Tag Archives: pustak naam vyakhayaanak shatak

पुस्तक – परिचय पुस्तक का नाम- व्याख्यान शतक

पुस्तक – परिचय

पुस्तक का नाम व्याख्यान शतक

लेखक स्वामी देवव्रत सरस्वती

प्रकाशकआर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली, १५, हनुमान रोड़, नई दिल्ली-१

पृष्ठ ५५८      मूल्य- ३५० रु. मात्र

मानव का ज्ञानवर्धन देखकर, सुनकर और पढ़कर होता है। जो व्यक्ति जितना वैदिक विचार धारा को सुनता और पढ़ता है उसका ज्ञान अधिक परिमार्जित होता है। ऐसा परिमार्जित ज्ञान वाला यदि उपदेशक बन जाता है, तो वह समाज का अधिक भला करता है। आज वर्तमान में हजारों उपदेशक हैं, उन उपदेशकों में से वैदिक ज्ञान परम्परा वालों को छोड़कर जितने उपदेशक हैं, वे समाज के अविद्या अन्धकार दूर करने की अपेक्षा बढ़ा रहे हैं। हजारों की संख्या में कथाकार कथाएँ कर रहे हैं, इन कथाकारों का सिद्धान्त निष्ठ न होने से समाज में अन्धविश्वास और पाखण्ड बढ़ रहा है। हाँ, जो वैदिक सिद्धान्त को ठीक से जानते हैं, वे समाज की अविद्या पाखण्ड को दूर कर पुण्य के भागी बन रहे हैं।

समाज में यदि उपदेशक ठीक है और उपदेश सुनने वाले ठीक हैं तो समाज की व्यवस्था भी ठीक होती है और यदि उपदेशक ठीक नहीं व उपदेश सुनने वाले ठीक नहीं तो सामाजिक व्यवस्था भी बिगड़ जाती है।

आजकल का उपदेशक वर्ग प्रायः स्वाध्याय कम करता है, कर रहा है। वह किसी अन्य उपदेशक द्वारा सुनी हुई बात को इधर से उधर करता है या वही अपनी पुरानी बातें दोहरा देता है, जिससे उसके उपदेशों में रोचकता का अभाव होता जाता है। हाँ, जो उपदेशक निरन्तर स्वाध्यायशील रहते हैं, उनके उपदेश भी नवीन व रोचक होते हैं।

जो उपदेशक विभिन्न प्रकार के व्याख्यान देने में निपुण होते हैं, वे अधिक लोकप्रिय होते हैं। विभिन्न विषयों पर उपदेशक व्याख्यान दे सके, उनकी सरलता के लिए आर्य जगत् के मूर्धन्य संन्यासी, शस्त्र व शास्त्र के ज्ञाता, विद्या के धनी स्वामी देवव्रत जी ने ‘‘व्याख्यान शतक’’ नामक पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में वेद, योग, धर्म, सिद्धान्त, आर्यसमाज, आर्यवीर, युवक, महापुरुष आदि विषयों पर एक सौ एक व्याख्यान लिपिबद्ध किये हैं। वेद विषय पर १५, योग विषय पर १५, धर्म विषय पर १२, सिद्धान्त विषय पर ११, आर्यसमाज विषय पर १७, आर्यवीर विषय पर ७, युवक विषय पर ११, महापुरुष विषय पर ५ और विविध विषयों पर ८ व्याख्यान लिखे हैं। प्रत्येक व्याख्यान प्रमाणों, युक्ति तर्कों से युक्त अपने आपमें पूर्णता लिए हुए हैं। व्याख्यानों में वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद्, गीता, महाभारत, बाल्मीकि रामायण, रामचरितमानस, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, कौटिल्य अर्थशास्त्र, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, योगदर्शन, सांख्य दर्शन, सत्यार्थ प्रकाश, नीतिशतक, योगवाशिष्ठ, विदुर नीति, हठयोग प्रदीपिका, धेरण्ड संहिता, गोरक्ष संहिता, चाणक्य नीति, नारद भक्ति सूत्र व हरिहर चतुंग आदि ग्रन्थों के प्रमाण दिये गये हैं। यदि उपदेशक वर्ग इस पुस्तक के व्याख्यानों को पढ़कर व्याख्यान देगा तो उसका व्याख्यान विद्वत्तापूर्ण तो होगा ही, साथ में लोगों का ज्ञानवर्धन करने वाला व रोचकता युक्त भी होगा।

पुस्तक में विद्वान् लेखक ने अपने मनोभाव प्रकट किये हैं-‘‘अज्ञान मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। ज्ञान के अभाव में मनुष्य कर्त्तव्याकर्त्तव्य का निर्णय नहीं कर पाता, जिसके कारण ‘‘अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः’’ जैसे एक अन्धे के पीछे जाने वाले दूसरे अन्धे व्यक्तियों की गड्ढ़े में गिरने की पूरी सम्भावना रहती है, वैसी ही अवस्था अविद्याग्रस्त लोगों की होती है। अविद्या की पृष्ठभूमि में ही अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश के बीज पनपते हैं। सीधे, भोले और अज्ञानी लोगों को कोई भी अपने वाग्जाल में फँसाकर दिग्भ्रमित बहुत सरलता से कर सकता है, इसलिए विद्याध्ययन की समाप्ति पर समावर्तन संस्कार के समय आचार्य स्नातकों को प्रेरणा देते हुए कहता था, ‘‘स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्’’ स्वाध्याय और प्रवचन में कभी प्रमाद नहीं करना। स्वाध्याय और प्रवचन सबसे बड़ा तप है, जो प्रतिदिन एक वेदमन्त्र या उसका आधा अथवा चतुर्थ भाग का स्वाध्याय करता है, मानो उसने नख से शिख तक तप कर लिया।’’

इस ‘‘व्याख्यान शतक’’ पुस्तक लिखने की प्रेरणा के विषय में लेखक लिखते हैं-‘‘व्याख्यान शतक’’ लिखने की प्रेरणा आर्यसमाज की दो विभूतियों से मिली। पं. लेखराम जी की अन्तिम इच्छा थी कि आर्यसमाज से तकरीर (व्याख्यान) और तहरीर (लेखन) कभी बंद नहीं होने चाहिए। एक दिन शास्त्रार्थ महारथी पं. गणपति शर्मा चूरु (राजस्थान) का लेख किसी आर्यसमाज के पुस्तकालय में देखने को मिला। आदरणीय पण्डित जी ने उस जैसे एक सौ लेखों की व्याख्यान शतक पुस्तक लिखने की इच्छा प्रकट की थी। इन दोनों दिग्गज पण्डितों ने पौराणिकों व अन्य मतानुयायियों के साथ शास्त्रार्थ कर आर्य समाज की विजय दुन्दुभी बजाई थी।……………मैं श्रद्धा से उनको नमन करता हूँ।

विशेष महापुरुषों से प्रेरित होकर लिखी गई यह पुस्तक आर्य जगत् के उपदेशक वर्ग व अन्यों के लिए महत्त्वपूर्ण है। गुरुकुलों के छात्र यदि इन व्याख्यानों को पढ़ समझकर व्याख्यान देने का अभ्यास करेंगे तो वे आगे चलकर उच्चकोटि के वक्ता बन जायेंगे।

दृढ़ जिल्द, सुन्दर आवरण, कागज व छपाई से युक्त यह पुस्तक स्वाध्याय प्रेमी व उपदेशक वर्ग को हर्ष देने वाली होगी। स्वाध्यायशील व वक्ता लोग इस पुस्तक को प्राप्त कर लेखक व प्रकाशक के श्रम को सफल करेंगे, इस आशा के साथ –आचार्य सोमदेव ऋषि उद्यान, अजमेर