परमपिता परमात्मा ने चार ऋषियों को चारो वेदो का प्रकश उनके आत्मा में किया था

कोई वेद आगे पीछे पहले बाद में नहीं आया।

आक्षेप करिये – मगर जो आक्षेप का जवाब आपको मिल चूका – जिसमे आपकी सम्मति हो चुकी – तब पुनः उसी विषय को बार बार उठाना ये बुद्धिमानी नहीं – कृपया स्वयं एक बार इस पोस्ट को पढ़े फिर यदि कोई शंका हो तो बताये – अन्यथा इस सिद्धातं को जिस प्रकार सनातन मत मानता चला आ रहा है उसी प्रकार मानकर आगे बढ़िए – बाकी आपकी जैसी इच्छा वैसे करे।

वेदत्रयी : तीन प्रकार के मंत्रो के होने, अथवा वेदो मे ज्ञान,कर्म ओर उपासना तीन प्रकार के कर्तव्यो के वर्णन करने से वेदत्रयी कहे जाते है ।

यही बात सर्वानुक्रमणीवृत्ति की भूमिका मे ” षड्गुरुशिष्य” ने कही है-

”विनियोक्तव्यरूपश्च त्रिविध: सम्प्रदर्श्यते|
ऋग् यजु: सामरूपेण मन्त्रोवेदचतुष्टये||”

अर्थात् यज्ञो मे तीन प्रकार के रूप वाले मंत्र विनियुक्त हुआ करते है|

तस्माद यज्ञात सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद यज्ञुस्तस्मादजायत।। (यजु० 31.7)

उस सच्चिदानंद, सब स्थानो में परिपूर्ण, जो सब मनुष्यो द्वारा उपास्य और सब सामर्थ्य से युक्त है, उस परब्रह्म से ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद और छन्दांसि – अथर्ववेद ये चारो वेद उत्पन्न हुए।

अन्य साक्षी :

यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपकशन।
सामानि यस्य लोमानी अथर्वांगिरसो मुखं।
स्कम्भं तं ब्रूहि कतमःस्विदेव सः।। (अथर्व० 10.4.20)

अर्थ : जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर है, उसी से (ऋचः) ऋग्वेद (यजुः) यजुर्वेद (सामानि) सामवेद (अंगिरसः) अथर्ववेद, ये चारो उत्पन्न हुए हैं। इसी प्रकार रूपकालंकार से वेदो की उत्पत्ति का प्रकाश ईश्वर करता है की अथर्ववेद मेरे मुख के समतुल्य, सामवेद लोमो के सामान, यजुर्वेद ह्रदय के सामान और ऋग्वेद प्राण के सामान हैं, (ब्रूहि कतमःस्विदेव सः) चारो वेद जिससे उत्पन्न हुए हैं सो कौन सा देव है ? उसको तुम मुझसे कहो, इस प्रशन का उत्तर यह है की (स्कम्भं तम) जो सब जगत का धारणकर्ता परमेश्वर है, उसका नाम स्कम्भ है, उसी को तुम वेदो का कर्ता जानो। (ऋ० भा० भू० वेदोत्पत्ति विषय)

ब्राह्मणो ने भी इस मान्यता को यथावत स्वीकार किया है –

“एवं वा श्वरेस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्।
यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोथर्वांगिरसः।। (शत० 14.5)

अर्थात : उस महान शक्तिशाली परमात्मा के निश्वासरूप में प्रकट ये चारो वेद जो ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद और अंगिरा से प्रकट अथर्ववेद के नाम से प्रसिद्द हैं।

अन्य साक्षी :

“तेभ्यस्तप्तेभ्यस्त्र्यो वेदा अजायन्त, अग्नेऋग्वेदो, वायोर्यजुर्वेदः, सुर्यात्साम्वेदः।” (श० 11.5.2.3)

अर्थात : उन तपस्वी ऋषियों के माध्यम से परमात्मा ने अग्नि से ऋग्वेद, वायु से यजुर्वेद, सूर्य से सामवेद, इस प्रकार त्रयीविद्यारूप चार वेद प्रकट किये।

अब जब वेद और ब्राह्मण ग्रन्थ दोनों ही प्रमाण हैं फिर भी कैसे कोई सनातनी ये आक्षेप कर सकता है की अथर्ववेद बाद में आया है ? क्या ये सनातनी ज्ञान होगा अथवा नवीन भूल ?

खैर मनुस्मृति से एक साक्षी और देते हैं :

अध्यापयामास पितण्शिशुरांगिरसः कविः।
पुत्रका इतिहोवाच ज्ञानेन परिग्रह्य तान।। (मनु० 2.126)

[इस प्रसंग में एक इतिवृत्त भी है] (अंगिरसः शिशुः कविः) आंगिवंशी “शिशु” नामक बालक विद्वान ने (पितृन्) अपने पिता के सामान चाचा आदि पितरो को (अध्यापयामास) पढ़ाया (ज्ञानेन परिग्रह्य) ज्ञान देने के कारण (तान “पुत्रकाः” इति ह उवाच) उनको हे पुत्रो इस शब्द से सम्बोधित किया।

कवि शब्द की व्युत्पत्ति : कविः शब्द ‘कु-शब्दे’ (अदादि) धातु से ‘अच इ:’ (उणादि 4.139) सूत्र से ‘इ:’ प्रत्यय लगने से बनता है। इसकी निरुक्ति है :

‘क्रांतदर्शनाः क्रांतप्रज्ञा वा विद्वांसः (ऋ० द० ऋ० भू०)
“कविः क्रांतदर्शनो भवति” (निरुक्त 12.13)

इस प्रकार विद्याओ के सूक्ष्म तत्वों का दृष्टा, बहुश्रुत ऋषि व्यक्ति कवि होता है।
इसे “अनुचान” भी इस प्रसंग में कहा है [2.129] ब्राह्मणो में भी कवि के इस अर्थ पर प्रकाश डाला है –

“ये वा अनूचानास्ते कवयः” (ऐ० 2.2)

“एते वै काव्यो यदृश्यः” (श० 1.4.2.8)

“ये विद्वांसस्ते कवयः” (7.2.2.4)

शुश्रुवांसो वै कवयः (तै० 3.2.2.3)

शिशु अंगिरस – यह अंगिरावंश का एक विद्वान बालक था। बाल्यावस्था में मन्त्रद्रष्टा होने के कारण यह गुणाभिधान “शिशु” नाम से ही प्रसिद्द हो गया।
इसका यह आख्यान ताण्ड्य ब्राह्मण 13.3.23-24 और पञ्च ब्रा० 13.3.24 में यथावत आता है। वहां इसे “मन्त्रकृतां मन्त्रकृत” कहा है। ऋ० 9.112 सूक्त इसी शिशु ऋषि द्वारा दृष्ट है। सामवेद में यत्सोम चित्रम………” [उ० 3.2.13] तृच् को इसके द्वारा दृष्ट होने के कारण ही “शैशव साम” कहा गया है।

उपरोक्त वेद और इतिहास प्रमाणों से सिद्ध है की परमात्मा ने चारो ऋषिये के आत्माओ में एक एक वेद का प्रकाश एक ही समय में किया था। जब चारो वेदो ने स्वंय अर्थववेद के वेदत्व को स्वीकार किया है तो फिर अर्थववेद को नया बतलाकर वेद की सीमा से दूर करना मुर्खतामात्र है|

बाकी ज्ञानीजन विचार करे।

।। ओ३म ।।

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