पेरियार रचित सच्ची रामायण का खंडन भाग-१५

*पेरियार रचित सच्ची रामायण का खंडन भाग-१५*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते पाठकों!अब तक सच्ची रामायण खंडन संबंधी १४ पोस्ट आपने मनोयोग से पढ़ी और प्रचारित की।अब १५वीं पोस्ट में आपका स्वागत है। दशरथ शीर्षक द्वारा महाराज दशरथ पर किये आक्षेपों के क्रम में आज आक्षेप बिंदु १० से १४ तक का खंडन किया जायेगा।
*आक्षेप-१०* …..जब अंत में अंत में दशरथ के सारे प्रयास निष्फल हो गए तब दशरथ ने राम को अपने पास बुलाकर कानों में चुपके से कहा मेरा कोई बसना चलने के दुष्परिणाम स्वरूप अब मैं भारत को राज तिलक करने को तैयार हो गया हूं ।अब तुम्हारे ऊपर कोई बंधन नहीं है तुम मुझे गद्दी से उतार कर अयोध्या के राजा हो सकते हो। इत्यादि।
*समीक्षा*- यह ठीक है कि राजा दशरथ ने श्रीराम से यह बात कही। श्री रामचंद्र राजगद्दी के असली अधिकारी थे,(ज्येष्ठ पुत्र होने से)। कैकेई के पिता को वचन वाली बात हम झूठी सिद्ध कर चुके हैं यही नहीं अयोध्या की जनता, मंत्रिमंडल और राजा महाराजा ,जनपद सब श्रीराम को राजा बनाना चाहते थे। क्योंकि भरी सभा में घोषणा करने के बाद भी राजा दशरथ अपना वचन निभाने के कारण श्री राम को वनवास देते हैं उनकी श्री राम को गति देने की प्रतिज्ञा मिथ्या हो जाएगी। महाराज दशरथ वृद्ध हो चुके थे, अतः श्री राम का अधिकार था कि दशरथ को गद्दी से उठाकर स्वयं राज गद्दी पर विराजमान हो जाए ।महाराज दशरथ ने कैकई को जो दो वरदान दिए थे उनको पूर्ण करने का दायित्व उन पर था श्री राम को वनवास दे ने का वचन महाराज दशरथ ने दिया था,श्रीराम उसे मानने के लिए बाध्य नहीं थे अतः श्री राम बलपूर्वक राजगद्दी पर अधिकार कर सकते थे और कोई उनका विरोध भी नहीं करता और ना ही कोई अधर्म होता। परंतु श्रीराम ने अपने पिता को सत्यवादी सिद्ध करने के लिए हंसते-हंसते बनवास ग्रहण कर लिया,देखिये:-
अहं राघव कैकेय्या वरदानेन मोहितः ।
अयोध्यायां त्वमेवाद्य भव राजा निगृह्य माम् ॥ २६ ॥
‘राघव ! मैं कैकेयीको दिये वर के कारण मोह में पड़नहीं।
। तुम मुझे कैद करके स्वतः अयोध्या के  राजा बन जाओ ॥२६॥(अयोध्याकांड ३४-२६)
उत्तर मैं श्रीराम ने कहा:-
भवान् वर्षसहस्राय पृथिव्या नृपते पतिः ।
अहं त्वरण्ये वत्स्यामि न मे राज्यस्य काङ्‌क्षिता ॥ २८ ॥
“महाराज ! आप सहस्रों(अर्थात् अनेक) वर्षों तक इस पृथ्वीके अधिपति होकर रहें ।मैं तो अब वनमें ही  निवास करूंगा।मुझे राज्य लेने की इच्छा नहीं ॥२८॥
नव पञ्च च वर्षाणि वनवासे विहृत्य ते ।
पुनः पादौ ग्रहीष्यामि प्रतिज्ञान्ते नराधिप ॥ २९ ॥
“नरेश्वर ! चौदह वर्षों तक वन में घूम-फिरकर आपकी प्रतिज्ञा पूरी करके बादमें मैं पुनः आपके युगल चरणों में  मस्तक नवाऊंगा ॥२९॥(अयोध्याकांड सर्ग ३४)
यह था श्रीराम का आदर्श!
*आक्षेप-११* सभी प्रयत्न निष्फल हो चुकने के बाद दशरथ ने सुमंत्र को आज्ञा दी की कोषागार का संपूर्ण धन खेतों का अनाज व्यापारी प्रजापत वेश्याएं राम के साथ वन में भिजवाने का प्रयत्न करो।(अयोध्याकांड ३६)
*आक्षेप-१२* कैकेई नहीं इस पर भी आपत्ति प्रकट की और विवादास्पद पर उपस्थित करके दशरथ को असमंजस में डाल दिया -“तुम केवल देश चाहते हो ना कि उसकी पूरी संपत्ति” ।
*समीक्षा*- यह सत्य है कि महाराज दशरथ ने श्रीराम के साथ समस्त कोषागार का धन व्यापारी ,अन्न भंडार, नर्तकियां(देहव्यापार वाली वेश्यायें नहीं,अपितु परिचारिकायें)आदि भेजने की बात कही। अयोध्याकांड सर्ग ३६ श्लोक १-९ में यह वर्णन है। कैकेयी ने इस बात का विरोध भी किया और श्रीराम ने भी इन सबको अस्वीकार कर दिया ।महाराज दशरथ पुत्रवियोग के कारण विषादग्रस्त स्थिति में थे।उनके पुत्रों और बहू को वन में कोई दुविधा न हो इसके लिये वे सब उपयोगी सामान श्रीराम को देना चाहते थे।एक पिता अपनी संतान को सब सुख-सुविधायें देना चाहता है। अपने जीवन भर की जमा-पूंजी वह अपने पुत्र के लिये ही संचित करता है।पुत्रवियोग से विषादग्रस्त होकर उन्होंने यदि ऐसी बात कह भी दी तो भी इसमें आपत्ति योग्य कुछ भी नहीं है।
देखिये-
अनुव्रजिष्याम्यहमद्य रामं
     राज्यं परित्यज्य सुखं धनं च ।
सर्वे च राज्ञा भरतेन च त्वं
     यथासुखं भुङ्क्ष्व चिराय राज्यम् ॥ ३३ ॥
‘अब मैं भी ये राज्य, धन और सुख छोड़कर रामके पीछे-पीछे निकल जाऊंगा।ये सब लोगभी उनके ही साथ जायेंगे। तू अकेली राजा भरत के साथ चिरकालपर्यंत सुखपूर्वक राज्य भोगती रह’ ॥३३॥
अब राजा ने यहां अपनी आज्ञा वापस लेली।साथ ही समस्त अयोध्या वासी श्री राम के पीछे चल पड़े।श्रीराम ने भी समस्त सेना आदि लेने से मना कर दिया:- अयोध्याकांड सर्ग ३७
त्यक्तभोगस्य मे राजन् वने वन्येन जीवतः ।
किं कार्यमनुयात्रेण त्यक्तसङ्गस्य सर्वतः ॥ २ ॥
‘राजन् ! मैं भोगों का परित्याग कर चुका हूं। मुझे जंगलके फल-मूलों से  जीवन-निर्वाह करना है।यदि मैंने सब प्रकारसे  अपनी आसक्ति नहीं छोड़ीे तो मुझे सेनाका क्या प्रयोजन है?॥२॥इत्यादि।
लीजिये,अब संतुष्टि हुई?श्रीरान ने भी ऐश्वर्य लेने से मना कर दिया।केवल वल्कल वस्त्र और कुदाली मांगी-
सर्वाण्येवानुजानामि चीराण्येवानयन्तु मे ॥ ४ ॥
खनित्रपिटके चोभे समानयत गच्छत ।
चतुर्दश वने वासं वर्षाणि वसतो मम ॥ ५ ॥ (अयोध्याकांड सर्ग ३७)
अब तसल्ली हुई महाशय? यहां महाराज दशरथ पर कोई दोष नहीं आता।
*आक्षेप-१३* दशरथ ने कोषागार में रखे हुए सभी आभूषण सीता सौंप दिये।
*समीक्षा*-क्यों महाशय?सीता जी को आभूषण और वस्त्र देने में आपको क्या आपत्ति है?क्या वनवास सीताजी को मिला था?वनवास केवल श्री राम को मिला था,मां सीता पतिव्रता होने के कारण उनके साथ जा रही थीं।यदि वे आभूषण ले भी जायें तो क्या दोष है?
महाराज दशरथ कैकेयी से कहते हैं:-
चीराण्यपास्याज्जनकस्य कन्या
     नेयं प्रतिज्ञा मम दत्तपूर्वा ।
यथासुखं गच्छतु राजपुत्री
     वनं समग्रा सह सर्वरत्‍नैः ॥ ६ ॥
‘जनकनंदिनी आपने चीर-वस्त्र उतारे। ‘ये इस रूपमें वनामें जाये’ ऐसी कोईभी प्रतिज्ञा मैंने प्रथम नहीं की;और किसीको ऐसा वचनभी नहीं दिया। इसलिये राजकुमारी सीता संपूर्ण वस्त्रालंकारों से संपन्न होकर सब प्रकार के रत्‍नों के साथ, जिस प्रकार से वो सुखी रह सकेगी, उस प्रकारसे वनको जा सकती हैं॥६॥(अयोध्याकांड ३८)
वासांसि च वरार्हाणि भूषणानि महान्ति च ।
वर्षाण्येतानि सङ्ख्याय वैदेह्याः क्षिप्रमानय ॥ १५ ॥
‘(सुमंत्र से)आप वैदेही सीताके धारण करने योग्य बहुमूल्य वस्त्र और महान आभूषण,जो चौदह वर्षोंतक पर्याप्त हों ऐसे, चुनकर शीघ्र ले आइये’ ॥१५॥
व्यराजयत वैदेही वेश्म तत् सुविभूषिता ।
उद्यतोंऽशुमतः काले खं प्रभेव विवस्वतः ॥ १८ ॥
उन आभूषणों से विभूषित होकर वैदेही, प्रातःकाली उदय मान अंशुमाली सूर्यकी प्रभा आकाश को जिस प्रकार प्रकाशित करतीे है उसी प्रकार सुशोभित होने लगी॥१८॥
(अयोध्याकांड सर्ग ३९)
अतः आपका आक्षेप निर्मूल है।सीता वन को वल्कल वस्त्र पहनकर जाये ऐसी कोई प्रतिज्ञा राजा दशरथ ने नहीं थी।इसलिये सीताजी को आभूषण और वस्त्र देने में कोई दोष नहीं।
*आक्षेप १४*- राम और सीता को वनवास भेजने के कारण दशरथ ने कैकई के ऊपर गालियों की बौछार कर दी।किंतु दशरथ को राम के साथ लक्ष्मण को वनवास भेजने में कोई बेचैनी नहीं हुई। लक्ष्मण की स्त्री का कहीं कोई वर्णन नहीं।
*समीक्षा*- राजा दशरथ को अपने चारों पुत्रों से बराबर स्नेह था परंतु श्रीराम उनको चारों में अत्यंत प्रिय थे।श्री राम यदि वनवास जाते तो उनके अनुचर होने के कारण लक्ष्मण जी भी स्वतः उनके साथ चलेंगे-यह राजा दशरथ को मालूम था।इसलिये उन्होंने श्रीराम को रोकने की कोशिश की।यदि श्रीराम वनको न जाते तो लक्ष्मण और मां सीता भी अयोध्या में ही रहते,कहीं न जाते।श्रीराम को रोकने से लक्ष्मण स्वतः रुक जाते क्योंकि वे “श्रीराम के शरीर के बाहर विचरण करने वाले प्राण थे” ।अतः जितनी बेचैनी उनको श्रीराम के वन जाने में थी,उतनी ही लक्ष्मण और मां सीता के प्रति भी थी।उसमें भी श्रीराम की उनको अधिक परवाह थी क्यों कि उनके जाने पर एक तो उनकी घोषणा मिथ्या हो जाती और साथ ही पुत्र वियोग और अयोध्या को अपने प्रिय राजा का वियोग भी सहना पड़ता।अतः श्रीराम के प्रति भी दशरथ को लक्ष्मण जितनी ही परवाह थी।
लक्ष्मण जी की स्त्री-उर्मिला का वर्णन वनगमन के समय वाल्मीकीय रामायण में नहीं है।पर इससे क्या फर्क पड़ता है? रामायण के प्रधान नायक श्रीराम है,लक्ष्मण जी तो उनके सहायक नायक हैं।इसलिये उनके गौण होने से उर्मिला वर्णन नहीं है। निश्चित ही उर्मिला ने अपने पति की अनुपस्थिति में ब्रह्मचर्य पालन करके भोगों से निवृत्ति कर ली होगी।कई रामकथाओं में यह वर्णन है भी।
पाठकगण!पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये धन्यवाद।कृपया अधिकाधिक शेयर करें।
अगली पोस्ट में हम पेरियार साहब द्वारा किन्हीं “श्रीनिवास आयंगर” के १२ आक्षेपों का खंडन आरंभ करेंगे,जिनका संदर्भ वादी ने दिया है।आक्षेप क्या हैं,पेरियार साहब ने अपने आक्षेपों को ही अलग रूप से दोहराया है और कुछ नये आक्षेप हैं।इनका उत्तर हम अगले लेख में देना प्रारंभ करेंगे ।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र की जय।
योगेश्वर कृष्ण चंद्र की जय।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *