मन में बार-बार एक प्रश्न आता है कि क्या हम वेद मन्त्रों के अलावा श्लोक, सूत्र आदि से भी आहुति दे सकते हैं? यदि नहीं तो स्वामी जी ने गृहसूत्रों से भी आहुतियाँ दिलायी हैं, जैसे-अयं त इध्म (आश्व.गृ.) अग्नये स्वाहा, सोमाय स्वाहा (गो.गृ.) भूर्भुवः स्वरग्नि.. (तैत्तिरीय आ.) आपोज्योतिः…(तैत्तिरीय आ.) यदस्य कर्मणो…(आश्व.गृ.) ये तो शतं वरुण.. (कात्या.श्रो.) अयाश्चाग्ने….(कात्या.श्रो.)। तो क्या इसी प्रकार अन्य गृह सूत्रों के मन्त्रों से भी आहुतियाँ दे सकते हैं? जैसे वैदिक छन्दों को मन्त्र कहा जाता है, वैसे ही गृह सूत्रों स्मृतियों के श्लोकादि को भी मन्त्र कहा जा सकता है। यदि मन्त्र नाम विचार का है तो श्लोकादि में भी विचार हैं।

– आचार्य सोमदेव

आदरणीय सम्पादक जी, सादर नमस्ते!

मन में बार-बार एक प्रश्न आता है कि क्या हम वेद मन्त्रों के अलावा श्लोक, सूत्र आदि से भी आहुति दे सकते हैं? यदि नहीं तो स्वामी जी ने गृहसूत्रों से भी आहुतियाँ दिलायी हैं, जैसे-अयं त इध्म (आश्व.गृ.) अग्नये स्वाहा, सोमाय स्वाहा (गो.गृ.) भूर्भुवः स्वरग्नि.. (तैत्तिरीय आ.) आपोज्योतिः…(तैत्तिरीय आ.) यदस्य कर्मणो…(आश्व.गृ.) ये तो शतं वरुण.. (कात्या.श्रो.) अयाश्चाग्ने….(कात्या.श्रो.)। तो क्या इसी प्रकार अन्य गृह सूत्रों के मन्त्रों से भी आहुतियाँ दे सकते हैं? जैसे वैदिक छन्दों को मन्त्र कहा जाता है, वैसे ही गृह सूत्रों स्मृतियों के श्लोकादि को भी मन्त्र कहा जा सकता है। यदि मन्त्र नाम विचार का है तो श्लोकादि में भी विचार हैं। – विश्वेन्द्रार्य

समाधानः- यज्ञकर्म कर्मकाण्ड है। इस कर्मकाण्ड को ऋषियों ने धर्म के साथ जोड़ दिया है और इसको मनुष्य के कर्त्तव्य कर्मों में अनिवार्य कर दिया। वैदिक युग अर्थात् आज के मत-मतान्तरों से पूर्व के काल में यह कर्म ऋषियों की विशुद्ध परिपाटी से होता था। प्रायः प्रत्येक गृहस्थ पञ्च यज्ञों का अनुष्ठान किया करता था। महाभारत के बाद ऋषि-महर्षियों के अभाव में ब्राह्मण वर्ग ने अपनी मनमर्जी चलाकर कर्मकाण्ड का रूप ही बदल डाला। जो कर्मकाण्ड पवित्र था, जिसके प्रति श्रद्धा थी, उस कर्मकाण्ड को तथाकथित पण्डितों ने अपवित्र कर दिया, अर्थात् ऐसे कर्म उसके साथ युक्त कर दिये जो  मनुष्य के लिए निन्दित थे। इसी कारण जिस कर्म के प्रति श्रद्धा थी, उसके प्रति अश्रद्धा व घृणा पैदा हो गई। परिणाम यह हुआ कि इस पवित्र यज्ञ कर्म से विमुख हो अनेक मत-सम्प्रदाय बनते चले गये और देश समाज का पतन होता चला गया। मनुष्य के नैतिक मूल्य गिर गये, मनुष्य या तो धर्म-कर्म से इतना स्वच्छन्द हुआ कि अपनी मर्यादा को तोड़ बैठा अथवा धर्म-कर्म में इतना बँध गया कि कोई भी कार्य पण्डित से पूछे बिना कर नहीं सकता। वेद, शास्त्र की बात गौण हो गई, तथाकथित पण्डित की बात सर्वोपरि होती चली गई। ऐसा होने से या तो लोग नास्तिक होते चले गये या फिर धर्मभीरु होते गये।

इस नास्तिकता ने और धर्मभीरुता ने मनुष्य समाज को पतन की ओर उन्मुख कर दिया। परमेश्वर की दया हम लोगों पर हुई कि महर्षि दयानन्द का इन सब बातों पर ध्यान गया और इस दूषित वातावरण को उन्होंने दूर किया। महर्षि ने अपने जीवन में ईश्वर और वेद को सर्वोपरि आदर्श माना है। वेद के आधार पर जो भी सुधार हो सकता था, वह महर्षि ने किया और अपने जीवन काल में सुधार करते रहे।

यज्ञ को महर्षि ने जगत् के उपकार के लिए महान् कर्म माना है। यज्ञ कर्म हम ठीक से करें-इसके लिए महर्षि दयानन्द ने पंचमहायज्ञविधि व संस्कार विधि नामक दो पुस्तकें लिखी हैं। इनमें भी संस्कार विधि पुस्तक बाद की है। इसमें महर्षि ने यज्ञ की ठीक-ठीक विधि को दे दिया है। आपने पूछा है कि वेद के मन्त्र के अतिरिक्त किसी श्लोक-सूत्र आदि की आहुति भी दे सकते हैं? इसमें हमारा कहना है कि यदि किसी श्लोक, सूत्र का विनियोग महर्षि अथवा किसी प्रामाणिक विद्वान् ने कर रखा है तो दे सकते हैं, अपनी मनमर्जी से नहीं देना चाहिए। यदि ऐसे ही अपनी मनमर्जी से देने लग गये तो पूर्व की भाँति अर्थात् महाभारत के बाद और महर्षि दयानन्द से पहले जो कर्मकाण्ड का विकृत रूप था, वह होता चला जायेगा, इसलिए जिनका विनियोग महर्षि दयानन्द ने किया है, उन मन्त्र-सूत्रों से आहुति देते रहें। इसमें महर्षि का भी मत है कि जो और अधिक  आहुति देना हो तो – विश्वानि देव सवितर्दुरितानि……इस मन्त्र और पूर्वोक्त गायत्री मन्त्र से आहुति देवें। स.प्र.३

‘‘अधिक होम करने की जहाँ तक इच्छा हो, वहाँ तक स्वाहा अन्त में पढ़कर गायत्री मन्त्र से होम करें।’’ पञ्च महायज्ञविधि। यह विधान महर्षि दयानन्द ने किया है।

आपने कहा कि महर्षि ने गृह सूत्रों आदि से आहुति का विधान किया है, इसमें हमारा कथन है कि वह आर्ष=ऋषिकृत विधि होने से ठीक है। जहाँ जिस प्रसंग के मन्त्र-सूत्रों का विनियोग जिस संस्कार आदि में आवश्यक था, महर्षि ने वह किया है। उनका वह विनियोग उचित है। महर्षि के इस विनियोग को देखकर भी जो कोई किसी अन्य सूत्र, श्लोक से आहुति दिलावे वा देवे सो ठीक नहीं। ऐसी मनमर्जी करने से यज्ञ का विशुद्ध स्वरूप ही बिगड़ जायेगा। मन्त्र मुख्य रूप से मूल वेद संहिताओं का नाम है, वेद में आये कथन को मन्त्र कहते हैं। इसमें यह रूढ़-सा हो गया है। ऐसा होने पर भी ऋषियों के व्यवहार से ज्ञात हो रहा है कि वेद से इतर शास्त्र वचनों को भी मन्त्र नाम से कहा है। जैसे कि आपने भी ‘‘अयं त इध्म……’’ को उद्धृत किया है।

महर्षि ने मन्त्र विचार को कहा है, सो ठीक है। मन्त्र शब्द मन्त्र गुप्त परिभाषणे धातु से सम्पन्न है, जिसका अर्थ ही गुप्त कथन = रहस्य रूप कथन है। इस मन्त्र शब्द से मन्त्री शब्द बना है, मन्त्री अर्थात् मन्त्रणा करने वाला, विचार करने वाला, राजा को विशेष विचार देने वाला अथवा राजा से विशेष मन्त्रणा करने वाला।

मन्त्र नाम विचार का है, इस हेतु को लेकर हम किसी भी श्लोक सूत्र को बोलकर आहुति देने लग जायें सो ठीक नहीं है, क्योंकि विचार केवल सूत्र श्लोक ही नहीं है, विचार तो कुरान की आयतें भी हैं, बाइबल की आयतें भी हैं। उपन्यास और नावेल में लिखी हुई बातें भी विचार ही हैं। चलचित्रों में कहे गये संवाद विचार हैं, तो क्या इनको बोलकर भी यज्ञ में आहुति देने लग जायें? इसको आप भी स्वीकार नहीं करेंगे और न ही कोई अन्य यज्ञप्रेमी स्वीकार करेगा।

इसलिए श्लोक सूत्रादि विचार होते हुए भी हर किसी श्लोक सूत्रादि से आहुति इसलिए नहीं देनी चाहिए, क्योंकि ऋषियों अथवा अन्य प्रामाणिक विद्वानों द्वारा उनका विनियोग हमें प्राप्त नहीं है। हाँ, यदि ऋषियों या किसी प्रामाणिक विद्वान् ने किसी मन्त्र श्लोक सूत्र का यज्ञ में प्रसंग के अनुसार विनियोग कर रखा हो तो उससे आहुति दे सकते हैं, दी जा सकती है।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

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