Category Archives: Acharya Somdev jI

(ग) एक व्यक्ति बिल्कुल नास्तिक है। ईश्वर की सत्ता को मानने से इन्कार करता है। लोगों को कहता है- ईश्वर नाम की कोई हस्ती संसार में नहीं है, लोग भ्रम में पड़े हुए हैं। किन्तु कर्म अच्छे करता है, बड़ा समाज सेवी भी है। क्या उस पर नाराज नही होता ईश्वर?

(ग)  एक व्यक्ति बिल्कुल नास्तिक है। ईश्वर की सत्ता को मानने से इन्कार करता है। लोगों को कहता है- ईश्वर नाम की कोई हस्ती संसार में नहीं है, लोग भ्रम में पड़े हुए हैं। किन्तु कर्म अच्छे करता है, बड़ा समाज सेवी भी है। क्या उस पर नाराज नही होता ईश्वर?

मेरे एक परममित्र हैं, जो सिरसा में रहते हैं, लेखक व कवि हैं, रिटायर्ड प्रिंसिपल-एम.ए. बी.एड. हैं, अमर शहीद भगतसिंह के नाम पर एक ट्रस्ट चलाते हैं, जिसमें दसवीं पास किए हुए गरीब छात्रों को जो आगे पढ़ना चाहते हैं उन्हें नियमित आर्थिक सहयोग देते हैं। इस संस्था के अनेक सदस्य हैं, मैं भी हूँ। किन्तु ये महाशय ईश्वर को बिल्कुल नहीं मानते, कहते हैं- प्रकृति से सब अपने आप होता है। उनका आहार-विहार, विचार-व्यवहार सब अच्छा है। अस्सी से ऊपर की आयु है। बिल्कुल स्वस्थ हैं, किन्तु ईश्वर को बिल्कुल नहीं मानते। क्या ऐसे लोगों से ईश्वर नाराज नहीं होता? क्यों?

– डॉ. एस.एल. वसन्त, बी-1384, नागपाल स्ट्रीट, फाजिल्का-152123 (पंजाब)

समाधान- 

(ग) आपने जिन सज्जन के विषय में कहा है, वे भले ही ईश्वर को नहीं मानते, किन्तु कार्य अच्छे कर रहे हैं, यह अच्छा कार्य उनके सुख का कारण है, न कि ईश्वर को न मानना कारण है। ईश्वर की आज्ञा है कि मनुष्य श्रेष्ठ कर्म करे और जब व्यक्ति श्रेष्ठ कर्म करता है तो उसको अवश्य ही ईश्वर व्यवस्था से सुख रूप फल मिलेगा। यह ईश्वरीय नियम है कि श्रेष्ठ कर्म करने वाले को सुख और विपरीत कर्म करने वाले को दुःख होगा।

हाँ यह अवश्य है कि जब व्यक्ति ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करके चलता है, उसी को संसार का रचयिता मानता है, कर्मफल देने वाला मानता है, पुनर्जन्म को मानता है और वेद के उपदेश को स्वीकार करता है, तब व्यक्ति का आत्मोत्कर्ष अत्यधिक होता है।

जो लोग यह कहते हैं कि संसार का बनाने वाला कोई नहीं, संसार अपने आप बन गया, यह कथन बालपन का ही है। जब हमारे सामने कोई वस्तु घर, गाड़ी, दुकान, भोजन आदि बिना बनाने वाले के नहीं बन सकता, तो इतना बड़ा संसार कैसे बिना कर्त्ता के बन सकता है। इसलिए जब व्यक्ति मनुष्यों द्वारा बनाई गई वस्तुओं को देख विचार करता है कि यह किसी-न-किसी के द्वारा बनाई गई है, अपने आप नहीं बनी। इसी प्रकार यह जगत् भी किसी-न-किसी के द्वारा बनाया गया है, न कि अपने आप बना।

इसलिए जब व्यक्ति ईश्वर की सत्ता को मानकर चलता है, तब वह अधिक लाभ प्राप्त करता है। जब नहीं मानता तो उस लाभ को प्राप्त नहीं कर पाता और जो कोई ईश्वर को नहीं मानता, इससे ईश्वर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और न ही परमेश्वर इतने मात्र से नाराज होता। अस्तु।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

 

(ख) प्राचीन काल में भी चारवाक के नाम से एक नास्तिक मत-(दर्शन) प्रचलित था, जो ईश्वर तथा पुनर्जन्म को नहीं मानते थे। ऋणं कृत्वा घृतम् पिवेत्, भस्मीभूतस्य देहस्य पुरागमनम् कुतः, ऐसा मानते थे।

(ख) प्राचीन काल में भी चारवाक के नाम से एक नास्तिक मत-(दर्शन) प्रचलित था, जो ईश्वर तथा पुनर्जन्म को नहीं मानते थे। ऋणं कृत्वा घृतम् पिवेत्, भस्मीभूतस्य देहस्य पुरागमनम् कुतः, ऐसा मानते थे।

समाधान- 

(ख) चारवाक का मत वाममार्ग नास्तिक मत रहा है, उनकी विचारधारा सर्वथा वेद विरुद्ध थी। जैसे-

अग्निरुष्णों जलं शीतं शीतस्पर्शस्तथाऽनिलः।

केनेदं चित्रितं तस्माद् स्वभावात्तद्व्यवस्थितः।।

न र्स्वगो नाऽपवर्गो वा नैवात्मापारलौकिकः।

नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः।।

यावज्जीवेत्सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिवेत्।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनररागमनं कुतः।।

– चारवाक दर्शन

अर्थात्- अग्नि उष्ण है, जल शीतल है, वायु शीत स्पर्शवाला है। इस वैविध्य को किसने चित्रित किया है। इसलिए स्वभाव से ही इनकी तत्तद् गुण युक्त स्थिति जाननी चाहिए, अर्थात् कोई जगत् का कर्त्ता नहीं है।

न कोई स्वर्ग है, न कोई नरक है और न कोई परलोक में जाने वाली आत्मा है और न वर्णाश्रम की क्रिया फलदायक है।

इसलिए जब तक जीवे, तब तक सुख से जीवे, जो घर में पदार्थ न हो, तो ऋण लेके आनन्द करे, ऋ ण देना नहीं पड़ेगा। क्योंकि जिस शरीर ने खाया-पीया है, उसका पुनरागमन न होगा। फिर किससे कौन माँगेगा और कौन देवेगा।

यह मत चारवाक का रहा है। इसमें से जो वेद विरुद्ध आचरण है, उसका तो परमेश्वर अवश्य ही दण्ड देगा। हाँ, जो कोई केवल ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता, इतने मात्र से ईश्वर उस पर रुष्ट नहीं होता। जब व्यक्ति ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता और प्रायः करके ईश्वर की न्याय व्यवस्था से परे होकर, विपरीत कार्यों में लग जाता है। जिसका परिणाम अधोपतन होता है।

‘‘कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। पापकर्मों को ईश्वर कभी-भी क्षमा नहीं करता।’’ तो मनुष्य ईश्वर की प्रार्थना-स्तुति क्यों करें?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासामैं परोपकारी का आजीवन सदस्य वर्षों से हूँ। पत्रिका पढ़कर बड़ा आनन्द आता है। बहुत कुछ अच्छी जानकारी मिलती है। धन्यवाद वसन्त

(क) महर्षि दयानन्द के अनुसार- ‘‘कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। पापकर्मों को ईश्वर कभी-भी क्षमा नहीं करता।’’ तो मनुष्य ईश्वर की प्रार्थना-स्तुति क्यों करें?

– संसार में, एक व्यक्ति किसी के प्रति अपराध करता है, किन्तु क्षमा माँगने पर, पश्चात्ताप करने पर प्रथम व्यक्ति उसको क्षमा कर देता है, क्या ईश्वर को इसी प्रकार क्षमा नहीं कर देना चाहिए? कहते हैं- वह बड़ा दयालु है, तो उसको दया क्यों नहीं आती?

समाधान– (क) महर्षि दयानन्द की वैदिक मान्यतानुसार कर्मों का फल भोगना पड़ता है। किये हुए पाप कर्मों को ईश्वर क्षमा नहीं करता, वह तो न्यायपूर्वक उन कर्मों का फल यथावत् देता है। परमेश्वर के द्वारा पाप कर्म क्षमा न करने पर आपकी जिज्ञासा है कि फिर ईश्वर की स्तुति प्रार्थना क्यों करें? इस विषय में हम यहाँ पहले महर्षि दयानन्द के विचार लिखते हैं-

‘प्रश्न- परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए वा नहीं?      उत्तर- करनी चाहिए।

प्रश्न क्या स्तुति आदि करने से ईश्वर अपना नियम छोड़, स्तुति प्रार्थना करने वाले का पाप छुड़ा देगा?

उत्तर नहीं।

प्रश्न तो फिर स्तुति प्रार्थना क्यों करना?

उत्तर उसके करने का फल अन्य ही है।

प्रश्न क्या है?

उत्तर स्तुति से ईश्वर में प्रीति, उसके गुण-कर्म-स्वभाव से अपने गुण कर्म स्वभाव का सुधरना। प्रार्थना से निराभिमानता, उत्साह और सहाय का मिलना। उपासना से परब्रह्म से मेल और उसका साक्षात्कार होना।’’ स.प्र. 7।

यहाँ महर्षि के मतानुसार स्तुति प्रार्थना से पाप क्षमा तो नहीं होंगे, किन्तु स्तुति-प्रार्थना करने के अन्य अनेक लाभ बताए हैं। इन अन्य लाभों को प्राप्त करने के लिए ईश्वर की स्तुति प्रार्थना आवश्य करें, करनी चाहिए। हम मनुष्य जो लौकिक कार्य करते हैं, वह भी लाभ ही के लिए करते हैं। किसी कार्य को हमने पाँच लाभ प्राप्त करने के लिए प्रारभ करने का विचार किया। विचार करने पर पता लगा कि इस कार्य से पाँच लाभ न होकर, चार ही लाभ होंगे और जो लाभ होंगे, वे बड़े महत्त्वपूर्ण लाभ प्राप्त होंगे। ऐसी स्थिति में विचारशील व्यक्ति को क्या पाँच लाभों में से एक लाभ न मिलता देखकर, उस कार्य को छोड़ देना चाहिए या करना चाहिए? बुद्धिमान् व्यक्ति निश्चित रूप से इस कार्य को छोड़ेगा नहीं, अपितु चार लाभ के लिए अवश्य करेगा। ऐसे ही ईश्वर की स्तुति प्रार्थना से पाप छूटने वाला लाभ तो नहीं हो रहा, किन्तु अन्य बहुत से सद्गुण रूप सदाचार प्राप्त हो रहे हैं, जिनके प्राप्त होने पर पाप कर्म करने की प्रवृत्ति नष्ट होती है। क्या ऐसे ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, रूप, कर्म को छोड़ना चाहिए? तो इसका प्रत्येक विवेकशील व्यक्ति यही उत्तर देगा कि ऐसे कर्मों को कदापि नहीं छोड़ना चाहिए। इसलिए गुणों में प्रीति, अपने गुण कर्म स्वभाव को सुधारने, निरभिमानता, उत्साह और ईश्वर का सहाय प्राप्त करने के लिए ईश्वर की स्तुति प्रार्थना करनी चाहिए।

– संसार में किसी व्यक्ति के प्रति किये गये अपराध को व्यक्ति सहन कर, उस अपराध को करने वाले अपराधी को क्षमा कर देता है। यदि क्षमा करता है तो वह धर्म का पालन कर रहा है। जब हम व्यक्तिगत हानि, अपराध, अपमान आदि के होने पर किसी को क्षमा करते हैं, तो यह उचित है, यह धर्म कहलायेगा, जो महर्षि मनु ने धर्म के दश लक्षणों में से एक ‘क्षमा’ कहा है। यदि व्यक्ति सामाजिक और राष्ट्रीय अपराधी को क्षमा करता है, तब वह धर्म न होकर अधर्म हो जायेगा, अन्याय हो जायेगा।

ऐसे ही न्यायकारी परमेश्वर स्वअपराधियों को सहन करने वाला है, क्षमा करने वाला है, जो कोई परमेश्वर को गाली देता है, उसको छोटा मानता है, उसकी सत्ता को स्वीकार नहीं करता, ऐसे व्यक्ति को अपने प्रति किये इस दुर्व्यवहार को सहन करता है, क्षमा करता हैं, किन्तु जब व्यक्ति उसकी आज्ञा का पालन न कर, पाप कर्म करता है अर्थात् शरीर, मन, वाणी से दूसरे की हानि करता है, तब न्यायकारी परमात्मा उसको क्षमा न कर दण्डित करता है। यह उसकी दया है, दयालुपना है। यदि परमेश्वर ऐसा न करे तो व्यक्ति अधिक-अधिक पाप कर्म कर अधिक-अधिक अधोगति को प्राप्त हो जावे। जब परमात्मा उसके पाप कर्म का फल देता है, तो फल भोगने से पाप क्षीण होते हैं, यह परमेश्वर की दया नहीं तो क्या है। उसको पाप कर्मों को भुगा कर फिर से मनुष्य शरीर देकर उन्नति का अवसर देना- इसमें परमात्मा की दया ही तो द्योतित हो रही है। परमात्मा तो दया का भण्डार है, हम अज्ञानी लोग उसकी दया को समझ नहीं पाते, यह हमारा दोष है।

कहते हैं कि महाभारत युद्ध में 18 अक्षौणी सेना नष्ट हुई थी जिसमें लगभग 48 लाख मनुष्य लाखों घोड़े, हाथी और हजारों रथ नष्ट हुये। अगर ऐसा है तो इन सबको डिस्पोजल कैसे किया गया या इनका निपटारा कैसे किया गया।

कहते हैं कि महाभारत युद्ध में 18 अक्षौणी सेना नष्ट हुई थी जिसमें लगभग 48 लाख मनुष्य लाखों घोड़े, हाथी और  हजारों रथ नष्ट हुये। अगर ऐसा है तो इन सबको डिस्पोजल कैसे किया गया या इनका निपटारा कैसे किया गया।

समाधान-

महाभारत युद्ध में जो भी मनुष्य वा हाथी घोड़े मरे थे, उन सबका विधिवत् अन्तिम संस्कार किया गया-ऐसा ‘स्त्रीपर्व’ के छठे अध्याय में वर्णन कर रखा है। आपने जो पूछा कि इन सबका निपटारा कैसे हुआ होगा, सो वह निपटारा विधिवत् हुआ है, उस समय में बड़े बुद्धिमान् और कुशल लोग थे, जिन्होंने इस सबका कुशलता से निदान किया था। अलम्।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

महाभारत में लिखा है कि लाखों गौओं के सींग और खुर सोने से जड़े थे। लाखों हाथी और घोड़ों की काठियाँ (बैठने के गद्दे), झूमर, पैर सोने में मढ़े थे। क्या उस समय लाखों टन सोना था भारत में?

महाभारत में लिखा है कि लाखों गौओं के सींग और खुर सोने से जड़े थे। लाखों हाथी और घोड़ों की काठियाँ (बैठने के गद्दे), झूमर, पैर सोने में मढ़े थे। क्या उस समय लाखों टन सोना था भारत में?

समाधान- 

 वर्तमान की अपेक्षा हमारा भारतवर्ष अधिक ऐश्वर्य सपन्न था-विश्व में सबसे अधिक सपन्न। प्राचीन काल में तो था ही मध्यकाल को भी देखें तो यहाँ धन धान्य की कोई कमी न थी। सोमनाथ के मन्दिर का इतिहास देखिये! इस मन्दिर के पास अपार धन था। सोना, चाँदी, हीरे, मोती, सोने की ठोस मूर्तियाँ चाँदी की मूर्तियाँ, बर्तन आदि यह तो एक मन्दिर की सपदा है, ऐसे-ऐसे हजारों मन्दिर इस देश में थे, जिनके पास ऐश्वर्य की कमी नहीं थी। ऐसा लगता है कि राजाओं के पास धन कम था और मन्दिरों के पास अधिक। आज वर्तमान में भी मन्दिरों के पास कितना धन है- इसका अनुमान आप लगा सकते हैं। तिरुपति बालाजी मन्दिर की वार्षिक आय लगभग दो हजार छः सौ अस्सी करोड़ है। इस मन्दिर के पास सोना कितना इसका पता ही नहीं। अन्य-अन्य मन्दिरों के पास भी ऐसा ही धन सोना आदि हैं। जब इस समय हमारे मन्दिरों आदि के पास इतना धन है तो पहले यह भारत देश इससे कई गुणा सपन्न था, इसलिए गौ आदि के सींगों पर सोना चढ़ा देते थे। उपनिषद् में भी सोने से मढ़ी सींगों वाली हजारों गौवों का वर्णन आता है।

ऐसा तो नहीं लगता कि उस समय की प्रत्येक गाय आदि को सोने से सजाया जाता हो। हाँ, इतना अवश्य प्रतीत होता है कि राजा लोग अपने पशुओं को सोने-चाँदी आदि से अलंकृत करते थे। जब कभी कुछ चीज ज्यादा दिखती हैं तो उसको बढ़ा-चढ़ाकर बोला जाता है। यह भाषा का प्रयोग है, इसको अर्थवाद कहते हैं। जैसे हनुमान जी संजीवनी बूटी लेकर आये तो पुरा गट्ठड़ ही बाँधकर ले आये थे, इस पूरे गट्ठड़ को देखकर उनको कह डाला कि पूरा पहाड़ का पहाड़ उठा लाये। बहुलता को देखकर पहाड़ कह दिया था। इस पहाड़ वाले भाषा प्रयोग को न समझने वालों ने वास्तविक पहाड़ ही समझ लिया। ऐसे ही यहाँ समझे कि बहुलता को देखकर ऐसा वर्णन किया गया है।

यह तो निश्चित है कि उस समय इन चीजों का अधिक प्रचलन था, जब आज एक पत्थर की मूर्ति बना सांई बाबा करोड़ों रु. के सोने के सिहांसन पर बैठा है तो उस समय चेतन प्राणियों क ो इस प्रकार के आभूषणों से क्यों नहीं अलंकृत करते होंगे।

जिज्ञासा: जो मन्त्र ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ है, …..आचार्य सोमदेव

. जो मन्त्र ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ है, इसमें यजमान अलग से कहने की आवश्यकता क्या है? यह तो ठीक है कि यजमान के बिना यज्ञ कैसे होगा और उसका यज्ञ में विशेष महत्त्व भी है, परन्तु जब देव ही यज्ञ करने का अधिकार रखते हैं, मनुष्यों को यज्ञ करने का अधिकार ही नहीं है, फिर विश्वेदेवा में यजमान स्वतः ही आ जाता है। उसके लिए अलग से यजमान भी बैठ जाएँ-कहने का प्रयोजन क्या है? समझ नहीं आता है। हम तो यही सुनते थे कि शूद्रों को यज्ञ करने का अधिकार नहीं है। हम साधारण व्यक्ति तो यही समझे हैं कि उक्त मन्त्र में केवल सभी देव और यजमान के लिए बैठने का ही निर्देश नहीं है, बल्कि जलाई गई अग्नि को और अधिक प्रज्वलित करने के बारे में भी कहा गया होगा और इससे अन्य भी कोई महत्त्वपूर्ण बात है, इसलिए इस मन्त्र का क्रम इसी स्थान पर आता होगा, परन्तु सभी देवों और यजमान को इतने समय बाद बैठने का निर्देश देना समझ नहीं आता। यहाँ ‘‘सीदत’’ का कुछ अन्य भी अर्थ होगा। कृपया, समझाने का कष्ट करें।

(ग) इस तीसरे बिन्दु में भी आपकी वही समस्या है कि मनुष्यों को यज्ञ करने का अधिकार ही नहीं है, आपने यह बात कहाँ से कैसे निकाल डाली, ज्ञात नहीं हो रहा। जिस प्रकरण को लेकर आप यह बात कह रहे हैं, उस प्रकरण वा किसी अन्य स्थल से आप पहले यह प्रमाण दें कि मनुष्य यज्ञ करने का अधिकारी नहीं है। हाँ, इसके विपरीत मनुष्यों द्वारा यज्ञ करने के प्रमाण तो ऋषियों के अनेकत्र मिल जायेंगे। आप फिर उस बात को दोहरा रहे हैं कि देव ही यज्ञ करने के अधिकारी हैं, इस बात की भी सिद्धि नहीं होगी कि केवल देव ही यज्ञ कर सकते हैं।
अर्थात् मनुष्य यज्ञ करने का अधिकारी है, यह बात ऊपर शास्त्र से सिद्ध है। महर्षि दयानन्द लिखते हैं- ‘‘प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुति-और छः छः माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून चाहिए।’’ स.प्र. ३। यहाँ महर्षि ने मनुष्य लिखा है और अन्यत्र भी मनुष्यों द्वारा यज्ञ विधान है, इसलिए मन्त्र में ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ दोनों को पढ़ा गया है। यजमान और सब देवों के स्थिर होने का प्रयोजन है। केवल देव अर्थात् विद्वान् अथवा केवल यजमान (मनुष्य) ही नहीं, अपितु ये दोनों उस यज्ञ रूपी श्रेष्ठ कर्म में स्थिर हों। इन दोनों को कहने रूप प्रयोजन से मन्त्र में दोनों को कहा है। अधिक जानने के लिए उपरोक्त महर्षि के अर्थ को देखें।
अन्त में आपसे निवेदन है कि इस प्रकार के प्रश्न प्रकरण को ठीक से समझने पर अपने-आप सुलझ जाते हैं। शतपथ में किस प्रकरण को लेकर कहा है और वेद का क्या प्रसंग है, यदि हम उस प्रकरण, प्रसंग को ठीक से देख लें तो बात उलझेगी नहीं, अपितु सुलझ जायेगी। उलझती तब है, जब हम दो प्रकरणों को मिलाकर देखते हैं। अस्तु। – ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर (राज.)

१. हमें मनुष्य बनना चाहिए या देव बनने का प्रयास करना चाहिए? – आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा- निम्नलिखित जिज्ञासाओं का समाधान करने का कष्ट करेंः-
१. हमें मनुष्य बनना चाहिए या देव बनने का प्रयास करना चाहिए?
मनुष्य बनेंगे तो ‘‘शतपथ’’ वाली बात बाधा डालती है, जिन्हें यज्ञ करने तक का अधिकार नहीं है। जब महर्षि दयानन्द द्वारा अनेक स्थलों पर दी गई ‘‘मनुष्य’’ की परिभाषा में सभी श्रेष्ठ गुण आ जाते हैं, तो फिर देव बनने की क्या आवश्यकता रह जाएगी और इस तरह मन्त्र में ‘‘मनुर्भव’’ वाली बात का औचित्य भी सिद्ध हो जाएगा।

समाधान-(क) वेद व ऋषियों के तात्पर्य को समझने के लिये वेद व ऋषियों की शैली को ही अपनाना पड़ता है। इस आर्ष शैली को अपनाकर जब हम वेद और ऋषि वाक्यों को देखते हैं, तब वे वाक्य हमें स्पष्ट समझ में आते चले जाते हैं। महर्षि दयानन्द ने वक्ता अथवा लेखक का भाव, उद्देश्य समझने के लिए सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में चार बातें-आकांक्षा, योग्यता, आसत्ति और तात्पर्य को जानने के लिए कहा है। प्रायः जब हम भाषा-शैली वा भाषा-विज्ञान को नहीं जान रहे होते, तब हम किसी बात के अर्थ को ठीक से नहीं जान पाते।
महर्षि दयानन्द ने मनुष्य की परिभाषा अनेक स्थानों पर दी है। वे परिभाषाएँ अपने-अपने स्थान पर उचित हैं। महर्षि मनुष्य के अन्दर जो मनुष्यता के भाव होने चाहिए उनको लेकर परिभाषित कर रहे हैं, जैसे स्वात्मवत्, सुख-दुःख में वर्तना, विचार पूर्वक कार्य करना आदि। यह मनुष्य बनने की प्रेरणा वेद भी ‘मनुर्भव’ वाक्य से कर रहा है। इसको देखकर आप तो शतपथ के वाक्य को देख रहे हैं और उसमें विरोधाभास दिख रहा है, सो है नहीं। यहाँ जो ‘‘अनृतं मनुष्याः’’ कहा है, वह एक सामान्य कथन है। इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि मनुष्य सदा झूठ ही बोलता है, सत्य बोलता ही नहीं। हाँ, इसका यह तात्पर्य तो अवश्य है कि मनुष्य अपने अज्ञान आदि के कारण झूठ बोल देता है, जबकि यह भाव देवताओं में नहीं होता, क्योंकि विद्वानों, ज्ञानियों को देवता कहा गया है, ‘‘विद्वांसो वै देवाः’’। विद्वान् ज्ञानी लोगों में अज्ञान स्वार्थ आदि के न होने के कारण वे सत्य बोलते हैं, सत्य का आचरण करते हैं। इसका यह भी तात्पर्य नहीं है कि कभी झूठ बोल ही नहीं सकते, नहीं बोलते। हाँ, देव और मनुष्य कोई अलग नहीं हैं। दोनों में एक ही अन्तर है कि देवों से त्रुटियाँ नहीं होती अथवा यूँ कहें कि अत्यल्प होती हैं। जो होती हैं, वे जीव की अल्पज्ञता के कारण होती हैं और इनसे इतर जो हैं, वे मनुष्य हैं। मनुष्यों से त्रुटियाँ अधिक हो सकती हैं, होने की सम्भावना अधिक रहती हैं।
‘‘अनृतं मनुष्याः’’ इस सामान्य कथन को लेकर ‘‘मनुर्भव’’ से विरोध देखना उचित नहीं हैं। ‘‘मनुर्भव’’ मनुष्यता से युक्त मनुष्य बनने की बात कह रहा है और ‘‘अनृतं मनुष्याः’’ कह रहा है कि मनुष्य से अज्ञान के कारण त्रुटि हो सकती है। इन दोनों में कोई विरोध नहीं है, दोनों वाक्य अपने-अपने स्थान पर अपनी बात कह रहे हैं।
हमें मनुष्य बनना चाहिए या देव? तो हमें श्रेष्ठता की ओर बढ़ना चाहिए। मनुष्य बनना कोई हीन बात नहीं है। वेद ने मनुष्य बनने के लिए कहा है और इससे आगे अपने अन्दर देवत्व पैदा करने की बात कही, अर्थात् मनुष्य से आगे हम देव बनें।
आप शतपथ की इस बात को लेकर कह रहे हैं कि ‘‘इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य को यज्ञ करने का अधिकार नहीं है।’’
शतपथ के इस पूरे प्रसंग से कहीं भी ऐसी बात प्रतीत नहीं हो रही कि मनुष्य को यज्ञ से दूर रखा जा रहा हो और देवताओं के लिए यज्ञ करने का विघान हो। यहाँ तो केवल सामान्य परिभाषा की जा रही है कि जो असत्य बोल देता है (किन्हीं कारणों से) वह मनुष्य और जो सत्य बोलता है, देवता होता है। यहाँ मनुष्यों के यज्ञ न करने की बात कहाँ से आ गई? अपितु शास्त्र में यह कथन तो मिलता है- ‘‘मनुष्याणां वारम्भसामर्थ्यात्।।’’ का. श्रौ. पू. १.४ अर्थात् यज्ञ-याग आदि कर्म करने का अधिकर मनुष्यों का है, मनुष्य इस कार्य के लिए समर्थ हैं। इस शास्त्र वचन में मनुष्य ही यज्ञ का अधिकारी है और आप इसके विपरीत देख रहे हैं जो कि है ही नहीं।
अभी हमने पीछे कहा कि मनुष्य बनना कोई हीन काम नहीं है,मनुष्य बनना एक श्रेष्ठ स्थिति है। जिस स्थिति को महर्षि दयानन्द परिभाषित करते हैं, वहाँ यहाँ वाली स्थिति नहीं है। महर्षि की मनुष्य वाली परिभाषा में धर्म का बाहुल्य है, विचार का बाहुल्य है। किन्तु देव मनुष्यों से आगे धर्म और विचार का बाहुल्य रखते हुए विवेक विद्या का बाहुल्य भी रखते हैं, वे राग-द्वेष से ऊपर उठे हुए होते हैं। यह सब होते हुए देव बनने की आवश्यकता है, इसलिए वेद ने कहा ‘मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्।’ इस आधार पर मनुष्य और देव दोनों बनने का औचित्य है।

विश्व में प्रथम बार वेद ऑन लाईन

विश्व में प्रथम बार

वेद ऑन लाईन

आज विज्ञान का युग है, विज्ञान ने प्रगति भी बहुत की हैं, इस प्रगति में तन्त्रजाल (इन्टरनेट) ने लोगों की जीवन शैली को बदल-सा दिया है। विश्व के किसी देश, किसी भाषा, किसी वस्तु, किसी जीव आदि की किसी भी जानकारी को प्राप्त करना, इस तन्त्रजाल ने बहुत ही सरल कर दिया है। विश्व के बड़े-बड़े पुस्तकालय नेट पर प्राप्त हो जाते हैं। अनुपलब्ध-सी लगने वाली पुस्तकें नेट पर खोजने से मिल जाती हैं।

आर्य जगत् ने भी इस तन्त्रजाल का लाभ उठाया है, आर्य समाज की आज अनेक वेबसाइटें हैं। इसी शृंखला में ‘आर्य मन्तव्य’ ने वेद के लिए एक बहुत बड़ा काम किया है। ‘आर्य मन्तव्य’ ने वेद को सर्वसुलभ करने के लिए onlineved.com नाम से वेबसाइट बनाई है। इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

१. विश्व में प्रथम बार वेदों को ऑनलाईन किया गया है, जिसको कोई भी इन्टरनेट चलाने वाला पढ़ सकता है। पढ़ने के लिए पी.डी.एफ. किसी भी फाईल को डाउनलोड करने की आवश्यकता नहीं है।

२. इस साईट पर चारों वेद मूल मन्त्रों के साथ-साथ महर्षि दयानन्द सरस्वती, आचार्य वैद्यनाथ, पं. धर्मदेव विद्यामार्तण्ड, पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार व देवचन्द जी आदि के भाष्य सहित उपलब्ध हैं।

३. इस साईट पर हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी तथा मराठी भाषाओं के भाष्य उपलब्ध हैं। अन्य भाषाओं में भाष्य उपलब्ध कराने के लिए काम चल रहा है, अर्थात् अन्य भाषाओं में भी वेद भाष्य शीघ्र देखने को मिलेंगे।

४. यह विश्व का प्रथम सर्च इंजन है, जहाँ पर वेदों के किसी भी मन्त्र अथवा भाष्य का कोई एक शब्द भी सर्च कर सकते हैं। सर्च करते ही वह शब्द वेदों में कितनी बार आया है, उसका आपके सामने स्पष्ट विवेचन उपस्थित हो जायेगा।

५. इस साईट का सर्वाधिक उपयोग उन शोधार्थियों के लिए हो सकता है, जो वेद व वैदिक वाङ्मय में शोधकार्य कर रहे हैं। उदाहरण के लिए किसी शोधार्थी का शोध विषय है ‘वेद में जीव’, तब वह शोधार्थी इस साईट पर जाकर ‘जीव’ लिखकर सर्च करते ही जहाँ-जहाँ जीव शब्द आता है, वह-वह सामने आ जायेगा। इस प्रकार अधिक परिश्रम न करके शीघ्र ही अधिक लाभ प्राप्त हो सकेगा।

६. इस साईट का उपयोग विधर्मियों के उत्तर देने में भी किया जा सकता है। जैसे अभी कुछ दिन पहले एक विवाद चला था कि ‘वेदों में गोमांस का विधान है’ ऐसे में कोई भी जनसामान्य व्यक्ति इस साईट पर जाकर ‘गो’ अथवा ‘गाय’ शब्द लिखकर सर्च करें तो जहाँ-जहाँ वेद में गाय के विषय में कहा गया है, वह-वह शीघ्र ही सामने आ जायेगा और ज्ञात हो जायेगा कि वेद गो मांस अथवा किसी भी मांस को खाने का विधान नहीं करता।

७. विधर्मी कई बार विभिन्न वेद मन्त्रों के प्रमाण देकर कहते हैं कि अमुक मन्त्र में ये कहा है, वह कहा है या नहीं कहा। इसकी पुष्टि भी इस साईट के द्वारा हो सकती है, आप जिस वेद का जो मन्त्र देखना चाहते हैं, वह मन्त्र इस साईट के माध्यम से देख सकते हैं।

इस प्रकार अनेक विशेषताओं से युक्त यह साईट है। इस साईट को बनाने वाला ‘आर्य मन्तव्य’ समूह धन्यवाद का पात्र है। वेद प्रेमी इस साईट का उचित लाभ उठाएँगे, इस आशा के साथ।

– आचार्य सोमदेव, ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

मन में बार-बार एक प्रश्न आता है कि क्या हम वेद मन्त्रों के अलावा श्लोक, सूत्र आदि से भी आहुति दे सकते हैं? यदि नहीं तो स्वामी जी ने गृहसूत्रों से भी आहुतियाँ दिलायी हैं, जैसे-अयं त इध्म (आश्व.गृ.) अग्नये स्वाहा, सोमाय स्वाहा (गो.गृ.) भूर्भुवः स्वरग्नि.. (तैत्तिरीय आ.) आपोज्योतिः…(तैत्तिरीय आ.) यदस्य कर्मणो…(आश्व.गृ.) ये तो शतं वरुण.. (कात्या.श्रो.) अयाश्चाग्ने….(कात्या.श्रो.)। तो क्या इसी प्रकार अन्य गृह सूत्रों के मन्त्रों से भी आहुतियाँ दे सकते हैं? जैसे वैदिक छन्दों को मन्त्र कहा जाता है, वैसे ही गृह सूत्रों स्मृतियों के श्लोकादि को भी मन्त्र कहा जा सकता है। यदि मन्त्र नाम विचार का है तो श्लोकादि में भी विचार हैं।

– आचार्य सोमदेव

आदरणीय सम्पादक जी, सादर नमस्ते!

मन में बार-बार एक प्रश्न आता है कि क्या हम वेद मन्त्रों के अलावा श्लोक, सूत्र आदि से भी आहुति दे सकते हैं? यदि नहीं तो स्वामी जी ने गृहसूत्रों से भी आहुतियाँ दिलायी हैं, जैसे-अयं त इध्म (आश्व.गृ.) अग्नये स्वाहा, सोमाय स्वाहा (गो.गृ.) भूर्भुवः स्वरग्नि.. (तैत्तिरीय आ.) आपोज्योतिः…(तैत्तिरीय आ.) यदस्य कर्मणो…(आश्व.गृ.) ये तो शतं वरुण.. (कात्या.श्रो.) अयाश्चाग्ने….(कात्या.श्रो.)। तो क्या इसी प्रकार अन्य गृह सूत्रों के मन्त्रों से भी आहुतियाँ दे सकते हैं? जैसे वैदिक छन्दों को मन्त्र कहा जाता है, वैसे ही गृह सूत्रों स्मृतियों के श्लोकादि को भी मन्त्र कहा जा सकता है। यदि मन्त्र नाम विचार का है तो श्लोकादि में भी विचार हैं। – विश्वेन्द्रार्य

समाधानः- यज्ञकर्म कर्मकाण्ड है। इस कर्मकाण्ड को ऋषियों ने धर्म के साथ जोड़ दिया है और इसको मनुष्य के कर्त्तव्य कर्मों में अनिवार्य कर दिया। वैदिक युग अर्थात् आज के मत-मतान्तरों से पूर्व के काल में यह कर्म ऋषियों की विशुद्ध परिपाटी से होता था। प्रायः प्रत्येक गृहस्थ पञ्च यज्ञों का अनुष्ठान किया करता था। महाभारत के बाद ऋषि-महर्षियों के अभाव में ब्राह्मण वर्ग ने अपनी मनमर्जी चलाकर कर्मकाण्ड का रूप ही बदल डाला। जो कर्मकाण्ड पवित्र था, जिसके प्रति श्रद्धा थी, उस कर्मकाण्ड को तथाकथित पण्डितों ने अपवित्र कर दिया, अर्थात् ऐसे कर्म उसके साथ युक्त कर दिये जो  मनुष्य के लिए निन्दित थे। इसी कारण जिस कर्म के प्रति श्रद्धा थी, उसके प्रति अश्रद्धा व घृणा पैदा हो गई। परिणाम यह हुआ कि इस पवित्र यज्ञ कर्म से विमुख हो अनेक मत-सम्प्रदाय बनते चले गये और देश समाज का पतन होता चला गया। मनुष्य के नैतिक मूल्य गिर गये, मनुष्य या तो धर्म-कर्म से इतना स्वच्छन्द हुआ कि अपनी मर्यादा को तोड़ बैठा अथवा धर्म-कर्म में इतना बँध गया कि कोई भी कार्य पण्डित से पूछे बिना कर नहीं सकता। वेद, शास्त्र की बात गौण हो गई, तथाकथित पण्डित की बात सर्वोपरि होती चली गई। ऐसा होने से या तो लोग नास्तिक होते चले गये या फिर धर्मभीरु होते गये।

इस नास्तिकता ने और धर्मभीरुता ने मनुष्य समाज को पतन की ओर उन्मुख कर दिया। परमेश्वर की दया हम लोगों पर हुई कि महर्षि दयानन्द का इन सब बातों पर ध्यान गया और इस दूषित वातावरण को उन्होंने दूर किया। महर्षि ने अपने जीवन में ईश्वर और वेद को सर्वोपरि आदर्श माना है। वेद के आधार पर जो भी सुधार हो सकता था, वह महर्षि ने किया और अपने जीवन काल में सुधार करते रहे।

यज्ञ को महर्षि ने जगत् के उपकार के लिए महान् कर्म माना है। यज्ञ कर्म हम ठीक से करें-इसके लिए महर्षि दयानन्द ने पंचमहायज्ञविधि व संस्कार विधि नामक दो पुस्तकें लिखी हैं। इनमें भी संस्कार विधि पुस्तक बाद की है। इसमें महर्षि ने यज्ञ की ठीक-ठीक विधि को दे दिया है। आपने पूछा है कि वेद के मन्त्र के अतिरिक्त किसी श्लोक-सूत्र आदि की आहुति भी दे सकते हैं? इसमें हमारा कहना है कि यदि किसी श्लोक, सूत्र का विनियोग महर्षि अथवा किसी प्रामाणिक विद्वान् ने कर रखा है तो दे सकते हैं, अपनी मनमर्जी से नहीं देना चाहिए। यदि ऐसे ही अपनी मनमर्जी से देने लग गये तो पूर्व की भाँति अर्थात् महाभारत के बाद और महर्षि दयानन्द से पहले जो कर्मकाण्ड का विकृत रूप था, वह होता चला जायेगा, इसलिए जिनका विनियोग महर्षि दयानन्द ने किया है, उन मन्त्र-सूत्रों से आहुति देते रहें। इसमें महर्षि का भी मत है कि जो और अधिक  आहुति देना हो तो – विश्वानि देव सवितर्दुरितानि……इस मन्त्र और पूर्वोक्त गायत्री मन्त्र से आहुति देवें। स.प्र.३

‘‘अधिक होम करने की जहाँ तक इच्छा हो, वहाँ तक स्वाहा अन्त में पढ़कर गायत्री मन्त्र से होम करें।’’ पञ्च महायज्ञविधि। यह विधान महर्षि दयानन्द ने किया है।

आपने कहा कि महर्षि ने गृह सूत्रों आदि से आहुति का विधान किया है, इसमें हमारा कथन है कि वह आर्ष=ऋषिकृत विधि होने से ठीक है। जहाँ जिस प्रसंग के मन्त्र-सूत्रों का विनियोग जिस संस्कार आदि में आवश्यक था, महर्षि ने वह किया है। उनका वह विनियोग उचित है। महर्षि के इस विनियोग को देखकर भी जो कोई किसी अन्य सूत्र, श्लोक से आहुति दिलावे वा देवे सो ठीक नहीं। ऐसी मनमर्जी करने से यज्ञ का विशुद्ध स्वरूप ही बिगड़ जायेगा। मन्त्र मुख्य रूप से मूल वेद संहिताओं का नाम है, वेद में आये कथन को मन्त्र कहते हैं। इसमें यह रूढ़-सा हो गया है। ऐसा होने पर भी ऋषियों के व्यवहार से ज्ञात हो रहा है कि वेद से इतर शास्त्र वचनों को भी मन्त्र नाम से कहा है। जैसे कि आपने भी ‘‘अयं त इध्म……’’ को उद्धृत किया है।

महर्षि ने मन्त्र विचार को कहा है, सो ठीक है। मन्त्र शब्द मन्त्र गुप्त परिभाषणे धातु से सम्पन्न है, जिसका अर्थ ही गुप्त कथन = रहस्य रूप कथन है। इस मन्त्र शब्द से मन्त्री शब्द बना है, मन्त्री अर्थात् मन्त्रणा करने वाला, विचार करने वाला, राजा को विशेष विचार देने वाला अथवा राजा से विशेष मन्त्रणा करने वाला।

मन्त्र नाम विचार का है, इस हेतु को लेकर हम किसी भी श्लोक सूत्र को बोलकर आहुति देने लग जायें सो ठीक नहीं है, क्योंकि विचार केवल सूत्र श्लोक ही नहीं है, विचार तो कुरान की आयतें भी हैं, बाइबल की आयतें भी हैं। उपन्यास और नावेल में लिखी हुई बातें भी विचार ही हैं। चलचित्रों में कहे गये संवाद विचार हैं, तो क्या इनको बोलकर भी यज्ञ में आहुति देने लग जायें? इसको आप भी स्वीकार नहीं करेंगे और न ही कोई अन्य यज्ञप्रेमी स्वीकार करेगा।

इसलिए श्लोक सूत्रादि विचार होते हुए भी हर किसी श्लोक सूत्रादि से आहुति इसलिए नहीं देनी चाहिए, क्योंकि ऋषियों अथवा अन्य प्रामाणिक विद्वानों द्वारा उनका विनियोग हमें प्राप्त नहीं है। हाँ, यदि ऋषियों या किसी प्रामाणिक विद्वान् ने किसी मन्त्र श्लोक सूत्र का यज्ञ में प्रसंग के अनुसार विनियोग कर रखा हो तो उससे आहुति दे सकते हैं, दी जा सकती है।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

पुस्तक – परिचय पुस्तक का नाम- व्याख्यान शतक

पुस्तक – परिचय

पुस्तक का नाम व्याख्यान शतक

लेखक स्वामी देवव्रत सरस्वती

प्रकाशकआर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली, १५, हनुमान रोड़, नई दिल्ली-१

पृष्ठ ५५८      मूल्य- ३५० रु. मात्र

मानव का ज्ञानवर्धन देखकर, सुनकर और पढ़कर होता है। जो व्यक्ति जितना वैदिक विचार धारा को सुनता और पढ़ता है उसका ज्ञान अधिक परिमार्जित होता है। ऐसा परिमार्जित ज्ञान वाला यदि उपदेशक बन जाता है, तो वह समाज का अधिक भला करता है। आज वर्तमान में हजारों उपदेशक हैं, उन उपदेशकों में से वैदिक ज्ञान परम्परा वालों को छोड़कर जितने उपदेशक हैं, वे समाज के अविद्या अन्धकार दूर करने की अपेक्षा बढ़ा रहे हैं। हजारों की संख्या में कथाकार कथाएँ कर रहे हैं, इन कथाकारों का सिद्धान्त निष्ठ न होने से समाज में अन्धविश्वास और पाखण्ड बढ़ रहा है। हाँ, जो वैदिक सिद्धान्त को ठीक से जानते हैं, वे समाज की अविद्या पाखण्ड को दूर कर पुण्य के भागी बन रहे हैं।

समाज में यदि उपदेशक ठीक है और उपदेश सुनने वाले ठीक हैं तो समाज की व्यवस्था भी ठीक होती है और यदि उपदेशक ठीक नहीं व उपदेश सुनने वाले ठीक नहीं तो सामाजिक व्यवस्था भी बिगड़ जाती है।

आजकल का उपदेशक वर्ग प्रायः स्वाध्याय कम करता है, कर रहा है। वह किसी अन्य उपदेशक द्वारा सुनी हुई बात को इधर से उधर करता है या वही अपनी पुरानी बातें दोहरा देता है, जिससे उसके उपदेशों में रोचकता का अभाव होता जाता है। हाँ, जो उपदेशक निरन्तर स्वाध्यायशील रहते हैं, उनके उपदेश भी नवीन व रोचक होते हैं।

जो उपदेशक विभिन्न प्रकार के व्याख्यान देने में निपुण होते हैं, वे अधिक लोकप्रिय होते हैं। विभिन्न विषयों पर उपदेशक व्याख्यान दे सके, उनकी सरलता के लिए आर्य जगत् के मूर्धन्य संन्यासी, शस्त्र व शास्त्र के ज्ञाता, विद्या के धनी स्वामी देवव्रत जी ने ‘‘व्याख्यान शतक’’ नामक पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में वेद, योग, धर्म, सिद्धान्त, आर्यसमाज, आर्यवीर, युवक, महापुरुष आदि विषयों पर एक सौ एक व्याख्यान लिपिबद्ध किये हैं। वेद विषय पर १५, योग विषय पर १५, धर्म विषय पर १२, सिद्धान्त विषय पर ११, आर्यसमाज विषय पर १७, आर्यवीर विषय पर ७, युवक विषय पर ११, महापुरुष विषय पर ५ और विविध विषयों पर ८ व्याख्यान लिखे हैं। प्रत्येक व्याख्यान प्रमाणों, युक्ति तर्कों से युक्त अपने आपमें पूर्णता लिए हुए हैं। व्याख्यानों में वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद्, गीता, महाभारत, बाल्मीकि रामायण, रामचरितमानस, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, कौटिल्य अर्थशास्त्र, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, योगदर्शन, सांख्य दर्शन, सत्यार्थ प्रकाश, नीतिशतक, योगवाशिष्ठ, विदुर नीति, हठयोग प्रदीपिका, धेरण्ड संहिता, गोरक्ष संहिता, चाणक्य नीति, नारद भक्ति सूत्र व हरिहर चतुंग आदि ग्रन्थों के प्रमाण दिये गये हैं। यदि उपदेशक वर्ग इस पुस्तक के व्याख्यानों को पढ़कर व्याख्यान देगा तो उसका व्याख्यान विद्वत्तापूर्ण तो होगा ही, साथ में लोगों का ज्ञानवर्धन करने वाला व रोचकता युक्त भी होगा।

पुस्तक में विद्वान् लेखक ने अपने मनोभाव प्रकट किये हैं-‘‘अज्ञान मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। ज्ञान के अभाव में मनुष्य कर्त्तव्याकर्त्तव्य का निर्णय नहीं कर पाता, जिसके कारण ‘‘अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः’’ जैसे एक अन्धे के पीछे जाने वाले दूसरे अन्धे व्यक्तियों की गड्ढ़े में गिरने की पूरी सम्भावना रहती है, वैसी ही अवस्था अविद्याग्रस्त लोगों की होती है। अविद्या की पृष्ठभूमि में ही अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश के बीज पनपते हैं। सीधे, भोले और अज्ञानी लोगों को कोई भी अपने वाग्जाल में फँसाकर दिग्भ्रमित बहुत सरलता से कर सकता है, इसलिए विद्याध्ययन की समाप्ति पर समावर्तन संस्कार के समय आचार्य स्नातकों को प्रेरणा देते हुए कहता था, ‘‘स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्’’ स्वाध्याय और प्रवचन में कभी प्रमाद नहीं करना। स्वाध्याय और प्रवचन सबसे बड़ा तप है, जो प्रतिदिन एक वेदमन्त्र या उसका आधा अथवा चतुर्थ भाग का स्वाध्याय करता है, मानो उसने नख से शिख तक तप कर लिया।’’

इस ‘‘व्याख्यान शतक’’ पुस्तक लिखने की प्रेरणा के विषय में लेखक लिखते हैं-‘‘व्याख्यान शतक’’ लिखने की प्रेरणा आर्यसमाज की दो विभूतियों से मिली। पं. लेखराम जी की अन्तिम इच्छा थी कि आर्यसमाज से तकरीर (व्याख्यान) और तहरीर (लेखन) कभी बंद नहीं होने चाहिए। एक दिन शास्त्रार्थ महारथी पं. गणपति शर्मा चूरु (राजस्थान) का लेख किसी आर्यसमाज के पुस्तकालय में देखने को मिला। आदरणीय पण्डित जी ने उस जैसे एक सौ लेखों की व्याख्यान शतक पुस्तक लिखने की इच्छा प्रकट की थी। इन दोनों दिग्गज पण्डितों ने पौराणिकों व अन्य मतानुयायियों के साथ शास्त्रार्थ कर आर्य समाज की विजय दुन्दुभी बजाई थी।……………मैं श्रद्धा से उनको नमन करता हूँ।

विशेष महापुरुषों से प्रेरित होकर लिखी गई यह पुस्तक आर्य जगत् के उपदेशक वर्ग व अन्यों के लिए महत्त्वपूर्ण है। गुरुकुलों के छात्र यदि इन व्याख्यानों को पढ़ समझकर व्याख्यान देने का अभ्यास करेंगे तो वे आगे चलकर उच्चकोटि के वक्ता बन जायेंगे।

दृढ़ जिल्द, सुन्दर आवरण, कागज व छपाई से युक्त यह पुस्तक स्वाध्याय प्रेमी व उपदेशक वर्ग को हर्ष देने वाली होगी। स्वाध्यायशील व वक्ता लोग इस पुस्तक को प्राप्त कर लेखक व प्रकाशक के श्रम को सफल करेंगे, इस आशा के साथ –आचार्य सोमदेव ऋषि उद्यान, अजमेर