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तो क्या? ( वैदिक धर्म में गौ मांस भक्षण एक झूठ) – संजय शास्त्री, कनाडा

महाराष्ट्र में गोमांस पर राज्य सरकार द्वारा प्रतिबन्ध लगाते ही कुछ लोगों की मानवीय संवेदनाएँ आहत हो उठीं और उनको लगा, जैसे मानवाधिकारों पर कयामत टूट पड़ी हो। कुछ लोग भारतीय इतिहास की दुहाई देते हुए संस्कृत शास्त्रों से गोमांस-भक्षण के उदाहरण देते हुए हिन्दुओं को सलाह देने लगे कि अपने शास्त्रों की बात मानोगे या आधुनिक हिन्दुत्ववादियों की? (इस विषय में मुसलमानों का एक मतान्ध किन्तु अति मन्दगति वर्ग बहुत सक्रिय हो गया है, इसलिये इस लेख में मुसलमानों की चर्चा करने पर बाध्य हुआ हूँ।) कुछ लोगों के हृदय में आर्य और अनार्य का कथित शाश्वत वैर जाग उठा और वे चिल्ला उठे कि गोमांस-भक्षण अनार्यों की प्राचीन परम्परा रही है, विदेश से आए आर्यों ने ही इस पर प्रतिबन्ध लगाया। यह कैसी षड्यन्त्रानुप्राणित ऐतिहासिक शिक्षा है जो हमें इतना मूर्ख बनाने में सफल रही है कि हम दो परस्पर विरोधी ‘ऐतिहासिक तथ्यों’ को मानने लगे हैं। अजीब है- एक तरफ तो यह सिद्ध किया जाता है कि गोमांस-भक्षण आर्यों के समाज में होता था, और दूसरी तरफ यह भी बताया जाता है कि गोमांस-भक्षण भारत के मूल निवासी अनार्यों की परम्परा रही है और बाहर से आये आर्यों ने ही इस पर जबर्दस्ती प्रतिबन्ध लगाया। खैर, जो भी हो, एक बात अवश्य ही स्पष्ट है कि जो लोग इन उदाहरणों को देकर गोमांस-भक्षण को आर्यों की सामान्य परम्परा सिद्ध करना चाहते हैं, वे उन प्रसंगों की सच्चाई छुपा कर ही ऐसा करते हैं। (इसका खुलासा नीचे भारतीय आदर्श के प्रसंग में किया गया है।) लेकिन इस विषय पर फिर कभी बात करूँगा। अभी तो बस इतना ही कहना है कि गोमांस-भक्षण के उदाहरणों का इस युग से क्या सम्बन्ध है, और उनकी उपयुक्तता क्या है। इस लेख में मैं प्राचीन भारतीय शास्त्रों में गोमांस-भक्षण के उदाहरणों की समीक्षा नहीं करना चाहता। वह इस लेख की सीमा से बाहर है। ऐसी समीक्षा निष्फल भी है, क्योंकि सामान्यतः अतीत की व्याख्या व्यक्ति के मानसिक परिप्रेक्ष्य में तैयार होती है – वैचारिक और नैतिक मानदण्डों से बँधी होती है और जब तक कोई व्यक्ति इस तरह की सीमाओं से बाहर निकलने को तैयार नहीं हो, तब तक मतभेदों का समाधान असम्भवप्रायः होता है। इसको ऐसे समझा जा सकता है-

१. जिन लोगों को गोमांस-भक्षण से ऐतराज नहीं है, उनको भारतीय इतिहास के इस प्रसंग में प्रायः उद्धृत उदाहरणों की व्याख्या गोमांस-भक्षणपरक करने से भी कोई ऐतराज नहीं होगा। यदि वे गोमांस खाते हैं, तो वे कदापि नहीं चाहेंगे कि इस पर प्रतिबन्ध लगे और वे इतिहास की ढाल लेकर मैदान में कूद पड़ेंगे।

२. लेकिन जिनको गोमांस-भक्षण संास्कृतिक पाप मालूम होता है, वे उन्हीं सन्दर्भों की व्याख्या गोमांस-भक्षण परक नहीं करेंगे। और यदि ऐसे सन्दर्भ कहीं मिलते भी हैं तो उनको प्रक्षिप्त मानकर अमान्य कर देंगे।

३. तीसरा प्रकार उन लोगों का है जो इतिहास की ऐसी बातों को गोमांस-भक्षण  के विरोधी हिन्दुओं को द्वेष भावना से केवल नीचा दिखाने के लिये कहते हैं। उन्हें न तो इतिहास से कुछ लेना-देना है, और न ही गोमांस-भक्षण से। ये वे बच्चे हैं, जिनको साथी बच्चों की शान्ति भंग करने में ही मजा आता है।

४. कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनको यह मान लेने से कोई ऐतराज नहीं है कि अतीत में कुछ लोगों ने गोमांस खाया होगा, लेकिन ऐसा मानने वाले यह भी मानते हैं कि इतिहास अतीत की बदलती हुई राजनीतिक और सामाजिक धाराओं का प्रवाह मात्र है, जिसको पढ़कर हम वर्तमान को सुधारने के लिये शिक्षा तो ले सकते हैं, लेकिन उसे हम आज न तो अनुभव कर सकते हैं और न ही उसको जी सकते हैं।

जो भी हो, एक बात स्पष्ट है कि ऐसे उदाहरणों की व्याख्या व्यक्ति के वैचारिक और नैतिक मानदण्डों से प्रेरित होती है, जिसका त्वरित समाधान सम्भव नहीं है, इसलिये यह लेख दुर्जनपरितोषन्याय से लिखा गया है। माना कि प्राचीन काल में कुछ लोगों ने गोमांस खाया होगा, तो क्या?

गोमांस-भक्षण के उदाहरण

जो गोमांस-भक्षण के उदाहरण दिये जाते हैं, वे इतने छिटपुट और प्रसंगतः क्षुद्र हैं कि उनके आधार पर गोमांस-भक्षण को सिद्ध करने की बात पर प्रमाण-शास्त्र को मानने वाला कोई भी व्यक्ति हँसेगा। उसका कारण है कि गौ के प्रति आर्यों की पवित्र भावना शाश्वत है। वेदों और दूसरे संस्कृत ग्रन्थों में गोमांस-भक्षण के उदाहरण देने वाले भी यह मानते हैं कि हिन्दुओं के प्राचीनतम शास्त्र ऋग्वेद से लेकर आज तक गौ के प्रति पवित्रभावना अविच्छिन्न रूप से मिलती है। ऋग्वेद में गाय को अघ्न्या (जिसको नहीं मारना चाहिये) कहा गया है और यही भावना बाद के ग्रन्थों में विस्तार से मिलती है। यदि गोमांस-भक्षण के उदाहरणों और गोहत्या को पाप तथा गोरक्षा को पुण्य मानने वाले उदाहरणों का परिमाण देखा जाए तो तुलना ऐसी होगी-गोहत्या से पाप और गोरक्षा से पुण्य मिलने का बखान करने वाले उदाहरण एक महासागर की तरह हैं, जिसमें गो मांस खाने के उदाहरण कुछेक तिनकों की तरह हैं। ऐसा क्यों है कि ये लोग उन छिटपुट उदाहरणों को तो प्रमाण मान रहे हैं, लेकिन बाकी महासागर की उपेक्षा कर रहे हैं? ऐसा किसी न किसी स्वार्थ या काम के वशीभूत होकर दुराग्रही होने पर ही होता है। प्रमाण-शास्त्र को मानने वालों के लिये यह हास्यास्पद ही होगा कि गोरक्षा की असीम विच्छिन्नधारा की उपेक्षा कर दो-चार वाक्यों को प्रमाण मानकर सांस्कृतिक  ऐतिहासिक धारा को मोड़ने का प्रयास किया जाए।

किसी घटना के केवल उदाहरण मिलने से ही ऐसी घटनाएँ विधान तो नहीं बन जाती हैं। यह सोचना चाहिये कि उस युग में भी आदर्श क्या था? इस विषय में भी इतिहासकारों को कोई संन्देह नहीं है कि तब भी गौ के प्रति सम्मान भावना रखना ही आदर्श माना जाता था। न केवल इतना, बल्कि किसी प्रकार के मांस को न खाना ही उनका आदर्श था। तो फिर आदर्श आचार से उनके आचार को सिद्ध करने में इतना परिश्रम क्यों कर रहे हैं ये लोग?

और फिर मनुष्य कभी भी धर्मशास्त्र का सर्वथा अक्षरशः पालन नहीं करता है। कितने ईसाई और मुसलमान हैं, जो बाइबिल और कुरान की अच्छी शिक्षाओं का अनुसरण करते हैं? मनुष्य पहले स्वभावतः मनुष्य ही होता है, उसकी धार्मिक पहचान भी अक्सर उसके स्वभाव के नीचे दबकर रह जाती है। जैसे ईसाई या मुसलमान अपने धर्म का अक्षरशः पालन नहीं करते हैं, वैसे ही कुछ हिन्दू भी नही करते हैं। ऋषि कपूर जैसे सुविख्यात कलाकार, जिनका परिचय हिन्दू के रूप में ही है, आज भी गोमांस खाते हैं। उन्होंने लिखा था कि ‘‘मुझे गुस्सा आ रहा है। खाने को धर्म से आप क्यों जोड़ रहे हैं? मैं बीफ खाने वाला एक हिन्दू हूँ। तो क्या, इसका मतलब यह है कि मैं बीफ नहीं खाने वाले की अपेक्षा कम धार्मिक हूँ? सोचो!’’ और यह महोदय यहाँ तक लिख बैठते हैं कि ‘‘वैसे मुझे मेरे उन मुस्लिम दोस्तों की तरह पार्क चॉप्स भी बेहद पसंद हैं जो मेरी तरह सोचते हैं। जब आप धर्म को खाने से जोड़ते हैं तो वे भी आप पर हँसते हैं।’’ भारत के अहिंसा के आदर्श और गौ के प्रति देवी तथा मातृवत् भाव के इतिहास से परिचित व्यक्ति इसका क्या उत्तर  देगा, यह कहने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन इसका उत्तर  मशहूर शायर गालिब से मिलता है । १८५७ के स्वतन्त्रता संग्राम के बाद पुनः अंग्रेजी शासन की प्रतिष्ठा हो गयी और अंग्रेजों ने दिल्ली में संदिग्ध लोगों की धरपकड़ शुरू की । इसी प्रसंग में एक बर्न नाम के कर्नल ने अपनी टूटी-फूटी उर्दू में गालिब से पूछा, ‘‘तुम मुसलमान हो?’’ गालिब ने कहा, ‘‘आधा।’’ ‘‘इसका मतलब?’’ कर्नल ने पूछा तो गालिब ने जवाब दिया, ‘‘मैं शराब पीता हॅूँ, लेकिन सूअर नहीं खाता।’’ अर्थात् यदि गालिब शराब भी नहीं पीते तो पूरे मुसलमान होते और यदि शराब पीते और सूअर भी खाते तो मुसलमान ही नहीं रहते। खैर, जो भी हो, क्या यह उचित है कि ऋषि कपूर जैसे लोगों के उदाहरण से यह सिद्ध किया जाए कि आज हिन्दुओं में गोमांस खाना मान्य है? यदि नहीं तो, इतिहास में क्यों इस तरह की मानसिकता थोपने की कोशिश हो रही है? इन्द्रियों का दास हो चुके मनुष्य के लिये धर्मशास्त्र व्यर्थ हैं। धर्म का ज्ञान केवल उन्हीं को होता है, या हो सकता है, जो स्वार्थ और काम की भावना के वशीभूत नहीं हैं। स्वार्थान्ध और कामान्ध व्यक्ति के लिये तो शास्त्र नियम अभिशाप की तरह हैं, मानवाधिकारों का उल्लंघन है। ऋषि कपूर जैसे लोगों की यही करुण व्यथा है- गोवध पर प्रतिबन्ध से उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है।

इसी प्रसंग में एक बात और। यदि इन लोगों को भारत के  अतीत से इतना ही प्यार और मान्य-भावना है, तो इनको यह भी समझना चाहिये कि उस युग के आचरणों की यथावत् प्रतिष्ठा के लिये जितना महत्वपूर्ण उस युग की बातों के होने का है, उतना ही महत्वपूर्ण कुछ बातों का नही होना भी है। उस समय ईसाइयत और इस्लाम भारत में तो क्या दुनिया मैं भी नहीं थे। तो जो लोग प्राचीन हिन्दू धर्म में गोमांस-भक्षण को प्रमाण मानकर आचरणीय मानते हैं, तो क्या उनको हिन्दू धर्म को स्वीकार कर अपनी आस्था को खुले रूप में प्रकट नहीं करना चाहिये? जब तक ऐसे लोग वैदिक धर्म और आचरण को स्वीकार न कर लें, तब तक उन्हें वैदिक या हिन्दू धर्म में आस्था रखने वालों को ‘‘अतीत की किस परम्परा का अनुसरण करना चाहिये’’ के विषय में बोलने का कोई अधिकार ही नहीं है।

इतिहास में किसी घटना के उदाहरण मिलना भी उनको हर युग और देश में स्वीकार करने का कारण नहीं हो सकता। भारतीय परम्परा में संस्कृति को प्रवाहमान माना गया है, जो हर युग में बदलती रहती है। इतिहास में इस तरह की परम्पराएँ रही हैं, जिनके विषय में आज सोचना भी मन में जुगुप्साभाव पैदा करता है। जैसे कि ईरान में सगे सम्बन्धियों में आपस में शादी की  परम्परा थी, जिसको पूरी धार्मिक और कानूनी मान्यता थी। यहाँ तक कि माँ-बेटे, बहन-भाई और पिता-बेटी की शादी की भी बहुप्रचलित परम्परा थी। यदि ग्रीक इतिहासकार हेरोडोटस को प्रमाण माना जाए तो ऐसी परम्पराएँ भी थीं, जब किसी के बीमार होने पर उसी के सम्बन्धी उसको मारकर, पकाकर उसका भोग लगाते थे। क्या गोमांस के छिटपुट उदाहरणों के आधार पर हिन्दुओं की धार्मिक भावना से खिलवाड़ करने को जायज ठहराने से पहले सगे सम्बन्धियों से शादी करने और बीमार सम्बन्धियों का भोग लगाने की परम्परा को कानूनी रूप से स्वीकार कर लिया जाये?

शास्त्र में कही गयी बातों के आचरणीय या अनाचरणीय होने के विषय में कामसूत्र में एक ही बात दो बार सावधान करने के लिये कही गयी है-

न शास्त्रमस्तीत्येतेन प्रयोगो हि समीक्ष्यते/न शास्त्रमस्तीत्येतावत् प्रयोगे कारणं भवेत्। शास्त्रार्थान् व्यापिनो विद्यात् प्रयोगांस्त्वेकदेशिकान्।।

(कामसूत्र, २.९.४१,७.२.५५)।

शास्त्र में किसी बात की चर्चा है, केवल इसी आधार पर उसका प्रयोग या आचरण नहीं किया जा सकता, क्योंकि शास्त्र का विषय व्यापक होता है, जबकि प्रयोग एकदेशिक होते हैं, अर्थात् शास्त्र विभिन्न देश और काल की चर्चा करते हैं, उनका रिकार्ड रखते हैं, लेकिन प्रयोग प्रयोक्ता की शक्ति, समय, देश और परम्परा के अनुसार ही होते हैं, सर्वकालीन और सर्वजनीन नहीं। यही कारण है कि काम शास्त्र में रागवर्धक विचित्र प्रयोगों का विवरण देने के बाद उनका यत्नपूर्वक निवारण भी कर दिया गया है (कामसूत्र ७.२.५४)।

भारतीय आदर्श अब आते हैं भारतीय आदर्श पर। गोमांस की बात छोड़ो, भारतीय परम्परा में तो किसी भी प्राणी के मांस भक्षण से सर्वथा निवृत्ति  को ही आदर्श माना जाता था। मुसलमानों के इस धूर्त वर्ग ने मनु का भी एक श्लोक भारत में मांस भक्षण के पक्ष में प्रमाण के रूप में प्रचारित किया है। इसमें कहा गया है कि भोक्ता अपने खाने लायक पदार्थों  को खाने से किसी दोष का भागी नहीं होता है। इन खाने लायक भोजनों में प्राणियों को भी गिना गया है (मनु ५.३०)। विशेष बात यह है कि भारतीय विद्वानों ने इसको प्राण-संकट होने पर मान्य माना है। जैसे कि मनु के व्याख्याकार मेधातिथि ने इस श्लोक की व्याख्या में कहा है कि इसका मतलब यह है कि प्राणसंकट में हों तो मांस भी अवश्य खा लेना चाहिये (तस्मात् प्राणात्यये मांसमवश्यं भक्षणीयमिति त्रिश्लोकीविधेरर्थवादः।) ऐसा भी नहीं है कि यह मेधातिथि की मनमर्जी से की गई व्याख्या है। यह मनु के अनुरूप ही है। ऊपर उद्धृत श्लोक के बाद मनु ने प्राणियों की अहिंसा का गुणगान कई श्लोकों में करते हुए मांस भक्षण को पुण्यफल का विरोधी माना है। उन्होंने यहाँ तक कहा है कि यदि कोई व्यक्ति सौ साल तक हर साल अश्वमेध यज्ञ करता रहे और यदि कोई व्यक्ति मांस न खाए तो उनका पुण्यफल समान होता है (५.५३)। सन्तों के पवित्र फल-फूल भोजन मात्र पर निर्वाह करने वाले को भी वह पुण्यफल नहीं मिलता है जो कि केवल मांस छोड़ने वाले को मिलता है। मनु ने मांस की बड़ी अच्छी परिभाषा देते हुए कहा है कि-

मांस भक्षयितामुत्र यस्य मांसमदाम्यहम्।

एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः।।

– समझदार लोग कहते हैं कि मांस को मांस इसलिये कहा जाता है, क्योंकि मैं आज जिसको खा रहा हॅूँ (मां) मुझे भी (सः) वह परलोक में ऐसे ही खाएगा। और मनु गौ को तो सर्वथा अवध्य मानते हैं और उसकी रक्षा करना मनुष्य मात्र का कर्तव्य  मानते हैं। इसी प्रसंग में ऊपर दिया कामसूत्र विषयक परिच्छेद (भारतीय आदर्श शीर्षक से पहले) एक बार और देख लें तो विषय और भी स्पष्ट हो जाएगा। एक शास्त्र होने के नाते मनुस्मृति में चाहे मांस-भक्षण की चर्चा है, लेकिन जिस विस्तृत स्पष्टता  के साथ इसको अपुण्यशील माना है, वह मांस-भक्षण की स्वीकृति के पक्ष में नहीं, अपितु उसके साक्षात् विरोध में खड़ा है। तब भी यदि कोई इसमें मांस-भक्षण की स्वीकृति को सिद्ध करने की चेष्टा करता है, तो या तो वह मूढ़ अज्ञानी है, या धूर्त है।

हिन्दू बनाम गैर-हिन्दू

यह तर्क भी दिया जाता है कि गोहत्या केवल हिन्दुओं के लिये पाप है, दूसरे धर्मावलम्बियों (ईसाई और मुसलमानों) के लिये तो नहीं। भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और शासन को एक धर्म की मान्यताओं के आधार पर दूसरे धर्मावलम्बियों के मानवाधिकारों का हनन नहीं करना चाहिये।

तर्क तो ठीक है, लेकिन बाकी तर्कों की ही तरह पक्षपाती है। कुरान केवल मुसलमानों के लिये ही तो पवित्र है, पैगम्बर मुहम्मद साहब भी केवल मुसलमानों के लिये पैगम्बर हैं, तो क्या मुसलमान यह स्वीकार करेंगे कि दूसरे धर्मावलम्बी कुरान के साथ जैसा चाहे व्यवहार कर सकते हैं? क्या ईसाईयों को यह स्वीकार होगा कि यदि कोई सूली पर लटके ईसा की काष्ठमूर्ति को जलाकर ठण्ड से सिकुड़ते बदन को सेक ले? यदि मुसलमानों और ईसाइयों को यह स्वीकार नहीं होगा तो उनको हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं का ध्यान रखना ही चाहिये। गाय का प्रश्न केवल खाने-पीने तक नहीं है, गाय को श्रद्धाभाव से, पवित्र देवी के रूप में देखा जाता है। यदि एक-दूसरे की भावनाओं का ध्यान  नहीं रखेंगे, तो अतीत की तरह दंगों की आग दोनों ही तरफ के लोगों को झुलसाती रहेगी। समय-समय की बात है – कभी मुसलमानों-ईसाइयों का पलड़ा भारी होगा तो कभी हिन्दुओं का, लेकिन इस हठधर्मिता से कोई समाधान नहीं होगा। समाधान केवल तभी होगा जब आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्। – ‘‘जो व्यवहार अपने प्रति पसन्द नहीं, वह व्यवहार दूसरों के प्रति भी न करें’’ का पालन किया जाए।

और ऐसा भी क्यों है कि मुसलमानों का एक वर्ग हिन्दुओं के प्रति विद्वेषभावना से बाबर, हुमायूँ, औरंगजेब जैसे कट्टरपन्थी मुगलों की केवल गन्दी विरासत को ही ढोने और उसके लिये मर मिटने के लिये तैयार रहता है? यह वर्ग इन शासकों की उन बातों पर कभी ध्यान क्यों नहीं देता, जिनसे भारतीय समाज में सौहार्दभाव को बढ़ावा मिले और शान्ति स्थापित हो सके? इसके ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि हिन्दुओं की धार्मिक/सांस्कृतिक भावनाओं के भड़क जाने के भय से बाबर ने न केवल अपने शासन में गोवध पर पाबन्दी लगा रखी थी, बल्कि अपने बेटे हुमायूँ को भी इसको जारी रखने का हुक्म दिया था। अकबर ने भी अपने शासन में गोवध पर पाबन्दी लगा रखी थी। यहाँ तक कि औरंगजेब जैसे कट्टर और परधर्मद्वेषी शासक ने भी गोवध पर मृत्युदण्ड घोषित कर रखा था और इसी परम्परा को आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने भी जारी रखा था।

जहाँ तक बात है अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों की रक्षा की, तो यह रक्षा यदि बहुसंख्यकों की धार्मिक भावनाओं को आहत करके  होती है तो सर्वथा अनुचित है। और फिर केवल कुछेक व्यक्तियों के मानवाधिकारों की ही बात क्यों हो? क्या बहुसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा नहीं होनी चाहिये? ऐसा भी नहीं है कि राज्य सरकार द्वारा पारित यह नियम केवल अल्पसंख्यकों पर लागू होगा, यह तो सभी पर लागू होगा- ऋषि कपूर जैसे और भी लोग होंगे जो अल्पसंख्यकों की श्रेणी में नहीं आते हैं। उन पर भी लागू होगा। इस तरह की सर्वजन-समभाव की सुविधा गैर-मुस्लिमों को मुगल सल्तनत में कभी नहीं मिली।

इन्हीं अधिकारों की भाषा बोलते-बोलते मुसलमानों का यह वर्ग एक और देश विभाजन हो जाने की धमकी देने लगा है। देश विभाजन होगा या नहीं, इसका जवाब तो समय ही देगा, लेकिन मुसलमानों के भारत में अधिकार की चर्चा के विषय में मैं इस्लामी धर्मशास्त्र, परम्परा, और इतिहास के सर्वश्रेष्ठ विद्वानों में से एक मौलाना वहीदुद्दीन खान के मन्तव्य के साथ इस लेख को समाप्त करता हूँ। सन् २००७ में बीबीसी ने आजादी के साठ वर्ष पूरे होने के अवसर पर एक लेखमाला छापी थी, जिसमें मौलाना वहीदुद्दीन खान के मन्तव्य भी छपे थे। उसका एक अंश बीबीसी से ही उद्धृत करता हूँ-

इस्लामी मौलाना वहीदुद्दीन खान कहते हैं कि मुसलमानों को भारत में जो कुछ मिला है, वह हिन्दू समुदाय की मेहरबानी है और उन्हें इस देश में जो कुछ भी मिला है, उसका उन्हें अधिकार ही नहीं था, इसलिए उन्हें ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए। इस्लामी विद्वान् मौलाना वहीदुद्दीन खान कहते हैं, ‘‘स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान मुसलमानों ने जो बलिदान दिए, उनके बदले उन्हें पाकिस्तान के रूप में एक अलग देश मिल गया और इस तरह उन्होंने अपनी कुर्बानियों को भुना लिया। विभाजन की दलील ही यह थी कि भारत हिन्दू का और पाकिस्तान मुसलमान का, तो फिर अब भारत में उनका अधिकार कैसा? इसके विपरीत हिन्दू समुदाय ने बड़ी बात की है कि आजाद भारत में भी मुसलमानों को बराबरी का दर्जा दे दिया।’’

उपसंहार इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए केवल मूर्ख व्यक्ति ही ऐसा दुराग्रह करेगा कि चूँकि पहले कुछ लोगों ने ऐसा किया था, इसलिये आज भी ऐसा करना चाहिये। युग बदल गया है, कुछ  आचार-विचार बदल गये हैं और कुछ आचार-विचार समाप्त-प्राय हैं। कुछ परम्पराएँ क्षीण हो गयी हैं, तो कुछ बलवती हो गयी हैं। आधुनिक भारतीय इतिहास को सप्रमाण जानने वाला हर विद्वान् यह मानता है कि पिछले कुछ सौ वर्षों में हुए हिन्दू-मुस्लिम द्वेष और दंगों के पीछे सबसे बड़ा कारण गोहत्या से जुड़ी घटनाओं का होना रहा है। १८५७ में हुए स्वतन्त्रता संग्राम के दिल्ली में विफल हो जाने का एक कारण गोहत्या के कारण हिन्दू-मुस्लिम लोगों का बँट जाना भी था, जिसका अंग्रेजों ने पूरा लाभ उठाया। ऐसे में सवाल यह नहीं है कि पहले भारत में क्या होता था और क्या नहीं होता था। सवाल यह है कि आज की असलियत क्या है? आज हिन्दुओं के लिये गौ एक धार्मिक पहचान है और उसकी रक्षा करना धार्मिक कर्तव्य । जबकि गोमांस खाने वाले किसी भी व्यक्ति के लिये न किसी त्यौहार पर और न किसी दूसरे अवसर पर गोमांस खाना धार्मिक या सांस्कृतिक कर्तव्य है। भारत के अन्तिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने गोहत्या पर पाबन्दी लगाई और गोवध करने वाले को तोप से उड़ा दिये जाने की घोषणा की तो दिल्ली के दो सौ प्रतिष्ठित मुसलमानों ने उनके पास जाकर गुहार लगाई कि ईद के मौके पर उनको गोहत्या करने दी जाए। जफर आग-बबूला हो गये और बोले कि मुसलमान का धर्म गाय की बलि पर निर्भर नहीं है। जैसा पहले कहा गया है, यहाँ तक कि धार्मिक रूप से क्रूर पहचान रखने वाले मुगल बादशाह भी कुछ हद तक हिन्दुओं की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए गोहत्या पर पाबन्दी लगा सकते हैं, तो क्या धर्म-निरपेक्ष भारत में सामाजिक समरसता और शान्ति बनाए रखने के लिये गोवध पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता है? क्या गोवध पर प्रतिबन्ध के खिलाफ लड़ाई केवल खाने की लड़ाई है या इसके पीछे सामाजिक समरसता को भंग करने वाले कुछ धूर्त हैं? क्या हम भारत में परस्पर वैमनस्य ही फैलाते रहेंगे?

– बी.बी.सी. हिन्दी,

शुक्रवार, ०५ अक्टूबर २००७