सीता की उत्पत्ति – मिथक से सत्य की और

जनक के हल जोतने पर भूमि के अन्दर फाल का टकराना तथा उससे एक कन्या का पैदा होना और फिर उसी का नाम सीता रखना आदि असंभव होने से प्रक्षिप्त है । इस विषय में प्रसिध्द पौराणिक विद्वान स्वामी करपात्री जी ने स्वरचित ”रामायण मीमांसा’ में लिखा है – “पुराणकार किसी व्यक्ति का नाम समझाने के लिए कथा गढ़ लेते है। जनक पुत्री सीता के नाम को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने वैदिक सीता ( = हलकृष्ट भूमि) से सम्बन्ध जोड़कर उसका जन्म ही भूमि से हुआ

बता दिया” ( पृ ० 89 ) अथवा यह हो सकता है कि किसी ने कारणवश यह कन्या खेत में फेक दी हो और संयोगवश वह जनक को मिल गई हो अथवा किसी ने ‘खेत में पडी लावारिस कन्या मिली है’ यह कहकर जनक को सौप दी हो फिर उन्होंने उसे पाल लिया हो । महर्षि कण्व को शकुन्तला इसी प्रकार मिली थी। और प्राप्ति के समय पक्षियों द्वारा संरक्षित एवं पालित (न कि प्रसूत) होने से उसका नाम शकुन्तला रख दिया था ।

धरती को फोड़कर निकलने बालों की “उद्भिज्ज” संज्ञा है। तृण, औषधि, तरु, लता आदि उद्भिज्ज कहलाते हैं । मनुष्य, पश्वादि, जरायुज, अण्डज और स्वेदज प्राणियों के अन्तर्गत है । मनुष्य वर्ग में होने के कारण सीता की उत्पत्ति पृथिवी से होना प्रकृति विरुध्द होने से असंभव है।

सीता की उत्पति पृथिवी से कैसे मानी जा सकती है, जबकि बाल्मीकि रामायण में अनेक स्थलों में उसे जनक की आत्मजा एवं औरस पुत्री तथा उर्मिला की सहोदरा कहा गया है –

वर्धमानां ममात्मजाम् (बाल० 66/15) ;

जानकात्मजे (युद्ध० 115/18) ;

जनकात्मजा (रघुवंश 13/78)

महाभारत में लिखा है –

विदेहराजो जनक: सीता तस्यात्मजा विभो
(3/274/9)

अमरकोश (2/6/27) में ‘आत्मज’ शब्द का अर्थ इम प्रकार लिखा है –

आत्मनो देहाज्जातः = आत्मजः अर्थात जो अपने शरीर से पैदा हो, वह आत्मज कहाता है। आत्मा क्षेत्र (स्त्री) का पर्यायवाची है ; क्षेत्र और शरीर पर्यायवाची है।

क्षीयते अनेन क्षेत्रम

स्त्री को क्षेत्र इसलिए कहते हैं की वह संतान को जनने से क्षीण हो जाती है। पुरुष बीजरूप होने से क्षीण नहीं होता ।

रघुवंश सर्ग 5, श्लोक 36 में लिखा है –

ब्राह्मे मुहूर्ते किल तस्य देबी कुमारकल्पं सुषुवे कुमारम् ।
अत: पिता ब्रह्मण एव नाम्ना तमात्मजन्मानमजं चकार ।।

महामना पं ० मदनमोहन मालवीय की प्रेरणा से संवत 2000 में विक्रमद्विसहस्राब्दी के अवसर पर संस्थापित अखिल भारतीय विक्रम परिषद द्वारा नियुक्त कालिदास ग्रंथावली के संपादक मण्डल के प्रमुख साहित्याचार्य पं ० सीताराम चतुर्वेदी ने उक्त श्लोक में आये “आत्मजन्मान्म” का अर्थ रघु की रानी की कोख से जन्मा किया हैं । तव जनक की ‘आत्मजा’ का अर्थ पृथिवी से उत्पन्न कैसे हो सकता है ? ब्रह्म मुहुर्त में जन्य लेने के कारण रघु ने अपने पुत्र का नाम अज (अज ब्रह्मा का पर्यायवाची है, क्योंकि ब्रह्मा का भी जन्म नहीं होता) रखा। अज का अर्थ जन्म न लेने वाला होता है। कोई मूर्ख ही कह सकता है कि अज का यह नाम इसलिए रखा गया था, क्योंकि वह पैदा नहीं हुआ था।

आत्मज या आत्मजा उसी को कह सकते हैं जो स्त्री – पुरुष के रज-वीर्य से स्त्री के गर्म से उत्पन्न हो, इसमें सामवेद ब्राह्मण प्रमाण है-

अंगदङ्गात् सम्भवसि हृदयादधिजायते ……. आत्मासि पुत्र।
(1.5.17)

है पुत्र ! तू अंग-अंग से उत्पन्न हुए मेरे वीर्य से और हदय से पैदा हुआ है, इसीलिए तू मेरा आत्मा है । खेत से उत्पन्न होने से तो तृण, औषधि, वनस्पति, वृक्ष, लता आदि सभी आत्मज और आत्मजा हो जाएँगे और बाप-दादा की सम्पत्ति में भागीदार हो जाएंगे।

‘जनी प्रादुर्भावे’ से जननी शब्द निष्पन्न होता है। इससे जन्म देने वाली को ही जननी कहते है। पालन-पोषण करने वाली यशोदा माता कहलाती थीं, परन्तु जन्म न देने के कारण जननी देवकी ही कहलाती थी। बनवास काल में अत्रि मुनि
के आश्रम में अनसूया से हुई बातचीत में सीता ने कहा था –

पाणिप्रदानकाले च यत्पुरा तवाग्निसन्निधौ।
अनुशिष्टं जनन्या में वाक्यं तदपि में घृतम् ।।
अयो० 118/8-9

विवाह के समय मेरी जननी ने अग्नि के सामने मुझे जो उपदेश दिया था, उसे मैं किंचित भूली नहीं हूँ । उन उपदेशों को मैंने हृदयंगम किया है ।

क्या यहाँ विवाह के समय उपदेश देने वाली यह ‘जननी’ पृथिवी हो सकती है ?
और क्या बेटी को विदा करते समय बिलख बिलख कर रोने वाली पृथिवी थी ?
यहाँ माता को ही जननी कहकर स्मरण किया है, पृथिवी को जननी नहीं कहा।

तुलसीदास जी ने तो माता = जननी का नाम भी इस चौपाई
में लिख दिया है :-

जनक वाम दिसि सोह सुनयना ।
हिमगिरि संग बनी जिमि मैना ।।
(रामचरितमानस बालकाण्ड 356/2)

(विवाह वेदी पर) सुनयना (महारानी) महाराजा जनक की बाई और ऐसी शोभायमान थी, मानो हिमाचल के साथ मैना (पार्वती की माता) विराजमान हो।

पाणिग्रहण संस्कार के समय जिस प्रकार रामचन्द्र जी की पीढियों का वर्णन किया गया था उसी प्रकार सीता की भी 22 पीढियों का वर्णन किया गया। यदि सीता की उत्पत्ति पृथिवी ये हुई होती तो पृथ्वी से पहले की पीढ़िया कैसे बनती ?
इसे शाखोच्चार कहते है । राजस्थान में विवाह के अवसर पर दोनो पक्षों के पुरोहित आज भी 22 के ही नहीं, 30-40 पीढ़ियों तक के नामो का उल्लेख करते हैं । साधारणतया सौ वर्ष में चार पुरुष समझे जा सकते हैं। इस प्रकार 40 पीढियों में लगभग एक हजार वर्ष बनते है। अर्थात् सर्वसाधारण लोग भी मुहांमुही सैकडों वर्षो के पारिवारिक इतिहास का ज्ञान रख सकते थे। जिसका 22 पीढ़ियों का क्रमिक इतिहास ज्ञात है उसे कीड़े-मकौडों या पेड़-पौधों की तरह पृथिवी से उत्पन्न हुआ नहीं माना जा सकता। वस्तुतस्तु सीता के पृथिवी से उत्पन्न होने

सम्बन्धी गप्प का स्रोत विष्णु पुराण, अंश 4, अध्याय 4, वाक्य 27-28 है जिसका वाल्मीकि रामायण में प्रक्षेप कर दिया गया है। जन्म को पृथ्वी से मानकर सीता का अंत भी पृथ्वी में समाने की कल्पना करके ही किया गया है ।

अयोनिजा – सीता को अनेक स्थलों में अयोनिजा कहा गया है । पृथिवी से उत्पन्न होने का अर्थ माता-पिता के बिना अर्थात स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना उत्पन्न होना है। इसी को अयोनिज सृष्टि कहते है, क्योंकि इसमें गर्भाशय से
बाहर निकलने में योनि नामक मार्ग का प्रयोग नहीं होता । सृष्टि के आदि काल में समस्त सृष्टि अमैथुनी होती हैं –

अमैथुनी सृष्टि से सम्बंधित पोस्ट का लिंक – यहाँ से पढ़े
https://www.facebook.com/Aryamantavya/photos/a.1418444565059896.1073741828.1418437208393965/1618030795101271/?type=1&theater

यहाँ यह तथ्य जरूर जोड़ा जाता है की सृष्टि चाहे मैथुनी हो अथवा अमैथुनी – प्राणियों के शरीरो की रचना परमेश्वर सदा माता पिता के संयोग से ही करता है।
पर दोनों में अंतर केवल इतना है की आदि सृष्टि में माता (जननी) पृथ्वी होती है और वीर्य संस्थापक सूर्य (ऋग्वेद 1.164.3) में कहा है –

“द्यौर्मे पिता जनिता माता पृथ्वी महीयम”

अर्थात सृष्टि के आदि काल में प्राणियों के शरीरो का उत्पादक पिता रूप में सूर्य था और माता रूप में यह पृथ्वी। परमात्मा ने सूर्य और पृथ्वी – दोनों के रज वीर्य के संमिश्रण से प्राणियों के शरीरो को बनाया। जैसे इस समय बालक माता के गर्भ में जरायु में पड़ा माता के शरीर में रस लेकर बनता और विकसित होता है, वैसे ही आदि सृष्टि में पृथ्वी रुपी माता के गर्भ में बनता रहता है। इसी शरीर को साँचा रुपी शरीर भी कहा जाता है जिससे हमारे जैसे मैथुनी मनुष्य उत्पन्न होते रहते हैं।

सीता का जन्म सृष्टिक्रम चालु होने और साँचे तैयार होने के बाद त्रेता युग में हुआ था, अतः सीता के अयोनिजा होने का प्रश्न ही नहीं उठता। जनक उनके पिता थे और रामचरितमानस के अनुसार सुनयना उनकी माता का नाम था।

मेरी सभी बंधुओ से विनती है, कृपया लोकरीति, मिथक, दंतकथाओं आदि पर आंखमूंदकर विश्वास करने से अच्छा है – खुद अपनी धार्मिक पुस्तको और सत्य इतिहास को पढ़ कर बुद्धि को स्वयं जागृत करते हुए दूसरे हिन्दू भाइयो को भी जगाये – ताकि कोई विधर्मी हमारे सत्य इतिहास और महापुरषो महा विदुषियों पर दोषारोपण न कर सके

आओ लौटे ज्ञान और विज्ञानं की और –

आओ लौट चले वेदो की और

नमस्ते

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