल पराक्रम कारण  नहीं होता। (इसलिये मैं ऐसा नहीं करता।) ॥२५॥
अधर्मभयभीतश्च परलोकस्य चानघ ।
तेन लक्ष्मण नाद्याहमात्मानमभिषेचये ॥ २६ ॥
’निष्पाप लक्ष्मण ! मैं अधर्म और परलोकके भयसे रह जाता हूं, इसलिये आज अयोध्या के राज्यापर अपना अभिषेक नहीं कराता’॥२६।।
‘शत्रुओं को मारकर कुचल कर राजा कर सकता हूं’- ये आपके घर का आविष्कार है जिससे आप श्री राम के मुख से भरत को उनका शत्रु सिद्ध कर सकें। परंतु आप की चाल यहां नहीं चलेगी महोदय 53 वें सर्ग में  श्रीराम ने लक्ष्मण से वे बातें कही हैं जो उनको वापस आयोध्या भेजने तथा परीक्षा लेने के लिए कही है। यह श्रीराम के मूल विचार नहीं है अतः इस पर आक्षेप करना ठीक नहीं वैसे अवलोकन किया जाए तो इन श्लोकों में कोई दोष नहीं है यह बात बिल्कुल सत्य है कि श्री राम पूरी त्रिलोकी को अपने बाणों के बल से जीत सकते थे। परंतु धर्म और परलोक के लिए उन्होंने ऐसा प्रयास नहीं किया। इस पर भला क्या आरोप लगाया जा सकता है ?यदि श्रीराम ने स्वयं बानो द्वारा बलपूर्वक अपना राज्य प्राप्त किया होता तब उन पर दोष लग सकता था ,परंतु कहने मात्र से दोष क्यों लगेगा? यह तो वस्तुस्थिति है ।उन्होंने तो देवताओं को पराजित करने वाले रावण और कुंभकर्ण तक का मर्दन किया ऐसे वीर योद्धा के लिए मात्र अयोध्या की गद्दी प्राप्त करना हंसी खेल है ।परंतु श्रीराम धर्म की मर्यादा का पालन करते हुए भी यह अनुचित प्रयास नहीं करना चाहते थे ,इसीलिए तो श्री राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता हैं।अतः उन्होंने ऐसा कहकर सत्य और न्याय का गला नहीं घोंटा। हां,मूलनिवासियों के तथाकथित पूज्य आदर्श रावण ने पति और देवर अनुपस्थिति में मां जानकी सीता को कपट संन्यासी बनकर उनका हरण कर लिया।रावण के इस कृत्य पर क्या कहना है आपका?
*आक्षेप-२१-* उसने अपनी स्त्री सीता से कहा कि  -“तुम बिना रुचि जाने भरत के लिए जो भोजन बनाती हो,वह आगे चलकर हमारे लिये लाभदायक रहेगा।” (अयोध्याकांड २६)
*समीक्षा-* हे परमेश्वर! देख,ये लोग किस तरह झूठे और निराधार आरोप लगाकर भगवान श्रीराम को कलंकित करने का दुष्प्रयास कर रहे हैं।क्या इन पर तेरा दंड नहीं चलेगा? अवश्य चलेगा और धूर्त लोग भागते दिखाई देंगे।
पेरियार साहब!लगता है जानबूझकर  झूठे आरोप लगाते हैं ताकि पुस्तक का आकार बढ़ जाए। परंतु आपके दिए हुए सर्ग में श्रीराम ने मां सीता से ऐसी कोई भी बात नहीं कही। आप यह सिद्ध करना चाहते हैं कि मां सीता भरत के लिये भोजन में उनकी रुचि के विरुद्ध सामग्रियां बनाती थीं। एक तो भगवती सीता श्री राम की पत्नी थीं ,कोई दासी नहीं थी जो भोजन बनाया करती थीं। राजा महाराजाओं के महलों में खानसामें और बावर्ची रहते हैं जो 56 प्रकार के भोग बनाना जानते हैं ।क्या अयोध्या के सभी बावर्चियों ने आत्महत्या कर ली थी जो मां सीता को भरत के लिए भोजन बनाना पड़े!एक तो सीता भोजन बनाए वह भी भरत के लिए उसकी रुचि के विरुद्ध, परंतु अपने पति के लिए भोजन ना बनाएं।वाह वाह!! क्या कहने!कम से कम झूठ तो ढंग से बोला करें । भला इस प्रकार की बुद्धि विरुद्ध वाद को कौन बुद्धिमान व्यक्ति मानेगा? हम डबल चैलेंज के साथ कहते हैं कि रामायण में मांसीता के मुख से कहे जाने वाले ऐसे शब्दों को हू-ब-हू निकाल कर दिखावें वरना चुल्लू भर पानी मिथ्या भाषण का प्रायश्चित करें।
सर्ग २३ में तो श्रीराम मां सीता को अपनी अनुपस्थिति में भरत के प्रति उचित व्यवहार करने का उपदेश देते हैं।
इस सर्ग में श्रीराम ने सीता जी से भरत के विषय में निम्नलिखित बातें कहीं उनका संक्षिप्त उल्लेख करते हैं:-
१:- श्लोक २५- भरत के सामने मेरे गुणों की प्रशंसा ना करना।
२:- श्लोक २६-भरतके समक्ष सखियों के साथ भी बारंबार मेरी चर्चा ना करना।
३:- श्लोक २७:- राजा ने उन्हें सदा के लिए युवराज पद दे दिया है अब वही राजा होंगे।
४:-श्लोक ३३:- भारत और शत्रुघ्न मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय है अतः तुम्हें इन दोनों को विशेष कहा आपने भाई और पुत्र के समान देखना और मानना चाहिये।
५:-श्लोक ३४- भरत की इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करना क्योंकि इस समय वह मेरे देश और कुल के राजा हैं।
६:-श्लोक ३७:- तुम भरत के अनुकूल बर्ताव करती हुई धर्म एवं सत्यव्रत में तत्पर रहकर यहां निवास करो।
कहिए महाराज! यहां पर आप की कही हुई कपोलकल्पित बातें कहां हैं?आप कभी भी श्रीराम को भरत का शत्रु सिद्ध नहीं कर सकते ।वस्तुतः तीनों भाई श्रीराम के लिए प्राणों के समान प्रिय थे।इसलिए अपने अभाव में वह मां जानकी को भरत के अनुकूल बरतने का उपदेश करते हैं ।साथ ही भरत और शत्रुघ्न को भाई और पुत्र के समान मानने का आदेश देते हैं ।यहां न तो मां सीता के भरत के लिए भोजन बनाने का उल्लेख है और न ही उसे भरत की रुचि के विरुद्ध बनाने का।
कुल मिलाकर आपका किया हुआ आक्षेप रामायण में कहीं नहीं सिद्ध होता।आपको रामायण के नाम से झूठी बातें लिखते हुए शर्म आनी चाहिए। झूठे पर परमात्मा के धिक्कार है!
………क्रमशः ।
मित्रों !पूरा लेख पढ़ने के लिए धन्यवाद। कृपया इसे अधिक से अधिक शेयर करें। अगले लेख में श्रीराम पर किए गए अगले सात आक्षेपों का खंडन किया जाएगा।
।।मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र की जय।।
।।योगेश्वर भगवान कृष्ण चंद्र की जय।।
।।ओ३म्।।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

सच्ची रामायण का खंडन भाग-२०

सच्ची रामायण का खंडन भाग-२०
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*- कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों! पिछले लेख में हमने *भगवान श्रीराम* पर किये ६ आक्षेपों का खंडन किया।अब आगे के आक्षेपों में पेरियार  साहब के आक्षेपों का स्पष्टीकरण और शब्द प्रमाण ललई सिंह यादव ने *”सच्ची रामायण की चाबी”*में दिया है।हम दोनों को साथ में उद्धृत करके उनकी आलोचना कर रहे हैं।पाठकगण हमारी समीक्षा पढ़कर आनंद उठायें।आगे-
*आक्षेप-७-* उसने शोक प्रकट करते हुए अपनी माता से कहा था कि ऐसा प्रबंध किया गया है  कि मुझे राज्य से हाथ धोना पडेंगा ।राजवंशीय भोग विलास एवं स्वादिष्ट मांस की थालियां छोड़कर मुझे वन में जाना होगा। मुझे वनवास जाना होगा और वन के कंद मूल खाने पड़ेंगे। (अयोध्या कांड अध्याय  २०)
*आक्षेप-८-* राम ने भारी हृदय से अपनी माता व स्त्री से कहा था कि जो गद्दी मुझे मिलनी चाहिए थी वह मेरे हाथों से निकल गई और मेरे वनवास के जाने के लिए प्रबंध किया गया है।(अयोध्याकांड २०,२६,१४)
*आक्षेप-९-* राम ने लक्ष्मण के पास जाकर पिता दशरथ को दोषी तथा दंडनीय बताते हुए कहा -“क्या कोई ऐसा भी मूर्ख होगा जो अपने उस पुत्र को वनवास दे जो सब है उस की आज्ञाओं का पालन करता रहा?”(अयोध्याकांड अध्याय ५३)
इसका स्पष्टीकरण देते हुये ललई सिंह ने वाल्मीकीय रामायण सर्ग २०/२८,२९ का प्रमाण देकर लिखा है कि श्रीराम ने अपनी माता से कहा कि -” मैं तो दंडकारण्य जाने को तैयार हूं फिर इस आसन से क्या सरोकार अब तो मेरे लिए बिस्तर मुनियों वाले आसन का समय उपस्थित हुआ है अब मैं सभी सांसारिक लोगों का त्याग करके 14 वर्ष तक कंदमूल खाते हुए मुनियों के साथ रह कर मुनियों के साथ जीवन बिताऊंगा।”
स्पष्टीकर :- सांसारिक भोग का अर्थ है राजवंशीय भोग विलास और स्वादिष्ट मांस की थालियां।
*समीक्षा-*
१:- पेरियार साहब लोगों और तथ्यों को तोड़ मरोड़ का आक्षेप लगाने की कला में निपुण हैं। कृपया बताइए श्री राम ने शोक प्रकट करते हुए कहा यह कौन से शब्दों का अर्थ है रामायण में तो शोक प्रकट करना लिखा ही नहीं है अपितु रामायण में तो लिखा है कि राज्य अभिषेक की घोषणा के समय एवं वनवास जाते समय श्री राम के मुख्य मंडल पर कोई विकार नहीं आया हम पिछले आक्षेप ६ के उत्तर में यह प्रमाण दे चुके हैं (अयोध्याकांड १९/३२,३३)।
ललई सिंह की भी परीक्षा कर लेते हैं:-
देखिये,अयोध्याकांड सर्ग २०
देवि नूनं न जानीषे महद् भयमुपस्थितम् ।
इदं तव च दुःखाय वैदेह्या लक्ष्मणस्य च ॥ २७ ॥
श्रीराम ने देनी कौसल्या से कहा- ‘देवि ! निश्चितही तुमको पता नहीं कि तुमको महान भय उपस्थित हुआ है।इस समय मैं जो बात बताने वाला हूं वह सुनकर तुमको, सीताकोऔर लक्ष्मणको भी दुःख होगा, तथापि मैं बताऊंगा॥२७॥
गमिष्ये दण्डकारण्यं किमनेनासनेन मे ।
विष्टरासनयोग्यो हि कालोऽयं मामुपस्थितः ॥ २८ ॥
अब तो मैं दण्डकारण्य को जाऊंगा, इसलिये ऐसे बहुमूल्य आसनों की मुझे क्या आवश्यकता है ? अब मेरे लिये  कुश की चटाई पर बैठने का समय आया है ॥२८॥
चतुर्दश हि वर्षाणि वत्स्यामि विजने वने ।
कन्दमूलफलैर्जीवन् हित्वा मुनिवदामिषम् ॥ २९ ॥
मैं राजभोग्य वस्तुओं का त्याग करके मुनियों के समान कंद, मूल और फलों से जीवन-निर्वाह करते हुये चौदह वर्षों तक निर्जन वनमें निवास करूंगा ॥२९॥
भरताय महाराजो यौवराज्यं प्रयच्छति ।
मां पुनर्दण्डकारण्यं विवासयति तापसम् ॥ ३० ॥
महाराज युवराज पद भरतको दे रहे हैं और मुझे तपस्वी बनाकर दण्डकारण्य जाने की आज्ञा दी है॥३०॥
कहिये महाशय! श्लोक २९ में तो केवल इतना लिखा है कि श्री राम ने देवी कौशल्या को वनवास जाने का समाचार दिया यहां कहीं भी नहीं लिखा कि श्रीराम ने शोक प्रकट किया। हां, श्रीराम ने यह अवश्य कहा कि यह बात सुनकर कौशल्या लक्ष्मण और सीता को दुख अवश्य होगा।
श्लोक २९  में श्री राम कहते हैं कि राजवंशीय भोग त्याग कर मुझे ऋषि मुनियों की तरह कंद मूल और फल खाने होंगे। यहां  पर स्वादिष्ट मांस की थालियां यह अर्थ कहां से उठा लाए?शायद कुंभकर्ण को उठाने के लिये राक्षसों ने लाये होंगे-उसके धोखे में श्रीराम पर आरोप लिख दिया। प्रतीत होता है कि “आमिष” से शब्द से आपको भ्रम हुआ होगा। आपने मान रखा है कि आमिष का अर्थ हर जगह मांस ही होगा परंतु यह सत्य नहीं है आमिष का अर्थ राजसी भोग भी होता है। और यहां पर आम इसका यही अर्थ रहना समीचीन है। देखिये,इसी सर्ग में कौसल्या देवी श्रीराम को लड्डू,खीर आदि देती हैं,देखो-
देवकार्यनिमित्तं च तत्रापश्यत् समुद्यतम् ।
दध्यक्षतघृतं चैव मोदकान् हविषस्तथा ॥ १७ ॥
लाजान् माल्यानि शुक्लानि पायसं कृसरं तथा ।
समिधः पूर्णकुम्भांश्च ददर्श रघुनन्दनः ॥ १८ ॥
रघुनंदन ने देखा कि वहां देवकार्यके लिये(अग्निहोत्र) बहुत सी सामग्री संग्रह करके रखी हुई थी।दही, अक्षत, घी, मोदक, हविष्य, धान्य की लाही, (शुभ्र) सफेद माला, खीर, खिचडी, समिधा और भरे हुयेकलश – ये सब वहां दृष्टिगोचर हुये ॥१७-१८॥
श्रीराम ने इनको ही “आमिष” खाने से मना किया और कहा कि मैं इनको नहीं खा सकता;अब तो केवल मैं कंद-मूल-फल का ही सेवन कर सकता हूं।अब प्रश्न है कि वहां तो मांस था ही नहीं तो श्रीराम आमिष किसे कह रहे हैं?देखिये,आमिष शब्द के कई अर्थ हैं जिसमे एक अर्थ है– राजभोग ! देखिये— मेदिनी कोष – आकर्षणेपि पुन्सि स्यादामिषं पुन्नपुन्सकम् ! भोग्य वस्तुनि संभोगेप्युत्कोचे पललेपि च !! —यहा भोग्यवस्तु भी आमिष शब्द का अर्थ बतलायी गयी है और वह भोग्य वस्तु है– खीर तथा लड्डू आदि !उसे ही श्रीरामने आमिष कहकर नहीं खाया।अतः सिद्ध है कि श्रीराम मांसाहार न तो पहले करते थे न बाद में।दरअसल उस समय आर्य मांसाहार करते ही न थे।
यह वचन भी उन्होंने शमभाव में कहा है शोक में नहीं। इससे सिद्ध है कि श्री राम पर मांस भक्षण, शोक करने ,भारी हृदय से राज्य छिनने की बात कहनेके आरोप मिथ्या हैं शोक तो अयोध्यावासी, भरत, कौसल्या, दशरथ ,लक्ष्मण, सीता आदि ने व्यक्त किया था श्रीराम तो संभव में स्थित थे।स्पष्टीकरण मैं ललई सिंह ने स्वादिष्ट मांस की खा लिया जो लिखा है वह पूर्णतः गलत है।
ललई सिंह ने जो उत्तरकांड ४२/१७-२२का प्रमाण देकर श्रीराम का मद्यपान,अप्सराओं नृत्य आदि लिखा है,वो उत्तरकांड के प्रक्षिप्त होने से अप्रामाणिक है। अयोध्याकांड २६/२१-२३ में श्रीराम का मां सीता को वनवास की सूचना देना लिखा है।आपके दिये उद्धरण में आक्षेप लायक कुछ नहीं है।यहां श्रीराम कोई शोक नहीं कर रहे,केवल सूचना दे रहे हैं।हां,आपने अयोध्याकांड सर्ग ५३/१०उद्धृत किया है कि,”हे लक्ष्मण! संसार में ऐसा कौन अपढ़(मूर्ख)मनुष्य भी भला कौन होगा -जो अपनी स्त्री के लिये मेरे जैसे आज्ञाकारी पुत्र को त्याग देगा?”इसका स्पष्टीकरण यह है कि यह श्रीराम के मूलविचार नहीं थे। इस सर्ग के
श्लोक ६सेश्लोक २६ तक श्रीरामचद्रने जो बातें कही हैं वो लक्ष्मणकी परीक्षा लेने के लिये और उनको अयोध्या में वापस भेजने के लिये कही हैं,वास्तविकता में उनकी ऐसी मान्यता न थी।यही बात यहां सब(व्याख्याकारों) टीकाकारों ने स्वीकार की है। अतः श्रीराम के ऊपर यहां कोई आप सेव नहीं हो सकता है कि कैकेयी, भरत,दशरथ आदि के प्रति श्री राम की ऐसी भावना नहीं थी यह हम आगे स्पष्ट करेंगे।
*आक्षेप-१०-* इसका सार है कि श्रीराम ने अनेक स्त्रियों से अपने ऐंद्रिक विषयों की तृप्ति के लिये विवाह किया।यहां तक कि नौकरों की स्त्रियों को भी न छोड़ा।मन्मथ दातार आदि अपने साक्षियों का उल्लेख करके यह आक्षेप किया है।
आइटम नं ९ के शीर्षक से ललई सिंह ने इसके स्पष्टीकरण में निम्न प्रमाण दिये हैं,वे संक्षेप में लिखते हैं:-
१:-विमलसूचरि रचित पउमचरिउ में सुग्रीव का रामजी को १३ कन्यायें भेंट करना।उत्तरचरित में लक्ष्मण की १६००० और राम की ८००० पत्नियां लिखी हैं।
२:-गुणभद्र कृत उत्तरपुराण में लक्ष्मण की १६००० और राम की ८००० रानियों का उल्लेख।
३:-भुषुंडि रामायण में सहस्रों पत्नियां,खोतानी रामायण में सीता का राम लक्ष्मण दोनों की स्त्री होनाइत्यादि।
४:- कामिल बुल्के की रामकथा का संदर्भ देकर लिखा वाल्मीकि ने अपनी रचना में यत्र-तत्र राम की एक से अधिक पत्नियों का उल्लेख किया है।दो प्रमाण दिये हैं:-
पहला:- अयोध्याकांड सर्ग ८/१२-“हृष्टा खलु भविष्यंति रामस्य परमा स्त्रियः”-मंथरा ने कहा कि राम के अभिषेक के बाद उनकी स्त्रियां फूली नहीं समायेंगी।”
दूसरा-“युद्ध कांड २१/३ समुद्र तट पर प्रयोपवेशन के वर्णन में अनेकधा परम नारियों की भुजाओं से पुष्ट राम की बांह का उल्लेख ।
*समीक्षा-* हम यह डंके की चोट पर कहते हैं कि मां सीता को छोड़कर भगवान श्री राम की और कोई पत्नी नहीं थी। आपने जो चार बिंदुओं में प्रमाण दिए हैं उन से सिद्ध नहीं होता कि श्री राम की एक से अधिक पत्नियां थी सबसे पहले तो पउमचरिउ, उत्तरपुराण,भुषुंडि रामायण आदि  नवीन ग्रंथों का हम प्रमाण नहीं मानते क्योंकि यह सब अनार्ष होने से अप्रमाणिक हैं। वैसे भी इनमेंजोे 16000 और 8000 रानियां होना असंभव गप्पें भरी पड़ी हैं। हमें केवल वाल्मीकीय रामायण आर्ष होने प्रामाणिक है इसीलिए उसके जो आपने दो प्रमाण दिए हैं उन पर विचार करते हैं:-
पहला,अयोध्याकांड ८/१२:-
हृष्टाः खलु भविष्यन्ति रामस्य परमाः स्त्रियः ।
अप्रहृष्टा भविष्यन्ति स्नुषास्ते भरतक्षये ॥ १२ ॥
श्रीरामाके अंतःपुर की परम सुंदर स्त्रियां- सीतादेवी और उनकी सखियां निश्चितही खूब प्रसन्न होंगी और भरतके प्रभुत्वका नाश होने से तेरी बहुयें(और अंतःपुर की स्त्रियां) शोकमग्न होंगी॥१२॥
यहां पर “परमा स्त्रियः” का अर्थ नागेश भट्ट और अन्य टीकाकारों ने “मां सीता और उनकी सहेलियां”किया है।जो कि बिलकुल उपयुक्त है।क्योंकि राम लक्ष्मण की सीता और उर्मिला के सिवा अन्य कियी स्त्री का नाम तक वाल्मीकीय रामायण में नहीं है।
 हम पेरियार कंपनी को चैलेंज देते हैं, कि श्रीराम और लक्ष्मण की एक से अधिक स्त्रियों के नाम वाल्मीकि रामायण से निकालकर दिखायें अन्यथा चुल्लू भर पानी में डूब मरें।
दूसरा,युद्ध कांड २१/३:-मणिकाञ्चनकेयूर मुक्ताप्रवरभूषणैः ।
भुजैः परमनारीणां अभिमृष्टमनेकधा ॥ ३ ॥
अयोध्या में रहते समय मातृकोटिकी अनेक उत्तम नारियों ने मणि और स्वर्णसे बने केयूर वैसे ही  मोती के श्रेष्ठ आभूषणों से विभूषित अपने कर-कमलों द्वारा स्नान-मालिश आदि करते समय अनेक बार श्रीरामकी इस भुजा को सहलाीे, दबाती थीं॥३॥
यहां “परमनारी” श्रीराम के बचपन की धाइयों एवं परिचारिकाओं का वाचक है,जिन्होंने स्नान एवं मालिश के समय सहलाया व दबाया था।नागेश भट्टादि टीकाकार भी यही अर्थ करते हैं। वरना कौन मानेगा कि रामजी की रानियों ने उनको नहलाया और मालिश की,वो भी उनके बचपन में!क्या बचपन में ही बहुत से विवाह कर रखे थे?
हां,एक बात बताते जाइये।यदि श्रीराम की अनेक स्त्रियां थीं तो वनवास के समय केवल सीताजी को क्यों समाचार दिया? और उन्हींको साथ क्यों ले गये?एक सीता ने वन जाने के लिये इतना हठ किया,यदि ८००० रानियां थीं तो बाकी ७९९९ रानियां तो विलाप करके और वन जाने का हठ करके रामजी की जान खा जातीं।उनका कहीं वर्णन नहीं है।और यदि कई स्त्रियां थीं तो केवल एक सीता के लिये “हे सीते!”,” हाय सीते!” करते क्यों फिरे और रावण से दुश्मनी करली? इतना जोखिम उठाने की जगह खाली हाथ लौट जाते। ८००० में से एक गई तो कौन सा तूफान आ गया? कई सुंदर स्त्रियां रही होंगी,उनमें से एक को मुख्य महिषी बना देते!
  पाठकगण! सिद्ध है कि श्रीराम एकपत्नीकव्रत थे।यहां तक कि *”उत्तरकांड का प्रणेता प्रक्षेप कर्ता भी उनको एकपत्नीकव्रत मानता है।उत्तरकांड लेखक भी मानता है कि श्रीराम ने सीता त्याग के बाद सीता की जगह किसी और को रानी नहीं बनाया,अपितु सीताजी की स्वर्ण प्रतिमाओं का यज्ञ में प्रयोग किया।
श्रीराम आपकी तरह एक से अधिक विवाह करने वाले न थे।जितेंद्रिय एवं संयमी थे।(पेरियार की दो पत्नियां थीं)।
हम पेरियार मंडली को डबल चैलेंज देते हैं कि सीताजी के अलावा वाल्मीकीय रामायण में से रामजी की किसी और पत्नी का नाम भी निकालकर दिखावें अन्यथा मुंह काला करके चुल्लू भर पानी में डूब मरें।
ऐसे इंद्रियविजयी पर विलासी होने का आक्षेप लगाना मानसिक दिवालियापन,हठ और धूर्तपना है।
*अतिरिक्त प्रमाण*:-
श्रीराम के एकपत्नीकव्रत पर कुछ अन्य साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं:-
१:-उत्तरकांड का प्रणेता और मिलावट कर्ता भी श्रीराम को एकपत्नीकव्रत ही मानता है:-
इष्टयज्ञो नरपतिः पुत्रद्वयसमन्वितः ॥ ७ ॥
न सीतायाः परां भार्यां वव्रे स रघुनन्दनः ।
यज्ञे यज्ञे च पत्‍न्यौर्थं जानकी काञ्चनी भवत् ॥ ८ ॥
यज्ञ पूरा करके रघुनंदन राजा श्रीराम अपने दोनों पुत्रों के साथ रहने लगे।उन्होंने सीता के अतिरिक्त दूसरी किसी भी स्त्रीसे विवाह नहीं किया। प्रत्येक यज्ञमें जब भी धर्मपत्‍नीकी आवश्यकता होती श्रीरघुनाथ सीताकी सुवर्णमयी प्रतिमा बनाकर उसका प्रयोग करते थे ॥७-८॥(उत्तरकांड सर्ग ७७)
२:-आनंदरामायण विलासखंड ७ “अन्य सीतां विनाSन्या स्त्री कौशल्या सदृशी मम। न क्रियते परा पत्नी मनसाSपि न चिंतये।।”
श्रीराम कहते हैं कि सीता को छोड़कर सारी स्त्रियां मेरे लिये मां कौसल्या के समान है।किसी और को पत्नी करना तो दूर,मैं पराई स्त्री के बारे में चिंतन तक नहीं कर सकता।
३:- रामाभिराम टीकाकार श्रीनागेश भट्ट ने अयोध्याकांड ८/१२ में परमा स्त्रियः का यह अर्थ किया है:-
“स्त्रियः इति बहुचनेन सीतासख्या इत्यर्थः” अर्थात् परम स्त्रियों का तात्पर्य सीता जी की सखियों आदि से है।
४:- युद्ध कांड २१/३ का अर्थ श्रीनागेश भट्ट ने में परमनारियों का अर्थ एकपत्नीकव्रत होने से अन्य पत्नियों का अभाव माना है। यहां इसका अर्थ “भुजैरकनेधा स्नपलंकरणादिकालेsभिमृष्टम् स्पृष्टम” यानी उत्तम धाइयां श्रीराम को स्नान कराने,आभूषण धारण कराने आदि के समय अपनी दिव्य तथा अलंकृत भुजाओं से उनकी भुजा का स्पर्श करती थीं,इससे है सिद्ध है कि श्रीराम की सीताजी के सिवा और कोई पत्नी न थीं।
५:
इस विषय पर अभी इतना ही पर्याप्त है।
*आक्षेप-११-* यद्यपि राम के प्रति कैकई का प्रेम संदेह युक्त नहीं था किंतु राम का प्रेम कैकेयी के प्रति बनावटी था।
*आक्षेप-१२-* राम कहकर के प्रति स्वाभाविक एवं सच्चा होने का बहाना करता रहा और अंत में उसने कहकर पर दुष्ट स्त्री होने का आरोप लगाया। अयोध्याकांड ३१,५३
*आक्षेप-१३-* यद्यपि कैकेई दुष्टतापूर्ण पूर्ण तथा नीच विचारों से रहते थे तथापि राम ने उस पर दोषारोपण किया कि वह मेरी माता के साथ नीचता का व्यवहार कर सकती है। (अयोध्या कांड ३१,५३)
*आक्षेप-१४-* राम ने कहा कि कैकेयी ही मेरे बाप को मरवा सकती है इस प्रकार उसने कैकई पर दोषारोपण किया।(अयोध्याकांड ५३)
इस पर ललई सिंह ने स्पष्टीकरण किया है:-
१:-अयोध्याकांड सर्ग ३१/१३,१७ देकर आपने लिखा है कि -“राजा अश्वपति की पुत्री के के राज्य कर अपने दुखिया सौतों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करेगी।”
(सा हि राज्यमिदं प्राप्य नृपस्याश्वपतेः सुता ।
दुःखितानां सपत्‍नीनां न करिष्यति शोभनम् ॥ १३ ॥ )[नोट:-ललई जी ने संस्कृत श्लोक नहीं दिया है,यह हम ही हर जगह प्रस्तुत कर रहे हैं।]
२:- अयोध्याकांड ५३/६,७,१४ का प्रमाण देकर लिखा है कि श्रीराम के अनुसार कैकेयी उनके पिता को मरवा देगी,पूरा राज्य हस्तगत कर लेगी इत्यादि।
*समीक्षा-* १:-महाशय आप इस सर्ग का अवलोकन करेंगे तो आपको ज्ञात होगा कि लक्ष्मण श्री राम और सीता का संवाद सुन लेते हैं और श्रीराम से वनवास जाने का आग्रह करते हैं परंतु राम जी उनको कई प्रकार से मनाने की कोशिश करते हैं परंतु अंततः उन्हें लक्ष्मण को साथ वन में जाने की आज्ञा देनी पड़ी।राम लक्ष्मण को अयोध्या में ही रहकर सुमित्रा ,कौशल्या, पिता दशरथ आदि की सेवा के लिए नियुक्त करना चाहते हैं। यह श्लोक श्रीराम ने लक्ष्मण को अयोध्या में रोकने के लिए ही कहा था यह आवश्यक नहीं कि श्रीराम के मन में भी यही भावना थी। देखा जाए तो श्रीराम का यह कथन बिल्कुल भी अनुचित नहीं है ,क्योंकि राज्य मिल जाने के बाद कैकेई अपनी सौतों को पीड़ा पहुंचा सकती थी।मंथरा ने स्वयं कहा था कि कैकेई ने कौशल्या के साथ बहुत बार अनुचित व्यवहार किया था इसे संक्षेप में लिखकर हम कैकेई के चरित्र चित्रण में इसका विस्तार करेंगे और प्रमाणों के साथ सत्य को स्पष्ट करेंगे। फिलहाल इतना जानना चाहिए श्री राम उक्त कथन बिल्कुल भी अनुचित या गलत नहीं है। उनका कथन धरातल की सच्चाई ही प्रकट करता है।
२:- सर्ग 53 का स्पष्टीकरण हम पीछे दे चुके हैं इस सर्ग में श्रीराम ने लक्ष्मण को वापस अयोध्या लौट आने के लिए लक्ष्मण जी की बातों को दोहराया है । श्रीराम के मन में ऐसी भावनाएं नहीं थीं। इस संदर्भ में अभी इतना ही।
……..क्रमशः।
मित्रों! पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये धन्यवाद।कृपया अधिकाधिक शेयर करें। अगले लेख में आगे के आक्षेपों का उत्तर दिया जायेगा।
।।मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र की जय।।
।।योगेश्वर कृष्ण चंद्र की जय।।
।।ओ३म्।।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

वेदों में मांसाहार: गौरव आर्य

ved me mansahar

 

जी हाँ बिलकुल सही शीर्षक है मुसलमानों को अत्यंत लुभावना लगता होगा यह शीर्षक पढ़कर मुझे भी लगता है में जब भी ऐसे शीर्षक पढ़ता हूँ मुझे प्रसन्नता होती है और विश्वास बिना पढ़े पहले ही हो जाता है की अब मुझे मुसलमानों और वामियों की मुर्खता पढने को मिलेगी और यही होता है, चलिए आप भी पढ़िए और आनन्द उठाइये और सोशल मिडिया पर हर तरफ भेजिए जिससे इन मूर्खों का पर्दाफास हो सके

मांसाहार के समर्थक मुसलमान, वामपंथी और जिह्वा स्वाद के आगे बेबस हिन्दू सनातन धर्म पर मांस भक्षण का आरोप लगाते है और ऐसे ऐसे प्रमाण देते है जिनमें सच्चाई १% भी नहीं होती वेसे तो इन आरोपों में इनकी बुद्धि बिलकुल नहीं होती है क्यूंकि जो कौम भेड़चाल की आदि हो जो परजीवियों सा व्यवहार करें वह कौम दूसरों के लगाये आरोपों का ही उपयोग कर अपनी वाहवाही करवाने में लगी रहती है

 

ऐसे ही कुछ मूर्खों का पाला हमसे पड़ा जिनके आरोप पढ़कर हंसी आती है

चलिए आपको कुछ आरोप और उनके प्रति हमारे (पण्डित लेखराम वैदिक मिशन द्वारा) दिए जवाबों से आपको भी अवगत करवाते है

 

मुस्लिम:- जो लोग इस्लाम मे जानवरोँ की कुर्बानी की आलोचना करते हैं उन्हें अपने वेदों को भी पढ लेना चाहिए :-

वेदों मे मनुष्य बलि का जिक्र :-

देवा यदयज्ञ————पुरूषं पशुम।।
यजुर्वेद ( 31 / 15)
अर्थात : = देवताओं ने पुरूषमेध किया और पुरूष नामक पशु वध का किया ।

 

सनातनी:- पहले तो सच सच बताना ये अर्थ करने वाला गधा कौन था यदि भाष्य करना इतना सरल होता तो आज गल्ली गल्ली जेसे पंक्चर वाले बैठे है वेसे ही भाष्यकार बैठे होते

मुसलमानों की यही कमी है की इनका दिमाग घुटनों में होता है

देवा यद्यज्ञं आया तो मतलब देवताओं ने यज्ञ किया पुरुषं आया तो ! ओह हा पुरुषमेध यज्ञ किया, पशुम आया तो अच्छा पुरुष नाम का पशु था |

सच में तुम लोगों की मुर्खता का कोई सानी नहीं है

http://www.onlineved.com/yajur-ved/?language=2&adhyay=31&mantra=15

इस लिंक पर जाकर सही अर्थ पढो मूर्खों कही भी मनुष्य हत्या जैसी बात नहीं है

मुस्लिम:- कोई इस वेद भाष्य को गलत साबित करके दिखाए ।

सनातनी:- लो कर दिया गलत साबित जाओ कुछ नया लाओ मूर्खों

मुस्लिम:- हिंदू धर्म ग्रंथो मे एक भी धर्म ग्रंथ ऐसा नही है जहां जीव हत्या और कुर्बानी का जिक्र मौजूद ना हो पढो :-

वेद , महाभारत , मनुस्मृति, रामायण मे मांस भक्षण और जीव हत्या :-

1 जो मांस नहीं खाएगा वह 21 बार पशु योनी में पैदा होगा-मनुस्मृति (5/35)

सनातनी:- यह श्लोक प्रक्षिप्त है यानी बाद में मिलाया हुआ है मनु प्राणी मात्र की हत्या के विरोधी थे, यह मिलावट सनातन धर्म को और महाराज मनु के लिखे संविधान को समाप्त करने के उद्देश्य से किया गया वामपंथियों का काम है

 

मुस्लिम:- 2 यजुर्वेद (30/15) मे घोडे की बलि कुर्बानी की जाती थी ।

सनातनी:- पुरे मन्त्र में घोडा गधा नहीं दिखा
लगता है जाकिर नाइक के गुण आ गये है जिसे वेदों में हर जगह मोहम्मद दिखता है लिंक देखो पूरा भाष्य पदार्थ के अर्थ सहित

http://www.onlineved.com/yajur-ved/?language=2&adhyay=30&mantra=15

मुस्लिम:- रामायण मे राम और दशरथ द्वारा हिरण का शिकार और मांस भक्षण देखे 🙁 वाल्मिकी रामायण अयोध्या कांड (52/89) गीता प्रेस गोरखपुर प्रकाशन )

सनातनी:- अयोध्याकाण्ड में किसी हिरण को मारने और मांस भक्षण का प्रमाण नहीं

हाँ एक बार जंगली हाथी को मारने के प्रयास में गलती से बाण एक मनुष्य को अवश्य लगा जिसका राजा दशरथ को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने उस कर्म को अपना पाप माना और उसी पाप के फलस्वरूप उन्होंने अपना देह त्याग दिया

वास्तव में मूर्खों का सानी कोई नहीं अरे मूर्खों प्रमाण तो सही दिया करो
यह अरण्यकाण्ड के सताईसवे सर्ग में आया हुआ है और इसमें कही मांस भक्षण जैसी बात ही नहीं है वह हिरण भी मारीच राक्षष था जिसने हिरण का रूप धारण कर रखा था जैसे आजकल बहरूपिये रूप धारण करते है वेसे ही

मुस्लिम:- 3 ऋषि वामदेव ने कुत्ते का मांस खाया (मनुस्मृति 10/106)

सनातनी:- यह श्लोक भी प्रक्षिप्त है

मुस्लिम:- ऋग्वेद मे (1/162/10)

सनातनी:- http://www.onlineved.com/rig-ved/?language=2&mandal=1&sukt=162&mantra=10

मुस्लिम:- ऋग्वेद (1/162 /11) मे घोडे की कुर्बानी का जिक्र है ।

सनातनी:- http://www.onlineved.com/rig-ved/?language=2&mandal=1&sukt=162&mantra=11

 

इन दोनों मन्त्रों में कही घोडा नहीं है समझ नहीं आता है ये औरत के मुह वाले घोड़े खच्चर (मेराज) का असर तो नहीं रह गया अभी तक दिमाग में

ये लो मुसलमानों तुम्हारे बेसर पैर के घटिया आरोपों का जवाब

अब जाओं और कुछ नया लाओं जो तुम्हारे जीव हत्यारे मत की इज्जत बचा सके

सच्ची रामायण का खंडन-भाग-१९

सच्ची रामायण का खंडन-भाग-१९*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों! सच्ची रामायण की समीक्षा में १९वीं कड़ी में आपका स्वागत है।पिछली कड़ियों में हमने महाराज दशरथ पर लगे आरोपों का खंडन किया था ।अब अगले अध्याय में पेरियार साहब आराम शीर्षक से भगवान श्रीराम पर 50 से अधिक अधिक बिंदुओं द्वारा आक्षेप किए हैं। अधिकांश बिंदुओं का शब्द प्रमाण ललई सिंह ने “सच्ची रामायण की चाभी” में दिया है परंतु प्रारंभिक छः बिंदुओं का कोई स्पष्टीकरण उन्होंने नहीं दिया अब भगवान श्री राम पर लगे आक्षेपों का खंडन प्रारंभ करते हैं पाठक हमारे उत्तरों को पढ़ कर आनंद लें:-
            *भगवान श्रीराम पर किये आक्षेपों का खंडन*
पेरियार साहब कहते हैं,”अब हमें राम और उसके चरित्र के विषय में विचार करना चाहिए।”
हम भी देखते हैं कि आप क्या खुराफात करते हैं भगवान श्रीराम के चरित्र संबंधी बिंदुओं का उल्लेख हम पीछे कर चुके हैं अब आपकी आक्षेपों को भी देख लेते हैं और उनकी परीक्षा भी कर लेते हैं।
*आक्षेप-१-* राम इस बात को भली भांति जानता था कि, कैकई के विवाह के पूर्व ही अयोध्या का राज्य के कई को सौंप दिया गया था यह बात स्वयं राम ने भरत को बताई थी।(अयोध्याकांड १०७)
*समीक्षा-* हम दशरथ के प्रकरण के प्रथम बिंदु के उत्तर में ही सिद्ध कर चुके हैं कि आप का यह दिया हुआ श्लोक प्रक्षिप्त है अतः इसका प्रमाण नहीं माना जा सकता। श्रीराम जेष्ठ पुत्र होने के कारण ही राजगद्दी के अधिकारी थे।
इस रिश्ते में हम पहले ही स्पष्टीकरण दे चुके हैं।
*आक्षेप-२-* राम को अपने पिता ,कैकई व प्रजा के प्रति सर्वप्रिय व्यवहार अच्छा स्वभाव एवं शील केवल राजगद्दी की अन्याय से छीन लेने के लिए दिखावटी था ।इस प्रकार राम सब की आस्तीन का सांप बना हुआ था।
*समीक्षा-* जरा अपनी बात का प्रमाण तो दिया होता वाह महाराज! यदि श्रीराम का शील स्वभाव सद्व्यवहार बनावटी था तो ,महर्षि वाल्मीकि ने उनका जीवन चरित्र रामायण के रूप में क्यों लिखा? हम पहले भरपूर प्रमाण दे चुके हैं कि श्री राम के मर्यादा युक्त चरित्र को आदर्श मानकर उसका अनुसरण करने के लिए ही रामायण की रचना की गई है। आता आपका उन्मत्त प्रलाप बिना प्रमाण की खारिज करने योग्य है। श्रीराम को अन्याय से राजगद्दी छीनने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी; ज्येष्ठ पुत्र होनअस्तु।
ारण, प्रजा राजा ,मंत्रिमंडल एवं जनपद राजाओं की सम्मति से ही वे राजगद्दी के सच्चे अधिकारी थे। कहिए महाशय यदि उनका शील स्वभाव केवल राजगद्दी के लिए ही था तो वह 14 वर्ष के वनवास में क्यों गए? यदि उनका स्वभाव झूठा था तो अयोध्या के वासी उनके पीछे-पीछे उन्हें वन जाने से रोकने के लिए क्यों गए? यदि उन्हें राज्य प्राप्त करने की ही लिप्सा थी, महाराज दशरथ के कहने पर कि “तुम मुझे बंदी बनाकर राजगद्दी पर अपना अधिकार जमा लो” रामजी ने ऐसा क्यों नहीं किया? आस्तीन  का सांप! मिथ्या आरोप लगाते हुए शर्म तो नहीं आती !ज़रा प्रमाण तो दिया होता जिससे रामजी आस्तीन के सांप सिद्ध होते! आस्तीन का सांप भला प्रजा,मंत्रिमंडल तथा माताओं,जनपद सामंतों का प्यारा कैसे हो सकता है? आपका आंख से बिना प्रमाण के व्यर्थ है।
*आक्षेप-३-* भरत की अनुपस्थिति में अपने पिता द्वारा राजगद्दी के मिलने के प्रपंचों से राम स्वयं संतुष्ट था।
*समीक्षा-* यह बात सर्वथा झूठ है। श्रीराम को राजगद्दी देने में कोई प्रपंच नहीं किया गया उल्टा मूर्खतापूर्ण वरदान मांग कर कैकेयी ने प्रपंच रचा था। ज्येष्ठ पुत्र होने से श्रीराम सर्वथा राज्य के अधिकारी थे और भारत को राजगद्दी मिले ऐसा कोई वचन दिया नहीं गया था- यह हम सिद्ध कर चुके हैं। श्रीराम संतुष्ट इसीलिए थे क्योंकि महाराज की आज्ञा से उनका राज तिलक किया जाना था। राजतिलक की घोषणा और वनवास जाते समय दोनों ही स्थितियों में श्रीराम के मुख मंडल पर कोई फर्क नहीं पड़ा। श्रीराम वीत राग मनुष्य थे। उनको राज्य मिले या ना मिले दोनों ही स्थितियों में वे समान थे। भरत की अनुपस्थिति के विषय में हम पहले स्पष्टीकरण दे चुके हैं। श्री राम बड़े भाई थे और उन के बाद भरत को राजगद्दी मिलनी थी मनुष्य परिस्थितिवश कुछ भी कर सकता है और फिर भरत की माता कैकेई के स्वभाव को जानकर दशरथ यह जानते थे कि वह श्रीराम के राज्याभिषेक मैं अवश्य कोई विघ्न खड़ा करेगी और भारत के लिए राजगद्दी की मांग करेगी, भले ही यह भारत की इच्छा के विरुद्ध ही क्यों न हो। अस्तु।
*आक्षेप-४-* कहीं ऐसा ना हो कि राजगद्दी मिलने के मेरे सौभाग्य के कारण लक्ष्मण मुझसे ईर्ष्या तथा द्वेष करने लगे इस बात से हटकर राम ने लक्ष्मण को खासकर उससे मीठी-मीठी बातें कह कर उससे कहा कि-” मैं केवल तुम्हारे लिए राजगद्दी ले रहा हूं किंतु अयोध्या का राज्य वास्तव में तुम ही करोगे ।”अतः मैं राजा बन जाने के बाद राम ने लक्ष्मण से राजगद्दी के विषय में कोई संबंध नहीं रखा। (अयोध्याकांड ४ अध्याय)
*समीक्षा-* यह बात सत्य है कि श्रीराम ने उपरोक्त बात कही थी परंतु इसका यह अर्थ नहीं की उसके बाद उनका भ्रातृ प्रेम कम हो गया था। आप ने रामायण पढ़ी ही नहीं है और ऐसे ही मन माने आक्षेप जड़ दिए। श्री राम केवल अपने लिए नहीं बल्कि अपने बंधु-बांधवों के लिए ही राजगद्दी चाहते थे। लीजिये प्रमाणों का अवलोकन कीजिए:-
लक्ष्मणेमां मया सार्द्धं प्रशाधि त्वं वसुंधराम् ।
द्वितीयं मेंऽतरात्मानं त्वामियं श्रीरुपस्थिता ॥ ४३ ॥
‘लक्ष्मण ! तुम मेरे साथ इस पृथ्वीके राज्यका शासन (पालन) करो।तुम मेरे द्वितीय अंतरात्मा हो। ये राजलक्ष्मी तुमको ही प्राप्त हो रही है ॥४३॥
सौमित्रे भुङ्‍क्ष्व भोगांस्त्वमिष्टान् राज्यफलानि च ।
जीवितं चापि राज्यं च त्वदर्थमभिकामये ॥ ४४ ॥
‘सुमित्रानंदन ! (सौमित्र !) तुम अभीष्ट भोग और राज्यका श्रेष्ठ फल का उपभोग करो। तुम्हारे लिये ही मैं जीवन कीतथा राज्यकी अभिलाषा करता हूं” ॥४४॥(अयोध्याकांड सर्ग ४)
 श्रीराम का लक्ष्मण जी के प्रति प्रेम देखिये:-
स्निग्धो धर्मरतो धीरः सततं सत्पथे स्थितः ।
प्रियः प्राणसमो वश्यो विजयेश्च सखा च मे ॥ १० ॥
‘लक्ष्मण ! तुम मेरे स्नेही, धर्म परायण, धीर-वीर तथा सदा सन्मार्गमें स्थित रहनेवाले हो। मुझे प्राणों के समान प्रिय तथा मेरे वश में रहने वाले, आज्ञापालक और मेरे सखा हो॥१०॥(अयोध्याकांड सर्ग ३१)
आपने कहा इसके बाद श्रीराम ने इस विषय का उल्लेख ही नहीं किया,जो सर्वथा अशुद्ध है,देखिये:-
धर्ममर्थं च कामं च पृथिवीं चापि लक्ष्मण ।
इच्छामि भवतामर्थे एतत् प्रतिश्रृणोमि ते ॥ ५ ॥
’लक्ष्मण ! मैं तुमको प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूं कि धर्म, अर्थ काम और पृथ्वीका राज्यभी मैं तुम्ही लोगों के लिये ही चाहता हूं ॥ ५ ॥
भ्रातॄणां सङ्ग्रहार्थं च सुखार्थं चापि लक्ष्मण ।
राज्यमप्यहमिच्छामि सत्येनायुधमालभे ॥ ६ ॥
’लक्ष्मण ! मैं भाइयों के संग्रह और सुख के लिये ही राज्यकी इच्छा करता हूं और यह बात सत्य है इसके लिये मैं अपने धनुष को स्पर्श करके शपथ लेता हूं॥ ६ ॥(अयोध्याकांड सर्ग ९७)
श्रीरामचंद्र ने रावणवध के बाद अयोध्या लौटकर अपने भाइयों सहित राज्य किया,देखिये:-
सर्वे लक्षणसम्पन्नाः सर्वे धर्मपरायणाः ।
दशवर्षसहस्राणि रामो राज्यमकारयत् ॥ १०६॥
भाइयोंसहित श्रीमान्‌ रामजी ने ग्यारह सहस्र(यहां सहस्र का अर्थ एक दिन से है,यानी =लगभग तीस ) वर्षोंतक राज्य किया ॥१०६॥(युद्धकांड सर्ग ११८)
 अब हुई संतुष्टि?अब तो सिद्ध हो गया कि श्रीराम की प्रतिज्ञा कि ,”मैं अपने भाइयों के लि़े ही राज्य कर रहा हूं,दरअसल लक्ष्मण सहित वे ही राज करेंगे” सर्वथा सत्य है और आपका आक्षेप बिलकुल निराधार ।
*आक्षेप-५-* राज तिलकोत्सव सफलतापूर्वक संपन्न हो जाने में राम के हृदय में आद्योपांत संदेह भरा रहा था।
*समीक्षा-* श्रीराम के हृदय में राज तिलक उत्सव सफलतापूर्वक हो जाने में संदेश भरा था-इसका उल्लेख रामायण में कहीं नहीं है। आपको प्रमाण देकर प्रश्न करना था ।बिना प्रमाण लिए आपका आपसे निराधार है ।यदि श्रीराम के मन में संदेह था वह भी इससे उन पर क्या अक्षेप आता है?
*आक्षेप-६-* जब दशरथ ने राम से कहा कि राजतिलक तुम्हें न किया जायेगा,तुम्हें वनवास जाना पड़ेगा -तब राम ने गुप्त रुप से शोक प्रकट किया था।(अयोध्याकांड अध्याय १९)
*समीक्षा-* झूठ ,झूठ ,झूठ !!एक दम सफेद झूठ बोलते हुए आपको लज्जा नहीं आती? अध्याय यानी सर्ग(१३)का पता लिखने के बाद भी आप की कही हुई बात वहां बिल्कुल भी विद्यमान नहीं है।वनवास जाने की बात महाराज दशरथ ने श्रीराम को प्रत्यक्ष नहीं कही थी, अपितु कैकेई के मुंह से उन्हें इस बात का पता चला था और मैं तुरंत वनवास जाने के लिए तैयार हो गए थे।
उस समय श्रीराम ने कोई शोक प्रकट नहीं किया,अपितु वीतराग योगियों की भांति उनके चेहरे पर शमभाव था,देखिये प्रमाण:-
न चास्य महतीं लक्ष्मीं राज्यनाशोऽपकर्षति ।
लोककान्तस्य कान्तत्वाच्छीतरश्मेरिव क्षयः ॥ ३२ ॥
श्रीराम अविनाशी कांतिसेे युक्त थे इसलिये उस समय राज्य न मिलने के कारण उन लोककमनीय श्रीरामकी महान शोभा में कोई भी अंतर पड़ नहीं सका।जिस प्रकार चंद्रमाके क्षीण होने से उसकी सहज शोभाका अपकर्ष नहीं हो ॥३२॥
न वनं गन्तुकामस्य त्यजतश्च वसुंधराम् ।
सर्वलोकातिगस्येव लक्ष्यते चित्तविक्रिया ॥ ३३ ॥
वे वन में जाने के लिये उत्सुक थे और सारी पृथ्वीके राज्य त्याग रहे थे, फिर भी उनके चित्तमें सर्वलोक से जीवन्मुक्त महात्मा के समान कोई भी विकार दिखाई नहीं दिया ॥३३॥(अयोध्याकांड सर्ग १९)
देखा हर राज्य मिले या नहीं, परंतुश्री राम की शोभा में कोई फर्क नहीं था।उनको बिलकुल शोक नहीं हुआ था।सर्ग का पता लिखकर भी ऐसा सफेद झूठ लिखना भी एकदम वीरता है।पेरियार साहब ने जनता की आंख में धूल झोंकने की कोशिश की है।
…………क्रमशः ।
पाठक महाशय!पूरा लेख पढ़ने के लिये धन्यवाद।कृपया अधिकाधिक शेयर करें। अगले लेख में आगे के ७ आक्षेपों का उत्तर लिखा जायेगा।आपके समर्थन के लिये हम आपके आभारी हैं।
।।मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र कीजय।।
।।योगेश्वर श्रीकृष्ण चंद्रकी जय।।
।।ओ३म्।।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

सच्ची रामायण का खंडन-भाग-१८

*सच्ची रामायण का खंडन-भाग-१८*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों! पेरियार के खंडन में आगे बढ़ते हैं।महाराज दशरथ पर किये आक्षेपों की कड़ी में यह अंतिम लेख है।
गतांक से आगे-
*प्रश्न-१४-* राम वन जाने के पहले दशरथ अपनी प्रजा और ऋषियों की अनुमति ज्ञात कर चुका था कि राम वन को ना जावे फिर भी उससे दूसरों की चिंता किए बिना राम को वनवास भेज दिया ।यह दूसरों की इच्छा का अपमान करना तथा  घमंड है।
*समीक्षा-* *आपके तो दोनों हाथों में लड्डू है!* यदि श्री राम वन में चले जाएं तो आप कहेंगे कि दशरथ में प्रजा और ऋषियों का अपमान किया ;यदि यदि वह मन में ना जाए तो आप कह देंगे कि दशरथ ने अपने वचन पूरे नहीं किए ।बहुत खूब साहब चित भी आपकी और पट भी आपकी!
महोदय, महाराज दशरथ कैकई को वरदान दे चुके थे और अपने पिता के वचन को सत्य सिद्ध करने के लिए श्री राम का वन में जाना अवश्यंभावी था। सत्य कहें,तो उनके मन जाने में राक्षसों का नाश करना ही प्रमुख उद्देश्य था, क्योंकि कई ऋषि मुनि उनके पास आकर राक्षसों द्वारा किए गए अत्याचारों का वर्णन करते थे। इस तरह ऋषियों का कार्य सिद्ध करने और अपने पिता की आज्ञा सत्य सिद्ध करने के लिए वे वन को गए। वे अपने पिता की आज्ञा का पालन करना ही परम धर्म मानते थे।
*न ह्यतो धर्मचरणं किंचिदस्ति महत्तरम्।*
*यथा पितरि शुश्रूषा तस्य वा वचनक्रिया।।*
(अयोध्याकांड सर्ग १९ श्लोक २२)
*अर्थात्-* “जैसी पिता की सेवा और उनकी आज्ञा का पालन करना है, इससे बढ़कर संसार में दूसरा कोई धर्म नहीं है।”
 और बीच में चाहे उन्हें रोकने के लिए पर जो भी आए चाहे वह प्रजा या  ऋषि मुनि ही क्यों न हो,वे अपनी प्रतिज्ञा से कभी भी नहीं डिग सकते थे।
क्योंकि *रामो द्विर्नभाषते*-अर्थात्-राम दो बातें नहीं बोलते,यानी एक बार कही बात पर ढृढ रहते थे।
 रघुकुल की रीति थी कि भले ही प्राण चले जाएं, परंतु दिया हुआ वचन मिथ्या नहीं होना चाहिए। अपनी कुल परंपरा को बचाने के लिए राज्य त्यागकर वनवास जाना अत्यंत आवश्यक था। यह श्रीराम का पितृ धर्म है ,और धर्म का अनुसरण करने के लिए  किसी के रोके रुकना नहीं चाहिए।
यह गलत है कि महाराज दशरथ ने प्रजाजनों और ऋषि यों का घमंड के कारण अपमान करके श्रीराम को वनवास भेज दिया ।महाराज दशरथ तो श्रीराम से यह कह चुके थे कि,” तुम मुझे गद्दी से उतार कर राजा बन जाओ” परंतु उन्होंने तो दिल पर पत्थर रखकर उन्हें वन को जाने की आज्ञा दी।  इसको अहंकार या घमंड के कारण नहीं अपितु ऋषियों के कल्याण तथा अपने कुल की गरिमा की रक्षा करने के कारण वनवास देने की आज्ञा कहना अधिक उचित होगा। आपका आदेश बिना प्रमाण के निराधार और अयुक्त है।
*आक्षेप-१५-* इसीलिए अपमानित प्रजा और  ऋषियों किस विषय पर ना कोई आपत्ति  और न राम को वनवास जाने से रोका।
*समीक्षा-* या बेईमानी तेरा आसरा !झूठ बोलने की तो हद पार कर दी। पहला झूठी है कि प्रजा को अपमानित किया गया। कोई प्रमाण तो दिया होता कि प्रजा को अपमानित किया गया।दूसरा झूठ है कि किसी ने श्री राम को वनवास जाने से नहीं रोका। श्रीमान!जब श्री राम वनवास जा रहे थे तब केवल प्रजा और ऋषि मुनि ही नहीं अपितु पशु-पक्षी भी उनके साथ वन की ओर चल पड़े। जब श्री रामचंद्र जीवन में जाने लगे तब प्रजा के अधिकांश लोग प्रेम में पागल होकर उनके पीछे-पीछे चल पड़े। भगवान श्रीराम ने बहुत कुछ अनुनय-विनय की; किंतु चेष्टा करने पर भी वह प्रजा को ना लौटा सके ।आखिर उन्हें सोते हुए छोड़कर ही श्री राम को वन में जाना पड़ा। उनके लिए श्रीराम का वियोग असहनीय था ।लीजिए, कुछ प्रमाणों का अवलोकन कीजिये-
अनुरक्ता महात्मानं रामं सत्यपराक्रमम् ।
अनुजग्मुः प्रयान्तं तं वनवासाय मानवाः ॥ १ ॥
यहां  सत्यपराक्रमी महात्मा श्रीराम जब वन की ओर जाने लगे  तब उनके प्रति अनुराग रखने वाले कई अयोध्यावासी (नागरिक) वन में निवास करने के लिये उनके  पीछे-पीछे चलने लगे ॥१॥
निवर्तितेतीव बलात् सुहृद्‌धर्मेण राजनि ।
नैव ते सन्न्यवर्तंत रामस्यानुगता रथम् ॥ २ ॥
‘जिनके संबंधियों की जल्दी लौटने की कामना की जाती है उन स्वजनों को दूरतक पहुंचाने के लिये नहीं जाना चाहिये’ – इत्यादि रूप से बताने के बाद सुहृद धर्म के अनुसार जिस समय दशरथ राजा को बलपूर्वक पीछे किया गया उसी समय श्रीरामाके रथके पीछे-पीछे भागने वाले वे अयोध्यावासी मात्र अपने घरों की ओर न लौटे ॥२॥
अयोध्यानिलयानां हि पुरुषाणां महायशाः ।
बभूव गुणसम्पन्नः पूर्णचंद्र इव प्रियः ॥ ३ ॥
क्योंकि अयोध्यावासी पुरुषों के लिये सद्‌गुण संपन्न महायशस्वी राम पूर्ण चंद्राके समान प्रिय हो गये थे ॥३॥
स याच्यमानः काकुत्स्थस्ताभिः प्रकृतिभिस्तदा ।
कुर्वाणः पितरं सत्यं वनमेवान्वपद्यत ॥ ४ ॥
उन प्रजाजनों ने रामजी घर वापस आवे इसलिये खूब प्रार्थना की परंतु वे पिताके सत्यकी रक्षा करनेके लिये वनकी ओर आगे-आगेे जाते रहे ॥४॥(अयोध्याकांड सर्ग ४५)
किंतु श्रीराम ने सबको लौटै दिया फिर भी कुछ वृद्ध ब्राह्मण उनके पीछे-पीछे तमसा नदी के तट तक चले आयो।(देखिये यही सर्ग,श्लोक १३-३१)
अयोध्याकांड सर्ग ४६ में वर्णन है कि श्रीराम ने रात को सोते हुये अयोध्यावासियों को वहीं छोड़कर सुमंत्र की सहायता से आगे वन की ओर प्रस्थान किया।
देखिये,
यथैते नियमं पौराः कुर्वन्त्यस्मन्निवर्तने ।
अपि प्राणान् न्यसिष्यन्ति न तु त्यक्ष्यन्ति निश्चयम् ॥ २० ॥
यावदेव तु संसुप्तास्तावदेव वयं लघु ।
रथमारुह्य गच्छामः पन्थानमकुतोभयम् ॥ २१ ॥
अतो भूयोऽपि नेदानीमिक्ष्वाकुपुरवासिनः ।
स्वपेयुरनुरक्ता मा वृक्षमूलेषु संश्रिताः ॥ २२ ।।
अतः आप का कहना कि अयोध्या की प्रजा ने श्री राम को वनवास से रोकने की कोई कोशिश नहीं की सर्वता अज्ञान का द्योतक है।
*आक्षेप-१६-* राम अपनी उत्पत्ति तथा दशरथ द्वारा भारत को राजगद्दी देने के के के के प्रति किए गए वचनों को भली भांति जानता था तथापि यह बात बिना अपने पिता को बताएं मौन रहा और राज गद्दी का इच्छुक बना था।
*आक्षेप-१७-* इसका सार है कि महाराज दशरथ का मानना था कि भारत के ननिहाल से लौटने के पहले श्री राम का राज्यभिषेक हो जाना चाहिए। इस प्रकार भारत को अपना उचित अधिकार प्राप्त करने में धोखा दिया गया और चुपके से राम को रास्ते अलग करने का निश्चय किया गया राम ने भी इस षड्यंत्र को चुपचाप स्वीकार कर लिया।
*समीक्षा-* हम पहले आक्षेप के उत्तर में यह सिद्ध कर चुके हैं कि भारत को राजगद्दी देने का वचन पूर्ण रुप से मिलावट  और असत्य है। श्री राम राज गद्दी के इच्छुक नहीं थे ,अपितु ज्येष्ठ पुत्र होने से वे उसके सच्चे अधिकारी थे।
 महाराज दशरथ के उपर्युक्त कथन के बारे में भी हम स्पष्टीकरण दे चुके हैं। सार यह है कि श्री राम को राजगद्दी देने का कोई षड्यंत्र रचा नहीं गया उल्टा कैकेयी ने ही नहीं अपने वरदान से रघुवंश की परंपरा और जनता की इच्छा के विरुद्ध मांगकर षड्यंत्र रचा। इस विषय पर अधिक लिखना व्यर्थ है।
*आक्षेप-१८-* जनक को आमंत्रण न दिया गया था- क्योंकि कदाचित भारत को राजगद्दी दे दी जाती तो राम के राज्याधिकार होने से वह असंतुष्ट हो जाता।
*समीक्षा-* क्योंकि दशरथ ने कैकई के पिता को कोई वचन दिया ही नहीं था, इसलिए जनक भी यह जानते थे कि श्री राम ही सच्चे राज्य अधिकारी हैं। हां यह ठीक है कि कैकई के मूर्खतापूर्ण वरदान के कारण श्री राम के वनवास जाने का तथा भरत के राज्य मिलने का वह अवश्य विरोध करते। जरा बताइए कि जनक को न बुलाने का कारण आपने कहां से आविष्कृत कर लिया?रामायण में तो इसका उल्लेख ही नहीं है। हमारे मत में,संभवतः महाराज जनक का राज्य बहुत दूर होगा वहां तक पहुंचने में समय लगता होगा और अगले ही दिन पुष्य नक्षत्र में राज्य अभिषेक किया जाना था। इसीलिए शायद उन्हें निमंत्रण न दिया गया हो क्योंकि वे परिवार के ही सदस्य थे। आमतौर पर परिवार के सदस्यों को प्रायः निमंत्रण नहीं दिया जाता क्योंकि यह मान लिया जाता है कि उनको पीछे से शुभ समाचार मिल ही जाएगा। जो भी हो, किंतु आप का दिया हुआ है तू बिलकुल अशुद्ध है, क्योंकि हम वचन वाली बात को मिथ्या सिद्ध कर चुके हैं।अस्तु।
*आक्षेप-१९-* कैकेई के पिता को निमंत्रण दिया गया था क्योंकि भारत के प्रति किए गए वचनों को न मानकर यदि राजगद्दी दे दी जाती  तो वह नाराज हो जाता।
*समीक्षा-* हम पहले ही वचन वाली बात को मिथ्या सिद्ध कर चुके हैं इसलिए कैकेई के पिता कैकयराज अश्वपति को निमंत्रण न देने के विचार में यह हेतु देना सर्वथा गलत है। क्या यह बात आपकी कपोलकल्पित नहीं है? दरअसल कैकय देश अयोध्या से बहुत दूर था। आप जब संदेशवाहक का भरत को महाराज दशरथ की मृत्यु की सूचना देते समय उसके मार्ग का वर्णन पढ़ेंगे, तो आपको स्वतः ज्ञात हो जाएगा। मार्ग में कई पर्वतों और नदियों का भी वर्णन है ।वहां तक तो पहुंचने में बहुत समय लगता था ।कब निमंत्रण दिया और जाता कब कैकयराज आते ,इतने में तो राज्याभिषेक का समय ही बीत जाता।रघुकुल की परंपरा  और तब समय की अनुकूलता थी कि पुष्य नक्षत्र में ही श्रीराम का राज्याभिषेक होना था। साथ ही महाराज दशरथ अत्यंत वृद्ध हो गए थे,उनका जीवन अनिश्चित था।शत्रुपक्ष के राज्यों से युद्ध का भाई भी उपस्थित था।ऐसे में राज्य में अराजकता फैलने का भय था। इसलिए श्री राम का जल्दी राजा बनना अत्यंत आवश्यक एवं राष्ट्र के लिए भी जरुरी था। अतः कैकयराज को निमंत्रण दिए बिना ही अभिषेक संपन्न करने का निश्चय किया गया यह सोच लिया गया कि उनको यह शुभ समाचार पीछे से प्राप्त हो जाएगा।कारण चाहे जो भी हो परंतु आप का दिया कारण कपोल कल्पित और अमान्य है।
*आक्षेप-२०-* उपरोक्त कारणों से अन्य राजाओं को भी राम राज तिलकोत्सव में  नहीं बुलाया गया था। कैकई मंथरा के कार्य तथा अधिकारों के विषय में पर्याप्त तर्क हैं। बिना इस पर विचार किये कैकेयी आदि पर दोषारोपण करना तथा गाली देना न्याय संगत नहीं है।
*समीक्षा-* “राम राज्य अभिषेक में अन्य राजाओं को नहीं बुलाया गया-“यह बात आपने वाल्मीकि रामायण पढ़ कर लिखी है या फिर ऐसे ही लिख मारी? हमें तो आपके तर्क पढ़कर ऐसा लगता है कि आपने तो अपने जीवन में वाल्मीकि रामायण के दर्शन तक।देखिये ,अयोध्याकांड सर्ग-१
नानानगरवास्तव्यान् पृथग्जानपदानपि ।
समानिनाय मेदिन्यां प्रधानान् पृथिवीपतिः ॥ ४६ ॥
नाना नगरों के प्रधान-प्रधान राजाओं को सम्मान के साथ बुलाया गया॥४६॥
तान् वेश्मनानाभरणैर्यथार्हं प्रतिपूजितान् ।
ददर्शालंकृतो राजा प्रजापतिरिव प्रजाः ॥ ४७ ॥
उन सबके रहने के लिये आवास देकर नाना प्रकारके आभूषणों द्वारा उनका यथायोग्य सत्कार किया गया। तब स्वतः ही अलंकृत होकर राजा दशरथ उन सबसे, प्रजापति ब्रह्मदेव जिस प्रकार प्रजावर्ग से मिलते हैं,उसी प्रकार मिले॥४७॥
न तु केकयराजानं जनकं वा नराधिपः ।
त्वरया चानयामास पश्चात्तौ श्रोष्यतः प्रियम् ॥ ४८ ॥
कैकयराज और राजा जनक को निमंत्रण नहीं दिया गया,यह जानकर कि उनको शुभसमाचार पीछे मिल ही जायेगा।।४८।।
इन्हीं राजाओं से भरी राज्यसभा में राम राज्याभिषेक की घोषणा की गई और इसके अगले दिन ही सब राजा अभिषेक में अपनी उपस्थिती दर्ज करने के लिये मौजूद थे।कहिये श्रीमान,अब तसल्ली हो गई?
कैकेयी और मंथरा का कृत्य न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता।मंथरा ने कैकेयी को उसके धरोहर रूप रखे वरदानों का दुरुपयोग करने की पट्टी पढ़ाई और कैकेयी ने प्रजा और परंपरा के विरुद्ध वरदान मांगे।
ऐसे मूर्खतापूर्ण, जनादेशविरोधी और परंपराभंजक वरदान मांगने वाले तथा इस कारण से राजा दशरथ को पुत्रवियोग का दुख देने वालों को बुरा-भला कहकर दशरथ, प्रजा और मंत्रियों ने कुछ गलत नहीं किया।यद्यपि किसी को कोसना सही नहीं है,तथापि उन्होंने उनको कोसकर कोई महापाप न किया।
*।।महाराज दशरथ पर लगे आक्षेपों का उत्तर समाप्त हुआ।।*
पाठक मित्रों!हमने महाराज दशरथ पर किये आक्षेपों का युक्तियुक्त खंडन कर दिया है।आपने देखा कि पेरियार ने किस तरह बेसिर-पैर के अनर्गल आरोप दशरथ पर लगाये।कहीं झूठ का सहारा लिया,कहीं तथ्यों तोड़ा-मरोड़ा।कहीं अपने जैसे मिथ्यीवादी साक्षियों को उद्धृत किया कहीं सुनी-सुनाई बातों से गप्पें जड़ दी।”येन-केन प्रकारेण कुर्यात् सर्वस्व खंडनम्”-के आधार पर महाराज दशरथ पर आक्षेप करने का प्रयास किया,पर सफल न हो सके।इससे सिद्ध है कि महाराज दशरथ पर किये सारे आक्षेप मिथ्या और अनर्गल प्रलाप है।
मित्रों!यहां महाराज दशरथ का प्रकरण समाप्त हुआ।अगले लेखों की श्रृंखला में भगवान श्रीराम पर “राम” नामक शीर्षक से किये गये आक्षेपों का खंडन कार्य आरंभ किया जायेगा।ललई सिंह यादव ने पेरियार के स्पष्टीकरण में जो प्रमाण दिये हैं,साथ ही साथ उनकी भी परीक्षा की जायेगी।पूरा लेख पढ़ने के लिये धन्यवाद।
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।।मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र की जय।।
।।योगेश्वर श्रीकृष्ण चंद्रकी जय।।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

सच्ची रामयण का खंडन भाग-१७

सच्ची रामयण का खंडन भाग-१७*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों! आगे पेरियार साहब के साक्षी आयंगर साहब के आक्षेपों का उत्तर गतांक से आगे-
*आक्षेप-२१-प्रश्न-७-* इन पापों ने दशरथ द्वारा भारत को गति देने के असंभव वचनों को निरस्त कर दिया।
*समीक्षा-* कृपया बताइए कि महाराज दशरथ ने कौन से पाप कर दिए ? क्या कह कई को इनाम के रूप में वरदान देना पाप है ? क्या कहती का परंपरा के विरुद्ध मूर्खतापूर्ण और स्वार्थपूर्ण वरदान मांगना  पाप नहीं था।सच कहो तो यह नहीं कहा जा सकता कि उनके लिए वचन निरस्त हो गए क्योंकि श्रीराम ने फिर भी अपने पिता को सच्चा साबित करने के लिए भारत का राज्य ग्रहण और वनवास स्वीकार कर लिया। राजा दशरथ के असंभव वचनों को श्री राम ने संभव करके दिखा दिया।
*आक्षेप-२२-प्रश्न-८-* वशिष्ठ ने परामर्श दिया था कि इक्ष्वाकु वंशी य परंपरा अनुसार परिवार के जेष्ठ पुत्र को राजगद्दी मिलनी चाहिए किंतु कैकई के प्रेम में पागल दशरथ ने
उस परामर्श को लात मारकर अलग कर दिया।
*समीक्षा-* यह सत्य है कि महाराज दशरथ कैकई से बहुत प्रेम करते थे और यह भी सत्य है कि इक्ष्वाकु वंश की परंपरा के अनुसार परिवार का ज्येष्ठ पुत्र ही राजा बनता है इसीलिए कैकई का वरदान मांगना अनुचित था। सच कहें तो महाराज दशरथ ने अपने वंश की परंपरा को लात मार कर अलग नहीं किया था वह तो अंत तक कैकई से कहते रहे कि यह वरदान देने में मैं असमर्थ हूं क्योंकि उन्होंने श्रीराम के राज्याभिषेक की घोषणा भरी सभा में की थी और उसके विरुद्ध कैकेई ने वरदान मांग ली है। जब श्रीराम महाराज दशरथ और कैकई से मिलने गए थे तब कह के ही नहीं वरदान की बात श्रीराम से कही थी और कहा था कि महाराज ने तुमको 14 वर्ष का वनवास दिया है;श्रीराम ने बहुत अच्छा कहकर आज्ञा शिरोधार्य कर ली।महाराज दशरथ अंत तक श्री राम के वनवास का विरोध करते रहे उन्होंने कैकेई को समझाने की कोशिश की उसको कई दुर्वचन भी कहे किंतु वह अपनी बात से नहीं डिग्गी और अंततः श्री राम ने अपने पिता को सत्य सिद्ध करने के लिए वनवास स्वीकार कर लिया। इस प्रकार से महाराज दशरथ को आप प्यार में अंधा है पागल नहीं कह सकते इक्ष्वाकु वंश की परंपरा यह भी थी भले ही प्राण चले जाएं किंतु दिया हुआ वचन खाली नहीं जाना चाहिए राज्य अभिषेक की घोषणा से बढ़ कर दिया हुआ वचन था इसलिए घोषणा से ऊपर वचन को माना गया।
*आक्षेप-२३-प्रश्न-९-* दशरथ को अपनी मूर्खता का प्रायश्चित तथा कुछ मूल्य चुकाना चाहिए था; इसके विपरीत उसने कैकई को श्राप दिया।
*समीक्षा-* हम चकित है कि कैकेई के पारितोषिक रूप में उसे दिए गए दो वरदानों को आप पागलपन और मूर्खता कैसे बता रहे हैं ।वरदान देना महाराज दशरथ का कर्तव्य था और वरदान मांगना कैकई का अधिकार था। कैकई ने रघु कुल की परंपरा के विरुद्ध प्रजा महाराज जनपत राजाओं की इच्छाओं के विरुद्ध वरदान मांगा ।उसको सत्य सिद्ध करने के लिए श्री राम वनवास को चले गए अपने पुत्र का वियोग सहन कर लिया क्या महाराज दशरथ ने कम मूल्य चुकाया? महाराज दशरथ ने घोषणा के विरुद्ध श्री राम को वनवास दे दिया कैकई को प्रसन्न करने के लिए भारत को सिंहासन दे दिया। क्या महाराज दशरथ ने अपने वचन पूरे करके भी कम मूल्य चुका है सच कहें तो कैकई को मूर्खतापूर्ण वरदान मांगने के लिए प्रायश्चित करना था परंतु उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया और आप ऐसे महिला की तरफदारी कर रहे हैं आपकी बुद्धि पर शोक करने के अलावा और क्या किया जा सकता है।
*आक्षेप-२४-प्रश्न-१०-* वह भूल गया कि मैं कौन और क्या हूं तथा मेरी स्थिति क्या है और कैकई के पैरों पर गिर पड़ा।पड़ा।
*समीक्षा-* महाराज दशरथ को अपनी गरिमा का पूरा ध्यान था ।कैकेई से वार्तालाप करते समय वह एक चक्रवर्ती राजा नहीं ,अपितु एक पति थे। पति-पत्नी एक-दूसरे के आधे शरीर माने जाते हैं ।यदि महाराज दशरथ ने कैकई के चरण छू भी लिए तो इस पर आपको क्या तकलीफ है? मुहावरे के रूप में कहा जाता है कि “मैं तेरे हाथ जोड़ता, हूं तेरे पैर पड़ता ह”ूं पर सच में कोई हाथ पांव नहीं पड़ता।यहां भी मुहावरे दार भाषा ही समझनी चाहिये और महाराज ने कैकई के चरण पकड़ भी रही है तो इसमें कोई दोष नहीं एक तरफ तो आप लोग महिलाओं के अधिकारों की वकालत करते हैं और जब महाराज दशरथ अपनी पत्नी के चरणों में झुक कर महिला उत्थान कर रहे है तो उनको नामर्द बताते हैं इस दोगलेपन के लिए क्या कहा जाए!
*आक्षेप-२५-प्रश्न-११-* सुमंत्र और वशिष्ठ दशरथ के वचनों से अवगत थे। कैकेई के प्रति के वचनों की ओर संकेत कर सकते थे ।दशरथ को सचेत कर डालते थे। राम को राजगद्दी ना देने का परामर्श देसकते थे।- पर उन्होंने ऐसा नहीं किया
*समीक्षा-* यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि कैकेई के प्रति दिए गए वचन के बारे में महर्षि वशिष्ठ और सुमंत्र को पता था। यदि मान भी लें तो भी महाराज दशरथ को सचेत करके वह क्या कर सकते थे? उनको थोड़े मालूम था कि कैकेयी उनसे श्री राम का वनवास और भरत के लिये राज्य मांग लेगी। आपका प्रश्न ही मूर्खतापूर्ण है !कैकेयी कुछ और भी मांग सकती थी।
और वशिष्ठ और सुमंत्र श्रीराम को राजगद्दी ना देने का परामर्श भला किसलिए करेंगे ?ऊपर आप ही स्वीकार कर चुके हैं कि इक्ष्वाकु कुल की परंपरा के अनुसार ज्येष्ठ पुत्र को राज्य मिलता था और केकई के पिता को महाराज दशरथ ने उससे उत्पन्न पुत्र को राजगद्दी देने का कोई वचन नहीं दिया यह हम पहले आक्षेप के उत्तर में ही सिद्ध कर चुके हैं। तो इस प्रकार का परामर्श वे महाराज दशरथ को कैसे दे सकते थे? वैसे भी वचन तो दशरथ ने दिए थे,उन्हें पूर्ण करने का दायित्व उनका था यहां वशिष्ठ और सुमंत्र भला क्या कर सकते थे? इस विषय में हस्तक्षेप करने का उन्हें क्या अधिकार था? आप का तो प्रश्न ही अशुद्ध है ।लगता है भंग की तरंग में ही यह प्रश्न लिख मारा है।
*आक्षेप-२६-प्रश्न-१२-* वशिष्ठ ने जो कि ,भविष्यवक्ता थे राम राज्य- तिलकोत्सव के शुभ-अवसर  को शीघ्रता से निश्चय कर दिया-यद्यपि वह भलीभांतु जानता था ,कि यह योजना निष्फल हो जायेगी।
*समीक्षा-* आयंगर साहब कितने बेतुके आक्षेप लगा रहे हैं हम इस बात पर आश्चर्य चकित हैं!” वशिष्ठ जी भविष्यवक्ता थे और वे जानते थे कि राज्याभिषेक की तैयारी निष्फल हो जाएगी”- जरा बताइए कि वाल्मीकि रामायण में इसका उल्लेख कहां है ?बिना प्रमाण दिये सुनी-सुनाई बात लिख मारी।सच कहें तो वाल्मीकि रामायण में इस बात की गंध तक नहीं है। यह महाशय का अपने घर का गपोड़ा है।यह ते सत्य है कि ज्योतिष और पदार्थ विद्या  द्वारा सूर्य-ग्रहण,मौसम,ऋतुचक्र,दैवीय आपदाआदि का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है,परंतु किसी का भविष्य देखना सर्वथा असंभव और निराधार गप्प है।वाल्मीकि रामायण में इसका वर्णन न होने से आक्षेप निर्मूल सिद्ध हुआ।
*आक्षेप-२७-प्रश्न-१३-* कैकेई अपना न्याय संगत स्वत्व  एवं अधिकार मांगती रही किंतु सिद्धार्थ सुमंत्र और वशिष्ठ उसे विपरीत परामर्श देने उसके पास दौड़ गए। इस पर निष्फल होने पर उन्होंने उसे फटकारा।
*समीक्षा-* यह सत्य है कि महाराज दशरथ से वरदान मांगना कैकेई का अधिकार था, किंतु उसका प्रजा की रुचि के और रघु कुल की परंपरा के विरुद्ध वरदान मांगना अनुचित था। सिद्धार्थ सुमंत्र और महर्षि वशिष्ठ ने कैकेई को यही बात समझाने का प्रयास किया कि रघु कुल की परंपरा के विरुद्ध श्री राम को वनवास और भारत को राज्य देना गलत है ।परंतु मूढ़मति कैकेयी फिर भी ना मानीऔर इस कारण केवल उन तीनों ने ही नहीं ,अपितु सारी प्रजा ने कैकई को धिक्कारा हम इन तीनों को दोषी मान सकते हैं पर क्या आप अयोध्या की जनता भी दोषी है?जो स्त्री अपने अधिकृत वचनों का अनैतिक और अनुचित प्रयोग करेगी,उसका इसी प्रकार तिरस्कार किया जायेगा।ऐसी किसी स्त्री को कोई फूलमाला न पहनावेगा।
क्रमशः…….
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मित्रों! अगली पोस्ट में अंतिम ७ आक्षेपों का उत्तर देकर *दशरथ महाराज* विषय का समापन करेंगे और उसके बाद श्रीराम पर लगे आक्षेपों का खंडन करेंगे।
आप लोगों का हमारी लेख श्रृंखला को पसंद एवं शेयर करने के लिये हमारी ओर से बहुत-बहुत आभार।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र की जय।
योगेश्वर कृष्ण चंद्र जी की जय।
।।ओ३म्।।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

पेरियार रचित सच्ची रामायण का खंडन भाग-१६

पेरियार रचित सच्ची रामायण का खंडन भाग-१६
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों! आगे पेरियार साहब ने किसी श्रीनिवास आयंगर की पुस्तक “अयोध्या कांड पर टिप्पणी” का प्रमाण देकर दशरथ पर १२ आक्षेप लगाये हैं।जैसे ऊतनाथ वैसे भूतनाथ! जैसे पेरियार साहब वैसे उनके साक्षी! अब आयंगर जी के आक्षेपों पर हमारी आलोचनायें पढें और आनंद लें:-
*आक्षेप-१५- प्रश्न-१*दशरथ ने बिना विचार किये कैकेयी को दो वरदान देने की भूल की।
*समीक्षा*- आप इसे महाराज दशरथ की भूल कैसे कह सकते हैं?देवासुर संग्राम में कैकेयी ने महाराज दशरथ की जान बचाई थी।इसलिये प्रसन्न होकर दशरथ जी ने उसे दो वरदान दिये।कैकेयी अपने काम के लिये पारितोषिक की अधिकारिणी थी। दशरथ ने उनको वरदान दिये कैकेयी ने कहा कि समय आने पर मांग लूंगी।हम मानते हैं कि कैकेयी को उसी समय वरदान मांगते थे और दशरथ को भी उसी समय पूर्ण करना था।पर दो वरदान देना गलत नहीं कहा जा सकता।हां,कैकेयी का मूर्खतापूर्ण वरदान मांगना अवश्य भूल थी।
*आक्षेप-१६-प्रश्न-२* कैकेयी के विवाह करने के पूर्व दशरथ ने उससे उत्पन्न पुत्र को राजगद्दी देने की भूल की।
*समीक्षा-*हम पहले बिंदु के उत्तर में सिद्ध कर चुके हैं कि महाराज दशरथ ने कैकेयी के पिता को ऐसा कोई वचन नहीं दिया था।अतः आक्षेप निर्मूल है।इक्ष्वाकुकुल की परंपरानुसार ज्येष्ठ पुत्र ही राजा बनता था।इसके विरुद्ध राजा दशरथ ऐसा अन्यथा वचन नहीं दे सकते।
*आक्षेप-१७-प्रश्न-३* साठ वर्ष का दीर्घ समय व्यतीत कर चुकने के पश्चात भी अपने पशुवत विचारों का दास बने रहने के दुष्परिणाम स्वरूप अपनी प्रथम स्त्री कौसल्या तथा द्वितीय स्त्री सुमित्रा के साथ वह व्यवहार न कर सका जिनकी वो अधिकारिणी थीं।
*समीक्षा-* यह आक्षेप निर्मूल है। महाराज दशरथ पशुवत विचारों के नहीं थे,अपितु महान मानवीय विचारों के स्वामी थी।उनके गुणों का वर्णन हम पीछे कर चुके हैं।क्या ६० वर्ष के बाद वानप्रस्थ की इच्छा करना और अपने ज्येष्ठ पुत्र को राजगद्दी देना भी पशुवत व्यवहार है?,यदि उनका व्यवहार पशुवत था तो उनको मरते दम तक राज्य भोग करना था पर उन्होंने ऐसा नहीं किया।महाराज दशरथ जितेंद्रिय, वेदज्ञ,अश्वमेधादि यज्ञ करने वाले और श्रेष्ठ प्रजापालक थे। उनके पशुवत कहने वाले स्वयं पशुओं के बड़े भाई हैं ।
आपको प्रमाण देना चाहिये कि दशरथ ने कौसल्या और सुमित्रा से यथायोग्य व्यवहार नहीं किया। वे सभी रानियों से यथायोग्य प्रेम करते थे।यह ठीक है कि कैकेयी से उनका विशेष स्नेह था पर यह सत्य नहीं कि उन्होंने कौसल्या और सुमित्रा से यथायोग्य व्यवहार नहीं किया। क्या कौसल्या के पुत्र श्रीराम को राजगद्दी देना कौसल्या का सम्मान नहीं है?क्या पुत्रेष्टि यज्ञ की खीर का अतिरिक्त भाग सुमित्रा को देना उनका उनके प्रति प्रेम सिद्ध नहीं करता?आपका आक्षेप निर्मूल है।
*आक्षेप-१८-प्रश्न-४-*कैकेयी को दिये मूर्खतापूर्ण वचनों से उससे कैकेयी से अपनी खुशामद करवाई।
*समीक्षा-*कैकेयी को वरदान देना राजा का कर्तव्य था और कैकेयी को यह पारितोषिक मिलने का अधिकार था।वरदान देना मूर्खता नहीं अपितु कैकेयी द्वारा अनुचित वर मांगना मूर्खतापूर्ण था।कैकेयी कोे दिये वरदानों को पूरा करने में असमर्थ होने से राजा दशरथ ने उसे अवश्य मनाया,समझाया कि वो ऐसे अन्यथा वरदान न माने।क्या एक पति अपनी पत्नी को मना भी नहीं सकता?क्या इसे भी आप खुशामद कहेंगे?आपको भला पति-पत्नी के मामले के बीच में टीका-टिप्पणी करने क्या अधिकार है?राजा दशरथ का कैकेयी के चरण पकड़ने आदि का पीछे उत्तर दे चुके हैं।
*आक्षेप-१९-प्रश्न-५-*अपनी प्रज्ञा के समक्ष राम को राजतिलक करने की घोषणा कैकेयी व उसके पिता को दिये वचनों का उल्लंघन है।
*समीक्षा-*हम चकित हैं कि आप कैसे बेहूदा आक्षेप लगा रहे हैं!हम पहले सिद्ध कर चुके हैं कि राजा दशरथ ने कैकेयी के पिता कोई वचन नहीं दिया।और राम दी के राजतिलक की घोषणा पहले हुई।उसके बाद में कैकेयी ने यह वरदान मांगे कि ,”राम को दंडकारण्य में वास मिले और जिन सामग्रियों से राम का राज्याभिषेक होने वाला था उनसे भरत का राज्याभिषेक हो।”
कैकेयी के वरदानों के बाद राम राज्याभिषेक की घोषणा की बात कहना मानसिक दीवालियापन और रामायण से अनभिज्ञता दर्शाता है।
पेरियार साहब! आपका *”हुकुम का इक्का तो चिड़ी का जोकर निकला”* श्रीमन्!नकल के लिये भी अकल की जरूरत पड़ती है जो आप जैसे अनीश्वरवादियों से छत्तीस का आंकड़ा रखती है।
*आक्षेप-२०-प्रश्न-६-*कैकेयी की स्वेच्छानुसार उसे दिये गये वरदानों के फल-स्वरूप राम को गद्दी देने की अपनी पूर्ण घोषणा से वह निराश हो गया।
*समीक्षा-*राजा दशरथ ने   श्रीराम को गद्दी देने की भरी सभी में घोषणा की थी। अयोध्या की जनता,मंत्रीगण और समस्त जनपदों के राजा भी इसके पक्ष में थे।ऐसे में कैकेयी ने मूर्खतापूर्ण वरदान मांगे जिसमें राम को वनवास देना भी एक वचन था।महाराज दशरथ ने पहले भरी सभा में राज्याभिषेक की घोषणा की थी कि श्रीराम को राजगद्दी मिलेगी।कैकेयी के वरदान के कारण उनकी घोषणा मिथ्या हो जाती।अयोध्या की जनता भी अपने होने वाले शासक से वंचित हो जाती ।दशरथ का बहुत अपयश होता।वैसे भी,१४वर्ष तक पुत्र से वियोग के दुख के पूर्वाभास के कारण ऐसा कौन पिता होगा जो निराश न होगा?अतः आक्षेप पूर्णरूपेण अनर्गल है।
…………क्रमशः
पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये धन्यवाद।कृपया अधिकाधिक शेयर करें। अगले लेख में अगले ७ प्रश्नों का उत्तर दिया जायेगा।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र की जय।
योगेश्वर कृष्ण चंद्र जी की जय।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

पेरियार रचित सच्ची रामायण का खंडन भाग-१५

*पेरियार रचित सच्ची रामायण का खंडन भाग-१५*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते पाठकों!अब तक सच्ची रामायण खंडन संबंधी १४ पोस्ट आपने मनोयोग से पढ़ी और प्रचारित की।अब १५वीं पोस्ट में आपका स्वागत है। दशरथ शीर्षक द्वारा महाराज दशरथ पर किये आक्षेपों के क्रम में आज आक्षेप बिंदु १० से १४ तक का खंडन किया जायेगा।
*आक्षेप-१०* …..जब अंत में अंत में दशरथ के सारे प्रयास निष्फल हो गए तब दशरथ ने राम को अपने पास बुलाकर कानों में चुपके से कहा मेरा कोई बसना चलने के दुष्परिणाम स्वरूप अब मैं भारत को राज तिलक करने को तैयार हो गया हूं ।अब तुम्हारे ऊपर कोई बंधन नहीं है तुम मुझे गद्दी से उतार कर अयोध्या के राजा हो सकते हो। इत्यादि।
*समीक्षा*- यह ठीक है कि राजा दशरथ ने श्रीराम से यह बात कही। श्री रामचंद्र राजगद्दी के असली अधिकारी थे,(ज्येष्ठ पुत्र होने से)। कैकेई के पिता को वचन वाली बात हम झूठी सिद्ध कर चुके हैं यही नहीं अयोध्या की जनता, मंत्रिमंडल और राजा महाराजा ,जनपद सब श्रीराम को राजा बनाना चाहते थे। क्योंकि भरी सभा में घोषणा करने के बाद भी राजा दशरथ अपना वचन निभाने के कारण श्री राम को वनवास देते हैं उनकी श्री राम को गति देने की प्रतिज्ञा मिथ्या हो जाएगी। महाराज दशरथ वृद्ध हो चुके थे, अतः श्री राम का अधिकार था कि दशरथ को गद्दी से उठाकर स्वयं राज गद्दी पर विराजमान हो जाए ।महाराज दशरथ ने कैकई को जो दो वरदान दिए थे उनको पूर्ण करने का दायित्व उन पर था श्री राम को वनवास दे ने का वचन महाराज दशरथ ने दिया था,श्रीराम उसे मानने के लिए बाध्य नहीं थे अतः श्री राम बलपूर्वक राजगद्दी पर अधिकार कर सकते थे और कोई उनका विरोध भी नहीं करता और ना ही कोई अधर्म होता। परंतु श्रीराम ने अपने पिता को सत्यवादी सिद्ध करने के लिए हंसते-हंसते बनवास ग्रहण कर लिया,देखिये:-
अहं राघव कैकेय्या वरदानेन मोहितः ।
अयोध्यायां त्वमेवाद्य भव राजा निगृह्य माम् ॥ २६ ॥
‘राघव ! मैं कैकेयीको दिये वर के कारण मोह में पड़नहीं।
। तुम मुझे कैद करके स्वतः अयोध्या के  राजा बन जाओ ॥२६॥(अयोध्याकांड ३४-२६)
उत्तर मैं श्रीराम ने कहा:-
भवान् वर्षसहस्राय पृथिव्या नृपते पतिः ।
अहं त्वरण्ये वत्स्यामि न मे राज्यस्य काङ्‌क्षिता ॥ २८ ॥
“महाराज ! आप सहस्रों(अर्थात् अनेक) वर्षों तक इस पृथ्वीके अधिपति होकर रहें ।मैं तो अब वनमें ही  निवास करूंगा।मुझे राज्य लेने की इच्छा नहीं ॥२८॥
नव पञ्च च वर्षाणि वनवासे विहृत्य ते ।
पुनः पादौ ग्रहीष्यामि प्रतिज्ञान्ते नराधिप ॥ २९ ॥
“नरेश्वर ! चौदह वर्षों तक वन में घूम-फिरकर आपकी प्रतिज्ञा पूरी करके बादमें मैं पुनः आपके युगल चरणों में  मस्तक नवाऊंगा ॥२९॥(अयोध्याकांड सर्ग ३४)
यह था श्रीराम का आदर्श!
*आक्षेप-११* सभी प्रयत्न निष्फल हो चुकने के बाद दशरथ ने सुमंत्र को आज्ञा दी की कोषागार का संपूर्ण धन खेतों का अनाज व्यापारी प्रजापत वेश्याएं राम के साथ वन में भिजवाने का प्रयत्न करो।(अयोध्याकांड ३६)
*आक्षेप-१२* कैकेई नहीं इस पर भी आपत्ति प्रकट की और विवादास्पद पर उपस्थित करके दशरथ को असमंजस में डाल दिया -“तुम केवल देश चाहते हो ना कि उसकी पूरी संपत्ति” ।
*समीक्षा*- यह सत्य है कि महाराज दशरथ ने श्रीराम के साथ समस्त कोषागार का धन व्यापारी ,अन्न भंडार, नर्तकियां(देहव्यापार वाली वेश्यायें नहीं,अपितु परिचारिकायें)आदि भेजने की बात कही। अयोध्याकांड सर्ग ३६ श्लोक १-९ में यह वर्णन है। कैकेयी ने इस बात का विरोध भी किया और श्रीराम ने भी इन सबको अस्वीकार कर दिया ।महाराज दशरथ पुत्रवियोग के कारण विषादग्रस्त स्थिति में थे।उनके पुत्रों और बहू को वन में कोई दुविधा न हो इसके लिये वे सब उपयोगी सामान श्रीराम को देना चाहते थे।एक पिता अपनी संतान को सब सुख-सुविधायें देना चाहता है। अपने जीवन भर की जमा-पूंजी वह अपने पुत्र के लिये ही संचित करता है।पुत्रवियोग से विषादग्रस्त होकर उन्होंने यदि ऐसी बात कह भी दी तो भी इसमें आपत्ति योग्य कुछ भी नहीं है।
देखिये-
अनुव्रजिष्याम्यहमद्य रामं
     राज्यं परित्यज्य सुखं धनं च ।
सर्वे च राज्ञा भरतेन च त्वं
     यथासुखं भुङ्क्ष्व चिराय राज्यम् ॥ ३३ ॥
‘अब मैं भी ये राज्य, धन और सुख छोड़कर रामके पीछे-पीछे निकल जाऊंगा।ये सब लोगभी उनके ही साथ जायेंगे। तू अकेली राजा भरत के साथ चिरकालपर्यंत सुखपूर्वक राज्य भोगती रह’ ॥३३॥
अब राजा ने यहां अपनी आज्ञा वापस लेली।साथ ही समस्त अयोध्या वासी श्री राम के पीछे चल पड़े।श्रीराम ने भी समस्त सेना आदि लेने से मना कर दिया:- अयोध्याकांड सर्ग ३७
त्यक्तभोगस्य मे राजन् वने वन्येन जीवतः ।
किं कार्यमनुयात्रेण त्यक्तसङ्गस्य सर्वतः ॥ २ ॥
‘राजन् ! मैं भोगों का परित्याग कर चुका हूं। मुझे जंगलके फल-मूलों से  जीवन-निर्वाह करना है।यदि मैंने सब प्रकारसे  अपनी आसक्ति नहीं छोड़ीे तो मुझे सेनाका क्या प्रयोजन है?॥२॥इत्यादि।
लीजिये,अब संतुष्टि हुई?श्रीरान ने भी ऐश्वर्य लेने से मना कर दिया।केवल वल्कल वस्त्र और कुदाली मांगी-
सर्वाण्येवानुजानामि चीराण्येवानयन्तु मे ॥ ४ ॥
खनित्रपिटके चोभे समानयत गच्छत ।
चतुर्दश वने वासं वर्षाणि वसतो मम ॥ ५ ॥ (अयोध्याकांड सर्ग ३७)
अब तसल्ली हुई महाशय? यहां महाराज दशरथ पर कोई दोष नहीं आता।
*आक्षेप-१३* दशरथ ने कोषागार में रखे हुए सभी आभूषण सीता सौंप दिये।
*समीक्षा*-क्यों महाशय?सीता जी को आभूषण और वस्त्र देने में आपको क्या आपत्ति है?क्या वनवास सीताजी को मिला था?वनवास केवल श्री राम को मिला था,मां सीता पतिव्रता होने के कारण उनके साथ जा रही थीं।यदि वे आभूषण ले भी जायें तो क्या दोष है?
महाराज दशरथ कैकेयी से कहते हैं:-
चीराण्यपास्याज्जनकस्य कन्या
     नेयं प्रतिज्ञा मम दत्तपूर्वा ।
यथासुखं गच्छतु राजपुत्री
     वनं समग्रा सह सर्वरत्‍नैः ॥ ६ ॥
‘जनकनंदिनी आपने चीर-वस्त्र उतारे। ‘ये इस रूपमें वनामें जाये’ ऐसी कोईभी प्रतिज्ञा मैंने प्रथम नहीं की;और किसीको ऐसा वचनभी नहीं दिया। इसलिये राजकुमारी सीता संपूर्ण वस्त्रालंकारों से संपन्न होकर सब प्रकार के रत्‍नों के साथ, जिस प्रकार से वो सुखी रह सकेगी, उस प्रकारसे वनको जा सकती हैं॥६॥(अयोध्याकांड ३८)
वासांसि च वरार्हाणि भूषणानि महान्ति च ।
वर्षाण्येतानि सङ्ख्याय वैदेह्याः क्षिप्रमानय ॥ १५ ॥
‘(सुमंत्र से)आप वैदेही सीताके धारण करने योग्य बहुमूल्य वस्त्र और महान आभूषण,जो चौदह वर्षोंतक पर्याप्त हों ऐसे, चुनकर शीघ्र ले आइये’ ॥१५॥
व्यराजयत वैदेही वेश्म तत् सुविभूषिता ।
उद्यतोंऽशुमतः काले खं प्रभेव विवस्वतः ॥ १८ ॥
उन आभूषणों से विभूषित होकर वैदेही, प्रातःकाली उदय मान अंशुमाली सूर्यकी प्रभा आकाश को जिस प्रकार प्रकाशित करतीे है उसी प्रकार सुशोभित होने लगी॥१८॥
(अयोध्याकांड सर्ग ३९)
अतः आपका आक्षेप निर्मूल है।सीता वन को वल्कल वस्त्र पहनकर जाये ऐसी कोई प्रतिज्ञा राजा दशरथ ने नहीं थी।इसलिये सीताजी को आभूषण और वस्त्र देने में कोई दोष नहीं।
*आक्षेप १४*- राम और सीता को वनवास भेजने के कारण दशरथ ने कैकई के ऊपर गालियों की बौछार कर दी।किंतु दशरथ को राम के साथ लक्ष्मण को वनवास भेजने में कोई बेचैनी नहीं हुई। लक्ष्मण की स्त्री का कहीं कोई वर्णन नहीं।
*समीक्षा*- राजा दशरथ को अपने चारों पुत्रों से बराबर स्नेह था परंतु श्रीराम उनको चारों में अत्यंत प्रिय थे।श्री राम यदि वनवास जाते तो उनके अनुचर होने के कारण लक्ष्मण जी भी स्वतः उनके साथ चलेंगे-यह राजा दशरथ को मालूम था।इसलिये उन्होंने श्रीराम को रोकने की कोशिश की।यदि श्रीराम वनको न जाते तो लक्ष्मण और मां सीता भी अयोध्या में ही रहते,कहीं न जाते।श्रीराम को रोकने से लक्ष्मण स्वतः रुक जाते क्योंकि वे “श्रीराम के शरीर के बाहर विचरण करने वाले प्राण थे” ।अतः जितनी बेचैनी उनको श्रीराम के वन जाने में थी,उतनी ही लक्ष्मण और मां सीता के प्रति भी थी।उसमें भी श्रीराम की उनको अधिक परवाह थी क्यों कि उनके जाने पर एक तो उनकी घोषणा मिथ्या हो जाती और साथ ही पुत्र वियोग और अयोध्या को अपने प्रिय राजा का वियोग भी सहना पड़ता।अतः श्रीराम के प्रति भी दशरथ को लक्ष्मण जितनी ही परवाह थी।
लक्ष्मण जी की स्त्री-उर्मिला का वर्णन वनगमन के समय वाल्मीकीय रामायण में नहीं है।पर इससे क्या फर्क पड़ता है? रामायण के प्रधान नायक श्रीराम है,लक्ष्मण जी तो उनके सहायक नायक हैं।इसलिये उनके गौण होने से उर्मिला वर्णन नहीं है। निश्चित ही उर्मिला ने अपने पति की अनुपस्थिति में ब्रह्मचर्य पालन करके भोगों से निवृत्ति कर ली होगी।कई रामकथाओं में यह वर्णन है भी।
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अगली पोस्ट में हम पेरियार साहब द्वारा किन्हीं “श्रीनिवास आयंगर” के १२ आक्षेपों का खंडन आरंभ करेंगे,जिनका संदर्भ वादी ने दिया है।आक्षेप क्या हैं,पेरियार साहब ने अपने आक्षेपों को ही अलग रूप से दोहराया है और कुछ नये आक्षेप हैं।इनका उत्तर हम अगले लेख में देना प्रारंभ करेंगे ।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र की जय।
योगेश्वर कृष्ण चंद्र की जय।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |