(ख) प्राचीन काल में भी चारवाक के नाम से एक नास्तिक मत-(दर्शन) प्रचलित था, जो ईश्वर तथा पुनर्जन्म को नहीं मानते थे। ऋणं कृत्वा घृतम् पिवेत्, भस्मीभूतस्य देहस्य पुरागमनम् कुतः, ऐसा मानते थे।

(ख) प्राचीन काल में भी चारवाक के नाम से एक नास्तिक मत-(दर्शन) प्रचलित था, जो ईश्वर तथा पुनर्जन्म को नहीं मानते थे। ऋणं कृत्वा घृतम् पिवेत्, भस्मीभूतस्य देहस्य पुरागमनम् कुतः, ऐसा मानते थे।

समाधान- 

(ख) चारवाक का मत वाममार्ग नास्तिक मत रहा है, उनकी विचारधारा सर्वथा वेद विरुद्ध थी। जैसे-

अग्निरुष्णों जलं शीतं शीतस्पर्शस्तथाऽनिलः।

केनेदं चित्रितं तस्माद् स्वभावात्तद्व्यवस्थितः।।

न र्स्वगो नाऽपवर्गो वा नैवात्मापारलौकिकः।

नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः।।

यावज्जीवेत्सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिवेत्।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनररागमनं कुतः।।

– चारवाक दर्शन

अर्थात्- अग्नि उष्ण है, जल शीतल है, वायु शीत स्पर्शवाला है। इस वैविध्य को किसने चित्रित किया है। इसलिए स्वभाव से ही इनकी तत्तद् गुण युक्त स्थिति जाननी चाहिए, अर्थात् कोई जगत् का कर्त्ता नहीं है।

न कोई स्वर्ग है, न कोई नरक है और न कोई परलोक में जाने वाली आत्मा है और न वर्णाश्रम की क्रिया फलदायक है।

इसलिए जब तक जीवे, तब तक सुख से जीवे, जो घर में पदार्थ न हो, तो ऋण लेके आनन्द करे, ऋ ण देना नहीं पड़ेगा। क्योंकि जिस शरीर ने खाया-पीया है, उसका पुनरागमन न होगा। फिर किससे कौन माँगेगा और कौन देवेगा।

यह मत चारवाक का रहा है। इसमें से जो वेद विरुद्ध आचरण है, उसका तो परमेश्वर अवश्य ही दण्ड देगा। हाँ, जो कोई केवल ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता, इतने मात्र से ईश्वर उस पर रुष्ट नहीं होता। जब व्यक्ति ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता और प्रायः करके ईश्वर की न्याय व्यवस्था से परे होकर, विपरीत कार्यों में लग जाता है। जिसका परिणाम अधोपतन होता है।

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