Category Archives: पाखण्ड खंडिनी

न जहर, न मांसाहार, दूध है अमृत

दूध – मधुर, स्निग्ध, रुचिकर, स्वादिष्ट और वात-पित्त नाशक होता है। यह वीर्य,

बुद्धि और कफ वर्धक होता है। शीतलता, ओज, स्फूर्ति और स्वास्थ्य प्रदायक होता है।

स्त्री और गाय का दूध गुण-धर्म की दृष्टि से समान होता है। उसमें विटामिन ए और
खनिज तत्व होते हैं, जो रोगों से लड़ने की ताकत (प्रतिरोधक क्षमता) प्रदान करते हैं
और आंखों का तेज बढ़ाते हैं। दूध एक पूर्ण आहार है। शरीर को पुष्ट और स्वस्थ रखने के
लिए जितने तत्वों की जरूरत होती है, वे सभी उसमें पाए जाते हैं।

दूध रक्त नहीं है। इसका सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रमाण तो यह है कि दूध में जो केसीन
नामक प्रोटीन मौजूद रहता है, वह खून और मांस में नहीं पाया जाता। जो रक्त कणिकाएं
(डब्ल्यूबीसी, आरबीसी) और प्लेटलेट्स खून में पाए जाते हैं, वे दूध में नहीं होते। यह बात
साइंसदानों ने दूध का बेंजोइक टेस्ट करके बताई है। यह परीक्षण किसी भी पैथोलॉजी लैब
में किसी भी डॉक्टर से कराकर देखा जा सकता है। दूध एनिमल प्रॉडक्ट होने पर भी रक्त-
मांस से बिल्कुल अलग एक शुद्ध रस है।

कोई यह तर्क दे सकता है कि दूध में वही प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स और
शर्करा आदि तत्व पाए जाते हैं, जो खून में पाए जाते हैं, इसलिए दोनों एक हैं। लेकिन अगर
यह तर्क सही है, तो वे सभी तत्व हरे या भिगोए हुए सोया, गेहूं, चना आदि अनाज में
भी पाए जाते हैं, लिहाजा उन्हें भी मांसाहार कहना पड़ेगा, जो कि सही नहीं होगा।

यह सही है कि जेनेटिक ब्लू प्रिंट के मुताबिक अपनी-अपनी प्रजाति की मां का दूध सबसे
अच्छा होता है इसलिए गाय का बछड़ा गाय का दूध, बकरी का मेमना बकरी का दूध,
बिल्ली का बच्चा बिल्ली का दूध और शेरनी का बच्चा शेरनी का दूध पीता है। इस प्रकार
सभी स्तनधारी प्राणियों की मांएं अपने बच्चों के पोषण और विकास के लिए दूध देती हैं।

लेकिन यह भी सदियों से आजमाई हुई बात है कि जिन प्राणियों की मां नहीं होती या दूध
नहीं दे पाती, गाय उनकी मां बन जाती है। गाय का दूध सभी प्राणियों के अनुकूल पड़ता है
और पर्याप्त मात्रा में प्राप्त किया जा सकता है। इसके उलट अन्य प्राणियों का दूध
प्रतिकूल और अपर्याप्त होने से सभी के काम नहीं आता। लेकिन याद रखें कि दूध
मां का हो या गाय का, उसका सेवन करने की एक निश्चित मात्रा होती है। यदि उससे
अधिक ग्रहण किया जाएगा, तो हानि पहुंचाएगा। इसलिए ‘हितमित भुख’ यानी थोड़ा और
हितकारी भोजन करने को कहा गया है। अति तो हर चीज की बुरी होती है। यह कह कर
भी दूध को खारिज नहीं किया जा सकता कि वह छह से आठ घंटे में पचता है। बहुत
सी ऐसी शक्तिवर्धक चीजें (बादाम, काजू, मूंगफली आदि) हैं, जिन्हें पचने में इससे
ज्यादा समय लगता है।

शिशु अवस्था में लेक्टॉस एंजाइम का पर्याप्त मात्रा में स्त्राव होता है। वे ही एंजाइम दूध
को पचाते हैं, इसलिए बच्चों का वह पूर्ण आहार होता है, लेकिन जैसे-जैसे उम्र
बढ़ती जाती है, लेक्टॉस एंजाइम का स्त्राव घटता जाता है। फिर भी लगातार दूध पीने
वालों को यह पचता रहता है। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफॉर्निया में क्लिनिकल
इम्यूनोलॉजी के प्रोफेसर डॉ. ट्यूबर का कहना है कि जो वयस्क आदतन दूध और उससे
बने उत्पादों का सेवन करते हैं, उनके लेक्टॉस एंजाइम सक्रिय बने रहते हैं और दूध
पचता रहता है। लेकिन जो बचपन के बाद दूध का सेवन बंद कर देते हैं, उनमें इस एंजाइम
का संश्लेषण बंद हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों को दूध पीने के बाद डायरिया और पेट दर्द
की शिकायत हो सकती है। लेकिन दूध नहीं पचा सकने वाला व्यक्ति अगर (चावल,
रोटी आदि के साथ) थोड़ा-थोड़ा बढ़ाते हुए क्रम से दूध का सेवन करता है, तो एंजाइम
की मात्रा सुधर जाती है और दूध पचने लगता है।

दूध इतना अधिक होता है कि उसे दुहा जाना जरूरी है। हानाह शोध संस्थान के डॉक्टर
वाइल्ड का कहना है कि अगर दूध दुहा न जाए, तो स्तन ग्रंथियों पर बुरा असर पड़ता है।
इससे स्तन कोशिकाएं मरने लगती हैं। लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि बछड़े को पेट भर
दूध मिले। इंजेक्शन का इस्तेमाल कभी नहीं करना चाहिए।

दूध का उपयोग अनादिकाल से हो रहा है। हमारे महापुरुष इसी अमृत को पीकर बड़े हुए।
इसलिए दूध के आलोचकों को न सिर्फ तथ्यों से, बल्कि परंपरा से भी सबक लेना चाहिए।

ईश्वर नियंता है, न्यायकारी है, आधीन नहीं

मित्रो,

आज बात करते हैं सिद्धांतो और नियमो की – क्योंकि बिना इनके न तो धर्म संभव है न ही ज्ञान –

वैदिक विचार – ईश्वर ऐसा कुछ नहीं कर सकता जो सृष्टि नियम और सिद्धांत विरुद्ध हो – क्योंकि ईश्वर सर्वज्ञ है – न्यायकारी है – सत्य है – ज्ञानी है आदि आदि।

कुछ हिन्दू भाई धर्म तत्त्व से अनभिज्ञ होकर सृष्टि नियम व सिद्धांतो को ताक पर रखकर ईश्वर पर केवल दोष सिद्ध करके उसे न्यायकारी परमात्मा को अन्यायकारी और नियम विरुद्ध चलने वाला मान बैठते हैं – जिससे वो खुद ही नहीं जान पाते की ईश्वर क्या है – आइये एक छोटे से उदहारण से समझने की कोशिश करते हैं –

सिद्धांत क्या हैं और नियम क्या हैं – पहले ये समझना होगा –

सिद्धांत – जो अटल हो – सत्य हो – तर्कपूर्ण हो – जिनसे सिद्ध किया जाता है – ये छोटी सी परिभाषा है – समझने के लिए।

नियम – जो नियमित हो – जिनमे परिवर्तन न होता हो – जो मान्य हो – सत्य और न्याय पर आधारित हो – ये छोटी सी परिभाषा है – समझने के लिए।

2 + 2 = 4 ये एक बहुत छोटा सा सवाल है जिसे एक पहली कक्षा में पढ़ने वाला विद्यार्थी भी आसानी से हल कर सकता है – ये सवाल जिसका जवाब सैद्धांतिक और नियमानुसार नहीं बदल सकता – एक ही जवाब आएगा चाहे किसी भी प्रकार सिद्ध किया जाये।

यदि हम भी इस सवाल का उत्तर देंगे तो यही होगा – क्योंकि यह न्याय और सिद्धांतो की बात है – इसका कतई मतलब ये नहीं निकल सकता की हम इस सिद्धांत के आधीन हैं।

आधीनता और स्वाधीनता चेतन तत्वों में ही चरितार्थ हो सकती है – जड़ तत्वों में नहीं। क्योंकि सिद्धांत और नियम जड़ तत्व हैं – इसलिए कोई चेतन वस्तु इनके आधीन नहीं हो सकती।

अब कुछ लोग कहेंगे क्योंकि भारतीय संविधान है वो जड़ है मगर एक जज उसके आधीन है। तो यहाँ दो बाते समझने वाली हैं –

१. क्योंकि संविधान है – तो उसको किसीने बनाया होगा – और बनाने वाला चेतन होगा क्योंकि विचार और कर्म चेतन में ही संभव है जड़ में नहीं। इसलिए यदि आप कहो की कोई जज भारतीय संविधान के आधीन है तो पहले तो आपको यही सिद्धांत स्वीकार करना पड़ेगा की ईश्वर है क्योंकि इस सृष्टि के नियम और सिद्धांत स्वयं नहीं बन सकते उनको बनाने वाली कोई सत्ता होनी चाहिए जो चेतन हो इसलिए ईश्वर है।

२. जज आधीन नहीं, स्वतंत्र है क्योंकि वो अपने विवेक और न्याय से फैसला करता है। यदि जज किसी के आधीन हो तो न्याय नहीं कर सकता क्योंकि न्याय करने के लिए नियम होने चाहिए इसलिए वो नियमानुसार ही न्याय करेगा यदि नियमानुसार न्याय न करे तो पक्षपाती और दुष्ट कहलाये फिर उसको जज कोई कैसे कहे ? इसलिए की ईश्वर न्यायकारी है और न्याय के लिए नियम चाहिए क्योंकि वो सबको एकसमान न्याय करता है पक्षपात नहीं इसलिए वो नियंता है –

नियंता आधीन नहीं होता – नियंता नियम से न्याय करता है इसीलिए वो स्वतंत्र होना चाहिए – बिना स्वतंत्र हुए वो नियमपूर्वक न्याय नहीं कर सकता।

जीव नियमो के आधीन है क्योंकि जीव को कर्मो के फल भोग करने हैं। और ईश्वर स्वतंत्र है इसलिए नियमानुसार कर्मो के फल, जीव को भोग करवाता है।

अतः ईश्वर सर्वज्ञ, न्यायकारी है इसलिए स्वतंत्र है।

जीव अल्पज्ञ है, कर्मो के फल भोग हेतु परतंत्र है।

जगत और जगत का कारण जड़ है।

नमस्ते

शिवलिंग – ईश्वर के कल्याणकारी और मंगलमय होने का प्रमाण

कुछ लोग लिंग शब्द की व्याख्या ठीक नहीं करते –

कुछ लिंग शब्द की व्याख्या ही गलत करते हैं –

कुछ ऐसे भी हैं जो लिंग शब्द की व्याख्या अपने अनुरूप करते हैं –

अब पता नहीं ये अति विशिष्ट ज्ञानी – कौन से ज्ञान का प्रदर्शन करते है ?????

सदैव अर्थ का अनर्थ ही करते हैं –

उनमे कुछ ऐसे भी हैं जो बस केवल लिंग शब्द की व्याख्या कर “शिवलिंग” को सिद्ध करना चाहते हैं – जब इन व्यख्याकारो से इस शब्द के अर्थ का प्रमाण मांगो की ये अर्थ कहाँ से किस आधार पर किया तो वो उनके पास होता नहीं – फिर और ज्ञान का प्रदर्शन कर अपशब्द और भद्दी भद्दी गालियाँ शुरू हो जाती हैं – जब पुराणो से “शिवलिंग” बताओ तो मानते नहीं – बस अपना अनर्थ ही सिद्ध करने का प्रयोजन करते हैं जो ठीक विदित नहीं होता –

आइये देखते हैं – लिंग का अर्थ आखिर है क्या ???

लिंग का अर्थ होता है “प्रमाण” –
ब्रह्म सूत्र के चौथे अध्याय के पहले पाद का दूसरा सूत्र है-

“लिंगाच्च”

वेदों और वेदान्त में लिंग शब्द सूक्ष्म शरीर के लिए आया है. सूक्ष्म शरीर 17 तत्त्वों से बना है. शतपथ ब्राह्मण-5-2-2-3 में इन्हें सप्तदशः प्रजापतिः कहा है. मन बुद्धि पांच ज्ञानेन्द्रियाँ पांच कर्मेन्द्रियाँ पांच वायु. इस लिंग शरीर से आत्मा की सत्ता का प्रमाण मिलता है. वह भासित होती है. आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी के सात्विक अर्थात ज्ञानमय अंशों से पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और मन बुद्धि की रचना होती है. आकाश सात्विक अर्थात ज्ञानमय अंश से श्रवण ज्ञान, वायु से स्पर्श ज्ञान, अग्नि से दृष्टि ज्ञान जल से रस ज्ञान और पृथ्वी से गंध ज्ञान उत्पन्न होता है. पांच कर्मेन्द्रियाँ हाथ, पांव, बोलना. गुदा और मूत्रेन्द्रिय के कार्य सञ्चालन करने वाला ज्ञान.
प्राण अपान,व्यान,उदान,सामान पांच वायु हैं. यह आकाश वायु, अग्नि, जल. और पृथ्वी के रज अंश से उत्पन्न होते हैं. प्राण वायु नाक के अगले भाग में रहता है सामने से आता जाता है. अपान गुदा आदि स्थानों में रहता है. यह नीचे की ओर जाता है. व्यान सम्पूर्ण शरीर में रहता है. सब ओर यह जाता है. उदान वायु गले में रहता है. यह उपर की ओर जाता है और उपर से निकलता है. सामान वायु भोजन को पचाता है.

आइये अब देखते हैं शिव का अर्थ क्या होता है –

“मंगलमय और कल्याणकर्ता”

अब इन दोनों अर्थो को मिला कर देखिये –

शिव + लिंग = मंगलमय और कल्याणकर्ता + प्रमाण

तो इससे सिद्ध है की शिवलिंग का अर्थ हुआ

वह ईश्वर जो मंगलमय और कल्याणकर्ता है उसका यह प्रमाण है की – मृत्यु के उपरान्त प्राणी की आत्मा को आवृत्त रखनेवाला वह सूक्ष्म शरीर जो पाँचों, प्राणों, पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, पाँचों सूक्ष्मभूतों, मन, बुद्धि और अहंकार से युक्त होता है परन्तु स्थूल अन्नमय कोश से रहित होता है। लोक-व्यवहार में इसी को सूक्ष्म-शरीर कहते हैं। विशेष—कहते हैं कि जब तक पुनर्जन्म न हो या मोक्ष की प्राप्ति न हो, तब तक यह शरीर बना रहता है।

शिव कल्याणकर्ता है – मंगलमय है इसीलिए वह ईश्वर (शिव) यह कर्मफल व्यवस्था है कि आप जब तक मोक्ष प्राप्त न कर लो – इस हेतु आपका पुनर्जन्म होता रहेगा – और ये सूक्ष्म शरीर इसी लिए प्रमाण है की आप स्थूल शरीर से उत्तम कर्म करते हुए मोक्ष प्राप्त करो – इसी कारण ईश्वर को शिव अर्थात कल्याणकारी कहा जाता है।

यह है वैज्ञानिक और वेदो के आधार पर “शिवलिंग” का अर्थ –

वह शिवलिंग नहीं जिसका पुराणो में बड़ा ही अश्लील चित्रण मिलता है –

मैं सभी हिन्दू भाइयो से विनम्र प्रार्थना करता हु कृपया सत्य को जाने – वेदो को पढ़िए – ज्ञान और विज्ञानं की और लौटिए – दुराग्रह को त्याग कर सत्य को जाने और शिव को शिव (मंगलमय और कल्याणकर्ता) ही जाने – अन्य नहीं –

नमस्ते –

द्रौपदी का चीरहरण – मिथक से सत्यता की ओर

मेरे सभी हिन्दू भाइयो और बहिनो –

जो जो भी व्यक्ति – महाभारत में ऐसा सोचते और समझते हैं की द्रौपदी के “चीर हरण” जैसा कुत्सित और भ्रष्ट आचरण हुआ था –

तो ऐसी विसंगति को दिमाग से पूरी तरह हटा देवे – और जो इस पोस्ट में लिखा जा रहा है – उसे ध्यान पूर्वक पढ़े – निष्पक्ष होकर जांच करे और जो सत्य हो उसे मान लेवे –

यहाँ पोस्ट को बड़ी करने का उद्देश्य नहीं है – इसलिए पॉइंट तो पॉइंट बात लिखूंगा – यदि किसी भाई को स्पष्टीकरण चाहिए तो विषय से सम्बंधित सन्दर्भ दिए गए हैं स्वयं जांच कर लेवे – तब भी कोई शंका शेष हो तो सवाल पूछ लेवे –

पहली बात – जब द्यूतक्रीड़ा महाभारत में आरम्भ हुई और युधिष्ठर ने स्वयं और अपने भाइयो को तथा अपनी “पत्नी द्रौपदी” को दांव पर लगा दिया – और हार गए –
तब यहाँ ये जानना आवश्यक है कि वो क्या हार गए और हारने के बाद क्या बन गए ?

देखिये –

दुर्योधन ने जब देखा की शकुनि ने युधिष्ठर से सब कुछ जीत लिया है तो आदेश दिया –

दुर्योधन बोला – विदुर ! यहां आओ। तुम जाकर पांडवो की प्यारी और मनोनुकूल द्रौपदी को यहाँ ले आओ। वह पापाचारिणी शीघ्र यहां आये और मेरे महल में झाड़ू लगाये। उसे वहीँ दासियों के साथ रहना होगा।

द्यूतपर्व – अध्याय ६६ श्लोक १

यहाँ स्पष्ट है – दुर्योधन ने पांडवो और द्रौपदी को केवल लज्जित ही करना था इसलिए विदुर को बोला गया की द्रौपदी जो एक कुल की रानी थी – को “दासी” और पांडव जो राजा थे उन्हें – “दास” बना कर लज्जित ही करना मात्र दुर्योधन का मंतव्य था –

विदुर के विरोध और नीतिवचन सुनने के बाद दुर्योधन ने “प्रतिकामिन” को आदेश दिया की द्रौपदी को यहाँ ले आवो (दासीरूप में झाड़ू लगाने हेतु)

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ श्लोक २

प्रतिकामिन ने द्रौपदी से कहा –

द्रुपदकुमारी ! धर्मराज युधिष्ठर जुए के मदसे उन्मत्त हो गए थे। उन्होंने सर्वस्व हारकर आप को दांव पर लगा दिया। तब दुर्योधन ने आपको जीत लिया। याज्ञसेनी ! अब आप धृतराष्ट्र के महल में पधारे। मैं आपको वहां दासी का काम करवाने के लिए ले चलता हूँ।

यहाँ भी बिलकुल स्पष्ट है की द्रौपदी को केवल दासी के काम हेतु महल की सफाई आदि करवाने के उद्देश्य से दुर्योधन ने प्रतिकामिन को भेजा था – ताकि द्रौपदी और पांडवो का मानमर्दन हो सके – अन्य कोई मंतव्य दुर्योधन का नहीं था।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ श्लोक ४

उपरोक्त श्लोको से स्पष्ट है – दुर्योधन का मंतव्य द्रौपदी का चीरहरण करना तो बिलकुल गलत और समाज को भ्रामित करने वाली बात गढ़ी गयी है।

आगे देखिये –

कुछ मित्र कहते हैं की दुःशासन द्रौपदी को जबरदस्ती पकड़ कर – सभाग्रह ले आया – यहाँ पर भी कुछ शंका खड़ी होती है –

वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! दुर्योधन क्या करना चाहता है, यह सुनकर युधिष्ठर ने द्रौपदी के पास एक ऐसा दूत भेजा, जिसे वह पहचानती थी और उसी के द्वारा यह सन्देश कहलाया – “पाँचालराजकुमारी ! यद्यपि तुम रजस्वला और नीवी (नाभि) को नीचे रखकर एक ही वस्त्र धारण कर रही हो, तो भी उसी दशा में रोती हुई सभामे आकर अपने श्वसुर के सामने खड़ी हो जाओ।

“तुम जैसी राजकुमारी को सभा में आई देख सभी सभासद मन ही मन इस दुर्योधन की निन्दा करेंगे।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ श्लोक १८-२१

यहाँ धर्मराज युधिष्ठर की बात से भी प्रमाण मिलता है की द्रौपदी का चीरहरण जैसी घटना – समाज को भ्रमित करने हेतु कुछ धूर्तो ने रची – यदि दुर्योधन का मंतव्य केवल द्रौपदी का चीरहरण करना ही था – तो युधिष्ठर द्रौपदी को सभा में आने के लिए क्यों कहते ?

जबकि यह स्पष्ट है की द्रौपदी को युधिष्ठर ने सभा में आने के लिए दूत से बुलावा भेज दिया – और द्रौपदी भी सभा में आने को तईयार थी – तब ये कहना की दुःशाशन जबरदस्ती द्रौपदी को पकड़ कर सभा में ले आया संदेह प्रकट करता है – खैर यदि ये मान भी ले की दुःशासन ने द्रौपदी को बाल से खींच घसीट कर सभा में ले आया – तो उसका वृतांत महाभारत में देखिये

दुःशासन के खींचने से द्रौपदी का शरीर झुक गया। उसने धीरे से कहा -‘ओ मंदबुद्धि दुष्टात्मा दुःशासन। में रजस्वला हूँ तथा मेरे शरीर पर एक ही वस्त्र है। इस दशा में मुझे सभा में ले जाना अनुचित है।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ : ३२

दुःशासन बोला – द्रौपदी ! तू रजस्वला, एकवस्त्रा अथवा नंगी ही क्यों न हो, हमने तुझे जुए में जीता है ; अतः तू हमारी दासी हो चुकी है, इसलिए अब तुझे हमारी इच्छा के अनुसार दासियों में रहना पड़ेगा।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ : ३४

यहाँ दुःशासन के बोले शब्द देखिये – दुःशासन का उद्देश्य भी द्रौपदी का चीरहरण करना नहीं था – बल्कि यहाँ भी स्पष्ट है की कौरवो – दुर्योधन आदि को केवल पांडवो और द्रौपदी को “दास” आदि बनाकर भरी सभा में अपमानित ही करना था।

वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! उस समय द्रौपदी के केश बिखर गए थे। दुःशासन के झकझोरने से उसका आधा वस्त्र भी खिसककर गिर गया था। वह लाज से गाड़ी जाती थी और भीतर ही भीतर दग्ध हो रही थी। उसी दशा में वह धीरे से इस प्रकार बोली

द्रौपदी ने कहा – अरे दुष्ट ! ये सभा में शास्त्रो के विद्वान, कर्मठ और इंद्र के सामान तेजस्वी मेरे पिता के सामान सभी गुरुजन बैठे हुए हैं। मैं उनके सामने इस रूप में कड़ी होना नहीं चाहती।

क्रूरकर्मा दुराचारी दुःशासन ! तू इस प्रकार मुझे ना खींच, ना खींच, मुझे वस्त्रहीन मत कर। इंद्र आदि देवता भी तेरी सहायता के लिए आ जाएँ, तो भी मेरे पति राजकुमार पांडव तेरे इस अत्याचार को सहन नहीं कर सकेंगे।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ : ३५-३७

यहाँ ही वह शब्द है जहाँ पर द्रौपदी को घसीटने के कारण – द्रौपदी के रजस्वला अवस्था में पहने हुए एक वस्त्र के सरकने से द्रौपदी के चीरहरण की कथा गढ़ ली गयी – जबकि ये चीरहरण नहीं था – केवल द्रौपदी को दुःशासन द्वारा खींचा गया –
घसीटा गया – जिसके परिणामस्वरूप द्रौपदी का एकमात्र पहना हुआ वस्त्र शरीर से थोड़ा सरक गया – जिसके आधार पर पूरी की पूरी मिथ्या कथा बना दी गयी – की द्रौपदी का चीरहरण हुआ –

यदि द्रौपदी का चीरहरण करना उद्देश्य ही नहीं था दुर्योधन का तो चीरहरण जैसी कुत्सित भ्रान्ति क्यों और किसलिए फैलाई गयी ?

इस लेख को ज्यादा बड़ा बनाने का कोई औचित्य नहीं – इसलिए यहाँ से स्पष्ट होगा की द्रौपदी का चीरहरण नहीं हुआ –

अब जो महाभारत में द्रौपदी के चीरहरण की झूठी और बेबुनियाद कथा जोड़ी गयी है अगले लेख में उसका भंडाफोड़ करेंगे – कैसे “द्रौपदी का चीरहरण” घटना जो महाभारत में जबरदस्ती ठूंसा गया – और क्यों ?

शेष अगले लेख में अगले लेख का इन्तेजार करे –

सीता की उत्पत्ति – मिथक से सत्य की और

जनक के हल जोतने पर भूमि के अन्दर फाल का टकराना तथा उससे एक कन्या का पैदा होना और फिर उसी का नाम सीता रखना आदि असंभव होने से प्रक्षिप्त है । इस विषय में प्रसिध्द पौराणिक विद्वान स्वामी करपात्री जी ने स्वरचित ”रामायण मीमांसा’ में लिखा है – “पुराणकार किसी व्यक्ति का नाम समझाने के लिए कथा गढ़ लेते है। जनक पुत्री सीता के नाम को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने वैदिक सीता ( = हलकृष्ट भूमि) से सम्बन्ध जोड़कर उसका जन्म ही भूमि से हुआ

बता दिया” ( पृ ० 89 ) अथवा यह हो सकता है कि किसी ने कारणवश यह कन्या खेत में फेक दी हो और संयोगवश वह जनक को मिल गई हो अथवा किसी ने ‘खेत में पडी लावारिस कन्या मिली है’ यह कहकर जनक को सौप दी हो फिर उन्होंने उसे पाल लिया हो । महर्षि कण्व को शकुन्तला इसी प्रकार मिली थी। और प्राप्ति के समय पक्षियों द्वारा संरक्षित एवं पालित (न कि प्रसूत) होने से उसका नाम शकुन्तला रख दिया था ।

धरती को फोड़कर निकलने बालों की “उद्भिज्ज” संज्ञा है। तृण, औषधि, तरु, लता आदि उद्भिज्ज कहलाते हैं । मनुष्य, पश्वादि, जरायुज, अण्डज और स्वेदज प्राणियों के अन्तर्गत है । मनुष्य वर्ग में होने के कारण सीता की उत्पत्ति पृथिवी से होना प्रकृति विरुध्द होने से असंभव है।

सीता की उत्पति पृथिवी से कैसे मानी जा सकती है, जबकि बाल्मीकि रामायण में अनेक स्थलों में उसे जनक की आत्मजा एवं औरस पुत्री तथा उर्मिला की सहोदरा कहा गया है –

वर्धमानां ममात्मजाम् (बाल० 66/15) ;

जानकात्मजे (युद्ध० 115/18) ;

जनकात्मजा (रघुवंश 13/78)

महाभारत में लिखा है –

विदेहराजो जनक: सीता तस्यात्मजा विभो
(3/274/9)

अमरकोश (2/6/27) में ‘आत्मज’ शब्द का अर्थ इम प्रकार लिखा है –

आत्मनो देहाज्जातः = आत्मजः अर्थात जो अपने शरीर से पैदा हो, वह आत्मज कहाता है। आत्मा क्षेत्र (स्त्री) का पर्यायवाची है ; क्षेत्र और शरीर पर्यायवाची है।

क्षीयते अनेन क्षेत्रम

स्त्री को क्षेत्र इसलिए कहते हैं की वह संतान को जनने से क्षीण हो जाती है। पुरुष बीजरूप होने से क्षीण नहीं होता ।

रघुवंश सर्ग 5, श्लोक 36 में लिखा है –

ब्राह्मे मुहूर्ते किल तस्य देबी कुमारकल्पं सुषुवे कुमारम् ।
अत: पिता ब्रह्मण एव नाम्ना तमात्मजन्मानमजं चकार ।।

महामना पं ० मदनमोहन मालवीय की प्रेरणा से संवत 2000 में विक्रमद्विसहस्राब्दी के अवसर पर संस्थापित अखिल भारतीय विक्रम परिषद द्वारा नियुक्त कालिदास ग्रंथावली के संपादक मण्डल के प्रमुख साहित्याचार्य पं ० सीताराम चतुर्वेदी ने उक्त श्लोक में आये “आत्मजन्मान्म” का अर्थ रघु की रानी की कोख से जन्मा किया हैं । तव जनक की ‘आत्मजा’ का अर्थ पृथिवी से उत्पन्न कैसे हो सकता है ? ब्रह्म मुहुर्त में जन्य लेने के कारण रघु ने अपने पुत्र का नाम अज (अज ब्रह्मा का पर्यायवाची है, क्योंकि ब्रह्मा का भी जन्म नहीं होता) रखा। अज का अर्थ जन्म न लेने वाला होता है। कोई मूर्ख ही कह सकता है कि अज का यह नाम इसलिए रखा गया था, क्योंकि वह पैदा नहीं हुआ था।

आत्मज या आत्मजा उसी को कह सकते हैं जो स्त्री – पुरुष के रज-वीर्य से स्त्री के गर्म से उत्पन्न हो, इसमें सामवेद ब्राह्मण प्रमाण है-

अंगदङ्गात् सम्भवसि हृदयादधिजायते ……. आत्मासि पुत्र।
(1.5.17)

है पुत्र ! तू अंग-अंग से उत्पन्न हुए मेरे वीर्य से और हदय से पैदा हुआ है, इसीलिए तू मेरा आत्मा है । खेत से उत्पन्न होने से तो तृण, औषधि, वनस्पति, वृक्ष, लता आदि सभी आत्मज और आत्मजा हो जाएँगे और बाप-दादा की सम्पत्ति में भागीदार हो जाएंगे।

‘जनी प्रादुर्भावे’ से जननी शब्द निष्पन्न होता है। इससे जन्म देने वाली को ही जननी कहते है। पालन-पोषण करने वाली यशोदा माता कहलाती थीं, परन्तु जन्म न देने के कारण जननी देवकी ही कहलाती थी। बनवास काल में अत्रि मुनि
के आश्रम में अनसूया से हुई बातचीत में सीता ने कहा था –

पाणिप्रदानकाले च यत्पुरा तवाग्निसन्निधौ।
अनुशिष्टं जनन्या में वाक्यं तदपि में घृतम् ।।
अयो० 118/8-9

विवाह के समय मेरी जननी ने अग्नि के सामने मुझे जो उपदेश दिया था, उसे मैं किंचित भूली नहीं हूँ । उन उपदेशों को मैंने हृदयंगम किया है ।

क्या यहाँ विवाह के समय उपदेश देने वाली यह ‘जननी’ पृथिवी हो सकती है ?
और क्या बेटी को विदा करते समय बिलख बिलख कर रोने वाली पृथिवी थी ?
यहाँ माता को ही जननी कहकर स्मरण किया है, पृथिवी को जननी नहीं कहा।

तुलसीदास जी ने तो माता = जननी का नाम भी इस चौपाई
में लिख दिया है :-

जनक वाम दिसि सोह सुनयना ।
हिमगिरि संग बनी जिमि मैना ।।
(रामचरितमानस बालकाण्ड 356/2)

(विवाह वेदी पर) सुनयना (महारानी) महाराजा जनक की बाई और ऐसी शोभायमान थी, मानो हिमाचल के साथ मैना (पार्वती की माता) विराजमान हो।

पाणिग्रहण संस्कार के समय जिस प्रकार रामचन्द्र जी की पीढियों का वर्णन किया गया था उसी प्रकार सीता की भी 22 पीढियों का वर्णन किया गया। यदि सीता की उत्पत्ति पृथिवी ये हुई होती तो पृथ्वी से पहले की पीढ़िया कैसे बनती ?
इसे शाखोच्चार कहते है । राजस्थान में विवाह के अवसर पर दोनो पक्षों के पुरोहित आज भी 22 के ही नहीं, 30-40 पीढ़ियों तक के नामो का उल्लेख करते हैं । साधारणतया सौ वर्ष में चार पुरुष समझे जा सकते हैं। इस प्रकार 40 पीढियों में लगभग एक हजार वर्ष बनते है। अर्थात् सर्वसाधारण लोग भी मुहांमुही सैकडों वर्षो के पारिवारिक इतिहास का ज्ञान रख सकते थे। जिसका 22 पीढ़ियों का क्रमिक इतिहास ज्ञात है उसे कीड़े-मकौडों या पेड़-पौधों की तरह पृथिवी से उत्पन्न हुआ नहीं माना जा सकता। वस्तुतस्तु सीता के पृथिवी से उत्पन्न होने

सम्बन्धी गप्प का स्रोत विष्णु पुराण, अंश 4, अध्याय 4, वाक्य 27-28 है जिसका वाल्मीकि रामायण में प्रक्षेप कर दिया गया है। जन्म को पृथ्वी से मानकर सीता का अंत भी पृथ्वी में समाने की कल्पना करके ही किया गया है ।

अयोनिजा – सीता को अनेक स्थलों में अयोनिजा कहा गया है । पृथिवी से उत्पन्न होने का अर्थ माता-पिता के बिना अर्थात स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना उत्पन्न होना है। इसी को अयोनिज सृष्टि कहते है, क्योंकि इसमें गर्भाशय से
बाहर निकलने में योनि नामक मार्ग का प्रयोग नहीं होता । सृष्टि के आदि काल में समस्त सृष्टि अमैथुनी होती हैं –

अमैथुनी सृष्टि से सम्बंधित पोस्ट का लिंक – यहाँ से पढ़े
https://www.facebook.com/Aryamantavya/photos/a.1418444565059896.1073741828.1418437208393965/1618030795101271/?type=1&theater

यहाँ यह तथ्य जरूर जोड़ा जाता है की सृष्टि चाहे मैथुनी हो अथवा अमैथुनी – प्राणियों के शरीरो की रचना परमेश्वर सदा माता पिता के संयोग से ही करता है।
पर दोनों में अंतर केवल इतना है की आदि सृष्टि में माता (जननी) पृथ्वी होती है और वीर्य संस्थापक सूर्य (ऋग्वेद 1.164.3) में कहा है –

“द्यौर्मे पिता जनिता माता पृथ्वी महीयम”

अर्थात सृष्टि के आदि काल में प्राणियों के शरीरो का उत्पादक पिता रूप में सूर्य था और माता रूप में यह पृथ्वी। परमात्मा ने सूर्य और पृथ्वी – दोनों के रज वीर्य के संमिश्रण से प्राणियों के शरीरो को बनाया। जैसे इस समय बालक माता के गर्भ में जरायु में पड़ा माता के शरीर में रस लेकर बनता और विकसित होता है, वैसे ही आदि सृष्टि में पृथ्वी रुपी माता के गर्भ में बनता रहता है। इसी शरीर को साँचा रुपी शरीर भी कहा जाता है जिससे हमारे जैसे मैथुनी मनुष्य उत्पन्न होते रहते हैं।

सीता का जन्म सृष्टिक्रम चालु होने और साँचे तैयार होने के बाद त्रेता युग में हुआ था, अतः सीता के अयोनिजा होने का प्रश्न ही नहीं उठता। जनक उनके पिता थे और रामचरितमानस के अनुसार सुनयना उनकी माता का नाम था।

मेरी सभी बंधुओ से विनती है, कृपया लोकरीति, मिथक, दंतकथाओं आदि पर आंखमूंदकर विश्वास करने से अच्छा है – खुद अपनी धार्मिक पुस्तको और सत्य इतिहास को पढ़ कर बुद्धि को स्वयं जागृत करते हुए दूसरे हिन्दू भाइयो को भी जगाये – ताकि कोई विधर्मी हमारे सत्य इतिहास और महापुरषो महा विदुषियों पर दोषारोपण न कर सके

आओ लौटे ज्ञान और विज्ञानं की और –

आओ लौट चले वेदो की और

नमस्ते

परमपिता परमात्मा ने चार ऋषियों को चारो वेदो का प्रकश उनके आत्मा में किया था

कोई वेद आगे पीछे पहले बाद में नहीं आया।

आक्षेप करिये – मगर जो आक्षेप का जवाब आपको मिल चूका – जिसमे आपकी सम्मति हो चुकी – तब पुनः उसी विषय को बार बार उठाना ये बुद्धिमानी नहीं – कृपया स्वयं एक बार इस पोस्ट को पढ़े फिर यदि कोई शंका हो तो बताये – अन्यथा इस सिद्धातं को जिस प्रकार सनातन मत मानता चला आ रहा है उसी प्रकार मानकर आगे बढ़िए – बाकी आपकी जैसी इच्छा वैसे करे।

वेदत्रयी : तीन प्रकार के मंत्रो के होने, अथवा वेदो मे ज्ञान,कर्म ओर उपासना तीन प्रकार के कर्तव्यो के वर्णन करने से वेदत्रयी कहे जाते है ।

यही बात सर्वानुक्रमणीवृत्ति की भूमिका मे ” षड्गुरुशिष्य” ने कही है-

”विनियोक्तव्यरूपश्च त्रिविध: सम्प्रदर्श्यते|
ऋग् यजु: सामरूपेण मन्त्रोवेदचतुष्टये||”

अर्थात् यज्ञो मे तीन प्रकार के रूप वाले मंत्र विनियुक्त हुआ करते है|

तस्माद यज्ञात सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद यज्ञुस्तस्मादजायत।। (यजु० 31.7)

उस सच्चिदानंद, सब स्थानो में परिपूर्ण, जो सब मनुष्यो द्वारा उपास्य और सब सामर्थ्य से युक्त है, उस परब्रह्म से ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद और छन्दांसि – अथर्ववेद ये चारो वेद उत्पन्न हुए।

अन्य साक्षी :

यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपकशन।
सामानि यस्य लोमानी अथर्वांगिरसो मुखं।
स्कम्भं तं ब्रूहि कतमःस्विदेव सः।। (अथर्व० 10.4.20)

अर्थ : जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर है, उसी से (ऋचः) ऋग्वेद (यजुः) यजुर्वेद (सामानि) सामवेद (अंगिरसः) अथर्ववेद, ये चारो उत्पन्न हुए हैं। इसी प्रकार रूपकालंकार से वेदो की उत्पत्ति का प्रकाश ईश्वर करता है की अथर्ववेद मेरे मुख के समतुल्य, सामवेद लोमो के सामान, यजुर्वेद ह्रदय के सामान और ऋग्वेद प्राण के सामान हैं, (ब्रूहि कतमःस्विदेव सः) चारो वेद जिससे उत्पन्न हुए हैं सो कौन सा देव है ? उसको तुम मुझसे कहो, इस प्रशन का उत्तर यह है की (स्कम्भं तम) जो सब जगत का धारणकर्ता परमेश्वर है, उसका नाम स्कम्भ है, उसी को तुम वेदो का कर्ता जानो। (ऋ० भा० भू० वेदोत्पत्ति विषय)

ब्राह्मणो ने भी इस मान्यता को यथावत स्वीकार किया है –

“एवं वा श्वरेस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्।
यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोथर्वांगिरसः।। (शत० 14.5)

अर्थात : उस महान शक्तिशाली परमात्मा के निश्वासरूप में प्रकट ये चारो वेद जो ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद और अंगिरा से प्रकट अथर्ववेद के नाम से प्रसिद्द हैं।

अन्य साक्षी :

“तेभ्यस्तप्तेभ्यस्त्र्यो वेदा अजायन्त, अग्नेऋग्वेदो, वायोर्यजुर्वेदः, सुर्यात्साम्वेदः।” (श० 11.5.2.3)

अर्थात : उन तपस्वी ऋषियों के माध्यम से परमात्मा ने अग्नि से ऋग्वेद, वायु से यजुर्वेद, सूर्य से सामवेद, इस प्रकार त्रयीविद्यारूप चार वेद प्रकट किये।

अब जब वेद और ब्राह्मण ग्रन्थ दोनों ही प्रमाण हैं फिर भी कैसे कोई सनातनी ये आक्षेप कर सकता है की अथर्ववेद बाद में आया है ? क्या ये सनातनी ज्ञान होगा अथवा नवीन भूल ?

खैर मनुस्मृति से एक साक्षी और देते हैं :

अध्यापयामास पितण्शिशुरांगिरसः कविः।
पुत्रका इतिहोवाच ज्ञानेन परिग्रह्य तान।। (मनु० 2.126)

[इस प्रसंग में एक इतिवृत्त भी है] (अंगिरसः शिशुः कविः) आंगिवंशी “शिशु” नामक बालक विद्वान ने (पितृन्) अपने पिता के सामान चाचा आदि पितरो को (अध्यापयामास) पढ़ाया (ज्ञानेन परिग्रह्य) ज्ञान देने के कारण (तान “पुत्रकाः” इति ह उवाच) उनको हे पुत्रो इस शब्द से सम्बोधित किया।

कवि शब्द की व्युत्पत्ति : कविः शब्द ‘कु-शब्दे’ (अदादि) धातु से ‘अच इ:’ (उणादि 4.139) सूत्र से ‘इ:’ प्रत्यय लगने से बनता है। इसकी निरुक्ति है :

‘क्रांतदर्शनाः क्रांतप्रज्ञा वा विद्वांसः (ऋ० द० ऋ० भू०)
“कविः क्रांतदर्शनो भवति” (निरुक्त 12.13)

इस प्रकार विद्याओ के सूक्ष्म तत्वों का दृष्टा, बहुश्रुत ऋषि व्यक्ति कवि होता है।
इसे “अनुचान” भी इस प्रसंग में कहा है [2.129] ब्राह्मणो में भी कवि के इस अर्थ पर प्रकाश डाला है –

“ये वा अनूचानास्ते कवयः” (ऐ० 2.2)

“एते वै काव्यो यदृश्यः” (श० 1.4.2.8)

“ये विद्वांसस्ते कवयः” (7.2.2.4)

शुश्रुवांसो वै कवयः (तै० 3.2.2.3)

शिशु अंगिरस – यह अंगिरावंश का एक विद्वान बालक था। बाल्यावस्था में मन्त्रद्रष्टा होने के कारण यह गुणाभिधान “शिशु” नाम से ही प्रसिद्द हो गया।
इसका यह आख्यान ताण्ड्य ब्राह्मण 13.3.23-24 और पञ्च ब्रा० 13.3.24 में यथावत आता है। वहां इसे “मन्त्रकृतां मन्त्रकृत” कहा है। ऋ० 9.112 सूक्त इसी शिशु ऋषि द्वारा दृष्ट है। सामवेद में यत्सोम चित्रम………” [उ० 3.2.13] तृच् को इसके द्वारा दृष्ट होने के कारण ही “शैशव साम” कहा गया है।

उपरोक्त वेद और इतिहास प्रमाणों से सिद्ध है की परमात्मा ने चारो ऋषिये के आत्माओ में एक एक वेद का प्रकाश एक ही समय में किया था। जब चारो वेदो ने स्वंय अर्थववेद के वेदत्व को स्वीकार किया है तो फिर अर्थववेद को नया बतलाकर वेद की सीमा से दूर करना मुर्खतामात्र है|

बाकी ज्ञानीजन विचार करे।

।। ओ३म ।।

क्या विवाह के समय श्री राम की आयु १६ वर्ष और माता सीता की आयु ६ वर्ष थी ?

शंका निवारण –

कुछ विशिष्ट जनो को भगवान राम और माँ सीता के विवाह के सन्दर्भ में कुछ भ्रान्ति है. कुछ तर्क वाल्मीकि रामायण से लेकर ये निष्कर्ष निकला जा रहा है की विवाह के वक़्त माँ सीता की उम्र मात्र छ साल की थी, जो सही नहीं है.. बाल्मीकि रामायण से एक श्लोक का प्रमाण निकालकर कुछ लोग ऐसा प्रमाणित करना चाहते हैं की श्रीराम और माता सीता का विवाह “बालविवाह” था – अर्थात – श्री राम की आयु १६ और माता सीता की आयु ६ वर्ष थी – जबकि ये सत्य नहीं –

आइये बाल्मीकि रामायण में सबसे पहले इसी श्लोक पर चर्चा कर लेते हैं की वहां क्या लिखा है –

उषित्वा द्वादश समाः इक्ष्वाकुणाम निवेशने |
भुंजाना मानुषान भोगतसेव काम समृद्धिनी ||
(अरण्यकाण्ड ४७: ४)

ध्यान दे की इस श्लोक में द्वा और दश शब्द अलग अलग है. येद्वादश यानि बारह नहीं बल्कि द्वा “दो” को और दश “दशरथ” को संबोधित करता है. इसमें माँ सीता, रावन से, कह रही है की इक्ष्वाकु कुल के राजा दशरथ के यहाँ पर दो वर्ष में उन्हें हर प्रकार के वे सुख जो मानव के लिए उपलब्ध है उन्हें प्राप्त हुए है। क्योंकि इस श्लोक में इक्ष्वाकु कुल का नाम सीता जी बोल रही हैं – लेकिन उस कुल में दशरथ पुत्र राम से उनका विवाह हुआ – स्पष्ट है – पुरे श्लोक में दशरथ नाम कहीं और भी नहीं लिखा है – इसलिए “द्वा” दो को और “दश” – महाराज दशरथ को सम्बोधन है।

इसे पूर्ण रूप से न समझ कर – कुछ ऐसा अर्थ किया जाता है – एक उदहारण –

“उस समय छोटे बच्चो को कमरे में बंद रखा जाता था” –
इसे कुछ इस तरह अर्थ किया गया –

“उस समय छोटे बच्चो को कमरे में बंदर खा जाता था” –

श्लोक का अर्थ थोड़ा गलत करने से पूरा मंतव्य ही बदल गया।

मम भर्ता महातेजा वयसा पंच विंशक ||३-४७-१० ||
अष्टा दश हि वर्षिणी नान जन्मनि गण्यते ||३-४७-११ ॥

इस श्लोक में माँ सीता कह रही है की उस समय (वनवास प्रस्थान के समय) मेरे तेजस्वी पति की उम्र पच्चीस साल थी और उससमय मैं जन्म से अठारह वर्ष की हुई थी. इसे ये ज्ञात होता है की वनवास प्रस्थान के समय माँ सीता की उम्र अठारह साल की थी औरवो करीब दो साल राजा दशरथ के यहाँ रही थी यानि माँ सीता की शादी सोलह साल की उम्र के आस पास हुई थी. ये केवल सोच और समझ का फेर है।

सिद्धाश्रम : श्री राम १४-१६वे वर्ष में ऋषी विश्वमित्र के साथ सिद्धाश्रम को गए थे। इस तथ्य की पुष्टि वाल्मीक रामायण के बाल काण्ड के वीस्वें सर्ग के शलोक दो से भी हो जाती है, जिसमे राजा दशरथ अपनी व्यथा प्रकट करते हुए कहते हैं- उनका कमलनयन राम सोलह वर्ष का भी नहीं हुआ और उसमें राक्षसों से युद्ध करने की योग्यता भी नहीं है।

उनषोडशवर्षो में रामो राजीवलोचन: न युद्धयोग्य्तामास्य पश्यामि सहराक्षसौ॥ (वाल्मीक रामायण /बालकाण्ड /सर्ग २० शलोक २)
चूँकि भगवान राम ऋषि विश्वामित्र के साथ चौदह अथवा सोलह वर्ष की उम्र में गए थे और उसके बाद ही उनका विवाह हुआ था इसे ये सिद्ध हो जाता है की प्रभु रामकी शादी सोलह वर्ष के उपरान्त हुई थी

श्री राम और लक्ष्मण ने – ऋषि विश्वामित्र के आश्रम सिद्धाश्रम में करीब १२ वर्ष तक निवास किया और ऋषि विश्वामित्र ने उन्हें ७२ शस्त्रास्त्रों का सांगोपांग ज्ञान तथा अभ्यास कराया –

यदि श्री राम की आयु ऋषि विश्वामित्र के साथ उनके आश्रम में जाते समय १६ नहीं १४ भी माने तो ऋषि विश्वामित्र के आश्रम में विद्या ग्रहण करते हुए १२ साल व्यतीत हुए जिसका योग २६ वर्ष होता है –

उपरोक्त तथ्यों से सिद्ध है की श्रीराम की आयु मिथिला में स्वयंवर जाते समय २५-२६ वर्ष थी और माता सीता की आयु १६ वर्ष थी।

अब भी यदि कुछ अतिज्ञानी नहीं मानते – तो कृपया बताये –

स्वयंवर के समय श्री राम की आयु यदि १६ वर्ष और माता सीता की आयु यदि ६ वर्ष मानते हो – तो वनवास क्या श्री राम २-४ वर्ष की आयु में गए ?

कृपया सत्य को जाने वेदो की ओर लौटिए –

नमस्ते –

नोट : प्रथम पद में यह द्वी शब्द रहता है – यहाँ पर द्वा द्विवचन का रूप है।

आदि सृष्टि के मनुष्यो की भाषा क्या थी और भाषा का विस्तार कैसे हुआ ?

भाषा की उत्पत्ति :

मानव जिस समय पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ उस समय बोलने और समझने की शक्ति समपन्न अवस्था थी – यह निर्देश पहले भी किया जा चुका है की आदि सृष्टि के मनुष्य युवा अवस्था के उत्पन्न होते हैं – इसलिए उनमे बोलने की शक्ति थी तो यह भी मानना होगा की वर्ण भी थे जिनके द्वारा वह अपनी वाणी को प्रकट कर सके। यदि कोई यह माने की वर्ण नहीं थे तो उसके साथ यह भी स्वीकार करना ही पड़ेगा की मनुष्य आदिम अवस्था में गूंगा उत्पन्न हुआ। यदि गूंगा उत्पन्न हुआ तो फिर वह किसी भी हालत में बोलने वाला नहीं हो सकता। इसलिए निष्कर्ष यही निकलेगा की उसमे बोलने की शक्ति थी और जब बोलने की शक्ति थी तो ये भी तथ्यात्मक है की जो भाषा वो बोले उनके वर्ण भी होने चाहिए।

जो लोग कहते हैं की सेमिटिक भाषाए, हीब्रू अथवा अरबी आदि आर्य भाषाओ से स्वतंत्र हैं वह गलती पर हैं, कारण की मनुष्य किसी नवीन भाषा को तो कभी बना ही नहीं सकता ?

क्योंकि मैथुनी (सेक्स) सृष्टि के लोगो की भाषा सदैव उनके मातापिता तथा गुरु की भाषा होती है। लेकिन आदि मनुष्यो की भाषा पूर्ण (संस्कृत) भाषा ही थी ऐसा नियम इसलिए मान्य है क्योंकि आदि मनुष्यो का माता पिता और गुरु ईश्वर के अतिरिक्त और कोई थे ही नहीं। तो ऐसी स्थति में और कोई देशीय भाषा विरासत में मिलना असंभव है – तो साफ़ है उनकी केवल वही भाषा होगी जो सृष्टि के पदार्थो में विद्यमान हो – परमेश्वर द्वारा मनुष्य पर प्रकट किये जाने वाले ज्ञान के पूर्ण माध्यम होने की उस भाषा में क्षमता हो और वह ऐसी भाषा होनी चाहिए जो सदा प्रत्येक कल्प में एक सी रहती हो तथा आगे बोल चाल की समस्त भाषाओ को उत्पन्न करने में सक्षम हो। विशेष बात यह है की वो किसी देश विदेश की भाषा न हो और न उससे पूर्व कोई ज्ञान वा भाषा पृथ्वी पर कहीं मौजूद हो

बस यही बात है जो विशेष वर्णन के योग्य है की परमेश्वर ने मानव के पृथ्वी पर आने के साथ ही साथ वेद ज्ञान की प्रेरणा मनुष्य में दी – और वह वेद की भाषा “संस्कृत” में ईश्वरीय ज्ञान मानव को मिला जो आदि ज्ञान और आदि भाषा – दोनों था।

वाणी भाषाओ का विस्तार –

ऊपर जो कुछ दर्शाया गया है उसका भाव यह है की आदि अमैथुनी सृष्टि के मनुष्यो के शरीर तथा शरीर के सब अंग आदि आदर्श रुपी थे, जैसे वो आदि सृष्टि के मनुष्य मैथुनी सृष्टि के मनुष्यो के लिए साँचे रुपी थे अर्थात मनुष्य समाज के प्रवर्तक थे वैसे ही आदि भाषा भी साँचा रुपी और सभी भाषाओ की प्रवर्तक होनी चाहिए। इसीलिए उस आदि भाषा का नाम संस्कृत है। संस्कृत का अर्थ होगा पूर्ण भाषा यानी जो पूर्ण भाषा हो वो संस्कृत कहलाएगी।

इसी प्रकार अपूर्ण भाषाए जो वेद भाषा से संकोच, अपभ्रंश और मलेच्छित आदि होकर मनुष्य के बोल चाल की भाषाए बनती हैं। क्योंकि संस्कृत भाषा के दो भाग हैं –

1. वैदिक संस्कृत
2. लौकिक संस्कृत

प्राय सभी पश्चिमी विद्वान और अनेक भारतीय अनुसन्धानी भी संस्कृत को ही सभी भाषाओ का मूल मानते हैं – पर ध्यान देने वाली बात है की लौकिक संस्कृत की जन्मदात्री वैदिक संस्कृत है। वैदिक संस्कृत ही आदि भाषा है क्योंकि वैदिक संस्कृत अर्थात वेद की भाषा कभी भी किसी भी देश वा किसी जाती की अपने बोलचाल की भाषा नहीं रही है – क्योंकि वेदो में वाक्, वाणी आदि पदो का प्रयोग देखा जाता है भाषा का नहीं।

अब हम समझते हैं भाषा का विस्तार किस प्रकार हुआ – देखिये वेद में वैदिकी वाणी को नित्य कहा है –

तस्मै नूनमभिद्यवे वाचा विरूप नित्यया।

(ऋग्वेद 8.75.6)

नित्यया वाचा – अर्थात नित्य वेदरूप वाणी – यानी की वैदिक संस्कृत यह सब वाणियों (भाषाओ) की अग्र और प्रथम है –

बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्नं

(ऋग्वेद 10.71.1)

प्रभु से दी गयी वेदवाणी ही इस सृष्टि के प्रारंभिक शब्द थे।

ईश्वर की प्रेरणा से यह वाणी सृष्टि के प्रारम्भ में ऋषियों पर प्रकट होती है।

यज्ञेन वाचः पदवीयमायणतामानवविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम्।

(ऋग्वेद 10.71.3)

प्रभु अग्नि आदि को वेदज्ञान देते हैं इससे अन्य यज्ञीय वृत्तिवाले ऋषियों को यह प्राप्त होती है – इसी मन्त्र में आगे लिखा है –

इस ही प्रथम, निर्दोष और अग्र वाणी को लेकर लोग बोलने की भाषा का विस्तार करते हैं।

तामाभृत्या व्यदधुः पुरूत्रा तां सप्त रेभा अभी सं नवंते।।

(ऋग्वेद 10.71.3)

इस वाणी को ऋषि मानव समाज में प्रचारित करते हैं। यह वेदवाणी सात छन्दो से युक्त है अर्थात २ कान – २ नाक – २ आँख और एक मुख ये सात स्तोता बनकर इसे प्राप्त करते हैं –

उपरोक्त प्रमाणों और तथ्यों से सिद्ध होता है की मनुष्य की एक ही भाषा थी – और मनुष्यो ने इसी वेद वाणी से अर्थात प्रथम व पूर्ण भाषा संस्कृत से – अपूर्ण भाषाए – अर्थात जितनी भाषाए आज प्रचलित हैं उनका निर्माण किया – लेकिन वैदिक संस्कृत में आज भी कोई फेर बदल नहीं हो सका – क्योंकि वैदिक संस्कृत पूर्ण भाषा है –

कृपया सत्य को जानिये –

वेद की और लौटिए —

बोद्ध ग्रंथो में मासाहार (झूटी अंहिसावाद )


बोद्ध ओर नवबोद्ध अपने आप को कितना भी संयमी ,सात्विक आहारी बताये लेकिन बोद्ध देशो को देखने पर पता चलता है कि वहा के बोद्धो में काफी हिंसक भावनाए है ,, वे लोग अपने जीभ के स्वाद के लिए किसी भी प्राणी यहाँ तक कि मानव भ्रूण को तक खाने लगे है | क्यूंकि जेसा आहार होता है वेसे ही विचार ओर व्यवहार होता है |
मह्रिषी मनु मॉस भक्षण को हिंसक ओर पाप मानते हुए कहते है –
” स्मुत्पत्ति च मॉसस्य बवबन्धो च देहिनाम |
प्रसमीक्षय निवर्तेत सर्वमॉसस्य भक्षणात || मनु . ५/४९ ||
अर्थात मॉस की उत्पति जेसे होती है उसको ,प्राणियों की हत्या ओर बंधन के कष्टों को देख सब प्रकार के मॉस भक्षण से दूर रहे |
ओर कहते है –
” अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी |
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकेश्चेति घातका ||मनु .५/५१ ||”
मारने की आज्ञा देने वाले ,मॉस को काटने वाले पशु को मारने वाले क्रय विक्रय करने वाले ,पकाने वाले परोसने वाले खाने वाले ये सब हत्यारे ओर पापी है |
इस तरह मनु ने मॉस भक्षण को पाप बताया है ,,साथ ही मॉस व्यापार को क्यूंकि मॉस खाने की आदत ही जीवो की हिंसा को प्रेरित करती है |
हिन्दू धर्म के काशी खंड में निम्न श्लोक मिलता है – जातु मॉस न भोक्तव्यम प्राणै कंठगतैरपि (काशी खंड ,३५३ -५५ ) चाहे प्राण कंठ तक  आ जाए तो भी मॉस नही खाना चाहिए |
अर्थववेद ८/६/९३ में कहा है जो अंडे मॉस खाते है उनका मै नाश करता हु |
इस तरह मॉस भक्षण को सनातन शास्त्रों में निन्दित बताया है |
अब हम बोद्ध दर्शन में मॉस भक्षण सम्बन्धित बातें देखते है –
बोद्ध ने यज्ञ में पशु वध का विरोध किया लेकिन बोद्ध मॉस भक्षण से अपने आप को दूर नही रख सके इसके बारे में सकलिक सुत्त में देवदत्त विद्रोह नामक अध्याय में आता है ,इस अध्याय में एक कथा अनुसार देवदत बोद्ध से निम्न बातो की शर्त रखता है वो इस तरह है | देवदत्त बुद्ध से कहता है ,कि संघ में निम्न नियम बनाये जाए -(१) भिक्षु वन में रहे नगर में रहे तो दोष हो |
(२) जिन्दगी भर भिक्षा मांग कर खाने वाला हो |
(३) जिंदगी भर फेंके हुए चीथड़े पहने ,जो चीवर का उपभोग करे उस पर दोष हो |
(४) जिन्दगी भर वृक्ष के नीचे रहे |
(५ ) जिन्दगी भर मॉस मच्छली न खाए जो खाए उस पर दोष हो |
इसमें से बुद्ध एक भी शर्त नही मानते है ,,हम यहाँ बाकि ४ पर बुद्ध के उत्तर न लिख ५ वे पर लिखते है कि मॉस भक्षण पर बुद्ध ने क्या कहा –
बुद्ध कहते है – है देवदत्त ! जो अदृष्ट (जिसे मरते हुए मेने न देखा हो ) अश्रुत (जिसे मरते हुए न सुना हो ) अ परिशंकित (जो संदेह में न हो ) इस तरह का मॉस खाने की मेने आज्ञा दी है |
बुद्ध ने देवदत्त के मॉस भक्षण के निषेध वाली शर्त को ठुकरा दिया ओर इससे देवदत्त बोद्ध के संघ से अलग हो गया |
इसी तरह की बात जीवक नामक भिक्षु से बोद्ध ने जीवक सुत्तन्त (२/९/५ ) में कही है जीवक से बुद्ध कहते है –
जिस जीव का अपने लिए न मारा जाना हो | जिसे मारे हुए न देखा हो , न सुना हो न शंका हो | ऐसे मॉस को खाने का मेने आज्ञा दी है |
बोद्ध के उपरोक्त कथन को देखा जाए तो किसी दूकान से मॉस खाया जा सकता है ,,क्यूंकि दूर किसी होटल आदि पर पकाए हुए मॉस की किसी दूर से आये खाने वाले को कोई जानकारी नही होती |
एक स्थान से दुसरे स्थान की यात्रा में अगर कोई मासाहार भोजनालय है तो वहा मॉस खा सकते है क्यूंकि खाने वाले ने न प्राणी को कटते देखा है ,न ही वो उसके लिए काटा है न ही वो उसने काटते हुए सुना है |
इस तरह बुद्ध ने हिंसा का एक दूसरा रास्ता खोल दिया | ओर असयम को जो कि स्वाद से है को बढ़ावा दिया |
इस तरह एक जातक कथा में भी मॉस भक्षण का उलेख मिलता है – जिसके अनुसार एक भिक्षु के पास एक चील द्वरा छुटा हुआ कोई मॉस गिरता है भिक्षु बुद्ध से कहता है कि इसका क्या करू बुद्ध उसे वह मॉस खाने को कहते है |
इस तरह बोद्ध ग्रंथो में जगह जगह एक अलग प्रकार की हिंसा का उलेख मिलता है जो उनके अहिंसक ओर संयमी होने के दावे पर प्रश्न चिन्ह लगाता है |
शायद बुद्ध को इस बात पर ध्यान देना चाहिय था कि जेसा आहार वेसा ही विचार ओर व्यवहार हो जाता है | मॉस भक्षण किसी भी प्रकार का जीव हत्या को बढ़ावा देता है |
संधर्भित पुस्तके एवम ग्रन्थ – (१) मनुस्मृति – सुरेन्द्रकुमार जी 
   (२) मझिम निकाय – राहुल सांस्क्रतायन 
 (३ ) बुद्धचर्या – राहुल सांस्क्रतायन 
 (४) दीर्घ निकाय – राहुल सांस्कृतायन  

तो क्या? ( वैदिक धर्म में गौ मांस भक्षण एक झूठ) – संजय शास्त्री, कनाडा

महाराष्ट्र में गोमांस पर राज्य सरकार द्वारा प्रतिबन्ध लगाते ही कुछ लोगों की मानवीय संवेदनाएँ आहत हो उठीं और उनको लगा, जैसे मानवाधिकारों पर कयामत टूट पड़ी हो। कुछ लोग भारतीय इतिहास की दुहाई देते हुए संस्कृत शास्त्रों से गोमांस-भक्षण के उदाहरण देते हुए हिन्दुओं को सलाह देने लगे कि अपने शास्त्रों की बात मानोगे या आधुनिक हिन्दुत्ववादियों की? (इस विषय में मुसलमानों का एक मतान्ध किन्तु अति मन्दगति वर्ग बहुत सक्रिय हो गया है, इसलिये इस लेख में मुसलमानों की चर्चा करने पर बाध्य हुआ हूँ।) कुछ लोगों के हृदय में आर्य और अनार्य का कथित शाश्वत वैर जाग उठा और वे चिल्ला उठे कि गोमांस-भक्षण अनार्यों की प्राचीन परम्परा रही है, विदेश से आए आर्यों ने ही इस पर प्रतिबन्ध लगाया। यह कैसी षड्यन्त्रानुप्राणित ऐतिहासिक शिक्षा है जो हमें इतना मूर्ख बनाने में सफल रही है कि हम दो परस्पर विरोधी ‘ऐतिहासिक तथ्यों’ को मानने लगे हैं। अजीब है- एक तरफ तो यह सिद्ध किया जाता है कि गोमांस-भक्षण आर्यों के समाज में होता था, और दूसरी तरफ यह भी बताया जाता है कि गोमांस-भक्षण भारत के मूल निवासी अनार्यों की परम्परा रही है और बाहर से आये आर्यों ने ही इस पर जबर्दस्ती प्रतिबन्ध लगाया। खैर, जो भी हो, एक बात अवश्य ही स्पष्ट है कि जो लोग इन उदाहरणों को देकर गोमांस-भक्षण को आर्यों की सामान्य परम्परा सिद्ध करना चाहते हैं, वे उन प्रसंगों की सच्चाई छुपा कर ही ऐसा करते हैं। (इसका खुलासा नीचे भारतीय आदर्श के प्रसंग में किया गया है।) लेकिन इस विषय पर फिर कभी बात करूँगा। अभी तो बस इतना ही कहना है कि गोमांस-भक्षण के उदाहरणों का इस युग से क्या सम्बन्ध है, और उनकी उपयुक्तता क्या है। इस लेख में मैं प्राचीन भारतीय शास्त्रों में गोमांस-भक्षण के उदाहरणों की समीक्षा नहीं करना चाहता। वह इस लेख की सीमा से बाहर है। ऐसी समीक्षा निष्फल भी है, क्योंकि सामान्यतः अतीत की व्याख्या व्यक्ति के मानसिक परिप्रेक्ष्य में तैयार होती है – वैचारिक और नैतिक मानदण्डों से बँधी होती है और जब तक कोई व्यक्ति इस तरह की सीमाओं से बाहर निकलने को तैयार नहीं हो, तब तक मतभेदों का समाधान असम्भवप्रायः होता है। इसको ऐसे समझा जा सकता है-

१. जिन लोगों को गोमांस-भक्षण से ऐतराज नहीं है, उनको भारतीय इतिहास के इस प्रसंग में प्रायः उद्धृत उदाहरणों की व्याख्या गोमांस-भक्षणपरक करने से भी कोई ऐतराज नहीं होगा। यदि वे गोमांस खाते हैं, तो वे कदापि नहीं चाहेंगे कि इस पर प्रतिबन्ध लगे और वे इतिहास की ढाल लेकर मैदान में कूद पड़ेंगे।

२. लेकिन जिनको गोमांस-भक्षण संास्कृतिक पाप मालूम होता है, वे उन्हीं सन्दर्भों की व्याख्या गोमांस-भक्षण परक नहीं करेंगे। और यदि ऐसे सन्दर्भ कहीं मिलते भी हैं तो उनको प्रक्षिप्त मानकर अमान्य कर देंगे।

३. तीसरा प्रकार उन लोगों का है जो इतिहास की ऐसी बातों को गोमांस-भक्षण  के विरोधी हिन्दुओं को द्वेष भावना से केवल नीचा दिखाने के लिये कहते हैं। उन्हें न तो इतिहास से कुछ लेना-देना है, और न ही गोमांस-भक्षण से। ये वे बच्चे हैं, जिनको साथी बच्चों की शान्ति भंग करने में ही मजा आता है।

४. कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनको यह मान लेने से कोई ऐतराज नहीं है कि अतीत में कुछ लोगों ने गोमांस खाया होगा, लेकिन ऐसा मानने वाले यह भी मानते हैं कि इतिहास अतीत की बदलती हुई राजनीतिक और सामाजिक धाराओं का प्रवाह मात्र है, जिसको पढ़कर हम वर्तमान को सुधारने के लिये शिक्षा तो ले सकते हैं, लेकिन उसे हम आज न तो अनुभव कर सकते हैं और न ही उसको जी सकते हैं।

जो भी हो, एक बात स्पष्ट है कि ऐसे उदाहरणों की व्याख्या व्यक्ति के वैचारिक और नैतिक मानदण्डों से प्रेरित होती है, जिसका त्वरित समाधान सम्भव नहीं है, इसलिये यह लेख दुर्जनपरितोषन्याय से लिखा गया है। माना कि प्राचीन काल में कुछ लोगों ने गोमांस खाया होगा, तो क्या?

गोमांस-भक्षण के उदाहरण

जो गोमांस-भक्षण के उदाहरण दिये जाते हैं, वे इतने छिटपुट और प्रसंगतः क्षुद्र हैं कि उनके आधार पर गोमांस-भक्षण को सिद्ध करने की बात पर प्रमाण-शास्त्र को मानने वाला कोई भी व्यक्ति हँसेगा। उसका कारण है कि गौ के प्रति आर्यों की पवित्र भावना शाश्वत है। वेदों और दूसरे संस्कृत ग्रन्थों में गोमांस-भक्षण के उदाहरण देने वाले भी यह मानते हैं कि हिन्दुओं के प्राचीनतम शास्त्र ऋग्वेद से लेकर आज तक गौ के प्रति पवित्रभावना अविच्छिन्न रूप से मिलती है। ऋग्वेद में गाय को अघ्न्या (जिसको नहीं मारना चाहिये) कहा गया है और यही भावना बाद के ग्रन्थों में विस्तार से मिलती है। यदि गोमांस-भक्षण के उदाहरणों और गोहत्या को पाप तथा गोरक्षा को पुण्य मानने वाले उदाहरणों का परिमाण देखा जाए तो तुलना ऐसी होगी-गोहत्या से पाप और गोरक्षा से पुण्य मिलने का बखान करने वाले उदाहरण एक महासागर की तरह हैं, जिसमें गो मांस खाने के उदाहरण कुछेक तिनकों की तरह हैं। ऐसा क्यों है कि ये लोग उन छिटपुट उदाहरणों को तो प्रमाण मान रहे हैं, लेकिन बाकी महासागर की उपेक्षा कर रहे हैं? ऐसा किसी न किसी स्वार्थ या काम के वशीभूत होकर दुराग्रही होने पर ही होता है। प्रमाण-शास्त्र को मानने वालों के लिये यह हास्यास्पद ही होगा कि गोरक्षा की असीम विच्छिन्नधारा की उपेक्षा कर दो-चार वाक्यों को प्रमाण मानकर सांस्कृतिक  ऐतिहासिक धारा को मोड़ने का प्रयास किया जाए।

किसी घटना के केवल उदाहरण मिलने से ही ऐसी घटनाएँ विधान तो नहीं बन जाती हैं। यह सोचना चाहिये कि उस युग में भी आदर्श क्या था? इस विषय में भी इतिहासकारों को कोई संन्देह नहीं है कि तब भी गौ के प्रति सम्मान भावना रखना ही आदर्श माना जाता था। न केवल इतना, बल्कि किसी प्रकार के मांस को न खाना ही उनका आदर्श था। तो फिर आदर्श आचार से उनके आचार को सिद्ध करने में इतना परिश्रम क्यों कर रहे हैं ये लोग?

और फिर मनुष्य कभी भी धर्मशास्त्र का सर्वथा अक्षरशः पालन नहीं करता है। कितने ईसाई और मुसलमान हैं, जो बाइबिल और कुरान की अच्छी शिक्षाओं का अनुसरण करते हैं? मनुष्य पहले स्वभावतः मनुष्य ही होता है, उसकी धार्मिक पहचान भी अक्सर उसके स्वभाव के नीचे दबकर रह जाती है। जैसे ईसाई या मुसलमान अपने धर्म का अक्षरशः पालन नहीं करते हैं, वैसे ही कुछ हिन्दू भी नही करते हैं। ऋषि कपूर जैसे सुविख्यात कलाकार, जिनका परिचय हिन्दू के रूप में ही है, आज भी गोमांस खाते हैं। उन्होंने लिखा था कि ‘‘मुझे गुस्सा आ रहा है। खाने को धर्म से आप क्यों जोड़ रहे हैं? मैं बीफ खाने वाला एक हिन्दू हूँ। तो क्या, इसका मतलब यह है कि मैं बीफ नहीं खाने वाले की अपेक्षा कम धार्मिक हूँ? सोचो!’’ और यह महोदय यहाँ तक लिख बैठते हैं कि ‘‘वैसे मुझे मेरे उन मुस्लिम दोस्तों की तरह पार्क चॉप्स भी बेहद पसंद हैं जो मेरी तरह सोचते हैं। जब आप धर्म को खाने से जोड़ते हैं तो वे भी आप पर हँसते हैं।’’ भारत के अहिंसा के आदर्श और गौ के प्रति देवी तथा मातृवत् भाव के इतिहास से परिचित व्यक्ति इसका क्या उत्तर  देगा, यह कहने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन इसका उत्तर  मशहूर शायर गालिब से मिलता है । १८५७ के स्वतन्त्रता संग्राम के बाद पुनः अंग्रेजी शासन की प्रतिष्ठा हो गयी और अंग्रेजों ने दिल्ली में संदिग्ध लोगों की धरपकड़ शुरू की । इसी प्रसंग में एक बर्न नाम के कर्नल ने अपनी टूटी-फूटी उर्दू में गालिब से पूछा, ‘‘तुम मुसलमान हो?’’ गालिब ने कहा, ‘‘आधा।’’ ‘‘इसका मतलब?’’ कर्नल ने पूछा तो गालिब ने जवाब दिया, ‘‘मैं शराब पीता हॅूँ, लेकिन सूअर नहीं खाता।’’ अर्थात् यदि गालिब शराब भी नहीं पीते तो पूरे मुसलमान होते और यदि शराब पीते और सूअर भी खाते तो मुसलमान ही नहीं रहते। खैर, जो भी हो, क्या यह उचित है कि ऋषि कपूर जैसे लोगों के उदाहरण से यह सिद्ध किया जाए कि आज हिन्दुओं में गोमांस खाना मान्य है? यदि नहीं तो, इतिहास में क्यों इस तरह की मानसिकता थोपने की कोशिश हो रही है? इन्द्रियों का दास हो चुके मनुष्य के लिये धर्मशास्त्र व्यर्थ हैं। धर्म का ज्ञान केवल उन्हीं को होता है, या हो सकता है, जो स्वार्थ और काम की भावना के वशीभूत नहीं हैं। स्वार्थान्ध और कामान्ध व्यक्ति के लिये तो शास्त्र नियम अभिशाप की तरह हैं, मानवाधिकारों का उल्लंघन है। ऋषि कपूर जैसे लोगों की यही करुण व्यथा है- गोवध पर प्रतिबन्ध से उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है।

इसी प्रसंग में एक बात और। यदि इन लोगों को भारत के  अतीत से इतना ही प्यार और मान्य-भावना है, तो इनको यह भी समझना चाहिये कि उस युग के आचरणों की यथावत् प्रतिष्ठा के लिये जितना महत्वपूर्ण उस युग की बातों के होने का है, उतना ही महत्वपूर्ण कुछ बातों का नही होना भी है। उस समय ईसाइयत और इस्लाम भारत में तो क्या दुनिया मैं भी नहीं थे। तो जो लोग प्राचीन हिन्दू धर्म में गोमांस-भक्षण को प्रमाण मानकर आचरणीय मानते हैं, तो क्या उनको हिन्दू धर्म को स्वीकार कर अपनी आस्था को खुले रूप में प्रकट नहीं करना चाहिये? जब तक ऐसे लोग वैदिक धर्म और आचरण को स्वीकार न कर लें, तब तक उन्हें वैदिक या हिन्दू धर्म में आस्था रखने वालों को ‘‘अतीत की किस परम्परा का अनुसरण करना चाहिये’’ के विषय में बोलने का कोई अधिकार ही नहीं है।

इतिहास में किसी घटना के उदाहरण मिलना भी उनको हर युग और देश में स्वीकार करने का कारण नहीं हो सकता। भारतीय परम्परा में संस्कृति को प्रवाहमान माना गया है, जो हर युग में बदलती रहती है। इतिहास में इस तरह की परम्पराएँ रही हैं, जिनके विषय में आज सोचना भी मन में जुगुप्साभाव पैदा करता है। जैसे कि ईरान में सगे सम्बन्धियों में आपस में शादी की  परम्परा थी, जिसको पूरी धार्मिक और कानूनी मान्यता थी। यहाँ तक कि माँ-बेटे, बहन-भाई और पिता-बेटी की शादी की भी बहुप्रचलित परम्परा थी। यदि ग्रीक इतिहासकार हेरोडोटस को प्रमाण माना जाए तो ऐसी परम्पराएँ भी थीं, जब किसी के बीमार होने पर उसी के सम्बन्धी उसको मारकर, पकाकर उसका भोग लगाते थे। क्या गोमांस के छिटपुट उदाहरणों के आधार पर हिन्दुओं की धार्मिक भावना से खिलवाड़ करने को जायज ठहराने से पहले सगे सम्बन्धियों से शादी करने और बीमार सम्बन्धियों का भोग लगाने की परम्परा को कानूनी रूप से स्वीकार कर लिया जाये?

शास्त्र में कही गयी बातों के आचरणीय या अनाचरणीय होने के विषय में कामसूत्र में एक ही बात दो बार सावधान करने के लिये कही गयी है-

न शास्त्रमस्तीत्येतेन प्रयोगो हि समीक्ष्यते/न शास्त्रमस्तीत्येतावत् प्रयोगे कारणं भवेत्। शास्त्रार्थान् व्यापिनो विद्यात् प्रयोगांस्त्वेकदेशिकान्।।

(कामसूत्र, २.९.४१,७.२.५५)।

शास्त्र में किसी बात की चर्चा है, केवल इसी आधार पर उसका प्रयोग या आचरण नहीं किया जा सकता, क्योंकि शास्त्र का विषय व्यापक होता है, जबकि प्रयोग एकदेशिक होते हैं, अर्थात् शास्त्र विभिन्न देश और काल की चर्चा करते हैं, उनका रिकार्ड रखते हैं, लेकिन प्रयोग प्रयोक्ता की शक्ति, समय, देश और परम्परा के अनुसार ही होते हैं, सर्वकालीन और सर्वजनीन नहीं। यही कारण है कि काम शास्त्र में रागवर्धक विचित्र प्रयोगों का विवरण देने के बाद उनका यत्नपूर्वक निवारण भी कर दिया गया है (कामसूत्र ७.२.५४)।

भारतीय आदर्श अब आते हैं भारतीय आदर्श पर। गोमांस की बात छोड़ो, भारतीय परम्परा में तो किसी भी प्राणी के मांस भक्षण से सर्वथा निवृत्ति  को ही आदर्श माना जाता था। मुसलमानों के इस धूर्त वर्ग ने मनु का भी एक श्लोक भारत में मांस भक्षण के पक्ष में प्रमाण के रूप में प्रचारित किया है। इसमें कहा गया है कि भोक्ता अपने खाने लायक पदार्थों  को खाने से किसी दोष का भागी नहीं होता है। इन खाने लायक भोजनों में प्राणियों को भी गिना गया है (मनु ५.३०)। विशेष बात यह है कि भारतीय विद्वानों ने इसको प्राण-संकट होने पर मान्य माना है। जैसे कि मनु के व्याख्याकार मेधातिथि ने इस श्लोक की व्याख्या में कहा है कि इसका मतलब यह है कि प्राणसंकट में हों तो मांस भी अवश्य खा लेना चाहिये (तस्मात् प्राणात्यये मांसमवश्यं भक्षणीयमिति त्रिश्लोकीविधेरर्थवादः।) ऐसा भी नहीं है कि यह मेधातिथि की मनमर्जी से की गई व्याख्या है। यह मनु के अनुरूप ही है। ऊपर उद्धृत श्लोक के बाद मनु ने प्राणियों की अहिंसा का गुणगान कई श्लोकों में करते हुए मांस भक्षण को पुण्यफल का विरोधी माना है। उन्होंने यहाँ तक कहा है कि यदि कोई व्यक्ति सौ साल तक हर साल अश्वमेध यज्ञ करता रहे और यदि कोई व्यक्ति मांस न खाए तो उनका पुण्यफल समान होता है (५.५३)। सन्तों के पवित्र फल-फूल भोजन मात्र पर निर्वाह करने वाले को भी वह पुण्यफल नहीं मिलता है जो कि केवल मांस छोड़ने वाले को मिलता है। मनु ने मांस की बड़ी अच्छी परिभाषा देते हुए कहा है कि-

मांस भक्षयितामुत्र यस्य मांसमदाम्यहम्।

एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः।।

– समझदार लोग कहते हैं कि मांस को मांस इसलिये कहा जाता है, क्योंकि मैं आज जिसको खा रहा हॅूँ (मां) मुझे भी (सः) वह परलोक में ऐसे ही खाएगा। और मनु गौ को तो सर्वथा अवध्य मानते हैं और उसकी रक्षा करना मनुष्य मात्र का कर्तव्य  मानते हैं। इसी प्रसंग में ऊपर दिया कामसूत्र विषयक परिच्छेद (भारतीय आदर्श शीर्षक से पहले) एक बार और देख लें तो विषय और भी स्पष्ट हो जाएगा। एक शास्त्र होने के नाते मनुस्मृति में चाहे मांस-भक्षण की चर्चा है, लेकिन जिस विस्तृत स्पष्टता  के साथ इसको अपुण्यशील माना है, वह मांस-भक्षण की स्वीकृति के पक्ष में नहीं, अपितु उसके साक्षात् विरोध में खड़ा है। तब भी यदि कोई इसमें मांस-भक्षण की स्वीकृति को सिद्ध करने की चेष्टा करता है, तो या तो वह मूढ़ अज्ञानी है, या धूर्त है।

हिन्दू बनाम गैर-हिन्दू

यह तर्क भी दिया जाता है कि गोहत्या केवल हिन्दुओं के लिये पाप है, दूसरे धर्मावलम्बियों (ईसाई और मुसलमानों) के लिये तो नहीं। भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और शासन को एक धर्म की मान्यताओं के आधार पर दूसरे धर्मावलम्बियों के मानवाधिकारों का हनन नहीं करना चाहिये।

तर्क तो ठीक है, लेकिन बाकी तर्कों की ही तरह पक्षपाती है। कुरान केवल मुसलमानों के लिये ही तो पवित्र है, पैगम्बर मुहम्मद साहब भी केवल मुसलमानों के लिये पैगम्बर हैं, तो क्या मुसलमान यह स्वीकार करेंगे कि दूसरे धर्मावलम्बी कुरान के साथ जैसा चाहे व्यवहार कर सकते हैं? क्या ईसाईयों को यह स्वीकार होगा कि यदि कोई सूली पर लटके ईसा की काष्ठमूर्ति को जलाकर ठण्ड से सिकुड़ते बदन को सेक ले? यदि मुसलमानों और ईसाइयों को यह स्वीकार नहीं होगा तो उनको हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं का ध्यान रखना ही चाहिये। गाय का प्रश्न केवल खाने-पीने तक नहीं है, गाय को श्रद्धाभाव से, पवित्र देवी के रूप में देखा जाता है। यदि एक-दूसरे की भावनाओं का ध्यान  नहीं रखेंगे, तो अतीत की तरह दंगों की आग दोनों ही तरफ के लोगों को झुलसाती रहेगी। समय-समय की बात है – कभी मुसलमानों-ईसाइयों का पलड़ा भारी होगा तो कभी हिन्दुओं का, लेकिन इस हठधर्मिता से कोई समाधान नहीं होगा। समाधान केवल तभी होगा जब आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्। – ‘‘जो व्यवहार अपने प्रति पसन्द नहीं, वह व्यवहार दूसरों के प्रति भी न करें’’ का पालन किया जाए।

और ऐसा भी क्यों है कि मुसलमानों का एक वर्ग हिन्दुओं के प्रति विद्वेषभावना से बाबर, हुमायूँ, औरंगजेब जैसे कट्टरपन्थी मुगलों की केवल गन्दी विरासत को ही ढोने और उसके लिये मर मिटने के लिये तैयार रहता है? यह वर्ग इन शासकों की उन बातों पर कभी ध्यान क्यों नहीं देता, जिनसे भारतीय समाज में सौहार्दभाव को बढ़ावा मिले और शान्ति स्थापित हो सके? इसके ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि हिन्दुओं की धार्मिक/सांस्कृतिक भावनाओं के भड़क जाने के भय से बाबर ने न केवल अपने शासन में गोवध पर पाबन्दी लगा रखी थी, बल्कि अपने बेटे हुमायूँ को भी इसको जारी रखने का हुक्म दिया था। अकबर ने भी अपने शासन में गोवध पर पाबन्दी लगा रखी थी। यहाँ तक कि औरंगजेब जैसे कट्टर और परधर्मद्वेषी शासक ने भी गोवध पर मृत्युदण्ड घोषित कर रखा था और इसी परम्परा को आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने भी जारी रखा था।

जहाँ तक बात है अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों की रक्षा की, तो यह रक्षा यदि बहुसंख्यकों की धार्मिक भावनाओं को आहत करके  होती है तो सर्वथा अनुचित है। और फिर केवल कुछेक व्यक्तियों के मानवाधिकारों की ही बात क्यों हो? क्या बहुसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा नहीं होनी चाहिये? ऐसा भी नहीं है कि राज्य सरकार द्वारा पारित यह नियम केवल अल्पसंख्यकों पर लागू होगा, यह तो सभी पर लागू होगा- ऋषि कपूर जैसे और भी लोग होंगे जो अल्पसंख्यकों की श्रेणी में नहीं आते हैं। उन पर भी लागू होगा। इस तरह की सर्वजन-समभाव की सुविधा गैर-मुस्लिमों को मुगल सल्तनत में कभी नहीं मिली।

इन्हीं अधिकारों की भाषा बोलते-बोलते मुसलमानों का यह वर्ग एक और देश विभाजन हो जाने की धमकी देने लगा है। देश विभाजन होगा या नहीं, इसका जवाब तो समय ही देगा, लेकिन मुसलमानों के भारत में अधिकार की चर्चा के विषय में मैं इस्लामी धर्मशास्त्र, परम्परा, और इतिहास के सर्वश्रेष्ठ विद्वानों में से एक मौलाना वहीदुद्दीन खान के मन्तव्य के साथ इस लेख को समाप्त करता हूँ। सन् २००७ में बीबीसी ने आजादी के साठ वर्ष पूरे होने के अवसर पर एक लेखमाला छापी थी, जिसमें मौलाना वहीदुद्दीन खान के मन्तव्य भी छपे थे। उसका एक अंश बीबीसी से ही उद्धृत करता हूँ-

इस्लामी मौलाना वहीदुद्दीन खान कहते हैं कि मुसलमानों को भारत में जो कुछ मिला है, वह हिन्दू समुदाय की मेहरबानी है और उन्हें इस देश में जो कुछ भी मिला है, उसका उन्हें अधिकार ही नहीं था, इसलिए उन्हें ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए। इस्लामी विद्वान् मौलाना वहीदुद्दीन खान कहते हैं, ‘‘स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान मुसलमानों ने जो बलिदान दिए, उनके बदले उन्हें पाकिस्तान के रूप में एक अलग देश मिल गया और इस तरह उन्होंने अपनी कुर्बानियों को भुना लिया। विभाजन की दलील ही यह थी कि भारत हिन्दू का और पाकिस्तान मुसलमान का, तो फिर अब भारत में उनका अधिकार कैसा? इसके विपरीत हिन्दू समुदाय ने बड़ी बात की है कि आजाद भारत में भी मुसलमानों को बराबरी का दर्जा दे दिया।’’

उपसंहार इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए केवल मूर्ख व्यक्ति ही ऐसा दुराग्रह करेगा कि चूँकि पहले कुछ लोगों ने ऐसा किया था, इसलिये आज भी ऐसा करना चाहिये। युग बदल गया है, कुछ  आचार-विचार बदल गये हैं और कुछ आचार-विचार समाप्त-प्राय हैं। कुछ परम्पराएँ क्षीण हो गयी हैं, तो कुछ बलवती हो गयी हैं। आधुनिक भारतीय इतिहास को सप्रमाण जानने वाला हर विद्वान् यह मानता है कि पिछले कुछ सौ वर्षों में हुए हिन्दू-मुस्लिम द्वेष और दंगों के पीछे सबसे बड़ा कारण गोहत्या से जुड़ी घटनाओं का होना रहा है। १८५७ में हुए स्वतन्त्रता संग्राम के दिल्ली में विफल हो जाने का एक कारण गोहत्या के कारण हिन्दू-मुस्लिम लोगों का बँट जाना भी था, जिसका अंग्रेजों ने पूरा लाभ उठाया। ऐसे में सवाल यह नहीं है कि पहले भारत में क्या होता था और क्या नहीं होता था। सवाल यह है कि आज की असलियत क्या है? आज हिन्दुओं के लिये गौ एक धार्मिक पहचान है और उसकी रक्षा करना धार्मिक कर्तव्य । जबकि गोमांस खाने वाले किसी भी व्यक्ति के लिये न किसी त्यौहार पर और न किसी दूसरे अवसर पर गोमांस खाना धार्मिक या सांस्कृतिक कर्तव्य है। भारत के अन्तिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने गोहत्या पर पाबन्दी लगाई और गोवध करने वाले को तोप से उड़ा दिये जाने की घोषणा की तो दिल्ली के दो सौ प्रतिष्ठित मुसलमानों ने उनके पास जाकर गुहार लगाई कि ईद के मौके पर उनको गोहत्या करने दी जाए। जफर आग-बबूला हो गये और बोले कि मुसलमान का धर्म गाय की बलि पर निर्भर नहीं है। जैसा पहले कहा गया है, यहाँ तक कि धार्मिक रूप से क्रूर पहचान रखने वाले मुगल बादशाह भी कुछ हद तक हिन्दुओं की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए गोहत्या पर पाबन्दी लगा सकते हैं, तो क्या धर्म-निरपेक्ष भारत में सामाजिक समरसता और शान्ति बनाए रखने के लिये गोवध पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता है? क्या गोवध पर प्रतिबन्ध के खिलाफ लड़ाई केवल खाने की लड़ाई है या इसके पीछे सामाजिक समरसता को भंग करने वाले कुछ धूर्त हैं? क्या हम भारत में परस्पर वैमनस्य ही फैलाते रहेंगे?

– बी.बी.सी. हिन्दी,

शुक्रवार, ०५ अक्टूबर २००७