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अग्निहोत्र यज्ञ- पंच महायज्ञ के विषय में महर्षि जी द्वारा ऋग्वेद भाष्य में विस्तार से बताया गया है इस विषय में कुछ विद्वानों का मत है कि इसमें घी सामग्री की आहुतियाँ देकर इन यज्ञों का जीवन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। कृपया समाधान करने की कृपा करें।

अग्निहोत्र यज्ञ- पंच महायज्ञ के विषय में महर्षि जी द्वारा ऋग्वेद भाष्य में विस्तार से बताया गया है इस विषय में कुछ विद्वानों का मत है कि इसमें घी सामग्री की  आहुतियाँ देकर इन यज्ञों का जीवन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। कृपया समाधान करने की कृपा करें।

समाधानः-

पाँच महायज्ञों का विधान वैदिक विधान है। वैदिक मान्यता प्राणीमात्र के सुखार्थ है। भला ऐसा कैसे हो सकता है कि वैदिक मान्यतानुसार किया गया यज्ञ जीवन पर कोई प्रभाव न डाले। ऐसा मानने वाले कि यज्ञ में दी गई आहुतियों का जीवन पर प्रभाव नहीं पड़ता वे नास्तिक ही कहलाएंगे। महर्षि दयानन्द के अनेकों प्रमाण इस विषय पर मिलते हैं, यज्ञ में दी गई आहुति कितनी सुखकारी है ये सब वर्णन महर्षि ने अनेकत्र किया है। इस विषय में महर्षि के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं-

  1. 1. जो मनुष्य से प्राणियों को सुख देते हैं, वे अत्यन्त सुख को प्राप्त होते हैं। – यजु. भा. 18.51
  2. 2. जो मनुष्य आग में सुगन्धि आदि पदार्थों को होमें, वे जल आदि पदार्थों की शुद्धि करने हारे हो पुण्यात्मा होते हैं और जल की शुद्धि से ही सब पदार्थों की शुद्धि होती है, यह जानना चाहिए। – य. 22.25
  3. 3. जो मनुष्य यथाविधि अग्निहोत्र आदि यज्ञों को करते हैं, वे पवन आदि पदार्थों के शोधने हारे होकर सबका हित करने वाले होते हैं। – य. 22.26
  4. 4. जो यज्ञ से शुद्ध किये हुए अन्न, जल और पवन आदि पदार्थ हैं वे सब की शुद्धि, बल, पराक्रम और दृढ़ दीर्घ आयु के लिए समर्थ होते हैं। इससे सब मनुष्यों को यज्ञ कर्म का अनुष्ठान नित्य करना चाहिए। – य. 1.20
  5. 5. मनुष्यों को चाहिए कि प्राण आदि की शुद्धि के लिए आग में पुष्टि करने वाले आदि पदार्थ का होम करें।
  6. 6. मनुष्य लोग अपनी विद्या और उत्तम क्रिया से जिस यज्ञ का सेवन करते हैं उससे पवित्रता का प्रकाश, पृथिवी का राज्य, वायुरूपीप्राण के तुल्य राजनीति, प्रताप, सब की रक्षा, इस लोक और परलोक में सुख की वृद्धि परस्पर कोमलता से वर्तना और कुटिलता का त्याग इत्यादि श्रेष्ठ गुण उत्पन्न होते हैं। इसलिए सब मनुष्यों को परोपकार और अपने सुख के लिए विद्या और पुरुषार्थ के साथ प्रीतिपूर्वक यज्ञ का अनुष्ठान नित्य करना चाहिए।

ऐसे-ऐसे सैकडों प्रमाण महर्षि के वेद भाष्य में हैं जो यह प्रतिपादित कर रहे हैं कि यज्ञ में दी गई आहुतियों का हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है। आज का आधुनिक विज्ञान भी इसकी विशेषता को स्वीकार करता है। आज यज्ञ से रोग दूर हो रहे हैं, जिस बात को महर्षि ने अपने सत्यार्थ प्रकाश में लगभग 141 वर्ष पूर्व कहा था।

‘‘आर्यवर शिरोमणि महाशय, ऋषि, महर्षि, राजे, महाराजे लोग बहुत-सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम करने का प्रचार रहा तब तक आर्यवर्त्त देश रोगों से रहित और सुखाों से पूरित था, अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाये।’’  – म.प्र. स. 3

यहाँ महर्षि ने यज्ञ से रोगों के  दूर होने की बात कही है, जिसको कि आज का विज्ञान भी स्वीकार करता है। आज अनेकों परीक्षण यज्ञ पर हुए हैं जिनका परिणाम सकारात्मक आया है।

राजस्थान सरकार की ओर से अजमेर में जवाहर लाल नेहरु मेडिकल कॉलेज में रोग के कीटाणुओं के ऊपर यज्ञ का क्या प्रभाव पड़ता है इसका परीक्षण हुआ जिसका प्रभाव अत्यन्त सकारात्मक आया। डॉ. विजयलता रस्तोगी जी के निर्देशन में यह शोध हुआ था। इस शोध की रिपोर्ट परोपकारी पत्रिका में भी छपी थी। इतना सब होते हुए कोई कैसे कह सकता है कि यज्ञ का हमारे जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह तो कोई निम्न सोच वाला ही कह सकता है।

मनुष्य जितने भी कर्म (मन, वचन, कर्म) करता है उन्हें बचपन से लेकर मृत्यु पर्यन्त अच्छी भावना से तथा बगैर राग द्वेष के करे वे सभी यज्ञ कहाते हैं। इस विषय में महर्षि दयानन्द जी द्वारा विस्तार से कब,कहाँ, कैसे बतलाया है?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा नमस्ते, मेरी निम्न जिज्ञासा है कृपया शान्त करने की कृपा करें।

यज्ञ के प्रकार –

मनुष्य जितने भी कर्म (मन, वचन, कर्म) करता है उन्हें बचपन से लेकर मृत्यु पर्यन्त अच्छी भावना से तथा बगैर राग द्वेष के करे वे सभी यज्ञ कहाते हैं। इस विषय में महर्षि दयानन्द जी द्वारा विस्तार से कब,कहाँ, कैसे बतलाया है?

समाधानः यज्ञ एक उत्तम कर्म है जो कि सकल जगत् के परोपकारार्थ किया जाता है। यज्ञ का अर्थ केवल अग्निहोत्र ही नहीं है। महर्षि दयानन्द जी ने यज्ञ के विषय में विस्तार से लिखा है। महर्षि लिखते हैं- ‘‘यज्ञ उसक ो कहते हैं कि जिसमें विद्वानों का सत्कार यथायोग्य शिल्प अर्थात् रसायन जो कि पदार्थ विद्या उससे उपयोग और विद्यादि शुभगुणों का दान अग्निहोत्रादि जिसने वायु, वृष्टि, जल, औषधी की पवित्रता करके सब जीवों को सुख पहुँचाना है, उसको उत्तम समझता हूँ।’’ (स.प्र. स्वमन्त. प्र. 23)

  1. 2. ‘‘यज्ञ अर्थात् उत्तम क्रियाओं का करना।’’

– ऋ. भा. भू.

इन दोनों स्थानों पर महर्षि ने इस यज्ञ का वर्णन सब जीवों को सुख पहुँचाने रूप में और जो उत्तम क्रियाएँ हैं वे सब यज्ञ हैं इस रूप में किया है। ये क्रियाएँ अच्छी भावना से की जाती है। कुछ अच्छी क्रियाएँ अन्य भावना से अर्थात् लोक में प्रसिद्धि की भावना से अथवा किसी ने कुछ बड़ा अच्छा कार्य किया कोई व्यक्ति उसे बड़े कार्य करने वाले को हीन दिखाने के लिए उससे बड़ा अच्छा कार्य कर सकता है। कहने का तात्पर्य है कि सदा अच्छी भावना से ही तथा बिना राग द्वेष के ही सब अच्छे कार्य होते हों ऐसा नहीं है फिराी ऐसा न होते हुए भी वे अच्छे कार्य यज्ञ कहला सकते हैं।

दूसरी ओर अच्छी भावना होते हुए भी दोष युक्त कार्य हो जाते हैं, ऐसे कार्य यज्ञ नहीं हो सकते। इसलिए जो भी प्राणी मात्र के परोपकारार्थ किया कार्य है यज्ञ ही कहलायेगा। और भी महर्षि दयानन्द इस यज्ञ को विस्तार पूर्वक समझाते हुए लिखते हैं। ‘‘……अर्थात् एक तो अग्निहोत्र से लेके अश्वमेधपर्यन्त,दूसरा प्रकृति से लेके पृथिवी पर्य्यन्त जगत् का रचनरूप तथा शिल्पविद्या और तीसरा सत्सङ्ग आदि से जो विज्ञान और योग रूप यज्ञ हैं।’’ ऋ. भा. भू.। इस पूरे संसार में परमेश्वर द्वारा यज्ञ हो रहाहै परमेश्वर की व्यवस्था से सूर्य इस संसार का सदा शोधन कर रहा हे, चन्द्रमा औषधियों में रस को पैदा कर यज्ञ कर रहा है, ये सब संसार की व्यवस्था यज्ञ ही है। वैज्ञानिकों द्वारा शिल्प विद्या से नई-नई खोज कर हम मनुष्यों के सुखार्थ दी जा रही हैं यह महर्षि को दृष्टि से यज्ञ ही तो हैं। सत्संग से ज्ञान विज्ञान को बढ़ाना यज्ञ ही है, योग्यास से आत्मोत्थान करना यज्ञ ही है। ये कहना अयुक्त  न होगा कि सब श्रेष्ठ कार्य यज्ञ ही कहलाएंगे।

मृत्यु के बाद क्या? एक ऐसा प्रश्न है जो अधिकतर मनुष्यों के समक्ष कभी-न-कभी अवश्य ही जिज्ञासु भावना जगाता है, आप विद्वानों के व्याखयानों को सुनकर हमारी श्रद्धा निमन तीन स्थितियों पर टिकी है। प्रथम सामान्य जीव सूण्डी नामक कीड़े की भाँति नया जीवन प्राप्त करते हुए ही वर्त्तमान शरीर छोड़ता है। दूसरी स्थिति उस अत्यन्त विशिष्ट जीव की है, जिसको शरीर छोड़ते हुए योग्य माता-पिता (गर्भ) की अनुपलबधता में कुछ काल प्रतीक्षा करनी होती है और तीसरी स्थिति दग्ध संस्कार योगी की शरीर छोड़ते ही मोक्षावस्था की प्राप्ति है। अब प्रथम तो हमारी इस मान्यता में जो भी दोष है, उसे प्रगट करें। हमें बतायें। दूसरे ईश्वरीय वाणी वेद हमारे लिए सर्वोपरि है। अतः यजुर्वेद अध्याय-39 का मंत्र-6 शरीर छोड़ने वाले जीव के 12 दिन का कार्यक्रम वास्तव में क्या है? समझाने की कृपा करें। मंत्र के पदार्थ के अनुसार जीव प्रथम दिन सूर्य, दूसरे दिन अग्नि को प्राप्त होता है। क्या सूर्य में अग्नि नहीं है? इसी प्रकार मंत्र का पदार्थ रहस्यमय दिखाई पड़ता है, जो स्पष्ट ही हमारी अज्ञानता के कारण है। पौराणिक बन्धु इस मंत्र को आधार मानकर देहान्त के 13 दिन बाद अपनी रस्म अदायगी करते हैं। तमसो मा ज्योतिर्गमय।

मृत्यु के बाद क्या? एक ऐसा प्रश्न है जो अधिकतर मनुष्यों के समक्ष कभी-न-कभी अवश्य ही जिज्ञासु भावना जगाता है, आप विद्वानों के व्याखयानों को सुनकर हमारी श्रद्धा निमन तीन स्थितियों पर टिकी है। प्रथम सामान्य जीव सूण्डी नामक कीड़े की भाँति नया जीवन प्राप्त करते हुए ही वर्त्तमान शरीर छोड़ता है। दूसरी स्थिति उस अत्यन्त विशिष्ट जीव की है, जिसको शरीर छोड़ते हुए योग्य माता-पिता (गर्भ) की अनुपलबधता में कुछ काल प्रतीक्षा करनी होती है और तीसरी स्थिति दग्ध संस्कार योगी की शरीर छोड़ते ही मोक्षावस्था की प्राप्ति है। अब प्रथम तो हमारी इस मान्यता में जो भी दोष है, उसे प्रगट करें। हमें बतायें। दूसरे ईश्वरीय वाणी वेद हमारे लिए सर्वोपरि है। अतः यजुर्वेद अध्याय-39 का मंत्र-6 शरीर छोड़ने वाले जीव के 12 दिन का कार्यक्रम वास्तव में क्या है? समझाने की कृपा करें। मंत्र के पदार्थ के अनुसार जीव प्रथम दिन सूर्य, दूसरे दिन अग्नि को प्राप्त होता है। क्या सूर्य में अग्नि नहीं है? इसी प्रकार मंत्र का पदार्थ रहस्यमय दिखाई पड़ता है, जो स्पष्ट ही हमारी अज्ञानता के कारण है। पौराणिक बन्धु इस मंत्र को आधार मानकर देहान्त के 13 दिन बाद अपनी रस्म अदायगी करते हैं। तमसो मा ज्योतिर्गमय।

– श्याम सिंह सहयोगी, उमाही कलां, सहारनपुर- 247451 उ.प्र.।

समाधान- 

मृत्यु के बाद आत्मा की क्या गति होती है, हम मनुष्यों के लिए यह रहस्य तो है ही, शरीर के मरने के बाद परमेश्वर उस आत्मा को उसके कर्मानुसार कब, कितने समय में अगला शरीर देता है, यह पूर्ण रूप से तो ईश्वर ही जानता है। इस विषय में कठोपनिषद् के नायक नचिकेता ने भी आचार्य यम से पूछा था, तब आचार्य यम ने कहा था-

देवैश्त्रापि विचिकित्सितं पुरा, न हि विज्ञेयमणुरेष धर्मः।

– कठो. 1.21

पहले इस मृत्यु विषय पर विद्वानों ने भी संदेह किया था, निश्चय ही यह विषय अति सूक्ष्म गहन होने से सुगमता से जानने योग्य नहीं है। यहाँ आचार्य यम ने इस विषय को अति सूक्ष्म कहा है। तथापि इस मृत्यु के रहस्य को ऋषियों, विद्वानों ने खोलने का प्रयत्न किया है, वेद ने भी इस रहस्य का उद्घाटन किया है। इन ऋषियों व वेद की बातों को जो उनके मन्तव्य अनुसार समझ लेता है, वह अधिक-अधिक भ्रम जाल में फँ सता जाता है।

मृत्यु के बाद अगला जन्म लेने में कितना समय लगता है, इसको भी पूर्ण रूप से जानने वाला तो परमेश्वर ही है, फिर जो कुछ ऋषियों-विद्वानों से ज्ञात हो रहा है, उसक ो यहाँ लिखते हैं। यह तो शास्त्र समत है ही, जिस योगी पुरुष ने अपने अविद्या के संस्कार दग्ध कर दिये हैं उसको जन्म न मिलकर मुक्ति मिलेगी, मरने के बाद योगी की आत्मा तत्काल मोक्ष में चल जायेगा। जो ऐसे योगियों से इतर हैं, उनका जन्म कितने काल में होता है, प्रश्न तो यह बना हुआ है। इसमें हमें प्रायः जो उत्तर मिलता है, वह उपनिषद् का प्रमाणयुक्त उत्तर ‘जलायुका’ के दृष्टांत से दिया जाता है कि जैसे ‘जलायुका’ अगले भाग को उठा एक स्थान पर रख, पिछला भाग उठा लेता है, इतने समय अगले शरीर प्राप्त होने में लगता है। इस उपनिषद् की बात का विरोध वेद मन्त्र से आ रहा है, लगता है। वेद और ऋषि वचनों में प्रायः विरोध होता नहीं।

उपनिषद् वाली बात को जिस रूप में रखा जाता है, जिसको मैं भी रखता हूँ, रखता रहता हूँ, यह बात विचारणिय तब लगी जब श्रद्धेय आचार्य सत्यजित् जी का समाधान पढ़ा, यह समाधान अधिक संगत लगता है। उस समाधान को यहाँ आचार्य श्री की पुस्तक ‘‘जिज्ञासा समाधान’’ में से लेकर लिखते हैं- ‘‘वृहदारण्यक उपनिषद के जिस अंश का प्रश्न में उल्लेख किया गया है, वह 4.4.3 पर है। तृण जलायुका एक प्रकार कीड़ा होता है, जो बिना पैर वाला होता है। वह एक तिनके (डाली आदि) से दूसरे तिनके (डाली आदि) पर जाते समय अपने अग्र (मुख) भाग को उठाकर, इधर-उधर घुमा कर, उपयुक्त स्थान प्राप्त होने पर अग्रभाग को दूसरे तिनके पर टिका देता है व उसी के आधार से अपने पिछले भाग को, पिछले तिनके से उठा कर दूसरे तिनके पर ले आता है। इस प्रकार वह दो तिनकों के बीच के भाग को पार करता है।’’

इस तृण जलायुका की तरह आत्मा को भी बताया गया। पहले तिनके की तरह पिछले जन्म (शरीर) को व दूसरे तिनके की तरह अगले जन्म (शरीर) को बताया गया है। दृष्टान्त का तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि आत्मा भी जब तक दूसरे जन्म (शरीर) का आधार नहीं बना लेता, तब तक पिछला जन्म (शरीर) नहीं छोड़ता। किन्तु यह बात पूरी तरह घट नहीं सकती। अतः तात्पर्य यह लिया जाता है कि आत्मा पूर्व शरीर को छोड़कर तत्काल दूसरा शरीर धारण कर लेता है।

प्रश्नकर्त्ता के मन में यही निष्कर्ष है। इस निष्कर्ष का यजु. 39.6 महर्षि दयानन्द के भाष्य से विरोध दिख रहा है, क्योंकि वहाँ जीव को कुछ काल भ्रमण करके जन्म लेने की बात कही गई है।

प्रश्नकर्त्ता ने लिखा है ‘‘वैदिक मान्यता के अनुसार मृत्यु के उपरान्त तुरन्त पुनर्जन्म हो जाता है।’’ उनका ‘वैदिक मान्यता’ का तात्पर्य आर्यसमाज में सुनी जाने वाली मान्यता लेना चाहिए, जिसे वे वैदिक मान्यता कह रहे हैं। जब स्पष्ट ही वेद मंत्र व उसपर महर्षि के भाष्य से जीव का कुछ काला्रमण ज्ञात हो रहा है, तो यही वैदिक मान्यता कहलायेगी, न कि ‘तृणजलायुका’ दृष्टान्त से लिया गया तात्पर्य। साक्षात् ‘वेद’ से जानी गई बात उपनिषद् ‘ब्राह्मण’ से जानी गई बात से निश्चय ही बलवान् होती है। यही ‘वैदिक मान्यता’ कही जा सकती है।

अब ‘तृणजलायुका’ वाले दृष्टान्त को समझना आवश्यक है, जिससे कि स्पष्ट हो सके कि वेद व उपनिषद् (ब्राह्मण) में विरोध है या नहीं। दृष्टांत का एक अंश ही दार्ष्टान्त में घटता है, पूरा नहीं। जो अंश संगत होता है, वहीं लागू किया जाता है, असंगत अंश नहीं।

दृष्टांत का ‘स्वकर्तृत्व=कीड़े का स्वयं दूसरे तिनके पर जाना’ अंश आत्मा पर लागू नहीं होता, क्योंकि एक शरीर से दूसरे शरीर में जाना पूर्णतया ईश्वर पर आधारित है, आत्मा की यह सामर्थ्य नहीं कि वह स्वयं के यत्न से दूसरे शरीर में जा सके।

दृष्टांत का यह अंश भी आत्मा पर लागू नहीं होता ‘दोनों तिनकों पर एक ही काल में कीड़े का स्पर्श’ ‘तृणजलायुका’ जब एक तिनके से दूसरे तिनके पर जाती है, तब एक क्षण ऐसा भी आता है, जब उसका अगला भाग दूसरे तिनके पर व पिछला भाग पहले तिनके पर टिका रहता है। आत्मा चूंकि अणु स्वरूप एकादेशी है, अतः एक ही काल में उसका एक छोर पिछले शरीर में व दूसरा छोर अगले शरीर में नहीं रह सकता। कोई कहे कि आत्मा खींच कर लबी हो जाती हो, तो ऐसा भी असंभव है, क्योंकि आत्मा अपरिणामी है, उसमें ऐसा बदलाव नहीं हो सकता, जैसा रबर, इलास्टिक आदि में होता है।

दृष्टांत का तात्पर्यांश ‘जीव तत्काल दूसरा शरीर धारण करता है’ भी मान्य नहीं हो सकता क्योंकि यह वेद के विपरीत होगा।

अब जिज्ञासा होगी कि फिर उपनिषद् में इस दृष्टान्त को क्यों दिया है? इस दृष्टान्त की दार्ष्टान्त (जीव का एक शरीर छोड़, दूसरा शरीर धारण करना) से क्या समानता है? यहाँ तृणजलायुका के व्यवहार में एक विशेषता है-वह पिछले तिनके आधार पर अगले तिनकों को प्राप्त करती है, अर्थात् दूसरे तिनके को प्राप्त करने का आधार पिछला तिनका होता है। इसी तरह जीव के साथ भी समझना लागू करना चाहिए। जीव के अगले जन्म का आधार उसका पिछला जन्म (मनुष्य शरीर) होता है, क्योंकि वहीं उसने जा कर्म किये थे, उन्हीं कर्मों के आधार पर अगला जन्म मिलता है। पुनः जिज्ञासा होगी- जीव मनुष्येतर शरीरों से भी तो अन्य शरीरों में जाता है। तो इसका समाधान है कि वहाँ भी पिछले मनुष्येतर शरीर को भोगने के बाद जो कर्म बचे, उनमें से कुछ आधार पर ही अगला जन्म मिलेगा। अतः मनुष्येतर शरीर (उसमें बचे बिना भोगे कर्म) भी अगले जन्म का आधार बन सकता है।

तृणयलायुका के दृष्टांत में यह भी विशेषता है कि वह अगले तिनके (आधार) पर पहुँचकर पिछले भाग के समेट लेता है, उसका पूरा पिछला भाग अगले तिनके पर आ जाता है। इसी प्रकार जब जीव अगले शरीर में जाता है, तो उसके पिछले शरीर (जन्म) के ज्ञान, कर्म और वासना भी साथ में आते हैं। पिछले जन्म में जैसे शरीर छूट जाता है, वैसे ये ज्ञान कर्म व वासना नहीं छूटते। इसकी पुष्टि इस बृहद्धा. 4.4.3 से पूर्व 4.4.2 के अन्त से होती है। वहाँ लिखा है-

‘‘तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च।’’

तृण जलायुका दृष्टांत वाले बृहदारण्यक के वाक्य 4.4.3 में लिखा है-

‘‘तद्यथा तृणयलायुका………आत्मानमुपसंहरति

एवमेवात्मा………..आत्मानमुपसंहरति।’’

जैसे तृणजलायुका अपने को समेट लेती है (अगले तिनके पर) वैसे आत्मा (जीवात्मा) भी अपने को अगले शरीर में समेट लेता है। यहाँ वस्तुतः ‘अपने को समेट लेने’ की समानता दिखाई गई है, न कि कोई अन्य समानता। आत्मा के साथ सूक्ष्म शरीर रहता है। वह ज्ञान, वासना, कर्माशय आदि का आधार होता है। आत्मा इन सबके साथ ही अगले शरीर में पहुँचता है। अतः आत्मा का अपने को समेट लेना, माना जा सकता है।

एक और दृष्टि से इसे देख सकते हैं। जीव की जैसी प्रवृत्ति, कर्म, संस्कार इच्छा होती है, उसी के अनुसार उसे अगला शरीर मिलता है। जो कामनाएँ शेष हैं, उनका उठना कीड़े के मुख उठने जैसा समझा जा सकता है। मुख उठाकर जहाँ जायेगा, वहीं पिछला भाग भी उठकर चला जायेगा। जैसी कामना-वासना-इच्छा जीव की होगी, उसी के अनुसार उसके कुछ कर्मों से उसे नया जन्म (शरीर) मिल जायेगा। पिछले जन्म के आधार पर नया जन्म मिलना वैसे ही है जैसे कीड़ा पिछले तिनके के आधार पर अगले तिनके को प्राप्त करता है।

सारांश यह है कि जीव अपनी वासनाओं का जैसा विस्तार करता है, उसके अनुसार ईश्वर उसे अगला जन्म दे देता है। कर्माशय भी इसका आधार बनता है। बिना कर्म के या कर्म के विपरीत जन्म नहीं होता। अतः तृण जलायुका वाले कथन का यह तात्पर्य नहीं कि ‘‘जीव का अगला जन्म तत्काल होता है। वेद के आधार पर हमें जानना चाहिए कि जीव कुछ दिन भ्रमण करके पूर्वकृत् कर्मानुसार अगला शरीर (जन्म) धारण करता है।’’ साभार जिज्ञासा समाधान-आचार्य सत्यजित्।

इस पूरे समाधान में आचार्य श्री ने बड़े स्पष्ट रूप से विस्तारपूर्वक उपनिषद् के वास्तविक रहस्य व वेद की मान्यता को रखा है। वेदानुसार जीव कुछ काल-दिन भ्रमण कर अगला जन्म प्राप्त करता है। यह कदापि सिद्ध नहीं है कि वह जीव कुछ दिन तक भटकता रहता है, वह तो परमेश्वर की व्यवस्था व आधार से भ्रमण करता है। इन दिनों के परिभ्रमण को देख, पौराण्कि लोग जो तेरह दिनों तक उस जीव की शान्ति के लिए अनुष्ठान करते हैं, यह सब उनकी अज्ञानता व स्वार्थ सिद्धि करना है। इसलिए इस प्रकार के अनुष्ठान में अपना सामर्थ्य नष्ट न करना चाहिए। परमेश्वर की व्यवस्था में जो आत्मा है, उसके लिए हम कुछ कर भी नहीं सकते। अस्तु।

ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

 

क्या किसी माता के गर्भस्थ शिशु के शारीरिक अंग में उत्पन्न दोष जैसे- दिल में छेद हो जाना, अन्धता आदि माता-पिता के शारीरिक दोष का परिणाम है अथवा माता, चिकित्सक आदि किसी की त्रुटि का परिणाम है अथवा दोनों है अथवा शिशु के पूर्व जन्म मे किये गये किसी पाप का फल है?

क्या किसी माता के गर्भस्थ शिशु के  शारीरिक अंग में उत्पन्न दोष जैसे- दिल में छेद हो जाना, अन्धता आदि माता-पिता के शारीरिक दोष का परिणाम है अथवा माता, चिकित्सक आदि किसी की त्रुटि का परिणाम है अथवा दोनों है अथवा शिशु के पूर्व जन्म मे किये गये किसी पाप का फल है?

समाधान-

 इस दूसरे प्रश्न का उत्तर भी उसी प्रकार लिखते हैं, गर्भस्थ शिशु के शारीरिक अंग उत्पन्न दोष का कारण तीनों हो सकते हैं- माता-पिता, चिकित्सक वा बच्चे का कर्म। इन तीनों में उत्पन्न हुए दोष का मुखय कारण उस बच्चे के कर्म हैं। अपने कर्मों के कारण वह जीवात्मा ऐसे दोषयुक्त शरीर को प्राप्त होता है। जन्मान्धता, जन्म से मूक, किसी अन्य अंग में विकार, ये सब कर्मों का ही फल है। हाँ, विशेष पुरुषार्थ से इनको कुछ ठीक अवश्य किया जा सकता है। कोई है ही नहीं अथवा ठीक होने की सभावना नहीं, उसको छोड़कर।

बच्चे में कुछ विकार माता के कारण भी हो सकते हैं। गर्भ में शिशु होते हुए यदि माता का उठना, बैठना आदि ठीक न हो अथवा खान-पान ठीक न हो, तो बच्चे में विकार आ सकते हैं। इसी प्रकार यदि चिकित्सक औषध विपरीत दे देता है, तो उससे भी विकार की समभावना है, इससे हुई हानि की क्षतिपूर्ति परमात्मा करता है। फिर भी इस प्रकार के दोष होने का मुखय कारण तो उस आत्मा के कर्म ही रहेंगे, उसके कर्मों के कारण इस प्रकार के माता-पिता मिले, जो सावधानी नहीं रख रहे, ऐसा परिवेश मिलना कर्मों पर ही आधारित है।

 

किसी व्यक्ति का दुर्घटना में अपंग हो जाना मात्र संयोग है अथवा किसी की गलती का परिणाम है अथवा व्यक्ति के पूर्व जन्म के किसी पाप का फल है?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा – आचार्य जी सादर नमस्ते।

विनम्र निवेदन यह है कि जिज्ञासा स्वरूप निम्न सैद्धान्तिक प्रश्न हैं। कृपया लेख पर दृष्टिपात करके निम्न प्रश्नों का समाधान दें। मैं आपका आभारी हूँगा।

किसी व्यक्ति का दुर्घटना में अपंग हो जाना मात्र संयोग है अथवा किसी की गलती का परिणाम है अथवा व्यक्ति के पूर्व जन्म के किसी पाप का फल है?

समाधान-(क)वैदिक सिद्धान्त के स्पष्ट समझने से ही मनुष्य के ज्ञान की वृद्धि हो सकती है, इससे भिन्न से नहीं। ठीक-ठीक वैदिक सिद्धान्त समझ लेने पर व्यक्ति का जीवन व्यवहार उत्तम होता चला जाता है, जिससे व्यक्ति सन्तोष व शान्ति की अनुभूति करता है। विशुद्ध वैदिक सिद्धान्त हमारे सामने महर्षि दयानन्द ने रखे हैं, जिनका निर्वहन आर्य समाज करता आया है। उन कठिनता वाले सिद्धान्तों में कर्मफल सिद्धान्त हैं। कर्मफल के विषय में महर्षि मनु ने अपनी मनुस्मृति में, महर्षि पतञ्जलि ने योगदर्शन में, महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में व अन्य ऋषियों ने अपने शास्त्रों में वर्णन किया है। यह सब वर्णन मिलते हुए भी हम मनुष्य कर्म की गति को सपूर्ण रूप से नहीं जान सकते, इसको तो परमेश्वर ही पूर्णरूप से जानने वाला है।

किसी दुर्घटना आदि से व्यक्ति अपंग हो जाता है, उसमें तीनों ही बातें हैं- संयोग, गलती वा कर्म का फल। इन तीनों में से मुखय कारण अपनी वा अन्य की गलती ही है। जितनी दुर्घटनाएँ होती हैं, उनमें प्रायः किसी-न-किसी की गलती अवश्य होती है। जो वाहन स्वयं चला रहा है, उसकी अथवा सामने वाले की। इनकी गलती के कारण जिस किसी का अंग भंग हो जाता है, उनमें से कुछ स्वस्थ हो जाते हैं, कुछ जीवन पर्यन्त उस अंग के अभाव में जीवन यापन करते हैं। इस गलती के परिणामस्वरूप जो अंग भंग होने से दुःख मिला, वह उसके कर्मों का फल नहीं है। यहाँ विचारणीय यह है कि कर्म न होते हुए भी दुःख रूप फल भोग रहा है क्यों? तो इसका उत्तर है- कर्म फल तो कर्म के करने वाले को ही मिलता है और जो दूसरे के अन्याय वा गलती से दुःख मिलता है, वह कर्म का परिणाम है, कर्म न होते हुए भी इस परिणाम रूप दुःख मिले हुए की क्षतिपूर्ति न्यायकारी परमेश्वर करता है,              अर्थात् जिसको दुःख मिला है, परमेश्वर उसको आगे मिलने वाले दुःख के कटौती कर देगा वा उसको उसके बदले सुख विशेष दे देगा।

हाँ, कई बार किसी की गलती न होते हुए भी संयोग से दुर्घटना हो जाती है, परिस्थिति ऐसी बन जाती है कि हम बच नहीं पाते, ऐसे में जो अपंगता का दुःख मिला, उसकी भी क्षतिपूर्ति परमेश्वर करेगा। दुर्घटना आदि में जो अपंगता आती है, वह कर्मों का फल हो, इसकी बहुत कम समभावना है और यदि हैाी तो इसको परमेश्वर ही जानता है, हम जैसों की अल्प बुद्धि यहाँ काम नहीं कर रही।

आजकल आर्य समाज में कई नए-नए संगठन बन गए हैं, जो अपनी नई-नई परमपराएँ चला रहे हैं और नए-नए सिद्धान्त भी बता रहे हैं। इसी प्रकार एक यज्ञ के बारे में सुना, जिसका नाम स्वराज यज्ञ रख रखा है। मेरी जिज्ञासा यह है कि क्या वेद, शास्त्रों और स्वामी दयानन्द के अनुसार इस प्रकार के स्वराज यज्ञ करने का कोई विधान है? अगर है तो इसे कौन कर सकता है, इसके करने की विधि क्या होगी? कितने समय के अंतराल पर इसे करना चाहिए? क्या इतिहास में भी कहीं इस प्रकार के यज्ञ का वर्णन आता है? इस प्रकार के यज्ञ करने से स्वराज-प्राप्ति हो जाती है? और इस यज्ञ का लाभ क्या होगा?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासाआचार्य सोमदेव जी, सादर नमस्ते! आजकल आर्य समाज में कई नए-नए संगठन बन गए हैं, जो अपनी नई-नई परमपराएँ चला रहे हैं और नए-नए सिद्धान्त भी बता रहे हैं। इसी प्रकार एक यज्ञ के बारे में सुना, जिसका नाम स्वराज यज्ञ रख रखा है। मेरी जिज्ञासा यह है कि क्या वेद, शास्त्रों और स्वामी दयानन्द के अनुसार इस प्रकार के स्वराज यज्ञ करने का कोई विधान है? अगर है तो इसे कौन कर सकता है, इसके करने की विधि क्या होगी? कितने समय के अंतराल पर इसे करना चाहिए? क्या इतिहास में भी कहीं इस प्रकार के यज्ञ का वर्णन आता है? इस प्रकार के यज्ञ करने से स्वराज-प्राप्ति हो जाती है? और इस यज्ञ का लाभ क्या होगा? कृपा करके विस्तार से बताएँ।

– यतीन्द्र आर्य, मंत्री आर्यसमाज, बालसमंद, जिला हिसार, हरियाणा।

समाधान– महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना की, जिसका उद्देश्य व्यक्तिगत व समाज की उन्नति करना रखा था। महर्षि की इच्छा थी कि ग्राम-ग्राम, नगर-नगर, देश-देशान्तर में आर्य समाज हों और वे समाज की उन्नति का कार्य करें। आर्य समाज व अन्य मत वालों में मौलिक अन्तर यह है कि उन्हें ईश्वर गौण दिखता है, व्यक्ति मुय, कि न्तु आर्य समाज में ऐसा नहीं है। आर्य समाज की मान्यता वेद पर टिकी है। यहाँ व्यक्ति पूजा गौण व ईश्वर पूजा मुय है, यहाँ व्यक्ति की विचारधारा गौण और वेद की विचारधारा मुखय है। इसी को आधार बनाकर महर्षि दयानन्द ने अपने विषय में कहा था कि यदि मेरी बाताी वेद के विपरीत हो तो उसको कदापि मत मानना, उसको वेद के अनुकूल ठीक कर लेना। यह कथन महर्षि की वेदनिष्ठा व ईश्वर के प्रति समर्पण और अत्यन्त सरलता का द्योतक है।

महर्षि के इस कथन से अनेक लोगों ने अनुचित लाभ उठाया अथवा यूँ कहें कि अपनी मनमर्जी का काम करना आरमभ किया। ऋषि की भावना थी कि आर्य समाज रूपी संगठन सुदृढ़ हो कर कार्य करे, सभी आर्य एक होकर कार्य करें, किन्तु दुर्भाग्य है कि आर्य समाज में भी अपनी मनमर्जी के संगठन बने, अपने स्वतन्त्र संगठन बने, जिन संगठनों ने इस आर्य समाज रूपी विशाल संगठन को हानि ही पहुँचाई है, जो संगठन एक होकर बड़ा कार्य कर सकता है, वह टुकड़ों में बँटकर कैसे बड़े कार्य को कर सकता है?

आपने जो कहा कि नये-नये संगठन बन गए हैं, अपनी-अपनी मान्यताएँ व सिद्धान्त गढ़ लिए सो वर्तमान में दिख ही रहा है। कई लोग स्वघोषित स्वंभू विद्वान् बनकर महर्षि व आर्य समाज के नाम पर अपना संगठन बनाकर अपनी महत्त्वाकांक्षा को पूरा करने का प्रयोजन सिद्ध करने में लगे हैं। अपना नया ही सिद्धांत लाकर आर्यों पर थोपते हैं और उनको भ्रमित करते हैं। एक नई बात फैलाई जा रही है कि जीवात्मा साकार है। इस बात को कहकर यह पता नहीं चल रहा कि ये स्वयाूं अपनी कौन-सी विद्वत्ता सिद्ध करना चाहते हैं? अस्तु, इसके लिए यहाँ तो नहीं, किन्तु फिर कभी लेख लिखेंगे, जिसमें महर्षि के द्वारा दिये गए प्रमाणों से सिद्ध होगा कि जीवात्मा साकार नहीं, अपितु महर्षि की मान्यतानुसार निराकार है। हाँ, हो सकता है, इन नये अवतारों का आत्मा साकार हो….।

आपकी जिज्ञासा है कि इन परमपरा वादियों ने स्वराज यज्ञ नामक यज्ञ की खोज कर ली, इनक ो कहाँ से ये उपलधि हुई है? महर्षि दयानन्द व अन्य ऋषि वा इस विषय के आधिकारिक विद्वान् श्रद्धेय मान्यवर युधिष्ठिर मीमांसक जी आदि को तो स्वराज यज्ञ का पता नहीं लगा। हो सकता है, इन तत्त्ववेत्ताओं को पता लगा गया हो।

महर्षि दयानन्द ने अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध यज्ञों को स्वीकार किया है। इन यज्ञों के अन्दर राजसूय यज्ञ व वाजपेय यज्ञ का वर्णन मिलता है। ये यज्ञ स्वराज की कामना से किये जाते हैं। स्वराज का तात्पर्य वहाँ

‘‘स्वयं राजत इतिह स्वराट्। स्वोपपदाद् राजतेः क्वपि स्वराट्। स्वराजो भवः स्वराज्यम्’’

अर्थात् स्वयं प्रकाशित होने वाला ‘स्वराट्’ उसका भाव स्वराज्य। शास्त्र में कथन आता है

‘‘राजाराजसूयेन स्वराज्यकामो यजेत’’

स्वयं प्रकाशित होने की कामना वाला राजा राजसूय के द्वारा यजन करे। इस वाक्य में राजसूय यज्ञ का कथन है, न कि स्वराज्य यज्ञ का। जो व्यक्ति प्रकरण व शास्त्र के अभिप्राय को नहीं जानता, वह एक शबद देखकर अपनी बुद्धि से कल्पना कर लेता है। वेद मन्त्र में जहाँ कहीं स्वराज्य शबद आया अथवा कहीं और यह शबद आया, उसको देख अपनी कल्पना की पुष्टि व्यक्ति करता रहता है।

जो स्वराज्य अर्थात् अपने-आपको अर्थात् राजा अपने को सम्राट रूप में प्रकाशित करने के लिए राजसूय यज्ञ करता है। स्वराज का जैसा अर्थ आजकल करते हैं कि ‘‘अपना राज्य’’ वह नहीं है, अपितु जो ऊपर दिया है, वह है। इस राजसूय यज्ञ को कोई भी करने लग जाये, ऐसा कदापि नहीं है। इस यज्ञ को राजा ही कर सकता है, राजा के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं कर सकता। राजा भी वह जो कम से कम तीन पीढ़ियों से परमपरा से राजा हो, तभी वह इस यज्ञ का अधिकारी हो सकता है।

इस यज्ञ को करने की विधि विस्तृत है, इसक ो कराने वाले सोलह ऋत्विज् होते हैं, सत्रहवाँ यज्ञमान् होता है। इस स्वराज्य की कामना वाले राजसूय यज्ञ में विशेष यज्ञशाला का निर्माण किया जाता है, अग्नि को अरणी से उत्पन्न करते हैं। तीनों अग्नियों के स्थान का आकार अलग-अलग होता है। इस राजसूय यज्ञ में अनेक प्रकार की स्वतन्त्र इष्टियाँ होती हैं। इस यज्ञ के पात्र विशेष होते हैं, कुछ पात्रों के चित्र महर्षि दयानन्द ने संस्कार विधि के सामान्य प्रकरण में दिये हैं। इस यज्ञ की विधि को विस्तार से जानने के लिए महा महोपाध्याय पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी द्वारा लिखित ‘‘श्रौतयज्ञों का संक्षिप्त परिचय’’ पुस्तक पढ़ें।

इस यज्ञ का वर्णन महाभारत में मिलता है। महाराज युधिष्ठिर जब इन्द्रप्रस्थ के राजा बने, तब स्वराज्य अर्थात् अपने-आपको प्रकाशित करने के लिए तथा दृढ़ता पूर्वक चक्रवर्ती राजा बनने के लिए उन्होंने इस यज्ञ को किया था। यह यज्ञ राजा अपने जीवन काल में एक बार ही करता है और उसके जीवित रहते उसके कुल का कोई अन्य इस यज्ञ को नहीं कर सकता।

इस प्रकार के यज्ञ को करने के  लिए अनेक उपकरणों की आवश्यकता होती है। उन उपकरणों के केवल नाम यहाँ लिख रहे हैं 1. जुहू-यह पलास वृक्ष की होती है। अग्रभाग हथेली के बराबर चौड़ा, छः अंगुल खोदा हुआ, हंसमुख सदृश नाली से युक्त और पीछे का भाग दण्डाकार होता है। इसकी पूरी लबाई बाहुमात्र होती है। दण्डे के अन्तिम छोर से कुछ पूर्व नीचे की ओर सहारे के लिए टेक होती है, जिससे जुहू सीधी रखी जा सके और उसमें डाला हुआ घृत गिर न जाये। जुहू से आहुतियाँ दी जाती हैं।

  1. 2. उपभृत्-यह अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष की होती है। इसका आकार और परिमाण जुहू के समान होता है।
  2. 3. ध्रुवा-यह विकंकत वृक्ष की होती है। यह भी जुहू के समान होती है।
  3. 4. अग्निहोत्रहवणी-यह भी विकंकत वृक्ष की होती है और जुहू के सदृश है। इससे अग्निहोत्र किया जाता है।
  4. 5. श्रुव, 6. कूर्च, 7. वज्र उलूखल, 9. मुसल, 10. शूर्प, 11. कृष्णाजिन, 12. दृषद्-उपल, 13. इडापात्री, 14. आसन, 15. योक्त्र, 16. पुरोडाश पात्री, 17. शृतावदान, 18. प्राशित्र हरण, 19. षडवत्त, 20. अन्तर्धान कट, 21. उपवेश, 22. रज्जु 23. शङ्कु 24. पूर्णपात्र, 25. प्रणीता पात्र, 26. आज्यस्थाली, 27. चरूस्थाली, 28. अन्वाहार्यपात्र, 29. अभ्रि, 30. अरणी, 31. चात्र, 32. प्राक्षणी, 33. पिष्टपात्री, 34. शया, 35. ओवली, 36. नेत्री, 37. इध्म, 38. परिधि, 39. सामिधेनी-समित् 40. समीक्षण, 41. मदन्तीपात्र, 42. मेक्षण, 43. पिष्टलेप पात्र, 44. फलीकरण पात्र, 45. शकट (गाड़ी),46. कपाल, 47. कुशा, 48. व्रीहि वा यव, 49. आज्य आदि। ये इतने सारे उपकरण राजसूय आदि यज्ञों में काम आते हैं। इन सबका वर्णन पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने ‘श्रौतयज्ञों का संक्षिप्त परिचय’ पुस्तक में किया है। इन तथाकथित स्वराज यज्ञ करने वालों को इसकी विधि, समय, उपकरण तथा इसे कौन कर सकता है-इत्यादि ज्ञान मुझे नहीं लगता कि इनको होगा। नाम सुन लिया स्वराज यज्ञ और जहाँ कहीं वेद मन्त्र में स्वराज शबद आया, उसको देख शुरू हो गये होंगे, जबकि स्वराज नाम का कोई यज्ञ है ही नहीं। हाँ, स्वराज्य की कामना से राजसूय यज्ञ व वाजपेय यज्ञ का विधान तो है, जिनका ऊपर वर्णन किया है।

जिस स्वराज्य यज्ञ के विषय में आपने पूछा है, इस प्रकार के यज्ञ से तो स्वराज की प्राप्ति होने वाली है नहीं। स्वराज की प्राप्ति यज्ञ से नहीं, इसकी प्राप्ति तो बल से होती है, नीति से होती है, संगठन से होती है, हवन करने मात्र से नहीं होती। यदि इससे ही यह प्राप्ति होती तो सेना, गुप्तचर विभाग, न्याय पालिका आदि को छोड़ यह यज्ञ ही कर लिया जाये। हाँ, स्वराज्य की प्राप्ति जो शास्त्र में कही है, वह प्राप्ति राजसूय यज्ञ करने से अवश्य होती है, क्योंकि इसको करने वाला समर्थ राजा होता है, जिसका एक सुदृढ़ राज्य होता है, वह स्वराज्य-चक्रवर्ती राज्य की प्राप्ति के लिए राजसूय यज्ञ करता है तो उसको यह उपलबधि होती है, इसका उदाहरण महाभारत में है, जिस यज्ञ के करने से महाराजा युधिष्ठिर चक्रवर्ती सम्राट् हो गये थे।

अधिक विस्तार न करते हुए अन्त में यही कहूँगा कि जो अपने पूछा, इसको करने वाले आधा अधूरा ज्ञान रखने वाले होते हैं, ऐसे लोग शास्त्र को देखते नहीं और किसी का भी पढ़ा-सुना लेकर प्रवृत्त हो जाते हैं। आर्य समाज के लिए हितकर यही है कि अपनी-अपनी मनमर्जी न चलाकर संगठित हों तथा अपनी कार्य प्रणाली व व्यवहार में एक रूपता लायें कि जिससे ऋषियों का गौरव बढ़े और समस्त प्राणी मात्र का कल्याण हो। अस्तु!

– सोमदेव, ऋषिउद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

 

हम रोजाना यह सुनते हैं लोगों से कि हर कार्य परमात्मा की इच्छा से होता है। उसकी मर्जी के बगैर पत्ता तक नहीं हिलता और हर एक प्राणी की आयु निश्चित है। क्या यह तथ्य सही है?

हम रोजाना यह सुनते हैं लोगों से कि हर कार्य परमात्मा की इच्छा से होता है। उसकी मर्जी के बगैर पत्ता तक नहीं हिलता और हर एक प्राणी की आयु निश्चित है। क्या यह तथ्य सही है?

समाधान:- 

कुछ बातें अन्धश्रद्धा एवं अतिरेक में ऐसे बोल दी जाती हैं, जिन बातों को साधारण लोग सुनते हैं तो उनको अच्छा और ठीक लगता है। ये अच्छी और ठीक लगने वाली बातें सिद्धान्ततः गलत होती हैं। ऐसी ही यह बात है कि ‘‘परमात्मा की इच्छा के बिना पत्ता तक नहीं हिलता।’’ यह कहना नितान्त वेद विरुद्ध है। यदि ऐसा ही मानने लग जायें तो कर्मफल सिद्धान्त खण्डित होगा, क्योंकि जो कुछ संसार में कर्म होगा, वह परमात्मा की इच्छा से होगा और जिसकी इच्छा से कर्म हो रहा है तो फल भी उसी को मिलना चाहिए, अर्थात् जीव को अच्छे-बुरे का फल न मिलकर परमात्मा को मिलना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं है।

इसलिए जो कर्म जीवात्मा करता है, वह अपनी इच्छा से करता है, न कि सर्वथा परमात्मा की इच्छा से, इसलिए कर्मों का फल भी कर्म करने वाला जीवात्मा ही भोगता है। यदि ऐसा सिद्धान्त मान कर चलने लग जायें तो संसार में जो एक दूसरे के प्रति अन्याय करते हैं, जैसे किसी ने चोरी की, हत्या की, अपमान किया आदि करने पर ऐसा करने वाले को दण्ड भी नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि यह कर्म उसने अपनी इच्छा से न करके ईश्वर की इच्छा से किया है, इसलिए यह व्यक्ति दण्ड का भागी नहीं होना चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं होता अर्थात् अपराधी को दण्ड दिया जाता है, इसलिए यह कहना कि ‘‘सब काम परमात्मा की इच्छा से होते हैं’’ गलत है।

महाभारत के अतिरिक्त और ग्रन्थों में वर्णित, यह मणि क्या वस्तु है और इसकी क्या चमत्कार थे

महाभारत के अतिरिक्त और ग्रन्थों में वर्णित, यह मणि क्या वस्तु है और इसकी क्या चमत्कार थे विस्तार से बताने का कष्ट करें।

समाधान- (ख) महाभारत के अतिरिक्त मणि की चर्चा पढ़ने में नहीं आयी। हाँ, स्फटिक मणि की चर्चा दर्शन शास्त्र में आयी है, किन्तु यह कोई चमत्कारी मणि नहीं है और न ही कोई इस प्रकार की मणि होती है। मणि का अर्थ बहुमूल्य कांतियुक्त पत्थर, रत्न, जवाहिर आदि ही है। जैसे पारस पत्थर की कथा गढ़ रखी है कि पारस पत्थर लोहे को सोना बना देता है जो कि यह बात सर्वथा झूठ है। महर्षि दयानन्द इस विषय में कहते हैं- ‘‘पारसमणि पत्थर सुना जाता है यह बात तो झूठी है…..।’’ सं. प्र. 11 इसी प्रकार यह मणि वाली कथाएँ गढ़ी हुई हैं।

‘‘योगेश्वर कृष्ण पुस्तक’’ में जो एक अरब सेना वाली बात वह असमभव ही है, क्योंकि यहाँ की जनसंखया भी कुल इतनी नहीं थी। यह बात कहीं के पुराण से ली गई लगती है। पं. चमूपति जी का इस पुस्तक को लिखने का मुखय प्रयोजन अवतारवाद का खण्डन करना था। श्री कृष्ण ईश्वर के अवतार नहीं थे, अपितु वे एक योगी पुरुष, नीतिज्ञ, अत्यन्त प्रतिभा समपन्न महापुरुष थे यह सिद्ध करना पं. चमूपति का उद्देश्य था।

द्रौपदी किस पाण्डव की पत्नी थी और उसके पाँच पुत्र किसी एक के थे या उसके अतिरिक्त?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा मान्यवर,

कृपया महाभारत में वर्णित नीचे लिखी शंकाओं का समाधान परोपकारी द्वारा प्रदान करवायें-

द्रौपदी किस पाण्डव की पत्नी थी और उसके पाँच पुत्र किसी एक के थे या उसके अतिरिक्त?

समाधान– (क) भारतीय इतिहास को विदेशी वा अपने ही स्वार्थी देशी लोगों ने बहुत कुछ बिगाड़ा है। वर्तमान की संतति अपने इतिहास से प्रेरणा लिया करती है, अपने इतिहास पुरुषों को अपना आदर्श माना करती है। उनके आदर्शों को अपने जीवन में धारण कर उन इतिहास पुरुषों की भाँति अपने जीवन को सफल बना लेती है। किसी भी देश का इतिहास उस देश की अमूल्य धरोहर के रूप में उस देश की संस्कृति होती है। हमारे देश का इतिहास समपूर्ण विश्व में सर्वाधिक गौरवशाली रहा है। हमारे इस गौरव को सहन न करने के कारण विदेशी लोगों ने विशेषकर अंग्रेजों ने हम भारतीयों को नीचा दिखाने के लिए और अपनी प्रभुसत्ता बनाए रखने के लिए हमारे इतिहास को विकृत कर दिया। इसी विकृत इतिहास का पोषण अंग्रेजों से प्रभावित जवाहरलाल नेहरू जैसे लोगों ने किया, जो कि हमारी वर्तमान पीढ़ी के लिए घृणा व हास्य का विषय बन गया।

इतिहास प्रदूषण का कार्य केवल अंग्रेज वा अंग्रेज भक्तों ने ही नहीं किया, अपितु स्वार्थी विषय लोलुप, धनलोलुप तथा-कथित विप्रवर्ग ने भी किया। आज हम किसी भी प्राचीन शास्त्र को उठाकर देखते हैं तो कहीं न कहीं उन शास्त्रों में वेदविरुद्ध बातों का प्रक्षेप मिल ही जाता है। आज ‘मनुस्मृति’ जैसे मानव संविधान के ऊपर एक वर्ग विशेष अपना रोष प्रकट क्यों कर रहा है, क्योंकि इस ग्रन्थ में स्वार्थी पोपों ने मिलावट कर रखी है। उस मिलावट के कारण वह वर्ग विशेष मनु को अपना विरोधी मानता है। यथार्थता तो यह है कि यदि यह वर्ग विशेष पक्षपात रहित होकर इस ग्रन्थ को पढ़े तो उनको यह ग्रन्थ व्यक्तिगत व सामाजिक व्यवस्था और उन्नति का सर्वोत्तम ग्रन्थ दिखेगा।

सबसे अधिक प्रदूषण (मिलावट) महाभारत में हुआ लगता है। उस विषय में महर्षि दयानन्द ने लिखा-‘‘यह बात राजा भोज के बनाये संजीवनी नामक इतिहास में लिखी है………. उसमें स्पष्ट लिखा है कि व्यासजी ने चार सहस्र चार सौ, और उनके शिष्यों ने पाँच सहस्र छः सौ श्लोकयुक्त अर्थात् मात्र दस सहस्र श्लोकों के प्रमाण का ‘भारत’ बनाया था। वह महाराजा विक्रमादित्य के समय में बीस सहस्र, महाराजा भोज कहते हैं कि मेरे पिताजी के समय में पच्चीस और अब मेरी आधी उमर में तीस सहस्र श्लोकयुक्त ‘महाभारत’ की पुस्तक मिलती है। जो ऐसे ही बढ़ता चला गया तो ‘महाभारत’ की पुस्तक एक ऊँट का बोझा हो जायेगा।’’ सं. प्र. 11

वर्तमान में महाभारत लगभग एक लाख श्लोक युक्त मिलता है अर्थात् लगभग नव्वे हजार श्लोकों की मिलावट। इतनी मिलावट होने पर वास्तविक तथ्यों को निकालना कठिन हो जाता है। आपने जो द्रौपदी के विषय में पूछा है हम यहाँ महाभारत के ही साक्ष्य देते हुए लिख रहे हैं कि द्रौपदी पाँच पतियों वाली नहीं थी, द्रौपदी एक पति की पत्नी थी। महाभारत के आदि पर्व के 32 वें अध्याय में लिखा है-

तमब्रवीत् ततो राजा धर्मात्मा च युधिष्ठिर।

ममापि दारसबन्धः कार्यस्तावद् विशापते।।

– 1.32.49

तब धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर ने उनसे कहा- राजन्! विवाह तो मेरा भी करना होगा।

भवान् वा विधिवत् पाणिं गृह्णातु दुहितुर्मम।

यस्य वा मन्यसे वार तस्य कृष्णामुपादिश।।

– 1.32.50

अर्थात् द्रुपद बोले- हे वीर! तब आप ही विधि पूर्वक मेरी पुत्री का पाणिग्रहण करें अथवा आप अपने भाइयों में से जिसके साथ चाहे, उसी के साथ कृष्णा को विवाह की आज्ञा दे दें।

ततः समाधाय स वेदपारगो जुहाव मन्त्रैर्ज्वलितं हुताशनम्।

युधिष्ठिरं चाप्युषनीय मन्त्रविद्नियोजयामास सहैव कृष्णया।।

– 1.32.51

वैशपायनजी कहते हैं- द्रुपद के ऐसा कहने पर वेद के पारंगत विद्वान् मन्त्रज्ञ पुरोहित धौय ने वेदी पर प्रज्वलित अग्नि की स्थापना करके उसमें मन्त्रों द्वारा आहुति दी और युधिष्ठिर को बुलाकर कृष्णा के साथ उनका गठबन्धन कर दिया।

प्रदक्षिणं तौ प्रगृहीतपाणिकौ समातयामास स वेदपारगः।

ततोऽयनुज्ञाय तमाजिशोभिनं पुरोहितो राजगृहाद् विनिर्ययौ।।

– 1.32.52

वेदों के पारंगत विद्वान् पुरोहित ने उन दोनों का पाणिग्रहण कराकर उनसे अग्नि की प्रदक्षिणा करवाई, फिर (अन्य शास्त्रोक्त विधियों का अनुष्ठान कराके) उनका विवाह कार्य सपन्न कर दिया। तत्पश्चात् संग्राम में शोभा पाने वाले युधिष्ठिर को अवकाश देकर पुरोहित जी भी उस राजभवन से बाहर चले गये।

महाभारत के इस पूरे प्रकरण से ज्ञात हो रहा है कि द्रौपदी का पाणिग्रहण अर्थात् विवाह संस्कार केवल युधिष्ठिर के साथ हुआ था। अर्थात् द्रौपदी का पति युधिष्ठिर ही थे न कि पाँचों पाँडव।

स्वामी जगदीश्वरानन्द जी ने आदि पर्व के इक्कतीसवें अध्याय के श्लोक 34-35 के अर्थ करने पर टिप्पणी की है- ‘‘जो लोग द्रौपदी के पाँच पति मानते हैं वे इस स्थल को ध्यानपूर्वक पढ़ें। यहाँ माता चिन्तित हो रही है कि मेरे पुत्र अभी तक क्यों नहीं लौटे? उन्हें पहचान तो नहीं लिया गया है?’’

इसके अतिरिक्त एकचक्रा नगरी में ब्राह्मण से द्रौपदी के स्वयंवर की बात सुनकर जब पाँचों पाण्डव उद्विग्न से हो गये थे, तब माता ने स्वयं ही वहाँ जाने का प्रस्ताव रखा था। मार्ग में व्यास जी ने भी पांचाल नगर में जाने की सममति दी थी। स्वयं माता को यह पता है कि मेरे पुत्र स्वयंवर में गये हैं। स्वयंवर की शर्त पूर्ण होते ही युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव माता को सूचना देने के लिए तुरन्त घर आ गये हैं। (यह बात महा. 1.30.36 में स्पष्ट कही गई है) भीम और अर्जुन द्रौपदी को लेकर अनेक ब्राह्मणों के साथ घर पर आये हैं। इन सब प्रसङ्गों के ध्यानपूर्वक अवलोकन से यह स्पष्ट है कि न तो पाण्डवों ने यह कहा था कि हम भिक्षा लाये हैं और न कु न्ती ने यहा कहा कि पाँचों बाँट लो। द्रौपदी को पाँचों की पत्नी बनाने वाला सारा प्रकरण महाभारत में पीछे से मिलाया गया है । द्रौपदी पाँचों पाण्डवों की पत्नी नहीं थी। यद्यपि स्वयंवर की शर्त अर्जुन ने पूर्ण की थी, परन्तु द्रौपदी का विवाह युधिष्ठिर के साथ हुआ था। वह युधिष्ठिर और केवल युधिष्ठिर की पत्नी थी।’’

इस सब मिलावट से प्रतीत हो रहा है कि जो कौम अपने महापुरुषों को लांछित करने में लगी हो, वह कैसे बच पायेगी? श्री कृष्ण, महादेव, विष्णु आदि के चरित्र को कितना गिरा हुआ पुराण आदि ग्रन्थों में दिखाया गया है। ये सब महापुरुष उत्तम चरित्र वाले थे, किन्तु इन उत्तम चरित्र वाले महान् पुरुषों को भी बदनाम करने में कल्पित कथाकारों ने कमी नहीं छोड़ी। ऐसे माता द्रौपदी को भी पाँच पतियों वाली कहकर बदनाम ही किया है।

यह इतना सारा लिखने का प्रयोजन यही है कि हम अपने शास्त्रों, इतिहास ग्रन्थों से मिलावट को दूर कर दें और अपने महापुरुषों पर लगाये हुए लांछनों को हटा दें तो कोई भी विधर्मी अपनी धर्म पर गर्वोक्ति नहीं कर सकता है और न ही इस हिन्दू कौम को नीचा दिखा सकता।

आपने जो द्रौपदी के पाँच पुत्रों के विषय में पूछा है कि वे किसके थे? इसका स्पष्ट वर्णन तो हमें महाभारत में प्राप्त नहीं हुआ मिलावट युक्त में तो अवश्य पाँचों पुत्रों को एक-एक पाण्डव का कहा है, किन्तु युक्ति से तो यही स्पष्ट हो रहा है वे पुत्र युधिष्ठिर के ही होंगे, क्योंकि द्रौपदी युधिष्ठिर की ही पत्नी थी।

 

पुस्तक – समीक्षा पुस्तक का नाम – साहित्यिक जीवन की यात्रा

पुस्तक – समीक्षा

पुस्तक का नाम साहित्यिक जीवन की यात्रा

लेखक राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

प्रकाशक वेद प्रचारिणी सभा, चामधेड़ा, डा. वेरी, महेन्द्रगढ़, हरियाणा।

पृष्ठ 240    मूल्य – 200/- रु. मात्र

जीवन-यात्रा तो सभी प्राणी कर रहे हैं, किन्तु यह जीवन की यात्रा मनुष्य अपने ढंग से करता है। मनुष्य से इतर प्राणियों की जीवन-यात्रा को परमेश्वर ने निर्धारित कर रखा है। वे प्राणी अपनी यात्रा में कुछ विशेष नवीनता या परिवर्तन नहीं ला सकते, किन्तु मनुष्य के साथ ऐसा नहीं है। मनुष्य अपनी यात्रा को विशेष भी बना सकता है, उसमें नवीनता, तीव्रता भी ला सकता है।

संसार में मनुष्य की जीवन यात्रा के अनेक रूप देखने को मिलते हैं कोई अपनी यात्रा को परोपकार करते हुए करता है तो कोई अपने स्थार्थ को सिद्ध करने में और परहानि में ही अपनी यात्रा करते हुए जीवन व्यर्थ कर देता है। कोई अपने में ही सन्तुष्ट रहकर अपने जीवन को काट रहा होता है, ऐसा व्यक्ति न तो अपनी उन्नति करता है और न ही समाज की उन्नति करता है। ऐसे व्यक्ति की यात्रा भी व्यर्थ ही हो जाती है।

जीवन-यात्रा तो उसकी सफल व संतोषजनक होती है जो अपने जीवन को ठीक रखते हुए समाज को बहुत कुछ देता रहता है। जीवन की यात्रा करते हुए कोई देश की रक्षा में सहयोग करता है, कोई वैज्ञानिक बनकर मनुष्यों के लिए विशेष साधनों को उपलध करवा देता है, कोई चिकित्सक बनकर सेवा करता है, इसी प्रकार अन्य-अन्य कार्य करके व्यक्ति समाज की सेवा करता हुआ अपनी यात्रा को सफल बना रहा होता है। संसार के विभिन्न लोकोपकारक कार्य में एक कार्य ‘‘साहित्य सृजन’’ का भी है। जो व्यक्ति संसार को जितना उपयोगी साहित्य देता है, वह व्यक्ति उतना ही अपनी जीवन-यात्रा को परिष्कृत कर लेता है।

आर्य जगत् में साहित्य सृजन करने वाले, वह भी मौलिक साहित्य का सृजन करने वाले पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जैसे योग्य विद्वान् अनेक हुए हैं। आज आर्य समाज को सबसे अधिक साहित्य को देने वाले साहित्य रचनाकार पं. गंगाप्रसाद उपाध्यायजी के मानस पुत्र आर्य समाज के इतिहास के रक्षक, ऋषि व आर्य समाज के प्रति जीवन समर्पित व्यक्ति, लेखनी व विचारों के धनी, आर्य समाज के पूर्वजों के प्रति कृतज्ञ भाव रखने वाले, जिनकी लेखनी आज भी ऋषि दयानन्द और आर्य समाज के लिए समर्पित है, जिनकी तड़प-झड़प आर्यों को नई जानकारी व उत्साह देने वाली है-ऐसे साहित्यकार प्रा. राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’ हैं। मान्यवर जिज्ञासु जी ने पूरा जीवन साहित्य रचने में लगाया है। अपने इस साहित्यिक जीवन की जानकारी सभी पाठक पा सकें-इसके लिए एक नई पुस्तक लिख डाली, जिसका नाम ही ‘‘साहित्यिक जीवन की यात्रा’’ है। इस पुस्तक में मुखय रूप से लेखक ने अपने साहित्यिक जीवन को दर्शाया है। पुस्तक को पढ़ने पर पाठक अनुभव करेंगे कि लेखक ने अपना जीवन कैसे लेखनी कोसमर्पित किया। बाल्यकाल से लिखना आरमभ कर आज पर्यन्त लिख रहे हैं। पाठक पुस्तक पढ़कर लेखक पर गर्व करेंगे कि लेखक की लेखनी किसी प्रलोभन वा किसी के दबाव में आकर बिकी नहीं। लेखनी सत्य ही लिखती चली गई, विशुद्ध इतिहास की सुरक्षा करती चली गई।

आज वर्तमान में बिकाऊ लेखक बहुत मिल जाते हैं। ऐसे बिकाऊ लेखक साहित्य में सत्य का गला घोटने वाले होते हैं, और ऐसे बिकाऊ लेखकों ने गला घोंटा भी है, किन्तु मान्यवर राजेन्द्र जिज्ञासु जी प्रलोभन से परे होकर सत्य की रक्षा करते रहे हैं। पुस्तक से पाठक जिज्ञासु जी के इस जीवन का दर्शन करेंगे। इतिहास का प्रदूषण हुआ, योजना बद्ध रीति से किया गया उस प्रदूषण का कैसे भण्डाफोड़ लेखक ने किया और यथार्थ में क्या था, यह जानकारी इस जीवन-यात्रा पुस्तक में मिलेगी।

जब ऋषि दयानन्द को विष देने वाली बात को षड्यन्त्र पूर्वक झूठलाने की योजना बनी, तब लेखक ने अनेक प्रमाण पूर्वक लेख लिखे, विद्वानों के प्रमाण उन्हीं के लेखों से खोज-खोजकर सत्य को प्रतिपादित किया, जिससे इतिहास प्रदूषकों की बोलती बंद हुई, यह विस्तार पूर्वक पाठक इस पुस्तक से प्राप्त करेंगे। लेखक ने इस साहित्यिक यात्रा में कितना अपना धन, बल व अमूल्य समय लगाया है, साहित्य सृजन के लिए कहाँ-कहाँ गये, कितने कष्ट उठाते हुए भी ऋषि की धुन में उनको कष्ट माना ही नहीं-यह जानकारी पुस्तक देगी। मुझे लगता है कि मैं पुस्तक परिचय कराते हुए अधिक विस्तार की ओर चला गया। अब यहाँ पुस्तक को क्यों पढ़ें-वे कुछ बिन्दु यहाँ दे रहा हूँ कि वे बिन्दु स्वयं लेखक ने लिखे हैं-

  1. आर्य सामाजिक साहित्य के इतिहास में यह अपने विषय की पहली पुस्तक है। एक बार आरमभ करने पर इसे समाप्त करके ही पाठक इसे छोड़ेगा। इसकी रोचकता की साक्षी पाठक का हृदय देगा।
  2. सार्वजनिक जीवन के सत्तर वर्षों को लेखक ने अपने गुणी विद्वानों से बहुत कुछ सीखा है। ऐसे सब संन्यासी, महात्माओं, विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों, लेखकों, गवेषकों तथा अपने पाठकों को भी लेखक अपना निर्माता मानकर उनसे सीखने के छोटे-छोटे प्रेरक प्रसंगों की माला पिरोकर पाठकों को विनम्रता से भेंट कर रहा है। नई पीढ़ी इसके पारायण से बहुत कुछ सीख सकती है।
  3. सभवतः किसी साहित्यकार ने प्रथम बार अपने इतने निर्माताओं के प्रति कृतज्ञता का प्रकाशन किया है।
  4. इस समय आर्य जगत् में ऐसा दूसरा व्यक्ति कोई नहीं मिलेगा, जिसको बहुत छोटी आयु में बड़े-बड़े महापुरुषों, बलिदानियों, ज्ञानियों के चरणों में बैठकर कुछ सीखने व आशीर्वाद पाने का सौभाग्य प्राप्त रहा हो। पूर्व पश्चिम, उत्तर और दक्षिण के इतने विद्वानों के सपर्क में और कौन आया? इतने नाम और कौन गिना सकता है? उनके छोटे बड़े रोचक प्रसंग इस पुस्तक की विशेषता हैं।
  5. नई-नई खोज करने, अलय स्रोतों की खोज में मन में मौज आयी, झोला उठाकर यात्रा को लेखक चल पड़ा। किसी को चिट्ठी-पत्री का, मार्ग-व्यय का कभी कोई बिल नहीं दिया।
  6. स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज ने अपने देहत्याग से पूर्व जो पाँच-दस मिनट का उपदेश-आदेश दिया, लेखक उसे महाराज का अन्तिम दीक्षान्त भाषण घोषित करता है। स्वामी जी के इस संक्षिप्त दीक्षान्त भाषण का हृदयस्पर्शी वर्णन इस पुस्तक का अनूठा संदेश है।
  7. कुछ करने व बनने की जिनमें चाह है, उत्साह है, वे उसे अवश्य पढ़े।

दस परिच्छेदों में विभक्त यह पुस्तक लेखक के साहित्यिक जीवन यात्रा का वर्णन करने में अपने अन्दर एक खजाना लिए हुए है। दसवें परिच्छेद में पाठक कुछ विशेष पत्रों को पढ़ेंगे, जिन पत्रों से पाठकों को नये रहस्यों का पता चलेगा। दृढ़ बन्धन, सुन्दर आवरण, कागज व छपाई से युक्त यह पुस्तक पाठकों का ज्ञान वर्धन करेगी। आर्य समाजें, गुरुकुल व आर्य भद्रपुरुष इस पुस्तक विशेष को प्राप्त कर लेखक के साहित्यिक जीवन का अवश्य परिचय प्राप्त करेंगे-इसी आशा के साथ-

– आचार्य सोमदेव, ऋषि उद्यान, अजमेर।